कुछ सालों पहले माँ अपने बच्चे को घर पर बनी हुई सूती कपडे की लंगोटी पहनाती थी, जिसे बच्चे के जन्म होने के पहले से ही परिवार की महिलाएं सिलना शुरू कर देती थी, क्योंकि सूती कपड़ों का बच्चे की कोमल त्वचा पर किसी प्रकार के इन्फेक्शन का न होने से है,लेकिन इन डायपर के साथ समस्या थी,बच्चे के मल या पेशाब होने पर बार-बार धोकर सुखाना पड़ता था.
इसके बाद बाजार में कई कंपनियों के डायपर्स उतारने की वजह से एक खास वर्ग ही इसका प्रयोग कर सका, क्योंकि ये डायपर्स काफी महंगे होते है. समय के साथ डायपर की मांग बढ़ी और डायपर्स के दाम में भी कमी आई. आज की माएं सुविधा के लिए बच्चों को जन्म के बाद से ही डायपर पहनाती है, क्योंकि डायपर पहना देने से बिस्तर और कपडे ख़राब नहीं होता और बच्चा ख़ुशी से खेल सकता है. डायपर बच्चे के मल और पेशाब को सोखकर उसे सूखा होने का एहसास करवाती है, लेकिनबाजार में मिलने वाले डायपर में प्लास्टिक और केमिकल से बच्चे के शरीर पर कई बार रैशेज आ जाने से माँ परेशान भी हो जातीहै.
कम प्रयोग प्लास्टिक और कैमिकल का
कई बार रैशेज इतना अधिक हो जाता है कि बच्चा डायपर पहन नहीं पाता,ऐसा अधिकतर अत्यधिक नमी, ऊमसऔर गर्मी वाले स्थानों पर होता है. इसलिए ये डायपर जितना मुश्किल बच्चों को पहनने में होता है, उतना ही इसमें प्रयोग किये गए केमिकल और प्लास्टिक पर्यावरण के लिए हानिकारक होते है. एक शोध में यह पता चला है कि एक होता की लगभग 2 टन डायपर को गलने में 500 साल लगते है. इसके अलावा इससे निकलने वाले कैमिकल से कैंसर या अन्य कई बीमारियोंका खतरा रहता है और धीरे-धीरे ये कचरा जमीन के एक बड़े हिस्से में फ़ैल जाती है. इससे बचने के लिए सूती डायपर्स का प्रयोग करना आज सभी पसंद कर रहे है. पहले ये डायपर्स केवल विदेशों में मिलता था, लेकिन समय के साथ कई कंपनियां इस क्षेत्र में आकर आपना योगदान दे रही है.
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