नया सवेरा- भाग 2: बड़े भैया के लिए पिताजी का क्या था फैसला

किंतु कब तक कोई बात छिपती है. छोटी भाभी को इस बात की भनक लग गई. उन्होंने बड़ी भाभी, बड़े भैया के बारे में अपनी शंका व्यक्त की. वे उन्हें समझाना चाहती थीं किंतु बड़े भैया ने भाभी पर न जाने क्या जादू कर दिया था कि वे वैसे तो अच्छीभली रहतीं किंतु जहां भैया की बात होती, वे झगड़ने को तैयार हो जातीं. उन से छोटी भाभी की बात सहन न हो सकी. दनदनाती हुई मेरे कमरे में आईं और गुस्से में बोलीं, ‘‘बीनू, तुझ से नहीं रहा गया न. कैसा बित्तेभर का पेट है. पचा नहीं सकी, उगल ही दिया?’’

मां वहीं बैठी थीं. वे आश्चर्य से कभी मुझे तो कभी भाभी को देखने लगीं.

‘‘क्या बात है, बेटे, आखिर हुआ क्या?’’ मां ने पूछा.

मैं ने भी पूछा, ‘‘पर भाभी, हुआ क्या? मैं ने तो किसी को कुछ नहीं कहा.’’ पर वे कहां सुनने वाली थीं. सच ही कहा गया है, क्रोध में इंसान का दिमाग पर कोई बस नहीं होता. तब तक छोटे भैया व भाभी भी आ गए. गनीमत यह थी कि पिताजी शहर से बाहर गए हुए थे और बड़े भैया सो रहे थे.

छोटे भैया ने मां को धीरे से सब बता दिया. फिर भाभी से बोले, ‘‘आप समझती क्यों नहीं हैं, रात देर से घर आना कोई अच्छी बात नहीं है.’’

‘‘अच्छाबुरा वे खूब समझते हैं. साहब बनने के लिए बड़े लोगों के साथ उठनाबैठना तो पड़ेगा ही, वरना कौन तरक्की देगा.’’

मां से सहन नहीं हुआ. उन्होंने जोर से कहा, ‘‘ऐ बहू, रात देर से आने से लोगों की तरक्की होती है, यह एक नई बात सुन रही हूं.’’

‘‘नई नहीं, यह सच है. आप पुराने विचारों की हैं. आप को क्या पता, जब तक बड़े लोगों के साथ पिओपिलाओ नहीं, अफसरी नहीं मिलती,’’ तैश में भाभी के मुंह से खुद ही सारी बात निकल गई.

‘‘ओह, तो आप को पता है कि वे पी कर आते हैं?’’ छोटे भैया ने पूछा.

‘‘थोड़ीबहुत साथ देने के लिए चख ली तो क्या बुराई है. बंबई में तो हर नौजवान बीयर पीता है और मेरे भाई खुद पीते हैं.’’

भाभी से बात करना अपना माथा फोड़ना था. तब तक शोर सुन कर बड़े भैया भी आ गए. उन्हें देख छोटे भैया ने कहा, ‘‘कल आप के दोस्त अजय मिले थे. उन्होंने बताया कि आजकल आप के पास बहुत पैसा रहता है. क्या कोई दूसरी नौकरी मिल गई है? सुनो भाभी, वे बोल रहे थे कि आप के पिताजी हजार रुपए महीना जेबखर्च भेजते हैं,’’ उन्होंने बड़े भैया की उपस्थिति में भाभी से स्पष्टीकरण मांगा.

छोटे भैया की बात सुन बड़ी भाभी ने पहले तो नजरभर बड़े भैया को देखा, फिर जोर से हंस कर ‘हां’ में सिर हिला दिया. बात तो स्पष्ट थी, किंतु बड़े भैया ने ऐसा जाल उन पर फेंका था, जिस से बड़ी भाभी जैसी नारी का बच निकलना मुश्किल था. वे यह सोच कर खुश थीं कि उन का पति कितना अच्छा है जो बिना कुछ पाए ही उन के पिता की प्रशंसा का ढिंढोरा पीट रहा है. यही कारण था कि इतने गंभीर प्रश्न को भी उन्होंने हंसी में उड़ा दिया.

उन्होंने मस्तिष्क पर तनिक भी जोर न डाला कि आखिर पैसों की बारिश हो कहां से रही है. देवर का मुंह ‘हां’ कह कर बंद कर दिया था. भाभी पति की तरफ अपार कृतज्ञता से देख रही थीं.

मां यह सब सुन कर सन्न रह गईं. उन्होंने अपना माथा पीट लिया. ‘‘क्यों बड़े, क्या यही दिन देखना रह गया था? क्या कमी थी जो इस नीच हरकत पर उतर आया है? अगर यही करना है तो जा, बन जा घरजमाई. यहां यह सब नहीं होगा, समझे,’’ कह कर रोती हुई वे कमरे से बाहर निकल गईं. छोटे भैया और भाभी भी धीरे से खिसक लिए.

मां की बात सुन बड़े भैया कुछ अनमने से हो गए थे, किंतु भाभी ने उन्हें संभाला, ‘क्यों चिंता करते हैं. सब ठीक हो जाएगा.’

फिर दोनों अपने कमरे में चले गए. पड़ोस में लड़के की शादी थी. संबंध अच्छे थे, इसलिए सपरिवार बुलाया था. सभी तैयार हो गए. हम बड़ी भाभी का इंतजार कर रहे थे. मां ने मुझे उन्हें बुलाने के लिए भेजा.

मैं ने बाहर से ही आवाज दी, ‘‘भाभी, जल्दी चलिए.’’

‘‘बीनू, अंदर आ जा,’’ भाभी बोलीं.

अंदर वे तैयार खड़ी कुछ ढूंढ़ रही थीं. बोलीं, ‘‘पता नहीं, लौकर की चाबी कहां रख दी है. नैकलैस के बिना कैसे चलूं. इतना ढूंढ़ा पर मिल ही नहीं रहा. तेरे भैया भी ढूंढ़ कर थक गए. अभी उन्हें नहाने भेजा है.’’

भैया ने स्नानघर से ही कहा, ‘‘क्यों परेशान हो रही हो. मां से मांग लो, आ कर वापस कर देना. मैं थोड़ी देर में आता हूं.’’

पर मां से जेवर निकलवाना इतना आसान नहीं था. उन का एक ही जवाब होता था, ‘तुम लोगों को पहनने का ढंग है नहीं, कहीं तोड़ दिया या खो दिया तो? ना बाबा, मैं तो नहीं देती, ये सब बीनू के लिए हैं. तुम लोगों से तो कुछ होगा नहीं, कम से कम मेरे गहने तो रहने दो.’

भाभी को जैसे कुछ याद आया. उन्होंने प्यार से पास आ कर मेरे माथे पर हाथ फेरा. जी धक से हो गया कि अब क्या होने वाला है. वे बोलीं, ‘‘बीनू, जन्मदिन पर जो नैकलैस पिताजी ने तुम्हें दिया था, उसे एक रात के लिए दे दो.’’

‘‘पर भाभी, मैं कैसे…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा. मैं मां से नहीं कहूंगी. उन्हें पता ही नहीं चलेगा. मैं वहां से आ कर तुरंत दे दूंगी.’’

मरती क्या न करती, बिना परिणाम सोचे मैं ने नैकलैस उन्हें दे दिया.

पर मां को जैसे शक हो गया था. वे कभी भाभी के गले को तो कभी मुझे घूरतीं. मैं बिना कुसूर के मुंह छिपाए इधर से उधर घूम रही थी और भाभी ठहाके पर ठहाके लगाए जा रही थीं. परंतु छोटी भाभी को पता नहीं कैसे सब पता चल जाता था. वे पूरे समय मेरे साथ ही बनी रहीं. उन की मौजूदगी दिलासा देती रही. उन की सब से बड़ी खासीयत यही थी कि वे बिना कुछ कहे सब कुछ कह जाती थीं.

उस रात तो भाभी ने नैकलैस नहीं लौटाया. मैं डर के मारे मांगने की हिम्मत न कर सकी. दूसरे दिन सुबह ही मैं ने धीरे से उन के कमरे में जा कर नैकलैस की बात की. भाभी कुछ घबराई हुई थीं. भैया का कुछ पता नहीं था. वे सुबह ही सुबह मालूम नहीं कहां चले गए थे.

‘‘बीनू, मैं ने नैकलैस यहीं सामने रखा था, मालूम नहीं कहां गया. मिल ही नहीं रहा. कब से खोज रही हूं,’’ भाभी ने रोंआसी हो कर कहा.

मुझे तो जैसे चक्कर आ गया. सोचने लगी, हाय अब क्या होगा? किसी तरह कमरे में आ कर बिस्तर पर गिर पड़ी. आंखों से आंसू बहने लगे. सिर पर किसी के स्पर्श से आंखें खोलीं तो देखा, सामने छोटी भाभी खड़ी हैं. उन की गोद में मुंह छिपा कर मैं रो पड़ी.

अंत्येष्टि: भतीजे के आने के बाद क्या हुआ शैला के साथ

पहियों की घड़घड़ाहट में अचानक ठहराव आ जाने से शैला की ध्यान समाधि टूट गई. अपने घर, अपने पुराने शहर, अपने मातापिता के पास 4 बरस बाद लौट कर आ रही थी. घर तक की 300 किलोमीटर की दूरी, अपने अतीत के बनतेबिगड़ते पहलुओं को गिनते हुए कुछ ऐसे काट दी कि समय का पता ही न चला.

पूरे दिन गाड़ी की घड़घड़ और डब्बे में कुछ बंधेबंधे से परिवेश में बैठे विभिन्न मंजिलों की दूरी तय करते उन सहयात्रियों में शैला को कहीं कुछ ऐसा न लगा था कि उन की उपस्थिति से वह जी को उबा देने वाली नीरस यात्रा के कुछ ही क्षणों को सुखद बना सकती. हर स्टेशन पर चाय, पान और मौसमी फलों को बेचने वालों के चेहरों पर उसे जीवन में किसी तरह झेलते रहने वाली मासूम मजबूरी ही दिखाई देती थी.

शैला घर जा रही थी. यह भी शायद उस की एक आवश्यक मजबूरी ही थी. 4 साल से हर लंबी छुट   ्टी में वह किसी न किसी पहाड़ी स्थान पर चली जाती थी. इसलिए नहीं कि वह उस की आदी हो गई थी, पर शायद इसलिए कि उसी बहाने वह अपने घर न जाने का एक बहाना ढूंढ़ लेती थी, क्योंकि घर पर सब के साथ रह कर भी तो वह अपने मन के रीतेपन से मुक्ति नहीं पा सकती थी. घर के लोगों के लिए भी शायद वह अपने में ही मगन, किसी तरह जिंदगी का भार ढोने वाली एक सदस्य बन कर रह गई थी.

25 वर्ष पहले एम.एससी. की पढ़ाई पूरी कर के शैला 1 वर्ष के लिए विदेश में रह कर प्रशिक्षण भी ले आई थी. भारत लौटते ही उस की मेधा में डा. रजत जैसे होनहार सर्जन की मेधा का मेल विवाह के पावन बंधन ने कर दिया था. सबकुछ मिला शैला को…प्यार, अपनत्व, विश्वास, सम्मान और रजत पर अपना संपूर्ण एकाधिकार.

27 वर्ष की आयु में ही डाक्टरी की कई उपाधियां ले कर रजत विदेश से लौटा था. शैला साल भर भी अपने जीवन के उन सुखद क्षणों को अपनी खाली झोली में भर कर संजो न पाई थी कि    डा. हरीश के यहां से डिनर से लौटते हुए रास्ते में कार दुर्घटना और फिर अंतिम क्षणों में रजत का शैला के हाथ को मुट्ठी में जकड़ कर चिरनिद्रा में सो जाना शैला कभी नहीं भूल सकती थी.

हर सफल आपरेशन के बाद रजत के चेहरे की चमक और स्नेहसिक्त आंखों से शैला को देख कर कहना, ‘शैला, तुम मेरी प्रेरणा हो,’ शैला के मन को कहां भिगो जाता, उस कोने को शैला शायद स्वयं अपनी खुशी के छिपे ढेर में ढूंढ़ न पाती.

तब से ले कर अब तक अपने सेवारत समय के 25 वर्ष शैला ने अपने हिसाब से तो बड़ी अच्छी तरह बिता दिए थे. इतना अवश्य था कि अपनी कठोर अनुशासनप्रियता या कुछ व्यक्तिगत आदर्शों की आलोचना, कभी अपने ऊपर लगाए कुछ झूठे सामाजिक आरोप, जो कभी उस के चरित्र से जोड़ कर लगाए जाते थे, वह सुनती थी. फिर समय ही सब स्पष्ट कर के कहने वालों के मुंह पर पछतावे की छाप छोड़ देता था.

शैला का सब सुनना और सब झेल जाना, अब उस का स्वभाव बन गया था. घर पर कभीकभी आना आवश्यक भी हो जाता था.

4 बरस पहले छोटी बहन सोनी की शादी में आई थी. वह भी बरात आने के 2 दिन पहले. सोनी की शादी के मौके पर ही छोटी भाभी ने पूछा था, ‘खूब पैसा जोड़ लिया होगा तुम ने तो शैला. क्या करोगी इतने धन का?’

शैला मुसकराई थी, ‘जोड़ा तो नहीं, हां, जुड़ गया है सब अपनेआप.’

किसी चीज की कमी नहीं थी उसे. उस के पास सभी भौतिक सुख के साधन थे और उस से बढ़ कर उस की सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था. पर जो कभी उस के रीते मन पर निरंतर हथौड़े की चोट करती थी.

उसे वह कभी कह भी तो नहीं सकती थी. उस ने बचपन का वह मस्त और आनंदपूर्ण रूप नहीं देखा था, जो अन्य भाईबहनों में था. कुछ ऐसे हालात रहे कि वह शुरू से ही हंसना चाह कर भी खुल कर हंस न सकी. नियमित, सीमित, अपनेआप से बंधा हुआ एक जीवन. कालिज में पढ़ती थी तो कभी अगर छोटा भाई उस की पेंसिल ले लेता था या ‘डिसेक्शन बाक्स’ से छुरी निकाल लेता था तो कभी दीदी का और कभी मां का यही स्वर सुनाई देता था, ‘देबू देख, अभी शैला आएगी, कैसी हायहाय मचा देगी.’

शायद शैला की गंभीरता ने ही उस घर में आतंक फैला दिया था. देबू के मन में शैला के प्रति पहले भय उपजा और फिर वही भय पलायन और कालांतर में आंशिक घृणा में बदल गया था. ऐसा शैला कभीकभी अब महसूस करती थी.

देबू अब डा. देवेंद्र था पर कभी उस ने शैला से खुल कर बातें नहीं की थीं. शैला चाहती थी कि देबू उस का पल्ला पकड़ कर उस से अपना अधिकार जताए और कहे, ‘दीदी, इस बार कश्मीर घुमा दो.’

‘ऐसा सूट बनवा दो.’

‘कुछ खिलातीपिलाती नहीं,’ आदि.

फिर अब तो देबू भी बीवी वाला हो गया था. सुंदरसलोनी बड़े ही सरल मन की सुनंदा उस की पत्नी थी. शादी के कुछ दिनों बाद ही देबू ने सुनंदा से कहा था, ‘नंदा, दीदी की खातिर यही है कि इन का कमरा बिलकुल ठीक रहे, इन की कोई चीज इधरउधर न हो.’

शैला के मन में कहीं चोट लगी थी. ठीक रहने को तो उस का खूबसूरत बंगला सवेरे से रात तक कई बार झाड़ापोंछा जाता था. उस के बगीचे के बराबर और कोई बगीचा पास में नहीं था. पर हर साल ‘पुष्पप्रदर्शनी’ में प्रथम पुरस्कार पाने वाले बगीचे के फूल क्या कभी उस के सूनेपन को महका सके थे?

ससुराल से उजड़ी मांग और सूने माथे पर सादी धोती का पल्ला डाल कर रोते वृद्ध ससुर के साथ जब शैला मांपिताजी के सामने अचानक आ कर तांगे से उतरी थी तो उस के सारे आंसू सूख चुके थे. चेहरा गंभीर था. निस्तेज ठहरी हुई आंखें थीं और वह अपने कमरे में आ गई थी. वह 1 वर्ष पहले छोड़े चिरपरिचित स्थान पर आ कर शांत हो कर बैठ गई थी, बस, ऐसे ही, जैसे एक यात्रा पर गई हो. उसी यात्रा में अपनी चिरसंचित निधि गंवा कर लौट आई हो.

फिर दूसरे वर्ष नैनीताल में साइंस कालिज की पिं्रसिपल हो कर चली गई थी. कुछ जीवन का खोखलापन और जीवन के प्रति विरक्तिपूर्ण उदासीनता में अगर कहीं आनंद की आशा और अपनत्व का कोई अंश था तो परेश.

परेश उस के बड़े भैया का बड़ा बेटा था. जबजब घर आई, परेश का आकर्षण उसे खींच लाया. जीवन के इतने मधुर कटु अनुभव ले कर भी अगर कहीं शैला ने अपने पूर्ण अधिकार का प्रयोग किया था तो वह परेश पर. घर वह आए या न आए, पर दूसरे क्लास की प्रगति रिपोर्ट से ले कर मेडिकल कालिज के तीसरे वर्ष तक का परिणाम उसे परेश के हाथों का लिखा निरंतर मिलता रहा था. उसी के साथ लगी हर पत्र में एक सूची होती थी जिस में कभी सूट, कभी घड़ी और कभी पिताजी से छिपा कर दोस्तों को पिकनिक पर ले जाने के लिए रुपयों की मांग.

परेश का इस प्रकार मांगना और अंत में ‘बूआजी, अब्दुल के हाथ जल्दी भिजवा देना’ वाक्य शैला को अपनत्व की कौन सी सुखानुभूति दे जाता था, वह स्वयं नहीं जानती थी. मातापिता को अगर कहीं शैला के प्रति संतोष था तो वह परेश और शैला के इस ममतापूर्ण संबंध को देख कर.

घर जाती थी तो इधरउधर के हाल ले कर फिर भैयाभाभी और उस की परेश को ले कर विविध समस्या समाधान की वार्त्ता. वह क्या खाता था, क्यों उस के साथ घर के अन्य बच्चों सा व्यवहार होता था, जब वह शैला का एकमात्र वारिस था आदि.

कभीकभी मजाक में भाभी कहती थीं, ‘परेश तो बूआ का हकदार है, बूआ का बेटा है.’

सुन कर शैला कितनी खुश होती थी. खून का रिश्ता कभी झूठा नहीं होता, न ही हो सकता है. उस के गंभीर चेहरे पर खुशी की एक रेखा सी खिंच जाती थी. जिस साल परेश का जन्म हुआ था, उस के 3 साल के अंदर शैला ने घर के 4-5 चक्कर लगाए थे, कुछ अनुभवी प्रौढ़ महिलाएं दबी जबान से शैला से हंसहंस कर कहती थीं, ‘दीदी, भतीजा ऐसी जंजीर ले कर पैदा हुआ है जिस का फंदा बूआ के गले में है. जरा सी जंजीर कसी और बूआजी चल पड़ती हैं घर की ओर.’

और शैला के चेहरे पर आ जाता था गर्वीला ममत्वपूर्ण भाव. वह हलके से मुसकरा कर कहती, ‘बहुत प्यारा है मेरा भतीजा. घर जाती हूं तो पल्ला पकड़ कर पीछेपीछे घूमता रहता है.’ इस वाक्य के साथ ही शैला एक आनंदमिश्रित तृप्ति का अनुभव करती थी. 3 बरस के बच्चे को उस से कितना प्यार था.

जब से परेश बड़ा हो कर सफर करने लायक हुआ था, शैला उसे छुट्टियों में लगभग हर वर्ष अपने पास बुला लेती थी और भूल जाती थी कि वह अकेली है.

कभी परेश कहता, ‘बूआजी, आज तो पिक्चर चलना ही है, चाहे जो हो.’  तब शैला परेश को टाल न पाती.

अब तो परेश पूरे 24 साल का हो गया था. डाक्टरी के अंतिम वर्ष में था. शैला शुरू से जानती थी कि अगर वह मुंह खोल कर कह देती तो बड़े भैया व भाभी परेश को स्वयं आ कर उस के पास छोड़ जाते. पर कहने से पहले जाने क्यों मन के कोने में कहीं एक बात उठती, ‘अपनी गोद तो सूनी थी ही. भाभी से परेश जैसा प्यारा और होनहार बेटा ले कर उस के मन में सूनापन कैसे भर दूं.’

इधर कई बार वह तैयार हो कर आती, भैया से कुछ कहने को. पर जहां बात का आरंभ होता, वह सब के बीच से हट कर स्नानघर में जा कर खूब रो आती. एक बार फिर रजत का वाक्य कानों में गूंज उठता, ‘शैला, कभी बेटा होगा तो उसे ऐसा अव्वल दरजे का सर्जन बनाऊंगा कि बाल चीर कर 2 टुकड़े कर देगा.’

कल्पना में ही दोनों जाने कितने नाम दे चुके थे अपने अजन्मे बेटे को. उन्हीं नामों में से एक नाम ‘परेश’ भी था. यह शैला के सिवा कोई नहीं जानता था. पर शैला के ये सब सपने तो रजत की मृत्यु के साथ ही टूट गए थे. भाभी को जब बेटा हुआ था तब अस्पताल में ही भरे गले, भारी मन से अतीत के घावों को भुला कर, शैला मुसकराते चेहरे से भतीजे का नाम रख आई थी, ‘परेश.’

आज 4 वर्ष बाद शैला घर आई तो परेश में बड़े परिवर्तन पा रही थी. कुछ आधुनिकता का प्रभाव, कुछ बदलते समय को जानते हुए भी शैला ने परेश पर अपना वही अधिकार और अपनी पसंद के अनुसार परेश को ढालने के प्रयासों में कोई कमी न की. लंबाचौड़ा, खूबसूरत युवक के रूप में परेश, शैला को स्टेशन लेने आया तो बस ‘हाय बूआ’ कह कर उस के हाथ से सूटकेस ले लिया. भविष्य की कल्पना में खोई शैला को परेश का वह व्यवहार कहीं भीतर तक साल गया. कार पर बैठते ही बोली, ‘‘क्यों रे परेश, अब ऐसा आधुनिक हो गया कि बूआ के पैर तक छूना भूल गया. देख तो घर पहुंच कर तेरी क्या खबर लेती हूं.’’

और शैला अधिकारपूर्ण अपनत्व की गरिमा से खिलखिला कर हंस पड़ी थी. पर शायद वह परेश के चेहरे पर आतेजाते भावों को देख न पाई थी.

15 दिन की छुट्टी पर आई थी शैला इस बार. भैयाभाभी हर खुशी उसे देने को उतावले नजर आते थे. मातापिता थके हुए, पर संतुष्ट मालूम होते थे. शैला दिन भर मातापिता के साथ बगीचे में बैठ कर, कभी पीछे नौकरों के क्वार्टरों में जा कर बूढ़े माली, चौकीदार, महाराज सब का हाल पूछती, तो कभी परेश से घंटों बातें करती.

परेश पास बैठता था, पर शाम होते ही अजीब सी बेचैनी महसूस करता और किसी न किसी बहाने वहां से उठ जाता था.

जाने से 5 दिन पहले यों ही घूमते- घूमते शैला, परेश के कमरे में पहुंच गई. पढ़ने की मेज पर तमाम किताबों, कागजों के बीच सिगरेट के अधजले टुकड़ों से भरी ऐश ट्रे थी. उस के नीचे एक मुड़ा रंगीन कागज रखा था. शैला ने उसे यों ही उत्सुकतावश उठा लिया. पत्र था किसी के नाम. लिखा था :

‘सोनाली, तुम्हें मैं कितना चाहता हूं, शायद मुझे अब यह लिखने की कोई जरूरत नहीं. मैं जानता हूं, मेरे उत्तर न देने पर तुम कितना नाराज होगी. कारण बस, यही है कि आजकल मेरी बूआजी आई हुई हैं, जो आज भी शायद 18वीं शताब्दी के कायदेकानूनों की कायल हैं. उन के सामने अभी तुम्हारा जिक्र नहीं करना चाहता. बेकार में आफत उठ जाएगी. मातापिता की कोई चिंता नहीं. वह तो आखिरकार मान ही जाएंगे. अंत में अपनी ही जीत होगी. पर बूआजी के सामने कुछ कहने की अभी हिम्मत नहीं है मेरी.

‘अब तुम ही समझ लो, ऐसे में कैसे तुम्हें घर ले जाऊं. पर वादा करता हूं कि उन के जाते ही मांपिताजी के पास तुम्हें ला कर उन्हें सब बता दूंगा और तुम्हें मांग लूंगा. बूआजी के रहते हुए ऐसा संभव नहीं है. समझ रही हो न? फिर यों भी मुझे कुछ तो आदर दिखाना ही चाहिए. आखिर वह मेरी बूआजी हैं. मैं क्षत्रिय और तुम ब्राह्मण, वह जमीनआसमान एक कर देंगी.’

और शैला वहीं पसीने में भीग गई थी. वह आंखों के सामने घिरते अंधेरे को ले कर कुरसी पकड़ कर किसी तरह बैठ गई थी. उस की आंखों के सामने, साड़ी का पल्लू पकड़ कर पीछेपीछे घूमने वाला परेश, फिर भविष्य की कल्पना में घोड़े पर चढ़ा दूल्हा परेश और जीवन की अंतिम घडि़यों में शैला की मृत्यु शैया के पास बैठा परेश अपने विभिन्न रूपों में घूम गया.

शैला वर्षों बाद स्नानघर में खड़ी हो कर रो रही थी. ऐसे ही जैसे बड़े अरमानों और त्यागों से जीवन की सारी संचित निधि से बनाया अपना घर कोई ईंटईंट के रूप में गिरता देख रहा हो. दिमाग पर बारबार लोहे की गरम सलाखें चोटें कर रही थीं.

‘आखिर वह मेरी बूआजी हैं… बूआजी…बस, और कुछ नहीं.’

तभी शैला के मन का एक कोना प्रश्नवाचक चिह्न बन कर सामने आ गया. क्या वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी परेश की उन भावनाओं के लिए? ठीक था, वह स्वयं अपने लिए अब तक समाज की परंपराओं और कहींकहीं खोखले आदर्शवाद को भी स्वीकारती आई थी. पर इस का अर्थ यह तो नहीं था कि वह उन्हें इस पीढ़ी पर भी थोपती रहेगी. क्यों वह इतनी उम्मीदें रखती थी परेश से? क्या हुआ जो वह आधुनिक ढंग से पहनता- घूमता था.

शैला अब सोचती थी कि शायद उस का उन छोटीछोटी बातों को गंभीर रूप देना ही उसे परेश से इतना दूर ले आया था. वह क्यों नहीं सोचती थी कि समाज बहुत आगे आ चुका है. ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसे जातीय भेदभाव को सोचना क्या शैला जैसी पढ़ीलिखी, अच्छे संस्कारों में पलीबढ़ी स्त्री को शोभा देता था? शैला समझौता करेगी उस स्थिति से. वह उस नई पीढ़ी पर हावी होने का प्रयास नहीं करेगी. पुरानी लकीरों पर चलती आई जिंदगी को नया मोड़ दे कर, वह परंपरागत रूढि़यों व मान्यताओं की अंत्येष्टि स्वयं करेगी.

रात को खाने के बाद उस ने परेश को बगीचे में बुलाया. ओस से भीगी घास पर टहलती शैला का मन प्रफुल्लित था. परेश आया और चुपचाप खड़ा हो गया. शैला का हाथ उठ कर सहज ढंग से परेश के कंधे पर टिक गया. आंखों में सारा लाड़ उमड़ आया. बोली, ‘‘क्यों रे, परेश, मैं क्या इतनी बुरी हूं जो तू ने मेरी बहू को मुझ से छिपा कर रखा? यह बता, क्या मुझ से अलग हो पाएगा? मैं जानती हूं, अपनी बूआजी के लिए तेरा सीना फिर धड़केगा. बता, कहां रहती है सोनाली? यों ही ले आएगा उसे? बेटे, मेरे मन की आग तभी ठंडी होगी जब तू मुझे सोनाली के पास ले चलेगा. पहला आशीर्वाद तो मैं ही दूंगी उसे. तू शायद नहीं जानता कि मैं ने कितने अरमान संजोए हैं इन दिनों के लिए. मैं तेरी खुशी के बीच में कहीं भी ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी घटिया बात नहीं लाऊंगी.’’

और दूसरे दिन मेजर विक्रम के ड्राइंगरूम में भैयाभाभी और परेश के साथ बैठी शैला के सामने सौम्य, शालीन और सुंदर सी सोनाली ने प्रवेश किया. उस की मां ने उसे भाभी के सामने करते हुए उन के पैर छूने को कहा ही था कि भाभी ने सोनाली को बड़े प्यार से पकड़ कर शैला की तरफ करते हुए कहा, ‘‘इन का आशीर्वाद पहले लो. भले ही मैं ने परेश को जन्म दिया है, पर बेटा तो यह बूआ का ही है.’’

और शैला की आंखों से खुशी की ज्यादती से बहती आंसुओं की धारा उस के बरसों से जलते दिल को शीतलता देती चली गई.

परेश ने अपने पुराने दुलार भरे भाव से शैला को पकड़ते हुए इतना ही कहा, ‘‘बूआजी, आशीर्वाद दो कि तुम्हारे और अपने सब स्वप्न साकार कर सकूं.’’

शैला की सारी उदासी छिटक कर कहीं दूर जाने लगी और दूर होतेहोते उस की छाया तक विलीन हो गई. वह देख रही थी. उस की कल्पना में मृतक पति  डा. रजत की धुंधली छाया उभर आई. वह मुसकरा रहे थे. शायद कह भी रहे थे, ‘पुत्रवधू मुबारक हो शैली.?

बोया पेड़ बबूल का- भाग 2: क्या संगीता को हुआ गलती का एहसास

अगली बार मैं जब मां से मिलने गई तो उन्हें वह सब बताती रही जो नहीं बताना चाहिए था. मां की दबंग आवाज ने मेरे जख्मों पर मरहम का काम किया. वह मरहम था या नमक मैं इस बात को कभी न जान पाई.

मां ने मुझे समझाया कि पति को अभी से मुट्ठी में नहीं रखोगी तो उम्र भर पछताओगी. दबाया और सताया तो कमजोरों को जाता है और तुम न तो कमजोर हो और न ही अबला. मैं ने इस मूलमंत्र को शिरोेधार्य कर लिया.

मैं संदीप से बोल कर 3 दिन के लिए मायके आई थी और अब 7 दिन हो चले थे. वह जब भी आने के लिए कहता तो फोन मां ले लेतीं और साफ शब्दों में कहतीं कि वह बेटी को अकेले नहीं भेजेंगी, जब भी समय हो आ कर ले जाना. मां का इस तरह से संदीप से बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा तो मैं ने कहा, ‘मां, हो सकता है वह अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रमों में व्यस्त हों. मैं ऐसा करती हूं कि…’

‘तुम नहीं जाओगी,’ मां ने बीच में ही बात काट कर सख्ती से कहा, ‘हम ने बेटी ब्याही है कोई जुर्म नहीं किया. शादी कर के उस ने हम पर कोई एहसान नहीं किया है. जैसा हम चाहेंगे वैसा होगा, बस.’

मां ने कभी समझौता करना नहीं सीखा था. विरासत में मुझे यही मिला. मैं खामोश हो गई. जब वह मेरी कोई बात ही नहीं मानता तो मैं क्यों झुकूं. आना तो उसे ही पड़ेगा.

2 दिन बाद ही संदीप आ गया तो मुझे लगा मां ठीक ही कह रही थीं. मां की छाती फूल कर 2 इंच और चौड़ी हो गई.

दीवाली से 4 दिन पहले संदीप के मम्मीपापा आ गए. सीधे तो उन्होंने कुछ कहा नहीं पर उन के हावभाव से ऐसा लगा कि मेरा नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया.

संदीप ने एक दिन कहा भी कि मैं घर पर ही रहूं और मम्मीपापा की देखभाल करूं लेकिन इसे मैं ने यह कह कर टाल दिया था, ‘मैं भी यही चाहती हूं कि मम्मीपापा की सेवा करूं पर इन दिनों लंबी छुट्टी लेना ठीक नहीं है. मेरी स्थायी नियुक्ति होने वाली है और इस छुट्टी का सीधा असर उस पर पड़ेगा.’

‘देखो, मैं तो चाहता ही नहीं था कि तुम नौकरी करो पर तुम्हारी जिद के कारण मैं कुछ नहीं बोला. अब यह बात उन को पता चली है तो उन्हें अच्छा नहीं लगा.’

‘मैं ने विवाह तुम्हारे मम्मीपापा के सुख के लिए नहीं किया. वे दोनों तो कुछ दिनों के मेहमान हैं. चले जाएंगे तो मैं फिर अकेली रह जाऊंगी. मेरा इतने पढ़ने का क्या लाभ?’

बात वहीं खत्म नहीं हुई थी. कोई बात कहीं पर भी खत्म नहीं होती जब तक कि उस के कारणों को जड़ से न निकाला जाए.

मम्मी ने एक दिन मेरे अच्छे मूड को देख कर कहा, ‘बेटी, मुझे यह घर सूनासूना सा लगता है. अगली दीवाली तक इस घर में रौनक हो जानी चाहिए. तुम समझ गईं न मेरी बात को. इस घर में अब मेरे पोतेपोती भी होने चाहिए.’

मैं नहीं चाहती थी कि वे किसी भ्रम में रहें, इसलिए सीधेसीधे कह दिया, ‘मैं अभी किसी बंधन में नहीं पड़ना चाहती, क्योंकि अभी तो यह हमारे हंसनेखेलने के दिन हैं. किसी भी खुशखबरी के लिए आप को 4-5 वर्ष तो इंतजार करना ही पड़ेगा.’

संदीप ने उन्हें सांत्वना दी. वैसे हमारे संबंधों की कड़वाहट उन के कानों तक पहुंच चुकी थी.

समय यों ही खिसकता रहा. हमारे संबंध बद से बदतर होते गए. मुझे संदीप की हर बात बरछी सी सीने में चुभती.

एक दिन मैं ने सुबह ही संदीप से कहा कि स्थायी नियुक्ति की खुशी में मुझे अपने सहयोगियों को पार्टी देनी है. संभव है, शाम को आने में थोड़ी देर हो जाए. पर वह पार्टी टल गई. मैं घर आ गई. घर पहुंची तो संदीप किसी महिला के साथ हंसहंस कर बातें कर रहा था. मेरे पहुंचते ही दोनों चुप हो गए.

‘अरे, तुम कब आईं, आज पार्टी नहीं हुई क्या?’

मेरा चेहरा तमतमा गया. मैं ने अपना बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चली गई. मन के भीतर बहुत कुछ उमड़ रहा था. अत: गुस्से में मैं अपना नियंत्रण खो बैठी. इस से पहले कि वह कुछ कहता, मैं ने खड़ेखड़े पूछा, ‘कौन है यह लड़की और आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

संदीप मुझे घूरते हुए बोला, ‘तुम बैठोगी तभी तो बताऊंगा.’

‘अब बताने के लिए रह ही क्या गया है?’ संदीप के घूरने से घायल मैं दहाड़ी, ‘बहाना तो तैयार कर ही लिया होगा?’

‘संगीता, थोड़ा तो सोचसमझ कर बात करो. आरोप लगाने से पहले हकीकत भी जान लिया करो.’

‘मुझे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं है. मैं सब समझ चुकी हूं,’ कह कर मैं तेज कदमों से भीतर आ गई.

थोड़ी ही देर बाद संदीप मेरे पास आया और कहने लगा, ‘तुम ने तो हद ही कर दी. जानती हो कौन है यह?’

‘मुझे कुछ भी जानने की जरूरत नहीं है. मेरे आते ही तुम्हारा हंसीमजाक एकदम बंद हो जाना, यह जानते हुए कि मैं शाम को देर से आऊंगी, अपनी चहेती के साथ यहां आना ही मेरे जानने के लिए बहुत है. मुझे क्या पता कि मेरे कालिज जाने के बाद कितनों को यहां ले कर आए हो,’ मैं एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठी.

‘संगीता,’ वह एकदम दहाड़ पड़ा, ‘बहुत हो चुका अब. आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई कि मेरे चरित्र पर लांछन लगा सके. तुम ने शुरू से ही मुझे शक के दायरे में देखा और प्रभुत्व जमाने की कोशिश की है.’

‘यह सब बेकार की बातें हैं. सच तो यह है कि तुम ने शासन जमाने की कोशिश की है और जब मैं भारी पड़ने लगी तो तुम अपनी मनमानी करने लगे हो. मेरी मां ठीक ही कहती थीं…’

‘भाड़ में जाएं तुम्हारी मां. उन्हीं के कारण तो यह घर बरबाद हो रहा है.’

‘तुम ने मेरी मां को बुराभला कहा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. मैं यह घर और तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं.’

‘जरूर जाओ, जरूर जाओ, ताकि मुझे भी शांति मिल सके. आज तुम्हारी हरकतों ने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा है.’

संदीप के चेहरे पर क्रोध और वितृष्णा के भाव उभर आए थे. वह ऐसे हांफ रहा था जैसे मीलों सफर तय कर के आया हो.

एक छोटी सी गलतफहमी: बहन के बारे में समीर ने क्या जाना

भारत और पाकिस्तान के बीच पुन: एक दोस्ती का पैगाम. एक बार फिर से दिल्लीलाहौर बस सेवा शुरू होने जा रही है. जैसे ही रात के समाचारों में यह खबर सुनाई दी, रसोई में काम करतेकरते मेरे हाथ अचानक रुक गए. दिल में उठी हूक के साथ मां की ओर देखा तो उन का सपाट व शांत चेहरा थोड़ी देर के लिए हिला और फिर पहले जैसा शांत हो गया. आज के समाचार ने मुझे 2 साल पीछे धकेल दिया. वे सारी घटनाएं, जिन्होंने इस परिवार की दुनिया ही बदल दी, मेरी आंखों के सामने सिनेमा की तसवीर की तरह घूमने लगीं.

हम 2 बहन और 1 भाई थे. मातापिता का लाड़प्यार हर पल हमें मिलता रहता था. मैं सब से छोटी थी. भैया व दीदी जुड़वां थे. दीदी मात्र 4 मिनट भैया से बड़ी थीं. बचपन से ही वे आपस में काफी घुलेमिले थे पर झगड़े भी दोनों में खूब होते थे.

मैं उन दोनों से 7 साल छोटी होने के कारण दोनों की लाड़ली थी. मुझे तो शायद याद भी नहीं कि मेरी लड़ाई उन दोनों से कभी हुई हो. संजय भैया पढ़ाई में काफी होशियार थे. यद्यपि दीदी भी पढ़ने में तेज थीं किंतु उन का मन खेलकूद की ओर अधिक लगता था. जिला स्तर पर खेलतेखेलते कई बार उन का चुनाव राज्य स्तर पर भी हुआ जोकि मां को कभी अच्छा नहीं लगा क्योंकि मुझे व दीदी को ले कर मां की सोच पापा से थोड़ी संकरी थी. खासकर तब जब दीदी को खेलने के लिए अपने शहर से बाहर जाने की बात होती थी, तब भैया का साथ ही मां और पापा के प्रतिरोध को हटा पाता था और इस तरह दीदी को बाहर जा कर खेलने का मौका मिलता था.

मलयेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में कई देशों की टीमें आई थीं. वहीं पर दीदी की मुलाकात अनुपम से हुई जो किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी का रिश्तेदार था और उस के साथ ही क्वालालम्पुर आया था. दोनों की मुलाकात काफी दिलचस्प थी. दिन में दोनों एकसाथ कौफी पीने जाया करते थे. चेहरे के नैननक्श अपने जैसे होने के कारण दोनों ने एकदूसरे से बात करने में दिलचस्पी दिखाई. धीरेधीरे दोनों ने ही महसूस किया कि उन में दोस्ती के अलावा कुछ और भी है. इसी तरह 7 दिन की मुलाकात में ही उन का प्यार परवान चढ़ने लगा था. दीदी जब लौट कर आईं तो कुछ बदलीबदली सी थीं. मां की अनुभवी आंखों को समझते देर न लगी कि दीदी के मन में कुछ उथलपुथल मची है. मां के थोड़े से प्रयासों से पता चला कि दीदी जिसे चाहती हैं वह पाकिस्तानी हिंदू है. यद्यपि लड़का पाकिस्तान में इंजीनियर है पर वह पाकिस्तान से बाहर किसी अच्छी नौकरी की तलाश में है. कुल मिला कर लड़का किसी भी तरफ से अनदेखा करने योग्य न था. बस, उस का पाकिस्तानी होना ही सब के लिए चुभने वाली बात थी.

यहां भी भैया ने दीदी का साथ दिया. आखिर एक दिन हम सब को छोड़ कर दीदी अपने ससुराल चली गई. हालांकि पाकिस्तान के नाम से दीदी के मन में भी थोड़ा अलग विचार आया था लेकिन वहां ऐसा कुछ नहीं था. अनुपम के परिवार ने दीदी का खुले दिल से स्वागत किया. एक खिलाड़ी के रूप में दीदी की शोहरत वहां पर भी थी, तो तालमेल बैठाने में दीदी को कोई परेशानी नहीं हुई.

दीदी के जाते ही पूरा घर सूना हो गया. भैया का मन नहीं लगता तो दीदी के घर का चक्कर लगा आते थे. मां कहतीं कि बेटी के घर इतनी जल्दीजल्दी जाना ठीक नहीं, पर भैया का यही उत्तर होता कि देखो न मां, दीदी के ससुराल जाते ही हमारी सरकार ने भारतपाकिस्तान के बीच बस सेवा शुरू कर दी है.

पढ़ाई समाप्त कर भैया ने भी नौकरी की तलाश शुरू कर दी. हमारा मध्यवर्गीय परिवार था. घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए भैया को नौकरी की जरूरत महसूस होने लगी. उन के प्रथम श्रेणी में पास होने के प्रमाणपत्र भी उन्हें कोई नौकरी नहीं दिला सके तो उन्होंने सोचा, जब तक नौकरी नहीं मिलती क्यों न राजनीति में ही हाथपांव मारे जाएं. कालिज में 2 बार उपाध्यक्ष पद पर रह चुके थे. ऐसे में उन्हें अपने दोस्त समीर की याद आई, जोकि उन के साथ कालिज में अध्यक्ष पद के लिए चुना गया था.

समीर हमारे घर भी काफी आताजाता था. उस के पिता विधायक थे. भैया को लगा, वे शायद कुछ मदद कर सकते हैं. पर भैया ने एक बात नोट नहीं की, वह थी कि दीदी की शादी होते ही समीर ने भैया के साथ अपनी दोस्ती काफी सीमित कर ली थी.

समीर के पिता ने आश्वासन दिया कि अच्छी नौकरी में वे भैया की मदद करेंगे, यदि कोई बात नहीं बनी तो राजनीति में तो शामिल कर ही लेंगे. इसी दौरान किसी काम के सिलसिले में भैया को दीदी के घर जाना पड़ा. इस बार समीर भी उन के साथ पाकिस्तान गया. दीदी के ससुराल वाले बड़ी आत्मीयता के साथ समीर से मिले. केवल बाबूजी यानी दीदी के ससुर से समीर की ज्यादा बातचीत नहीं हो सकी क्योंकि वे उस दौरान सरहदी मामलों को ले कर काफी व्यस्त थे और 2 ही दिन बाद भैया व समीर को वापस भारत आना था.

वापस आ कर भैया जब समीर के घर गए तो उस के पिता ने घुसते ही उन से सीधे सवाल पूछा, ‘संजय, क्या तुम बता सकते हो कि तुम्हारी बहन क्या जासूसी करती है?’

उन के मुंह से यह सवाल सुन कर भैया सन्न रह गए. उन्हें सपने में भी इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी. अत: वह पूछ बैठे, ‘अंकल, आप के इस तरह सवाल पूछने का मतलब क्या है?’

‘बड़े भोले हो तुम, संजय,’ वह बोले, ‘तुम्हारी बहन की शादी को 2 साल हो गए. अभी तक तुम वास्तविकता से अनजान हो. अरे, उस पाकिस्तानी ने जानबूझ कर तुम्हारी बहन को फंसाया है ताकि पत्नी के सहारे वह भारत की सारी गतिविधियों की खबर लेता रहेगा. यही नहीं उस का ससुर सेना में अधिकारी है. इसलिए उस ने तुम्हारी बहन को अपने घर की बहू बनाना स्वीकार किया ताकि देश के अंदर की जानकारी उसे हो सके.’

‘यह सब बेबुनियाद बातें हैं,’ इतना कह कर भैया घर वापस आ गए. पर जासूस वाली बात उन के दिल में कहीं चुभ गई. भैया ने नोट किया कि दीदी अपने ससुर से काफी हिलीमिली हैं. लगता ही नहीं कि दीदी उन की बहू हैं. वह उन के आफिस भी आतीजाती हैं. बाबूजी भी दीदी से काफी प्यार जताते हैं और जब भी मैं दीदी से मिलने जाता हूं तो मुझ से बात करने का भी उन के पास समय नहीं रहता. शक का छोटा बुलबुला जब कुछ बड़ा हुआ तो भैया दीदी से फोन पर घर के हालचाल से ज्यादा भारत के अंदर की खबरों के बारे में बात करते. दीदी सिर्फ सुनतीं और हां हूं में ही जवाब देतीं तो भैया को लगता कि दीदी पहले जैसी नहीं रहीं, सिर्फ पाकिस्तानी बन कर रह गई हैं.

पिछली बार जब समीर घर आया तो भैया से कहने लगा कि देख संजय, पिताजी की बातों में कुछ तो दम है. जब मैं तेरे साथ दीदी के घर गया था तो शायद तू ने ध्यान नहीं दिया हो, किंतु मैं ने ऐसी कई बातें नोट कीं जोकि मुझे शक करने को मजबूर कर रही थीं. जैसे तेरी दीदी के साथ उन के ससुराल वालों का हमेशा हिंदुस्तानी खबरों पर बात करना. और हमारे देश में भी उतारचढ़ाव होते रहे हैं, उन के बारे में विस्तार से चर्चा करना.

भैया उस की बातें चुपचाप सुनते रहे थे. एक बार भैया ने दीदी को फोन किया व जानबूझ कर अपनी नौकरी व देश के माहौल के बारे में बात करने लगे. थोड़ी देर तक दीदी उन की बातें सुनती रहीं फिर एकाएक भैया की बात काट कर वह बीच में ही बोल पड़ीं, ‘संजय, मैं तुम से रात में बात करती हूं, अभी मुझे कुछ जरूरी काम के सिलसिले में बाहर जाना है.’

अब तो भैया के मन में शक के बीज पनपने लगे. उन्होंने गौर किया कि आमतौर पर दीदी मेरा फोन नहीं काटतीं पर आज जब मैं ने थोड़ी अपने देश के अंदर की कुछ बातें उन्हें बताईं तो मेरा फोन काट कर फौरन अपने बाबूजी को खबर देने चली गईं.

इस दौरान जीजाजी को अमेरिका में नौकरी मिल गई. पतिपत्नी अमेरिका चले गए. वहां पर पाकिस्तानी ग्रुप एसोसिएशन के कारण काफी पाकिस्तानी लोग मिले. इन सब से वहां पर दीदी का मन लगने लगा. पिछली बार फोन कर के जब दीदी ने इस गु्रप के बारे में भैया को बताया तो वह बीच में ही बोल पड़े, ‘तुम कोई इंडियन ग्रुप क्यों नहीं ज्वाइन करतीं? ऐसा तो है नहीं कि अमेरिका में इंडियन नहीं हैं.’

भैया की यह बात सुन कर दीदी बोली थीं, ‘क्या फर्क पड़ता है…मात्र एक दीवार से दिल नहीं बंटते. वैसे भी बाहर आ कर सब एक ही लगते हैं…क्या हिंदुस्तानी क्या पाकिस्तानी.’

अब भैया का शक अंदर ही अंदर साकार रूप लेने लगा. इधर हम सब इन बातों से काफी अनजान थे. भैया परेशान दिखते तो हम सब को यही लगता कि नौकरी को ले कर परेशान हैं. वह जब भी दीदी से बात करते तो दीदी जानबूझ कर चिढ़ाने के लिए पाकिस्तानी ग्रुप की बातें ज्यादा किया करती थीं. पर उन्हें क्या पता कि यही सब बातें एक दिन उन की जान की दुश्मन बन जाएंगी.

समीर व उस के पिता की बातें सुनतेसुनते भैया के अंदर एक कट्टर विचारधारा ने जन्म ले लिया था. दीदी कुछ दिनों के लिए घर आ रही थीं. उन्हें पहले अपनी ससुराल पाकिस्तान जाना था फिर मायके यानी हिंदुस्तान आना था. उन का प्लान कुछ ऐसा बना कि वह पहले मायके आ गईं और एक हफ्ते रह कर अपनी ससुराल चली गईं.

‘देखा संजय, तुम्हारी बहन पहले अपनी ससुराल जाने वाली थी फिर यहां हिंदुस्तान आती पर नहीं, यदि वह ऐसा करती तो यहां की ताजा खबरें कैसे अपने ससुर को दे पाती? वाह, मान गए तुम्हारी बहन को,’ ऐसा कह कर समीर के पिता ने जोर से ठहाका लगाया.

इस घटना के दूसरे ही दिन भैया मां से बोले, ‘मैं दीदी से मिलने पाकिस्तान जा रहा हूं. हो सका तो साथ ले कर आऊंगा.’

‘अभी तो हफ्ते भर रह कर गई है. थोड़ा उसे अपने ससुराल वालों के साथ भी रहने दे. वरना वे क्या सोचेंगे?’ मां बोलीं.

भैया ने मां की बात अनसुनी कर दी. मां को लगा शायद भाईबहन का प्यार उमड़ रहा है.

दीदी के घर पहुंच कर उन के घर वालों से भैया बोले कि घर पर पापा की तबीयत अचानक खराब हो गई है इसलिए कुछ दिनों के लिए दीदी को ले कर जा रहा हूं. जल्दी ही वापस छोड़ जाऊंगा.

जीजाजी तो नहीं आए पर भैया दीदी को ले कर लाहौर से दिल्ली वाली बस पर बैठ गए. बस में ही भैया ने दीदी से उलटेसीधे सवाल करने शुरू कर दिए. दीदी को लगा, यों ही पूछ रहा है पर उन के चेहरे पर गुस्सा व ऊंची होती आवाज से दीदी हैरान रह गईं. फिर भी उन्होंने भैया से यही कहा, ‘इस बस में तो ऐसी बातें मत करो, संजय, और भी पाकिस्तानी बैठे हैं.’

भैया को उस समय किसी की परवा नहीं थी. उन्हें सिर्फ अपने ढेरों सवालों के जवाब चाहिए थे. किसी तरह दीदी, भैया को धीरे बोलने के लिए राजी कर पाईं.

‘सुनो संजय, मुझे अपना घर सब से प्यारा है. भले ही वह पाकिस्तान में क्यों न हो और सब से ज्यादा घर वाले, ससुराल वाले प्यारे हैं,’ इतना कह दीदी चुप हो कर खिड़की से बाहर की ओर देखने लगीं. भैया भी चुपचाप बैठ गए.

लाहौर से निकलने के बाद विश्राम के लिए एक स्थान पर बस रुकी. सभी यात्री नीचे उतर कर सड़क पार करने लगे. भैया व दीदी दूसरे यात्रियों से थोड़ा पीछे थे क्योंकि दोनों का मूड खराब था. वे एकदूसरे से बात भी नहीं कर रहे थे. जैसे ही दीदी व भैया सड़क पार करने लगे कि सामने से दूसरी बस को आती देख वे रुक गए.

सामने से आती बस उन्हें क्रास करने वाली थी कि जाने कहां से भैया के हाथों में हैवानी शक्ति आ गई और पूरे जोर से उन्होंने दीदी को बस के सामने धकेल दिया पर दीदी ने बचाव के लिए भैया की बांह भी जोर से थाम ली, दोनों एकसाथ बीच सड़क पर बस के आगे जा गिरे और दोनों को रौंदती हुई बस आगे चली गई. इस हादसे को देख कर सारे यात्री सन्न रह गए. आननफानन में एंबुलेंस बुलाई गई. दोनों में प्राण अभी बाकी थे.

‘यह क्या किया मेरे भैया, अपनी बहन पर इतना विश्वास नहीं,’ दीदी रोरो कर, अटकअटक कर बोलती रहीं मानो जाने से पहले सारी गलतफहमी दूर कर देना चाहती थीं, ‘यह तुम्हारा ही दिया संस्कार है न मां कि पति का घर ही शादी के बाद अपना घर होता है व उस के घर वाले अपने. बोलो न मां, मेरी क्या गलती है? अरे, मैं तो बाबूजी को खाना देने उन के आफिस जाया करती थी. उन के कोई बेटी नहीं थी इसी से वह मुझे बेटी बना कर रखते थे. वे लोग तो बहुत ही सीधे हैं मेरे भैया. हमेशा मुझे मानसम्मान देते रहे हैं.’

‘मुझे माफ करना, दीदी, मैं लोगों की बातों में न आ कर काश, अपने दिल की सुनता,’ इतना कह कर भैया भी अटकअटक कर रोने लगे.

कुछ ही पल बाद दोनों भाईबहन शांत हो गए. एकसाथ ही इस दुनिया में आए थे और साथ ही चले गए.

मांपापा को तो जैसे होश ही नहीं रहा. उन की आंखों के सामने ही उन की 2 संतानों ने अपनी जान गंवा दी, महज एक गलतफहमी के कारण. मैं पागलों की भांति कभी मां को देखती, कभी पापा को चुप कराती. एक ही पल में सबकुछ बिखर गया.

दूसरे दिन समाचार की सुर्खियों में छाया रहा, ‘देश की भूतपूर्व खिलाड़ी की उस के भाई के साथ बस दुर्घटना में दर्दनाक मौत.’

तब से समीर हमारे घर नहीं आया. आता भी क्यों, उस की मनोकामना जो पूरी हो चुकी थी. उजड़ा तो हमारा घर था.

घड़ी ने 10 बजने का अलार्म दिया, मेरी तंद्रा भंग हुई. अभी तक मम्मीपापा ने खाना नहीं खाया है. उन्होंने अपने को बंद कमरे में समेट लिया है. वहीं उन की सुबह होती है, वहीं रात होती है. उन्हें अपनी परवा नहीं है किंतु मुझे तो है. आखिर, मेरे अलावा उन्हें देखने वाला और कौन है?

खुशी: खुद को छला हुआ क्यों महसूस कर रही थी पायल

शशि ने जब पायल से विवाह की बात दोबारा छेड़ी तो पायल ने कहा, ‘‘इस उम्र में विवाह? क्यों मजाक करती हो. लोग क्या कहेंगे?’’

शशि ने पहले भी कई बार पायल से विवाह की चर्चा की थी. आज फिर कहा, ‘‘अपने बारे में सोचो. आधा जीवन अकेले काट लिया. तुम्हारी परेशानी, अकेलेपन में कोई आया तुम्हारा हाल पूछने? और लोगों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही हैं. शादी नहीं हुई तब भी और हो जाएगी तब भी. कहने दो जिस को जो कहना है.’’

शशि अपने घर चली गई. दोनों सहेलियां थीं. एक ही कालोनी में रहती थीं. शशि विवाहित और 2 बच्चों की मां थी, जबकि 45 की उम्र में भी पायल कुंआरी थी. शशि के जाने के बाद पायल ने खुद को आईने में देखा. ठीक उसी तरह जैसे वह 20 साल की उम्र में खुद को आईने में निहारा करती थी. बालों को कईकई बार संवारा करती थी.

इधर कुछ सालों से तो वह आईने को मात्र बालों में कंघी करने के लिए झटपट देख लिया करती थी. पिछले कई वर्षों से उस ने खुद को आईने में इस तरह नहीं देखा. शशि शादी की बात कर के गई तो पायल ने स्वयं को आईने में एक बार निहारना चाहा. आधे पके हुए बाल, चेहरे का खोया हुआ जादू, आंखों के नीचे काले गड्ढे. स्वयं को संवारना भूल गई थी पायल. आज फिर संवरने का खयाल आया और आईने में झांकते हुए वह अपने अतीत में खो गई.

जब वह 20 साल की थी तब पिता की असमय मृत्यु हो गई थी. जवान होती लड़कियों की तरह स्वयं को भी आईने में निहारती रहती थी. मां को पेंशन मिलने लगी. लेकिन किराए के मकान में 2 बेटियों और 1 बेटे के साथ मां को घर चलाने में समस्या होने लगी. 2 लड़कियों की शादी और बेटे को पढ़ालिखा कर रोजगार लायक बनाना मां के लिए कठिन प्रतीत हो रहा था. पायल कालेज में थी और 5 साल छोटा भाई अनुज अभी स्कूल में था.

पिता की मृत्यु के बाद पायल ने नौकरी के लिए तैयारी करना शुरू कर दी. वह घर के हालात समझती थी और मां का हाथ भी बंटाना चाहती थी. कुछ दिनों बाद पायल की नौकरी लग गई. वह शिक्षा विभाग में क्लर्क बन गई. पायल को समझ ही नहीं आया कि नौकरी उस के लिए वरदान था या श्राप. मां ने भाईबहन की जिम्मेदारी उसे सौंप दी. पायल ने सहर्ष स्वीकार भी कर ली. पायल के लिए रिश्ते आते तो मां मना कर देती. कहती, ‘‘पहले छोटी की शादी हो जाए और बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो जाए. उस के बाद पायल की शादी के बारे में सोचूंगी.’’

पायल की कमाई घर आने लगी तो भाईबहन के शौक बढ़ गए. मां भी दिल खोल कर खर्च करती. पायल ने भी भाईबहन और मां की इच्छाओं को हमेशा पूरा किया. 20 बरस की पायल की जवानी शुरू होते ही खत्म सी हो गई.

अब उसे एक ही सबक मां बारबार सिखाती, ‘‘अब तुम्हें अपने लिए नहीं, अपने भाईबहन के लिए जीना है.’’

जरूरतें व्यक्ति को स्वार्थी बना देती हैं. पायल को औफिस में देर हो जाती

या औफिस का कोई घर छोड़ने आता तो मां उस से पचासों सवाल करती. पायल क्या बात कर रही है, मां की नजरें और कान इसी पर लगे रहते.

मां कहती, ‘‘यह ठीक नहीं है. कोई प्यार की बीमारी मत पाल लेना. तुम कमाऊ लड़की हो. दसों लोग डोरे डालेंगे. लेकिन ध्यान रखना, तुम्हारे ऊपर परिवार की जिम्मेदारी है. फिर भी यदि करना ही चाहो तो कोई क्या कर सकता है? तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी. हम अपना देख लेंगे.’’

मां की आंखों में आंसू भर आते और पायल को कई प्रकार से समझाते हुए कसम खानी पड़ती कि जब तक भाईबहन को किनारे नहीं लगा देती तब तक ऐसाकुछ नहीं होगा.

पायल जब 30 वर्ष की हुई तब रुचि की शादी हुई. रिश्ते बहुत आए लेकिन रुचि को पसंद नहीं आए. रुचि के अपने सपने थे. उस के सपनों का राजकुमार ढूंढ़ने में एक दशक लग गया. पायल जब उसे समझाती कि हम बहुत बड़े लोग नहीं हैं. इतने बड़े सपने मत पालो. अपने बराबर वालों में से किसी को पसंद कर लो. पायल की बात पर मां उलाहना देते हुए कहतीं, ‘‘समय लग रहा है तो लगे. रुचि को लड़का पसंद तो आना चाहिए. मन मार कर शादी करने का क्या अर्थ है? तुम्हें रुचि की शादी की इतनी जल्दी क्यों है? तुम चाहो तो…’’

पायल को चुप होना पड़ा. खातेपीते घर के इंजीनियर से शादी तय हुई तो उस के मुताबिक खर्च भी करना पड़ा. पायल को अपने पीएफ के अलावा विभागीय लोन भी लेना पड़ा. विवाह में अच्छाखासा खर्च हुआ. इस वजह से उसे 5 साल अपने वेतन से लोन चुकाना पड़ा.

यदाकदा आने वाले रिश्तों को भी यह कह कर अस्वीकृत कर दिया जाता कि बस भाई अपने पैर पर खड़ा हो जाए. फिर मांबेटे मिल कर पायल के हाथ पीले करेंगे. पायल ने आईना देखना छोड़ दिया. बस झट से कंघी कर के पीछे चोटी कर लेती. स्वयं को जी भर कर देखना ही भूल गई पायल. छोटा भाई अनुज बीटैक कर रहा था. पढ़ाई में होने वाला खर्चा पायल को ही प्रतिमाह भेजना था. शुरू में तो अनुज फोन पर अकसर कहता पायल से कि दीदी, एक बार मुझे नौकरी मिल गई फिर आप की शादी धूमधाम से करूंगा. लेकिन नौकरी मिलते ही वह अपनी नौकरी में व्यस्त हो गया.

मां की इच्छा थी कि एक बार बहू का मुंह देख लूं तो समझो गंगा नहा लिया. फिर कोई परवाह नहीं. पायल के विषय में नहीं सोचा मां ने. पायल को दुख तो हुआ लेकिन मां के कई कड़वे घूंट की तरह वह इसे भी पी गई. अनुज के लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे थे. मां के अपने तौरतरीके थे लड़की पसंद करने के. दहेज, सुंदर लड़की… और इतने तामझाम से निबटने के बाद मां किसी लड़की को शादी के लिए पसंद करती तो अनुज के नखरे शुरू हो जाते. पायल 40 साल की हो गई. अपनी शादी के बारे में उस ने न जाने कब से सोचना बंद कर दिया. अनुज की शादी हुई तो अपनी पत्नी को ले कर वह मुंबई चला गया.

कुछ महीनों बाद मां चल बसी. मां की मृत्यु के बाद पायल अकेली रह गई. भाईबहन फोन करते या कभीकभार मिलने भी आते तो अकेली कमाऊ बहन के कुछ देने की बजाय उस से ही आर्थिक मदद मांगते.

पायल का तबादला हो गया नए शहर में. इस नए शहर में उसे शशि जैसी सहेली मिली. शशि को जब पायल के बारे में पता चला तो उस ने समझाया, ‘‘ठीक है तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई, लेकिन अब तो सोचो अपने बारे में.’’

पायल कहती, ‘‘मेरी उम्र 45 साल के आसपास है. इस उम्र में शादी? लोग क्या सोचेंगे? मेरे भाईबहन, उन के रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

शशि कहती, ‘‘अब निकलो इस जंजाल से. तुम्हारे बारे में किस ने सोचा? तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई. अब क्या तुम्हारे भाईबहन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती या अब उन के बच्चों की जिम्मेदारी भी उठाने वाली हो? इस से पहले कि भाईबहन अपना बच्चा यह कह कर तुम्हारे पास छोड़ जाएं कि बहन तुम अकेली हो, मेरे बच्चे को रख लो. आप का मन लगा रहेगा और आप की देखभाल भी हो जाएगी, अच्छा होगा कि तुम अपना नया जीवन शुरू करो.’’

पायल ने स्वयं को काफी देर तक गौर से आईने में निहारा. उसे लगा जैसे

जिम्मेदारी के नाम पर छल किया गया हो उस के साथ. लेकिन शिकायत करे तो किस से करे? वह कमाती थी इसलिए जिम्मेदारी भी उसी की बनती थी. उस ने तय किया कि वह आज ही ब्यूटीपार्लर जाएगी.

शशि ने एक अधेड़ युवक से उस का परिचय करवाया था. युवक के चेहरे पर जिंदगी के पूरे निशान मौजूद थे. करीने से कटे और रंगे हुए बाल. उम्र को मात देने की भरपूर कोशिश करता हुआ उस का क्लीन शेव चेहरा और जींस टीशर्ट पहने हुए पूरी जिंदादिली के साथ जीता हुआ वह युवक रमेश था.

पहला विवाह असफल हो चुका था. चोट के निशान तो थे जीवन पर लेकिन भरपूर जीने के लिए मरहमपट्टी के साथ मुसकराता चेहरा था. अच्छी नौकरी में था. पायल से विवाह के लिए तैयार था. कई बार मिल भी चुका था. लेकिन पायल के मन में मोती बिखर चुके थे. वह हर बार कुछ न कुछ बहना बना कर टाल जाती. लेकिन आज जब उस ने स्वयं को आईने में निहारा तो अमृत की चंद बूंदें उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थीं. जीवन हर अवस्था में खूबसूरत रहता है. पायल ने शशि को फोन किया,

‘‘मैं विवाह के लिए राजी हूं.’’ शशि की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. रुचि और अनुज को जब उस ने अपने विवाह की बात बताई तो दोनों ने मिलीजुली बात ही कही.

‘‘दीदी इस उम्र में शादी? लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? आप को सहारा ही चाहिए, तो मेरे बेटे को अपने पास रख लो.’’

‘‘मुझे सहारा नहीं जीवन चाहिए. मुझे जीना है. अपनी खुशी के लिए, अपने लिए.’’

रुचि और अनुज कुछ पल खामोश रहे. उन्हें अपने स्वार्थ का एहसास हुआ. दोनों ने कहा, ‘‘हम आप के विवाह में शामिल होने के लिए कब आएं. होने वाले जीजा से तो मिलाओ.’’

‘‘जल्दी खबर करती हूं,’’ पायल ने खुशी से चहकते हुए कहा. कोई आप के विषय में सोचे यह अच्छी बात है. न सोचे तो स्वयं सोचना चाहिए. अपनी खुशियां तलाशने का हक हर किसी को है.

बच्चे को कोरोना- भाग 4: निशानिका ने क्या कदम उठाया था

वेकाश को अचानक सूझ कि अगर जेवन के बारे में उसे ऐसी कोई बात पता चल जाती है जिसे वह उस के खिलाफ उपयोग कर सके, ऐसी कोई बात जो जेवन नहीं चाहता हो कि किसी को पता चले, तो इस भयानक परिणाम वाले प्रकरण से उसे मुक्ति मिल सकती है. जब तक वेकाश और निशानिका अपना मुंह बंद रखेंगे, तब तक जेवन भी अपना मुंह नहीं खोल पाएगा. परंतु इतनी जल्दी कैसे इस आदमी का कोई राज पता चल सकेगा क्योंकि जल्द ही सब लोगों की नजर में आ जाएगा कि जेवन गायब है और फिर उस की तलाश शुरू हो जाएगी.

शांतलू और उस की पत्नी से पूछने पर वे लोग बता देंगे कि जेवन ने निशानिका की गिफ्ट शौप का पता उन से मांगा था और उसी के बाद से वह गायब है. फिर पूछताछ करने के लिए पुलिस यहां इस दुकान तक आ पहुंचेगी. जैसे भी हो उसे और निशानिका को अपनेआप को बनाए रखना होगा, सबकुछ सामान्य रूप से चलने देना होगा. फिर भी यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि अंदर कमरे में बंद व्यक्ति शोरशराबा न कर सके और छूट कर बाहर न भाग सके?

वेकाश ने अपना मोबाइल निकाला और सारी सोशल मीडिया साइटों पर जेवन का नाम खंगाला. यूट्यूब पर भी देखा. लिंक्ड इन पर जेवन का बायोडेटा देखा. ध्यान से तारीखों का निरीक्षण किया. उसे यह देख कर अचरज हुआ कि स्नातक डिगरी के लिए पहले जेवन ने जिस महाविद्यालय में दाखिला लिया था 2 साल के कोर्स के बाद उसे छोड़ कर किसी और महाविद्यालय में फिर से उस ने दाखिला लिया और अंतत: डिगरी इस दूसरे महाविद्यालय से प्राप्त की. वैसे तो इस महाविद्यालय परिवर्तन के कई कारण हो सकते थे. अत: उस ने इस का उत्तर जेवन के मुंह से ही जानना उचित समझ.

वेकाश कमरे का दरवाजा खोल कर भीतर दाखिल हुआ. उस ने जेवन को कुरसी पर चुपचाप बैठे हुए पाया. जैसे ही वेकाश ने जेवन के मुंह से कपड़ा हटाया, जेवन ने प्रश्न किया, ‘‘तुम तो कह रहे थे कि जो बीत गई सो बात गई?’’

वेकाश ने उसे गौर से देखा जैसे पता करने की कोशिश कर रहा हो कि यह आदमी किस हद तक जा सकता है.

जेवन ने जैसे विनती करते हुए कहा, ‘‘तुम मुझे यहां किसी जानवर की तरह कैद नहीं रख सकते हो.’’

वेकाश की ओर से कोई प्रत्युत्तर न पा कर उस ने खीज कर कहा, ‘‘लोगों को

मालूम है कि मैं यहां इस गिफ्ट शौप में आ रहा था. इसीलिए या तो तुम मुझे यहां से बाहर जाने दो या फिर पुलिस मुझे यहां से बाहर निकालेगी.’’

जेवन के मुंह से पुलिस का नाम सुनते ही वेकाश समझ गया कि जेवन इतनी आसानी से नहीं मानेगा.

जेवन ने कहना जारी रखा, ‘‘जब वे लोग मुझे खोजते हुए यहां आएंगे…’’

वेकाश ने उस की बात काट दी, ‘‘कोई तुम्हें बचाने के लिए नहीं आएगा. तुम्हारी ओर से पहले ही निशानिका ने सब को मैसेज कर दिया है.’’

बात सही थी. जेवन के मोबाइल में कोई कोड नहीं था. इस का फायदा उठा कर  निशानिका ने सभी को जेवन की ओर से संदेश भेज दिए थे. यह सुन कर जेवन हत्प्रभ रह गया. किसी शातिर अपराधी से ही उम्मीद की जा सकती है कि वह ऐसा कदम उठाएगा. कोई उसे ढूंढ़ते हुए यहां तक आ पहुंचेगा, यह बात अब बेदम होती नजर आ रही थी.

वेकाश ने उसे हैरतअंगेज होते देखा तो

उसे समझया, ‘‘मैं तो आप को रिहा करने के पक्ष में हूं.’’

जेवन की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘मैं किसी को भी नहीं बताऊंगा. मेरा विश्वास करो. मैं वादा करता हूं कि यह बात हम तक ही सीमित रहेगी.’’

वेकाश को जाने क्यों जेवन की बातों का यकीन नहीं था. उस ने कुछ सोचते हुए जेवन से पूछा, ‘‘अपनी स्नातक डिगरी में आप ने एक महाविद्यालय छोड़ कर दूसरे में क्यों दाखिला लिया?’’

अचानक ऐसे प्रश्न से जेवन, वेकाश को आंखें फाड़ कर देखने लगा. ऐसे किसी भी प्रश्न की उस ने उम्मीद नहीं की थी. हकला कर कहा, ‘‘मतलब? बस यों ही… शायद पिताजी का तबादला…’’

वेकाश, ‘‘आप की बेटियों के साथ दादाजी की तसवीर है. तसवीर में दिख रही तारीखों से महाविद्यालय बदलने के 2 वर्ष पूर्व ही पिताजी का देहांत हो गया है ऐसा प्रतीत होता है,’’ वेकाश ने इंटरनैट पर रखी तसवीर जेवन को दिखा दी.

जेवन हतोत्साहित हो गया. उस ने निराशा में कहा, ‘‘मां के कहने पर…’’

वेकाश ने वही तसवीर दिखा कर कहा, ‘‘गौर से देखो. मां के भी देहांत की तिथि लिखी हुई है. पिताजी के चल बसने के 1 वर्ष बाद ही आप की मां भी गुजर गईं.’’

जेवन को सूझ नहीं रहा था कि वह क्या कहे. बोला, ‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, साफसाफ कहो. इन सब बेबुनियाद भूलीबिसरी बातों का क्या तात्पर्य है?’’

वेकाश ने सांस भरते हुए कहा, ‘‘आप की ही जान बचाने की कोशिश कर रहा हूं मैं.’’

जेवन की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला, तो वेकाश कमरे से बाहर निकल कर

वापस अपनी पत्नी के पास आ कर बैठ गया. निशानिका ने सुझया, ‘‘गूगल में वह वर्ष डालो जब इस ने महाविद्यालय बदला है और इस के पहले वाले महाविद्यालय का नाम डालो. देखो कोई न्यूज रिपोर्ट मिलती है क्या.’’

वेकाश ने ऐसा ही किया. गूगल के नतीजे देख कर अचरज और खुशी के साथ उस ने निशानिका से कहा, ‘‘समस्या का समाधान हो गया.’’

वेकाश फौरन कमरे में गया और उस ने मोबाइल पर गूगल द्वारा खोजी गई किसी समाचारपत्र की खबर दिखाते हुए जेवन से पूछा, ‘‘इस रिपोर्ट में लिखा है कि रैगिंग के जुर्म में आप के महाविद्यालय ने उस साल किसी छात्र को महाविद्यालय से निष्कासित कर दिया.’’

जेवन सहम गया, ‘‘तो? वह मैं नहीं हूं.’’

वेकाश ने रिपोर्ट देखी. न तो रैगिंग पीडि़त का नाम था, न ही रैगिंग करने वाले का. दोनों के नाम उन के युवा होने की वजह से समाचारों से दूर रखे गए थे ताकि दोनों की ही जिंदगी न बरबाद हो. हां, इतना जरूर लिखा था कि रैगिंग के समय पीडि़त को इतनी बुरी तरह से पीटा गया था कि उसे अस्पताल में भरती करवाना पड़ा था. अगर छोटीमोटी रैगिंग होती तो कोई भी सहन कर लेता. लेकिन बात इतनी बड़ जाने पर महाविद्यालय प्रशासन को अपनी तरफ से कदम लेना ही पड़ा.

वेकाश ने मोबाइल अपनी जेब में डालते हुए कहा, ‘‘ठीक है, मैं महाविद्यालय जाता हूं. वहां से पता लगाने की कोशिश करता हूं. फिर पीडि़त का पता लगाता हूं. चाहे जिस शहर में हो, उस के घर जा कर सूचित करता हूं कि तुम अब कहां हो.’’

जेवन फूटफूट कर रोने लगा, ‘‘नहीं, ऐसा मत करना. कहीं जाने की जरूरत नहीं है. मैं ही हूं जिस ने रैगिंग की थी, मैं ही हूं जिसे बाहर निकाल दिया गया था… पिताजी चल बसे, फिर मां का भी देहांत हो गया, तो पता नहीं उस समय कैसी मानसिक स्थिति हो गई थी, सबकुछ अपने खिलाफ होते लग रहा था. ऐसी ही हालत में एक दिन गुस्से में यह सब हो गया.’’

पश्चात्ताप के आंसुओं की अलग ही पहचान होती है. जेवन का

अनुताप उस की निष्कपट भावना से जाहिर था.

वेकाश को यह सुन कर जिस राहत की अनुभूति हुई, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता जैसे संपूर्ण जीवन की उत्कंठा एक ही पल में कंधों से नीचे गिर कर छूमंतर हो गई वरना उसे जेल की सलाखें ही अपनी आंखों के आगे दिख रही थीं. अब एक शक्तिशाली सुरक्षा कवच उस के हाथ लग गया था. पूरे प्रकरण की अप्रियता ने उसे ऐसे घेर लिया था जैसे चक्रव्यूह, जिस से बच कर बाहर निकलना असंभव कार्य नजर आ रहा था. गोया जीवन को आगे बढ़ाने की अनुमति मिल गई हो. जिस भारी वजन के तले वह बेमतलब दब गया था, वह सिर पर से किसी ने उठा लिया हो.

वेकाश ने जेवन के बंधन खोल दिए. उसे कमरे से वापस दुकान के दरवाजे की ओर ले गया और उसे विदा करते हुए कहा, ‘‘याद रखना कि अगर इस का जिक्र आप ने किसी से किया, तो सब से पहले आप की बेटियों को यह राज पता चलेगा.’’

जेवन ने गमगीन आंखों से उसे धन्यवाद दिया और वादा दे कर चला गया. निशानिका से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हुई उस की.

2 ही दिनों में निशांधेता का बुखार उतर गया और संक्रमण भी ठीक हो गया. उसे स्वस्थ अवस्था में घर ले जाया गया. जेवन की ओर से कोई खबर नहीं आई. उस ने कोई कदम नहीं उठाया. वेकाश और निशानिका, निशांधेता के साथ अब वापस अपने जीवन की कड़ी को वहीं से जोड़ कर आगे जा सकते थे, जहां से निशानिका की क्षणभर की भूल ने बेरहमी से उस कड़ी को तोड़ दिया था.

बच्चे को कोरोना- भाग 3: निशानिका ने क्या कदम उठाया था

निशानिका ठीक उस के पीछे खडी थी. निशानिका की मानसिक हालत यह थी कि वह खुद नहीं जानती थी कि कब वह बक्से से उठ कर, पीतल की मूर्ति ले कर जेवन के पीछे आ खड़ी हुई है. जैसे ही जेवन ने पलट कर उसे देखा, निशानिका को पता ही नहीं चला कि कब उस का मूर्ति वाला हाथ जोर से घूम गया. उस ने पीतल की मूर्ति से जोर से जेवन के सिर पर प्रहार किया. जेवन के सिर पर घाव हो गया, खून बहने लगा और वह बेहोश हो कर वहीं गिर पड़ा.

वेकाश ने अपने बजते मोबाइल पर अपनी पत्नी का नंबर देखा और तुरंत फोन अटैंड किया. उस ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘अस्पताल से खबर आई है क्या?’’

मगर दूसरे छोर पर पत्नी के बिलखते अस्पष्ट शब्दों से उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. अपना काम छोड़ वह दौड़ाभागा अपनी पत्नी की गिफ्ट शौप पर पहुंचा. निशानिका को बहोश पा कर उस ने उसे झकझोरा जैसी गहरी निद्रा से उसे उठाने की चेष्टा कर रहा हो.

एक ही सांस में बड़बड़ाते हुए निशानिका ने किस्सा बयान कर दिया. वेकाश

अविश्वसनीय मुद्रा में बस सुनता रह गया. जब थोड़ी देर बाद उस की स्थिति स्थिर हुई, तो उस ने निशानिका की बांहें कस कर पकड़ उस से पूछा, ‘‘अभी वह कहां है?’’

निशानिका ने अंदर वाले कमरे की ओर इशारा किया.

वेकाश ने अंदर वाले कमरे का दरवाजा खोले. अंदर का नजारा देख कर वह स्तब्ध रह गया. निशानिका ने जेवन के हाथपांव अच्छे से रस्सी से बांध दिए थे. उस के मुंह पर एक बड़ा कपड़ा बांध दिया था ताकि वह चिल्ला न सके. वेकाश ने निरिक्षण किया. जेवन की सांसें अभी भी सुचारु रूप से चल रही थीं. किंतु वह बेहोश पड़ा था. सिर पर गहरी चोट थी. उस की पत्नी ने जो भी किया, क्या वह सही था? अपने आवेग को क्यों वह नियंत्रण में न रख सकी? अपनी पत्नी की इस अप्रत्याशित हरकत से उसे बड़ी निराशा हुई. क्या निशानिका को यह दिखाना महत्त्वपूर्ण था कि वह उस की इस हरकत से कितना निराश था या फिर उलटे उस की मानसिक दशा के चलते उस की सराहना करे और उस से कहे कि जो कुछ उस ने किया वह ठीक था. इस वक्त अपनी पत्नी की सराहना करना तो बिलकुल गलत होगा, लेकिन उस की नाजुक दशा के मद्देनजर डांटफटकार से विपरीत ही असर होगा और फिर न जाने क्या हो जाए.

वेकाश दूसरे कमरे में रखे फ्रिज से बर्फ लाया और जेवन के सिर के घाव पर रखी. बर्फ की ठंडाई ने रक्तवाहिकाओं को संकुचित किया और दर्द तथा सूजन को कम कर सिर में परिसंचरण किया. फलस्वरूप जेवन को होश आने लगा. कराहते हुए उस ने आंखें खोलीं और आसपास के नजारे की टोह ली. अच्छी तरह से रस्सी से जकड़े होने की वजह से वह जमीन पर अपने स्थान से हिल भी न पाया. वेकाश उस के बगल में ही बैठा था.

तड़पते हुए जेवन ने पीड़ा से कहना चाहा, ‘‘उस ने मुझे मारा…,’’ लेकिन मुंह पर बंधे कपडे़ से उस की आवाज दब गई.

एक बार के लिए तो वेकाश के मन में आया कि जेवन से कहे, ‘‘आप फिसल कर गिर गए जिस से आप को सिर पर चोट लग गई है,’’ परंतु उस के बंधे हाथपांव और उसे पूरे होशहवास में आते देख उस के मुंह से निकल गया, ‘‘मुझे माफ कर दो.’’

जेवन ने दर्द से अपने हाथों से अपना सिर सहलाना चाहा, ‘‘तुम्हारी पत्नी…’’ जब उस ने महसूस किया कि न केवल उस के हाथपांव बंधे हैं, बल्कि मुंह पर भी कपड़ा लगा है ताकि वह चीख न सके, तो वह भनक उठा.

वेकाश समझ गया कि जेवन क्या कहना चाहता है, ‘‘मेरी पत्नी की इस हरकत से मुझे भी गहरा झटका लगा है. मैं ने उस से पूछा कि जेवन जैसे भले आदमी के साथ तुम ऐसा कैसे कर सकती हो?’’

वेकाश उठ खड़ा हुआ, ‘‘उस ने मुझे पूरा किस्सा बताया है. उस ने जो कुछ भी किया है, उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता है. लेकिन अगर आप देख सकते कि उसे अस्पताल में हमारे छोटे से बच्चे को ले कर किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा…’’

वेकाश ने फ्रिज में से लाई हुई पानी की बोतल का ढक्कन खोला, जेवन के मुंह से कपड़ा हटाया और उसे बोतल से ही पानी पिलाया. जेवन के बंधन खोल देना अपनी पत्नी के खिलाफ जाने वाली बात हो जाती और इस वक्त वह ऐसा नहीं करना चाहता था. लेकिन जेवन को सांत्वना देने के लिए उस ने कहा, ‘‘यह बात पक्की है कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था.’’

जेवन के मस्तिष्क पर दोनों भौंहों के बीच 3 गहरी रेखाएं बन गई थीं. ये तीनों रेखाएं उस के दर्द, तनाव और चिंता की स्थिति का विवरण दे रही थीं. पानी पी कर उस ने वेकाश से कहा, ‘‘मेरी दोनों बच्चियां मेरा इंतजार कर रही होंगी.’’

वेकाश ने अनैच्छिक रूप से उसे मैत्रीपूर्ण तरीके से तर्क देते सुना तो कहा, ‘‘मैं और मेरी पत्नी इस वाकेआ को ले कर बेहद शर्मिंदा हैं. क्या ऐसा हो सकता है कि यह बात हम तीनों लोग अपने बीच ही रखें?’’

जेवन को आश्चर्य से घूरते देख वेकाश ने दलील दी, ‘‘हम दोनों किसी को भी

नहीं बताएंगे कि आप ने कितनी लापरवाही से हमारे नन्हे बच्चे की जान को जोखिम में डाल दिया है और…’’

वेकाश की बात जेवन ने बीच में ही काटते हुए कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता है कि आप लोगों को वैसे भी इस तरह से कहना चाहिए. इस में लापरवाही का प्रश्न कहां से आ गया?’’

वेकाश को जेवन के इस कथन से आगे कठिन परिस्थिति आती दिखी, ‘‘तो फिर कैसे?’’

जेवन ने सकारात्मक पहलू प्रस्तुत किया, ‘‘अब जब आप का बच्चा ठीक हो कर घर आएगा और वह जरूर पूरी तरह से ठीक हो जाएगा तो उस की प्रतिरक्षा प्रणाली स्वाभाविक रूप से ही वायरस के खिलाफ लड़ने में सक्षम होगी. जिन लोगों को कोरोना हुआ है, वे एक बार हो जाने के बाद निर्भीक हो जाते हैं और बिंदास जीवन व्यतीत करते हैं. मैं तो कहता हूं कि वायरस के प्रति इतनी सारी चिंताएं लेने की जगह तो उन के लिए कोरोना संक्रमण एक प्रकार से लाभदायक ही रहा है.’’

वेकाश अपनी उंगलियां चटखाने लगा. उसे ऐसा लगा कि अपने सामने लेटे इस व्यक्ति की गरदन दबोच कर उस का सिर दीवार से पीट दे. अपने और अपने शिशु के बीच के गहरे संबंध को सामने वाला व्यक्ति समझने में कतई असमर्थ था. इसीलिए ऐसी असंवेदनशील बात कह रहा था. शायद निशानिका ने एकदम सही किया है.

वेकाश को सोच में पड़ता देख जेवन को अपनी भूल का एहसास हुआ, ‘‘मैं आपे से बाहर चला गया था.’’

वेकाश ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘नहीं… नहीं… शायद आप सही कह रहे हों. मेरा बच्चा तो बिलकुल ठीक हो ही जाएगा,’’ उस ने जेवन को सहारा दे कर उठाया और बगल में रखी कुरसी पर बैठाया और फिर कहा, ‘‘जो बीत गई सो बात गई?’’

जेवन के शरीर में जैसे खुशी की लहर दौड़ गई, ‘‘निश्चित रूप से.’’

वेकाश ने कमरे का दरवाजा बंद किया और बाहर आ कर निशानिका से कहा, ‘‘यह आदमी झठ बोल रहा है… मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं.’’

अंदर से जेवन की आवाज आई,

‘‘मेरा विश्वास करो. मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा. कृपया मुझे जाने दीजिए.’’

वेकाश ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘अगर अब इसे जाने दिया तो यह सीधे पुलिस के पास चला जाएगा और हमारे खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा देगा.’’

फिर से कमरे के अंदर से जेवन ने गुहार की, ‘‘समझदारी से काम लो.’’

वेकाश हाथ बांध कर निशानिका के सामने खड़ा हो गया, ‘‘अब क्या करें?’’

जेवन कमरे के अंदर कुरसी पर बैठने के बावजूद हिल नहीं पा रहा था.

बच्चे को कोरोना- भाग 2: निशानिका ने क्या कदम उठाया था

मातापिता के ऊपर गाज गिर पड़ी. निशानिका की मां ने आश्चर्य में पूछा, ‘‘लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? हम लोग तो पूरा समय बच्चे के साथ रहते हैं. हमें तो संक्रमण न था जो बच्चे को हम से हुआ हो और न ही हमें बच्चे से हुआ है.’’

नर्स का प्रत्युत्तर सुन वे हैरान रह गए, ‘‘आप लोगों ने वैक्सीन लगाई हुई है. आप ने बच्चे को वैक्सीन लगाना उचित नहीं समझ.’’

मांबाप दोनों अपनाअपना सिर पकड़ कर वहीं अस्पताल की बैंच पर बैठ गए.

नर्स ने तुरंत कहा, ‘‘आप लोगों को फौरन उन सभी व्यक्तियों को सूचित करना होगा जिन के संपर्क में यह बच्चा आया है.’’

बच्चे की आगे की जिंदगी के लिए यह कितना घातक साबित होगा, यह बात तीनों को ही पता थी. क्या उस नन्ही सी जान के फेफड़े वायरस के इस आतंकी हमले को झेल पाएंगे?

वेकाश ने नर्स से पूछा, ‘‘दवाई कौन सी दे रहे हैं?’’

नर्स ने कहा, ‘‘सिर्फ बुखार की वरना संक्रमण जब तक पूरा अपनेआप ही नहीं चला जाता तब तक जबरदस्ती दवा देते रहने से कोई लाभ नहीं है.’’

शायद यह सुन कर दोनों को थोड़ी राहत मिली कि बच्चे पर दवा की बमबारी नहीं होगी.

नर्स ने आगे कहा, ‘‘संक्रमण की प्रगति देखने के लिए बच्चे को कुछ दिनों के लिए औब्जर्वेशन में रखना पड़ेगा.’’

शाम को बुझे हुए चेहरों से जब दोनों अपने घर पहुंचे, तो निशानिका ने सभी को व्हाट्सऐप पर सूचित कर दिया कि निशांधेता को कोरोना टैस्टिंग में पौजिटिव पाया गया है. उस ने विशेष कर उन सभी मेहमानों को सूचित करना उचित समझ जो फैंसी ड्रैस पार्टी में आए थे. तुरंत सांत्वना के संदेशों की भरमार लग गई, ‘सुन कर बहुत दुख हुआ,’ ‘बड़े अफसोस की बात है,’ ‘इतने नन्हे से बच्चे को ऐसे कैसे हो गया?,’ ‘तुम लोग तो ठीक हो?’

निशानिका की मां ने सटीक टिप्पणी की, ‘‘ये सभी लोग घबरा रहे होंगे कि उन के बच्चों का क्या होगा? सभी को अपने बच्चों की टैस्टिंग कराने की पड़ी होगी. उन के लिए भी कितने झंझट की बात हो गई.’’

निशानिका ने गुमसुम हो कर कहा, ‘‘हमीं को दोष देंगे… ये लोग हमें ही भलाबुरा कहेंगे.’’

वेकाश ने रात को अपने बेटे के याद करते हुए मन ही मन प्रार्थना की मेरा बेटा जल्दी ठीक हो जाए. उसे कुछ भी न हो. वह सोच कर ही कांप उठ रहा था कि अगर उस के बच्चे का संक्रमण उतरा नहीं और वह कभी ठीक नहीं हुआ तो क्या होगा? क्या उस के पापों की सजा उस के बच्चे को मिल रही है? अपने बच्चे को मिली सजा में उसे खुद के किए हुए पाप नजर आ रहे थे. उसे इतना पसीना छूट रहा था कि समझना मुश्किल हो गया था कि यह पसीना तनाव और चिंता से निकला है या उसे भी संक्रमण का बुखार चढ़ रहा है. वैक्सीन लगाने के बाद जितना आश्वस्त उस ने अपनेआप को अब तक महसूस किया था, अब सारा कुछ धूमिल हो रहा था.

अगले दिन दोनों ने अपनेअपने काम पर जाना उचित समझ. घर पर रह कर या अस्पताल में जा कर बैठने से कोई लाभ नहीं था. बच्चे को अलग वार्ड में रखा गया था, जहां दूरदूर तक किसी की भी आवाजाही निषेध थी. निशानिका वहां पहुंची जहां उसे अपनी गिफ्टशौप खोलनी थी. दुकान छोटी नहीं थी, अंदर भी सामान रखने के लिए 2 कमरे थे. ऊपर जीना था, जिस पर सीढ़ी लगा कर चढ़ा जा सकता था. कुल मिला कर बहुत गिफ्ट आइटम्स रखे जा सकते थे. निशानिका ने आइटम मंगाने शुरू भी कर दिए थे. अपने पुश्तैनी मकान में उस के मामाजी यही व्यापार करते थे और उन्हें पता था कि राजस्थानी आर्ट, केरल की पेंटिंग्स, ओडिशा की मूर्तियां और पश्चिम बंगाल के डोकरा मुखौटे कहां से मंगाए जाते हैं. इसी ज्ञान के बल पर निशानिका ने इतनी जल्दी सबकुछ सैट कर लिया था. लेकिन अभी गिफ्टशौप शुरू करने में और वक्त था, जब तक कि पूरी दुकान सुसज्जित तरीके से सज नहीं जाती.

निशानिका अपने बेटे के बारे में सोचती हुई अपने सामान की सूची पर निशान लगा रही थी कि तभी दुकान में किसी आगंतुक के आने की आहट हुई. उस ने मुंह उठा कर दरवाजे की ओर देखा. एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति को देख कर वह चौंक उठी. व्यक्ति जानापहचाना था. फैंसी ड्रैस पार्टी में उस की मुलाकात इस व्यक्ति से हुई थी.

व्यक्ति ने कहा, ‘‘मेरा नाम जेवन है…’’

निशानिका ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है. आप से और

आप की दोनों प्यारीप्यारी बच्चियों से पार्टी में मुलाकात हुई थी. आप की दोनों बच्चियों ने

ही मेरे बेटे निश का खयाल रखा था. बच्चियां कहां हैं?’’

जेवन ने दुखभरी आवाज में कहा, ‘‘अभी तक तो दोनों ऊपर के मकान में अलग रह रही थीं.’’

निशानिका को यह जान कर अचरज हुआ, ‘‘अरे, क्यों?’’

जेवन को जैसे कहने में कष्ट हो रहा हो, ‘‘रिकवरी फेज में थीं.’’

निशानिका ने सामान की सूची को टेबल पर रख दिया और अपना पूरा ध्यान जेवन के चेहरे पर केंद्रित किया, ‘‘दोनों बीमार हैं?’’

जेवन ने सहमते हुए बताया, ‘‘नहीं, अब नहीं. अब ठीक हो गई हैं. लेकिन दोनों को कोरोना था.’’

निशानिका के होश उड़ गए.

जेवन ने ग्लानिपूर्ण शब्दों में कहा, ‘‘1 हफ्ता पहले पार्टी के समय दोनों कोरोना संक्रमित हो चुकी थीं. लेकिन हलका संक्रमण होने से कोई लक्षण नहीं दिखा. पार्टी के बाद जब हमें पता चला तो डाक्टर की सलाह पर दोनों को घर पर ही क्वारंटाइन किया. अस्पताल ले जाने की जरूरत नहीं पड़ी.’’

निशानिका चुपचाप खड़ी सुनती रही.

जेवन मानो निशानिका की पीड़ा समझ गया हो. उस ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा, ‘‘जब मुझे पता चला कि आप का बेटा संक्रमित हुआ है, तो मुझे बेहद दुख हुआ. मेरी बच्चियों की वजह से ही वह वायरस से संक्रमित हो गया.’’

निशानिका के पेट में अजीब सी लहरों का उत्थान होने लगा. उसे पता ही नहीं चला कि कब और क्यों उस ने जेवन से पूछ लिया, ‘‘दोनों बच्चियां कोरोना संक्रमित थीं?’’

जेवन ने निशानिका को तकलीफ में देखा तो विषादपूर्ण हो कर उसे सूचित किया, ‘‘व्हाट्सऐप पर लिख कर बताने के बजाय मैं ने व्यक्तिगत रूप से आ कर बात करना दुरुस्त समझ. इसीलिए शांतलू और उस की पत्नी से आप की दुकान का पता लिया. वेकाश तो अपने काम पर गया होगा,’’ एक क्षण और रुक कर उस ने खेद व्यक्त किया, ‘‘घर पर भी नहीं, सीधे अस्पताल में इतने छोटे से बच्चे को भरती कर दिया… मैं तो अवाक ही रह गया था…’’

निशानिका हक्काबक्का हो कर यहांवहां ताकने लगी. उस से जेवन से नजरें मिलाते न बना.

जेवन ने उसे अपने से दूर होते देख कर जैसे फरियाद की, ‘‘मेरी दोनों बच्चियां छोटी हैं. वे भी नाजुक हैं. फूल सी हैं. आशा है कि आप इस प्रकरण को ले कर उन दोनों के खिलाफ नहीं हो जाएंगे.’’

निशानिका के दिमाग में पता नहीं कौन सी बातें घूम रही थीं कि एकाएक ही उस ने पूछ लिया, ‘‘आप ने दोनों का वैक्सीनेशन नहीं करवाया था क्या?’’

जेवन ने तत्परता से इस का जवाब दिया, ‘‘मैं बच्चों को ऐसे जहरीले इंजैक्शन लगाने में विश्वास नहीं करता हूं जिन की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है. जिन चीजों से लड़ने के लिए उन के शरीर को बनाया गया है, उस के लिए बाहरी रसायनों को जबरदस्ती शरीर में डालने की क्या तुक है? लेकिन जिस को लगवाना है, वे जा कर भले लगवाए.’’

निशानिका नीचे एक बड़े भारी बक्से पर बैठ गई जैसे अभी चक्कर खा कर गिर जाएगी. उस की ऐसी अवस्था देख कर जेवन भी डर गया. शायद वह यह सोच कर आया था कि निशानिका को वह अच्छे से समझ लेगा या फिर उस के पति का सामना करने में उसे भय महसूस हुआ हो, इसलिए पत्नी की गिफ्टशौप पर चला आया.

जेवन वापस जाने लगा. जाने से पहले उस ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘उम्मीद है कि आप का बच्चा भी मेरी बच्चियों की तरह जल्द ही वापस स्वस्थ हो जाएगा.’’

निशानिका के हाथ में कब बक्से में रखी पीतल की बनी मूर्ति आ गई, उसे पता ही न चला और न ही अपने मुंह से निकले हुए ये शब्द, ‘‘जेवनजी…’’

अपना नाम सुन कर जेवन पीछे पलटा.

बच्चे को कोरोना- भाग 1: निशानिका ने क्या कदम उठाया था

जब निशानिका दंपती ने पार्टी में प्रवेश किया, तो पार्टी के मेजबान शांतलू ने खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘‘समय से पहले ही आ गए तुम लोग.’’

निशानिका ने अनायास कहने की कोशिश की, ‘‘हम लोगों ने सोचा कि …’’

शांतलू ने उसे बीच में ही काट दिया, ‘‘ठीक है, कोई बात नहीं. बिलकुल सही किया तुम ने. सभी दोस्त मदद करने में लगे हैं.’’

पार्टी शांतलू के घर के पिछवाड़े के आंगन में थी, जो बहुत बड़ा था. घर से आंगन में प्रवेश करने के दरवाजे पर नीले रंग के गुब्बारों का झंड लगा था. ऐसे ही नीले रंग के गुब्बारों के सैट

2-3 और जगहों पर लगे थे. बच्चों के खेलने के लिए कृत्रिम फिसल पट्टी रखी हुई थी. शांतलू के 2 दोस्त स्टेज बना रहे थे, जिन पर उन्होंने माइक्रोफोन रखने का इंतजाम किया था. शायद कोई गीत गाएगा या फिर पार्टी में तरहतरह की घोषणाएं की जाएंगी. बीचबीच में प्लास्टिक की मेजें और कुरसियां रखी हुई थीं. एक जगह पर भोजन की बडी टेबल व्यवस्थित की जा रही थी. पानी का बड़ा पारदर्शी कनस्तर इस टेबल के एक कोने पर रखा था.

शांतलू का एक मित्र, जेवन अपनी एक बच्ची के बाल ठीक कर रहा था. उस की दूसरी बच्ची आंगन में टेबलों के चारों ओर दौड़दौड़ कर चक्कर लगा रही थी. इक्कादुक्का और बच्चे दिख रहे थे. वे शायद स्टेज सजाने वाले मित्रों के बच्चे थे.

शांतलू स्वयं डैकोरेशन की ?िल्लियां लगा रहा था. उस ने ?िल्लियों को नीचे रखते हुए वेकाश सुमेरा से कहा, ‘‘अब वेकाश आ ही गया है तो वही इन ?िल्लियों को लगाएगा.’’

निशानिका ने एक क्षण के लिए अपने पति वेकाश को देखा, फिर अपने साथ लाए बड़े टिफिन को उठा कर दिखाते हुए शांतलू से कहा, ‘‘मैं इस टिफिन को अंदर किचन में रख कर आती हूं.’’

निशानिका के घर के अंदर जाने के बाद शांतलू ने स्टेज सजाते हुए अपने मित्रों को जोर से आवाज दी, ‘‘देखो कौन आया है.’’

स्टेज की व्यवस्था करते रोमकेश और भार्तेंदभ ने दूर से ही हाथ हिलाते हुए वेकाश का स्वागत किया और वहीं से चिल्लाते हुए कहा, ‘‘आज पार्टी में बहुत मजा आएगा.’’

वेकाश ने अपने हाथ में अपने साथ लाए गिफ्ट के बक्से को उन्हें दिखाते हुए जवाब दिया, ‘‘बिलकुल.’’

घर के अंदर शांतलू की पत्नी ने निशानिका का स्वागत किया, ‘‘अच्छा हो गया जो तुम लोग थोड़ा जल्दी आ गए. छुटका कहां है?’’

निशानिका ने थके हुए स्वर में कहा, ‘‘पहले तो मैं ने सोचा कि अपनी मां को ही बुला लेती हूं कि घर पर निशांधेता का ध्यान रखे. फिर सोचा कि पार्टी में उस को मजा आएगा, इसलिए ले कर आ गई.’’

निशांधेता का जन्म हुए कुछ ही महीने हुए थे. लेकिन उस के लिए नर्म गद्दों वाली ट्रौली आ चुकी थी, जिस के अंदर रह कर अपनी बोतल चूसते हुए मजे से बाहरी संसार को अपने अंदर ग्रहण करने की उस ने शुरुआत कर दी थी.

शांतलू की पत्नी ने चिंता व्यक्त करते हुए निशानिका से उस की मां के बारे में पूछा, ‘‘माताजी की तबीयत कैसी है? दवा दी जा रही थी उन को?’’

निशानिका ने दुखी स्वर में जवाब दिया, ‘‘बहुत भुगतना पड़ रहा है उस को. लेकिन अभी तो ठीक है. मैं भी अपनी छोटी सी गिफ्ट शौप खोलने के चक्कर में हूं.’’

शांतलू की पत्नी ने घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘जल्द ही सभी लोग आने शुरू हो जाएंगे. मुझे बच्चों को फैंसी ड्रैस पहनानी है,’’ और फिर हड़बड़ी में बच्चों को पोशाक पहनाने निकल गई.

बाहर आंगन में वेकाश ?िल्लियां लगाते हुए अपने चारों ओर महिमामंडित उत्पादकता को निहार रहा था. इस शहर के अमीरों के घरों में बच्चों की फैंसी ड्रैस पार्टी ऐसी विलासिता के साथ होती है, इस बात का उसे पता नहीं था.

कुछ ही महीने हुए थे उसे और निशानिका को इस शहर में आए हुए. निशांधेता का जन्म इसी शहर में हुआ था. 2 नई शुरुआतें एकसाथ, नया शहर, नया रूप, पिता का रूप. नई प्रकार की जिम्मेदारियां. जब बच्चे का जन्म हुआ था, तो निशानिका ने बहुत जोर किया कि बच्चे का नाम उन दोनों के नाम को मिला कर ‘निशाकाश’ रखा जाए. उस ने दलील भी दी कि चूंकि निशा का अर्थ ‘रात्रि’ होता है, इसीलिए ‘निशाकाश’ का अर्थ हो जाएगा ‘रात्रि का आकाश’ जो बच्चे के लिए बेहद उपयुक्त साबित होगा क्योंकि उस का जन्म भी रात के 9 बजे हुआ था. लेकिन वेकाश दृश्य था कि ‘निशा’ नाम से स्त्रीलिंग का बोध होता है, अत: ‘निशांधेता’ अधिक उपयुक्त होगा. वेकाश हिंदी साहित्य का विशेषग्य नहीं था अन्यथा उसे पता होता कि ‘अंधेता’ का अंधे होने से संबंध है.

आज निशांधेता अपनी घूमने वाली घुमक्कड़ गाड़ी में फैंसी ड्रैस पहने हुए किलकारियां मारते हुए डोल रहा था. जेवन अपनी एक बच्ची के बाल ठीक कर, टेबल पर रखा जूस पी रहा था

कि आंगन में बेतहाशा दौड़ती हुई पीले रंग की ड्रैस पहने, चश्मा लगाए उस की दूसरी बच्ची तेज गति से चिल्लाते हुए उस के पास आ पहुंची, ‘‘पापा… पापा…’’

जेवन ने अपना जूस का गिलास वापस रख दिया और अपनी दूसरी बच्ची को वेकाश की घुमक्कड़ गाड़ी की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘इस का नाम निशांधेता है. इस के साथ खेलो.’’

निशानिका ने घर के अंदर से ही अपने पति को आवाज दी, ‘‘वेकाश, एक मिनट सुनो.’’

वेकाश ने अपने नन्हे को देखा तो जेवन ने उस से कहा, ‘‘तुम जाओ अंदर. मैं इस को देख लूंगा.’’

वेकाश ने जेवन को धन्यवाद दिया और

घर के अंदर चला गया. जेवन ने निशांधेता को अपनी बच्चियों को सौंप दिया कि उस के साथ खेलें और उस का मन बहलाएं. बच्चियां और खुश हो गईं. उन्हें खेलने के लिए एक और खिलौना मिल गया. वे दोनों आपस में निर्णय लेने लगीं कि सब से पहले कौन सा गीत निशांधेता को सुनाना चाहिए.

कुछ दिनों के बाद जब वेकाश अपने काम पर था तो दोपहर करीब 12 बजे अचानक उस का मोबाइल बजा. दूसरी ओर से बिलखती हुई आवाज में निशानिका ने कहा, ‘‘मैं अस्पताल में हूं. निश को बुखार आ रहा था, इसलिए ले कर आई थी. लेकिन अब वे लोग कोरोना टैस्ट कराने को कह रहे हैं.’’

वेकाश के पैरों तले की जमीन खिसक गई. वह दौड़ादौड़ा अस्पताल पहुंचा, जहां उसे अपने पूरे बदन को ढकने के लिए प्लास्टिक के रेनकोट की तरह का आवरण दिया गया. निशानिका भी उसी तरह के आवरण में थी. अपनी पूरी जिंदगी में इस तरह का डर वेकाश ने कभी महसूस नहीं किया था जैसा इस वक्त उसे लग रहा था.

निशानिका की मां भी मौजूद थी और नर्स से कह रही थी, ‘‘अब तो बहुत समय हो गया बच्चे को ले गए हुए. इतनी देर क्यों लग रही है?’’

नर्स ने शांति से उत्तर दिया, ‘‘आजकल तुरंत टैस्टिंग हो जाती है. बस अभी आते ही होंगे.’’

नर्स का इतना कहना ही था कि उस का मोबाइल बजा और टैस्टिंग के स्थान से किसी ने उसे स्थिति से अवगत कराया. नर्स ने धैर्यपूर्वक सुना और बच्चे के मातापिता को जानकारी दी, ‘‘टैस्टिंग हो गई है और खून जांच का भी प्रारंभिक विश्लेषण हो चुका है.’’

निशानिका ने डर और आतुरता के मिश्रण से पूछा, ‘‘क्या नतीजा निकला है?’’

नर्स ने चिंतित स्वर में बताया, ‘‘ऐसा लगता है कि करीब 1 हफ्ता पहले इन्फैक्शन हुआ है.’’

माफी- भाग 3: क्या परिवार ने स्वीकार की राजीव-वंदना की शादी

सरला और सविता ने फौरन उन्हें शांत किया. वंदना ने खामोशी की चादर ओढ़ ली.

‘‘राजीव के मन में जो अपराधबोध का भाव बैठ गया है, उसे जल्दी से हटाना बेहद जरूरी है, जीजाजी. उस की उदासी की जड़े गहरी हो कर उस के व्यक्तित्व को बिगाड़ती जा रही है,’’ सविता ने चिंतित लहजे में अपनी राय प्रकट करी.

‘‘तुम्ही सलाह दो कि  हम क्या करें,’’ सरला ने अपनी छोटी बहन की तरफ आशा भरी नजरों से देखा.

‘‘मेरे खयाल से हमें राजीव और उस के मातापिता को आज शाम को यहां खाने पर आमंत्रित करना चाहिए. पार्टी के माहौल में आप दोनों उस के मन की परेशानी जरूर दूर कर सकेंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक सलाह दी है, तुम ने,’’ राजेंद्रजी ने सविता के प्रस्ताव को फौरन मंजूरी

दे दी.

किसी से कुछ भी कहे बिना वंदना वहां से उठ कर अपने कमरे में चली गई.

उस के ऐसा करने से घर का माहौल कुछ भारी ही बना रहा.

राजेंद्रजी ने फोन पर कैलाशजी को सपरिवार अपने घर रात का खाना खाने का निमंत्रण दे दिया. उन की आवाज में राजीव को ले कर व्याप्त चिंता व दुख को राजेंद्रजी ने साफ महसूस किया.

राजेंद्र, मीना और राजीव रात 8 बजे के करीब उन के घर आ गए. राजीव का मुरझाया चेहरा किसी की आंखों से छिपा नहीं रहा.

राजेंद्रजी के सामने आ कर राजीव कुछ कहता, उस से पहले ही उन्होंने उस से कहा, ‘‘बरखुरदार, तुम आज ‘माफी’ शब्द को अपनी जबान पर लाओगे ही नहीं. मेरा मन बिलकुल साफ है. तुम मुझे उस दिन की सारी घटना सदा के लिए भूल जाने का आश्वासन दो, तो यह मेरे लिए सब से अच्छा उपहार होगा.’’

राजीव ने उन की बात का कोई जवाब देने के बजाय झक कर उन के पैर छू लिए. राजेंद्रजी ने भावुक हो कर उसे गले से लगाया, तो वंदना को छोड़ वहां उपस्थित तीनों महिलाओं की पलकें गीली हो उठीं.

‘‘आज खूब हंसतेमुसकराते हुए पार्टी का आनंद लो, राजीव,’’ सरला ने पास आ कर उस की पीठ को प्यार से थपथपाया.

‘‘जब वंदना मुझ से हंस कर नहीं बोलती है, तो मैं वैसा कैसे कर सकूंगा?’’ राजीव ने तनावग्रस्त लहजे में वंदना की तरफ देखते हुए सवाल पूछा.

सब की नजरों का केंद्र एकाएक वंदना

बन गई. उस ने खामोश रहते हुए अपनी नजरें झका लीं.

‘‘तुम वंदना की तरफ ध्यान ही मत दो, राजीव,’’ सविता ने उसे मुसकराते हुए सलाह दी.

‘‘मैं उस का दोस्त बने रहना चाहता हूं, आंटी.’’

‘‘वह धीरेधीरे सहज हो जाएगी, राजीव.’’

‘‘वह मुझे शायद कभी माफ नहीं करेगी, आंटी,’’ राजीव भावुक हो उठा.

‘‘क्या यह तुम्हारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है कि वह तुम्हें माफ करें?’’

‘‘वह मुझे माफ  करेगी, तभी तो मैं खुद को माफ कर पाऊंगा आंटी.’’

सविता ने वंदना की तरफ घूम कर कहा, ‘‘वंदना, तुम इसे दिल से माफ कर दो.’’

वंदना ने न अपनी खामोशी भंग करी और न ही नजरें उठाई.

‘‘यह मामला तो पेचीदा हो गया है, पर इस का एक हल मेरी समझ में आ रहा है,’’ सविता एकाएक गंभीर हो गई.

‘‘वह हल क्या है?’’ अपने बेटे के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति चिंतित मीना ने फौरन उत्सुकता जाहिर करी.

‘‘जीजाजी, सरला दीदी, क्या आप दोनों राजीव को अब नेकदिल इंसान मानते हो?’’ मीना को जवाब न दे कर सविता अपनी दीदी व जीजाजी की तरफ घूमी.

‘‘हां,’’ उन दोनों ने एक साथ जवाब दिया.

‘‘और आप दोनों राजीव को हंसीखुशी से भरा देखने के इच्छुक हैं न?’’ वह फिर मीना व कैलाशजी की तरफ घूमी.

‘‘अपने बेटे की हंसीखुशी से ज्यादा हमारे लिए कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है,’’ कैलाशजी ने भावुक हो कर जवाब दिया.

‘‘और राजीव की हंसीखुशी अब वंदना के हाथों में है. मुझे लगता है कि अगर हम इन दोनों को दोस्ती से कहीं ज्यादा मजबूत रिश्ते में बांध दें, तो सारी समस्या का समाधान खुदबखुद हो जाएगा.’’

सविता का इशारा किस तरफ है, इसे समझने में किसी को भी ज्यादा समय नहीं लगा.

‘‘मैं वंदना को अपनी बहू बनाने को बिलकुल तैयार हूं. सारी समस्या का इस से बढि़या समाधान हो ही नहीं सकता है,’’ मीना की ममता ने अपने बेटे की खुशियों की खातिर इस निर्णय पर पहुंचने में कैलाशजी से कोई सहायता नहीं ली.

कैलाशजी ने अपने बेटे राजीव को पिछले कई हफ्तों में पहली बार खुशी से मुसकराते देखा, तो वे भी खुश हो उठे.

‘‘आप के घर से रिश्ता जोड़ कर हमें बेहद प्रसन्नता होगी,’’ कैलाशजी ने आगे बढ़ कर राजेंद्रजी के कंधों पर दोस्ताना अंदाज में हाथ रखा.

‘‘भाई साहब, मैं दहेज में ज्यादा…’’

‘‘हमें दहेज नहीं अपने बेटे का अच्छा स्वास्थ्य व खुशियां चाहिए,’’ कैलाशजी ने उन के मुंह पर हाथ रख कर उन्हें खामोश कर दिया.

‘‘हम छोटी जाति के…’’ सरला को आगे बोलने से मीना ने रोका और अपने गले से लगा लिया.

‘‘राजीव की ‘हां’ तो उस की मुसकराहट से ही जाहिर हो रही थी. वंदना, अब तुम भी अपना जवाब सुना दो,’’ सविता की इस पेशकश ने वंदना को फिर से सब की नजरों का केंद्र बना दिया.

वंदना धीरेधीरे चल कर सविता के पास आईर् और उन के कान में बेहद धीमे

से फुसफुसा कर बोली, ‘‘मेरी प्यारी मौसी, बधाई. आप का मार्गदर्शन पा कर मैं अपना मनपसंद जीवनसाथी पा गई हूं. माना कि राजीव ने उदास दिखने का बढि़या अभिनय लंबे समय तक किया, पर सारी योजना तो आप की ही थी. दहेज व जातपांत के झंझट से बचा कर हमारी शादी पक्की कराने के लिए आप का फिर से धन्यवाद.’’

अपनी मौसी का गाल चूम कर वंदना अपने कमरे में भाग गई.

‘‘वह कह रही है कि अगर भविष्य में कभी ‘माफी’ न मांगने का वादा राजीव करे, तो वह इस शादी को हां करती है,’’ सविता की इस बात पर सब का सम्मिलित ठहाका ड्राइंगरूम में गूंज उठा और सब एकदूसरे को नए रिश्ते में बंधने की शुभकामनाएं देने लगे.

यह राज तो बाद में कई महीनों बाद खुला कि न राजीव के पिता तैयार होते कि यादव घर में शादी हो, न वंदना के मातापिता की हिम्मत होती कि वे उस घर में संबंध मांगने जाए जहां उन की बिरादरी को कम समझ जाता हो. वंदना के पिता हैड मास्टर ही थे पर वे अपने छात्रों में बेहद लोकप्रिय थे और उन से पढ़े बच्चे अब आईएएस, एमबीए, सीईओ बन गए थे. सब ने तय कर रखा था कि राजेंद्रजी के रिटायर होते ही एक बड़ा कोचिंग सैंटर खोला जाएगा जिस की सारे देश में ब्रांचें होंगी.

वंदना जानती थी कि उस के पिता के गुण क्या है और वह नहीं चाहती थी कि राजीव के पिता कभी उन्हें हीन समझें. तभी तो उन की मौसी की बात से बात बनी.                     द्य

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