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32 साल का अंकित पीठ के दर्द से बुरी तरह परेशान था. उस की पीठ का मूवमैंट पूरी तरह रुक सा गया था. रैस्ट करने और दवा लेने के बाद भी हालत में कुछ खास सुधार नहीं हो रहा था. 6 हफ्ते पहले जब उस की पीठ में दर्द शुरू हुआ था, तभी से असामान्य तरीके से उस का वजन भी घटता जा रहा था.
अंकित ने डाक्टर से अपौइंटमैंट लिया. एक्स रे से कुछ पता नहीं चला, तो ब्लड टैस्ट कराने को कहा गया. अतिरिक्त जांच के लिए एमआरआई कराया गया, तो पता चला कि अंकित की रीढ़ की हड्डी में इन्फैक्शन हो गया है और डिस्क स्पेस व उस के आसपास की कोशिकाओं में मवाद भर गया है.
मामले की गंभीरता को देखते हुए उसे तुरंत स्पाइनल ब्रेसेस लगवाने की सलाह दी गई और प्रभावित हिस्से की सीटी गाइडेड बायोप्सी की गई. 6 हफ्ते के लिए ऐंटीबायोटिक खाने, बैड रैस्ट करने और स्पाइनल ब्रेसेस के साथ मूवमैंट की सलाह दी गई.
हालांकि नियमित चैकअप के दौरान यह भी नोट किया गया कि उस की रीढ़ की हड्डी सिकुड़ रही है और उसी की वजह से मरीज की टांगों, ब्लैडर और आंतों पर भी असर पड़ रहा था. इस से नजात पाने के लिए तुरंत सर्जिकल ट्रीटमैंट की जरूरत थी. न्यूरोलौजिकल कंप्रैशन को दूर करने और साथ ही पेडिकल स्क्रू और रौड्स की मदद से स्पाइन को स्थिर बनाए रखने के लिए अंकित की सर्जरी की गई. इस का मकसद दर्द को दूर करना, मरीज को विकलांग होने से बचाने और रीढ़ की हड्डी के आकार को और ज्यादा विकृत होने से रोकना भी था. सर्जरी के बाद मरीज की हालत में तेजी से सुधार हुआ. उस का दर्र्द भी पूरी तरह दूर हो गया.
क्या है स्पाइनल इन्फैक्शन
स्पाइनल इन्फैक्शन एक तरह का रेयर इन्फैक्शन है, जो रीढ़ की हड्डियों के बीच मौजूद डिस्क स्पेस, कशेरुकाओं और स्पाइनल कैनाल या उस के आसपास के सौफ्ट टिशूज को प्रभावित करता है. आमतौर पर यह इन्फैक्शन बैक्टीरिया की वजह से ही होता है और रक्तवाहिनियों के जरीए यह बैक्टीरिया रीढ़ की हड्डी तक फैल जाता है. रक्तवाहिकाओं के जरीए बैक्टीरिया वर्टिब्रल डिस्क में फैल जाता है, जिस से डिस्क और उस के आसपास के हिस्सों में इन्फैक्शन होने लगता है और डिसाइटिस होने का खतरा पैदा हो जाता है.
डिसाइटिस भी एक तरह का इन्फैक्शन ही है, जो रीढ़ की हड्डी की अंदरूनी डिस्क में होता है. जैसेजैसे यह इन्फैक्शन बढ़ने लगता है, डिस्क के बीच की स्पेस कम होने लगती है और डिस्क के डिजौल्व होते रहने की वजह से इन्फैक्शन डिस्क स्पेस के ऊपर और नीचे की तरफ शरीर के अन्य अंदरूनी हिस्सों में भी फैलने लगता है, जिस से औस्टियोमाईलाइटिस हो जाता है. यह एक तरह का हड्डियों का इन्फैक्शन ही है, जो बैक्टीरिया या फंगल और्गेनिज्म की वजह से होता है.
इन्फैक्शन की वजह से कमजोर हो रही हड्डी के टूटने या उस का आकार बिगड़ने का खतरा भी रहता है. कुछ मामलों में इन्फैक्शन या उस की वजह से टूट रही हड्डी नसों या स्पाइनल कौड की तरफ धंसने लगती है, जिस की वजह से बेहोशी आने, शरीर में कमजोरी महसूस होने, झनझनाहट होने, तेज दर्द होने और ब्लैडर डिस्फंक्शन जैसे न्यूरोलौजिकल लक्षण भी नजर आने लगते हैं.
इंटरवर्टिब्रल डिस्क स्पेस में इन्फैक्शन एक तरह का डिस्क स्पेस इन्फैक्शन है, जिसे इन 3 उपश्रेणियों में बांटा जा सकता है.
पहली है स्पाइनल कनाल इन्फैक्शंस, जिस में शामिल हैं:
– स्पाइनल ऐपिड्यूरल ऐब्सेस यानी रीढ़ की हड्डी के बाहरी हिस्से में फोड़ा होना.
– सबड्यूलरी ऐब्सेस.
– इंट्रामेड्यूलरी ऐब्सेसेज
दूसरी है आसपास के सौफ्ट टिशूज में इन्फैक्शन, जिस में शामिल है:
– सर्वाइकल और थोरेसिक पैरास्पाइनल लीजंस
– लंबर पीएसओएस मसल ऐब्सेसेज.
तीसरी है मस्तिष्क के आवरण की झिल्लियों में इन्फैक्शन.
किस वजह से होता है स्पाइनल इन्फैक्शन
कुछ परिस्थितियां स्पाइनल इन्फैक्शन से पीडि़त मरीज की रोगप्रतिरोधक क्षमता पर काफी प्रभाव डालती हैं और मरीज की रोगप्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर देती हैं. इन में डाइबिटीज मैलिटस, रोगप्रतिरोधक क्षमता को दबाने या कम करने वाली दवा का इस्तेमाल, कुपोषण, और्गन ट्रांसप्लांट की हिस्ट्री और नसों के जरीए लिए जाने वाले नशीले पदार्थों के सेवन जैसी परिस्थितियां शामिल हैं.
स्पाइनल इन्फैक्शन सामान्यतया स्टेफिलोकौकस औरियस बैक्टीरिया की वजह से होता है, जो आमतौर पर हमारे शरीर की स्किन में रहता है. इस के अलावा इस्चेरिचिया कोली, जिसे ई कोलाई बैक्टीरिया भी कहा जाता है, उस से भी यह इन्फैक्शन हो सकता है. ज्यादातर स्पाइन इन्फैक्शंस लंबर स्पाइन यानी रीढ़ की हड्डी के मध्य या निचले हिस्से में होते हैं, क्योंकि इसी हिस्से से रीढ़ की हड्डी में ब्लड सप्लाई होता है. इस के बीच पैल्विक इन्फैक्शन, यूरिनरी या ब्लैडर इन्फैक्शन, निमोनिया या सौफ्ट टिशू इन्फैक्शन में होते हैं. नसों के जरीए लिए जाने वाले नशे से संबंधित इन्फैक्शन में ज्यादातर गरदन या सर्वाइकल स्पाइन प्रभावित होती है.
कैसे पहचानें लक्षणों को
वयस्कों में स्पाइनल इन्फैक्शन बहुत धीमी गति से फैलता है और इसी वजह से उस के लक्षण बहुत कम नजर आते हैं, जिस के कारण काफी देर से इस का पता चलता है. कुछ मरीजों को तो डायग्नोज किए जाने के कुछ हफ्ते या महीने पहले ही इस के लक्षणों का एहसास होना शुरू हो जाता है. इस के लक्षण आमतौर पर गरदन या पीठ के किसी हिस्से में टिंडरनैस आने के साथ शुरू होते हैं और पारंपरिक दवा लेने और आराम करने के बावजूद मूवमैंट करते वक्त महसूस होने वाला दर्द कम नहीं होता, बल्कि बढ़ता ही जाता है.
इन्फैक्शन बढ़ने पर बुखार होना, कंपकंपी आना, नाइट पेन या अप्रत्याशित तरीके से वजन घटना आदि लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं. हालांकि ये वे सामान्य लक्षण नहीं हैं, जो हर मरीज में खासतौर पर लंबे समय से बीमार चल रहे मरीज में दिखाई देते हों. शुरुआत में मरीज को पीठ में बहुत तेज दर्द होने लगता है, जिस के कारण शरीर का मूवमैंट भी सीमित हो जाता है. अगर स्पाइनल इन्फैक्शन होने की आशंका है, तो लैबोरेटरी इवैल्यूएशन और रेडियोग्राफिक इमेजिंग स्टडीज कराना बेहद जरूरी हो जाता है.
डाक्टर कैसे डाइग्नोज करते हैं
आमतौर पर स्पाइनल इन्फैक्शन का पता लगाने की शुरुआत एक्स रे से होती है. हालांकि इन्फैक्शन शुरू होने के पहले 2 या 4 हफ्तों तक एक्स रे भी आमतौर पर सामान्य ही आता है और उस में इन्फैक्शन का पता चलने की संभावना बेहद कम रहती है. ऐसे में ऐडिशनल इमेजिंग स्टडीज करानी जरूरी है. खासतौर पर गैडोलीनियम इंट्रावीनस डाई की मात्रा बढ़ा कर एमआरआई करना बेहद जरूरी है. इस से स्नायुतंत्र के प्रभावित हुए हिस्से के विजुलाइजेशन में आसानी होती है.
इस के अलावा लैब जांच करवाना भी जरूरी है. इस में इनफ्लैमेटरी मार्कर्स काफी मददगार साबित हो सकते हैं, जो अन्य नौन इन्फैक्शियस पैथोलोजी में उतने उच्च स्तर पर नहीं होते हैं.
इन्फैक्शन की वजह बन रहे सूक्ष्म जीवकों का पता लगाने के लिए ब्लड कल्चर स्टडी की भी मदद ली जा सकती है. हालांकि लगभग 50% मामलों में ब्लड कल्चर पौजिटिव ही निकलते हैं. कुछ मरीजों में कल्चर लेने के लिए नीडिल बायोप्सी या ओपन सर्जरी करनी भी जरूरी हो जाती है ताकि इन्फैक्शन को फैलने से रोकने के लिए मरीज को सही और जरूरी मात्रा में ऐंटीबायोटिक्स दी जा सके.
क्या है इलाज
ज्यादातर स्पाइनल इन्फैक्शन के ट्रीटमैंट में नसों के जरीए दिए जाने वाले ऐंटीबायोटिक्स का कौंबिनेशन शामिल होता है. इस के अलावा ब्रेसिंग कराने और रैस्ट करने की सलाह भी दी जाती है.
चूंकि इन्फैक्शन की वजह से वर्टिब्रल डिस्क में ब्लड सप्लाई सही तरीके से नहीं हो रही होती है, इसलिए बैक्टीरिया की मौजूदगी की वजह से बौडी के इम्यून सैल्स और ऐंटीबायोटिक दवा भी इन्फैक्शन से प्रभावित हिस्से तक आसानी से नहीं पहुंच पाती है. ऐसे में आमतौर पर 6 से 8 हफ्तों तक आईवी ऐंटीबायोटिक ट्रीटमैंट की जरूरत पड़ती है.
इस के अलावा इन्फैक्शन में कमी आने पर रीढ़ की हड्डी की स्टैबिलिटी को सुधारने के लिए ब्रेसिंग कराने की सलाह भी दी जाती है. अगर ऐंटीबायोटिक्स और ब्रेसिंग से भी इन्फैक्शन कंट्रोल नहीं होता है या नसें सिकुड़ने लगती हैं तब सर्जिकल ट्रीटमैंट जरूरी हो जाता है.
आमतौर पर इन्फैक्शन को दूर कर दर्द से नजात पाने, रीढ़ की हड्डी में आ रही विकृति को बढ़ने से रोकने और नसों पर पड़ रहे किसी भी अन्य तरह के दबाव को कम करने के लिए सर्जरी की जाती है. उपचार के आगे बढ़ने के साथ ही समयसमय पर ब्लड टैस्ट और ऐक्स रे कराने की जरूरत भी पड़ती है ताकि यह वैरिफाई किया जा सके कि ट्रीटमैंट का असर हो रहा है या नहीं.
-डा. अरविंद कुलकर्णी
(प्रमुख, मुंबई स्पाइन स्कोलियोसिस डिस्क रिप्लेसमेंट सैंटर, बौंबे हौस्पिटल, मुंबई)