ज्योति राघव (दिल्ली)
बात 2013 की है. मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की थी. एक प्रमुख समाचार संस्थान में बतौर ट्रेनी काम कर रही थी. रविवार को छुट्टी होती थी और शनिवार की रात को मैं यूपी रोडवेज की बस से अपने होमटाउन खुर्जा जाती थी. शाम को सात बजे औफिस से निकलने के बाद बस में बैठते-बैठते करीब आठ बज जाते थे. बस का दो-तीन घंटे का सफर रात में तय होता था. एक बार बस में मुझे एक महिला मिली, जो पति से झगडा होने के बाद गुस्से में घर से निकलकर आ गई थी. साथ में उसके छोटा बच्चा था. वो महिला रात में निकलकर तो आ गई, लेकिन उसे न तो ये पता था कि जाना कहां है, न ही कोई रास्ता मालूम था.
रात का वक्त था, कंडक्टर ने टिकट काटने को कहा तो वो कुछ बता न पाए कि कहां जाना है. कंडक्टर ने अपनी मर्जी से अलीगढ़ का टिकट काटकर उससे पैसे वसूल लिए. उसी दौरान मेरा बस में चढ़ना हुआ था. वह महिला निरीह की तरह मेरी ओर एक टक देखने लगी. मैंने जैसे ही नजरें मिलाईं तो उसने कंडक्टर की शिकायत करते हुए कहा कि ‘हमाए पैसे नई दे रहा ये.‘ पूछने पर पता चला कि कंडक्टर ने उससे टिकट से ज्यादा पैसे वसूल लिए हैं और बाद में देने के लिए कह रहा है. महिला से पूछा कि आपको जाना कहां है, तो वो बता नहीं पा रही थी, जबकि कंडक्टर ने अलगीढ़ का टिकट काट दिया था. मैंने महिला से पूछा कि अलीगढ़ में कोई रहता है क्या ? तो वो यह तक नहीं समझ पा रही थी कि अलीगढ़ है क्या?
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