हाल के एक अध्ययन में पाया गया है कि जिन लोगों को अपने दफ्तर में काम करने के लिए अपना एक केबिन मिला होता है,वे लोग उन लोगों के मुकाबले अपनी जॉब से कहीं ज्यादा संतुष्ट होते हैं,जिन्हें सार्वजनिक रूपसे यानी खुले हाल में दूसरों के साथ वर्किंग टेबल साझी करनी पड़ती है.ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारे परफोर्मेंस और सेटिस्फेक्शन पर हमारी निजता का भी बहुत असर होता है.किसी कामकाजी शख्स की पर्सनैलिटी को दफ्तर में उसके कामकाज की स्थितियां भी बहुत प्रभावित करती हैं.कामकाज की ये स्थितियां ही तय करती हैं दफ्तर में उसकी बेचैनी और नौकरी के संबंध में उसकी संतुष्टि.

यही वजह है कि आज की तारीख में तमाम कम्पनियां ऐसे कार्यस्थल निर्मित कर रही हैं, जहां न तो काइयां बॉस की हर समय चिक चिक सुनाई पड़ती है न ही सिरदर्द बना टारगेट का दबाव सर पर सवार रहता है. इन दफ्तरों में उस तथाकथित दफ्तरी राजनीति के भी दर्शन नहीं होते. ये बिल्कुल सकारात्मक किस्म के दफ्तर हैं. ये ऐसे कार्यस्थल हैं जहां रोज समय से पहले जाने का मन करता है और यहां से देर से निकलने का मन करता है. वर्क कल्चर बहुत तेजी से बदल रही है. इन दिनों तमाम बड़ी कंपनियों का जोर इस बात पर है कि उनके यहां काम करने वाले कर्मचारी कैसे ज्यादा से ज्यादा खुश और संतुष्ट रहें. हालांकि अभी ये ऐसी कम्पनियों से ज्यादा नहीं हैं जहां काम करना तनाव और दबाव का सबब होता है. ऐसे में ये भाग्यशाली कर्मचारी अपने दफ्तर को जन्नत कहते हैं तो क्या बुरा कहते हैं? बेशक ये कंपनियां भी अपने कर्मचारियों को तमाम वेतन और सुविधाएं उन्हीं से कमाकर मुहैय्या कराती हैं. इनके लिए भी इनका क्लाइंट बिना शक सबसे ऊपर है, लेकिन इनकी नजरों में इनका एम्प्लॉयी भी नीचे नहीं हैं. ये वे कंपनियां हैं जो क्लाइंट और एम्प्लॉयी के बीच एक खास तरह का संतुलन बनाती हैं.

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