कुछ साल पहले इंग्लैंड के गार्जियन अखबार ने एक सीरीज छापी थी, जिसका विषय था ‘आॅफिस वाइफ, ऑफिस हसबैंड’. वास्तव में यह विषय उस अमरीकी मुहावरे का तर्जुमाभर था, जिसका नाम है ‘वर्क-स्पाउस’. वर्क स्पाउस यानी कार्यस्थल के पति-पत्नी. दरअसल अमरीकी कार्यसंस्कृति में यह मुहावरा पिछली सदी के 70 और 80 के दशक में खूब हिट हुआ था, जब वहां उन दिनों बड़े बड़े कारपोरेट दफ्तरों वाले बिजनेस माॅल खुलने शुरु हुए थे, जैसे बिजनेस माॅल हिंदुस्तान में अभी कुछ सालों पहले खुलने शुरु हुए हैं. इस मुहावरे के मूल में धारणा यह है कि सालों साल एक साथ काम करते हुए एक औरत और एक आदमी आपस में पति-पत्नी जैसा व्यवहार करने लगते हैं. खासतौर पर तब, जब उन दोनों में हर कोई बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग नोट करता हो.

वास्तव में यह कोई राजनीतिक या रसायनिक प्रक्रिया का नतीजा नहीं होता बल्कि यह एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है. कहते हैं कि अगर कुछ साल कुत्ते के साथ भी बिता लिये जाएं तो उससे दिली लगाव हो जाता है. तब भला सालों साल साथ काम करने वाले दो लोग, वह भी तब जब वे विपरीत लिंगी हों, भला एक दूसरे के लिए लगाव क्यों नहीं पैदा होगा. दरअसल जब साथ काम करते-करते हमें काफी वक्त गुजर जाता है, तो हम एक दूसरे की सिर्फ काम की क्षमताएं ही नहीं, आपस में एक दूसरे की मानसिक बुनावटों और भावनात्मक झुकावों से भी अच्छी तरह से परिचित हो जाते हैं. जाहिर है ऐसे में दो विपरीत सेक्स के सहकर्मी एक दूसरे के लिए अपने आपको कुछ इस तरह समायोजित करते हैं कि वे एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं.

इस स्थिति के बाद उनमें आपस में झगड़ा नहीं होता, वे दोनो मिलकर काम करते हैं और काम भी ज्यादा करते हैं. उन्हें काम से थकान भी नहीं होती. दोनो साथ रहते हुए खुश भी रहते हैं. कुल जमा बात कहने की यह है कि ऐसे सहकर्मी मियां-बीवी की तरह का व्यवहार करने लगते हैं. इसलिए ऐसे लोगों को समाजशास्त्र में परिभाषित करने के लिए ‘वर्क-हसबैंड और वर्क-वाइफ’ की कैटेगिरी में रखा जाता है. धीरे धीरे इनके बीच हर वह भावना घटने लगती है, जो आमतौर पर किसी शादीशुदा जोड़ों के बीच घटती है. यहां तक कि इनमें भी कई बार तलाक तक होता है. कई बार इनके रिश्ते आपस में काफी ठंडे पड़ जाते हैं और कई बार इनके बीच अलगाव हो जाता है.

जब इस तरह के जोड़ों में से कोई एक किसी दूसरी कंपनी में चला जाता है तो अकेला बचा शख्स अपने लिए नया साथी तलाशता है, ठीक यही बात दूसरी कंपनी में गये शख्स के साथ भी लागू होती है. कई बार यह बिछुड़न ब्रेकअप जैसा एहसास कराती है, जबकि कई बार यह राहत भी देती है. कहने का मतलब यह कि लंबे समय तक टीम मेट के रूप में काम करने वाले दो विपरीतलिंगियों के बीच जबरदस्त भावनात्मक लगाव हो जाता है. इसलिए इन्हें उन तमाम एहसासों से गुजरना पड़ता है, जिससे कोई सामान्य जोड़ा गुजरता है. अमेरिका और यूरोप में तो तमाम मनोविद ऐसे भावनात्मक अलगाव से गुजरने वाले लोगों को काउंसलिंग की सुविधा भी देते हैं.

बहरहाल विशेषज्ञों का कहना है कि भले फिलहाल कोरोना के दबाव में पूरी दुनिया में वर्क फ्राम होम का चलन काफी तेजी से बढ़ गया हो और इस तरह के रिश्तों पर तलवार लटकने लगी हो. लेकिन ये ऐसी भावनात्मक जरूरत वाले रिश्ते हैं जो कभी भी खत्म नहीं हो सकते. जैसे ही स्थितियां सुधरेंगी, कोरोना का डर कम होगा. फिर से दफ्तर गुलजार होंगे. लोग एक दूसरे की नजदीकी से डरेंगे नहीं, झिझकेंगे नहीं, वैसे ही ये रिश्ते फिर से हरे हो जाएंगे. क्योंकि इन रिश्तों में बहुत गहरे तक भावनाएं जुड़ी होती हैं. यहां तक कि कई बार ऐसे जोड़े एक दूसरे का भावनात्मक साथ पाने के लिए अपनी उन्नति और अपनी तरक्की तक को दांव में लगा देते हैं. हालांकि विशेषज्ञों के मुताबिक यह व्यवहारिक कदम नहीं है. इस तरह के रिश्तों के भावनात्मक जाल में फंसकर अपनी बेहतरी के मौके को गंवा देना ठीक नहीं होता.

कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ने का अगर मौका मिला है तो हर हाल में उनमें चढ़ना चाहिए क्या मालूम ऊपर की सीढ़ियों में कोई और बेहतर साथी आपका इंतजार कर रहा हो, जो आपके प्रोफेशनल और भावनात्मक दोनो ही किस्म की जरूरतों को पहले साथी से बेहतर ढंग से पूरा कर सकता है. लेकिन इन बातों का ज्यादातर ऐसे जोड़ों में प्रभाव कम होता है. हां, जो इस तरह की भावनात्मक जकड़बंदी से उबरने के लिए मनोविदों का सहारा लेते हैं, उन्हें जरूर ऐसी बातें सहारा देती हैं. बहरहाल इस तरह के संबंधों को लेकर समाजशास्त्री कहते हैं कि कार्यस्थल पर किसी के साथ काम की जरूरतों और संस्कृति के चलते झुकाव होना गलत नहीं है यानी वर्क-हसबैंड या वर्क-वाइफ होना सामाजिक अनैतिकता नहीं है. इसलिए जैसे ही दफ्तर फिर से पुरानी रौ में आएंगे, यह मुहावरा फिर जिंदा हो जायेगा.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...