भारतीय समाज में कई पितृ सत्तात्मक सोच वाली परंपराएं सतत चलती जा रही हैं. देश में नारी स्वतंत्रता व नारी उत्थान के तमाम नारे दिए जा रहे हैं, तमाम उद्घोष हो रहे हैं. मगर हकीकत यह है कि औरतों के हक को लेकर कुछ नही हो रहा है. सारी नारी बाजी ढाक के तीन पात हैं. भारतीय समाज में आज भी शमशान भूमि शमशान घाट पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित है. महिलाएं अपने किसी भी प्रिय पारिवारिक सदस्य या प्रियजन का आज भी ‘दाह संस्कार कर्म’नही कर सकती. उनका अंतिम संस्कार अग्नि नहीं दे सकती. इस मसले पर कोई बात नही करता. यहां तक कि सामाजिक बदलाव का बीड़ा उठाने वाले फिल्मकारों ने भी चुप्पी साध रखी है.
अब तक इस पर किसी ने भी औरतों को यह हक दिलाने या इस मुद्दे पर फिल्म का निर्माण नहीं किया है. मगर अब लॉस एंजेल्स, अमरीका में रह रही करनाल, हरियाणा यानी कि भारतीय मूल की 24 वर्षीय युवा फिल्मकार आस्था वर्मा ने बनारस के घाट पर एक बड़ी फीचर फिल्म की तरह फिल्मायी गयी अपनी बीस मिनट की लघु फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’में पितृसत्तात्मक समाज पर कुठाराघाट करते हुए औरतों को भी ‘दाह संस्कार कर्म’करने का हक दिए जाने की वकालत की है. खुद को भारतीय मानने वाली आस्था वर्मा की फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’को ‘टोपाज इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ सहित पूरे विश्व के करीबन ग्यारह अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में अपना डंका बजाने के साथ ही पुरस्कृत हो चुकी है.
प्रस्तुत है लास एंजेल्स में रह रही आस्था वर्मा से ‘ईमेल’के माध्यम से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. .
फिल्मों से जुड़ने का ख्याल कैसे आया?
-मैं मूलतः करनाल, हरियाणा से हूं. पर मेरी शुरूआती शिक्षा दुबई में हुई. फिर मैं लॉस एजिंल्स आ गयी. पर मैं खुद को भारतीय ही मानती हूं. मेरी जड़े भारत में ही हैं. मैने इंटरनेशनल बिजनेस मैनेजमेंट के अलावा फोटोग्राफी में शिक्षा हासिल की. अपने एक दोस्त के स्कूल की थिसिस में कैमरावर्क करते हुए मैने अहसास किया कि मैं अपनी जिंदगी में फिल्में ही बनाना चाहती हूं. वैसे पढ़ाई करते हुए और फोटोग्राफी सीखते हुए भी मैं लिखने का काम करती रही हूं. मुझे लिखने का शौक काफी छोटी उम्र से रहा है. मैं बचपन से ही हर सप्ताहांत में भारतीय फिल्में देखती रही हूं. और मेरा यह शौक आज भी बरकरार है. सच कहती हूं भारतीय सिनेमा मुझे हमेशा प्रेरणा देता है.
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अब तक आपने कौन सी फिल्में निर्देशित की हैं?
-यूं तो मैं अब तक करीबन चालिस लघु फिल्मों के निर्माण से जुड़ी रही हूं. मुझे लोग ‘क्रॉस वर्ड्स टुगेदर (शुभम संजय शेवडे), गुडमैन (कुयंश स्टाखानोव), पेपरमिंट (पुर्वा) एस वच), घुंघरू (हनी चव्हाण)के प्रोडक्शन डिजाइनर के रूप में भी पहचानते हैं. मगर हकीकत में मैने सिर्फ दो लघु फिल्मों का स्वतंत्र रूप से लेखन, निर्देशन और निर्माण किया है. इनमें से पहली लघु फिल्म है-‘द अनसंग फीदर’, जो कि नस्ल रंग भेद पर एक अफ्रीकी- अमेरिकी लड़की के संघर्ष की कथा है. जबकि दूसरी लघु फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’ की कहानी एक ऐसी युवती की है, जो कि अपनी दादी का अंतिम संस्कार दाह संस्कार करने के लिए पितृसत्तात्मक परंपरा के खिलाफ बिगुल बजाती है. इसके अलावा दो बड़ी फीचर फिल्मों के निर्देशन की तैयारी लगभग पूरी कर ली है. इनका लेखन पूरा हो चुका है.
आपका बचपन दुबई में बीता. अब अमरीका के लॉस एंजिल्स में रहती हैं. ऐसे में भारतीय पृष्ठभूमि की कहानी पर फिल्म बनाने की प्रेरणा कहां से मिलती है?
-मैने पहले ही कहा कि मेरी जड़े भारत में हैं और मैं स्वयं को भारतीय मानती हूं. मेरी राय मे सिनेमा का काम सिर्फ मनोरंजन देना नहीं बल्कि सोचने व विचार करने पर मजबूर करना भी है. मैं खुद को एक कथा वाचक मानती हूं, तो कहानियां सुनाने के लिए मैं खुद से सवाल करती रहती हूं, जो सवाल मेरे मन को व्यथित करते हैं, दर्द देते हैं, उन पर मैं काम करना शुरू करती हूं. हमारे समाज में औरतों के हक का मसला कोई नया नही है. मुझे लगता है कि युवा महिला फिल्मसर्जक होने के नाते हम पर बड़ी जिम्मेदारी है कि हम औरतों से जुडे़ इन मुद्दों पर बात करें. इन मुद्दों पर हम बहस करें. हम औरतों को उनके हक के बारे में जागरूक करें.
फिल्म‘‘द लास्ट राइट्स’’ की विषय वस्तु पर फिल्म बनाने का विचार कैसे आया?
-इसकी विषयवस्तु मेरी अपनी जिंदगी के कुछ अनुभवों के अलावा पारिवारि के ऐतिहासिक घटनाक्रमों से आयी. परिवार के कुछ घटनाक्रमों को लेकर जब मैं अपनी मां से विचार विमर्श करती थी, तो मेरे मन में कई सवाल उठते थे. उन्ही सवालों के जवाब तलाश करते करते मैने फिल्म‘द लास्ट राइट्स’की कहानी व पटकथा लिखी. मेरी फिल्म का विषय ऐसा है, जिस पर कभी कोई बात नहीं होती. यहां तक कि अब तक किसी ने भी इस पर फिल्म भी नहीं बनायी. इस फिल्म के निर्माण, लेखन निर्देशन के पीछे मेरा लक्ष्य इस बात पर प्रकाश डालना रहा कि परंपरा से प्रेरित भारत में महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है?विदेशों में काम कर भारतीयों को भारत में अपने दोस्तों और अपने परिवारिक घर जाने पर किस तरह का व्यवहार उनके साथ किया जाता है.
आपने कहा कि ‘द लास्ट राइट्स’की विषयवस्तु आपके जीवन के अनुभवों से आयी. कृपया इस पर विस्तार से रोशनी डालेंगी?
-इस फिल्म की नायिका काशी की कहानी मेरी जिंदगी के काफी करीब है. काशी की ही भांति मैं भी विदेश में रहती हूं. कुछ समय के लिए विदेश में रहने के बाद काशी अपने दोस्तों और परिवार के लोगों से मिलने के लिए घर आती है, तब उसके साथ बाहरी व्यक्ति की तरह व्यवहार किया जाता है. लेकिन तथ्य यह नही है कि -वह देश के बाहर रहती है या नहीं?काशी को लगता है कि वह भारतीय है, फिर चाहे उसके देशवासी कुछ भी कहें. मेरे लिए विदेश से आने वाली काशी का मतलब है कि वह भारतीय परंपराओं के संबंध में अधिक आधुनिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व कर रही है.
भारतीय समाज अपनी परंपराओं से परिभाषित होता है. क्योंकि इसमें कई संस्कृतियों का समन्वय है. इसलिए हमारी परंपराओं और धर्म को मजबूत बनाने की आवश्यकता है. इस तरह की बातें करने वाले भूल जाते हैं कि एक समाज का कर्तव्य है कि परंपराओं में संशेाधन कर प्रगति की ओर बढ़ना. मैंने अपनी फिल्म में इसी बात की ओर इशारा किया है.
यह विडंबना है कि जो स्त्री, मनुष्य को जन्म देती है, उसे कभी भी पुरुषों की तरह अपने बुजुर्गो का दाह संस्कार नहीं करने दिया जाता।जी हॉ!भारतीय समाज में बेटियों को दाह संस्कार पर जाने की भी अनुमति नहीं होती. सैकड़ों, हजारों ऐसी बेटियां होती होंगी, जो अपने मां-पिता के अंतिम संस्कार में नहीं जा पाती. ‘द लास्ट राइटस’में मैंने इसी पीड़ा, भावनाओं को साझा किया है. यह एक ऐसी महिला की यात्रा है, जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिरोध से जूझना पड़ता है, जो एक महिला को ‘दाह संस्कार कर्म’करने के अधिकार नहीं देती है. हमारी यह बीस मिनट की फिल्म रूढ़ीवादी परंपराओं पर सवाल उठाती है. हमने इस फिल्म को बनारस व बनारस के घाटों पर कनुप्रिया शर्मा, वेद थापर, सुलक्षणा खत्री व अजिता कुलकर्णी जैसे भारतीय कलाकारों के संग फिल्माया है.
फिल्म‘द लास्ट राइट्स’की कहानी को लेकर क्या कहना चाहेंगी?
-फिल्म की कहानी के केंद्र में विदेश में पढ़ाई कर रही काशी(कनुप्रिया शर्मा)है, जो कि अपनी दादी की मौत की खबर सुनकर उनका दाह संस्कार करने के लिए बनारस, भारत आती है. वह खुद को अपने परिवार की एकमात्र जीवित सदस्य मानती है. लेकिन उनके तिरस्कृत चाचा विष्णु( वेद थापर) उसे यह अधिकार देने से मना कर देते हैं. विष्णु कहते हैं कि वह स्वयं दाह संस्कार करेंगे. इतना ही नहीं पूरा समाज काशी का विद्रोह करता है. लेकिन काशी कहती है कि उसकी दादी के पत्र के अनुसार उनकी अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए इस कर्म को वह स्वयं करेगी.
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फिल्म‘द लास्ट राइट्स’के लिए किस तरह का शोध कार्य करने की जरुरत पड़ी?
-शोध कार्य की लंबी प्रक्रिया रही, मगर लाभप्रद रही. हमारे पास इस बात का कोई सबूत नहीं था कि भारत में लड़कियों औरतों को परिवार के किसी भी सदस्य की मृत्यू होने पर उसका दाह संस्कार अंतिम क्रिया करने की इजाजत नहीं दी जाती. मैने कल्पना में कई कहानियां गढ़ी कि भारत कैसा है और भारत के लोग कैसे हैं?इसलिए मैंने लोगों से इस संबंध में बातचीत करनी शुरू की. अलग अलग समुदाय व उम्र के लोगों की राय जानी. यह सब करने में मुझे कम से कम छह माह का वक्त लगा. मंैने जानने की कोशिश की कि इस संबंध में पुरूष व महिलाओं, युवा व बुजुर्ग की क्या सोच है और उस सोच की वजह क्या है?क्या यह महज धर्म का मसला है या एक परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है. पुजारियों से हमें विरोधाभासी तर्क सुनने को मिले. मुझे कई भारतीयों का पूरा सहयोग मिला. अंतिम संस्कार करने से रोकने के लिए औरतों को धमकाने व उनकी हत्या करने की धमकी आदि के कुछ सबूत जुटाने में भारत के स्थानीय लोगों ने हमारी काफी मदद की. वाराणसी में भी कुछ लोगो ने मदद की. कुछ औरतों को अपने प्रिय का अंतिम संस्कार करने पर घर से बाहर फेंक देने की धमकी भी दी गयी थी.
आप अपनी इस फिल्म के माध्यम से क्या संदेश देना चाहती हैं?
-हम अपनी इस फिल्म के माध्यम से कहना चाहते हैं कि आत्मा का कोई ‘लिंग’ जेंडर नहीं होता है. हर इंसान की अपनी निजी राय व पसंद है, जिस पर उंगली उठाने या सवाल करने या रोकने का हक किसी भी तीसरे इंसान को नहीं है. किसी भी औरत के लिए ऐसी कोई वजह नही है कि वह अपने प्रियतम को ‘गुडबॉय’ न कह सकती हो, उसका अंतिम संस्कार दाह संस्कार न कर सकती हो. हर समाज को चाहिए कि जीवन शैली या जिंदगी जीने को लेकर विविधता पूर्ण सोच व विचारों का स्वागत करे. हमारी फिल्म का मकसद इस तरह के अवसर के लिए औरत के हक के बारे में बात करना, औरत को ऐसा करने की वजह देना है.
विश्वास कीजिए हमारी फिल्म की नायिका काशी, महिलाओं और सामाजिक सुधारों के लिए मुखपत्र बनने की कोशिश नहीं कर रही है, वह तो केवल परिवार के सदस्य और दादी की अंतिम इच्छा को सम्मान देने की कोशिश कर रही है. यदि इस फिल्म को देखने के बाद किसी भी बिंदु पर लोग समझ जाते हैं कि एक भारतीय महिला अंतिम संस्कार करने में सक्षम है, तो मेरा मकसद पूरा हुआ. लोगों को समझना होगा कि हमारी फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’परंपरा और सामाजिक स्थिति के खिलाफ नही, बल्कि परिवार और प्रेम के बारे में है.
वाराणसी में शूटिंग के अनुभव?
-देखिए, हमारी फिल्म‘द लास्ट राइट्स’की विषयवस्तु को देखते हुए इसे फिल्माने के लिए वाराणसी से इतर कोई बेहतर जगह नहीं हो सकती थी. बनारस के लोगों ने हमारा शानदार स्वागत किया और हमें इस बात का अहसास कराया कि यह हमारा अपना शहर है. बनारस के घाटों, बनारस के लोगों और उनकी जीवन शैली के बारे में मुझे जो कुछ जानने व समझने का मौका मिला, मैने उसे ही फिल्म का हिस्सा बनाया, इससे हमारी फिल्म ज्यादा मूल्यवान हो गयी. हमारा स्थानीय प्रोडक्शन मैनेजर बनारस के बारे में सब कुछ जानता था, उसने कदम कदम पर हमारी मदद की. हमारा सौभाग्य रहा कि हमें बनारस में मणिकर्णिका घाट के मुख्य पुजारी से बात करने, उनसे कई कहानियों को जानने का अवसर मिला. उन्होने इस तरह की फिल्म बनाने के लिए हमारा हौसला बढ़ाया.
अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?
-मेरी पहली फिल्म ‘द अनसंग फैदर’ने यूएसए व यूरोप के समारोहों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार सहित नौ पुरस्कार जीते थे. मेरे द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म‘द अनसंग फेदर ’को काफी सराहा गया. सभी ने इसकी पटकथा की तारीफ की. अब मेरी दूसरी फिल्म‘द लास्ट राइट्स’अब तक दस बारह अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इस फिल्म को काफी सराहा जा चुका है. हमारी फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’को 8 सितंबर को संपन्न‘टोपाज इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’में पुरस्कृत किया गया. सात फिल्म समारोहों में हम नोमीनेट किए गए हैं. अमरीका के डालास और 8 दिसंबर 2020 को इटली के ‘रीवर टू रीवर फ्लोरेंस इंडियन फिल्म फेस्टिवल’में भी सराहा गया. हमारी यह फिल्म‘13वें जयपुर अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’ सहित कई भारतीय फिल्म समारोह में भी दिखायी जा चुकी है. फिल्म ‘द लास्ट राइट्स’की स्क्रीनिंग अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड , कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, नीदरलैंड, जर्मनी, फ्रांस व स्पेन में भी हुई.
नारी स्वतंत्रता और नारी उत्थान को लेकर आपकी सोच क्या है. इस संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगी?
-मेरी नजर में नारी स्वतंत्रता के मायने हर स्वतंत्र व कामकाजी महिला को समानता का अधिकार मिले. हर काम काजी महिला को उनके कार्यक्षेत्र मंे अपने सपनो को पूरा करने के लिए वही सारे हक व सुविधाएं मिलनी चाहिए, जो एक पुरूष को मिलते हैं. मैं भाग्यशाली हूं कि मेरे माता पिता ने मुझमें और मेरे भाई के बीच कोई अंतर या भेदभाव नहीं किया. हमारी परवरिश समानत के धरातल पर ही की गयी. हमंे बचपन से हर इंसान को एक समान समझना ही सिखाया गया. आज मैं जो कुछ हॅूं, उसकी वजह मेरे माता पिता हैं, जिन्होने हमें हमारे सपनों को पूरा करने के लिए हर संभव सहयोग दिया, बढ़ावा दिया. हर सफल औरत के पीछे उसके अपने ‘विल पावर’के साथ ही उसके सपनों को पूरा करने के लिए उसके परिवार का सहयोग@ समर्थन भी होता है.
जहां तक औरतों के हक की बात है, तो आप भारत और अमरीका में क्या अंतर पाती हैं?
-इमानदारी से कहूं तो औरतों के हक के मुद्दे दोनों देशों में लगभग एक जैसे ही हैं. यहां अमरीका में औरतों के हक के मसले कारपोरेट स्तर पर हैं, तो भारत में जमीनी सतह से ही हैं. औरतों के हक के मुद्दे भारत में कुछ ज्यादा ही जटिल हैं, क्योंकि हमारे भारत कई धर्म, सभ्यता व संस्कृतियों का देश है. लेकिन मैं महसूस कर रही हूं कि अब भारत में भी औरतें अपने हक के लिए खड़ी हो रही हैं. यह सब जागरूकता और नई पीढ़ी पर निर्भर करता है.
आपने कुछ संगीत वीडियो म्यूजिक वीडियो भी बनाए हैं?
-जी हॉ!हमने अपनी टीम के साथ दिलजीत दोंशाज के नए अलबम ‘‘जी ओ ए टी’’पर काम किया है. मैंने इस म्यूजिक वीडियो का निर्माण किया है. जबकि इसके निर्देशक राहुल दत्ता है. दिलजीत दोसांझ बेहतरीन गायक व अभिनेता हैं.
भविष्य में किस तरह की फिल्में बनाने वाली हैं?
-हम अपनी फिल्मों की कहानी के माध्यम से हर समाज की छिपी हुई वास्तविकताओं को सामने लाना चाहते हैं. हम ऐसी कहानियां बयां करना चाहते हैं, जो कि लोगों का दिल खोलकर मनोरंजन करें और दर्शक उन्हें देखने के साथ-साथ कुछ सीख सकें.
आपका सबसे बड़ा सबक?
-सबसे बड़ा सबक मैंने यह सीखा कि किसी भी कैरियर की राह में कोई समतल सड़क नहीं होती है. अगर है, तो फिर उसमें काम करने का मजा कहाँ है?एक युवा लड़की के रूप में मेरे माता-पिता ने मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया कि हर दिन, हर पल एक चुनौती है. उस समय मुझे अपने माता पिता की बातें महज भाषण प्रतीत होती थीं. लेकिन घर से दूर रहना वास्तव में आपको न सिर्फ बहुत कुछ सिखाता है बल्कि आपका जीवन को देखने का नजरिए भी बड़ा बनाता है.