जब भी कौलेज के दिनों को याद करता हूं तो दिल और दिमाग मानों एक सैर पर निकल पड़ता हैं. एक ऐसी सैर पर जहां खट्टी-मीठी यादों के झरने है. उस समय के नए नए अनुभवों की वादियां हैं. कुछ उबड़ खाबड़,तो कुछ सुलझे हुए रास्ते हैं. परीक्षा के बादल हैं के तो उनमें उत्तीर्ण होने की खुशी की बारिश हैं और सबसे महत्वपूर्ण मेरी दोस्ती की फुलवारी हैं.
इस फुलवारी के तरह-तरह के फूल मानों मुझे मेरी उन तरह-तरह के दोस्तों की याद दिलाते हैं जिसने साथ मैंने कौलेज के वो स्वर्णिम दिन गुजारे थे. इस फुलवारी में फूलों का एक गुछ्छा भी है. जो मुझे उन लड़कियों की याद दिलाता हैं जिनसे मैं कौलेज के तीसरे वर्ष में मिला था. उनमें से कुछ मुझसे उम्र में छोटी तो कुछ मेरी उम्र की थी.
मैं अक्सर उनके होस्टल में शाम के समय में जाया करता था. जिस समय वो सभी होस्टल के प्रांगण में इकट्ठा होकर शाम की वंदना कर रही होती थी. उनकी वो सुरमयी और लय-बंद आवाज आज भी मुझे अच्छे से याद हैं. उन्हें भी मेरी आवाज अच्छे से याद होगी और शायद सिर्फ आवाज ही याद होगी क्योंकि वो सभी देख जो नहीं सकती थी.
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लोग कहते है कि दोस्ती हमेशा अच्छे से देख परख ही करनी चाहिए, लेकिन उन लड़कियां ने तो मुझसे बिना देखें ही दोस्ती कर ली थी. हां…मुझसे या शायद मेरी आवाज से क्योंकि मेरी आवाज ही तो थी जिसे वो उन दिनों शायद रोज ही सुनती थी या कह लो वो मेरी आवाज को पढ़ती थी. मेरी उनसे दोस्ती की कहानी कुछ इस तरह शुरु होती हैं.