लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह
"नेहा मेरी नैंसी को तुम ने गुस्से में कुछ कहा क्यों?" गुस्से में लालपीली होते हुए मालती जोरजोर से कह रही थी.
"अरे मालती मैं तो नैंसी और विश्वा, दोनों पर गुस्सा कर रही थी. वह भी इसलिए कि दोनों बहुत धमाल कर रही थीं." नेहा ने शांति से कहा.
"बच्चे धमाल नहीं करेंगें तो कौन करेगा?" कटाक्ष करते हुए मालती बोली.
"अगर बच्चे इतने ही प्यारे हैं तो अपने घर बुला कर धमाल कराओ न. मुझे नहीं अच्छा लगता. एक तो सभी को संभालो, ऊपर से ताना भी सुनो." मालती की बातों से तंग आ कर नेहा गुस्से में बोली.
"मुझे सब पता है. नैंसी ने मुझे सब बताया है, जो तुम ने उसे कहा है. तुम ने उसे घर जाने के लिए भी कहा है. यह लड़की समझती ही नहीं, वरना किसी के घर जाने की क्या जरूरत है?"
"किसी के घर नहीं मालती, जिस तरह मैं अपनी विश्वा को रखती हूं, उसी तरह नैंसी को भी रखती हूं. अगर कभी गुस्सा आ गया तो इसमें क्या हो गया? अगर विश्वा कभी कोई गलती करती है तो मैं उस पर भी गुस्सा करती हूं."
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दोनों पड़ोसन सहेलियों ने छोटी सी बात पर पूरी कालोनी सिर पर उठा ली थी. एक छोटी सी बात ने बहुत बड़ा रूप ले लिया था. दोनों के गुग्स्से का पारा लिमिट के ऊपर जा रहा था. अगलबगल वाले अपना काम छोड़ कर जुगल जोड़ी कही जाने वाली सहेलियों का झगड़ा देखने लगी थी. वैसे भी जिनके पास कामधाम नहीं होता, इस तरह के लोग किसी के घर आग लगने पर उसे बुझाने के बजाय उसमें तेल डाल कर रोटी सेंकने में माहिर होते हैं. यहां भी लोगों के लिए रंगमंच पर नाटक जमा हुआ था और कोई भी यह मजा छोड़ना नहीं चाहता, इस तरह जमा हुआ था.