हालांकि मानसिक स्वास्थ्य और निःसंतानता को अलग-अलग माना जा सकता है, परन्तु यह दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और समानताएं साझा करती हैं. हमारे समाज में इन दोनों स्थितियों को हीन माना जाता है और इन विषयों के बारे में सामाजिक चर्चा को भी अस्वीकृत किया जाता है. इसके अलावा इन दोनों मुद्दों पर जागरूकता की भी कमी है. सामान्यतया, मानसिक स्थिति के लक्षणों को नजरअंदाज कर दिया जाता है और ऐसे व्यक्तियों को समुदाय में “पागल” या “सनकी” कहा जाता है. वहीं निःसंतानता को एक महिला-केंद्रित स्थिति माना जाता है क्योंकि महिलाएं गर्भाधारण से प्रसव और पोषण करने तक, पूरी प्रक्रिया के केंद्र में रहती हैं. इसके अलावा, सोसाइटल नोमर्स के अनुसार एक महिला की प्राथमिक जिम्मेदारी शादी करना और संतान पैदा करना है.

डॉ क्षितिज मुर्डिया, सीईओ और सह-संस्थापक, इंदिरा आईवीएफ का कहना है कि – आज भी, हमारे देश मे मानसिक बीमारी और निःसंतानता से ग्रसित कई लोग ठीक होने के लिए झाड़-फुंक और तांत्रिक उपायों का सहारा लेते हैं.

हमारे देश मे शारीरिक स्वास्थ्य को मानसिक स्वास्थ्य के मुकाबले ज्यादा महत्व दिया जाता है क्यों की ये प्रत्यक्ष दिखाई देता है. किसी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य उनकी समग्र भावनात्मक, सामाजिक, व्यवहारिक और मनोवैज्ञानिक सेहत होता है. ऐतिहासिक और कुछ सामाजिक परम्पराओं के कारण लोग मानसिक और भावनात्मक कमजोरी का प्रदर्शन करने से बचते हैं इसलिए मानसिक स्वास्थ्य को हमेशा इतना महत्व नहीं दिया जाता है जिसके वह योग्य है.  नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (एनआईएमएचएएनएस) का अनुमान है कि लगभग 150 मिलियन भारतीयों को अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए सक्रिय मदद की आवश्यकता है.

जब 12 महीने या नियमित असुरक्षित संभोग के बाद गर्भधारण करने में विफलता होती है तो इस स्थिति को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रजनन प्रणाली के रोग- निःसंतानता के रूप में परिभाषित किया गया है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईआईएमएस) के अनुसार भारत की अनुमानित 1.3 बिलियन आबादी में से 10-15 प्रतिशत आबादी निःसंतानता से प्रभावित है – इसका मतलब है कि देश में लगभग 195 मिलियन लोग गर्भधारण करने में समस्याओं का सामना करते हैं.

मानसिक स्वास्थ्य और निःसंतानता पर व्यापक चर्चा हाल ही में शुरू हुई है। इन जानकारियों के प्रभाव स्वरुप हमारी सोच मे बदलाव आ रहा है और अब इस बात को समझ लिया गया है कि मानसिक स्थितियों का उसी तरह से इलाज करना होगा जिस तरह से किसी शारीरिक बीमारी का इलाज किया जाता है. लोग अब यह भी समझते हैं कि जिस तरह डायबिटीज जैसी बीमारी की अगर जांच नहीं की जाएं तो जटिलताएं हो सकती हैं, उसी तरह  मानसिक रोगों की जांच और इलाज न होने से भविष्य में हालात अधिक गंभीर हो सकते हैं.

निःसंतानता के मामलों मे , अत्यधिक शोध और तकनिकी साधनो द्वारा आज,दंपती में गर्भधारण न कर पाने में पुरुष की जिम्मेदारी को प्रकाश में लाया गया है. वास्तविकता मे निःसंतानता के सभी मामलों में यह देखा गया है कि एक तिहाई मामलों में महिला में अंतर्निहित स्थितिया,  एक तिहाई में पुरुष में अंतर्निहित स्थितिया और शेष में दोनों पुरुष और महिला की समस्याएं जिम्मेदार होती हैं.

इनफर्टिलिटी और इस से सम्बंधित परिस्थितियाँ बहुत लंबे समय से दुनिया में मौजूद हैं. जागरूकता में कमी और जीवन शैली में नुकसानदेह परिवर्तन के कारण इसकी संख्या में वृद्धि हुई  है. निःसंतानता के कुछ कारण निम्नलिखित हैं –

  • आयु
  • शराब की लत, ड्रग्स, सिगरेट पीना
  • पर्यावरणीय विषाक्त (जैसे सीसा, कीटनाशक), प्रदूषण
  • विकिरण/ रेडिएशन और कीमोथेरेपी
  • कुछ दवाएं
  • तनाव, खराब आहार, वजन
  • स्वास्थ्य की स्थितियां जैसे पॉलीसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम (पीसीओएस), प्राथमिक ओवेरियन अपर्याप्तता, अवरुद्ध फैलोपियन ट्यूब, एंडोमेट्रियोसिस, गर्भाशय फाइब्रॉएड, मम्स (गला संबंधी बीमारी), गुर्दे की बीमारी, हार्मोनल समस्याएं, कैंसर, अन्य.

भारतीय संदर्भ में निःसंतानता शारीरिक स्वास्थ से जुड़ी स्थिति है. देश मैं  वैज्ञानिक तरीके से प्रजनन तकनीक (एआरटी) द्वारा पहला गर्भधारण डॉ.सुभाष मुखर्जी द्वारा चार दशक पहले 1978 में शुरू हुआ जब देश की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हुआ था. हालांकि, तकनीकी सहयोग द्वारा गर्भधारण का, सामाजिक परिस्तिथियों के कारणवश अस्वीकृत होने की वजह से उनका काम कई साल तक सामने नहीं आ पाया. यह वाक्या उस काल में लोगों के पारिवारिक जीवन पर सामाजिक प्रभाव को प्रकाशित करता है.

निःसंतान दंपती में मानसिक स्वास्थ्य समस्या का दिखना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। चिंता, अवसाद, अनियंत्रित जीवन, आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान में कमी आदि कई लक्षण इनमें नजर आते है. वे अपनी स्थिति की वजह से समाज से अलग-थलग भी महसूस कर सकते हैं. यह भावनाएं पुरुषों और महिलाओं, दोनों में देखी गयी है जो इंगित करतीं हैं कि निःसंतानता से संबंधित धारणा और ज्ञान में कुछ बदलाव आया है.

2016 में फर्टिलिटी एंड स्टेरिलिटी नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि अध्ययन किए गए सेम्पल में, महिलाओं में, अवसाद और चिंता के लक्षण क्रमशः 56 प्रतिशत और 76 प्रतिशत व्याप्त हैं और पुरुषों में यह अनुपात क्रमशः 32 प्रतिशत और 61 प्रतिशत है. प्रजनन क्षमता में जटिलताओं वाली महिलाओं द्वारा अनुभव किए गए मानसिक संकट को उन लोगों के समान पाया गया जो कैंसर और उच्च रक्तचाप के रोगी है.

इससे निःसंतानता वश, महिलाओं में अपने परिवार और दोस्तों द्वारा दिए गए दबाव,  स्वयं के माँ बनने की इक्षा साथ ही दीर्घकालिक बीमारी से उत्पन तनाव , इन सभी बातो का पता चलता है जिसका वे हर समय सामना करतीं हैं. इसके अलावा वह लोग जो दवा, एआरटी, इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ), अत्यादि द्वारा निःसंतानता के उपचार का विकल्प चुनते हैं, वे वित्तीय बोझ और प्रक्रिया की सफलता में अनिश्चितता के कारण तनाव महसूस करते हैं.

SARS-CoV-2 नोवेल कोरोना वायरस वैश्विक महामारी के कारण ऐसे व्यक्तियों की स्थिति को और जटिल बना दिया है. कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका में 20 से 45 वर्ष की आयु की महिलाओं पर एक अध्ययन किया गया जिनका प्रजनन उपचार हो रहा था , जिसमें कोरोना वायरस की वजह से 86 प्रतिशत में उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव देखा. इस महामारी ने महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को खराब किया है और  इन दोनों का प्रजनन स्वास्थ्य के साथ सीधा संबंध भी है. यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं को अब उनके हिस्से का आराम और मानसिक शांति मिले, ताकि आने वाली पीढ़ियां मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रहें.

आज, विशेष रूप से यह जरूरी है कि मरीजों को न केवल उनके प्रजनन स्वास्थ्य के संदर्भ में बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी परामर्श दिया जाए. जाहिर है फर्टिलिटी चिकित्सा को निःसंतान दम्पति  के उपचार में श्रेष्ठता के साथ साथ उनके मानसिक तनाव के उपचार मे भी निपूर्ण बनना होगा.

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