जलन एक सामान्य भावना है. सब का अपने जीवन में इस भावना से सामना होता ही है, चाहे कोई इसे स्वीकार करे या न करे, पर यह भावना एक स्वस्थ भाव से अस्वस्थ और हानिकारक भाव में बदल जाए, तब चिंता की बात है.
जलन के भी अनेक रूप होते हैं. यह केवल दूसरों की उपलब्धियों को सहन कर पाने की अक्षमता के रूप में हो सकती है या इस में यह इच्छा भी शामिल हो सकती है कि वे उपलब्धियां हमें हासिल हों. हम यह चाहें कि हमारे पास वह हो जो दूसरों के पास हो और हम यह भी चाह सकते हैं कि उस के पास वह चीज न रहे.
जलन अकसर ही क्रोध, आक्रोश, अपर्याप्तता, लाचारी और नफरत के रूप में भावनाओं का एक संयोजन होता है. यह एक मानसिक कैंसर है.
‘जलन तू न गई मेरे मन से...‘ रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित एक निबंध है. इस में लेखक ने जलन होने के कारण और उस से होने वाले नुकसानों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है. जलनलु व्यक्ति असंतोषी प्रवृत्ति के होते हैं.
लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने जलन की बड़ी बेटी का नाम निंदा बताया है. जलन के कारण ही व्यक्ति दूसरों की निंदा करता है. जो व्यक्ति सादा व सरल होता है, वह यह सोच कर परेशान होता है कि दूसरा व्यक्ति मुझ से क्यों जलन करता है.
ईश्वर चंद्र विद्या सागर ने भी एक बार कहा था कि, ‘‘तुम्हारी निंदा वही करता है, जिस की तुम ने भलाई की है.‘‘
और जब महान लेखक नीत्से इस से हो कर गुजरे, तो इसे उन्होंने बाजार में भिनभिनाने वाली मक्खी बताया, जो सामने व्यक्ति की तारीफ और पीठ पीछे उसी की बुराई करती है. वे कहते हैं, ‘‘ये मक्खियां हमारे अंदर व्याप्त गुणों के लिए सजा देती हैं और बुराइयों को माफ कर देती हैं.’’