सविता अपनी सहेली की बर्थडे पार्टी में गई थी. पार्टी पूरे शबाब पर थी. वह झूम कर नाच रही थी. उसी वक्त उस की साड़ी से मोती टूट कर गिरने लगे. पार्टी में शामिल लोग उसे ऐसे देख रहे थे, जैसे उस ने सस्ती साड़ी पहन रखी हो. जबकि सचाई यह थी कि उस ने मोतीवर्क वाली वह साड़ी शहर के एक बड़े शोरूम से महंगे दाम में खरीदी थी. प्रीति ने अपनी शादी के लिए शहर के एक बड़े शोरूम से लहंगा और साडि़यां खरीदीं. बाद में पता चला कि यह रीयल क्वालिटी की ड्रैस की कौपी थी. विनोद ने अपनी गर्लफ्रैंड को उस के बर्थडे पर एक सलवारसूट खरीद कर दिया. सूट पा कर वह बहुत खुश हुई. लेकिन कुछ दिन बाद उस की गर्लफ्रैंड ने सूट लौटाते हुए कहा, ‘‘ऐसा सड़ा हुआ गिफ्ट देने की क्या जरूरत थी?’’ सूट एक ही बार धोने पर टाइट हो गया और उस का रंग भी उतर गया था.

ऐसी घटनाएं सुनाई देना आम बात है. फैब्रिक यानी कपड़ों का चुनाव करना एक मुश्किल काम है, क्योंकि हर किसी को फैब्रिक की पहचान नहीं होती. आजकल ब्रैंडेड कंपनियों के मिलतेजुलते नाम वाले लेबल लगी ड्रैस मार्केट में मौजूद हैं, जिन्हें पहचान पाना बहुत ही मुश्किल है.

क्वालिटी पर दें ध्यान

अधिकतर लोग कपड़े खरीदते वक्त कपड़े की क्वालिटी के बजाय उस के रंग और डिजाइन पर अधिक ध्यान देते हैं. इस का फायदा भी दुकानदार उठाते हैं. वे भड़कीले रंगों के विभिन्न डिजाइनों के कपड़े हैलोजन की लाइट में दिखाते हैं. ग्राहकों को रोशनी की चकाचौंध में ड्रैस अच्छी लगती है और वे फैब्रिक पर ध्यान दिए बिना उसे खरीद लेते हैं. निफ्ट से पासआउट हुए मोहित मंडल का कहना है, ‘‘आजकल लोगों में अच्छे कपड़े पहनने व खरीदने की चाह बढ़ी है. पर लोगों में कपड़ों की पहचान न होने की वजह से वे अच्छी क्वालिटी के कपड़े नहीं खरीद पाते हैं.’’ टैक्सटाइल का कोर्स कर रही कोकिला सरकार का कहना है, ‘‘फैब्रिक अनेक प्रकार के होते हैं. सभी फैब्रिक को पहचान लेना हर किसी के बस की बात नहीं है. आजकल बाजार में नएनए फैब्रिक आ रहे हैं, जो दिखने में काफी अच्छे लगते हैं पर उन्हें धोने के बाद उन की असलियत सामने आती है.’’

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