“सैर! वो भी सुबह की... अरे! कहाँ? समय ही नहीं मिलता...” किसी भी महिला से पूछ कर देखिये... यही जवाब मिलेगा. अगर आप का भी यही जवाब है तो ये लेख आपके लिए ही है.
“जीवन चलने का नाम... चलते रहो सुबहोशाम...” 70 के दशक की हिंदी फिल्म “शोर” के इस लोकप्रिय गीत में जैसे जीने का सार छिपा है. जी हाँ! चलना ही जीवन की निशानी है. जब तक कदम चलगें... तब तक जिंदगी...
आज की इस अतिव्यस्त जीवनशैली में हम जैसे चलना भूल ही गए हैं. हमें खुद से ज्यादा मशीनों पर भरोसा होने लगा है. मशीनें हमारी मजबूती नहीं बल्कि मजबूरी बन गई हैं. इन पर हमारी निर्भरता इतनी अधिक हो गई है कि हमने अपनी निजी मशीन यानि शरीर की सारसंभाल लगभग बंद ही कर दी है. नतीजा.... इस कुदरती मशीन को जंग लगने लगा है.... इसके पार्ट्स खराब होने लगे हैं...
आज के इस दौर में लगभग हर वह व्यक्ति जो 40 पार जाने लगा है, किसी न किसी शारीरिक परेशानी से जूझ रहा है. कई बीमारियाँ जैसे मानसिक तनाव, दिल की बीमारियाँ आदि तो 40 की उम्र का भी इंतज़ार नहीं करती... बस! जरा सी लापरवाही... और व्यक्ति को तुरंत अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं.
डायबिटीज, रक्तचाप, थायराइड, मानसिक तनाव हो या गर्भावस्था... डॉक्टर सबसे पहले मरीज को सुबह-शाम घूमने की सलाह देते हैं. यह सबसे सस्ता और आसान व्यायाम है जिसे किसी भी उम्र का व्यक्ति कर सकता है. कहते हैं कि सुबह की सैर व्यक्ति को दिन भर उर्जावान रखती है मगर यदि किसी कारणवश सुबह सैर का वक्त न मिले तो शाम को भी की जा सकती है. बस! इतना ध्यान रखें कि दोपहर के भोजन और सैर के बीच कम से कम 3-4 घंटे का अंतराल अवश्य रखें.