अंगे्रजी में एक कहावत है-‘स्पेयर द राॅड एण्ड स्पाॅइल द चाइल्ड’ मतलब यह कि अगर बच्चे को डांटकर या पिटाई करके अनुशासित करने की कोशिश की तो वह उल्टे और बिगड़ जायेगा. भले आज भी हमें कई ऐसे महानुभाव मिल जाते हों, जो यह राग अलापते न थकते हों कि पिटाई के बिना बच्चे काबू में नहीं आते. लेकिन सच्चाई यह है कि दुनिया के ज्यादातर देशांे में बच्चों पर न केवल पैरेंट्स बल्कि टीचर का हाथ उठाना भी गैरकानूनी है. दरअसल बच्चों के प्रति हिंसा के विरूद्ध इस तरह के कानून इसलिए बने हैं क्योंकि दुनिया के बड़े बड़े समाजशास्त्री और मनोविद यह मानते हैं कि हिंसा से बच्चों में सुधार नहीं लाया जा सकता.

समाजशास्त्रियों और मनोविदों ने बच्चों के बाल मन का गहराई से अध्ययन किया है और यह पाया है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि छोटे बच्चों को अनुशासित करना काफी कठिन होता है, लेकिन इसके लिए मासूमों की पिटाई करना या उन्हें पिटाई का भय दिखाना, कतई सही नहीं है. हर घर या स्कूल में कुछ ऐसे शरारती बच्चे होते ही हैं, जो परेशानी का कारण न भी हों तो भी अकसर परेशानी में पड़ जाते हैं. पुराने समय में ऐसे बच्चों को अनुशासित करने का एक ही तरीका होता था, उन्हें डांटना, शारीरिक या मानसिक सजा देना. यहां तक कि स्कूल में अध्यापक उन्हें क्लास तक से निकाल देते थे.

मगर सवाल है इतने कड़े अनुशासनों से क्या वाकई बच्चे कुछ सीखते हैं? क्या उनका आक्रामक रूख शांत होता है? अगर सचमुच ऐसा होता तो एक समय के बाद बच्चों में इस तरह की समस्याएं ही न रहतीं. ऐसी समस्याएं हमेशा के लिए खत्म हो गई होतीं. मगर हम सब जानते हैं कि ऐसा नहीं हुआ. जाहिर है बच्चे मारपीट से अनुशासित नहीं होते. मनोवैज्ञानिकों ने बच्चों के मनोविज्ञान पर लंबे समय तक नजर रखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उन्हें अनुशासित रखने मंे शारीरिक या मनोवैज्ञानिक सजा का कोई असर नहीं होता. मनोवैज्ञानिकों ने इस संबंध में एक महत्वपूर्ण बात यह खोजी है कि अगर बच्चों को लगातार सुध्ाारने व सजा देने का सिलसिला जारी रखा जाए तो वे सजा पाने के आदी हो जाएंगे और फिर इसका उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. दूसरे शब्दांे में सजाएं देना इच्छित नतीजे बरामद करने का जरिया नहीं हैं.

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