सरकार ने हाल ही में नए संसद भवन के निर्माण का आदेश जारी किया है और उस पर तेजी से काम हो रहा है. एक बार आप राजपथ घूम कर आएं . सब कुछ बिखरा हुआ सा दिखेगा. जगहजगह नो एंट्री के बोर्ड लगे हैं. सड़कें दूरदूर तक खुदी हुई हैं. जगहजगह मलबे का ढेर और अस्तव्यस्त सा आलम है. गाड़ियों को घुमा घुमा कर ले जाना पड़ रहा है. जनता परेशान हो रही है और यह दोचार दिनों की बात नहीं . अभी महीनों यही हाल रहने वाला है. ऐसा ही या फिर कहें कि इस से भी बदतर नजारा होता है जब किसी इलाके में नई मेट्रो लाइन या फ्लाईओवर आदि का निर्माण कार्य शुरू होता है. हर तरफ मलवों का ढेर, लोहे की छड़ें और क्रेन जैसी बड़ीबड़ी गाड़ियां बेतरतीब सी सड़कों पर नजर आती हैं.
मिट्टी और पानी से सड़कों पर कीचड़ की भरमार हो जाती है और इस वजह से लोगों का उन रास्तों से आनाजाना मुहाल हो जाता है. ट्रैफिक जाम और गाड़ियों के शोर से जिंदगी बद से बदतर हो जाती है. सवाल उठता है कि इस तरह के निर्माण कार्यों में जब मनचाहा पैसा कमाया जा रहा है तो भी सब कुछ व्यवस्थित क्यों नहीं है? जनता को तकलीफ क्यों सहनी पड़ती है ? कोई देखने वाला क्यों नहीं है? यदि थोड़ा सा ख्याल रखा जाए और पूर्व योजना और व्यवस्था के साथ काम किया जाए तो जनता की तकलीफों को बहुत सहजता से कम किया जा सकता है.
दरअसल यह भारतीय मनोवृति है. देश हो, समाज हो या छोटा सा घर, हर तरफ लोगों को अस्तव्यस्त रहने की आदत है. घरों में हर जना अपने सामान इधरउधर पटकने का आदी होता है. पति हो या बच्चे, स्कूल /ऑफिस से घर आते ही अपना बैग टेबल/बेड /सोफे पर पटकते हैं और मोबाइल में लग जाते हैं. बच्चे एक जूता एक कमरे में तो दूसरा दूसरे कमरे में उतार कर और मोजों को कहीं दूर फेंकते हुए बिस्तर पर आ गिरते हैं. बाहर से आ कर अपने कपड़े भी बाथरूम या बिस्तर पर छोड़ कर अपनी दुनिया में मगन हो जाते हैं.