महानगरों में दिनों-दिन बढ़ते प्रदूषण और धूम्रपान व तंबाकू की लत के साथ-साथ सांस संबंधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ता जा रहा है. एम्स के पल्मोनरी मेडिसिन एंड स्लीप डिसार्डर्स विभाग के सहायक प्रोफेसर डा करण मदान ने बताया कि दिल्ली में 15-39 साल के आयु वर्ग में क्रौनिक औब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज (सीओपीडी) यानी फेफड़े की बीमारी मौत का पहला और 40-69 साल से अधिक के आयु वर्ग में मौत का तीसरा प्रमुख कारण है. साल 1990 में सीओपीडी मौत और विकलांगता का 13वां सबसे बड़ा कारण था, जोकि साल 2016 में तीसरा प्रमुख कारण बन गया है. इससे श्वसन रोगों के बोझ और उन पर नियंत्रण की लगातार बढ़ती जरूरत का पता चलता है.
रोग प्रबंधन की चुनौतियों के बारे में चेस्ट फिजिशियन डा प्रवीण पांडे ने कहा कि अस्थमा और सीओपीडी के प्रबंधन में प्रमुख चुनौतियां हैं- अनुपालन में सुधार और प्रभावी व उपयोग में सरल इनहेलर का विकास. उन्होंने कहा कि कई रोगी दवाओं व इनहेलर का गलत उपयोग करते हैं जिससे रोग पर नियंत्रण कठिन हो जाता है. नतीजतन उन्हें ओरल थेरेपी दी जाती है, जोकि दुखदायी हो सकती है. डा पांडे कहते हैं कि अस्थमा की इनहेल्ड थेरेपी में रोग नियंत्रण की क्षमता है, लेकिन ज्यादातर रोगियों में अक्सर नियंत्रण नहीं हो पाता है. एशिया पैसिफिक अस्थमा इनसाइट्स मैनेजमेंट (एपी-एआइएम) सर्वे के अनुसार, भारत में अस्थमा के सभी रोगियों में मर्ज या तो अनियंत्रित है या आंशिक रूप से नियंत्रित है. इस कमजोर नियंत्रण का प्रमुख कारण इनहेलर की कमजोर तकनीक है.
इनहेल्ड दवाएं अस्थमा और सीओपीडी जैसी सांस संबंधी बीमारी के प्रबंधन में अनिवार्य हैं. ये सीधे फेफड़ों में दवा पहुंचाती हैं और कम खुराक में भी तेजी से काम करती हैं. इनहेल्ड दवाएं रोग की स्थिति में सुधार करती हैं, लक्षणों पर नियंत्रण करती हैं, संख्या और रोग की गंभीरता को कम करती हैं और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करती हैं. दवाओं को फेफड़ों तक पहुंचाने वाले यंत्र दवाओं जितने ही महत्त्वपूर्ण हैं. इनहेलर यंत्रों में प्रेशराइज्ड मीटर्ड डोज इनहेलर (एमडीआइ), ड्राई पाउडर इनहेलर(डीपीआइ) और नेबुलाइजर्स शामिल हैं. देश में लगभग 90 फीसद डाक्टर अपने क्लीनिक में पहली बार आने वाले अस्थमा और सीओपीडी के कम से कम 40 फीसद रोगियों को इनहेलर यंत्रों के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. एक अध्ययन में कहा गया कि 71 फीसद रोगियों को पीएमडीआइ के उपयोग में कठिनाई हुई.
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