मुझे याद है जब मैं करीब 15 साल की थी. 10वीं क्लास की पढ़ाई का प्रैशर और अपनी मनमानी न कर पाने का गुस्सा अलग ही अनुभवों की लिस्ट सी बनाता चला गया और युवा होतेहोते इस का अंदाजा भी नहीं लगा.
उन में से एक था बातबात पर गुस्सा हो कर मम्मीपापा से बात करना छोड़ देना. मम्मी कहीं जाने से मना कर देतीं तो कभी पापा अपनी पसंदीदा ड्रैस के लिए पैसे देने से मना कर देते. रोती और गुस्सा होती और कईकई दिन तक मम्मीपापा से बात नहीं करती.
अन्य टीनऐजर्स बच्चों की तरह मैं भी अपने पेरैंट्स से दिनभर की बातें करती थी जैसे दिनभर की थकान, स्कूल में मैडम की डांट तो क्लासमेट से हुई नोंकझोंक सबकुछ बताती थी, फिर धीरेधीरे सब छूटने लगा.
गुस्सा करना और बात न करना एक आदत सी बनता चला गया. शुरूशुरू में मम्मीपापा भी हंस कर टाल देते थे. मनाने की कोशिश करते, हंसाने की कोशिश भी करते. लेकिन मैं अपनी जिद्द पर अड़ी रहती, न बात करती और न ही उन की बातों का जवाब देती. फिर धीरेधीरे वह भी बंद हो गया. कम्यूनिकेशन गैप बढ़ता चला गया. आखिर वह भी कितना अपनेआप को एक ही चीज के लिए फोर्स करते.
खेलते हुए हम लोग गंभीर से हो गए, युवा होने तक ऐसा ही रहा और आज भी है. पेरैंट्स और टीनऐजर्स के बीच कम्यूनिकेशन गैप का बढ़ जाना ठीक नहीं है. बाद में यह आप को अलगथलग कर देता है. इसलिए पेरैंट्स के साथ अपना कम्यूनिकेशन बनाए रखना बेहद जरूरी हो जाता है.
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