गीतांजलि चे

मां,

अक्सर किताबों में पढ़ती हूं कि यदि मां चाहे तो मिट्टी में भी प्राण डाल दे और ऐसा ही मेरी मां ने भी किया है. बचपन से मुझे पढ़ने-लिखने का कोई बहुत शौक न था. जब मेरे भाई बहन पढ़ रहे होते तो मैं अपने सामने किताब खोल कर सपनों की दुनिया में सैर करती रहती थी. नतीजा ये कि कक्षा में मैं सबसे निचले पायदान पर रहती थी. मानो मैं ने कसम खा रखी हो कि भले ही कक्षा की बेंच डेस्क परीक्षा में पास कर जाये पर मैं नहीं.

संसार का हर व्यक्ति मुझसे नाउम्मीद हो गया था कि मैं जीवन में कुछ नहीं करुंगी और मैं अपनी ही धुन में खोयी रहती थी. किसी बात का मुझ पर कोई असर ही नहीं होता था. लेकिन वो मां ही थी, जिसे मुझमें सम्भावनाएं नजर आती थी. मुझे अपनी रूचि के अनुसार पढ़ने की आज़ादी दी गई. फिर मुझे कभी यह नहीं कहा गया कि यह पढ़ो, ऐसे पढ़ो, इतने घंटे पढ़ो कुछ भी नहीं और शायद यही कारण था जिसने मुझमें पढ़ने की ललक जगायी.

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वक्त गुजरता गया और डिग्रियां मिलतीं गयीं और डिग्रियों के साथ-साथ पढ़ने का घंटा भी बढ़ता गया. कहीं न कहीं वो मां का धैर्य और विश्वास ही था, जो आज मैं कौलेज में जंतु विज्ञान की शिक्षिका के रूप में कार्यरत हूं.

धन्यवाद मां, मुझे अपनी जिंदगी में इस लायक बनाने के लिए इतना स्नेह और प्यार देने के लिए. सच ही है किसी पर प्रेम लुटाने के लिए उनका प्रतिभाशाली होना जरूरी नहीं है. जिंदगी में जितने सबक मैंने लिए हैं उन सबकी प्रेरणा स्रोत आप ही हैं.

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