गर्भावस्था के दौरान अधिकांश महिलाओं की टांगों में मकड़ी के जालेनुमा नीली नसें उभर आती हैं पर डिलिवरी के बाद ये नसें ज्यादातर महिलाओं की टांगों से गायब हो जाती हैं. कुछ महिलाओं में ये नसें स्थाई हो जाती हैं और पहले से ज्यादा फूल जाती हैं. इस के अलावा अधेड़ उम्र या वृद्ध महिलाएं भी टांगों में उभरी नीली नसों की अकसर शिकायत करती हैं.
नीली नसों के शिकार
वे लोग जो कुरसी पर लगातार घंटों बैठते हैं जैसे औफिस में कंप्यूटर के आगे बैठ कर काम करते हैं. वे महिलाएं जो टैलीविजन टैट के आगे बैठ कर देर तक टीवी सीरियल देखती रहती हैं. बुजुर्ग लोग भी शिथिलता की वजह या अपना अकेलापन दूर करने के लिए अपना सारा दिन टैलीविजन के सामने बैठ कर ही बिताते हैं और इस समस्या का शिकार हो जाते हैं. दुकानदार भी टांगों की उभरी नीली नसों के अकसर शिकार होते हैं क्योंकि वे भी दुकान पर दिनभर बैठे रहते हैं. लगातार बैठने के कारण हमारे न्यायाधीश व वकील भी इस समस्या की शिकायत करते हैं.
अध्यापक, अध्यापिकाएं, पुलिस वाले और कौरपोरेट औफिस के स्वागतकक्ष में लगातार खड़े रहने वाली महिलाएं व पुरुष कर्मचारी अकसर जांघों व टांगों पर उभरी नीली नसों से पीडि़त रहते हैं. आजकल अस्पताल में कार्यरत नर्स व गार्ड की ड्यूटी करने वाले भी उभरी नीली नसों से बच नहीं पाते.
क्यों उभरती हैं टांगों पर नीली नसें
इस का सब से बड़ा कारण यह है टांगों व पैरों में गंदे खून का इकट्ठा होना. जब गंदा खून टांगों व पैरों पर एक निर्धारित सीमा के बाहर इकट्ठा होने लगता है तो यह खून त्वचा के नीचे स्थित नसों में भरना शुरू हो जाता है जिस से त्वचा पर उभरी नीली नसें दिखने लगती हैं. ये नसें शुरुआती दिनों में मकड़ी के जाले की तरह दिखती हैं फिर धीरेधीरे नीली नसों का उभरा ज्यादा दिखने लगता है. यह गंदा खून नौर्मल तरीके से टांगों व जांघों से ऊपर चढ़ कर दिल में पहुंचता है और फेफड़ों में जा कर शुद्ध होता है. अगर किसी वजह से यह गंदा खून ऊपर नहीं चढ़ता है तो टांगों व पैरों में इस गंदे खून का इकट्ठा होना स्वाभाविक है.
हमारी आधुनिक दिनचर्या दोषी है
आरामतलब जिंदगी व नियमित न टहलने की आदत, टांगों पर कहर बरपा रही है. गंदे खून को ऊपर चढ़ाने के लिए टांग की मांसपेशियों के पंप की आवश्यकता होती है. आप जितना चलेंगे उतना ही मांसपेशियों का पंप काम करेगा और गंदा खून ऊपर चढ़ जाएगा और टांगें गंदे खून से रहित हो जाएंगी. अगर आप लंबे समय तक बैठना व खड़ा होना बंद नहीं करते और नियमित टहलना आरंभ नहीं करते और अपना वजन बढ़ाते हैं तो यकीन मानिए कि टांगों व जांघों पर नीली नसें उभरेंगी ही पर इस के साथ एक जानलेवा समस्या भी बन सकती है. टांग की अंदरूनी नली यानी वेंस में खून के कतरों का जमाव हो सकता है जिस के परिणामस्वरूप गंदे खून का ऊपर चढ़ने का रास्ता पूरी तरह से अवरुद्ध हो जाएगा जिस से 2 नुकसान हैं- एक तो टांगों की सूजन के साथ नीली नसें उभरेंगी और दूसरा नुकसान यह है कि अगर खून के कतरे ऊपर चढ़ कर फेफड़ों की खून की नली में पहुंच गए तो जान गंवाने का खतरा भी बढ़ जाएगा.
अगर नीली नसें उभर आई हैं तो क्या करें
आप रोजाना टहलना शुरू करें, 5 किलोमीटर सुबह और 3 किलोमीटर शाम को टहलें. इस टहलने के नियम में किसी तरह की कोताही न बरतें. अगर आप का वजन ज्यादा है तो उस को हर महीने कम करने की सोचें. एक और बात याद रखें कि कभी 1 घंटे से ज्यादा लगातार न बैठें. जैसे ही 1 घंटा हो जाए तो तुरंत खड़े हो कर 10 मिनट टहलें और फिर बैठ जाएं. यह क्रिया दिनभर दोहराएं. रात में लेटते वक्त पैरों के नीचे तकिया रख लें. इन सब निर्देषों का 3 महीने तक ईमानदारी से पालन करें. 100 में से 70 लोगों को इस से फायदा मिलेगा.
वैस्क्युलर सर्जन की सलाह कब लें
अगर इस बताई दिनचर्या का ईमानदारी से पालन करने के बावजूद आप ज्यादा लाभान्वित नहीं हो रहे हैं तो तुरंत किसी अनुभवी वैस्क्युलर सर्जन से परामर्श लें. वे टांगों की एक वेंस डौप्लर नामक जांच करवा कर देखेंगे कि गंदा खून टांगों में कितनी मात्रा में इकट्ठा हो रहा है और टांगों की मांसपेशियों का पंप कितना प्रभावशाली है व नसों के अंदर स्थित कपाट ठीक से खुलते व बंद होते हैं या नहीं, यह भी पता लग जाता है कि कहीं वेंस में पुराने खून के कतरे तो नहीं जमा हैं. इस रिपोर्ट के अध्ययन के बाद ही सही इलाज का निर्धारण होता है.
ठीक इलाज क्या है
अगर वेंस में खून के कतरे जमा नहीं हैं तो उभरी हुई वेंस में इंजैक्शन स्क्लेरोथेरैपी करते हैं और अगर गंदा खून टांगों में ज्यादा इकट्ठा नहीं हो रहा है और वेंस के कपाट यानी वाल्व ज्यादा क्षतिग्रस्त नहीं हैं तो शारीरिक व्यायाम, नियमित टहलने आदि से समस्या कंट्रोल में आ जाती है. 6 महीने के बाद ज्यादातर मरीजों में समस्या का प्रभावी ढंग से निदान हो जाता है.
अगर वेंस के वाल्व ज्यादा खराब हैं तो लेजर तकनीक या आरएफए रेडियो फ्रीक्वैंसी एब्लेकशन या वेनोसील तकनीक का इस्तेमाल करना पड़ता है. इस से मरीज को बेहोश नहीं करना पड़ता है और उसी दिन अस्पताल से छुट्टी मिल जाती है क्योंकि त्वचा को काटना नहीं पड़ता है. इन तीनों इलाज की विधाओं में आरएफए तकनीक ज्यादा लोकप्रिय और कारगर है.