शैली द्विवेदी, (लखनऊ)             

बात पुरानी है. हम चार भाई-बहन है. पिताजी बैंक की नौकरी करते थे. छोटी सी नौकरी मगर ख्वाब बड़े-बड़े. माताजी ने बच्चो को CMS में बच्चो को पढ़ाने का निश्चय किया था. चार बच्चों की फ़ीस बहुत हुआ करती थी. मां का प्यार और उनका निश्चय बचपन में ही देखा जिसकी छाप आज तक मेरे जेहन से मिटती नहीं. सुबह सवेरे सभी के लिए पराठा-अचार बनाना. पिताजी के लिए लंच. सबकी ड्रेस लगा कर रखना. मैं थोड़ी बिगड़ैल स्वभाव की थी तो मेरे लिए चुपके से आलू छौंक कर लंच में रख देती थी. फिर सबको विदा करके अपने कामों में लग जाती थी. अपने लिए कुछ नही.

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बस जैसे एक धुन थी कि बच्चे कुछ बन जाएं. न नाते न रिश्तेदार. कैसे निभातीं. रिश्तेदारियां भी महंगी होती हैं. फिर बच्चे एक दूसरे से मिलकर रोज़ नई मांग रख देते. वो पूरा करती तो पैसे ना बचते अच्छे स्कूल में पढ़ाने को. बस इसलिए अपनी ख़्वाइशों को दबाती रहती थी. मैंने उन्हें गैस की लाइनों में लगते हुए दलालों से बहस करते देखा है. वो भाई के साथ उसकी साइकिल के पीछे गैस सिलिंडर रख कर लाती थी. मैंने एक बार कोचिंग की जिद्द कर ली. उन्होंने बहुत समझाया बिटिया हम मुश्किल से फीस दे पाते हैं. कोचिंग कैसे करवाएंगे. मगर बाल हठ के आगे कहां चलने वाली. अपने घर खर्च से कटौती कर के मुझे कोचिंग भी पढ़ाया.

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