लेखक- शाहनवाज

यह तो साफ है कि गेमिंग का बढ़ता नशा भी बच्चों और युवाओं को बरबाद कर सकता है. लेकिन क्या भारत में सरकार ने इस से बचने के उपाय किए? विश्व स्तर पर बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने इंटरनैशनल स्टैटिस्टिकल क्लासिफिकेशन औफ डिजीज एंड रिलेटेड हैल्थ प्रौब्लम्स के 11वें संशोधन में वर्ल्ड हैल्थ असैंबली मई 2019 में गेमिंग डिसऔर्डर को अपनी लिस्ट में शामिल कर लिया था.

याद हो तो कनाडा के साइकोलौजिस्ट ब्रूस एलेग्जैंडर ने किसी भी एडिक्शन की जड़ को लोगों की खुशी से जोड़ कर देखा था. उन्होंने कहा था, ‘‘लोग यदि खुश हैं तो वे किसी भी तरह के एडिक्शन का शिकार नहीं बन पाएंगे और यदि वे दुखी हैं तो उन्हें खुद को रिलीफ पहुंचाने के लिए किसी भी एडिक्शन का सहारा लेना पड़ेगा.’’ पूरे भारत में जहां एक तरफ केवल समस्याओं का सागर बह रहा हो तो किसी से कोई उम्मीद कैसे लगाई जा सकती है कि वह खुद को उन समस्याओं से कुछ देर मुक्त करने के लिए किसी एडिक्शन का सहारा नहीं लेगा.

लोगों को काम नहीं मिल रहा, बेरोजगारी अपनी चरम पर है, जिन्हें काम मिल भी रहा है तो वे बेहद औनेपौने दामों में काम करने को तैयार हैं. घर की समस्या, रिलेशन की समस्या, दोस्तों की समस्या, पढ़नेलिखने की समस्या, भांतिभांति की समस्याओं का सागर यहांवहां हर समय और हर जगह बहता हुआ नजर आ जाएगा. ऐसे में गेमिंग का एडिक्शन होना युवाओं में बेहद आम बात है. और वैसे भी, भारत में तो मैंटल हैल्थ की समस्याओं को बड़ा माना ही नहीं जाता है. जब तक किसी की जान पर नहीं बन आती, कोई मर नहीं जाता तब तक उसे समस्या माना ही नहीं जाता है. जब तक भारत में मूलभूल सुविधाओं को लोगों के लिए आम नहीं बना दिया जाता, कम से कम तब तक गेमिंग एडिक्शन को समाज से उखाड़ फेंकना मुश्किल है. लेकिन हार मानने की जरूरत नहीं है. अगर आप किसी ऐसे को जानते हैं जो इस का शिकार है तो उसे साइकोलौजिस्ट के पास ले कर जाएं और उन के मैंटल हैल्थ का इलाज करवाएं. क्योंकि, सरकार से इन समस्याओं का निदान तो इस जन्म में नहीं मिलने वाला है और न ही उस से इस की उम्मीद की जा सकती है.

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