ग्लोबलाइजेशन के इस युग में किताबें हम से दूर होती जा रही हैं. पहले ऐसा नहीं था. पुस्तकें हमारी संगीसाथी हुआ करती थीं और यह कहावत सिद्ध करती थी कि बेहतर जिंदगी का रास्ता किताबों से हो कर गुजरता है. यदि आप नियमित रूप से नहीं पढ़ते हैं तो हर दिन एक किताब के कुछ पन्नों को पढ़ना शुरू करें या फिर समाचार देखने के बजाय अखबार, पत्रिकाएं पढ़ें. जल्दी ही आप को एहसास हो जाएगा कि फिल्में देखने के बजाय किताबें पढ़ना क्यों अच्छा है.
मस्तिष्क की कसरत
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पुस्तकों के बारे में कहना था कि जो पुस्तकें सब से अधिक सोचने को मजबूर करें वही उत्तम पुस्तकें हैं. पढ़ने की आदत से इंसान का दिमाग सतत विचारशील रहता है. इस से उस के सोचनेसमझने का दायरा व्यापक होता है. पुस्तक पढ़ने वाला व्यक्ति अकसर कोई गलत निर्णय नहीं लेता क्योंकि हर महत्त्वपूर्ण बात के अच्छे व बुरे पक्ष पर गहराई से विचार करना उस की आदत बन जाती है. उस का विवेक सदा क्रियाशील रहता है और विवेकवान व्यक्ति ही जीवन में सफल होते हैं. रूस में एक कहावत है कि जहां सौ प्रतिशत बुद्धि लगती हो वहां एक प्रतिशत कौमन सैंस से भी काम चल जाता है. यह कौमन सैंस सिर्फ पुस्तकें ही विकसित कर सकती हैं. टीवी देखने में काफी समय खर्च हो जाता है और बदले में ज्ञान के नाम पर कुछ खास प्राप्ति नहीं होती.
बढ़ती है एकाग्रता
पुस्तकें पढ़ते वक्त पाठक अकेला होता है और पढ़ने में पूरी तरह खोया रहता है. यही क्रिया एकाग्रता को बढ़ाती है. किसी भी काम में सफलता प्राप्त करने के लिए सब से ज्यादा जरूरी उस काम के प्रति एकाग्रता का अधिकतम होना अनिवार्य है. यदि मन इधरउधर भटका तो जैसी चाहते हैं वैसी सफलता नहीं मिल पाती.