एक समाजसेवी संस्था के दिल्ली के संभ्रात इलाके में सर्वे में पता चला है कि 93' घरेलू कामगारों की नौकरी चली गई है क्योंकि अब मालकिनें कोविड के घर में घुसने के भय से किसी को नहीं आने दे नहीं रही. कई जगह तो पूरी सोसायटियों ने बाहर वालियों पर ब्रैक लगा दिया है. सिर्फ बिजली बाले और पलंबर ही बाहर से एमरजैंसी में बुलाए जा रहे हैं.
इन कामवालियों के लिए ये आफत के दिन हैं क्योंकि उन का वेतन चाहे जितना कम क्यों न हो परिवार के पेट भरने के लिए जरूरी था. इसी वेतन के सहारे लोगों ने बचत कर के छोटा टीवी खरीद लिया, मोबाइला ले लिया, 3 अच्छे कपड़े सिला लिए और बच्चे हैं तो उन्हें साफ सुधरे कपड़े पहना कर स्कूल भेज दिया. अब यह सब आय गायब हो गई हैं.
मालकिनें बहुत लालची हैं, ऐसा नहीं है, अधिकांश मालकिनों की खुद की इंकम कम हो गई है और उन्हें बचत से काम करना पड़ रहा है. काफी लोगों के व्यापार ठप्प हो गए. नौकरियों की बाढ़ खत्म हो गई और वर्क फ्रौम होम के बावजूद कटौतियां हो गईं क्योंकि व्यवसायों को भारी नुकसान हो रहे हैं. मालकिनों को खुद घर का काम करना पड़ रहा है और उन्हें कामवालियों का अभाव खल रहा है.
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एक तरह से घरेलू कामवालियों ने घरों की औरतों को निकम्मा बनाया है. 1970 के बाद जब से एकल परिवार ज्यादा बढऩे लगे घरेलू कामवालियों की जरूरत बेहताशा बढ़ गई क्योंकि एकल परिवार में आय का स्तर कुछ ज्यादा होने लगा. निठल्लों को एकल परिवारों में पनाह नहीं मिलती. औरतें खुद भी कमाने लगीं और रसोई, झाड़ूपोंछा कम योग्य कामवालियों पर आ गया पर इस से औरतों की अपनी मांसपेशियां ढुलमुल होने लगीं.