मातृत्व का एहसास औरत के लिए कुदरत से मिला सब से बड़ा वरदान है. औरत का सृजनकर्ता का रूप ही उसे पुरुषप्रधान समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान देता है. मां वह गरिमामय शब्द है जो औरत को पूर्णता का एहसास दिलाता है व जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती. यह एहसास ऐसा भावनात्मक व खूबसूरत है जो किसी भी स्त्री के लिए शब्दों में व्यक्त करना शायद असंभव है.
वह सृजनकर्ता है, इसीलिए अधिकतर बच्चे पिता से भी अधिक मां के करीब होते हैं. जब पहली बार उस के अपने ही शरीर का एक अंश गोद में आ कर अपने नन्हेनन्हे हाथों से उसे छूता है और जब वह उस फूल से कोमल, जादुई एहसास को अपने सीने से लगाती है, तब वह उस को पैदा करते समय हुए भयंकर दर्द की प्रक्रिया को भूल जाती है.
लेकिन भारतीय समाज में मातृत्व धारण न कर पाने के चलते महिला को बांझ, अपशकुनी आदि शब्दों से संबोधित कर उस का तिरस्कार किया जाता है, उस का शुभ कार्यों में सम्मिलित होना वर्जित माना जाता है. पितृसत्तात्मक इस समाज में यदि किसी महिला की पहचान है तो केवल उस की मातृत्व क्षमता के कारण. हालांकि कुदरत ने महिलाओं को मां बनने की नायाब क्षमता दी है, लेकिन इस का यह मतलब कतई नहीं है कि उस पर मातृत्व थोपा जाए जैसा कि अधिकांश महिलाओं के साथ होता है.
विवाह होते ही ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ के आशीर्वाद से महिला पर मां बनने के लिए समाज व परिवार का दबाव पड़ने लगता है. विवाह के सालभर होतेहोते वह ‘कब खबर सुना रही है’ जैसे प्रश्नचिह्नों के घेरे में घिरने लगती है. इस संदर्भ में उस का व्यक्तिगत निर्णय न हो कर परिवार या समाज का निर्णय ही सर्वोपरि होता है, जैसे कि वह हाड़मांस की बनी न हो कर, बच्चे पैदा करने की मशीन है.
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