हाल ही में लांसेट पब्लिक हेल्थ जर्नल में प्रकाशित गए एक ग्लोबल सर्वे के मुताबिक 2016 में दुनिया भर की जितनी भी महिलाओं ने आत्महत्या की उन में हर तीसरी महिला यानि 37 % एक भारतीय है.

कम उम्र में शादी और बच्चे, घरेलू  हिंसा, समाज में दोयम दर्जा, करियर के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ, कलह, वित्तीय परतंत्रता जैसी वजह उन्हें डिप्रेशन में डाल जाते हैं. वे अपना पक्ष बोलना चाहें तो उन्हें चुप करा दिया जाता है. उन की अपेक्षाओं को नजरअंदाज किया जाता है.

असल में, ज्यादातर महिलाएं एक बात से ज़्यादातर जूझती हैं या यह कह सकते हैं कि उसके लिए वह तैयार नहीं हो पाती, वह मुद्दा है उन की स्वयं से अपेक्षाएं और दूसरों की उनसे अपेक्षाओं के बीच उठने वाला विरोधाभास.

28 साल की प्रज्ञा कहती हैं  , "शादी से पहले तो मेरा बॉयफ्रेंड अलग था. हम दोनों के बीच में बहुत अंडरस्टेंडिंग थी लेकिन शादी के बाद तो वह बिलकुल बदल गया है.   मुझ से कहता है कि मुझे उसके पेरेंट्स के हिसाब से चलना होगा.ऐसा लगता है जैसे मेरा अपना कोई वजूद ही नहीं.'

वस्तुतः  शादी के बाद महिलाओं से खुद ब खुद आधुनिक से पारंपरिक तौरतरीकों में बदल जाने की अपेक्षा की जाती है और उन्हें इस दोहरी भूमिका की तैयारी के लिए वक्त भी नहीं दिया जाता है.

कई महिलाएं शादी के बाद काम करना चाहती हैं लेकिन उन से ऐसा नहीं करने की उम्मीद की जाती है. कभीकभी काम करने वाली महिलाओं से घर भी संभालने और साथ ही उन की कमाई भी घर में देने की उम्मीद की जाती है.

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