समाचारपत्र में हर रोज नकारात्मकता और विकृत सच्चाई से रूबरू होना ही होता है. एक सुबह खेल समाचार पढ़ते हुए पन्ने पर एक समाचार मन खराब करने वाला था. अवकाशप्राप्त निर्देशक का शव बेटे की बाट जोहता रह गया.
एक समय महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन व्यक्ति, जिस की पत्नी मर चुकी थी, आज वृद्धाश्रम में रह रहा था. उन का एकमात्र बेटा विदेश में जा बसा था. उसे खबर ही एक दिन बाद मिली और उस ने तुरंत आने में असमर्थता जाहिर की. देश में बसे रिश्तेदारों ने भी अंतिम क्रियाकर्म करने से इनकार कर दिया. आश्रम के संरक्षक ने शवदहन किया. एक समय पैसा, पावर और पद के मद में जीता व्यक्ति अंतिम समय में वृद्धाश्रम में अजनबियों के बीच रहा और अनाथों सा मरा.
आखिर लोग कहां जा रहे हैं? बेटे की निष्ठुरता, रिश्तेदारों की अवहेलना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर जीवन का गणित कहां गलत हुआ जो अंत ऐसा भयानक रहा. दुनिया में खुद के संतान होने के बावजूद अकेलेपन का अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर होना पड़ा. जवानी तो व्यक्ति अपने शारीरिक बल और व्यस्तता में बिता लेता है पर बुढ़ापे की निर्बलता व अकेलापन उसे किसी सहारे के लिए उत्कंठित करता है.
विदेशों से इतर हमारे देश में सामाजिक संरचना ही कुछ ऐसी है कि परिवार में सब एकदूसरे से गुथे हुए से रहते हैं. मांबाप अपने बच्चों की देखभाल उन के बच्चे हो जाने तक करते हैं. अचानक इस ढांचे में चरमराहट की आहट सुनी जाने लगी है. संस्कार के रूप में चले आने वाले व्यवहार में तबदीलियां आने लगी हैं. बच्चों के लिए संपूर्ण जीवन होम करने वाले जीवन के अंतिम वर्ष क्यों अभिशप्त, अकेलेपन और बेचारगी में जीने को मजबूर हो जाते हैं? इस बात की चर्चा देशभर के अलगअलग प्रांतों की महिलाओं से की गई. सभी ने संतान के व्यवहार पर आश्चर्य व्यक्त किया.
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