लेखक -उमेश कुमार सिंह

अगर आप को लगातार हिचकी आती है या फिर हिचकी जैसा अनुभव होता है तो यह कोई साधारण बात नहीं है. यह एक तरह की बीमारी है, जो लाखों में से किसी एक को हो सकती है. रानी मुखर्जी की एक पिक्चर आई थी ‘हिचकी’. इस में भी इस बीमारी का जिक्र हुआ है. पिक्चर में रानी मुखर्जी को यह बीमारी होती है. इस में लगातार हिचकियां आती रहती हैं.

इस बीमारी को टोरेट सिंड्रोम कहा जाता है, जिस में नर्व सिस्टम पर असर पड़ता है. इस में व्यक्ति को अचानक हिचकियां आने लगती हैं और ऐसा लगातार होता रहता है. कई बार थोड़ी देर के लिए और कई बार ज्यादा देर के लिए.

आम हिचकी में 1 या 2 बार हिचकी आती है, लेकिन इस बीमारी में लगातार हिचकियां आती हैं और उन्हें कंट्रोल करना मुश्किल होता है.

टोरेट सिंड्रोम होता क्या है

गुरुग्राम स्थित अग्रिम ‘इंस्टिट्यूट औफ न्यूरोसाइंसेज आर्टेमिस हौस्पिटल’ के न्यूरोलौजी विभाग के डाइरैक्टर डाक्टर सुमित सिंह का कहना है कि टोरेट एक तरह की दिमाग से जुड़ी बीमारी है. इस में किसी भी बड़े या बच्चे को हिचकियां आने लगती हैं. यह बीमारी 2 तरीकों से प्रभावित हो सकती है या तो पर्यावरण के कारण या फिर जेनेटिक कारणों से. ज्यादातर मौकों पर यह बीमारी 18 साल की उम्र से पहले अटैक करती है.

इस बीमारी के बारे में एक और बड़ी बात यह है कि यह ज्यादातर पुरुषों में पाई जाती है, जोकि ताउम्र चल सकती है.

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बीमारी के लक्षण

टिक्स: इस बीमारी का सब से बड़ा लक्षण हिचकी ही है, जोकि अचानक कभी भी आ सकती है और इस की आवाज बहुत तेज भी हो सकती है. ऐसे में इस बीमारी के कारण समाज में काम करने वाले व्यक्ति को कई तरह की सामाजिक परेशानियों से दोचार होना पड़ सकता है.

इस बीमारी को 2 भागों में बांटा जा सकता है:

सिंपल टिक्स: इस तरह की टिक्स में थोड़े समय के लिए हिचकियां आती हैं, जिन में आवाज भी कम होती है और सिर, कंधों या गरदन पर दबाव पड़ता है और इस में अचानक मूवमैंट होने लगती है.

कौंप्लैक्स टिक्स: इस तरह की हिचकियों में हिचकियां लगतार आती रहती हैं और इस में कई बार चेहरे के भाव भी बदल जाते हैं जैसाकि लकवे के दौरान होता है. साथ ही इस में हिचकियों की आवाज भी काफी तेज होती है. कई बार इन हिचकियों से भारी तनाव भी हो जाता है और अकसर रात में भी ये हिचकियां बहुत परेशानी पैदा कर सकती हैं. इस से बचने के लिए ध्यान एक बेहतर उपाय है.

इस बीमारी के क्या कारण हैं

डाक्टर सुमित सिंह का कहना है कि अभी तक इस बीमारी के सही कारणों का पता नहीं लग पाया है. हालांकि ज्यादातर मामलों में यह जेनेटिक ही होती है. लेकिन इस का यह मतलब भी नहीं है कि अगर आप को यह बीमारी है तो आप के बच्चों को भी यह होगी. एक शोध के मुताबिक सिर्फ 5-15% मामलों में ही यह पाया गया है कि पेरैंट्स से यह बीमारी बच्चों को गई.

क्या हिचकियों को दबाया जा सकता है

हिचकियों को दबाया तो नहीं जा सकता, लेकिन कई तरह की तरीकों से इस ऐनर्जी और प्रैशर को रिलीव किया जा सकता है. इस से हिचकियों को थोड़ा कम किया जा सकता है. हालांकि हिचकियों को कम करने के लिए इस तरह की संसेशन होती है जैसाकि छींक रोकने से होती है.

हालांकि यह बात व्यक्ति पर निर्भर करती है कि कौन कैसे हिचकियों को कैसे दबा सकता है. कई बार इस तरह की हिचकियों को दबाने के लिए काफी परेशानी भी हो सकती है. हालांकि बच्चों को ये हिचकियां दबाने की कला नहीं आती, क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में काफी परेशानी होती है.

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बीमारी का पता कैसे चले

डाक्टर्स के मुताबिक अगर 1 साल तक किसी व्यक्ति को लगातार हिचकियां आती रहें तो यह माना जा सकता है कि उसे यह बीमारी है. हालांकि किसी तरह के खून की जांच, किसी तरह की लैबोरटरी या फिर किसी अन्य जांच से यह पता नहीं लगाया जा सकता है. हालांकि एमआरआई, कंप्यूटर टेपोग्राफी आदि से रेयर केसेज में इस बीमारी का पता लगाया जा सकता है.

बीमारी का इलाज कैसे हो

अभी तक हिचकियों की बीमारी का पूरा इलाज नहीं खोजा जा सका है और न ही इस बीमारी के लक्षणों को पूरी तरह से खत्म किया जा सका है. इस बीमारी के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवाइयों का साइड इफैक्ट काफी पड़ता है.

कई बार साइड इफैक्ट को कम करने के लिए दवाइयों की डोज कम करना एक बेहतर उपाय हो सकता है. इस के इलाज की दवाइयों के साइड इफैक्ट में कई बार वजन बढ़ना, आलस आना आदि प्रमुख है.

इलाज में परेशानियां 

इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति के लिए स्वस्थ और बेहतर जीवन जीने में कोई परेशानी नहीं है. लेकिन कई बार इस व्यक्ति के लगातार हिचकियां लेने से सामाजिक तौर पर परेशानियां  झेलनी पड़ सकती हैं जैसाकि फिल्म ‘हिचकी’ में दिखाया गया है.

कैसे ठीक हो सकती है बीमारी

जिस बच्चे या बड़े को यह बीमारी है उस के साथ किसी तरह की ऐक्टिविटी में लगना चाहिए, जोकि उसे पसंद हो. फिर चाहे वह स्पोर्ट्स हो या फिर संगीत हो, इस तरह की हौबी हिचकियों में कमी लाने में सहायक होगी. पेरैंट्स को चाहिए कि बीमार का सैल्फ कौन्फिडैंस बढ़ाएं ताकि वह सामाजिक तौर पर अपने को मजबूती से पेश कर सके.

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