फैसला इक नई सुबह का: आज वक्त आ गया था खुद को समझने का

Serial Story: फैसला इक नई सुबह का (भाग-3)

मुंह पर प्यार से मांमां करने वाला रजनीश बेगैरत होगा, यह उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. परंतु जब अपना सिक्का ही खोटा हो तो किसे दोष देना. अभी कुछ वक्त पहले ही उस ने यह फ्लैट खरीदने के लिए 20 लाख रुपयों से दामाद की मदद की थी, परंतु वह तो…सोचतेसोचते उस की आंखों में पानी आ गया.

आजकल रिश्ते वाकई मतलब के हो गए हैं. सब की छोड़ो, पर अपनी बेटी भी…उस का सबकुछ तो बच्चों का ही था. फिर भी उन का मन इतना मैला क्यों है. उस की आंखों से आंसू निकल कर उस के गालों पर ढुलकते चले गए. क्या बताएगी कल वह समीर को अपने अतीत के बारे में. क्या यही कि अपने अतीत में उस ने हर रिश्ते से सिर्फ धोखा खाया है. इस से अच्छा तो यह है कि वह कल समीर से मिलने ही न जाए. इतने बड़े शहर में समीर उसे कभी ढूंढ़ नहीं पाएगा. लेकिन बचपन के दोस्त से मिलने का मोह वह छोड़ नहीं पा रही थी क्योंकि यहां, इस स्थिति में इत्तफाक से समीर का मिल जाना उसे बहुत सुकून दे रहा था. समीर उस के मन के रेगिस्तान में एक ठंडी हवा का झोंका बन कर आया था, इस उम्र में ये हास्यास्पद बातें वह कैसे सोच सकती है? क्या उस की उम्र में इस तरह की सोच शोभा देती है. ऐसे तमाम प्रश्नों में उस का दिमाग उलझ कर रह गया था. वह अच्छी तरह जानती थी कि यह कोई वासनाजनित प्रेम नहीं, बल्कि किसी अपनेपन के एहसास से जुड़ा मात्र एक सदभाव ही है, जो अपना दुखदर्द एक सच्चे साथी के साथ बांटने को आतुर हो रहा है. वह साथी जो उसे भलीभांति समझता था और जिस पर वह आंख मूंद कर भरोसा कर सकती थी. यही सब सोचतेसोचते न जाने कब उस की आंख लग गई.

सुबह 7 बजे से ही बेटी ने मांमां कह कर उसे आवाज लगानी शुरू कर दी. सही भी है, वह एक नौकरानी ही तो थी इस घर में, वह भी बिना वेतन के, फिर भी वह मुसकरा कर उठी. उस का मन कुछ हलका हो चुका था. उसे देख बेटी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘क्यों मां, कितनी देर तक सोती हो? आप को तो मालूम है मैं सुबहसुबह आप के हाथ की ही चाय पीती हूं.’’

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‘‘अभी बना देती हूं, नित्या,’’ कह कर उन्होंने उधर से निगाहें फेर लीं, बेटी की बनावटी हंसी ज्यादा देर तक देखने की इच्छा नहीं हुई उन की. घर का सब काम निबटा कर नियत 4 बजे मानसी घर से निकल गई. पार्क पहुंच कर देखा तो समीर उस का इंतजार करता दिखाई दिया. ‘‘आओ मानसी, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था,’’ समीर ने प्रसन्नता व अपनेपन के साथ कहा.

‘‘मुझे बहुत देर तो नहीं हो गई समीर, क्या तुम्हें काफी इंतजार करना पड़ा?’’ ‘‘हां, इंतजार तो करना पड़ा,’’ समीर रहस्यमय ढंग से मुसकराया.

थोड़ी ही देर में वे दोनों अपने बचपन को एक बार फिर से जीने लगे. पुरानी सभी बातें याद करतेकरते दोनों थक गए. हंसहंस कर दोनों का बुरा हाल था. तभी समीर ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा, ‘‘तुम अब कैसी हो, मानसी, मेरा मतलब तुम्हारे पति व बच्चे कैसे हैं, कहां हैं? कुछ अपने आज के बारे में बताओ?’’ ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, बहुत अच्छे से,’’ कहते हुए मानसी ने मुंह दूसरी ओर कर लिया.

‘‘अच्छी बात है, यही बात जरा मुंह इधर कर के कहना,’’ समीर अब असली मुद्दे पर आ चुका था, ‘‘बचपन से तुम्हारी आंखों की भाषा समझता हूं, तुम मुझ से छिपा नहीं सकती अपनी बेचैनी व छटपटाहट. कुछ तो तुम्हारे भीतर चल रहा है. मैं ने कल ही नोटिस कर लिया था, जब तुम ने हमें देख कर भी नहीं देखा. तुम्हारा किसी खयाल में खोया रहना यह साफ दर्शा रहा था कि तुम कुछ परेशान हो. तुम पर मेरी नजर जैसे ही पड़ी, मैं तुम्हें पहचान गया था. अब मुझे साफसाफ बताओ किस हाल में हो तुम? अपने बारे में पूरा सच, और हां, यह जानने का मुझे पूरा हक भी है.’’ ‘‘समीर’’ कहती हुई मानसी फूटफूट कर रोने लगी. उस के सब्र का बांध टूट गया. अपनी शादी से ले कर, राजन की बेवफाई, अपनी घुटन, सासससुर, अपने बच्चों व उन की परवरिश के बारे में पूरा वृतांत एक कहानी की तरह उसे सुना डाला.

‘‘ओह, तुम जिंदगीभर इतना झेलती रही, एक बार तो अपने भैयाभाभी को यह बताया होता.’’ ‘‘क्या बताती समीर, मेरा सुख ही तो उन की जिंदगी का एकमात्र लक्ष्य था. उन के मुताबिक तो मैं बहुत बड़े परिवार में खुशियांभरी जिंदगी गुजार रही थी. उन्हें सचाई बता कर कैसे दुखी करती?’’

‘‘चलो, जो भी हुआ, जाने दो. आओ, मेरे घर चलते हैं,’’ समीर ने उस का हाथ पकड़ते हुए कहा. ‘‘नहीं समीर, आज तो बहुत देर हो चुकी है, नित्या परेशान हो रही होगी. फिर किसी दिन चलूंगी तुम्हारे घर.’’ समीर के अचानक से हाथ पकड़ने पर वह थोड़ी अचकचा गई.

‘‘तुम आज ही चलोगी. बहुत परेशान हुई आज तक, अब थोड़ा उन्हें भी परेशान होने दो. मेरे बच्चों से मिलो, तुम्हें सच में अच्छा लगेगा,’’ कहते हुए समीर उठ खड़ा हुआ.

समीर की जिद के आगे बेबस मानसी कुछ संकोच के साथ उस के संग चल पड़ी. बड़ी ही आत्मीयता के साथ समीर की बहू ने मानसी का स्वागत किया. कुछ देर के लिए मानसी जैसे अपनेआप को भूल ही गई. समीर के पोते के साथ खेलतेखेलते वह खुद भी छोटी सी बच्ची बन बैठी. वहीं बातोंबातों में समीर की बहू से ही उसे पता चला कि उस की सासूमां अर्थात समीर की पत्नी का देहांत 2 साल पहले एक रोड ऐक्सिडैंट में हो चुका है. उस दिन समीर का जन्मदिन था और वे समीर के जन्मदिन पर उन के लिए सरप्राइज पार्टी की तैयारियां करने ही बाहर गई थीं. यह सुन कर मानसी चौंक उठी. उसे समीर के लिए बहुत दुख हुआ.

अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी और उस ने चलने का उपक्रम किया. समीर उसे छोड़ने पैदल ही उस के अपार्टमैंट के बाहर तक आया. ‘‘समीर तुम्हारे पोते और बहू से मिल कर मुझे बहुत अच्छा लगा. सच, बहुत खुश हो तुम.’’

‘‘अरे, अभी तुम हमारे रौशनचिराग से नहीं मिली हो, जनाब औफिस से बहुत लेट आते हैं,’’ समीर ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘चलो, फिर सही, कहते हुए मानसी लिफ्ट की ओर चल पड़ी.’’

‘‘अब कब मिलोगी,’’ समीर ने उसे पुकारा. ‘‘हां समीर, देखो अब कब मिलना होता है, मानसी ने कुछ बुझी सी आवाज में कहा.’’

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‘‘अरे, इतने पास तो हमारे घर हैं और मिलने के लिए इतना सोचोगी. कल शाम को मिलते हैं न पार्क में,’’ समीर ने जोर दिया. ‘‘ठीक है समीर, मैं तुम्हें फोन करती हूं, जैसा भी संभव होगा,’’ कहते हुए लंबे डग भरते हुए वह लिफ्ट में दाखिल हो गई. जैसा कि उसे डर था, घर के अंदर घुसते ही उसे नित्या की घूरती आंखों का सामना करना पड़ा. बिना कुछ बोले वह जल्दी से अपने काम में लग गई.

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Serial Story: फैसला इक नई सुबह का (भाग-4)

रात में सोते समय वह फिर समीर के बारे में सोचने लगी. कितना प्यारा परिवार है समीर का. उस के बेटेबहू कितना मान देते हैं उसे? कितना प्यारा पोता है उस का? मेरा पोता भी तो लगभग इतना ही बड़ा हो गया होगा. पर उस ने तो सिर्फ तसवीरों में ही अपनी बहू और पोते को देखा है. कितनी बार कहा सार्थक से कि इंडिया आ जाओ, पर वह तो सब भुला बैठा है. काश, अपनी मां की तसल्ली के लिए ही एक बार आ जाता तो वह अपने पोते और बहू को जी भर कर देख लेती और उन पर अपनी ममता लुटाती. लेकिन उस का बेटा तो बहुत निष्ठुर हो चुका है. एक गहरी आह निकली उस के दिल से.

समीर की खुशहाली देख कर शायद उसे अपनी बदहाली और साफ दिखाई देने लगी थी. परंतु अब वह समीर से ज्यादा मिलना नहीं चाहती थी क्योंकि रोजरोज बेटी से झूठ बोल कर इस तरह किसी व्यक्ति से मिलना उसे सही नहीं लग रहा था, भले ही वह उस का दोस्त ही क्यों न हो. बेटी से मिलवाए भी तो क्या कह कर, आखिर बेटीदामाद उस के बारे में क्या सोचेंगे. वैसे भी उसे पता था कि स्वार्थ व लालच में अंधे हो चुके उस के बच्चों को उस से जुड़े किसी भी संबंध में खोट ही नजर आएगी. पर समीर को मना कैसे करे, समझ नहीं आ रहा था, क्योंकि उस का दिल तो बच्चों जैसा साफ था. मानसी अजीब सी उधेड़बुन में फंस चुकी थी.

सुबह उठ कर वह फिर रोजमर्रा के काम में लग गई. 10-11 बजे मोबाइल बजा, देखा तो समीर का कौल था. अच्छा हुआ साइलैंट पर था, नहीं तो बेटी के सवाल शुरू हो जाते. उस ने समीर का फोन नहीं उठाया. इस कशमकश में पूरा दिन व्यतीत हो गया. शाम को बेटीदामाद को चायनाश्ता दे कर खुद भी चाय पीने बैठी ही थी कि दरवाजे पर हुई दस्तक से उस का मन घबरा उठा, आखिर वही हुआ जिस का डर था. समीर को दरवाजे पर खड़े देख उस का हलक सूख गया, ‘‘अरे, आओ, समीर,’’ उस ने बड़ी कठिनता से मुंह से शब्द निकाले. समीर ने खुद ही अपना परिचय दे दिया. उस के बाद मुसकराते हुए उसे अपने पास बैठाया. और बड़ी ही सहजता से उस ने मानसी के संग अपने विवाह की इच्छा व्यक्त कर दी. यह बात सुनते ही मानसी चौंक पड़ी. कुछ बोल पाती, उस से पहले ही समीर ने कहा, ‘‘वह जो भी फैसला ले, सोचसमझ कर ले. मानसी का कोई भी फैसला उसे मान्य होगा.’’ कुछ देर चली बातचीत के दौरान उस की बेटी और दामाद का व्यवहार समीर के प्रति बेहद रूखा रहा.

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समीर के जाते ही बेटी ने उसे आड़े हाथों लिया और यहां तक कह दिया, ‘‘मां क्या यही गुल खिलाने के लिए आप दिल्ली से लखनऊ आई थीं. अब तो आप को मां कहने में भी मुझे शर्म आ रही है.’’ दामाद ने कहा कुछ नहीं, लेकिन उस के हावभाव ही उसे आहत करने के लिए काफी थे. अपने कमरे में आ कर मानसी फूटफूट कर रोने लगी. बिना कुछ भी किए उसे उन अपनों द्वारा जलील किया जा रहा था, जिन के लिए अपनी पूरी जिंदगी उस ने दांव पर लगा दी थी. उस का मन आज चीत्कार उठा. उसे समीर पर भी क्रोध आ रहा था कि उस ने ऐसा सोचा भी कैसे? इतनी जल्दी ये सब. अभी कलपरसों ही मिले हैं, उस से बिना पूछे, बिना बताए समीर ने खुद ही ऐसा निर्णय कैसे ले लिया? लेकिन वह यह भी जानती थी कि उस की परेशानियां और परिस्थिति देख कर ही समीर ने ऐसा निर्णय लिया होगा.

वह उसे अच्छे से जानती थी. बिना किसी लागलपेट के वह अपनी बात सामने वाले के पास ऐसे ही रखता था. स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी. उस की जिंदगी ने कई झंझावत देखे थे, परंतु आज उस के चरित्र की मानप्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई थी. उस ने अपने मन को संयत करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन आज हुए इस अपमान पर पहली बार उस का मन उसी से विद्रोह कर बैठा. ‘क्या उस का जन्म केवल त्याग और बलिदान के लिए ही हुआ है, क्या उस का अपना कोई वजूद नहीं है, सिवा एक पत्नी, बहू और मां बनने के? जीवन की एकरसता को वह आज तक ढोती चली आई, महज अपना समय मान कर. क्या सिर्फ इसलिए कि ये बच्चे आगे चल कर उसे इस तरह धिक्कारें. आखिर उस की गलती ही क्या है? क्या कुछ भी कहने से पहले बेटी और दामाद को उस से इस बात की पूरी जानकारी नहीं लेनी चाहिए थी? क्या उस की बेटी ने उसे इतना ही जाना है? लेकिन वह भी किस के व्यवहार पर आंसू बहा रही है.

‘अरे, यह तो वही बेटी है, जिस ने अपनी मां को अपने घर की नौकरानी समझा है. उस से किसी भी तरह की इज्जत की उम्मीद करना मूर्खता ही तो है. जो मां को दो रोटी भी जायदाद हासिल करने के लालच से खिला रही हो, वह उस की बेटी तो नहीं हो सकती. अब वह समझ गई कि दूसरों से इज्जत चाहिए तो पहले उसे स्वयं अपनी इज्जत करना सीखना होगा अन्यथा ये सब इसी तरह चलता रहेगा.’ कुछ सोच कर वह उठी. घड़ी ने रात के 9 बजाए. बाहर हौल में आई तो बेटीदामाद नहीं थे. हालात के मुताबिक, खाना बनने का तो कोई सवाल नहीं था, शायद इसीलिए खाना खाने बाहर गए हों. शांतमन से उस ने बहुत सोचा, हां, समीर ने यह जानबूझ कर किया है. अगर वह उस से इस बात का जिक्र भी करता तो वह कभी राजी नहीं होती. खुद ही साफ शब्दों में इनकार कर देती और अपने बच्चों की इस घिनौनी प्रतिक्रिया से भी अनजान ही रहती. फिर शायद अपने लिए जीने की उस की इच्छा भी कभी बलवती न होती. उस के मन का आईना साफ हो सके, इसीलिए समीर ने उस के ऊपर जमी धूल को झटकने की कोशिश की है.

अभी उस की जिंदगी खत्म नहीं हुई है. अब से वह सिर्फ अपनी खुशी के लिए जिएगी.

मानसी ने मुसकरा कर जिंदगी को गले लगाने का निश्चय कर समीर को फोन किया. उठ कर किचन में आई. भूख से आंतें कुलबुला रही थी. हलकाफुलका कुछ बना कर खाया, और चैन से सो गई. सुबह उठी तो मन बहुत हलका था. उस का प्रिय गीत उस के होंठों पर अनायास ही आ गया, ‘हम ने देखी है इन आंखों की महकती खूशबू, हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो…’ गुनगुनाते हुए तैयार होने लगी इस बात से बेफिक्र की बाहर उस की बेटी व दामाद उस के हाथ की चाय का इंतजार कर रहे हैं. दरवाजे की घंटी बजी, मानसी ने दरवाजा खोला. बाहर समीर खड़े थे. मानसी ने मुसकराकर उन का अभिवादन किया और भीतर बुला कर एक बार फिर से ?उन का परिचय अपनी बेटी व दामाद से करवाया, ‘‘ये हैं तुम्हारे होने वाले पापा, हम ने आज ही शादी करने का फैसला लिया है. आना चाहो तो तुम भी आमंत्रित हो.’’ बिना यह देखे कि उस में अचानक आए इस परिवर्तन से बेटी और दामाद के चेहरे पर क्या भाव उपजे हैं, मानसी समीर का हाथ थाम उस के साथ चल पड़ी अपनी जिंदगी की नई सुबह की ओर…

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Serial Story: फैसला इक नई सुबह का (भाग-1)

लखनऊ की पौश कौलोनी गोमतीनगर में स्थित इस पार्क में लोगों की काफी आवाजाही थी. पार्क की एक बैंच पर काफी देर से बैठी मानसी गहन चिंता में लीन थी. शाम के समय पक्षियों का कलरव व बच्चों की धमाचौकड़ी भी उसे विचलित नहीं कर पा रही थी. उस के अंतर्मन की हलचल बाहरी शोर से कहीं ज्यादा तेज व तीखी थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उस से गलती कहां हुई है. पति के होते हुए भी उस ने बच्चों को अपने बलबूते पर कड़ी मेहनत कर के बड़ा किया, उन्हें इस काबिल बनाया कि वे खुले आकाश में स्वच्छंद उड़ान भर सकें. पर बच्चों में वक्त के साथ इतना बड़ा बदलाव आ जाएगा, यह वह नहीं जानती थी. बेटा तो बेटा, बेटी भी उस के लिए इतना गलत सोचती है. वह विचारमग्न थी कि कमी आखिर कहां थी, उस की परवरिश में या उस खून में जो बच्चों के पिता की देन था. अब वह क्या करे, कहां जाए?

दिल्ली में अकेली रह रही मानसी को उस का खाली घर काट खाने को दौड़ता था. बेटा सार्थक एक कनैडियन लड़की से शादी कर के हमेशा के लिए कनाडा में बस चुका था. अभी हफ्तेभर पहले लखनऊ में रह रहे बेटीदामाद के पास वह यह सोच कर आई थी कि कुछ ही दिनों के लिए सही, उस का अकेलापन तो दूर होगा. फिर उस की प्रैग्नैंट बेटी को भी थोड़ा सहारा मिल जाएगा, लेकिन पिछली रात 12 बजे प्यास से गला सूखने पर जब वह पानी पीने को उठी तो बेटी और दामाद के कमरे से धीमे स्वर में आ रही आवाज ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि बातचीत का मुद्दा वही थी. ‘यार, तुम्हारी मम्मी यहां से कब जाएंगी? इतने बड़े शहर में अपना खर्च ही चलाना मुश्किल है, ऊपर से इन का खाना और रहना.’ दामाद का झल्लाहट भरा स्वर उसे साफ सुनाई दे रहा था.

‘तुम्हें क्या लगता, मैं इस बात को नहीं समझती, पर मैं ने भी पूरा हिसाब लगा लिया है. जब से मम्मी आई हैं, खाने वाली की छुट्टी कर दी है यह बोल कर कि मां मुझे तुम्हारे हाथ का खाना खाने का मन होता है. चूंकि मम्मी नर्स भी हैं तो बच्चा होने तक और उस के बाद भी मेरी पूरी देखभाल मुफ्त में हो जाएगी. देखा जाए तो उन के खाने का खर्च ही कितना है, 2 रोटी सुबह, 2 रोटी शाम. और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन के पास दौलत की कमी नहीं है. अगर वे हमारे पास सुकून से रहेंगी तो आज नहीं तो कल, उन की सारी दौलत भी हमारी होगी. भाई तो वैसे भी इंडिया वापस नहीं आने वाला,’ कहती हुई बेटी की खनकदार हंसी उस के कानों में पड़ी. उसे लगा वह चक्कर खा कर वहीं गिर पड़ेगी. जैसेतैसे अपनेआप को संभाल कर वह कमरे तक आई थी.

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बेटी और दामाद की हकीकत से रूबरू हो उस का मन बड़ा आहत हुआ. दिल की बेचैनी और छटपटाहट थोड़ी कम हो, इसीलिए शाम होते ही घूमने के बहाने वह घर के पास बने इस पार्क में आ गई थी.

पर यहां आ कर भी उस की बेचैनी बरकरार थी. निगाहें सामने थीं, पर मन में वही ऊहापोह थी. तभी सामने से कुछ दूरी पर लगभग उसी की उम्र के 3-4 व्यक्ति खड़े बातें करते नजर आए. वह आगे कुछ सोचती कि तभी उन में से एक व्यक्ति उस की ओर बढ़ता दिखाई पड़ा. वह पसोपेश में पड़ गई कि क्या करे. अजनबी शहर में अजनबियों की ये जमात. इतनी उम्र की होने के बावजूद उस के मन में यह घबराहट कैसी? अरे, वह कोई किशोरी थोड़े ही है जो कोई उसे छेड़ने चला आएगा? शायद कुछ पूछने आ रहा हो, उस ने अपनेआप को तसल्ली दी. ‘‘हे मनु, तुम यहां कैसे,’’ अचकचा सी गई वह यह चिरपरिचित आवाज सुन कर.

‘‘कौन मनु? माफ कीजिएगा, मैं मानसी, पास ही दिव्या अपार्टमैंट में रहती हूं,’’ हड़बड़ाहट में वह अपने बचपन के नाम को भी भूल गई. आवाज को पहचानने की भी उस की भरसक कोशिश नाकाम ही रही. ‘‘हां, हां, आदरणीय मानसीजी, मैं आप की ही बात कर रहा हूं. आय एम समीर फ्रौम देवास.’’ देवास शब्द सुनते ही जैसे उस की खोई याददाश्त लौट आई. जाने कितने सालों बाद उस ने यह नाम सुना था. जो उस के भीतर हमेशा हर पल मौजूद रहता था. पर समीर को सामने खड़ा देख कर भी वह पहचान नहीं पा रही थी. कारण उस में बहुत बदलाव आ गया था. कहां वह दुबलापतला, मरियल सा दिखने वाला समीर और कहां कुछ उम्रदराज परंतु प्रभावशाली व्यक्तित्व का मालिक यह समीर. उसे बहुत अचरज हुआ और अथाह खुशी भी. अपना घर वाला नाम सुन कर उसे यों लगा, जैसे वह छोटी बच्ची बन गई है.

‘‘अरे, अभी भी नहीं पहचाना,’’ कह कर समीर ने धीरे से उस की बांहों को हिलाया. ‘‘क्यों नहीं, समीर, बिलकुल पहचान लिया.’’

‘‘आओ, तुम्हें अपने दोस्तों से मिलाता हूं,’’ कह कर समीर उसे अपने दोस्तों के पास ले गया. दोस्तों से परिचय होने के बाद मानसी ने कहा, ‘‘अब मुझे घर चलना चाहिए समीर, बहुत देर हो चुकी है.’’ ‘‘ठीक है, अभी तो हम ठीक से बात नहीं कर पाए हैं परंतु कल शाम 4 बजे इसी बैंच पर मिलना. पुरानी यादें ताजा करेंगे और एकदूसरे के बारे में ढेर सारी बातें. आओगी न?’’ समीर ने खुशी से चहकते हुए कहा.

‘‘बिलकुल, पर अभी चलती हूं.’’

घर लौटते वक्त अंधेरा होने लगा था. पर उस का मन खुशी से सराबोर था. उस के थके हुए पैरों को जैसे गति मिल गई थी. उम्र की लाचारी, शरीर की थकान सभीकुछ गायब हो चुका था. इतने समय बाद इस अजनबी शहर में समीर का मिलना उसे किसी तोहफे से कम नहीं लग रहा था. घर पहुंच कर उस ने खाना खाया. रोज की तरह अपने काम निबटाए और बिस्तर पर लेट गई. खुशी के अतिरेक से उस की आंखों की नींद गायब हो चुकी थी. उस के जीवन की किताब का हर पन्ना उस के सामने एकएक कर खुलता जा रहा था, जिस में वह स्पष्ट देख पा रही थी. अपने दोस्त को और उस के साथ बिताए उन मधुर पलों को, जिन्हें वह खुल कर जिया करती थी. बचपन का वह समय जिस में उन का हंसना, रोना, लड़ना, झगड़ना, रूठना, मनाना सब समीर के साथ ही होता था. गुस्से व लड़ाई के दौरान तो वह समीर को उठा कर पटक भी देती थी. दरअसल, वह शरीर से बलिष्ठ थी और समीर दुबलापतला. फिर भी उस के लिए समीर अपने दोस्तों तक से भिड़ जाया करता था.

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Serial Story: फैसला इक नई सुबह का (भाग-2)

गिल्लीडंडा, छुपाछुपी, विषअमृत, सांकलबंदी, कबड्डी, खोखो जैसे कई खेल खेलते वे कब स्कूल से कालेज में आ गए थे, पता ही नहीं चला था. पर समीर ने इंजीनियरिंग फील्ड चुनी थी और उस ने मैडिकल फील्ड का चुनाव किया था. उस के बाद समीर उच्चशिक्षा के लिए अमेरिका चला गया. और इसी बीच उस के भैयाभाभी ने उस की शादी दिल्ली में रह रहे एक व्यवसायी राजन से कर दी थी. शादी के बाद से उस का देवास आना बहुत कम हो गया. इधर ससुराल में उस के पति राजन मातापिता की इकलौती संतान और एक स्वच्छंद तथा मस्तमौला इंसान थे जिन के दिन से ज्यादा रातें रंगीन हुआ करती थीं. शराब और शबाब के शौकीन राजन ने उस से शादी भी सिर्फ मांबाप के कहने से की थी. उन्होंने कभी उसे पत्नी का दर्जा नहीं दिया. वह उन के लिए भोग की एक वस्तु मात्र थी जिसे वह अपनी सुविधानुसार जबतब भोग लिया करते थे, बिना उस की मरजी जाने. उन के लिए पत्नी की हैसियत पैरों की जूती से बढ़ कर नहीं थी.

लेकिन उस के सासससुर बहुत अच्छे थे. उन्होंने उसे बहुत प्यार व अपनापन दिया. सास तो स्वयं ही उसे पसंद कर के लाई थीं, लिहाजा वे मानसी पर बहुत स्नेह रखती थीं. उन से मानसी का अकेलापन व उदासी छिपी नहीं थी. उन्होंने उसे हौसला दे कर अपनी पढ़ाई जारी रखने को कहा, जोकि शादी के चलते अधूरी ही छूट गई थी. मानसी ने कालेज जाना शुरू कर दिया. हालांकि राजन को उस का घर से बाहर निकलना बिलकुल पसंद नहीं था परंतु अपनी मां के सामने राजन की एक न चली. मानसी के जीवन में इस से बहुत बड़ा बदलाव आया. उस ने नर्सिंग की ट्रेनिंग पूरी की. पढ़ाई पूरी होने से उस का आत्मविश्वास भी बढ़ गया था. पर राजन के लिए मानसी आज भी अस्तित्वहीन थी.

मानसी का मन भावनात्मक प्रेम को तरसता रहता. वह अपने दिल की सारी बातें राजन से शेयर करना चाहती थी, परंतु अपने बिजनैस और उस से बचे वक्त में अपनी रंगीन जिंदगी जीते राजन को कभी मानसी की इस घुटन का एहसास तक नहीं हुआ. इस मशीनी जिंदगी को जीतेजीते मानसी 2 प्यारे बच्चों की मां बन चुकी थी.

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बेटे सार्थक व बेटी नित्या के आने से उस के जीवन को एक दिशा मिल चुकी थी. पर राजन की जिंदगी अभी भी पुराने ढर्रे पर थी. मानसी के बच्चों में व्यस्त रहने से उसे और आजादी मिल गई थी. हां, मानसी की जिंदगी ने जरूर रफ्तार पकड़ ली थी, कि तभी हृदयाघात से ससुर की मौत होने से मानसी पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. आर्थिक रूप से मानसी उन्हीं पर निर्भर थी. राजन को घरगृहस्थी में पहले ही कोई विशेष रुचि नहीं थी. पिता के जाते ही वह अपनेआप को सर्वेसर्वा समझने लगा. दिनोंदिन बदमिजाज होता रहा राजन कईकई दिनों तक घर की सुध नहीं लेता था. मानसी बच्चों की परवरिश व पढ़ाईलिखाई के लिए भी आर्थिक रूप से बहुत परेशान रहने लगी. यह देख कर उस की सास ने बच्चों व उस के भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपनी आधी जायदाद मानसी के नाम करने का निर्णय लिया.

यह पता लगते ही राजन ने घर आ कर मानसी को आड़े हाथों लिया. परंतु उस की मां ने मानसी का पक्ष लेते हुए उसे लताड़ लगाई, लेकिन वह जातेजाते भी मानसी को देख लेने की धमकी दे गया. मानसी का मन बहुत आहत हुआ, जिस रिश्ते को उस ने हमेशा ईमानदारी से निभाने की कोशिश की, आज वह पूरी तरह दरक गया. उस का मन चाहा कि वह अपनी चुप्पी तोड़ कर जायदाद के पेपर राजन के मुंह पर मार उसे यह समझा दे कि वह दौलत की भूखी नहीं है, लेकिन अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उस ने चुप्पी साध ली.

समय की रफ्तार के साथ एक बार फिर मानसी के कदम चल पड़े. बच्चों की परवरिश व बुजुर्ग सास की देखभाल में व्यस्त मानसी अपनेआप को जैसे भूल ही चुकी थी. अपने दर्द व तकलीफों के बारे में सोचने का न ही उस के पास वक्त था और न ही ताकत. समय कैसे गुजर जाता था, मानसी को पता ही नहीं चलता था. उस के बच्चे अब कुछ समझदार हो चले थे. ऐसे में एक रात मानसी की सास की तबीयत अचानक ही बहुत बिगड़ गई. उस के फैमिली डाक्टर भी आउट औफ स्टेशन थे. कोई दूसरी मदद न होने से उस ने मजबूरी में राजन को फोन लगाया.

‘मां ने जब तुम्हें आधी जायदाद दी है तो अब उन की जिम्मेदारी भी तुम निभाओ. मैं तो वैसे भी नालायक औलाद हूं उन की,’ दोटूक बात कह कर राजन ने फोन काट दिया. हैरानपरेशान मानसी ने फिर भी हिम्मत न हारते हुए अपनी सास का इलाज अपनी काबिलीयत के बल पर किया. उस ने उन्हें न सिर्फ बचाया बल्कि स्वस्थ होने तक सही देखभाल भी की. इतने कठिन समय में उस का धैर्य और कार्यकुशलता देख कर डाक्टर प्रकाश, जोकि उन के फैमिली डाक्टर थे, ने उसे अपने अस्पताल में सर्विस का औफर दिया. मानसी बड़े ही असमंजस में पड़ गई, क्योंकि अभी उस के बड़े होते बच्चों को उस की जरूरत कहीं ज्यादा थी. पर सास के यह समझाने पर कि बच्चों की देखभाल में वे उस की थोड़ी सहायता कर दिया करेंगी, वह मान गई. उस के जौब करने की दूसरी वजह निसंदेह पैसा भी था जिस की मानसी को अभी बहुत जरूरत थी.

अब मानसी का ज्यादातर वक्त अस्पताल में बीतने लगा. घर पर सास ने भी बच्चों को बड़ी जिम्मेदारी से संभाल रखा था. जल्द ही अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर वह पदोन्नत हो गई. अब उसे अच्छी तनख्वाह मिलने लगी थी. पर बीचबीच में राजन का उसे घर आ कर फटकारना जारी रहा. इसी के चलते अपनी सास के बहुत समझाने पर उस ने तलाक के लिए आवेदन कर दिया. राजन के बारे में सभी भलीभांति जानते थे. सो, उसे सास व अन्य सभी के सहयोग से जल्द ही तलाक मिल गया.

कुछ साल बीततेबीतते उस की सास भी चल बसीं. पर उन्होंने जाने से पहले उसे बहुत आत्मनिर्भर बना दिया था. उन की कमी तो उसे खलती थी लेकिन अब उस के व्यक्तित्व में निखार आ गया था. अपने बेटे को उच्चशिक्षा के लिए उस ने कनाडा भेजा तथा बेटी का उस के मनचाहे क्षेत्र फैशन डिजाइनिंग में दाखिला करवा दिया. अब राजन का उस से सामना न के बराबर ही होता था. पर समय की करवट अभी उस के कुछऔर इम्तिहान लेने को आतुर थी. कुछ ही वर्षों में उस के सारे त्याग व तपस्या को भुलाते हुए सार्थक ने कनाडा में ही शादी कर वहां की नागरिकता ग्रहण कर ली. इतने वर्षों में वह इंडिया भी बस 2 बार ही आया था. मानसी को बहुत मानसिक आघात पहुंचा. पर वह कर भी क्या सकती थी. इधर बेटी भी पढ़ाई के दौरान ही रजनीश के इश्क में गिरफ्तार हो चुकी थी. जमाने की परवा न करते हुए उस ने बेटी की शादी रजनीश से ही करने का निर्णय ले लिया.

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एक छत के नीचे: महीनेभर बाद घर पहुंची तरु के साथ क्या हुआ?

Serial Story: एक छत के नीचे (भाग-2)

पूर्व कथा

बेटी सोनिया व पति मिलन के साथ तरु की जिंदगी सामान्य गुजर रही होती है. भाभी के उपकारों का बोझ कुछ हलका करने के लिए तरु अपनी भतीजी निक्की को गांव से शहर ले आती है. इस पर सास ससुर ही नहीं, पति भी तरु से नाराजगी प्रकट करते हैं. सासससुर की सुनने की आदी तरू मिलन को समझा लेती है और वे निक्की को घर का सदस्य मान लेते हैं.

तरु  अब सोनिया की ही नहीं, निक्की की भी मां होती है. शुरूशुरू में निक्की किसी से बात नहीं करती थी. जब तक मैं कालेज से वापस न लौटती, वह एक ही कमरे में दुबकी रहती. सोनिया उसे खूब चिढ़ाती. एक दिन ऐसे ही सोनिया ताली पीटपीट कर निक्की को चिढ़ा रही थी. निक्की कभी मिलन को देखती, कभी मुझे निहारती. मिलन ने प्यार से जैसे ही निक्की को अपने पास बुलाया, वह उन के गले में झूल गई थी. समय गुजरा और सोनिया की शादी हो गई. वह ससुराल चली जाती है. इधर, तरु कालेज की नौकरी छोड़ कर समाज सेवा करने में व्यस्त हो जाती है. इस बीच, मिलन को एहसास होता है कि तरु उन को समय नहीं दे पा रही है. जब तरु उन से कहती कि निक्की तो उन की देखभाल कर लेती है तो वे कहते कि…रात में…

अब आगे…

पिछली बार जब निक्की को वायरल हुआ था तो मैं ने सुबह उठ कर भवानी से घर को साफसुथरा करवाया. फिर निक्की के लिए दलियाखिचड़ी तैयार कर के घर से निकल रही थी कि मिलन ने मुझे रोक लिया था.

‘आज मत जाओ तरु. रुक जाओ. निक्की को अच्छा लगेगा.’

‘थोड़ी देर में लौट आऊंगी.’ मिलन सब कामों को ताक पर रख कर मिलनेजुलने वालों से किनारा कर के निक्की के आसपास ही मंडराते रहते थे. उसे अपने हाथ से खिलाते, जूस पिलाते. उस वक्त उन की छवि एक ममतामयी मां की बन गई थी. निक्की अल्हड़ता से उन की गरदन में हाथ डाल कर झूल जाती.

‘अंकल, आप तो बढ़ी हुई दाढ़ी में भी हैंडसम लगते हैं. बिखरेबिखरे बाल, ढीलाढाला कुरतापाजामा. आप तो बिलकुल मेरे पापा बन जाते हैं.’

‘मेरे पापा बनने पर शक है क्या तुम्हें?’ मिलन नाराजगी प्रकट करते. निक्की पहले से ज्यादा गुमसुम रहने लगी थी. एक बार भी मेरे मन में यह खयाल नहीं आया कि उस के साथ कोई ऊंचनीच तो नहीं हो गई? मैं इस बिन बाप की बच्ची की मांबाप, भाईबहन सबकुछ तो थी. कितने जतन से उसे संभालती आई थी. उस के ही दायरे में बंधे, उस के इर्दगिर्द घूमते हुए, पलपल उसे बढ़ते देख, उस की छोटीछोटी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए न जाने मेरा कितना समय बीत गया. अपने बारे में सोचने का खयाल, कभी अवचेतन तक में भी नहीं आया.

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बरसात थमे अभी थोड़ा ही वक्त हुआ था, लेकिन बादलों के काले गोले, अभी भी नीले आकाश में तैर रहे थे. खिड़की से आने वाली हवा सिहरन पैदा कर रही थी. मिलन कमरे में लौट आए थे. मैं ने घड़ी की तरफ देखा. 10 बज चुके थे. भवानी काम निबटा कर लौट गई थी. शाम को मैं ने उसे जल्दी आने के लिए कह दिया था. इतने दिनों बाद सोनिया आ रही थी. उस की मनपसंद चीजें तैयार करनी थीं.

अचानक मिलन ने मेरी पीठ पर हाथ रख कर मुझे अपने करीब खींचा तो मैं उन से छिटक कर दूर जा खड़ी हुई. क्रोध के आवेश में होंठ थरथराने लगे. दिमाग की शिराएं तन गईं.

‘‘कब से चल रहा है यह सब?’’ मैं ने घृणा भरी नजर मिलन पर डाली.

‘‘क्यों? क्या किया है मैं ने? कुछ कहोगी भी या यों ही पहेलियां बुझाती रहोगी.’’

‘‘निक्की की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करते हुए तुम्हें शरम नहीं आई?’’ मैं विद्रोह करने पर उतारू थी.

‘‘यह क्या बकवास है. शरम आनी चाहिए तुम्हें ऐसी बेहूदा बातें करते हुए,’’ मिलन का स्वर सख्त हो उठा.

‘‘जब तुम्हें बेहूदा हरकत करने में शरम नहीं आई तो मुझे कहने में शरम क्यों आएगी?’’ मैं गुस्से से बोली, ‘‘औरत की नजर बहुत तेज होती है पुरुष की अच्छीबुरी नजर पहचानने में. और पत्नी पति की नजर न पहचाने, यह असंभव है. तुम्हारी नजरें बता रही हैं कि तुम कितना सच बोल रहे हो.’’

‘‘तुम मुझ पर तोहमत लगा रही हो,’’ मिलन ने प्रतिवाद किया.

‘‘मिलन, मैं ने किसी और से सुना होता तो कतई विश्वास नहीं करती. मैं ने खुद तुम दोनों को रंगेहाथों पकड़ा है.’’

‘‘चुप हो जाओ तरु. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे. हर जगह बदनाम हो जाऊंगा मैं.’’ मिलन के स्वर में गिड़गिड़ाहट थी. वे अपराधी बने मेरे सामने खड़े थे. मेरा सारा शरीर अपमान की ज्वाला में तप रहा था. अपने भीतर की उथलपुथल शांत करने के लिए मैं ने उन से पुन: अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘इस सब की शुरुआत कब हुई थी, मिलन?’’

‘‘तुम्हारे जाने के बाद निक्की उदास हो जाती थी, बेहद उदास. मैं जरा सी पूछताछ करता तो वह रो पड़ती. तरु, तुम्हें याद होगा, जब भूकंप पीडि़तों की सहायता के लिए तुम सप्ताह भर के लिए भुज गई थीं, निक्की उन दिनों मेरा पूरा ध्यान रखती थी. मेरे खानेपीने से ले कर मेरे कपड़ों की व्यवस्था के प्रति वह पूर्ण सजग रहती. थकीहारी निक्की के चेहरे पर मैं ने कभी तनाव की रेखा नहीं देखी थी. हमेशा मधुर मुसकान ही देखी थी.

‘‘उन्हीं दिनों मुझे 2 दिन के लिए गुवाहाटी जाना पड़ा. निक्की ने मेरा सामान व्यवस्थित किया. फिर रसोई में जा कर मेरे लिए लड्डू और मठरी बनाने लगी. पसीने से तरबतर निक्की को मैं जबरन अपने कमरे में ले आया और एअरकंडीशनर चला दिया. उस ने मेरे हाथ, अपनी पसीने से भीगी हुई हथेलियों में कस कर भींच लिए, फिर बोली, ‘अंकल, आप के जाने के बाद मैं बहुत अकेली हो जाऊंगी.’

‘‘ ‘2 दिन की बात है. मैं भवानी से कह दूंगा. तुम्हारे पास रात को सो जाएगी.’

‘‘मैं ने उसे ढाढ़स बंधाया, लेकिन उस का मन बहुत बेचैन था. मैं उसे पुचकारता रहा, सहलाता रहा और अपनापन जताता रहा. वह चुपचाप लेटी रही. उस की आंखें, उनींदी हो कर झपकने लगी थीं. मैं काफी देर तक उसे चूमता रहा. न जाने उस के भीतर क्या हुआ. उस की आंखें बंद हो गईं और मैं देर तक उस की गरम सांस अपनी छाती और गले पर महसूस करता रहा. उस की इस निकटता का मुझ पर ऐसा अजीब प्रभाव पड़ा कि मैं धीरेधीरे संयम खोता चला गया और फिर…’’

मुझे याद आया सहज ही अनैतिक संबंध हो जाने के 2 मुख्य कारण होते हैं. आवश्यकता और उपलब्धता. पत्नी की अनुपस्थिति से उपजी मिलन की भूख, जिस की सहज पूर्ति, अकेलेपन के कारण निक्की की उपलब्धि से हो गई. निक्की की छोटीबड़ी आवश्यकताओं को दूर करतेकरते मिलन न जाने कब निक्की की भावनाओं में बसते चले गए. निक्की भी उम्र के इस दौर पर पहुंच चुकी थी, जब शरीर कुछ अपेक्षाएं करने लगता है. ये नैसर्गिक इच्छाएं अकेले में मिलन से मिलते ही साकार रूप ले कर उस के सामने खड़ी हो जाती होंगी. हम दोनों के बीच अबोला सा ठहर गया था. सोनिया के सामने हम दोनों सामान्य बने रहते, लेकिन उस की गैरमौजूदगी में एकएक पल काटना भारी लगता था मुझे. सामान्य मनोदशा ठीक न होने के बावजूद सामान्य बने रहने का नाटक करना कितना कठिन होता है, यह तो भुक्तभोगी ही जानता है.

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सोनिया की कौन्फ्रैंस समाप्त हो गई. उस के लौटने का समय नजदीक आ गया. मिलन ने इन दिनों दफ्तर से अवकाश ले लिया था. एक दिन सोनिया ने लंबाचौड़ा प्रोग्राम बना लिया था. पहले जी भर कर किसी मौल में खरीदारी, फिर किसी होटल में लंच. इतनी बड़ी हो गई, लेकिन फिर भी उस का बचपना नहीं गया. मैं ने निक्की को फोन कर बुला लिया था.

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Serial Story: एक छत के नीचे (भाग-1)

ट्रेन दिल्ली की ओर बढ़ रही थी. मैं ने प्लेटफार्म पर ट्रेन के पहुंचने से पहले अपना सामान समेटा और शीघ्रता से उतर गई. निगाहें बेसब्री से मिलन को ढूंढ़ रही थीं. थोड़ा आश्चर्य सा हुआ. हमेशा समय से पहले पहुंचने वाले मिलन आज लेट कैसे हो गए. तभी मेरे मोबाइल पर मिलन का संदेश आ गया.

‘‘सौरी डार्लिंग, आज बोर्ड की मीटिंग है और 9 बजे दफ्तर पहुंचना है, इसलिए तुम्हें लेने स्टेशन नहीं पहुंच पाया.’’ टैक्सी से घर पहुंची तो मिलन बरामदे की सीढि़यों पर ही मिल गए. साथ में निक्की भी थी. हलके गुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी, जो उस के जन्मदिन पर मिलन ने उसे भेंट की थी, सुर्ख बिंदी, लिपस्टिक और हाथों में खनकती चूडि़यां… सब मुझे विस्मित कर रहे थे. मैं ने प्यार से निक्की के गालों को थपथपाया, फिर कलाई पर बंधी घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘तू क्यों इतनी जल्दी जा रही है? रुक जा, 1 घंटे बाद चली जाना.’’ ‘‘अगर अभी इन के साथ निकल गई तो आधे घंटे में पहुंच जाऊंगी, वरना पहले बस फिर मैट्रो, फिर बस. पूरे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘शाम को जल्दी आ जाएंगे,’’ कह कर मिलन सीढि़यां उतर गए और कार स्टार्ट कर दी. दौड़तीभागती निक्की भी उन की बगल में जा कर बैठ गई. सामान अंदर रखवा कर मैं ने भवानी को चाय बनाने का आदेश दिया. फिर पूरे घर का निरीक्षण कर डाला. हर चीज साफसुथरी, सुव्यवस्थित, करीने से सजी हुई थी.

चाय की प्याली ले कर भवानी मेरे पास आ कर बैठी तो मैं ने कहा, ‘‘रात के लिए चने भिगो दो. साहब चनेचावल बहुत शौक से खाते हैं.’’

‘‘आजकल साहब रात में खाना नहीं खाते,’’ भवानी का जवाब था.

‘‘क्यों…’’

‘‘एक दिन निक्की बिटिया ने टोक दिया कि आजकल साहब का वजन बहुत बढ़ रहा है, बस तभी से रात का खाना बंद कर दिया,’’ भवानी ने हंस कर कहा.

‘‘मुझे तो बहुत भूख लगी है. जो कुछ बन पड़े बना लो. फिर थोड़ी देर सोऊंगी. थकावट के मारे बुरा हाल है.’’ नींद खुली तो कमरे से बाहर निकल कर बालकनी में बैठ कर मिलन और निक्की की प्रतीक्षा करने लगी. अभी उन के आने में 1 घंटा बाकी था. मैं ने अपने डिजिटल कैमरे में कैद फोटोग्राफ देखने शुरू कर दिए.

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दिल्ली से जबलपुर तक ट्रेन और  उस के आगे टाटा सफारी से मंडला तक की यात्रा काफी कठिन थी. पूरा क्षेत्र पानी में डूबा हुआ था. नर्मदा नदी में बाढ़ की वजह से तबाही मची हुई थी. जगहजगह सहायता शिविर और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोले गए थे. बाढ़ पीडि़तों की सहायता के लिए हमारी संस्था के साथ कई अन्य समाजसेवी संस्थाएं भी एकजुट हो कर कार्यरत थीं. 8 दिन का कार्यक्रम 1 महीने तक खिंच गया था. जब तक स्थिति में सुधार नहीं होता, लौटने का प्रश्न ही कहां उठता था?

मिलन की गाड़ी गेट पर नजर आई तो कैमरा बंद कर भवानी से कह कर चाय के साथ गरमागरम पकौड़े तैयार करवा लिए.

‘‘यह क्या बनवा लिया, बूआ?’’

‘‘बरसात के मौसम में तेरे फूफाजी को चाय के साथ गरम पकौड़े बेहद पसंद हैं.’’

‘‘वजन देखा है, कितना तेजी से बढ़ रहा है?’’ निक्की ने न जाने किस अधिकार के तहत पकौड़ों की प्लेट खिसका कर मिलन की तरफ देखा. मुझे उस का यह तरीका अच्छा नहीं लगा था.

‘‘आजकल यह सब बंद कर दिया है.’’

‘‘सिर्फ 1 कप दूध लूंगा,’’ मिलन बोले.

इतनी देर में निक्की 2 कप ग्रीन टी बना कर ले आई थी. टीवी देखते समय मिलन ने महज औपचारिकता के चलते वहां की कुछ बातें पूछीं और बातचीत का मुद्दा बदल दिया. शादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ था जब मैं और मिलन एकदूसरे से इतने लंबे समय के लिए अलग हुए थे. पूरे 1 महीने बाद मैं घर लौटी थी. उस पर मेरा कार्यक्रम इतना व्यस्त रहा था कि 1 दिन भी मिलन से जी भर कर बात नहीं हुई थी. बेडरूम में पहुंच कर भी मिलन के व्यवहार में वैसी गर्मजोशी नजर नहीं आई थी, जिस की मैं ने उम्मीद की थी. हर रात शारीरिक संबंध की कामना करने वाले मिलन, आज खानापूर्ति के लिए पतिपत्नी के शारीरिक रिश्ते की जिम्मेदारी निभा कर सो गए. मिलन के व्यवहार में आए इस बदलाव को देख कर मेरे मन में अब शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा.

‘कहीं मेरी गैरहाजिरी में मिलन और निक्की? नहीं…नहीं…मिलन मेरे साथ ऐसी बेवफाई नहीं कर सकते,’ उन के प्रति मेरे विश्वास की इस डोर ने ही शायद मुझे निश्ंिचत हो कर सोने का हौसला दिया और आज उन के बजाय मैं तकिए से ही लिपट कर सो गई.

आधी रात को जब आंख खुली तो मिलन बिस्तर पर नहीं थे. एक बार फिर मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा तो मैं ने स्टडीरूम में जा कर देखा. मिलन वहां भी नहीं थे. तभी निक्की के कमरे से पुरुष स्वर उभरा. कमरे में झांका तो जो दृश्य मैं ने देखा, उसे देख कर एक बार तो मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. मेरे पति मिलन निक्की के ऊपर पूरी तरह से झुके हुए थे. फिर उन की धीमी आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘निक्की, समझने की कोशिश करो. जब तक तुम्हारी बूआ यहां रहेंगी, हमें इसी तरह अलगअलग रहना होगा. तरु को जरा भी शक हो गया तो जानती हो क्या होगा?’’

इस पर निक्की का शिथिल स्वर उभरा, ‘‘जानती हूं, लेकिन आप से अलग हो कर मैं एक दिन भी तो नहीं जी सकूंगी.’’ मैं यों ही जड़वत खड़ी रह गई. मेरी बेचैन नजरें अपने पति पर ठहर गईं, जो अब भी सब से बेखबर हो कर निक्की को बेतहाशा चूम रहे थे. दुख, क्रोध और घृणा से तिलमिलाई मैं अपनी भावनाओं को अपने अंदर ही जज्ब कर के अपने कमरे मेें लौट आई थी.

मैं ने अपनी याददाश्त पर जोर दिया. पिछली बार जब मैं ने मिलन से निक्की के ब्याह की बात छेड़ी थी तो उसे सुनते ही मिलन भड़क उठे थे.

‘यों अचानक, निक्की को घर से निकालने की बात तुम्हें क्यों सूझी? पहले उसे किसी काबिल तो हो जाने दो. ब्याह तो कभी भी हो जाएगा.’

‘शादी की भी एक उम्र होती है मिलन. निक्की की उम्र अब उस के योग्य हो गई है. अच्छे रिश्ते नसीब से ही मिलते हैं.’

इस के बाद, श्रीचंद के बेटे सुशांत का बायोडाटा, जो भाभी ने कोरियर से हमें भेजा था, मैं ने मिलन के सामने रख दिया था. सुशांत ने एमए के बाद एमबीए किया था और अब एक मल्टीनैशनल कंपनी से उसे 7 लाख का पैकेज मिल रहा था. मिलन सुशांत का बायोडाटा मेज पर पटक कर बोले, ‘हम अपनी निक्की के लिए इस से अच्छा मैच ढूंढ़ेंगे.’ एम. ए. पास निक्की के लिए इस से अच्छा मैच और कौन सा हो सकता था? उस पर सब से बड़ी बात, दहेज की कोई मांग नहीं थी. इतना तो मिलन ने कभी अपनी बेटी सोनिया के लिए भी नहीं सोचा था, जितना वे निक्की के लिए सोच रहे थे.

मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब  निक्की को मैं गांव से पहलेपहल अपने घर लाई थी. निक्की की दादी यानी मेरी मां तो उसे मेरे साथ बिलकुल नहीं भेजना चाह रही थीं लेकिन मैं अपनी ही जिद पर अड़ी थी, ‘निकालो इसे इस दड़बे से और नई दुनिया देखने दो. कब तक इस गांव में रह कर यह यहां की भाषा बोलती रहेगी.’

मां तो आखिर तक विरोध करती रही थीं लेकिन भाभी मान गई थीं. अपने आधा दर्जन बच्चों में से किसी एक बच्चे का भी जीवन संवर जाए तो भला किस मां को आपत्ति होगी? निक्की को देखते ही मेरे सासससुर के माथे पर बल पड़ गए थे. किसी जरूरतमंद, दीनहीन, लाचार व्यक्ति को, अपने विशाल वटवृक्ष तले स्नेह और विश्वास से सींच कर आश्रय देने वाले मिलन भी सहज नहीं दिखाई दिए थे. ‘अम्मांबाबूजी की दवा और सोनिया की पढ़ाईलिखाई के खर्चे पूरे करतेकरते ही हम दोनों की आधी से ज्यादा पगार निकल जाती है. निक्की पर होने वाले अतिरिक्त खर्चे को कैसे बरदाश्त कर पाएंगे हम?’

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अम्मांबाबूजी के ताने सुनने की तो मैं शुरू से आदी हो गई थी लेकिन मिलन का रूखा व्यवहार बरदाश्त से बाहर था. मैं ने मिलन को तरकीब सुझाई कि कालेज से लौट कर मैं शाम के समय 3-4 ट्यूशन पढ़ा लूंगी. मिलन के चेहरे पर से तनाव की सुर्खी अब भी नहीं हटी थी. मैं ने फिर से अपनी बात पर जोर दिया.

‘मिलन, बड़ी भाभी के मुझ पर बहुत उपकार हैं. बाबूजी ने तो हमें मंझधार में छोड़ कर अपनी अलग दुनिया बसा ली थी. दूसरे दोनों भाई अपनीअपनी गृहस्थी में रम गए. यदि भाभी का कृपाहाथ मुझ पर न होता तो शायद मेरा अस्तित्व ही न होता. भैया की मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन हमेशा किया ही है.’ मिलन चुप हो गए थे.

शुरूशुरू में निक्की किसी से बात नहीं करती थी. जब तक मैं कालेज से वापस नहीं लौटती, वह एक ही कमरे में दुबकी रहती. सोनिया उसे खूब चिढ़ाती. कभी उसे अपने साथ खेलने पर मजबूर करती तो कभी उस की लंबी चोटी को झटक देती. एक दिन ऐसे ही सोनिया ताली  पीटपीट कर निक्की को चिढ़ा रही  थी. निक्की कभी मिलन को देखती, कभी मुझे निहारती. मिलन ने प्यार से जैसे ही उसे अपने पास बुलाया, निक्की उन के गले में झूल गई थी. मिलन देर तक उसे अपनी गोद में बिठा कर पुचकारते रहे. देर से ही सही, निक्की हमारे परिवार की सदस्य बन गई थी. स्कूल खुले तो हम ने निक्की का दाखिला सोनिया के ही स्कूल में करवा दिया था. उस की शक्लसूरत देख कर प्रिंसिपल ने पहले तो प्रवेश देने से साफ मना कर दिया था, लेकिन जब मैं ने स्वयं दिनरात मेहनत करने का भरोसा दिलाया तो वे मान गई थीं.

एक अच्छे पार्लर में जा कर मैं ने उस के बाल कटवा दिए. पुराने कपड़ों का स्थान नए कपड़ों ने ले लिया था. गांव की भाषा को छोड़ कर वह शुद्ध हिंदी बोलने लगी थी. रहने का सलीका धीरेधीरे उस के व्यक्तित्व का अंग बनने लगा. सोनिया में अद्भुत शैक्षणिक प्रतिभा थी. निक्की औसत छात्रा थी. हम ने उस के लिए एक मास्टर नियुक्त कर दिया था लेकिन उस का मन किताबों में रमता ही नहीं था. जितनी देर  सोनिया पढ़ती, वह ऊंघती रहती. उस का ध्यान भंग करने के लिए निक्की कभी किताब बंद कर देती, कभी पैनपैंसिल छिपा देती. एक दिन मैं ने उसे बुरी तरह झिड़क दिया, ‘कुछ देर तो मन लगा कर पढ़ा करो. सोनिया को देखा. डाक्टर बन गई और तुम थर्ड डिवीजन में 12वीं पास कर पाई हो. पता नहीं किसी कालेज में तुम्हें दाखिला मिलेगा भी या नहीं?’

मैं सिर्फ सोनिया की ही नहीं निक्की की भी मां थी और मां को तो हर पहलू से सोचना भी पड़ता है. मैं तो यही चाहती थी कि सोनिया की तरह निक्की भी आत्मनिर्भर बने. सोनिया की इंटर्नशिप समाप्त होते ही मिलन ने उस का विवाह अभिषेक से तय कर दिया. अभिषेक जितने सुंदर थे, उतना ही उन का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था. व्यवहार में सौम्यता और मृदुता छलकती थी. हंसीमजाक करते रहना उस के स्वभाव में शामिल था. पेशे से वरिष्ठ सर्जन भी थे.

सोनिया को मिलन का प्रस्ताव जरा भी नहीं भाया था. खूब रोई थी वह उस दिन, ‘पापा, मैं इतनी जल्दी विवाह नहीं करना चाहती.’ मिलन काफी परेशान हो गए थे. बारबार एक ही वाक्य दोहराते, ‘22 वर्ष की हो गई है सोनिया. विवाह की यही सही उम्र है. देर करने से अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाते हैं. तुम किसी तरह समझाबुझा कर उसे विवाह के लिए राजी करो?’ सोनिया अभिषेक के साथ विवाह कर के बेंगलुरु चली गई. दोनों ने मिल कर वहां नर्सिंग होम खोल लिया. सोनिया के ब्याह के बाद हम दोनों पतिपत्नी बिलकुल अकेले पड़ गए थे. मिलन बेटी को बेहद प्यार करते थे. गहन उदासी उन्हें चारों ओर से घेरे रहती. किसी काम में मन नहीं लगता था. निक्की ही उन के पास बैठ कर उन का मन बहलाती. उन के खानेपीने का ध्यान रखती. मिलन भी सोतेजागते, उठतेबैठते निक्की की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे. मैं अकसर मिलन से कहती, ‘एक बेटी विदा हुई तो दूसरी हमारे पास है. जब यह भी चली जाएगी तब क्या होगा?’

मिलन झील जैसी शांत शीतल निगाहें उठा कर, एक नजर मुझ पर डाल कर, हताशा के गहन अंधकार में डूब जाते. जीवन मंथर गति से चल रहा था. उन्हीं दिनों मैं ने कालेज से त्यागपत्र दे देने का अहम फैसला ले लिया. मिलन ने सुना तो मेरे फैसले का कस कर विरोध किया था.

‘अगले साल रिजाइन कर देना. तब तक मैं भी रिटायर हो जाऊंगा. एकसाथ घूमेंगेफिरेंगे. फिलहाल घर बैठ कर क्या करोगी?’

‘समाजसेवा करूंगी.’

मिलन चुप हो गए थे. मैं ने कई समाजसेवी संस्थाओं से संपर्क स्थापित किए और समाजसेवा के कार्यों में जुट गई. सुबह कुष्ठ आश्रम, दोपहर में अनाथ आश्रम. कभी समाज के निम्नवर्ग के उत्थान के लिए चंदा जमा करती, कभी गरीबों के प्रशिक्षणार्थ समाज के समर्थ लोगों से मिलती. ‘सोनिया तो अपनी ससुराल चली गई. अब तुम भी समाजसेवा के चक्कर में मुझ से दूर होती जा रही हो एक दिन मिलन ने शिकायत की.’

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‘यहीं तो हूं, तुम्हारे पास.’

‘कहां?’ मिलन मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लेते. मैं खुद को उन की बाहों की गिरफ्त से मुक्त करने का असफल प्रयास करती.

‘तुम भी तो हर समय दफ्तर के कामों में उलझे रहते हो. शाम को निक्की तुम्हारी देखभाल कर लेती है.’

‘और रात में?’

‘धत्,’ मिलन शरारत से पूछते तो मैं मुसकरा कर उन के सीने पर सिर रख देती. उन्हीं दिनों भाभी 2 दिन के लिए दिल्ली आई थीं. साथ में सुशांत का बायोडाटा भी लाई थीं. मुझे देखते ही हैरान रह गईं. ‘यह क्या हाल बना रखा है तुम ने, तरु? शरीर बेडौल होता जा रहा है. न ढंग से पहनती हो, न सजतीसंवरती हो,’ उन्होंने मेरे टूटेफूटे नाखून और फटी एडि़यों की तरफ इशारा करते हुए पूछा.

‘अब सजसंवर कर किसे दिखाना है, भाभी?’

‘पुरुष का मनोविज्ञान बड़ा ही विचित्र होता है तरु. जिस पत्नी के साथ उस ने अपने जीवन के इतने वसंत देखे, हर सुखदुख में उस का साथ निभाया, जो पहले उसे अच्छी लगती थी, अब एकाएक उस में कमियां नजर आने लगेंगी और वह उसे फूटी आंख नहीं सुहाएगी.’ तब मैं ने भाभी की बात को मजाक में टाल दिया था, लेकिन आज उम्र के इस पड़ाव पर महसूस हो रहा था, जैसे अपनेआप को पूरी तरह समर्पित करने के बाद भी मैं मिलन का मन नहीं पा सकी. वरना उन के कदम क्यों भटकते?  2 घंटे बाद मिलन वापस लौटे. रात भर हम दोनों पतिपत्नी दो किनारों की तरह अलगअलग लेटे रहे. 2 अजनबियों की तरह आपस में ही सिमटे रहे. बंद आंखों से मैं ने महसूस किया, मिलन के हाथ मेरी ओर बढ़ते, फिर वे खुद पर काबू पा लेते. चादर पर बिछे गुलाब के कांटे मिलन को छेद रहे थे. वे मुझे भी तकलीफ पहुंचा रहे थे.

सुबह तेज बारिश हो रही थी. तेज हवा के झोंकों से खिड़कियों, दरवाजों के खटकने का शोर सुनाई दिया, तो मेरी तंद्रा भंग हुई. अब मैं वास्तविकता के धरातल पर थी. बेमन से बिस्तर छोड़ कर खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. तभी निक्की के कमरे का दरवाजा खुला. हाथ में छोटा एअरबैग लिए वह मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘कहीं जा रही हो?’’ मैं ने नीचे से ऊपर तक उसे निहारा.

‘‘जी, अपनी सहेली के पास.’’

‘‘यों अचानक?’’

मैं जानती थी कि यह मिलन और निक्की की पूर्व नियोजित योजना थी. आज रात की फ्लाइट से सोनिया, बेंगलुरु से आ रही थी. दिल्ली में 2 दिन का उस का सेमिनार था. सोनिया जब भी आती, निक्की हमेशा इसी तरह घर छोड़ कर चली जाती है. मन पश्चात्ताप की आग में जल उठा था. कई बार हम सच को अस्वीकार कर उस से दूर क्यों भागते हैं? मुझे याद है, पिछली बार जब सोनिया आई थी तब निक्की यों ही बहाना बना कर अपनी सहेली के घर चली गई थी. मिलन के मोबाइल पर लगातार एसएमएस की ट्रिनट्रिन सुन कर सोनिया ने मोबाइल उठा लिया था.

‘पापा को इतने मैसेज कौन भेजता है, ममा?’

‘अरे, यों ही विज्ञापन कंपनी वाले परेशान करते रहते हैं,’ मैं ने लापरवाही से बात उछाल दी थी.

सोनिया एकएक कर के मैसेज पढ़ती चली गई.

‘ ‘आई लव यू’ ममा, इस उम्र में पापा को इतने हौट मैसेज कौन भेजता है? अच्छा, यह पढ़ो, ‘तकदीर ने मिलाया, तकदीर ने बनाया, तकदीर ने हम को आप से मिलाया. बहुत खुशनसीब थे वो पल, जब आप जैसे दोस्त इस जिंदगी में आए.’

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सोनिया की बातों पर मैं ने जरा भी ध्यान नहीं दिया था. इस में कोई संदेह नहीं कि मिलन में किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने का गुण है. रिटायरमैंट की उम्र तक पहुंच गए, लेकिन यौवन दूर नहीं गया. उन की आंखों में एक विशेष तरह की गहराई है. हर समय सलीके से कपड़े पहनते हैं. रात में भी परफ्यूम से सराबोर हो कर वे मुझे अपने आगोश में भींचते तो ब्याह के शुरुआती दिन मुझे याद आ जाते.

‘ओह, मिलन, इस उम्र में भी तुम्हें हर रात…’

‘इंसान को हमेशा जवान बने रहना चाहिए. अपने विचार ही तो बुढ़ापा लाते हैं.’

– क्रमश:

Serial Story: एक छत के नीचे (भाग-3)

चिंता सी हो रही थी कि सहेली के घर वह न जाने किस हाल में होगी. दूसरे, इसी बहाने से वह सोनिया से मिल भी लेगी. कौफी हाउस में डोसा खाते समय सोनिया ने दिल को छू लेने वाला विषय छेड़ दिया था, ‘‘‘ममा, आप ने ‘चीनी कम’ फिल्म देखी है? एक युवती अपने पिता की उम्र के प्रौढ़ से पे्रम करती है…’

‘‘हां, इसी विषय पर और कई फिल्में बनी हैं, ‘निशब्द’, ‘दिल चाहता है’ आदि.’’

‘‘ऐसा क्यों होता है, ममा?’’

‘‘उस वक्त प्रौढ़ और वह युवती, दोनों ही यह समझते हैं कि प्यार की कोई सीमारेखा नहीं होती. उन्हें यही लगता है कि प्यार तो कभी भी किसी से भी हो सकता है. युवती यह समझती है कि यह उस की जिंदगी है और इसे अपने तरीके से जीना उस का अधिकार है. उधर प्रौढ़ को भी अपनी युवा प्रेमिका से कोई उम्मीद तो होती नहीं, हालांकि प्रेमिका की उम्र के उस के बच्चे होते हैं, लेकिन प्यार के शुरुआती दिनों में वह इस बात को ज्यादा अहमियत नहीं देता और अपनी युवा प्रेमिका के साथ भरपूर मौज करना चाहता है. लेकिन एक दिन जब परिवारजनों को पता चलने पर उसे परिवार की तीखी निगाहों व आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है तो उस के पास पछताने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता. और वह युवती? क्या पूरी उम्र रखैल की भूमिका निभा सकती है? नहीं. कभी न कभी उस का संयम भी जवाब दे जाता है.’’

मैं ने चोर नजरों से निक्की और मिलन की ओर देखा. दोनों के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं. मैं भी सोनिया के सामने कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाह रही थी. सोनिया को एअरपोर्ट छोड़ कर हम वापस लौट ही रहे थे कि मिलन के मोबाइल पर एसएमएस आने शुरू हो गए. निश्चित रूप से ये मैसेज निक्की ही भेज रही थी. न जाने किस मिट्टी की बनी थी यह लड़की? सोच कर हंसी भी आ रही थी, आश्चर्य भी हो रहा था. मेरे ही प्यार से सींचा गया यह पौधा, फिर भी इस पौधे ने इतना अलग रूप कैसे ले लिया? घर में कदम रखते ही मैं ने मिलन से सीधेसपाट शब्दों में पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है?’’

‘‘किस बारे में?’’ मिलन बुरी तरह हड़बड़ा गए थे.

मैं चुपचाप उन का चेहरा निहारती रही तो वे बोले, ‘‘तरु, तुम तो तरु हो. तुम्हारे नाम की सार्थकता इसी में है कि दूसरों को अपनी शीतल छाया के नीचे शरण दो. निक्की को रहने दो इसी घर में. समाज के सामने तो हम दोनों पतिपत्नी ही रहेंगे न?’’

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कितना भयावह रूप था मिलन का? जिस पुरुष के नाम का सिंदूर मैं अपनी मांग में भरती आई थी, उसी पुरुष ने मुझे कितनी आसानी से पराया बना दिया? क्या देह इतनी बेलगाम हो सकती है कि नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ कर बेबुनियाद रास्ता अपना ले? अपमान की आग में चोट खाया मन, अंदर ही अंदर सुलगने लगा. अगर हालात से समझौता कर लूं तो क्या इतना सहज होगा रिश्तों में संतुलन बनाना? कभी न कभी सोनिया और अभिषेक मेरे मन की थाह पा ही लेंगे, फिर तो वे मिलन से नफरत ही करेंगे. मिलन मेरी और निक्की दोनों की जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहे थे. मिलन करवट बदल कर लेट गए थे. मैं जानती थी कि उन्हें थोड़ी देर में नींद आ जाएगी. इतना ही अंतर होता है पुरुष और स्त्री में. पुरुष रिश्तों को ध्वस्त कर के भी सामान्य हो जाता है और स्त्री रिश्तों के भरभरा कर गिरने पर खुद भी टूट कर बिखर जाती है. पुरुष, जिसे अग्नि को साक्षी मान कर साथ निभाने का वचन देता है, उसे भूल कर दूसरी नारी के साथ संबंध स्थापित करने में जरा नहीं सकुचाता.

कमरे में अंधेरा सा छाने लगा तो मैं ने खिड़की के परदे हटा दिए थे. सूरज ढलने के बाद, जो मरियल सा उजाला फैला होता है, वही हर ओर पसरा था. सोनिया के जाते ही मिलन मुक्ति पर्व मनाने लगे. अब वे बेझिझक निक्की के कमरे में घुस जाते. घंटों वहीं बैठे रहते. उसे उपहार देते, घुमाने ले जाते, फिल्में दिखाते. उस दिन मैं ने नाश्ते की मेज पर मिलन को बुलाया. उन के पीछेपीछे निक्की भी आ गई थी

‘‘एक बात पूछूं, मिलन? उस शाम यदि निक्की के स्थान पर सोनिया होती तो क्या तब भी आप ऐसा ही घृणित कृत्य करते?’’ निक्की की मौजूदगी में मैं उन से ऐसा सीधा सपाट प्रश्न करूंगी, कभी सोचा नहीं था मिलन ने. ऐसा निर्मम और अश्लील प्रस्ताव सुनने के बाद मिलन अपना चेहरा झुकाए चुपचाप बैठे रहे.

मेरे सीने में जो अपमान भरा था, उसे तिलतिल कर खाली करते हुए मैं ने पुन: वही प्रश्न दोहराया तो मिलन उठ खड़े हुए. निक्की के लिए यह स्थिति अप्रत्याशित सी थी. वह तो यही समझ रही थी कि ऐसे ही चलता रहेगा सबकुछ. जवानी की दहलीज पर कदम रखती तरुणी की जैसे कुछ भी सोचनेसमझने की शक्ति चुक गई थी. किसी ने उस का मार्गदर्शन भी तो नहीं किया था. वह फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘‘बस कीजिए, बूआ. मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा हूं.’’

‘‘सच हमेशा कड़वा होता है, निक्की. पर जैसे आदमी अस्वस्थ हो तो उसे कड़वी दवा पीनी पड़ती है, उसी तरह इंसान यदि गलती करता है तो उसे कड़वे बोल सुनने पड़ते हैं. इस घर की छत के नीचे रह कर दूसरी औरत बनने से कहीं अच्छा है सुशांत के साथ ब्याह कर उस की अर्धांगिनी बनो.’’ निक्की अपने कमरे में चली गई तो मिलन बौखला से गए. बोले, ‘‘कहीं निक्की कोई गलत कदम न उठा ले…’’

‘‘कुछ नहीं होगा. सुंदर, सुव्यवस्थित गृहस्थी में प्रवेश कर वह अपने अतीत को एक दुस्वप्न की तरह भुला देगी. मिलन, उसे अपनी जिंदगी जीने दो और तुम भी लौट आओ अपनी गृहस्थी में,’’ मेरे चेहरे पर दृढ़ता के भाव मुखर हो उठे. उस रात मिलन ने अपनी बांहों में मुझे कस कर भींचा तो लगा कि मैं दम ही तोड़ दूंगी. कितना सुखद था वह एहसास. अगले माह सुशांत से निक्की का विवाह हो गया. मैं ने अपने घर की टूटती दीवारों को बचा लिया था. मेरे चेहरे पर संतोष की रेखाएं घिर आई थीं.

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