लखनऊ की कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये शुरू हुआ लखनऊ महोत्सव का राजनीतिकरण हो चुका है. 25 नवम्बर से 5 दिसम्बर के बीच आयोजित यह महोत्सव इस बार भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेई को समर्पित है. अब यह सवाल उठ रहा है कि लखनऊ महोत्सव कला और संस्कृति के बहाने विदेशी पर्यटको को बुलाने लिये है या सरकारी नीतियों के प्रचार प्रसार के लिये. इससे लखनऊ महोत्सव एक मेला बनकर रह जा रहा है.

1975-76 में लखनऊ महोत्सव की शुरूआत लखनऊ में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये की गई थी. 43 साल के बाद भी लखनऊ महोत्सव अपनी कला और संस्कृति को लेकर अपनी कोई छाप छोड़ने में सफल नहीं रहा है. नेताओं की शह पर अफसर राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से लखनऊ महोत्सव की पहचान को बदलते रहे है. हालात यह है कि लखनऊ महोत्सव के लिये कोई निर्धरित जगह तक सुनिश्चित नहीं हो पाई है. कई बार तो आयोजन के तयसुदा समय 25 नवम्बर से 5 दिसम्बर की जगह समय में भी राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से बदलाव हुये है. नेताओं को खुश रखने के लिये अफसरों ने लखनऊ महोत्सव के कला और संस्कृति की पहचान को मिटाकर सरकारी नीतियों के प्रचार प्रसार का मेला बना डाला.

लखनऊ महोत्सव पहले बेगम हजरतमहल पार्क में लगता था. मायावती के शासनकाल में बेगम हजरतमहल पार्क से हटाकर इसको गोमती नदी किनारे लगाया गया इसके बाद जेल रोड, आशियाना और शिल्प बाजार इसके ठिकाने बनते गये. यही वह दौर था जब लखनऊ महोत्सव में फिल्मों के स्टार कलाकार बुलाये जाने लगे. इसके लिये कलाकारों को लाखो लाख का भुगतान किया जाने लगा. कला संस्कृति की जगह इस पर बाजार हावी होता गया. अफसरों ने अपने चहेतों को कमाई का रास्ता खोल दिया. लखनऊ महोत्सव का सांस्कृतिक आयोजन नेताओं, अफसरों के लिये मनोरंजन का साधन बनकर रह गया. वीवीआईपी पास के जरीये सांस्कृतिक आयोजन में लोग बुलाये जाने लगे. टिकट लेकर महोत्सव देखने वाले केवल साधरण दर्शक बनकर रह गये.

लखनऊ के स्थानीय कलाकारों की जगह पर सिफारिश और बडे कलाकारों को ही मंच मिलने लगा. प्रदेश में बदलती सरकारों ने अपने सरकारी नीतियों के प्रचार के लिये लखनऊ महोत्सव को अपना जरीया बना लिया. लखनऊ महोत्सव के असर को खत्म करने के लिये राजनीतिक स्वार्थ के लिये लक्ष्मण महोत्सव और सैफई महोत्सव को उसके बराबर खड़ा करने का प्रयास भी किया गया. उत्तर प्रदेश की वर्तमान योगी सरकार ने लखनऊ महोत्सव की थीम भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के जीवन और व्यक्त्वि पर रख दी है.

वरिष्ठ सांस्कृतिक समीक्षक, कलाकार और पत्राकार राजवीर रतन सिंह कहते है ‘लखनऊ महोत्सव के आयोजन के पीछे की मंशा देशी यानि प्रदेश के बाहर के पर्यटकों को और विदेश में रहने वाले पर्यटको को लखनउ तक लाने की थी. लखनऊ में पर्यटन का सबसे मुफीद समय अक्टूबर से मार्च तक होता है. जब यहां का मौसम बहुत अच्छा होता है. यही कारण है कि इसके आयोजन में पर्यटन विभाग की भूमिका प्रमुख होती थी. समय के साथ धीरे-धीरे इसके आयोजन में लखनऊ जिला प्रशासन और और सूचना विभाग की भूमिका बढ़ती गई. वहीं से यह कला संस्कृति के बजाय सरकारी नीतियों का प्रचार करने वाला एक मेला बनकर रह गया.’

लखनऊ के आसपास ही खजुराहो महोत्सव और ताज महोत्सव का आयोजन भी होता है. वहां के आयोजनों में देशी-विदेशी पर्यटकों की संख्या सबसे अधिक होती है. लखनऊ महोत्सव देखने विदेशी पर्यटक नहीं आते. लखनऊ महोत्सव के आयोजक केवल यह दिखाते है कि हर साल उनके दर्शकों की संख्या बढी है. ऐसे में यह केवल एक सरकारी मेला बनकर रह गया है. वरिष्ठ पत्रकार रजनीश राज कहते है ‘महोत्सव के दौरान ही एक पत्रिका ‘उर्मिला’ का प्रकाशन होता है. यह पत्रिका भी केवल वीवीआईपी लोगों तक ही पंहुच पाती जनसामान्य तक इसकी पहुंच नहीं हो पा रही है. लखनऊ महोत्सव से जुड़े हुये कार्यक्रम नाटय महोत्सव, पतंग महोत्सव और विटेंज कार रैली अपने स्वरूप के अनुसार नहीं हो पा रहे है. यह लखनउ महोत्सव के नाम से जुडने के बाद भी केवल उनका हिस्सा भर बनकर रह गये है. जो गरिमामयी छवि बननी चाहिये वह नहीं बन पा रही है.’

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...