15 साल की रिया स्कूल में जब भी जाती, क्लास में पीछे बैठकर हमेशा सोती रहती, उसका मन पढ़ाई में नहीं लगता था. वह किसी से न तो अधिक बात करती और न ही किसी को अपना दोस्त बनाती. अगर वह कभी सोती भी नहीं थी, तो किताबों के पन्ने उलटकर एकटक देखती रहती. क्या पढ़ाया जा रहा है, उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. उसकी कंप्लेन हर बार उसके माता-पिता को जाती, पर इसका कोई असर उसपर नहीं पड़ता था. वह हमेशा उदास रहा करती थी. इसे देखकर कुछ बच्चे तो उसे चिढ़ाने भी लगते थे, पर वह उसपर अधिक ध्यान भी नहीं देती थी. परेशान होकर उसकी मां ने मनोवैज्ञानिक से सलाह ली. कई प्रकार की दवाई और थिरेपी लेने के बाद वह ठीक हो पायी.

दरअसल बच्चों में डिप्रेशन एक सामान्य बात है, पर इसका पता लगाना मुश्किल होता है अधिकतर माता-पिता इसे बच्चे का आलसीपन समझते हैं और वे उन्हें डांटते पीटते रहते हैं जिससे वे और अधिक एग्रेसिव होकर कभी घर छोड़कर चले जाते हैं या फिर आत्महत्या कर लेते हैं. बच्चों की समस्या न समझ पाने की खास वजहें दो है पहली तो हमारे समाज में मानसिक समस्याओं को अधिक महत्व नहीं दिया जाता और दूसरा अभी बच्चा छोटा है, बड़े होने पर समझदार हो जायेगा, ऐसा कहकर वे इस समस्या को गहराई से नहीं लेते. माता-पिता को लगता है कि ये समस्या सिर्फ वयस्कों को ही हो सकती है, बच्चों को नहीं.

इस बारें में जी लर्न की मनोवैज्ञानिक दीपा नारायण चक्रवर्ती कहती हैं कि आजकल के माता-पिता बच्चों की मानसिक क्षमता को बिना समझे ही बहुत अधिक अपेक्षा रखने लगते हैं. इससे उन्हें ये भार लगने लगता है और वे पढ़ाई से दूर भागने लगता है. अपनी समस्या को वे अपने माता-पिता से बताने से भी डरते हैं और उनका बचपन ऐसे ही डर-डरकर बीतने लगता है. जो धीरे-धीरे तनाव का रूप ले लेता है. माता-पिता को बच्चे में आये अचानक बदलाव को नोटिस करने की जरुरत है. कुछ प्रारंभिक लक्षण निम्न है.

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