आप एक सिचुऐशन इमेजिन कीजिए जहां एक पत्नी एक वैलइस्टैबलिश्ड कंपनी में हायर पोस्ट पर है और उस का पति घर पर रह कर घर के सभी कामकाज उसी तरह संभाल रहा है, जिस तरह एक घरेलू पत्नी यानी हाउसवाइफ संभालती है. सुबह उठ कर बैड टी बनाता है. पत्नी के लिए ब्रेकफास्ट बनाता है, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करता है और उन्हें बस स्टौप तक छोड़ने जाता है. पत्नी के औफिस जाने के बाद पीछे से घर की सारी जिम्मेदारी संभालता है. बाजार से सब्जी लाता है, मेड से काम कराता है यानी वह पूरी तरह हाउस हसबैंड बन जाता है.
आप कहेंगे यह तो पिछले दिनों रिलीज हुई आर बाल्की की फिल्म ‘की एंड का’ जैसी स्थिति है. जी हां, यह सिचुऐशन बिलकुल वैसी ही है और इस में हैरानी वाली कोई बात नहीं है. जब एक महिला घर से निकल कर कौरपोरेट जगत में अपनी पहचान बना सकती है, तो पुरुष हाउस हसबैंड क्यों नहीं बन सकता?
दरअसल, हमारी सामाजिक व्यवस्था ही कुछ ऐसी है, जिस में बचपन से लड़कियों को ही घर के काम जैसे खाना बनाना, कपड़े धोना, साफसफाई करना, सिलाईकढ़ाई करना आदि सिखाया जाता है और लड़कों को घर के बाहर के काम कराए जाते हैं. इस चक्कर में लड़कों को घरेलू कार्यों से कोई वास्ता नहीं रहता. उन्हें यह तक नहीं पता होता कि रसोई में कौन से डब्बे में चीनी और कौन से में नमक रखा है. इसलिए ऐसे लड़कों का जब विवाह हो जाता है, तो उन्हें घरेलू कार्यों की कोई समझ नहीं होती और वे पूरी तरह से अपनी पत्नी पर निर्भर रहते हैं. उस की गैरमौजूदगी में वे एक कप चाय भी न बना कर पी पाते. ऐसे में अगर पत्नी कामकाजी है, तो जब वह औफिस से घर पहुंचती है, तो रसोई और घर के काम उस का इंतजार कर रहे होते हैं. थकीहारी पत्नी को ही रसोई का सारा काम करना पड़ता है.
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