मेघा और सचिन दोनों ही निजी कंपनी में काम करते हैं. दोनों ही रोज लगभग एक ही समय घर से निकलते थे. शाम को मेघा जल्दी आ जाती थी और सचिन 8 बजे तक आता था. दोनों अपने लिए समय नहीं निकाल पाते थे. ढंग से खाना भी नहीं हो पाता था. उन की किचन में खाना बनाने का सामान कम और औनलाइन खाना भेजने वाली साइटों के फोन नंबर अधिक लिखे होते थे. वे स्वाद को बदलने के लिए साइट बदलबदल कर खाना मंगाते थे. उन के लिए वीकैंड ही सब से खुशहाल भरा होता था. शनिवार और रविवार सब से बड़ी खुशी लाता था.

मेघा कहती है, ‘‘शनिवार की सुबह देर तक सोने का मौका मिलता था तो लगता था कि जीवन की सारी खुशियां मिल गई हों. वीकैंड में ही हम मनपसंद खाना बनाते थे.’’

शालिनी और रमेश दोनों ही मल्टीनैशल कंपनी में काम करते थे. दोनों की नई शादी हुई थी. 1 साल बीत गया. बढ़ती उम्र में शादी हुई थी तो घर वालों को लग रहा था कि बच्चा जल्दी हो जाना चाहिए नहीं तो आगे दिक्कत हो सकती है. घर वालों का दबाव पड़ रहा था. शालिनी और रमेश घर वालों के दबाव में डाक्टर को दिखाने गए. डाक्टर ने पतिपत्नी के वर्किंग स्टाइल को सम झा और देखा कि दोनों कितना समय साथ गुजारते हैं. डाक्टर ने दोनों को सलाह दी कि तनावमुक्त हो कर कुछ वीकैंड साथ बिताएं. कुछ दिनों में उन के घर खुशियां आ गईं.

कोरोना काल में ‘वर्क फ्रौम होम’ और ‘क्वारंटाइन’ शनिवार और रविवार की वीकैंड मस्ती को पूरी तरह से खत्म कर चुके हैं. इस वजह से घरों में तनाव बढ़ने लगा हैं. लोगों में मानसिक बीमारियां फैलने लगी हैं, जो लोग वीकैंड और छुट्टियों का इंतजार करते थे आज वे इन के खत्म होने और फिर से औफिस वर्किंग का इंतजार कर रहे हैं. अब घर में रहना उन को कैद सा लगने लगा है. परिवार में आपस में तनाव का माहौल बढ़ रहा है. संयुक्त परिवार होने से यह बात और भी बिगड़ रही है. अकेले परिवारों की भी परेशानियां कम नहीं हैं.

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वीकैंड का क्रेज

वीकैंड यानी शनिवार और रविवार की छुट्टी का क्रेज कुछ साल पहले तक बहुत होता था. शनिवार और रविवार की छुट्टी को वीकैंड बना कर एक पैकेज की तरह पेश किया गया था. मल्टीनैशनल कंपनियों के इस चलन को देशी कंपनियों के कर्मचारी बहुत ललचाई नजरों से देखते थे. उन को लगता था कि मल्टीनैशनल कंपनियां अपने कर्मचारियों का बहुत ध्यान रखती हैं. मल्टीनैशनल कंपनियों ने भी वीकैंड के इस क्रेज को ऐसे प्रचारित किया था कि वेतन से अधिक इस का लालच कर्मचारियों को हो गया था. नए लोग जब मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करते थे तो अपने साथियों को फख्र के साथ बताते थे कि हमारे यहां ‘फाइव डे वीक’ होता है. 2 दिन की छुट्टी में वीकैंड आराम से कटता है.

नहीं रहा क्रेज

देशी कंपनियों में जहां केवल रविवार को छुट्टी मिलती थी वह ‘‘सौतिहा डाह’’ से वीकैंड मनाने वालों को देखते थे. वीकैंड का चलन धीरेधीरे तेज होने लगा. देशी कंपनियों ने भी खुद को मल्टीनैशनल बनाने के लिए वीकैंड का चलन शुरू किया. देशी कंपनियां वेतन में भले ही मल्टीनैशनल कंपनियों का मुकाबला नहीं करती थी पर वीकैंड में वे मल्टीनैशनल कंपनियों का मुकाबला करने लगीं. एक दिन की छुट्टी को ‘वर्किंग आवर’ यानी ‘काम के घंटे’ बढ़ा कर पूरा किया जाने लगा. पहले साढ़े 9 से साढ़े 5 की औफिस जौब में कर्मचारी को 8 घंटे काम करना पड़ता था. जिन जगहों में शिफ्ट में काम होता था वहां भी एक शिफ्ट 8 घंटे की होती थी.

वीकैंड देने वाली कंपनियों में ‘वर्किंग आवर’ शाम 7 बजे तक कर दिया. इस तरह से हर दिन डेढ़ घंटा कर्मचारी को ज्यादा काम करना पड़ने लगा. इस तरह से शनिवार को एक दिन छुट्टी देने के एवज में कर्मचारियों से रोज डेढ़ घंटे अधिक काम लेना शुरू हो गया. देशी कंपनियों ने एक दिन की अतिरिक्त छुट्टी के एवज में तमाम और बो झ भी कर्मचारियों पर लाद दिए. वीकैंड का यह क्रेज कुछ ही दिनों में सिर से उतरने लगा. तब तक सरकारी कर्मचारियों में भी यह सुविधा शुरू होने लगी. उत्तर प्रदेश में सब से पहले सचिवालय में काम करने वालों को ‘फाइव डे वीक’ शुरू किया गया. बैंकों में भी माह में 2 सप्ताह वीकैंड रहता है.

कोरोना ने खत्म किया क्रेज

जब भी कोई चीज जरूरत से ज्यादा मिलती है तो वह नुकसान ही करती है. यही हाल वीकैंड का भी हुआ. 2020 के मार्च माह से अगस्त माह के बीच पूरे देश में पहले 3 माह का लौकडाउन रहा. इस के बाद वीकैंड में लौकडाउन होने लगा. औफिस और दूसरे कार्यस्थल बंद हो गए. इस दौरान लोगों को घर से काम करना पड़ रहा है. आने वाले दिनों में भी जारी रहेगा. ऐसे में घर से ही ‘वर्क फ्रौम होम’ शुरू हो गया. यहां पर कामकाजी महिलाओं तक को दिक्कत आने लगी. दिक्कत की सब से बड़ी वजह यह रही कि पति का औफिस और बच्चों का स्कूल भी औनलाइन हो गया. ऐसे में एक ही घर और एक ही छत के नीचे रहते हुए भी आपस में बात करने का कोई मौका नहीं मिलता है.

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पहले जैसी बात कहां

आकांक्षा जैन बताती हैं, ‘‘औफिस से काम करने का यह लाभ था कि घर आ कर जो भी समय बचता था उस में केवल घरपरिवार की बातें होती थीं. अब वर्क फ्रौम होम में घर में रहते हुए भी घर वालों के लिए समय नहीं मिल पाता है. यहां औफिस के काम का कोई तय समय नहीं होता. 3-4 घंटे केवल जूम मीटिंग्स में निकल जाते हैं. छोटे घरों में यह दिक्कत होती है कि अगर 3 लोग वर्क फ्रौम होम करने लगे तो जगह कम पड़ने लगती है. मीटिंग के अलावा बहुत सारे काम करने पड़ते हैं. मल्टीनैशनल कंपनियों में रात के समय भी काम करने को कहा जाता है जो एक तरह से परेशानी का सबब बनने लगा है. औफिस में 7-8 घंटे काम करने के लिए जो माहौल और सुविधाएं मिलती थीं वे घर में नहीं मिल पाती हैं. ऐसे में वर्क फ्रौम होम केवल एक विकल्प है. यह औफिस का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि वर्क फ्रौम होम में औफिस के काम जैसी गुणवत्ता नहीं आती है.’’

शनिवाररविवार खत्म होने से नैगेटिव इंपैक्ट

औन लाइन प्रोफैशनल नैटवर्क लिंक्डइन  के एक सर्वे में यह पाया गया है कि करीब  50 फीसदी कामकाजी महिलाएं कोरोना के कारण अधिक दबाव महसूस कर रही है. वे केवल शारीरिक श्रम की वजह से ही नहीं भावनात्मक रूप से भी खुद को परेशान महसूस कर रही हैं. इस सर्वे में 47 फीसदी महिलाओं और 38 फीसदी पुरुषों ने यह बात स्वीकार की. 27 जुलाई से  23 अगस्त 2020 के बीच यह सर्वे किया गया था. इस में 25 सौ से अधिक प्रोफैशनल्स के साथ बात हुई थी. सर्वे में कामकाजी मांओं और कामकाजी महिलाओं दोनों को शामिल किया गया. कामकाजी मांओं ने कहा कि कोरोनाकाल में बच्चों की देखभाल को ले कर चुनौतियां सब से अधिक सामने आईं. वर्क फ्रौम होम में शनिवाररविवार की छुट्टी खत्म हो गई, जिस से उन के व्यवहार में नैगेटिव भाव देखने को मिलने लगे.

महिलाओं और पुरुषों के अलगअलग नजरिए से देखें तो पता चलता है कि 31 फीसदी महिलाओं को पूरे समय बच्चों की देखभाल करनी पड़ी. पहले स्कूल और औफिस खुलने से बच्चों का काफी समय उधर गुजर जाता था. केवल  17 फीसदी पुरुषों ने ही बच्चों को संभालने में पत्नी की मदद की. 44 फीसदी महिलाओं ने माना कि बच्चों की देखभाल करने में उन को वर्किंग आवर से अधिक काम करना पड़ा. 25 फीसदी पुरुषों ने माना कि बच्चों की देखभाल में उन को अपने वर्किंग आवर से अधिक काम करना पड़ा. 20 फीसदी महिलाओं ने माना कि बच्चों की देखभाल के लिए उन को परिवार के सदस्यों या मित्रों पर निर्भर रहना पड़ा. 32 फीसदी पुरुषों ने माना कि वे बच्चों की देखभाल के लिए दूसरों पर निर्भर रहे.

वर्क फ्रौम होम में बढ़ गए काम के घंटे

शनिवार और रविवार सहित वर्क फ्रौम होम में काम करते समय वर्किंग आवर बढ़ गए. 46 फीसदी महिलाओं ने माना कि यहां उन्हें देर तक काम करने की जरूरत होती है. ज्यादा काम करने के बाद भी काम की गुणवत्ता अच्छी नहीं होती है. 42 फीसदी महिलाओं ने माना कि बच्चों के घर में होने के कारण वे काम पर पूरी तरह से ध्यान नहीं दे पाती हैं. इन वजहों से शनिवार और रविवार की छुट्टी का अब कोई क्रेज नहीं रह गया है, बल्कि यह तनाव का कारण बन गई है. अब उन्हें इस बात का इंतजार रहता है कि कब छुट्टियां खत्म हों, वे औफिस जा सकें.

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आकांक्षा जैन कहती हैं कि सप्ताह में 2 दिन हमें औफिस जाने के लिए कहा गया है. अब  मु झे वही 2 दिन वीकैंड से लगने लगे हैं. शनिवार और रविवार का हमारे लिए कोई क्रेज नहीं रह गया है.

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