माफी- भाग 2: क्या परिवार ने स्वीकार की राजीव-वंदना की शादी

राजीव को समझनेबुझने का एक नया दौर फिर से शुरू हुआ. वे सब की बातें सिर झका कर सुनता रहा, पर उदासी का कुहरा उस के चेहरे पर से आखिर तक नहीं हटा.

अचानक कार से निकल कर राजीव ने नए कुरतेपजामे का जोड़ा राजेंद्रजी के हाथों में पकड़ाते हुए सुस्त लहजे में कहा, ‘‘सर, आप ने इसे स्वीकार नहीं किया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर सकूंगा.’’

‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है, बेटा. माफी तो मैं ने तुम्हें वैसे ही दे दी है,’’ राजेंद्र जी को

यों उपहार स्वीकार करना बड़ा अटपटा सा लग रहा था.

उन का जवाब सुन कर राजीव का चेहरा एकदम से बुझ गया. तब सरला ने हस्तक्षेप कर के कुरतेपजामे का सैट अपने पति के हाथ में जबरदस्ती पकड़ा कर उन्हें राजीव का उपहार स्वीकार करने को बाध्य कर दिया.

विदा होने तक राजीव के चेहरे पर किसी तरह की मुसकान नहीं उभरी थी. वह बुझबुझ सा ही चला गया. कैलाश और मीना की आंखों में चिंता के भावों को बरकरार देख कर राजेंद्रजी व सरला का मन भी बेचैनी व तनाव का शिकार बने रहे.

राजेंद्रजी ने वंदना के कमरे में जाकर उसे भी समझया, ‘‘गलती इंसान से हो जाती है, बेटी. मेरे अनुमान के विपरीत यह राजीव भावुक और संवेदनशील इंसान निकला है. उस के मन को और दुखी करना ठीक नहीं है. तुम भी उस के साथ अपना व्यवहार सहज व सामान्य कर ले. उस का डिप्रैशन से जल्दी निकलना बेहद जरूरी है,’’ राजेंद्रजी की आवाज में चिंता के भाव साफ झलक रहे थे.

‘‘मैं उस से जबरदस्ती बात कभी नहीं करूंगी. उस की बदतमीजी के लिए मैं उसे कभी माफ करने वाली नहीं हूं,’’ वंदना को गुस्सा अपनी जगह कायम रहा.

‘‘इतना ज्यादा गुस्सा करना ठीक  नहीं है, बिटिया रानी. वह मेरा कुसूरवार था. अब मैं ने उसे माफ कर दिया है, तो तुम भी उस के साथ सहज व्यवहार करो.’’

‘‘यह मुझ से नहीं होगा, पापा.’’

‘‘बेटी, वह दिल का बुरा नहीं निकला. मुझे नया कुरतापजामा भी गिफ्ट कर गया है. अपनी जिद पर अड़ी रह कर तुम उस के दिल को और तकलीफ मत पहुंचाओ.’’

‘‘मुझे उस के दिल की तकलीफ की चिंता नहीं है, पापा.’’

वंदना का रूखा जवाब सुन कर राजेंद्रजी को गुस्सा आ गया. बेटी को समझने की बात भूल कर वो उसे डांटनेडपटने लगे.

वंदना जवाब में खामोश रही, पर उस का मुंह नाराजगी से सूज गया. राजीव को माफी देने का मामला इन के घर का माहौल तनावग्रस्त कर गया था.

राजीव अभी भी उदास और गुमसुम बना हुआ है, 2 दिन बाद कैलाशजी से फोन पर यह खबर सुन कर राजेंद्रजी परेशान हो उठे. इस विषय पर उन्होंने सरला से देर तक बातें कीं. उन दोनों की सहानुभूति अब राजीव व उस के मातापिता के साथ थी. सारे मामले की खलनायिका उन्हें अपनी बेटी प्रतीत हो रही थी जिस ने राजीव के साथ सीधे मुंह वार्त्तालाप करना अभी भी आरंभ नहीं किया था.

राजीव की उदास हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है, इस की खबर इन दोनों को योगेश साहब के द्वारा आगामी रविवार को मालूम पड़ी. वे राजीव और वंदना के बौस थे.

‘‘राजेंद्रजी, वंदना मेरी तो सुनती नहीं है… अब आप ही उसे समझइए कि वह राजीव से ठीक तरह से पेश आने लगे. बातबात पर उसे ताने देना… उसे बेइज्जत करना वंदना के लिए ठीक नहीं है,’’ योगेश साहब ने पिता से बेटी की शिकायत करी.

‘‘इस विषय पर मैं उसे कई बार डांट चुका हूं… कपूर साहब. पता नहीं क्यों वह सारी बात भूलने को तैयार नहीं है?’’ राजेंद्रजी परेशान हो उठे.

‘‘क्या आपने राजीव को माफ कर दिया

है, सर?’’

‘‘बिलकुल कर दिया है,  योगेश साहब.’’

‘‘दिल से?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘लेकिन न राजीव आप के माफ कर देने से संतुष्ट है, न वंदना. राजीव अपने को अब भी गुनहगार मानता है और वंदना उसे इस बात को भूलने नहीं देती.’’

‘‘राजीव अच्छा, समझदार और अपने काम में कुशल आदमी होता था. उस की अगली प्रमोशन का समय बिलकुल सिर पर आ पहुंचा है और वह है कि सारा दिल खोयाखोया सा रहता है. मैं उस की मनोदशा को ले कर सचमुच बेहद चिंतित हूं.’’

‘‘मैं वंदना को फिर से समझऊगा,’’ राजेंद्रजी ने योगेश साहब को आश्वासन दिया.

‘‘ये दोनों बड़े अच्छे दोस्त होते थे. अब वंदना उसे झिड़कती रहती है. दोनों की दोस्ती को किसी की नजर लग गई,’’ योगेश साहब का यह वाक्य राजेंद्र जी को बाद में भी बारबार याद आता रहा. उन्हें हैरानी इस बात की थी कि वंदना ने कभी पहले राजीव से अपनी अच्छी दोस्ती की चर्चा घर में नहीं करी थी.

‘‘कहीं राजीव और वंदना जरूरत से ज्यादा गहरे दोस्त तो नहीं थे? मेरा मतलब तुम समझ रही हो न?’’ रात को सोते समय राजेंद्रजी ने अपने मन की चिंता सरला से कही.

‘‘मुझे नहीं लगता उन के बीच प्रेम का कोई चक्कर चल रहा होगा. राजीव अमीर खानदान का बेटा है. वे लोग ब्राह्मण हैं और हम यादव. एक स्कूल हैंडमास्टर की बेटी में राजीव की क्यों दिलचस्पी होगी?’’ सरला की इस दलील ने राजेंद्रजी के मन में बनी बेचैनी को बड़ी हद तक शांत कर दिया.

अगले रविवार की सुबह वंदना की सविता  मौसी उन के घर आ पहुंची. उन के

हाथ में खूबसूरत गुलदस्ता देख इन तीनों को याद आया कि आज राजेंद्रजी और सरला की शादी की 26वीं सालगिरह है.

‘‘साली साहिबा, अब तक तो तुम आज के दिन कभी गुलदस्ता नहीं लाई थीं. आज क्या खास बात है जो इतना सुंदर गुलदस्ता भेंट कर रही हो?’’ राजेंद्रजी ने अपने साली को छेड़ते हुए सवाल पूछा.

‘‘जीजाजी, मैं तो इस बार भी आप के लिए स्वैटर ही लाई हूं. ये फूल तो राजीव ने भेजें हैं,’’ सविता ने रहस्यमयी अंदाज में मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘राजीव ने?’’ राजेंद्रजी चौंके, ‘‘तुम उसे कैसे जानती हो?’’

‘‘वह हमारी कालोनी में ही तो रहता है, जीजाजी.’’

‘‘अच्छा. पर तुम ने कभी जिक्र तो नहीं किया उस का?’’

‘‘उस का मौका ही नहीं पड़ा. अच्छा, यह बताइए कि आप उसे माफ क्यों नहीं कर देते हो? वह अपनी गलती मान तो चुका है जीजाजी.’’

राजेंद्रजी ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘अरे, मैं अपने उस चाचा को सैकड़ों बार माफ कर चुका हूं, अब कैसे समझऊं मैं उसे यह बात?’’

‘‘वह बेचारा बड़ा दुखी नजर आ रहा था. वंदना तुम उस से सीधे मुंह बात क्यों नहीं करती हो?’’ सविता ने उसे प्यार भरे गुस्से से घूरा.

‘‘मौसी, मैं तो उस से बात ही नहीं करती हूं,’’ वंदना ने मुंह बना कर

जवाब दिया.

‘‘मुझे अब राजीव से नहीं बल्कि अपनी बेटी से कहीं

ज्यादा शिकायत है. यहउस से कहीं ज्यादा बड़ी बदतमीज साबित हो रही है,’’ राजेंद्रजी को एकदम गुस्सा आ गया.

माफी- भाग 1: क्या परिवार ने स्वीकार की राजीव-वंदना की शादी

जब वंदना 5 मिनट पहले ब्रैडअंडे खरीदने दुकान में घुसी थी, तब उस के पिता राजेंद्रजी फुटपाथ पर अकेले खड़े थे. अब वह बाहर आईर् तो देखा उन के इर्दगिर्द 15-20 आदमियों की भीड़ इकट्ठी थी.

अपने पिता की ऊंची, गुस्से से भरी आवाज सुन कर उस ने समझ लिया कि वे किसी से झगड़ रहे हैं.

‘‘अंधा… बेवकूफ… गधा… इडियट… रास्कल…’’ राजेंद्रजी के मुंह से निकले ऐसे कई शब्द वंदना के कानों में पड़ गए थे.

उन से उलझ हुआ युवक मोटरसाइकिल पर बैठा था. वी हर वाक्य के बाद राजेंद्रजी के लिए बुड्ढे बुढ़ऊ और सठिया गया इंसान जैसे विशेषणों का प्रयोग कर उन के गुस्से को बारबार भड़का रहा था.

अपने पिता के सफेद कुरतेपजामे पर

कीचड़ के निशानों को देख वंदना झगड़े का कारण फौरन समझ गई, ‘‘राजीव,’’ वंदना ने मोटरसाइकिल पर बैठे युवक को पहचान कर जोर से डांटा, ‘‘इतनी बदतमीजी से बात करते हुए तुम्हें शर्म आनी चाहिए.’’

राजीव ने चौंक कर उस की तरफ देखा. एक सुंदर युवती को झगड़े में

हिस्सेदार बनते देख भीड़ की दिलचस्पी और ज्यादा बढ़ गई.

‘‘वंदना, तुम्हें इन के मुंह से निकलने वाली गालियों को भी सुनना चाहिए,’’ राजीव ने उत्तेजित लहजे में सफाई दी, ‘‘अरे, बारिश का मौसम है तो छींटें पड़ सकते हैं. ये बुढ़ऊ न हो कर कम उम्र के होते तो अब तक मैं ने इन के दांत तोड़ कर इन के हाथ में…’’

‘‘तुम जिन के दांत तोड़ने की बात कर रहे हो, वे मेरे पिता हैं.’’

‘‘अरे, नहीं,’’ राजीव का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया.

‘‘मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि तुम एक बुजुर्ग इंसान से इतनी गंदी तरह से बोल सकते हो.’’

‘‘सर, मुझे माफ कर दीजिए. गुस्से में मैं ने जो गलत शब्द…’’

‘‘माफी और तुम जैसे घटिया, बदतमीज इंसान को. कभी नहीं.’’ राजेंद्रजी ने गुस्से से लाल हो कर अपना फैसला सुना दिया.

‘‘सर, आप ने भी मुझे खूब डांटा है और अपशब्द…’’

‘‘मुझे तुम से एक शब्द भी नहीं बोलना है. तुम इस नालायक इंसान को कैसे जानती हो, बेटी?’’ राजेंद्रजी ने वंदना से पूछा.

‘‘पापा, ये मेरे साथ औफिस में काम करते हैं.’’

‘‘तुम इस बदमाश से अब कोई संबंध

नहीं रखोगी.’’

‘‘राजीव, तुम ने मेरे पापा के लिए जो अपशब्द मुंह से निकाले हैं, उन के लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगी,’’ कह वंदना अपने पिता का हाथ थाम कर वहां से चलने लगी.

‘‘वंदना, मैं माफी मांग तो रह हूं,’’ राजीव अब परेशान व घबराया सा नजर आ रहा था.

‘‘मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगी,’’ वंदना मुंह फेर कर चल दी.

‘‘मैं तो चाहता हूं कि तुम्हारे जैसे बदतमीज इंसान का मुंह काला कर उसे सड़कों पर घुमाया जाए,’’ कह राजीव को कुछ पल गुस्से से घूरने के बाद राजेंद्रजी अपनी बेटी के साथ चल पड़े.

राजीव के मोटरसाइकिल स्टार्ट करते ही भीड़ ने छंटना शुरू कर दिया. घटनास्थल से विदा होते समय वह काफी गंभीर नजर आ रहा था.

राजेंद्रजी ने घर पहुंचते ही अपनी पत्नी सरला को सारी घटना का ब्योरा सुनाया. शाम को पार्क में घूमते हुए अपने हमउम्र दोस्तों से सारी बात कही. आज के युवावर्ग के गलत व्यवहार को ले कर दोनों जगह उन्होंने अपने मन की कड़वाहट खूब निकाली.

‘‘पापा, उस की मुझ से बात करने की हिम्मत नहीं होती है औफिस में. जो मेरे पापा की बेइज्जती करे, मैं उस की शक्ल भी देखना पसंद नहीं करूंगी,’’ वंदना के मुंह से यह बात 2 दिन बाद सुन कर राजेंद्रजी के मन को बड़ा चैन मिला.

उन का राजीव से झगड़ा रविवार के दिन हुआ था. अगले रविवार तक वे सारी बात को लगभग भूल चुके थे, लेकिन राजीव के मातापिता को अचानक अपने घर आया देख उन के मन में पूरी घटना की याद फिर से ताजा हो गई.

अपने यों अचानक आने का मकसद राजीव की मां मीना ने आंखों में आंसू भर कर उन तीनों के सामने बयां किया.

‘‘भाई साहब, राजीव सप्ताह भर से न ठीक से खा रहा है, न सो रहा है, ढंग से हंसनाबोलना पूरी तरह से भूल गया है. उस का उदास, मुरझया चेहरा हम से देखा नहीं जाता. बड़ा गहरा सदमा लगा है उसे,’’ अपने बेटे की दयनीय हालत बयां करते हुए मीना की आंखों से आंसू बह निकले.

‘‘आप की बातों पर विश्वास करना कठिन लग रहा है मुझे,’’ राजेंद्रजी हैरानपरेशान नजर आने लगे, ‘‘बुरा मत मानिएगा पर मुझे आप का बेटा संवेदनशील इंसान नहीं लगा था. उस ने बड़े गंदे ढंग से मुझ से बात करी थी.’’

‘‘राजेंद्रजी, वह सचमुच अपने व्यवहार के लिए बेहद शर्मिंदा और दुखी है. प्लीज, आप हम पर तरस खाइए और उसे माफ कर दीजिए,’’ राजीव के पिता कैलाशजी ने भावुक अंदाज में हाथ जोड़ कर कहा.

राजेंद्रजी ने फौरन कहा, ‘‘भाई साहब, आप यों दुखी न हों. बात इतनी बड़ी भी नहीं है कि माफी न दी जा सके. मेरा गुस्सा तो कभी का जा चुका है. आप राजीव को कहिएगा कि मैं ने उसे दिल से माफ कर दिया है.’’

‘‘वह बाहर कार में बैठा है. अंदर आने का हौसला अपने भीतर पैदा नहीं कर पा रहा था. अगर यह बात आप खुद उस से कह दें, तो उस का असर ज्यादा होगा.’’

‘‘अरे, उसे अंदर आना चाहिए था. वंदना, तुम उसे बुला लाओ,’’ राजेंद्रजी ने अपनी बेटी को आदेश दिया.

‘‘मैं अपने कमरे में जा रही हूं, पापा.

आप की जो मरजी हो करो, पर मैं उस से एक शब्द भी बोलना नहीं चाहती हूं,’’ गुस्से से पैर पटकती वंदना ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चली गई.

अपनी बेटी के व्यवहार पर शर्मिंदा से होते राजेंद्रजी खुद उठ कर राजीव को बुलाने चल पड़े. सरला भी उन के साथ चलीं, तो कैलाश और मीना भी साथ हो लिए.

बाहर सड़क पर ही राजेंद्रजी ने राजीव को पहले प्यार से बुजुर्गों के साथ सदा सही ढंग से पेश आने की बात समझईर् और फिर सिर पर हाथ फिराते हुए उसे माफ करने की बात कही.

‘‘सर, मेरा गंदा व्यवहार माफी के काबिल ही नहीं है,’’ राजीव का चेहरा उदास और मुरझया हुआ ही बना रहा, तो सब की बेचैनी व चिंता फौरन बढ़ गई.

सरला ने राजीव को घर के अंदर चलने का निमंत्रण दिया, पर वह राजी नहीं हुआ.

‘‘आंटी, वंदना की आंखों में मैं अपने लिए गुस्से व नफरत के जो भाव देखता हूं, वह मेरे लिए असहनीय है. उस का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं है,’’ राजीव की दर्दभरी आवाज सब के दिल को छू गई.

चुनौती- भाग 3: शर्वरी मौसी ने कौनसी तरकीब निकाली

दोनों घंटों कंप्यूटर पर बातचीत करते थे. फिर अचानक न जाने क्या हुआ कि दोनों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया. सुप्रिया को लगा कि अभीष्ट उसे धोखा दे रहा है.’’

‘‘हाय, इतना कुछ हो गया और सुप्रिया ने मुझे हवा तक नहीं लगने दी.’’

‘‘तुझे तो क्या मुझे भी हवा नहीं लगने दी. यह नई पीढ़ी बहुत स्मार्ट है. मुझे तो अभीष्ट की मां ने पूरी कहानी सुनाई. उन्हीं ने बताया कि अभीष्ट ने प्रण लिया है कि विवाह करेगा तो सुप्रिया से नहीं तो जीवनभर कुंआरा रहेगा. मुझ से कहने लगीं कि इस समस्या का हल आप ही निकाल सकती हैं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या, मैं ने बहुत सोचा. क्या करूं क्या न करूं. अभीष्ट को मैं बचपन से जानती हूं. हर क्षेत्र में सुप्रिया से बीस ही होगा. किसी तरह का कोई व्यसन नहीं. ऐसे युवक आजकल मिलते कहां हैं. सुप्रिया को भी मैं भली प्रकार जानती हूं. किसी से मिलनेजुलने या प्रेम की पींगें बढ़ाने का समय ही कहां है उस के पास. वैसे भी अभीष्ट जैसा वर तो दीया ले कर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा. यही सोच कर मैं ने उस के परिवार को तुम सब से मिलवाने का निर्णय लिया. मुझे पूरा विश्वास है कि वह मेरी बात नहीं टालेगी.’’

‘‘काश, ऐसा ही हो. मुझे तो यह सब सुन कर सुप्रिया की चिंता होने लगी है. यह तो बड़ी छिपी रुस्तम निकली. प्रताप और नीरजा ने मुझ से कभी कोई बात नहीं छिपाई.’’

‘‘होता है, ऐसा भी होता है. मेरी छवि ने तो ऐन शादी के दिन बताया था. तुझे तो सब पता है कि कैसे हम ने सारी बात संभाली थी. ऐसी बातों को दिल से नहीं लगाया करते,’’ शर्वरी ने समझाया.

‘‘ललिता, क्या कर रही हो तुम? वहां सारे मेहमान प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ तभी अपूर्व आ खड़े हुए.

‘‘अभी आती हूं. आप जा कर मेहमानों के पास बैठिए न,’’ ललिता ने अनुनय की.

‘‘ललिता, तू जा कर सुप्रिया को ले आ. मैं मेहमानों के पास जा कर बैठती हूं,’’ शर्वरी बोलीं तो ललिता सुप्रिया के कक्ष की ओर बढ़ गईं.

‘‘चल सुप्रिया, तेरे पापा और शर्वरी मौसी तेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ ललिताजी हड़बड़ाहट में बोलीं.

‘‘क्या मां, मेरा तमाशा बना कर रख दिया है. मैं क्या कोई अजूबा हूं जो सब के सामने मेरी नुमाइश करवा रही हो.’’

‘‘अरे वाह, मन मन भावे, मूड़ हिलावे,’’ ललिताजी हंसीं.

‘‘तात्पर्य क्या है आप का?’’ सुप्रिया ने त्योरियां चढ़ा लीं.

‘‘लो, अब तात्पर्य भी मुझे ही समझाना पड़ेगा. शर्वरी दीदी ने मुझे सब बतला दिया है. ड्राइंगरूम में चल, सब समझ में आ जाएगा.’’

‘‘दीदी, मां क्या कह रही हैं? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा,’’ नीरजा साक्षात प्रश्नचिह्न बनी खड़ी थी.

‘‘धीरज से काम लो. सब समझ में आ जाएगा. चलो जल्दी, मेहमान प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ ललिता अपनी ही धुन में बोलीं.

अभीष्ट और उस के परिवार को देख कर सुप्रिया को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. ‘शर्वरी मौसी को तो जासूसी कंपनी खोल लेनी चाहिए. न जाने कैसे सब पता लगा लेती हैं,’ उस ने सोचा.

‘‘यह सब क्या है? यहां आने से पहले मुझे सूचित तो कर सकते थे,’’ तनिक सा एकांत मिलते ही सुप्रिया ने अभीष्ट से शिकायत की.

‘‘चकित करने का अधिकार क्या केवल तुम्हें है? याद नहीं कैसे बिना कहेसुने गायब हो गई थीं तुम. मैं ने भी कसम खाई थी कि तुम्हें ढूंढ़ कर ही दम लूंगा. भला हो शर्वरी आंटी का जिन्होंने मेरा काम आसान कर दिया.’’

‘‘तुम्हारी सुनयना का क्या हुआ?’’ सुप्रिया ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में प्रश्न किया.

‘‘फिर वही सुनयनापुराण. मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मैं किसी सुनयना को नहीं जानता. पर तुम हो कि सुनने को तैयार ही नहीं हो,’’ अभीष्ट नाराज स्वर में बोला.

‘‘लो और सुनो. उस ने स्वयं मुझे फोन कर के बताया था कि तुम उस से अथाह प्रेम करते हो और विवाह उसी से करोगे.’’

‘‘मुझे क्या पता किस ने तुम्हें यह शुभ समाचार दिया था. पर इस बात का दुख अवश्य है कि तुम्हें मुझ से अधिक किसी अनजान के फोन पर विश्वास है,’’ अभीष्ट के स्वर में क्षोभ स्पष्ट था.

‘‘तुम मुझ पर झूठ बोलने का आरोप लगा रहे हो? मैं ने उस फोन नंबर को संभाल कर रखा है जिस से मुझे पूरे 3 बार फोन आया था.’’

‘‘ठीक है, फोन नंबर दो मुझे. हम दोनों बात करेंगे,’’ अभीष्ट बोला था.

‘‘हैलो सुनयना,’’ फोन पर किसी युवती का स्वर सुनते ही अभीष्ट ने प्रश्न किया था.

‘‘हैलो, अभीष्ट, कहो, कहां तक पहुंची तुम्हारी प्रेम कहानी,’’ उधर से खिलखिलाहट के साथ प्रश्न किया गया.

‘‘कौन, ऋचा? तो यह तुम्हारी शरारत थी. तुम्हीं ने सुप्रिया को सुनयना के नाम से फोन कर के बरगलाया था.’’

‘‘क्या कह रहे हो? मैं ने तो बस तुम्हारे कथनानुसार तुम्हारे प्रेम की परीक्षा ली थी. लगता है तुम्हारी बात ही सच थी. तुम दोनों को सचमुच एकदूसरे पर अटूट विश्वास है. विश्वास ही तो सच्चे प्रेम की नींव का पत्थर होता है.’’

‘‘ठीक कह रही हो तुम, सुप्रिया तो यह मानने को तैयार ही नहीं थी कि मेरे जीवन में कोई और लड़की भी हो सकती है. फिर भी वह यह जानने को बहुत उत्सुक थी कि उसे कई बार फोन किस ने किया था.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि तुम सुनयना बन कर फोन कर रही थीं, अब तुम ही उसे समझा दो,’’ अभीष्ट ने फोन सुप्रिया को थमा दिया.

‘‘हाय, सुप्रिया, कैसी हो? अभीष्ट ने तुम्हारे बारे में इतने विस्तार से बताया है कि ऐसा आभास हो रहा है मानो तुम मेरी आंखों के सामने बैठी हो. आशा है हम शीघ्र मिलेंगे. मैं ने ही तुम्हें सुनयना के नाम से फोन किए थे. मेरी अभीष्ट से शर्त लगी थी कि आजकल का कामचलाऊ प्रेम जरा सा झटका भी नहीं सह सकता. उस ने मुझे चुनौती दी थी कि मैं चाहूं तो परीक्षा ले सकती हूं तो मैं ने वही किया. पर मुझे प्रसन्नता है कि अभीष्ट की जीत हुई,’’ ऋचा ने सबकुछ स्पष्ट कर दिया.

‘‘पर तुम हो कौन?’’ सुप्रिया ने प्रश्न किया.

‘‘क्या अभीष्ट ने बताया नहीं अभी तक. मैं ऋचा अभीष्ट के मामाजी की बेटी. हम दोनों भाईबहन कम, मित्र अधिक हैं. नर्सरी से ले कर कालेज तक की पढ़ाई हम दोनों ने साथ की थी, पर विवाह करने में मैं अभीष्ट से आगे निकल गई,’’ ऋचा हंसी. उस की स्वच्छ, निर्मल हंसी सीधे सुप्रिया के दिल में उतर गई.

‘‘तुम से बात कर के बहुत अच्छा लगा, ऋचा. आशा है हम शीघ्र ही मिलेंगे,’’ किसी प्रकार सुप्रिया के मुंह से निकला. वार्त्तालाप समाप्त होते ही सुप्रिया ने सिर झुका लिया. उस की आंखों से टपटप आंसू झरने लगे.

‘‘अब क्या हुआ?’’ अभीष्ट ने प्रश्न किया.

‘‘मैं तो तुम्हारी परीक्षा में असफल हो गई अभीष्ट, मैं ने तुम पर अविश्वास किया.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, सुप्रिया. मैं भी तुम्हारी जगह होता तो शायद ऐसा ही सोचता. प्रेम को विश्वास में बदलने में तो सारा जीवन लग जाता है. अब शीघ्रता से अपने आंसू पोंछ लो, सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं.’’

सुप्रिया आंसुओं के बीच भी मुसकरा दी थी. शर्वरी ने सुप्रिया को देखा तो आंखों ही आंखों में ललिता को बता दिया कि उन का परिश्रम व्यर्थ नहीं गया था. ललिता अपनी दीदी की योग्यता की कायल हो गई थी.

नया सवेरा- भाग 1: बड़े भैया के लिए पिताजी का क्या था फैसला

बड़ी भाभी बंबई में पलीबढ़ी थीं. खातेपीते अच्छे परिवार से आई थीं. ऐसा नहीं था कि हम लोग उन के मुकाबले कम थे. पिताजी बैंक में मैनेजर थे. मां जरूर कम पढ़ीलिखी थीं किंतु समझदार थीं.

बड़ी भाभी बंबई से आई थीं, शायद इसी कारण हम सभी को गंवार समझती थीं क्योंकि हम जौनपुर जैसे छोटे शहर में रहते थे. हां, भैया को वे जरूर आधुनिक समझती थीं. कारण, घर के बड़े बेटे होने के नाते उन का लालनपालन बड़े लाड़प्यार से हुआ था. कौन्वैंट में पढ़ने के कारण धाराप्रवाह अंगरेजी बोल लेते थे. सुबह से ही बड़ी भाभी का बड़बड़ाना चालू था, ‘जाने क्या समझते हैं सब अपनेआप को. आखिर हैं तो जौनपुर जैसे छोटे शहर के…रहेंगे गंवार के गंवार. किसी को आगे बढ़ते देख ही नहीं सकते. हमारे बंबई में देखो, रातरात भर लोग बाहर रहते हैं किंतु कोई हंगामा नहीं होता.’

छोटी भाभी सिर झुकाए आटा गूंधती रहीं जैसे कुछ सुनाई न दे रहा हो. मुझे कालेज जाने में देर हो रही थी. हिम्मत कर के रसोई में पहुंची. धीमी आवाज में बोली, ‘‘भाभी, मेरा टिफिन.’’

‘‘लो आ गई…कालेज में पहुंच गई, किंतु अभी तक प्राइमरी के बच्चों की तरह बैग में टिफिन डाल कर जाएगी. एक हमारे यहां बंबई में सिर्फ एक कौपी उठाई, पैसे लिए और बस भाग चले.’’ वहां रुक कर और सुनने की हिम्मत नहीं हुई. सोचने लगी, ‘आखिर भाभी को हो क्या गया है, आज से पहले उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा.’

जैसे ही भोजनकक्ष में गई, छोटे भैया की आवाज सुन कर पैर रुक गए.

‘‘आखिर आप करते क्या हैं बाहर आधी रात तक? हम सभी की नींद खराब करते हैं…’’

पिताजी बीच में ही बोल पड़े, ‘‘बेटे, आखिर ऐसी कौन सी कमाई करते हो जिस के कारण तुम्हें आधीआधी रात तक बाहर रहना पड़ता है? तुम्हारा दफ्तर तो 5 बजे तक बंद हो जाता है न?’’

‘‘पिताजी, दफ्तर के बाद कभी मीटिंग होती है, बड़ेबड़े लोगों के साथ उठनाबैठना पड़ता है. आगे बढ़ने के लिए आखिर उन के तौरतरीके भी तो सीखने पड़ते हैं,’’ बड़े भैया ने अत्यंत धीमी आवाज में कहा.

पिताजी के सामने किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी तेज आवाज में बोलने की. वे न ऊंचा बोलते थे और न ही उन्हें ऊंची आवाज पसंद थी. वे बड़े भैया को हिदायत दे कर छड़ी संभालते हुए बाहर निकल गए. किंतु मां से नहीं रहा गया, उन्होंने बड़े भैया को डांटते हुए कहा, ‘‘तुझ को पिताजी से झूठ बोलते शर्म नहीं आती. आगे बढ़ने की इतनी ही फिक्र थी तो 3-3 ट्यूशनों के बावजूद तुम कभी प्रथम क्यों नहीं आए? मन लगा कर पढ़ा होता तो यह नाटक करने की जरूरत ही न पड़ती. हम सब को पाठ पढ़ाने चले हो. रात 12 बजे कौन सी शिक्षा लेते हो, जरा मैं भी तो सुनूं.’’

‘‘मां, तुम क्या जानो दफ्तर की बातें. तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आएगा. तुम तो बस आराम करो और छोटे, तू अपने काम से काम रख,’’ बड़े भैया ने छोटे भैया की तरफ घूर कर कहा.

तभी पीठ पर किसी का स्पर्श पा मैं पीछे पलटी. बड़ी भाभी टिफिन लिए खड़ी थीं. कंधे पर हाथ रख प्यार से बोलीं, ‘‘मेरे कहे का बुरा मत मानना, बीनू, पता नहीं मुझे क्या हो गया था.’’

मैं ने मुसकराते हुए टिफिन लिया और बिना कुछ कहे बाहर चली गई.

करीब 10-12 दिनों तक सब ठीक चलता रहा. बड़े भैया भी समय से घर आ जाते थे. मां, पिताजी तो पहले खा कर सोने चले जाते. बाद में हम सभी साथ खाना खाते. इकट्ठे खाना खाते बड़ा अच्छा लगता. दोनों भाभियों में भी पहले की तरह बात होने लगी थी. अचानक एक रात ‘खटखट’ की आवाज से नींद खुल गई. मन आशंका से कांप गया. बगल का कमरा बड़े भैया का था. हिम्मत कर के मैं उठी. सोचा, उन्हें उठा दूं. कुंडी खोलतेखोलते किसी की आवाज सुन अचानक हाथ रुक गया. ध्यान से सुनने पर पता चला कि यह बड़े भैया की आवाज है. वे भाभी से कह रहे थे, ‘‘दरवाजा बंद कर के सो जाओ. जल्दी लौट आऊंगा.’’

घड़ी की तरफ देखा, साढ़े 11 बज रहे थे. आखिर क्या बात है? इतनी रात गए भैया क्यों बाहर जा रहे हैं? कहीं किसी की तबीयत तो नहीं खराब हो गई? किंतु आवाज तो बस बड़े भैया, भाभी की ही थी. सोचा, जा कर भाभी से पूछूं, किंतु हिम्मत न हुई.इसी उधेड़बुन में नींद गायब हो गई. काफी कोशिश के बाद जब हलकी नींद आई ही थी कि ‘खटपट’ सुन कर आंख फिर खुल गई. शायद भैया आ गए थे. घड़ी देखी, 3 बज रहे थे. भैया ने बाहर जाना छोड़ा नहीं था. सब की आंखों में धूल झोंकने के लिए यह चाल चली थी. उन की इस चाल में भाभी भी शरीक थीं.

रात को आनेजाने का सिलसिला करीब रोज ही चलता था. एक रात दरवाजे पर होती लगातार दस्तक से मेरी नींद उचट गई. भाभी को शायद गहरी नींद आ गई थी. मैं जल्दी से उठी क्योंकि नहीं चाहती थी कि मांजी उठ जाएं और पिताजी तक बात पहुंचे. जैसे ही मैं ने दरवाजा खोला, बदबू का एक झोंका अंदर तक हिला गया. भैया ने शायद ज्यादा पी ली थी. अंदर आते ही बोले, ‘‘क्यों जानू, आज इतनी…’’ तभी मेरी तरफ नजर पड़ते ही खामोश हो गए.

तब तक भाभी आ गई थीं. वे बिना कुछ कहे सहारा दे कर भैया को कमरे में ले गईं. उस रात मैं सो न सकी. सारी रात करवटें बदलते बीती. यही सोचती रही कि मां से कह दूं या नहीं? कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सुबह थोड़ी झपकी आई ही थी कि

बड़ी भाभी ने आ कर जगा दिया. बोलीं, ‘‘बीनू, कृपया रात की बात किसी से न कहना.’’

तब तक मैं ने भी निर्णय कर लिया था कि बात छिपाने से अहित भैया का ही है. मैं ने उन की तरफ सीधे देखते हुए कहा, ‘‘वह तो ठीक है भाभी, किंतु जब मैं ने रात को दरवाजा खोला तो विचित्र बू का आभास हुआ. कहीं भैया…’’

भाभी बीच में ही मुंह बना कर बोलीं, ‘‘हमें तो कोई गंध नहीं आई.’’

मैं खुद अपने प्रश्न पर लज्जित हो गई. अपने पर क्रोध भी आया कि जब भाभी को भैया की फिक्र नहीं है तो मैं ही क्यों चिंता में पड़ूं. इसी तरह 2 हफ्ते और बीत गए. मैं भी घर में कलह नहीं कराना चाहती थी, इसीलिए मुंह सी लिया.

दीपशिखा: क्या शिखा का फैसला सही था

सुबह होते ही  दीप  का  मोबाइल बज  उठा, ‘‘हाय जीजू, कैसे हो? रात कैसी थी? दीदी सो रही हैं या नहीं. आप ने उन्हें सोने भी दिया या नहीं?’’

‘‘बसबस, सवाल ही पूछती रहोगी या कुछ जवाब भी देने दोगी,’’ दीप ने बीना से कहा, बीना उस की नईनवेली पत्नी शिखा की लाड़ली बहन है. ‘‘लो बहन से ही पूछो. मैंने सबकुछ कह दिया तो तुम दोनों ही शरम से लाल हो जाओगी.’’

शिखा और बीना की बातें शुरू हुईं तो लगा मानो वर्षों बाद बात हो रही है.

बीना का रिजल्ट निकला. वह पास हो गई थी. शिखा ने ही बीना को पढ़ाया था. नौकरी लगने के फौरन बाद ही शिखा ने बीना को इंजीनियरिंग कालिज में प्रवेश दिला दिया था. कालिज की पढ़ाई का भारी खर्च शिखा के ही कंधों पर था क्योंकि मां एक साधारण अध्यापिका थीं और पिता कुछ नहीं करते थे.

शिखा को तो मां ने अतिरिक्त ट्यूशन पढ़ापढ़ा कर इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा कराया था पर बीना का बोझ शिखा ने उठा लिया था.

आज की युवा पीढ़ी की तरह मौजमस्ती से दूर केवल पढ़ाई को लक्ष्य बना कर दोनों बहनों ने सफलता प्राप्त की.

शिखा बहुत बड़ी कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर थी, उस का वेतन 20 हजार रुपए महीना था. पर देखने में वह इतनी सीधी थी कि उसे देख कर कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह इतनी पढ़ीलिखी है और 20 हजार रुपए महीना कमाने वाली लड़की है.

शिखा देखने में सुंदर भी थी. 2 साल से उस के लिए रिश्ते आ रहे थे पर वह उन्हें टालती जा रही थी.

शिखा ने एक दिन मां से पूछ ही लिया, ‘‘मां, आप लड़के के बारे में पूछ रही थीं न, अगर दूसरी बिरादरी का लड़का होगा तो भी आप मान जाएंगी न?’’

‘‘ओह हो, तो यह बात है. मेरी रानी बिटिया को कोई भा गया है. बता, जल्दी से बता. मुझे बिरादरी अलग होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. बस, लड़का लायक होना चाहिए.’’

‘‘मां, जब एक बार मैं बीमार पड़ी थी तब आफिस के कई साथी हालचाल पूछने आए थे, उन में वह लड़का भी था. उस ने सफेद कुरतापाजामा पहना हुआ था. बाल थोड़े लंबे थे.’’

‘‘अच्छाअच्छा, तू दीप की बात कर रही है जिसे देख कर मैं ने उसे शायर की उपाधि दी थी.’’

‘‘हां, मां. हम दोनों एक ही प्रोजेक्ट पर काम करते हैं. बहुत ही अच्छा लड़का है. मेरी तरह वह भी उड़ने वाले लड़कों में से नहीं है.’’

‘‘उस की मां को पता है कि तुम दूसरी जाति की हो?’’

‘‘उस की मां को सब पता है. वह यह जानती है कि मैं हरियाणा के जाट परिवार से हूं. अब आप की तरफ से अगर हां हो तो दीप मुझे एक दिन अपनी मां से मिलवाने ले जाएगा.’’

‘‘ठीक है जब उन की तरफ से हां हो जाएगी तब हम भी उन से मिल लेंगे.’’

मां बड़ी खुश थीं. एक बड़ा बोझ उन के सिर से जैसे उतर गया हो. अगले इतवार को ही दीप शिखा को अपनी मां से मिलवाने ले गया. शिखा बहुत ही सामान्य कपड़ों में और बिना किसी मेकअप के दीप के घर उन की मां से मिलने आई थी. दीप की मां तो उसे देखते ही मुग्ध हो गई थीं. उन्हें तेजतर्रार लड़कियों से बड़ा डर लगता था.

उन के मन में एक ही इच्छा थी कि दीप को उस की तरह ही सीधी-

सादी लड़की मिले क्योंकि एक  तो वह बेहद सरल स्वभाव का था दूसरे छलकपट और दिखावे से भी बहुत दूर रहता था. बस, अपने काम की दुनिया में वह मस्त रहने वाला इनसान था.

शिखा को देख कर दीप की मां उस से बातें करने में खो गईं. दोनों की बातों में दीप जैसे अकेला पड़ गया तो वह चुपचाप उठ कर कंप्यूटर पर जा बैठा था.

पहली ही मुलाकात में शिखा ने अपने और अपने परिवार के बारे में दीप की मां को सबकुछ बता दिया था. दीप के बारे में तो वह जानती ही थी.

दीप की मां ने पहली मुलाकात में ही शिखा को अपनी बेटी के रूप में स्वीकार कर लिया तो दोनों परिवार मिले और बात आगे बढ़ी. शादी की तारीख तय हुई और फिर खरीदारी शुरू हो गई. दीप की मां ने सारी खरीदारी शिखा को साथ ले जा कर की.

इस तरह रोज की मुलाकातों में शिखा की व्यवहारकुशलता और बचत करने की आदत से भी वह परिचित हो गई थीं.

जीवन की कठिनाइयों ने शिखा को पैसे का मूल्य समझना सिखा दिया था. वह कहीं भी फुजूलखर्ची न तो खुद करती न दूसरों को करने देती थी. दीप की मां जस्सी शिखा के बारे में सोचसोच कर हैरान होती कि देखो जमाने की हवा से शिखा कितनी दूर है. इतना कमाती है फिर भी सोचसमझ कर ही खर्च करती है. जस्सी की ओर से खरीदारी पूरी हो चुकी थी. तभी एक दिन शिखा का फोन आया.

‘‘मां, आप से एक बात पूछनी है. आप बुरा मत मानना और किसी को भी बताना नहीं, यहां तक कि दीप को भी नहीं बताना.’’

‘‘क्या बात है? कोई गंभीर समस्या है क्या?’’

‘‘नहीं मां, कोईर् गंभीर बात नहीं है. पर फिर भी आप की रजामंदी के बिना मैं कुछ नहीं करूंगी.’’

‘‘अच्छा बोलो, मैं वादा करती हूं कि तुम्हारा पूरा साथ दूंगी.’’

‘‘मां शादी पर पहनने वाली ड्रेस मैं बनवाना नहीं चाहती. इधर मैं ने बाजार में सब देखा. कोई भी डे्रस 10-12 हजार रुपए से कम की नहीं है. सिर्फ एक दिन पहनने के लिए इतना पैसा बरबाद करने का मेरा मन नहीं है. क्या मैं किराए पर ले कर पहन लूं. आजकल किराए पर एक से एक बढि़या ड्रेस और साथ में मैचिंग गहने मिलते हैं. आप तो जानती हैं कि मैं दोबारा ऐसे कपड़े पहनने वाली नहीं हूं. यदि आप मेरा साथ देंगी तभी मैं यह कदम उठा सकती हूं. दूसरे दिन ही सब सामान वापस चला जाएगा.’’

‘‘तू कैसी लड़की है?’’ जस्सी ने कहा, ‘‘शादी की डे्रेस पर तो सब लड़कियां अपने पूरे अरमान निकाल लेती हैं और तू कहती है कि बनवानी ही नहीं है. बेटी, मैं पैसे देती हूं, तू अपनी पसंद की बनवा ले.’’

‘‘मां, बात पैसे की नहीं है. मेरी समझ में यह पैसे की बरबादी है. आप भी मेरी बात से सहमत होंगी.’’

‘‘तुम्हारी मम्मी क्या कहती हैं?’’

‘‘वह कहती हैं कि अगर समधनजी मान जाएं तो ऐसा कर लो. मां को तो मैं ने मना लिया है, अब आप को मनाना बाकी है.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम चाहो वैसा कर लो. मुझे कोई आपत्ति नहीं है और यह रहस्य मेरे तक ही सीमित रहेगा.’’

‘‘थैंक्यू मां,’’ कह कर शिखा ने फोन रख दिया.

जस्सी के मन में अब शिखा के लिए आदर का भाव और भी बढ़ गया. उस ने सोचा कि देखो शिखा कितना सोचती है अपने परिवार के बारे में. बेकार में पैसा उड़ाने में विश्वास नहीं रखती है. कल को पति के घर को भी अच्छे से संभाल लेगी.

शादी का दिन आ पहुंचा. गुलाबी रंग के लहंगेचुनरी में शिखा का सौंदर्य निखर उठा था. गहने उस की सुंदरता को और भी बढ़ा रहे थे. शिखा की डोली विदा हो कर दीप के घर आ गई थी. सब तरह के रीतिरिवाजों से निबट कर जब आराम करने के लिए शिखा अपने कमरे में जाने लगी तो उस ने अपनी सास को इशारे से कमरे में बुला लिया. बहुत ही ध्यान से शिखा ने कपड़े उतार कर अटैची में बंद किए. सब गहने उतार कर डब्बे में रखे. इस काम में जस्सी ने शिखा की मदद की. बहुत ही ध्यान से दर्जनों सेफ्टीपिन लहंगे और चुनरी से निकाले. सबकुछ सहेज कर रखने के बाद शिखा ने राहत की सांस ली और अपनी सास को एक बार फिर दिल से थैंक्यू कहा.

सास ने प्यार से उसे बांहों में भर लिया और बोलीं, ‘‘बेटी, जैसे तुम ने अपने मायके का पूरा ध्यान रखा है उसी तरह से ससुराल का भी ध्यान रखना.’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है मां. अब तो यह मेरा घर है. मेरी जान इसी पर न्योछावर है.’’

रात होतेहोते दीप के दोस्तों और मौसेरे, चचेरे भाईबहनों ने मिल कर बोलना शुरू किया, ‘‘अरे दीप, किस होटल में कमरा बुक किया है. चलो, तुम दोनों को छोड़ आएं.’’

‘‘हम अपनेआप चले जाएंगे, तुम लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं है.’’

घर मेहमानों से भरा हुआ था क्योंकि वह 2 कमरों का एक छोटा सा फ्लैट था. दीप भी जानता था कि समाज के रिवाज के अनुसार उसे शिखा को ले कर किसी होटल में जाना ही पड़ेगा, अन्यथा आज की सोच वाले उस के दोस्त उस का पीछा नहीं छोड़ेंगे. रात के 10 बज चुके थे, दीप और शिखा ने सब को ‘बाय’ किया और अपनी कार में घर से चल दिए. रास्ते में शिखा ने दीप से पूछा कि होटल के कमरे में कितने रुपए लगेंगे?

‘‘पांचसितारा होटल में 5 हजार, तीनसितारा होटल में 3 हजार और एक सितारा होटल में 1 हजार रुपए. तुम बोलो कि तुम्हें कहां चलना है, पैसे का प्रबंध मैं ने कर रखा है.’’

‘‘और कंपनी के गेस्ट हाउस के कमरे के कितने?’’

‘‘मुफ्त. केवल 100 रुपए चौकीदार को टिप के रूप में देने पड़ेंगे.’’

‘‘तो चलो वहीं चलते हैं.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है. लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘मेरा दिमाग बिलकुल ठीक है,’’ शिखा बोली, ‘‘मैं लोगों की चिंता नहीं करती. पैसे की बरबादी मैं नहीं करती, यह तुम अच्छे से जानते हो.’’

‘‘यह रात फिर कभी नहीं आएगी. बाद में ताना मत मारना कि मैं कंजूस हूं.’’

‘‘नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा,’’ इतना कह कर शिखा ने धीरे से दीप के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

दीप ने कार गेस्ट हाउस की दिशा में मोड़ दी. रात बहुत हो चुकी थी फिर भी सड़क के किनारे एक फूल वाला अपने फूल समेटने की तैयारी में था. दीप ने कार रोकी और उस के सारे गुलाब के फूल खरीद लिए. दीप जानता था कि शिखा को गुलाब के फूल बहुत अच्छे लगते हैं.वह सप्ताह में एक दिन गुलाब के फूलों का एक गुच्छा खरीद कर घर ले जाती थी और उन्हें ही सहेज कर हफ्ता निकाल देती थी.

कार गुलाबों से महक उठी. गेस्ट हाउस के उस कमरे को दोनों ने मिल कर सजाया. दोनों के दिलों में प्यार की महक थी इसलिए वह साधारण सा कमरा भी किसी पांचसितारा होटल से अधिक सुंदर लग रहा था. दोनों एकदूसरे की बाहों में खो गए थे.

सुबह होते ही घर जाने की तैयारी हुई. शिखा बहुत ही खुश नजर आ रही थी. दीप ने पूछा, ‘‘क्या बात है बहुत खुश हो.’’

‘‘हां, वो तो है. मैं बहुत खुश हूं क्योंकि आज मैं दीपशिखा बन गई हूं.’’

‘‘दीप भी तो शिखा के बिना अधूरा था,’’ दीप बोला, ‘‘चलो, अब दीपशिखा मिल कर चलें,’’ शिखा हसंती हुई बोली.

शिखा का खिला हुआ चेहरा देख कर जस्सी ने उसे गले से लगा लिया था. शिखा की खुशी का एक और राज भी था जिसे उस ने मां को नहीं बताया था. पहले दिन से उस ने अपने घर की सुरक्षा का बीमा अपने हाथों में ले लिया था.

इंडियन वाइफ: क्यों वापस लौटी मीता

‘‘हैलो.’’

‘‘बोलो.’’

‘‘सुनो.’’

‘‘सुनाओ.’’

‘‘एक खुशखबरी है.’’

‘जल्दी कहो.’’

‘‘उस के बदले में क्या दोगी?’’

‘‘जो बोलोगे.’’

‘‘पक्का?’’

‘‘पक्का. अब बोल भी दो. हमेशा सौदेबाजी करते हो. व्यापारी बाप के बेटे जो हो.’’

‘तुम्हारा पासपोर्ट है न?’’

‘‘प्लीज रमन पहेलियां मत बुझाओ. जल्दी से बताओ.’’

‘‘अच्छा गैस करो क्या बात हो सकती है. अब तो मैं ने हिंट भी दे दिया है.’’

‘‘बाहर घुमाने ले कर जा रहे हो क्या?’’

‘‘हां, डार्लिंग, हमारी तो लौटरी निकल आई है. कंपनी मुझे 6 महीने के लिए लंदन भेज रही है.’’

‘‘सच, कहीं तुम मुझे बेवकूफ तो नहीं बना रहे? इतनी अच्छी खबर सुना कर अगर बेवकूफ बनाया तो मैं तुम से बात नहीं करूंगी.’’

‘‘नहीं, मैं सच बोल रहा हूं. अगले महीने की 10 तारीख को वहां रिपोर्ट करनी है. जरा अपना पासपोर्ट निकाल कर देख लो, कहीं ऐक्सपायर तो नहीं हो गया है.’’ मीता तो फोन रख कर वहीं कुरसी पर धम से बैठ गई. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जो कुछ भी उस ने फोन पर सुना वह सच है. ,लंदन जाने का उस का सपना बहुत पुराना था. लोग जब भी विदेश जाने की बात करते, तो उस के लिए विदेश का मतलब केवल और केवल लंदन जाना होता था. स्कूल में उस की एक पक्की सहेली होती थी. उस के पापा का ट्रांसफर एक बार कंपनी की तरफ से लंदन हो गया था. वह उन के साथ 1 साल के लिए लंदन चली गई थी और जब वहां से लौट कर आई थी तो कितने मजे ले कर पूरे लंदन को देखने की बात उस ने बताई थी. उस ने इस अनुभव को इतनी बार सुना था कि सहेली का यह अनुभव उसे अपना अनुभव लगने लगा था. उस ने भी लंदन देखने का सपना बहुत बार देखा था. आज की बात से उसे सपना साकार होता नजर आ रहा था. मीता और रमन के विवाह को अभी 3 साल ही हुए थे. अभी तक परिवार बढ़ाने की बात उन्होंने नहीं सोची थी. आज मीता को लग रहा था कि अच्छा ही हुआ कि उन के यहां कोई बच्चा अभी नहीं था. वह आराम से घूम सकती थी. वह एक कोचिंग सैंटर में नौकरी करती थी और वह कभी भी काम छोड़ सकती थी.

बड़े उत्साह के साथ दोनों ने तैयारी शुरू की. वहां ठहरने की समस्या भी सुलझ गई. जब रमन ने अपनी मां को लंदन जाने की बात बताई तो वे बोलीं, ‘‘वहां जा कर कहां ठहरोगे? होटल तो वहां बहुत महंगे हैं. फ्लैट भी लोगे तो भी बहुत महंगा पड़ेगा. मैं सोच रही हूं कि तुम एक पेइंग गैस्ट की तरह मेरी सहेली रानी के घर रुक जाओ. तुम्हें रानी मासी की तो याद होगी जो तुम्हें बचपन में स्कूटर पर घुमाती थीं और चौकलेट भी ला कर देती थीं?’’

‘‘हां मौम, अच्छी तरह याद है. क्या आजकल वे लंदन में हैं?’’

‘‘हां शादी के बाद वह लंदन चली गई थी और तब से वहीं है. उस का घर बड़ा है और वह पेइंग गैस्ट रखती है. उस की बेटी और दामाद उस के साथ ही रहते हैं. दामाद अंगरेज है. मैं उस का फोन नंबर दे दूंगी, बाकी बात तुम खुद कर लेना.’’

‘‘मौम, यह तो बहुत अच्छा हुआ. आप मुझे फोन नंबर भेज दो. मैं आज ही उन से बात कर लूंगा. मीता वहां एक भारतीय परिवार के साथ रहेगी तो उस के लिए ठीक रहेगा.’’ रमन की मां ने अपने सहेली को फोन मिलाया और उस से बात की, तो रमन को फोन नंबर मिला तो उस ने भी रानी मासी से बात कर ली. रानी बोलीं, ‘‘मेरी बेटी नीना और दामाद को पेइंग गैस्ट रखने में कोई आपत्ति नहीं होगी. लेकिन उस वक्त मैं यहां नहीं रहूंगी. मैं कुछ समय के लिए अपनी छोटी बेटी के पास अमेरिका जा रही हूं.’’ फोन पर ही सब पक्का हो गया. निश्चित समय पर मीता और रमन नीना के घर जा पहुंचे. नीना और रौबिन ने उन का स्वागत किया और उन्हें रहने की जगह दिखाई. चारों हमउम्र थे. रौबिन आधा भारतीय बन चुका था और नीना आधी अंगरेज. वह जन्म से भारतीय थी पर उस का लालनपालन और शिक्षा लंदन में होने के कारण उस पर पश्चिमी सभ्यता का असर ज्यादा था. नीना घर से 10 बजे निकलती, इसलिए 9 बजे तक किचन उस के पास होता.  इस के बाद ही मीता का किचन में प्रवेश होता. दोनों के बीच यही तय हुआ था. नीना के जाने के बाद ही रौबिन भी चला जाता और वह नाश्ते में आमतौर पर केवल फल और दूध ही लेता. मीता चायकौफी आदि अपने कमरे में ही बना लेती और 10 बजे के बाद जब वह किचन में घुसती तो उसे किचन पूरी तरह व्यवस्थित मिलता. नीना पूरी सफाई कर के ही बाहर निकलती. मीता झट से रमन के लिए नाश्ता बनाती, जो अधिकतर आमलेट और टोस्ट ही होता.

रमन को भारतीय खाना ही भाता था और मीता को खाना बनाने में बहुत आनंद आता था. वह रोज ही दाल, सब्जी, चावल और रोटी बनाती. बाहर का सब काम भी वह स्वयं ही करती. उस की सारी दोपहर बाहर ही बीतती. बाजार का रास्ता उस ने याद कर लिया था. सब सामान खरीद कर वह एक पार्क में जा कर बैठ जाती और वहां बैठ कर प्रकृति और लोकल लोगों को देखने का लुत्फ लेती. फिर घर लौट आती और बड़े प्यार से खाना बनाती. पश्चिमी सभ्यता में पलीबढ़ी नीना व्यवहार में बिलकुल विदेशी थी. उस ने हर क्षेत्र में सीमाएं बनाई हुई थीं. उन सीमाओं को न वह पार करती थी और न ही औरों को करने देती थी. वह और उस का पति दोनों अपना सारा काम स्वयं करते थे. दोनों चायकौफी अपनीअपनी बना कर पीते थे तो अपनेअपने कपड़े भी खुद ही प्रेस करते थे. हफ्ते में 1 दिन वाशिंग मशीन चलती थी. गंदे कपड़े नीना इकट्ठा करती और मशीन में डालती, तो धुल जाने पर रौबिन कपड़ों को सुखाने के लिए डालता. घर की सफाई करते वक्त सब चीजों की झाड़पोंछ नीना करती और वैक्यूम क्लीनर रौबिन चलाता.

मीता को तो अपने पति रमन का हर काम करने में खुशी होती थी. उस की पसंद का भोजन बनाना उस की प्राथमिकता थी. अलगे दिन रमन को कौन से कपड़े पहनने हैं, यह सोच कर उन्हें निकाल कर वह प्रेस करती थी. एक दिन जब वह रमन की कमीज प्रेस कर रही थी, तो नीना जल्दी घर आ गई. मीता को कमीज प्रेस करता देख कर वह बोली, ‘‘तुम रमन की कमीज क्यों प्रेस कर रही हो? उसे यह काम खुद करना चाहिए. यदि तुम्हें पति की सेवा का ज्यादा शौक है तो करो. पर यह काम रौबिन के सामने मत करना वरना उस की भी अपेक्षा हो जाएगी कि मैं भी उस की कमीज प्रेस करूं. ऐसा मैं करने वाली नहीं. उस ने तो पहले से ही तुलना करनी शुरू कर दी है कि इंडियन वाइफ कितनी अच्छी होती है.’’

मीता ने हैरानी से नीना की ओर देखा तो नीना बोली, ‘‘मैं इस बात को ले कर बहुत सीरियस हूं. तुम अपने छोटेछोटे कामों से हमारे बीच तनाव पैदा कर रही हो. रौबिन ने मुझ में एक इंडियन वाइफ तलाशनी शुरू कर दी है, जो मैं कभी बन नहीं सकती. इसलिए हम पर कुछ रहम करो.’’ मीता को बहुत अजीब लगा. उस के तो सपने में भी ऐसी बात नहीं आ सकती थी कि उस के व्यक्तिगत कामों से भी नीना इतना प्रभावित हो सकती है. रात को उस ने रमन को सारी बात बताई तो वह बोला, ‘‘जैसा नीना बोले वैसा कर लो. हमें 2 महीने और बिताने हैं, क्यों किसी को तकलीफ दी जाए.’’ तभी एक घटना और घट गई. उस दिन रविवार था. सब अपनेअपने टाइम से उठ रहे थे. सब से पहले नीना उठी. उस ने अपने लिए कौफी बनाई और अपना आईपैड ले कर बैठ गई. उस के बाद रौबिन उठा. उस ने अपने लिए ग्रीन टी बनाई और न्यूज पेपर ले कर बैठ गया. बाद में मीता रसोई में आई और उस ने 2 कप अदरक वाली चाय बनाई. उस ने चाय बनाने से पहले नीना से भी पूछा कि क्या वह भी चाय लेगी पर उस ने मना कर दिया. चाय ले कर वह अपने कमरे में चली गई. रमन और उस ने आराम से चुसकियां ले कर चाय पी और बौंबे को याद किया जहां प्लेट में डाल कर व चुसकी ले कर ही लोग चाय पीते हैं. उस के बाद रमन बोला, ‘‘जानेमन आज जरा चंपी कर दो, यहां तो बाल कटवाने इतने महंगे हैं कि सोचा है कि अब इंडिया जा कर ही बाल कटवाऊंगा और तब ही मालिश भी होगी. पर आज तुम अपने हाथों का कमाल दिखा दो.’’

मीता झट से चंपी मालिश करने के लिए तेल उठा लाई और उस ने मालिश करनी शुरू कर दी. रमन आंखें बंद कर के चंपी मालिश का मजा लेने लगा. तभी रौबिन को कोई काम याद आया तो रमन से बात करने के लिए उस ने उन के दरवाजे पर दस्तक दी. रमन फौरन बोला कि अंदर आ जाओ. अंदर आ कर उस ने जो दृश्य देखा उस से तो वह हैरान हो गया. वह पूछ बैठा, ‘‘यह क्या हो रहा है? क्या इंडियन वाइफ यह भी करती है?’’ रमन और मीता जोर से हंसे. रमन बोला, ‘‘आज सुबह से सिर थोड़ा भारी था, इसलिए मीता ने चंपी मालिश कर के उसे दूर कर दिया.’’ रौबिन ने अजीब नजरों से मीता की ओर देखा. मीता को तुरंत नीना की चेतावनी याद आ गई. उस के हाथ एकदम से रुक गए और उस का चेहरा फक हो गया. रौबिन ने भी उस के चेहरे के भाव बदलते देखे तो वह बिना कोई भी बात किए कमरे से बाहर आ गया. उस के चेहरे पर परेशानी साफ झलक रही थी. बाहर आ कर वह नीना से बोला, ‘‘ये इंडियन पति भी अजीब होते हैं. अपनी वाइफ से नौकरों की तरह काम करवाते हैं. देखो तो रमन आराम से कुरसी पर बैठा है और वह उस की सेवा में खड़ी है.’’

इसे रमन ने भी सुना तो वह कमरे से बाहर आ कर बोला, ‘‘रौबिन तुम्हें गलतफहमी हो रही है. मैं मीता से जबरदस्ती कुछ भी नहीं करवाता हूं. वह सब अपनी मरजी से करती है. उसे मना करने का भी पूरा अधिकार है.’’ बाद में नीना बोली, ‘‘ये इंडियन औरतें आदमियों को अच्छे से बिगाड़ कर रखती हैं. मैं इन से नफरत करती हूं.’’ अंदर मीता ने भी सुना. वह डर गई कि अब नीना से सामना होगा तो वह न जाने क्याक्या बोलेगी. बाद में जब दोनों का आमनासामना हुआ तो नीना बोली, ‘‘अपने पति की सेवा इंडिया जा कर करना. मेरे लिए समस्या पैदा मत करो. तुम्हें क्या पता कि आजकल रौबिन के मन में सारा दिन क्या चलता रहता है. वह कहता है कि वह इंडियन लड़की से शादी करना चाहता था. उस की दादी जोकि ब्रिटिश टाइम में बहुत समय इंडिया रह कर आई थीं, हमेशा ही इंडियन वाइफ के गुणगान किया करती थीं. तब उस के मन में भी आता था कि वह बड़ा हो कर एक इंडियन लड़की से शादी करेगा. इसलिए जब उस की दोस्ती मुझ से हुई तो वह मेरी ओर आकर्षित हो गया. पर अब तुम्हें देखने के बाद ही उसे समझ में आया है कि इंडियन वाइफ क्या होती है. और सुनो, वह मुझे कहता है कि उस के साथ धोखा हो गया है.’’

मीता बोली, ‘‘मुझे बहुत दुख है कि मेरे कारण तुम दोनों के बीच तनाव चल रहा है. मैं ध्यान रखूंगी कि मैं ऐसा कोई काम न करूं जिस से रौबिन को लगे कि मैं तुम से बेहतर हूं.’’ उस दिन रौबिन का जन्मदिन था. सुबह ही रमन और मीता ने उसे बधाई दी. रमन बोला, ‘‘आज स्पैशल क्या हो रहा है?’’

रौबिन बोला, ‘‘आज मुझे अपनी मदर इन ला की याद आ रही है. हर बर्थडे पर वे गाजर से एक स्वीट डिश बनाती थीं. मुझे उस का नाम याद नहीं आ रहा है. नीना जरा बताओ तो उस डिश का क्या नाम है?’’ नीना बोली, ‘‘इतने सालों से खाते आ रहे हो और अभी तक नाम याद नहीं हुआ. उसे गजरेला कहते हैं.’’ रमन झट से बोला, ‘‘मीता बहुत स्वादिष्ठ गजरेला बनाती है. आज तुम्हारे बर्थडे पर बनाएगी. क्यों मीता पक्का रहा न? आज शाम को मैं भी गजरेला खाऊंगा और इंडिया को और अपनी मां को याद करूंगा.’’ इस सब के बीच मीता कुछ बोल ही नहीं पाई. जानती थी कि उस का गजरेला बनाना नीना को बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. पर अब वह असहाय थी. मना करती तो रमन और रौबिन को बुरा लगता और बनाती है तो नीना को अच्छा नहीं लगता.

नीना बोली, ‘‘शाम को वापस आते वक्त इंडियन स्टोर से मैं लेती आऊंगी. मीता को कष्ट देने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘नहीं मीता को ही बनाने दो. घर के बने खाने की तो बात ही कुछ और होती है,’’ रौबिन बोला. मीता ने मेहनत से गजरेला बनाया. शाम को छोटी सी पार्टी में सब ने गजरेला की तारीफ की. यहां तक कि नीना ने भी उंगलियां चाटचाट कर गजरेला खाया और सारी प्लेट साफ कर दी. नीना को खाते देख कर मीता ने सोचा कि आज तो वह कोई शिकायत नहीं करेगी.

रौबिन बोला, ‘‘मैं ने नीना से विवाह इसलिए किया था कि मुझे इंडियन वाइफ मिलेगी. लेकिन इंडियन वाइफ क्या होती है यह मैं ने मीता से मिल कर ही जाना है. मैं चाहता हूं कि अगले जन्म में मैं रमन बन कर पैदा होऊं.’’ इतना सुनते ही नीना, मीता और रमन के चेहरे के भाव बदल गए. उन के चेहरे देख कर रौबिन ने झट से अपना स्टेटमैंट बदल दिया, ‘‘ओह मैं कहना, यह चाह रहा था कि मीता बहुत अच्छी है. अगले जन्म में मुझे मीता जैसी पत्नी मिले. गजरेला बहुत टेस्टी था. थैंक यू वैरी मच.’’ उस के बाद वातावरण वही नहीं रहा. मीता और रमन अपने कमरे में आ गए. रमन बोला, ‘‘रौबिन पगला गया है. ऐसे ही व्यवहार करता रहा तो अपनी आधी इंडियन वाइफ से भी हाथ धो लेगा.’’

‘‘मुझे तो अब नीना से डर लग रहा है. कल पता नहीं क्याक्या सुनाएगी. अभी कुछ दिन यहां और बाकी हैं. फिर तो इन्हें बाय बोल देना है.’’ सुबह मीता इंतजार करती रही कि नीना घर से चली जाए तभी वह अपने कमरे से बाहर निकले. पर नीना काम पर नहीं गई. तब मीता नीचे आई. नीना बोली, ‘‘रौबिन तुम्हारा दीवाना बनता जा रहा है. मैं इसे सहन नहीं कर सकती हूं. तुम अपना बंदोबस्त कहीं और कर लो या इंडिया लौट जाओ. तुम नहीं जानती हो कि हर जगह वह तुम्हारी ही बात करता है और तारीफों के पुल बांधता है. मुझे तुम जैसी बनने को बोलता है. मैं जैसी हूं वैसी ही रहूंगी. तुम यहां से जाओ तो मेरा भला हो जाएगा.’’ मीता बात सुन कर सन्न रह गई. रात को जब रमन ने सुना तो बोला, ‘‘अगली फ्लाइट से तुम वापस चली जाओ. अगले हफ्ते ही तुम्हारी सहेली की शादी है. वहां जा कर शादी का मजा लो. अगले हफ्ते मैं भी आ जाऊंगा.’’ फिर ऐसा ही हुआ. रौबिन को बिना बताए ही मीता ने लंदन छोड़ दिया. नीना ने चैन की सांस ली. रौबिन को पता ही नहीं चला कि मीता अचानक क्यों चली गई. पर उस के मन में इंडियन वाइफ की जो छाप छोड़ कर गई उसे मिटाना आसान नहीं होगा. वह बारबार यही दोहराता रहा कि अगले जन्म में वह एक इंडियन पति के रूप में पैदा होना चाहता है.

हिसाब किताब: क्यों बदल गई थी भाभी

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षष्टिपूर्ति: शादी के बाद क्या हुआ था उसके साथ

‘‘क्या आप मेरी बात सुनने की कृपा करेंगी?’’ रघु चीखा था. पर उस की पत्नी ईशा एक शब्द भी नहीं सुन पाई थी. वह कंप्यूटर पर काम करते हुए इयरफोन से संगीत का आनंद भी उठा रही थी. लेकिन ईशा ने रघु की भावभंगिमा से उस के क्रोधित होने का अनुमान लगाया और कानों में लगे तारों को निकाल दिया.

‘‘क्या है? क्यों घर सिर पर उठा रखा है?’’ ईशा भी रघु की तरह क्रोध में चीखी.

‘‘तो सुनो मेरी कजिन रम्या विवाह के बाद यहीं वाशिंगटन में रहने आ रही है. उस के पति रोहित यहां किसी सौफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत हैं. विवाह के बाद वह भारत से पहली बार यहां आ रही है. उस का फोन आया तो मुझे मजबूरन कुछ दिन अपने साथ रहने को कहना पड़ा,’’ रघु ने स्पष्ट स्वर में कहा.

‘‘रम्या कुछ जानापहचाना नाम लगता है. कहीं वही तुम्हारी बूआजी की बेटी तो नहीं जिन के पड़ोस में तुम कई वर्ष रहे हो?’’

‘‘हां वही, सगी बहन से भी अधिक अपनापन मिला है उस से. इसीलिए न चाह कर भी अपने साथ रहने का आमंत्रण देने को मजबूर हो गया,’’ क्रोध उतरने के साथ ही रघु का स्वर भी सहज हो गया था.

‘‘ठीक है, वह तुम्हारी फुफेरी बहन है और यह तुम्हारा घर. मैं कौन होती हूं उसे यहां आने से रोकने वाली? पर मैं साफ कह देती हूं कि मुझ से कोई आशा मत रखना. अगले 2-3 महीने मैं बहुत व्यस्त रहूंगी. मुझ से उन के स्वागतसत्कार की आशा न रखना,’’ ईशा ने अपना निर्णय सुना दिया. थोड़ी कहासुनी के बाद ईशा दोबारा अपने काम में व्यस्त हो गई. न जाने क्यों आजकल उन दोनों का हर वार्त्तालाप बहस से शुरू हो कर झगड़े में बदल जाता है. दोनों उच्च शिक्षा प्राप्त करने भारत से आए थे. पहली बार उस ने रघु को विदेशी विद्यार्थी सहायता केंद्र में देखा था और देखती ही रह गई थी. नैननक्श, रूपरंग, कदकाठी किसी भी नजरिए से वह भारतीय नहीं लगता था. पर उसे हिंदी बोलते देख उसे सुखद आश्चर्य हुआ था.

‘‘अरे, आप तो हिंदी बोल लेते हैं?’’ ईशा ने आश्चर्य से प्रश्न किया था.

‘‘शायद आप जानना चाहती हैं कि मैं भारतीय हूं या नहीं. तो सुनिए मैं हूं रघुनंदन, विशुद्ध भारतीय. हिंदी में काम चला लेता हूं, पर मेरी मातृभाषा तेलुगू है. उस्मानिया मैडिकल कालेज से एमबीबीएस कर के यहां रैजिडैंसी कर रहा हूं. और आप?’’

‘‘मैं…मैं ईशा मुंबई से बी.फार्मा कर के यहां एमएस कर रही हूं. पहली बार अमेरिका आई हूं, अत: जहां भी कोई भारतीय नजर आता है तो मन बात करने को मचल उठता है,’’ ईशा ने अपना परिचय दिया.

‘‘यकीन मानिए आप को निराश नहीं होना पड़ेगा. यहां आप को इतने भारतीय मिलेंगे कि विदेश में होने की भावना अधिक समय तक मन में नहीं टिकेगी,’’ कह रघु हंस दिया. धीरेधीरे दोनों के बीच मित्रता गहरी होने लगी. दोनों इतनी जल्दी विवाह के बंधन में बंध जाएंगे यह दूसरों ने तो क्या स्वयं रघु और ईशा ने भी नहीं सोचा था. वर्षों पहले ईशा के मातापिता कार दुर्घटना में चल बसे थे. संपन्न परिवार की इकलौती वारिस ईशा को उस के नानानानी और मामा ने बड़े प्यार से पाला था. रघु ने ईशा के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा तो ईशा ने तुरंत स्वीकार लिया. ईशा के नानानानी ने भी सहर्ष स्वीकृति दे दी. साथ ही राहत की सांस ली कि ईशा ने स्वयं ही योग्य वर चुन लिया. पर रघु के मातापिता को जब यह पता चला कि ईशा दूसरी जाति की है तो उन्होंने मुंह बना लिया. उन के यहां एक पंडित हर चौथे रोज आता था और उस ने उन्हें पढ़ा दिया था कि विजाति में विवाह करने से नर्क मिलता है.

‘जब तुम ने निर्णय ले ही लिया है, तो हमारे आशीर्वाद की क्या जरूरत है. समझ लेना हम दोनों मर गए तुम्हारे लिए. पिता का ई मेल पढ़ कर सकते में आ गया रघु. ईशा और रघु एक सादे समारोह में विवाह के  बंधन में बंध गए. ईशा के नानानानी उस के विवाह का जश्न मनाना चाहते थे, पर रघु ने साफ मना कर दिया. भारत जाने पर यदि वह अपने घर नहीं जा सकता तो कहीं नहीं जाएगा. रघु के कई संबंधी आसपास ही रहते थे पर उस के मातापिता के डर से अधिकतर उस से कतराने लगे थे. विवाह के बाद दोनों ने सुखद भविष्य की कल्पना की थी. पर विवाहपूर्व का प्रेम कपूर की भांति उड़ गया. दोनों हर बात पर भड़कते हुए एकदूसरे को खरीखोटी सुनाते और एकदूसरे को आहत करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते थे. ऐसे में रम्या के आने का समाचार सुन कर पुलक उठा था रघु. रम्या और उस के परिवार से उस की अनेक मधुर यादें जुड़ी थीं. उसे लगा मानो रेगिस्तान में गरम हवा के थपेड़ों के बीच अचानक ठंडी बयार बहने लगी हो. उस ने सोचा था कि रम्या के आने का समाचार सुन कर ईशा खुश होगी. विवाह के बाद पहली बार उस के परिवार का कोई आ रहा था पर ईशा के व्यवहार ने उसे बहुत आहत किया था अगले 2 सप्ताह रघु ने जितने उत्साह से रम्या के स्वागत की तैयारी की उतनी तो अपने विवाह की भी नहीं की थी. ईशा कुतूहल से सब देखती पर देख कर भी अनदेखा कर देती. न वह टोकती न रघु उत्तर देता. दोनों के बीच दिनरात की चिकचिक का स्थान अब तटस्थता ने ले लिया था.

रम्या और रोहित जब आए तो ईशा अपने कक्ष में थी. रम्या का चहकना सुन कर वह अपने कक्ष से बाहर आई. ‘‘ईशा भाभी,’’ रम्या उत्साह से बोली और लपक कर ईशा से लिपट गई.

‘‘रोहित मैं कहती थी न कि रघु भैया ने हीरा चुना है ईशा के रूप में. कैसा गरिमापूर्ण व्यक्तित्व है और कैसा अद्भुत सौंदर्य,’’ रम्या ने रोहित से कहा.

‘‘इस में कतई संदेह नहीं. मैं ने तो फोटो देखते ही कह दिया था,’’ रोहित ने हां में हां मिलाई.

‘‘फोटो से कहां पता चलता है. वह न बोलता है न भावनाओं को व्यक्त करता है,’’ रम्या अब भी मुग्धभाव से ईशा को निहार रही थी.

‘‘रम्या, छोड़ो यह नखशिख वर्णन. दोनों जल्दी से नहाधो कर तैयार हो जाओ. आज का भोजन हम बाहर करेंगे,’’ रघु ने रम्या के वार्त्तालाप को बीच में ही रोक दिया था.

‘‘क्या रघु भैया. हवाईजहाज का बेस्वाद खाना खा कर परेशान हो गए हम तो. हम तो घर का खाना खाएंगे. भाभी तुम चिंता मत करो मैं अभी 5 मिनट में नहाधो कर आई. आज सब के लिए खाना मैं बनाऊंगी और रम्या तुरंत बाथरूम में चली गई.’’ रम्या शीघ्र ही नहाधो कर आ गई. गुलाबी रंग के सूट में एकदम तरोताजा लग रही थी. ईशा कनखियों से उसे देखती रही. कोई खास गहने नहीं पहने थे उस ने. गले में मंगलसूत्र और दोनों हाथों में सोने की 4-4 चूडि़यां. कानों में शायद हीरे के कर्णफूल थे. हाथपैरों में लगी मेहंदी देख कर वह स्वयं को रोक नहीं सकी.

‘‘बड़ी अच्छी मेहंदी लगाई है. रंग अभी तक गहरा है,’’ ईशा ने रम्या की हथेलियां थामते हुए मेहंदी के डिजाइन पर नजर दौड़ाई.

‘‘इतनी आसानी से थोड़े छूटेगी… पूरे 8 घंटे बैठ कर लगवाई थी,’’ और रम्या खिलखिला कर हंस दी.

‘‘कोई बात नहीं. विवाह क्या बारबार होता है? हमारे विवाह में न मेहंदी, न डोली, न बाजा और न ही बराती. बस 2-4 मित्र और 2 हस्ताक्षर.’’

‘‘क्या कह रही हो भाभी?’’

‘‘मेरे लिए कौन करता यह सब? मातापिता तो रहे नहीं. नानानानी, मामामामी यहां आ नहीं सके. हम वहां गए नहीं और रघु के मातापिता के बारे में तो तुम जानती ही हो,’’ खाना बनाते हुए दोनों घनिष्ठ सहेलियों की तरह बातें कर रही थीं.

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई, कितनी मूर्ख हूं मैं भी,’’ अचानक रम्या ने माथे पर हाथ मारा. फिर, ‘‘मेरे साथ आओ,’’ कह वह ईशा को अपने साथ खींच ले गई. ‘‘यह देखो, आप दोनों के लिए शांता मामी ने भेजा है. शांता मामी आप दोनों को बहुत याद करती हैं. रघु का नाम लेते ही उन की आंखें छलछला जाती हैं. मनोहर मामा कुछ नहीं बोलते या फिर उन का दर्प बोलने नहीं देता. पर मन की बात चेहरे पर आ ही जाती है. उन की दयनीय स्थिति देख कर कलेजा मुंह को आता है.’’ ईशा ने सिल्क की भारी जरी की साड़ी पर हाथ फेरा था. कढ़ाईदार साड़ी और 1 हीरे का सैट. उपहार देख कर ईशा बुत सी बनी बैठी रह गई.

‘‘रघु के लिए शेरवानीनुमा कुरतापाजामा है. मामी का बहुत मन था कि रघु अपने विवाह के समय इसे पहने.’’

‘‘पता नहीं रम्या, मैं यह सब उपहार ले भी पाऊंगी या नहीं. रघु को तुम नहीं जानती. वे एकदम से आगबबूला हो जाते हैं.’’

‘‘मैं खूब जानती हूं रघु को. भाभी यह तो मातापिता का आशीर्वाद है. इसे अस्वीकार कर के तुम उन का अपमान नहीं कर सकतीं,’’ और फिर रम्या ने उपहार ईशा के कक्ष में रख दिए.

‘‘खाना बहुत स्वादिष्ठ बना है. किस ने बनाया है?’’ रघु ने भोजन करते हुए पूछा.

‘‘हम दोनों ने मिल कर बनाया है,’’ कहते हुए ईशा को न जाने क्याक्या याद आया.

नानी ने बड़े जतन से उसे खाना बनाना सिखाया था. उस के बनाए खाने की सब कितनी प्रशंसा करते थे. क्या हो गया है उसे? विवाह के बाद तो उस की जीवन में रुचि ही समाप्त हो गई है. रम्या और रोहित 1 सप्ताह ईशा और रघु के साथ रहे. इस बीच रोहित ने अलग अपार्टमैंट ले लिया. विवाहपूर्व वह अपने मित्र के साथ रहता था, किंतु नई जगह रम्या को अकेलापन न लगे, इसलिए रघु के घर के पास ही नए घर में व्यवस्थित होने का निर्णय लिया था. जब भी समय मिलता दोनों मिलने चले आते. रम्या ने शीघ्र ही कुछ नए मित्र बना लिए और कुछ पुराने खोज निकाले. जब से रम्या आई थी ईशा की जीवनशैली भी बदलने लगी थी. रम्या ने उस के जीवन में भी नई ऊर्जा का संचार कर दिया था. इसी बीच 7 महीने का समय बीत गया. एक दिन रम्या और रोहित अचानक आ धमके.

‘‘आज हम बहुत जरूरी बात करने आए हैं, चायपानी सब बाद में,’’ रम्या आते ही बोली.

‘‘तो पहले कह ही डालो, फिर चैन से बैठो,’’ रघु ने कहा.

‘‘हम भारत जा रहे हैं,’’ रम्या ने नाटकीय अंदाज में कहा.

‘‘क्या? सदा के लिए?’’

‘‘नहीं, मेरे भोले भैया, केवल 1 माह के लिए. दिव्या का विवाह है और…’’

‘‘दिव्या कौन?’’ ईशा ने पूछा.

‘‘रम्या की छोटी बहन है,’’ रघु का उत्तर था.

‘‘और क्या?’’

‘‘मनोहर मामा की षष्टिपूर्ति (60 साल का होना) का उत्सव है 20 जून को.’’

‘‘अच्छा,’’ रघु के मुख से निकला.

‘‘आप दोनों भी चलने की तैयारी कर लो,’’ रम्या ने मानो आदेश दिया हो.

‘‘हम क्यों?’’ रघु ने पूछा.

‘‘यह भी ठीक है, आप तो मेरे विवाह में भी नहीं आए थे तो दिव्या के विवाह में क्यों जाने लगे. पर मनोहर मामा की षष्टिपूर्ति के उत्सव में तो आप अवश्य जाना चाहेंगे.’’

‘‘कभी नहीं, उन्होंने तुम्हें आमंत्रित किया है, सभी मित्रों, संबंधियों को भी किया होगा, पर मुझे सूचित करने की जरूरत नहीं समझी.’’

‘‘यह भी ठीक है, फिर भी सोच लो. अपने घर जाने के लिए भी क्या किसी निमंत्रण की जरूरत होती है?’’

‘‘रम्या, क्या तुम पापा के क्रोध को नहीं जानतीं? हमारे विवाह के समय उन्होंने हमें आशीर्वाद तक नहीं दिया.’’

‘‘तुम ने आशीर्वाद मांगा ही कब भैया? क्या तुम ईशा को ले कर एक बार भी उन से मिलने गए?’’

‘‘उन्होंने कभी बुलाया भी तो नहीं.’’

‘‘विवाह तुम ने अपनी मरजी से किया… तुम्हें स्वयं जाना चाहिए था. यह देखो षष्टिपूर्ति उत्सव का निमंत्रणपत्र. उत्तराकांक्षी के स्थान पर तुम्हारा नाम लिखा है. तुम्हें तो स्वयं जा कर सारा प्रबंध करना चाहिए. मनोहर मामा का जन्मदिन तो याद है न तुम्हें?’’ और रम्या ने निमंत्रणपत्र रघु की ओर बढ़ा दिया. रघु देर तक निमंत्रणपत्र को देखता रहा. फिर रम्या को लौटा दिया.

‘‘तुम्हारे तर्क अपने स्थान पर ठीक हैं रम्या, पर मैं इस तरह जाने के लिए स्वयं को आश्वस्त नहीं कर पा रहा हूं,’’ रघु ने दोटूक शब्दों में कहा. कुछ देर तक मौन पसरा रहा मानो चाह कर भी कोई कुछ बोल नहीं पा रहा हो.

‘‘रम्या, रघु अपनी मरजी के मालिक हैं पर मैं तुम्हारे साथ चलूंगी. मुझे नानानानी से भी क्षमा मांगनी है… उन का आशीर्वाद लेना है. रघु के मातापिता से मेरा भी कोई संबंध है. अपने मातापिता को तो मैं खो चुकी हूं, पर अब उन्हें नहीं खोना चाहती,’’ ईशा ने अपना निर्णय सुनाया.

‘‘यह हुई न बात. मुझे अपनी ईशा भाभी पर गर्व है. हम गरमगरम जलेबियां और समोसे ले कर आए थे. 50% लक्ष्य प्राप्त करने में तो हमें सफलता मिल ही गई. चलो, अब गरमगरम चाय पीएंगे,’’ और फिर रम्या और ईशा चाय बनाने चली गईं. रोहित जलेबियां और समोसे प्लेट में लगाने लगा. रघु मुंह फुलाए सोफे पर बैठा अपने ही विचारों में खोया था.

‘‘भ्राताश्री, कब तक यों बैठे रहेंगे? आइए, चाय लीजिए,’’ रम्या नाटकीय अंदाज में बोल कर खिलखिला दी.

‘‘रम्या बहुत नटखट हो गई हो तुम. जब देखो तब मेरा मजाक उड़ाती रहती हो,’’ रघु चाय का कप उठाते हुए बोला.

‘‘कैसी बातें करते हो भैया, मजाक और आप का? मैं ऐसा साहस भला कैसे कर सकती हूं? मैं तो केवल आप को अपने साथ भारत ले जाने की कोशिश कर रही हूं,’’ रम्या मुसकराई.

‘‘लगता है तुम अपनी कोशिश में कुछकुछ सफलता प्राप्त कर रही हो.’’

‘‘कुछकुछ सफलता? अर्थात आप भी हमारे साथ चल रहे हैं?’’

‘‘हां, जब ईशा ने जाने का निर्णय ले ही लिया है, तो मैं उसे अकेले तो नहीं छोड़ सकता,’’ रघु ने संकुचित स्वर में कहा तो हंसते हुए भी ईशा की आंखों में आंसू भर आए, जिन्हें छिपाने के लिए उस ने मुंह फेर लिया.

बोया पेड़ बबूल का- भाग 3: क्या संगीता को हुआ गलती का एहसास

मैं अपना सारा सामान समेट कर मायके चली आई और मां को झूठीसच्ची कहानी सुना कर उन की सहानुभूति बटोर ली.

मां को जब इन सब बातों का पता चला तो उन्होंने संदीप को जम कर फटकारा और उधर मैं अपनी सफलता पर आत्मविभोर हो रही थी. भैया ने तो यहां तक कह डाला कि यदि उस ने दोबारा कभी फोन करने की कोशिश की तो वह दहेज उत्पीड़न के मामले में उलझा कर सीधे जेल भिजवा देंगे. इस तरह मैं ने संदीप के लिए जमीन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जहां वह सांस ले सके.

एक दिन रसोई में काम करते हुए भाभी ने कहा, ‘संगीता, तुम्हारा झगड़ा अहं का है. मेरी मानो तो कुछ सामंजस्य बिठा कर वहीं चली जाओ. सच्चे अर्थों में वही तुम्हारा घर है. संदीप जैसा घरवर तुम्हें फिर नहीं मिलेगा.’

‘तुम कौन होती हो मुझे शिक्षा देने वाली. मैं तुम पर तो बोझ नहीं हूं. यह मेरी मां का घर है. जब तक चाहूंगी यहीं रहूंगी.’

उस दिन के बाद भाभी ने कभी कुछ नहीं कहा.

वक्त गुजरता गया और उसी के साथ मेरा गुस्सा भी ठंडा पड़ने लगा. मेरी मां का वरदहस्त मुझ पर था. मैं ने इसी शहर में अपना तबादला करा लिया.

एक दिन पिताजी ने दुखी हो कर कहा था, ‘संगीता, जिन संबंधों को बना नहीं सकते उन्हें ढोने से क्या फायदा. इस से बेहतर है कि कानूनी तौर पर अलग हो जाओ.’

इस बात का मां और भैया ने जम कर विरोध किया.

मां का कहना था कि यदि मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती तो मैं उसे भी सुखी नहीं रहने दूंगी. तलाक देने का मतलब है वह जहां चाहे रहे और ऐसा मैं होने नहीं दूंगी.

मुझे भी लगा यही ठीक निर्णय है. पिताजी इसी गम में दुनिया से ही चले गए और साल बीततेबीतते मां भी नहीं रहीं. मैं ने कभी सोचा भी न था कि मैं भी कभी अकेली हो जाऊंगी.

मैं ने अब तक अपनेआप को इस घर में व्यवस्थित कर लिया था. सुबह भाभी के साथ नाश्ता बनाने के बाद कालिज चली जाती. शाम को मेरे आने के बाद वह बच्चों में व्यस्त हो जातीं. मैं मन मार कर अपने कमरे में चली जाती. भैया के आने के बाद ही हम लोग पूरे दिन की दिनचर्या डायनिंग टेबल पर करते. मेरा उन से मिलना बस, यहीं तक सिमट चुका था.

जयपुर के निकट एक गांव में पति द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों की घटना की उस दिन बारबार टीवी पर चर्चा हो रही थी. खाना खाते हुए भैया बोले, ‘ऐसे व्यक्तियों को तो पेड़ पर लटका कर गोली मार देनी चाहिए.’

‘तुम अपना खाना खाओ,’ भाभी बोलीं, ‘यह काम सरकार का है, उसे ही करने दो.’

‘सरकार कुछ नहीं करती. औरतों को ही जागरूक होना चाहिए. अपनी संगीता को ही देख लो, संदीप को ऐसा सबक सिखाया है कि उम्र भर याद रखेगा. तलाक लेना चाहता था ताकि अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से बिता सके. हम उसे भी सुख से नहीं रहने देंगे,’ भैया ने तेज स्वर में मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘क्यों संगीता.’

‘तुम यह क्यों भूलते हो कि उसे तलाक न देने से खुद संगीता भी कभी अपना घर नहीं बसा सकती. मैं ने तो पहले ही इसे कहा था कि इस खाई को और न बढ़ाओ. तब मेरी सुनी ही किस ने थी. वह तो फिर भी पुरुष है, कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेगा. वह अकेला रह सकता है पर संगीता नहीं.’

‘मैं क्यों नहीं घर बसा सकती,’ मैं ने प्रश्नवाचक निगाहें भाभी पर टिका दीं.

‘क्योंकि कानूनी तौर पर बिना उस से अलग हुए तुम्हारा संबंध अवैध है.’

भाभी की बातों में कितना कठोर सत्य छिपा हुआ था यह मैं ने उस दिन जाना. मुझे तो जैसे काठ मार गया हो.

उस रात नींद आंखों से दूर ही रही. मैं यथार्थ की दुनिया में आ गिरी. कहने के लिए यहां अपना कुछ भी नहीं था. मैं अब अपने ही बनाए हुए मकड़जाल में पूरी तरह फंस चुकी थी.

इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक रास्ता खोजा और वहां से दूर रहने लायक एक ठिकाना ढूंढ़ा. किसी का कुछ नहीं बिगड़ा और मैं रास्ते में अकेली खड़ी रह गई.

मेरी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू हो चुकी थी. जाने वह कैसी मनहूस घड़ी थी जब मां की बातों में आ कर मैं ने अपना बसाबसाया घर उजाड़ लिया था. फिर से जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई. मैं ने संदीप को ढूंढ़ने का निर्णय लिया. जितना उसे ढूंढ़ती उतना ही गम के काले सायों में घिरती चली गई.

उस के आफिस के एक पुराने कुलीग से मुझे पता चला कि उस दिन जो युवती संदीप से मिलने घर आई थी वह उस के विभाग की नई हेड थी. संदीप चाहता था कि उसे अपना घर दिखा सके ताकि कंपनी द्वारा दी गई सुविधाओं को वह भी देख सके. किंतु उस दिन की घटना के बाद मैं ने फोन से जो कीचड़ उछाला था वह संदीप की तरक्की के मार्ग को बंद कर गया. वह अपनी बदनामी का सामना नहीं कर पाया और चुपचाप त्यागपत्र दे दिया. यह उस का मुझ से विवाह करने का इनाम था.

फिर तो मैं ने उसे ढूंढ़ने के सारे यत्न किए, पर सब बेकार साबित हुए. मैं चाहती थी एक बार मुझे संदीप मिल जाए तो मैं उस के चरणों में माथा रगड़ूं, अपनी गलती के लिए क्षमा मांगूं, लेकिन मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. न जाने किस सुख के प्रलोभन के लिए मैं उस से अलग हुई. न खुद ही जी पाई और न उस के जीने के लिए कोई कोना छोड़ा.

अब जब जीवन की शाम ढलने लगी है मैं भीतर तक पूरी तरह टूट चुकी हूं. उस के एक परिचित से पता चला था कि वह तमिलनाडु के सेलम शहर में है और आज इस पत्र के आते ही मेरा रहासहा उत्साह भी ठंडा हो गया.

कोई किसी की पीड़ा को नहीं बांट सकता. अपने हिस्से की पीड़ा मुझे खुद ही भोगनी पड़ेगी. मन के किसी कोने में छिपी हीन भावना से मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती.

पहली बार महसूस किया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मेरे जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण निधि थी. काश, संदीप कहीं से आ जाए तो मैं उस से क्षमादान मांगूं. वही मुझे अनिश्चितताओं के इस अंधेरे से बचा सकता है.

ममता: कैसी थी माधुरी की सास

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