कार्यालय में अपनी सीट पर बैठेबैठे अचानक मोनिका की नजर टेबल पर लगे कैलैंडर पर चली गई. दीवाली की तारीख नजदीक आते देख सब से पहले जो सवाल उस के जेहन में कौंधा वह था कि रिजर्वेशन मिलेगा या नहीं? अगले ही पल उस की उंगलियां लैपटौप के कीबोर्ड पर दौड़ने लगीं, लेकिन उसे हताशा हाथ लगी. सभी सीटें फुल हो चुकी थीं. ट्रेन का ही नहीं उसे बस और हवाईजहाज का भी टिकट न मिला. अब वह सोच में पड़ गई कि घर कैसे जाए और यदि न जा पाए तो परिवार से दूर कैसे त्योहार मनाए?
मोनिका की ही तरह और भी न जाने कितने लोग अपने घरपरिवार से दूर दूसरे शहरों में रहते हैं. सब की घरपरिवार से दूर रहने की अपनी वजह है. कोई पढ़ाई के लिए तो कोई नौकरी की वजह से दूसरे शहर में बसेरा डाले हुए है. काम और पढ़ाई में उलझे ऐसे लोगों को हर दिन तो नहीं लेकिन तीजत्योहार पर परिवार वालों की कमी बहुत खलती है. इसीलिए वे त्योहारों पर घर जाने की जद्दोजेहद में लगे रहते हैं. रिजर्वेशन खुलते ही लोग अपनी सीट बुक कराने के लिए इंटरनैट से चिपक जाते हैं. कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो खासतौर पर रिजर्वेशन कराने के लिए दफ्तर से छुट्टी ले कर रेलवे स्टेशन में लगी लंबी कतार में घंटों खड़े रहते हैं. मगर उस के बाद भी कई बार रिजर्वेशन नहीं हो पाता है. ऐसे में कभीकभी अपने ही शहर में रहने वाले यारदोस्तों, जिन को घर जाने के लिए सीट मिल चुकी होती है, उन की खुशामद करनी पड़ती है, तो कभी रिश्वत का सहारा लेना पड़ता है.
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