रवि प्रकाश के 7 साल के बच्चे को ब्लड कैंसर था. उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले का रहने वाला रवि प्रकाश पेशे से किसान था. गांव में उस की 4 बीघा खेती की जमीन थी. बलरामपुर जिला अस्पताल से वह लखनऊ मैडिकल कालेज बच्चे के इलाज के लिए आ गया. यहां आ कर उसे पता चला कि वह बीपीएल कार्डधारक नहीं है यानी सरकार उसे गरीबीरेखा से नीचे का नहीं मानती, इसलिए उस के बच्चे का ‘कैंसर कार्ड’  नहीं बन सकता. ऐसे में कैंसर के इलाज में सरकार द्वारा मिलने वाली सहायता उस को नहीं मिल सकेगी.

अब रवि प्रकाश के सामने 2 तरह की परेशानियां थीं. एक तो, उसे बच्चे का इलाज कराना था. दूसरा, इलाज के लिए पैसों का इंतजाम करना था. रवि प्रकाश के परिवार में 2 बच्चे और पत्नी थी. दोनों ही बच्चे बड़े थे, स्कूल जाते थे. दोनों के स्कूल का खर्च भी कंधों पर था. पत्नी घर पर रहती थी. सब से छोटे बेटे प्रमोद के इलाज को ले कर पूरा परिवार अस्तव्यस्त हो गया था. रवि प्रकाश अपनी पत्नी के साथ लखनऊ मैडिकल कालेज आ गया था. उस के दोनों बच्चे रिश्तेदारों के भरोसे गांव में थे.

कैंसर का इलाज लंबा चलता है. ऐसे में समय और पैसा दोनों देना पड़ता है. रवि प्रकाश की सब से पहले किसानी प्रभावित हुई. वह समय पर फसल नहीं बो पाया. इस के बाद पैसों की जरूरत को ले कर उस ने अपने खेत गिरवी रख दिए. खेत को गिरवी रखने से मिले पैसों से बेटे का इलाज होने लगा. कुछ दिनों वह मैडिकल कालेज में रहता, फिर उसे गांव जाना पड़ता. जब डाक्टर बुलाता, उसे वापस आना पड़ता. 5 वर्षों के इलाज में रवि प्रकाश पूरी तरह से टूट गया था. अब उसे लगने लगा कि यह बच्चा तो बचेगा ही नहीं, उस के बचाने के चक्कर में जमीन गिरवी चली गई, सो अलग. अब परिवार कैसे चलेगा. अब वह रात में लखनऊ में ही रिक्शा चलाने लगा. बच्चे के इलाज में गांव का किसान शहर में मजदूर बन गया. इस के बाद भी बच्चा सही नहीं हो सका.

रवि प्रकाश अकेला नहीं है. कैंसर का महंगा इलाज हर वर्ग के लोगों को तोड़ देता है. इस का कोई अनुमानित खर्च नहीं है. रोग की जांच से ले कर इलाज तक अलगअलग अस्पतालों की अलगअलग फीस है. कीमोथेरैपी, दवाओं का खर्च, दवाओं के शरीर पर होने वाले प्रभाव को दूर करने का इलाज सब की अलगअलग कीमतें होती हैं.

लखनऊ के ही पीजीआई में दिल्ली की एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले नीरज अपना इलाज कराने आए. नीरज मार्केटिंग विभाग में थे. अच्छी सैलरी पाते थे. नीरज के लिवर में कैंसर था. 35 साल की उम्र में नीरज को कैंसर की खबर ने तोड़ दिया. उस की 10 साल पुरानी नौकरी थी. नीरज ने शुरुआत में दिल्ली में अपना इलाज शुरू कराया. वहां उसे इलाज के लिए छुट्टी लेनी पड़ती थी. शुरुआत में उस की कंपनी से कुछ छुट्टियां मिल गईं. इलाज लंबा चलता देख कंपनी ने छुट्टी देने से मना कर दिया. नीरज को उस की कंपनी ने नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिया. नौकरी में बचाया पैसा खत्म हो चुका था. पीजीआई में उसे बताया गया कि कम से कम 4 लाख रुपए का खर्च आएगा.

नीरज ने अपने हिस्से का पैतृक आवास बेच दिया. उस से मिले पैसों से अपना इलाज शुरू कराया. अब उस का परिवार किराए के कमरे में रहता था. वहां ही रह कर वह अपना इलाज करा रहा था. 3 वर्षों के प्रयासों के बाद भी नीरज का इलाज पूरा नहीं हो सका. ऐसे में वह जिंदगी की जंग हार गया. नीरज के पीछे उस का 10 साल का बेटा और पत्नी बेसहारा हो गए. पत्नी ने लखनऊ में एक दुकान पर सेल्स का काम करना शुरू किया. आज वह अपनी और बेटे की परवरिश को ले कर परेशान है. वह कहती है, ‘‘नीरज ने जो भी कमाया और बचाया था, वह सब उस की बीमारी में खर्च हो गया. कैंसर की बीमारी से हम भिखारी हो गए. नीरज को बचा पाए होते तो शायद अफसोस न होता.’’

कैंसर के इलाज में टूटते परिवार

कैंसर के इलाज में टूटते परिवारों की दर्दनाक कहानी का अंत नहीं है. अस्पतालों में ऐसे परिवारों से मिलने के बाद समझ आता है कि कैंसर सिर्फ मरीज के लिए जानलेवा ही नहीं होता, यह पूरे परिवार की खुशियों को छीन भी लेता है. मरीज के जाने के बाद परिवार सड़क पर बदहाल होता है. उसे समझ नहीं आता के वह अपनी जिंदगी कहां से शुरू करे. लखनऊ के मैडिकल कालेज में कैंसर पीड़ित परिवारों को सही से खाना तक नहीं मिल पाता.

लखनऊ के मैडिकल कालेज में ‘प्रसादम सेवा’ चलाने वाले विशाल सिंह कहते हैं, ‘‘हमारी संस्था कैंसर पीड़ित परिवार वालों के तीमारदारों यानी घर के लोगों को दिन का खाना खिलाने का काम करती है. हमारे पास आए परिवारों को देख कर पता चलता है कि कैंसर की मार केवल बीमार पर नहीं पड़ती, बल्कि पूरा परिवार भुक्तभोगी होता है. हम समाज के सहयोग से रोज 250 लोगों को खाना खिलाने का काम करते हैं. यहां लोग उत्तर प्रदेश, नेपाल, बिहार और बंगाल तक से आते हैं.’’

कैंसर की बीमारी बच्चों से ले कर बड़ों तक किसी को भी हो सकती है. इस के इलाज में नियमित जांच और दवाएं जरूरी होती हैं. इस के साथ ही साथ, मरीज को तनाव से मुक्त रहना, अपने शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना भी होता है. कैंसर के प्रकार और बीमारी की स्टेज के अनुसार खर्च बढ़ता रहता है. खर्च का अनुमान लगाना संभव नहीं होता है.

सरकार इस के इलाज में सहायता देती है पर यह कुछ मरीजों तक ही सीमित रह जाती है. कैंसर के खिलाफ लड़ाई जीतने में अच्छे इलाज और आत्मविश्वास का बहुत महत्त्व होता है. कैंसर के इलाज में इतना खर्च हो जाता है कि गरीब परिवार तो छोड़ दीजिए, सामान्य परिवार तक टूट जाते हैं.

भारत में लगभग 25 लाख लोग कैंसर से ग्रस्त हैं और हर साल 7 लाख से अधिक नए मामले रजिस्टर होते हैं. सभी प्रकार के कैंसरों में, पुरुषों में मुंह व फेफड़ों का कैंसर और महिलाओं में सर्विक्स व स्तन कैंसर देश में होने वाली सभी संबंधित मौतों में लगभग 50 प्रतिशत के लिए दोषी हैं.

इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डा. के के अग्रवाल ने कहा, ‘‘हमारे देश में कैंसर का फैलाव एकसमान नहीं है. ग्रामीण और शहरी सैटिंग के आधार पर लोगों को प्रभावित करने वाले कैंसर के प्रकार में अंतर है. हम ने देखा है कि ग्रामीण महिलाओं में सर्विक्स कैंसर सब से अधिक व्यापक है, जबकि शहरी महिलाओं में स्तन कैंसर बड़े पैमाने पर है. पुरुषों के मामले में, ग्रामीण लोगों को मुंह का कैंसर प्रमुख रूप से होता है, जबकि शहरी पुरुष फेफड़ों के कैंसर से अधिक प्रभावित होते हैं. कैंसर एक महामारी की तरह बनता जा रहा है.

‘‘विडंबना यह है कि कैंसर की दवाएं बहुत महंगी हैं और आम आदमी की पहुंच से परे है. इस प्रकार, कैंसर की दवाइयां किफायती दामों पर उपलब्ध कराने के लिए मूल्य नियंत्रण बहुत आवश्यक है. कैंसर के शुरुआती निदान को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को भी पर्याप्त कदम उठाने चाहिए क्योंकि यह एक सिद्ध तथ्य है कि शीघ्र निदान से कई जानें बचाई जा सकती हैं.’’

कैंसर की प्रमुख जांच

कैंसर की प्रमुख जांच में मैमोग्राफी और पैप स्मियर शामिल होती हैं. मैमोग्राफी में स्तन के तंतु की एक्सरे के जरिए जांच की जाती है. पैप स्मियर जांच को पैपेनिकोला भी कहते हैं. गर्भाशय या सेरविक्स टिशू ले कर इस जांच को किया जाता है. इस के अलावा कैंसर की जांच के लिए शरीर के प्रभावित हिस्से का एक्सरे किया जाता है.

कैंसर का रोग जिस स्थान पर हुआ वह इस बात का मुख्य कारक होता है कि इलाज कैसे होगा? इस के साथ ही साथ मरीज की हालत कैसी है,यह भी महत्त्वपूर्ण होता है. इस के इलाज में रेडियम किरणों का प्रयोग किया जाता है. ये किरणें शरीर के कैंसर कोष को खत्म करने का काम करती हैं.

कैंसर के इलाज में रेडियम का प्रयोग काफी सावधानी से किया जाता है. कैंसर की शुरुआती अवस्था में सर्जरी सब से प्रभावशाली होती है. तब तक कैंसर शरीर में फैला नहीं होता है.

कीमोथेरैपी में कैंसर का इलाज दवाओं द्वारा किया जाता है. कैंसर के इलाज में 50 से अधिक प्रभावशाली दवाओं का प्रयोग किया जाता है. बहुत सारे इलाजों के आने के बाद, कैंसर सौ फीसदी ठीक हो जाएगा, यह नहीं कहा जाता है.

कैंसर से ठीक होने के बाद भी लोग सामान्य जीवन बिताने में लंबा समय ले लेते हैं. महंगा होने के बाद भी कैंसर का इलाज पूरी तरह से ठीक होने वाला नहीं है. यही वजह है कि मरीज तो हाथ से जाता ही है, परिवार भी इलाज के बोझ से कर्जदार हो जाता है, सो अलग.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...