कोल्हापुरी चप्पलों का महाराष्ट्र के कोल्हापुर से शुरू हुआ व्यवसाय आज विश्व भर में मशहूर है. कोल्हापुरी चप्पलें 13वीं सदी की शुरुआत से पहनी जा रही हैं. इस से पहले जिस गांव में ये चप्पलें बनती थीं उसी गांव के नाम पर उन का नाम रख दिया जाता था. इन्हें तब कपाशी, पायटन, कचकडी, बक्कलनवी और पुकारी के नाम से जाना जाता था. इस के बाद 1920 में सौदागर परिवार ने इन चप्पलों के नए डिजाइन निकाले. कानों की तरह बेहद पतली होने की वजह से इन्हें कनवली नाम दिया गया. फिर इन्हें मुंबई बेचने के लिए भेजा गया, जहां लोगों ने खूब पसंद किया. इन की मांग बढ़ने लगी तो सौदागर परिवार ने कुछ नए लोगों को इस की कला सिखाई. फिर धीरेधीरे ये देश के अन्य भागों में भी पसंद की जाने लगीं. कनवली चप्पलें ही बाद में कोल्हापुरी चप्पलों के नाम से मशहूर हुईं.
बैलों और भैंसों के चमड़े से बनने वाली कोल्हापुरी चप्पलें टिकाऊ होने के साथसाथ कड़ी धूप से भी पैरों को बचाती हैं.
मुंबई से परिचय
मुंबई के दादर स्थित चंद्रकांत चप्पल मार्ट के मालिक चंद्रकांत पाखरे की मुंबई में कोल्हापुरी चप्पलों की कई दुकानें अलगअलग स्थानों पर हैं. यह व्यवसाय उन का परिवार 50 सालों से भी अधिक समय से करता आ रहा है. पांडूराम पाखरे पहले इंसान थे, जिन्होंने मुंबई में पहली बार कोल्हापुरी चप्पलों से लोगों का परिचय कराया. इस के बाद उन का बेटा चंद्रकांत, भानजा किरण सीताराम चव्हाण आदि इस व्यवसाय से जुडे़. अब चप्पलें समय की मांग के हिसाब से अलगअलग पैटर्न में बनाई जाने लगी हैं. ये चप्पलें अधिकतर कोल्हापुर, मीरज, सतारा आदि जगहों से बना कर कारीगर मुंबई जा कर बेचते हैं. इन्हें बनाने के लिए चमड़ा अधिकतर चैन्नई और कोलकाता से आता है.
डिजाइनर पूजा पवार कहती हैं कि कोल्हापुरी चप्पलों की रेंज 4 से 5 तरह की है. स्टाइलिस्ट और फैशनेबल होने के साथसाथ ये रिचनैस को भी दर्शाती हैं. कोल्हापुरी चप्पलें ‘कार टू कारपेट’ की श्रेणी में आती हैं. धनगढ़ जाति और किसान अधिकतर कोल्हापुरी चप्पलें ही पहनते हैं, क्योंकि ये टिकाऊ होने के साथसाथ आरामदायक भी होती हैं. रैंप शो और फिल्मों में भी कोल्हापुरी चप्पलों को पहने दिखाया जाता है. हमारा पूरा परिवार इन्हें पहनता है.
क्रेज विदेशों में भी
कोल्हापुरी चप्पलों का के्रज भारत में नहीं विदेशों में भी है. वहां भी इन्हें पहना जाता है. यहां वैस्टर्न, इंडियन सभी तरह की पोशाकों के साथ ये खूब फबती हैं. इन्हें जरमनी, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, सिंगापुर आदि देशों में निर्यात किया जाता है. कोल्हापुरी काप्सी, महाराजा, बीसबंदी गांधी, कोल्हापुरी पोइंटेड, लेडीज और जैंट्स मोजरी आदि सभी इस के अलगअलग पैटर्न हैं.
कोल्हापुरी चप्पलें खरीदते समय निम्न बातों का ध्यान रखना जरूरी है:
इन की सिलाई पर ध्यान दें.
पहन कर देखें कि कहीं चप्पलें चुभ तो नहीं रहीं.
चप्पलें ढीली न हों, क्योंकि अकसर कोल्हापुरी चप्पलें और जूतियां कुछ समय बाद ढीली हो जाती हैं.
बारिश के मौसम में कोल्हापुरी चप्पलों को प्लास्टिक की थैली में डाल कर बंद कर रखें ताकि इन के अंदर हवा न जा पाए. समयसमय पर थोड़ी पौलिश करते रहने से ये आराम से 2-3 साल चल जाती हैं.
खतरे में उद्योग
गत 4 मार्च, 2015 के महाराष्ट्र पशु संरक्षण (संशोधन) अधिनियम द्वारा बैलों और भैंसों के वध पर प्रतिबंध लगा दिए जाने से यह व्यवसाय खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है. इस कानून के तहत किसी को भी गोमांस बेचने या वध करने पर क्व10 हजार का जुर्माना और 5 साल तक की जेल हो सकती है.
भले महाराष्ट्र सरकार इस पर प्रतिबंध लगा कर अपनी पीठ को थपथपाती हुई कह रही हो कि इस से न केवल लोगों में जानवरों के प्रति दया की भावना जाग्रत होगी, बल्कि इस से कृषि संबंधी अर्थव्यवस्था का भी विकास होगा. लेकिन जानकार बताते हैं कि हमारे देश में वयस्क पशुओं को संरक्षण देने की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं है. कुछ स्थानों पर ऐसे पशुओं को चारा न दे पाने की वजह से खुला छोड़ दिया जाता है. ये पशु चारे की तलाश में सैकड़ों मील चलते हुए मर जाते हैं जो पर्यावरण के लिए खतरा बन सकते हैं. पशु वध महाराष्ट्र को छोड़ कर बाकी किसी राज्य में बैन नहीं है. ऐसे में जानवरों की बिक्री को ले कर कालाबाजारी शुरू हो सकती है. कोल्हापुरी चप्पलें बनाने वाले मानते हैं कि इस व्यवसाय में भैंसों और बैलों का चमड़ा ही प्रयोग होता है, गाय का नहीं. अधिक ब्रैंडेड कंपनियां ही लैदर शूज के लिए गाय के चमड़े का प्रयोग करती हैं. इसलिए इस तरह के बैन से महाराष्ट्र के हजारों लोगों की रोजीरोटी छिन जाएगी.
हालांकि पिछले कुछ सालों से सस्ती और नकली कोल्हापुरी चप्पलें बनाई जा रही हैं, जिन में चमड़े की जगह प्लाइवुड का प्रयोग होता है. इसलिए उन की कोई गारंटी नहीं, अगर इस पर विचार नहीं किया गया तो असली अच्छी कोल्हापुरी चप्पलें पहनने को लोग तरस जाएंगे.