क्या कोविड-19 के विश्वव्यापी संक्रमण ने कार्यस्थलों के समाजशास्त्र को उलट पलट दिया है? किसी हद तक इस सवाल का जवाब है, हां, ऐसा ही है. तमाम मीडिया रिपोर्टें इस बात की तस्दीक कर रही हैं कि कोरोना संक्रमण के बाद से पूरी दुनिया के कार्यस्थलों का समाजशास्त्र तनाव में है. इसकी वजह है इनकी पारंपरिक व्यवस्था का उलट पलट हो जाना. जिन देशों में लाॅकडाउन नहीं भी लगा या लाॅकडाउन लगने के बाद अब यह पूरी तरह से उठ चुका है, वहां भी दफ्तरों की दुनिया कोरोना संक्रमण के पहले जैसी थी, वैसी अब नहीं रही. न्यूयार्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना के बाद से पूरी दुनिया में 25 से 40 फीसदी तक कर्मचारियों को या तो वर्क फ्राॅम होम दे दिया गया है या फिर बड़ी संख्या में उनकी छंटनी कर दी गई है. कुल मिलाकर इतने या इससे ज्यादा कर्मचारी अब नियमित रूप से दफ्तरों में नहीं आते.
हालांकि आधुनिक तकनीक के चलते घर से काम करने में कोई बड़ी दिक्कत नहीं है. जूम और इसके जैसे तमाम दूसरे ऐसे साॅफ्टवेयर आ गये हंै, जिनके चलते आप कहीं से भी दफ्तर के लोगों के साथ मीटिंग कर सकते हैं. इस मीटिंग में भी आमने सामने जैसे बैठे होने की फीलिंग होगी. आप इन तकनीकी उपकरणों के चलते कामकाज संबंधी सारी बातचीत कर सकते हैं, काम और जिम्मेदारियों का आदान प्रदान कर सकते हैं. सवाल है फिर भी तमाम कर्मचारी एक दूसरे से इस तरह दूर दूर हो जाने या दफ्तर में रहते हुए बरती जाने वाली सोशल डिस्टेंसिंग से परेशान क्यों हैं?
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जी, हां! कोरोना के कारण तमाम सहकर्मी जो एक दूसरे से दूर हो गये हैं, वे एक दूसरे को छू नहीं सकते. अगर अब भी वे दफ्तर में साथ-साथ हैं तो भी सोशल डिस्टेंसिंग के कारण वे एक दूसरे को महसूस नहीं सकते. कहने और सुनने में यह बात भले थोड़ी अटपटी लग रही हो, लेकिन इसकी वजह यह है कि दफ्तरों में बड़े पैमाने पर ऐसे स्त्री पुरुष हैं जो एक दूसरे के साथ ‘वर्क वाइफ, वर्क हसबैंड’ जैसे रिश्तों में जाने अंजाने बंधे हुए हैं. यह किसी एक देश या एक शहर की बात नहीं है. पूरी दुनिया में जहां भी पुरुष और औरत साथ-साथ काम करते हैं, वहां प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से इस तरह के रिश्तों की मौजूदगी है. चाहे भले कई बार लोग इन रिश्तों को स्वीकार तक न करते हों.
दशकों पहले अमरीका की दफ्तरी कार्यसंस्कृति में एक मुहावरे का जन्म हुआ था, ‘वर्क-स्पाउस’. वही मुहावरा हाल के दशकों में विस्तारित होकर ‘वर्क-वाइफ, वर्क-हसबैंड’ में तब्दील हो चुका है. यह कोई चकित कर देने वाली बात भी नहीं है. सालों से दुनिया में इन संबंधों की मौजूदगी है और यह बिल्कुल स्वभाविक है. कहा जाता है कि घर में अगर पालतू कुत्ता होता है, तो उससे भी उतना ही लगाव हो जाता है जितना कि किसी इंसान से. तब फिर भला दो साथ रहने वाले इंसान, वह भी विपरीत सेक्स के, आखिरकार एक दूसरे के लगाव में क्यों नहीं महसूस करेंगे? यही कारण है कि हाल के दशकों में न सिर्फ ‘वर्क-वाइफ, वर्क-हसबैंड’ कल्चर बढ़ी है बल्कि इसे साफगोई से स्वीकार किया जाने लगा है.
आज के दौर में स्त्री और पुरुष दोनो ही घर से बाहर निकलकर साथ-साथ काम कर रहे हैं. दोनो का ही आज घर में रहने की तुलना में दफ्तर में ज्यादा वक्त गुजर रहा है. काम की संस्कृति भी कुछ ऐसी विकसित हुई है कि तमाम काम साथ-साथ मिलकर करने पड़ रहे हैं. लिहाजा एक ही दफ्तर में काम करते हुए दो विपरीत लिंगों के बीच प्रोफेशनल के साथ-साथ भावनात्मक नजदीकियां बढ़नी बहुत स्वभाविक है. एक और भी बात है एक जमाना था, जब दफ्तर का मतलब होता था, सिर्फ आठ घंटे. लेकिन आज दफ्तरों का मिजाज आठ घंटे वाला नहीं रह गया है. आज की तारीख में व्हाइट काॅलर जाॅब वाले प्रोफेशनलों के लिए दफ्तर का मतलब है, एक तयशुदा टारगेट पूरा करना, जिसमें हर दिन के 12 घंटे भी लग सकते हैं और कभी-कभी लगातार 24-36 घंटों तक भी साथ रहते हुए काम करना पड़ सकता है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि अर्थव्यवस्था बदल गई है, दुनिया सिमट गई है और वास्तविकता से ज्यादा चीजें आभासी हो गई हैं. जाहिर है लंबे समय तक दफ्तर में साथ-साथ रहने वाले दो लोग अपने सुख दुख भी साझा करेंगे. क्योंकि जब दो लोग साथ-साथ रहते हुए काम करते हैं, तो वे आपस में हंसते भी हैं, साथ खाना भी खाते हैं, एक दूसरे के घर परिवार के बारे में भी सुनते व जानते हैं, बाॅस की बुराई भी मिलकर करते हैं और एक दूसरे को तरोताजा रखने के लिए एक दूसरे को चुटकले भी सुनाते हैं. यह सब कुछ एक छोटे से केविन में सम्पन्न होता है, जहां दो सहकर्मी बिल्कुल पास-पास होते हैं. ऐसी स्थिति में वह एक दूसरे की चाहे अनचाहे हर चीज साझा करते हैं. सहकर्मी को कैसा म्युजिक पसंद है यह आपको भी पता होता है और उसे भी. उसे चाॅकलेट पसंद है या आइस्क्रीम यह बात दोनो सहकर्मी भलीभांति जानते हैं. जाहिर है लगाव की डोर इन सब धागों से ही बनती है.
जब साथ काम करते-करते काफी वक्त गुजर जाता है तो हम एक दूसरे के सिर्फ काम की क्षमताएं ही नहीं, उनकी मानसिक बुनावटों और भावनात्मक झुकावों को भी अच्छी तरह जानने लगते हैं. जाहिर है ऐसे में दो विपरीत सेक्स के सहकर्मी एक दूसरे के लिए अपने आपको कुछ इस तरह समायोजित करते हैं कि वे एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं. उनमें आपस में झगड़ा नहीं होता, वे दोनो मिलकर काम करते हैं तो काम भी ज्यादा होता है और थकान भी नहीं होती. दोनो साथ रहते हुए खुश भी रहते हैं. कुल जमा बात कहने की यह है कि ऐसे सहकर्मी मियां-बीवी की तरह काम करने लगते हैं. इसलिए ऐसे लोगों को समाजशास्त्र में परिभाषित करने के लिए वर्क-हसबैंड और वर्क-वाइफ की कैटेगिरी में रखा जाता है.
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पहले इसे सैद्धांतिक तौरपर ही माना और समझा जाता था. लेकिन पूरी दुनिया में मशहूर कॅरिअर वेबसाइट वाल्ट डाटकाम ने एक सर्वे किया है और पाया है कि साल 2010 में ऐसे वर्क-हसबैंड और वर्क-वाइफ तकरीबन 30 फीसदी थे, जो कि साल 2014 में बढ़कर 44 फीसदी हो गये थे. हालांकि इस संबंध में कोरोना के पहले कोई ताजा सर्वे तो नहीं आया था कि आज की तारीख में दफ्तरों में ‘वर्क-वाइफ, वर्क-हसबैंड’ कितने हैं लेकिन कोरोना संक्रमण के बाद दफ्तरों के पारंपरिक ढाचे में जो बदलाव हुआ है और उसके बाद कर्मचारियों में तनाव देखा गया है, उससे यह साफ है कि लोग बहुत जल्द ही इस कल्चर को छोड़ने वाले नहीं है और जबरदस्ती छुड़वाये जाने की स्थितियों के कारण तनावग्रस्त हैं.