अंतर्व्यथा: कैसी विंडबना में थी वह

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खाली जगह: क्या दूर हुआ वंदना का शक

तेजसिरदर्द होने का बहाना बना कर मैं रविवार की सुबह बिस्तर से नहीं उठी. अपने पति समीर की पिछली रात की हरकत याद आते ही मेरे मन में गुस्से की तेज लहर उठ जाती थी.

‘‘तुम आराम से लेटी रहो, वंदना. मैं सब संभाल लूंगा,’’ ऐसा कह कर परेशान नजर आते समीर बच्चों के कमरे में चल गए.

उन को परेशान देख कर मुझे अजीब सी शांति महसूस हुई. मैं तो चाहती ही थी कि मयंक और मानसी के सारे काम करने में आज जनाब को आटेदाल का भाव पता लग जाए.

अफसोस, मेरे मन की यह इच्छा पूरी नहीं हुई. उन तीनों ने बाहर से मंगाया नाश्ता कर लिया. बाद में समीर के साथ वे दोनों खूब शोर मचाते हुए नहाए. अपने मनपसंद कपड़े पहनने के चक्कर में उन दोनों ने सारी अलमारी उलटपुलट कर दी है, यह देख कर मेरा बहुत खून फूंका.

बाद में वे तीनों ड्राइंगरूम में वीडियो गेम खेलने लगे. उन के हंसनेबोलने की आवाजे मेरी चिढ़ व गुस्से को और बढ़ा रही थीं. कुछ देर बाद जब समीर ने दोनों को होम वर्क कराते हुए जोर से कई बार डांटा, तो मुझे उन का कठोर व्यवहार बिलकुल अच्छा नहीं लगा.

अपने मन में भरे गुस्से व बेचैनी के कारण मैं रात भर ढंग से सो नहीं सकी. इसलिए 11 बजे के करीब कुछ देर को मेरी आंख लग गई.

मेरी पड़ोसिन सरिता मेरी अच्छी सहेली है. समीर से उसे मालूम पड़ा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, तो उस ने अपने यहां से लंच भिजवाने का वादा कर लिया.

जब दोपहर 2 बजे के करीब मेरी आंख खुली तो पाया कि ये तीनों सरिता के हाथ का बना लंच कर भी चुके हैं. बच्चों द्वारा देखे जा रहे कार्टून चैनल की ऊंची आवाज मेरा गुस्सा और चिड़चिड़ापन लगातार बढ़ाने लगी थी.

‘‘टीवी की आवाज कम करोगे या मैं वहीं आ कर इसे फोड़ दूं?’’ मेरी दहाड़ सुनते ही दोनों बच्चों ने टीवी बंद ही कर दिया और अपनेअपने टैबलेट में घुए गए.

कुछ देर बाद समीर सहमे हुए से कमरे में आए और मुझ से पूछा, ‘‘सिरदर्द कैसा है, वंदना?’’

‘‘आप को मेरी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है और मुझे बारबार आ कर परेशान मत करो,’’ रूखे अंदाज में ऐसा जवाब दे कर मैं ने उन की तरफ पीठ कर ली.

शाम को मेरे बुलावे पर मेरी सब से अच्छी सहेली रितु मुझ से मिलने आई. कालेज

के दिनों से ही अपने सारे सुखदुख मैं उस के साथ बांटती आई हूं.

मुझे रितु के हवाले कर वे तीनों पास के पार्क में मौजमस्ती करने चले गए.

रितु के सामने मैं ने अपना दिल खोल कर रख दिया. खूब आंसू बहाने के बाद मेरा मन बड़ी हद तक हलका और शांत हो गया था.

फिर रितु ने मुझे समझने का काम शुरू किया. वह आधे घंटे तक लगातार बोलती रही. उस के मुंह से निकले हर शब्द को मैं ने बड़े ध्यान से सुना.

उस के समझने ने सचमुच जादू सा कर दिया था. बहुत हलके मन से मुसकराते हुए मैं ने घंटे भर बाद उसे विदा किया.

उस के जाने के 10 मिनट के बाद मैं ने समीर के मोबाइल का नंबर अपने मोबाइल से मिला कर बात करी.

‘‘पार्क में घूमने आई सुंदर लड़कियों को देख कर अगर मन भर गया हो, तो घर लौट आइए, जनाब,’’ मैं उन्हें छेड़ने वाले अंदाज में बोली.

‘‘मैं लड़कियों को ताड़ने नहीं बल्कि बच्चों के साथ खेलने आया हूं,’’ उन्होंने फौरन सफाई दी.

‘‘कितनी आसानी से तुम मर्द लोग झठ बोल लेते हो. जींस और लाल टौप पहन कर आई लंबी लड़की का पीछा जनाब की नजरें लगातार कर रही हैं या नहीं?’’

‘‘वैसी लड़की यहां है, पर मेरी उस में कोई दिलचस्पी नहीं है.’’

‘‘आप की दिलचस्पी अपनी पत्नी में तो

है न?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मैं सुबह से भूखी हूं. कुछ खिलवा दो, सरकार.’’

‘‘बोलो क्या खाओगी?’’

‘‘जो मैं कहूंगी, वह खिलाओगे?’’

‘‘श्योर.’’

‘‘अपने हाथ से खिलाओगे?’’

‘‘अपने हाथ से भी खिला देंगे, मैडम,’’ मेरी मस्ती भरी आवाज से प्रभावित हो कर उन की आवाज में भी खुशी के भाव झलक उठे थे.

‘‘मुझे हजरत गंज में जलेबियां खानी हैं.’’

‘‘मैं बच्चों को घर छोड़ कर तुम्हारे लिए जलेबी लाने चला जाऊंगा.’’

‘‘हम सब साथ चलते हैं.’’

‘‘तो तुम पार्क में आ जाओ.’’

‘‘मैं पार्क में आ चुकी हूं. आप बाईं तरफ  नजरे उठा कर जरा देखिए तो सही,’’ यह डायलौग बोल कर मैं ने फोन बंद किया और खिलखिला कर हंस पड़ी.

मेरी हंसी सुन कर उन्होंने बाईं तरफ गरदन घुमाई तो मुझे सामने खड़ा पाया. मयंक और मानसी ने मुझे देखा तो भागते हुए पास आए और मुझ से लिपट कर अपनी खुशी जाहिर करी.

‘‘तुम्हारी तबीयत कैसी है?’’ समीर ने मेरा हाथ पकड़ कर कोमल लहजे में पूछा.

‘‘वैसे बिलकुल ठीक है, पर भूख के मारे दम निकला जा रहा है. हजरत गंज की दुकान की तरफ चलें, स्वीटहार्ट?’’ उन के गाल को प्यार से सहला कर मैं हंसी तो वे शरमा गए.

मानसी और मयंक अभी कुछ देर और अपने दोस्तों के साथ खेलना चाहते थे. उन की देखभाल करने की जिम्मेदारी अपने पड़ोसी अमनजी के ऊपर डाल कर हम दोनों कार निकाल कर बाजार की तरफ  निकल लिए.

कुछ देर बाद जलेबियां मुझे अपने हाथ से खिलाते हुए वे खूब शरमा रहे थे.

‘‘तुम कभीकभी कैसे अजीब से काम कराने की जिद पकड़ लेती हो,’’ वो बारबार इधरउधर देख रहे थे कि कहीं कोई जानपहचान वाला मुझे यों प्यार से जलेबियां खिलाते देख न रहा हो.

‘‘मेरे सरकार, रोमांस और मौजमस्ती करने का कोई मौका इंसान को नहीं चूकना चाहिए,’’ ऐसा कह कर जब मैं ने रस में नहाई उन की उंगलियों को प्यार से चूमा तो उन की आंखों में मेरे लिए प्यार के भाव गहरा उठे.

बाजार से लौटते हुए मैं फिटनैस वर्ल्ड नाम के जिम के सामने रुकी और समीर से बड़ी मीठी आवाज में कहा, ‘‘इस जिम में मेरी 3 महीने की फीस के क्व10 हजार आप जमा करा दो, प्लीज.’’

‘‘तुम जिम जौइन करोगी?’’ उन्होंने हैरान हो कर पूछा.

‘‘अगर आप फीस जमा करा दोगे, तो जरूर यहां आना चाहूंगी.’’

‘‘कुछ दिनों में अगर तुम्हारा जोश खत्म हो गया, तो सारे पैसे बेकार जाएंगे.’’

‘‘यह मेरा वादा रहा कि मैं एक दिन भी नागा नहीं करूंगी.’’

‘‘इस वक्त तो मेरे पर्स में क्व10 हजार नहीं होंगे.’’

‘‘मैं आप की चैक बुक लाई हूं न,’’ अपना बैग थपथपा कर यह दर्शा दिया कि उन की चैक बुक उस में रखी हुई है.

‘‘पहले घर पहुंच कर इस बारे में अच्छी तरह से सोचविचार तो कर…’’

‘‘अब टालो मत,’’ मैं ने उन का हाथ

पकड़ा और जिम के गेट की तरफ बढ़ चली, ‘‘क्या मेरा शेप में आना आप को अच्छा नहीं लगेगा?’’

‘‘बहुत अच्छा लगेगा, लेकिन तुम अगर नियमित रूप से यहां…’’ड्ड

‘‘जरूर आया करूंगी,’’ मैं ने प्यार से उन का हाथ दबा कर उन्हें चुप करा दिया.

जिम की फीस जमा करा कर जब हम बाहर आ गए तो मैं ने उन्हें एक और झटका दिया, ‘‘अगले महीने मेरा जन्मदिन है और तब मुझे अपने लिए तगड़ी शौपिंग करनी है.’’

‘‘किस चीज की?’’ उन्होंने चौंक कर पूछा.

‘‘कई सारी नई ड्रैस खरीदनी हैं और आप को मेरे साथ चलना पड़ेगा. मैं वही कपड़े खरीदूंगी जो आप को पसंद आएंगे. वजन कम हो जाने के बाद मैं ऐसी ड्रैस पहनना चाहूंगी कि आप मुझे देख कर सीटी बजा उठें.’’

मेरे गाल पर प्यार से चुटकी काटते हुए वे बोले, ‘‘तुम्हारी बातें सुन कर आज मुझे

कालेज के दिनों की याद आ गई.’’

‘‘वह कैसे?’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘तुम उसी अंदाज में मेरे साथ फ्लर्ट कर रही हो जैसे शादी से पहले किया करती थी,’’ उन की आंखों में अपने लिए प्यार के गहरे भाव पढ़ कर मैं ने मन ही मन अपनी सहेली रितु को दिल से धन्यवाद दिया.

मेरे व्यवहार में आया चुलबुला परिवर्तन रितु के समझने का ही नतीजा था.

शाम को उस के आते ही मैं ने उसे वह सारी घटना अपनी आंखों में आंसू भर कर सुना दी जिस ने मेरे दिल को पिछली रात की पार्टी में बुरी तरह से जख्मी किया था.

उस ने समीर के प्रति मेरी सारी शिकायतें सुनी और फिर सहानुभूति दर्शाने के बजाय चुभते स्वर में पूछा, ‘‘मुझे यह बता कि पिछली बार तू सिर्फ समीर की खुशी के लिए कब बढि़या तरीके से सजधज कर तैयार हुई थी?’’

‘‘मैं नईनवेली दुलहन नहीं बल्कि 2 बच्चों की मां हो गई हूं. जब मेरे घर के काम ही नहीं खत्म होते तो सजनेसंवरने की फुरसत कहां से मिलेगी?’’ मैं ने चिढ़ कर उलटा सवाल पूछा.

‘‘फुरसत तुझे निकालनी चाहिए, वंदना. समीर से नाराज हो कर आज तूने खाना नहीं बनाया तो क्या तेरे बच्चे भूखे रहे?’’

‘‘नहीं, बाजार और मेरी सहेली सरिता की बदौलत इन तीनों ने डट कर पेट पूजा करी थी.’’

‘‘समीर ने रोतेझंकते हुए ही सही, पर बिना तेरी सहायता के दोनों बच्चों की देखभाल व उन्हें होमवर्क कराने का काम पूरा कर ही लिया था न.’’

‘‘तू कहना क्या चाह रही है?’’ मेरा मन उलझन का शिकार बनता जा रहा था.

‘‘यही कि इंसान की जिंदगी में कोई जरूरी काम रुकता नहीं है. समीर को तन

की सुखसुविधा के साथसाथ मन की खुशियां भी चाहिए. देख, अगर तू कुशल पत्नी की भूमिका निभाने के साथसाथ उस के दिल की रानी बन कर नहीं रहेगी, तो उस खाली जगह को कोई और स्त्री भर सकती है. कोई जवाब है तेरे पास इस सवाल का कि सिर्फ 33 साल की उम्र में क्यों इतनी बेडौल हो कर तूने अपने रूप का सारा आकर्षण खो दिया है?’’

‘‘बच्चे हो जाने के बाद वजन को कंट्रोल में रखना आसान नहीं होता है,’’ मैं ने चिढ़े लहजे में सफाई दी.

‘‘अगर समीर की खुशियों को ध्यान में रख कर दिल से मेहनत करेगी, तो तुम्हारा वजन जरूर कम हो जाएगा. तू मेरे एक सवाल का जवाब दे. कौन स्वस्थ पुरुष नहीं चाहेगा कि उस की जिंदगी में सुंदर व आकर्षक दिखने वाली स्त्री न हो?’’

मुझ से कोई जवाब देते नहीं बना तो वह भावुक हो कर बोली, ‘‘तू मुझ से अभी वादा कर कि तू फिर से अपने विवाहित जीवन में रोमांस लौटा लाएगी. घर की जिम्मेदारियां उठाते हुए भी अपने व्यक्तित्व के आकर्षण को बनाए रखने के प्रति सजग रहेगी.’’

उस की आंखों में छलक आए आंसुओं ने मुझे झकझेर दिया. उस के समझने का ऐसा असर हुआ कि इस मामले में मुझे अपनी कमी साफ नजर आने लगी थी.

‘‘रितु, मैं अब से अपने रखरखाव का पूरा ध्यान रखूंगी. कोई शिखा कल को इन की जिंदगी में आ कर मेरी जगह ले, इस की नौबत मैं कभी नहीं आने दूंगी. थैंक यू, मेरी प्यारी सहेली,’’ उस के गले लग कर मैं ने अपने अंदर बदलाव लाने का दिल से वादा कर लिया.

समीर और मैं बड़े अच्छे मूड में घर पहुंचे. कुछ देर बाद मानसी और मयंक भी अमनजी के घर से लौट आए.

मैं ने सब को बहुत जायकेदार पुलाव बना कर खिलाया. समीर को अपने साथ किचन में खड़ा रख मैं उन से खूब बतियाती रही थी.

खाना खाते हुए समीर ने मेरी प्लेट में थोड़ा सा पुलाव देख कर पूछा, ‘‘तुम आज इतना कम क्यों खा रही हो?’’

‘‘इस चरबी को कम करने के लिए अब से मैं कम ही खाया करूंगी. महीने भर बाद मेरी फिगर तुम्हारी किसी भी सहेली की फिगर से कम आकर्षक नहीं दिखेगी,’’ मैं ने बड़े स्टाइल से उन के सवाल का जवाब दिया.

‘‘मेरी कोई सहेली नहीं है,’’ उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘रखो मेरे सिर पर हाथ कि तुम्हारी कोई सहेली नहीं है,’’ मैं ने उन का हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रख लिया.

‘‘मैं सच कहता हूं कि मेरी कोई सहेली

नहीं है,’’ उन्होंने सहजता से जवाब दिया तो मैं किलस उठी.

‘‘तो कल रात की पार्टी में बाहर लौन में अपने साथ काम करने वाली उस चुड़ैल शिखा का हाथ पकड़ कर क्या उसे रामायण सुना रहे थे?’’ मेरे दिलोदिमाग में पिछली रात से हलचल मचा रही शिकायत आखिरकार मेरी जबान पर आ ही गई.

‘‘ओह, तो क्या अब तुम मेरी जासूसी करने लगी हो?’’ उन्होंने माथे में बल डाल कर पूछा.

‘‘जी नहीं, जब आप उस के साथ इश्क लड़ा रहे थे, तब मैं अचानक से खिड़की के पास ठंडी हवा का आनंद लेने आई थी.’’

‘‘तुम जानना चाहेगी कि मैं ने उस का हाथ क्यों पकड़ा हुआ था?’’ वे बहुत गंभीर नजर आने लगे थे.

‘‘मुझे आप के मुंह से मनघड़ंत कहानी नहीं सुननी है. बस, आप मेरी एक बात

कान खोल कर सुन लो. अगर आप ने उस के साथ इश्क का चक्कर चला कर मुझे रिश्तेदारों व परिचितों के बीच हंसी का पात्र बनवा कर अपमानित कराया, तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ भावावेश के कारण मेरी अवाज कांप रही थी.

उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर कोमल लहजे में कहा, ‘‘अपने फ्लैट की डाउन पेमेंट करने के लिए जो 5 लाख रुपए कम पड़ रहे थे, उन्हें हम उधार देने के लिए शिखा ने अपने पति को तैयार कर लिया है. कल रात मैं शिखा का हाथ पकड़ कर उसे हमारी इतनी बड़ी हैल्प करने के लिए धन्यवाद दे रहा था और तुम न जाने क्या समझ बैठी. क्या तुम मुझे कमजोर चरित्र वाला इंसान मानती हो?’’

उन का आहत स्वर मुझे एकदम से शर्मिंदा कर गया, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए, प्लीज,’’ उन का मूड बहुत जल्दी से ठीक करने के लिए मैं ने फौरन उन से हाथ जोड़ कर माफी मांग ली.

‘‘आज इतनी आसानी से तुम्हें माफी नहीं मिलेगी,’’ मेरा हाथ चूमते हुए उन की आंखों में शरारत के भाव उभर आए.

‘‘तो माफी पाने के लिए मुझे क्या करना पड़ेगा?’’ मैं ने इतराते हुए पूछा.

मेरे कान के पास मुंह ला कर उन्होंने अपने मन की जो इच्छा जाहिर करी, उसे सुन कर मैं शरमा उठी. उन्होंने प्यार दिखाते हुए मेरे गाल पर चुंबन भी अंकित कर दिया तो मैं जोर से लजा उठी.

मानसी और मयंक की शरारत भरी नजरों का सामना करने के बजाय मैं ने समीर की छाती से लिपट जाना ही बेहतर समझ.

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प्रहरी: भाग 1- क्या समझ पाई सुषमा

विभा रसोई में भरवां भिंडी और अरहर की दाल बनाने की तैयारी कर रही थी. भरवां भिंडी उस के बेटे तपन को पसंद थी और अरहर की दाल की शौकीन उस की बहू सुषमा थी. इसीलिए सुषमा के लाख मना करने पर भी वह रसोई में आ ही गई. सुषमा और तपन को अपने एक मित्र के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में जाना था और उस के लिए उपहार भी खरीदना था. सो, दोनों घर से जल्दी निकल पड़े. जातेजाते सुषमा बोली, ‘‘मांजी, ज्यादा काम मत कीजिए, थोड़ा आराम भी कीजिए.’’

विभा ने मुसकरा कर सिर हिला दिया और उन के जाते ही दरवाजा बंद कर दोबारा अपने काम में लग गई. जल्दी ही उस ने सबकुछ बना लिया. दाल में छौंकभर लगाना बाकी था. कुछ थकान महसूस हुई तो उस ने कौफी बनाने के लिए पानी उबलने रख दिया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. जैसे ही विभा ने दरवाजा खोला, सुषमा आंधी की तरह अंदर घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जा कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. विभा अवाक खड़ी देखती ही रह गई.

सिर झुकाए धीमी चाल से चलता तपन भी पीछेपीछे आया. उस का भावविहीन चेहरा देख कुछ भी अंदाजा लगाना कठिन था. विभा पिछले महीने ही तो यहां आई थी. किंतु इस दौरान में ही बेटेबहू के बीच चल रही तनातनी का अंदाजा उसे कुछकुछ हो गया था. फिर भी जब तक बेटा अपने मुंह से ही कुछ न बताए, उस का बीच में दखल देना ठीक न था. जमाने की बदली हवा वह बहुत देख चुकी थी. फिर भी न जाने क्यों इस समय उस का मन न माना और वह सोफे पर बैठे, सिगरेट फूंक रहे तपन के पास जा बैठी.

तपन ने सिगरेट बुझा दी तो विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या हुआ है?’’ ‘‘कुछ भी नहीं,’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘कोई नई बात तो है नहीं…’’

‘‘वह तो मैं देख ही रही हूं, इसीलिए आज पूछ बैठी. यह रोजरोज की खींचतान अच्छी नहीं बेटा, अभी तुम्हारे विवाह को समय ही कितना हुआ है? अभी से दांपत्य जीवन में दरार पड़ जाएगी तो आगे क्या होगा?’’ विभा चिंतित सी बोली.

‘‘यह सब तुम मुझे समझाने के बजाय उसे क्यों नहीं समझातीं मां?’’ कह कर तपन उठ कर बाहर चला गया, जातेजाते क्रोध में दरवाजा भी जोर से ही बंद किया. विभा परेशान हो उठी कि तपन को क्या होता जा रहा है? बड़ी मुश्किल से तो वे लोग उस की रुचि के अनुसार लड़की ढूंढ़ पाए थे. उस ने तमाम गुणों की लिस्ट बना दी थी कि लड़की सुंदर हो, खूब पढ़ीलिखी हो, घर भी संभाल सके और उस के साथ ऊंची सोसाइटी में उठबैठ भी सके, फूहड़पन बिलकुल न हो आदिआदि.

कुछ सोचते हुए विभा फिर रसोई में चली गई. कौफी का पानी खौल चुका था. उस ने 3 प्यालों में कौफी बना ली. बाथरूम में पानी गिरने की आवाज से वह समझ गई कि सुषमा मुंह धो रही होगी, सो, उस ने आवाज लगाई, ‘‘सुषमा आओ, कौफी पी लो.’’ ‘‘आई मांजी,’’ और सुषमा मुंह पोंछतेपोंछते ही बाहर आ गई.

कौफी का कप उसे पकड़ाते विभा ने उस की सूजी आंखें देखीं तो पूछा, ‘‘क्या हुआ था, बेटी?’’ सुषमा सोचने लगी, पिछले पूरे एक महीने से मां उस के व तपन के झगड़ों में हमेशा खामोश ही रहीं. कभीकभी सुषमा को क्रोध भी आता था कि क्या मां को तपन से यह कहना नहीं चाहिए कि इस तरह अपनी पत्नी से झगड़ना उचित नहीं?

‘‘बताओ न बेटी, क्या बात है?’’ विभा का प्यारभरा स्वर दोबारा कानों में गूंजा तो सुषमा की आंखें छलछला उठीं, वह धीरे से बोली, ‘‘बात सिर्फ यह है कि इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं है.’’ ‘‘यह कैसी बात कर रही हो?’’ विभा बेचैनी से बोली, ‘‘पति अपनी पत्नी पर विश्वास न करे, यह कभी हो सकता है भला?’’

‘‘यह आप उन से क्यों नहीं पूछतीं, जो भरी पार्टी में किसी दूसरे पुरुष से मुझे बातें करते देख कर ही बौखला उठते हैं और फिर किसी न किसी बहाने से बीच पार्टी से ही मुझे उठा कर ले आते हैं, भले ही मैं आना न चाहूं. मैं क्या बच्ची हूं, जो अपना भलाबुरा नहीं समझती?’’ विभा की समझ में बहुतकुछ आ रहा था. तसवीर का एक रुख साफ हो

चुका था.अपनी सुंदर पत्नी पर अपना अधिकार जमाए रखने की धुन में पति का अहं पत्नी के अहं से टकरा रहा था. वह प्यार से बोली, ‘‘अच्छा, तुम कौफी पियो, ठंडी हो रही है. मैं तपन को समझाऊंगी,?’’ यह कह कर विभा रसोई में चली गई. कुकर का ढक्कन खोल दाल छौंकी तो उस की महक पूरे घर में फैल गई. तभी तपन भी अंदर आया और बिना किसी से कुछ बोले कौफी का कप रसोई से उठा कर अंदर कमरे में चला गया.

रात को जब तीनों खाना खाने बैठे, तब भी तपन का मूड ठीक नहीं था. इधर सुषमा भी अकड़ी हुई थी. वह डब्बे से रोटी निकाल कर अपनी व विभा की प्लेट में तो रखती, लेकिन तपन के आगे डब्बा ही खिसका देती. एकाध बार तो विभा चुप रही, फिर बोली, ‘‘बेटी, तपन की प्लेट में भी रोटी निकाल कर रखो.’’ इस पर सुषमा ने रोटी निकाल कर पहले तपन की प्लेट में रखी तो उस का तना हुआ चेहरा कुछ ढीला पड़ा.

खाने के बाद विभा रोज कुछ देर घर के सामने ही टहलती थी. सुषमा या तपन में से कोई एक उस के साथ हो लेता था. उन दोनों ने उसे यहां बुलाया था और दोनों चाहते थे कि जितने दिन विभा वहां रहे, उस का पूरा ध्यान रखा जाए. इसीलिए जब विभा ने बाहर जाने के लिए दरवाजा खोला तो पांव में चप्पल डाल कर तपन भी साथ हो लिया.

कुछ दूर तक मौन चलते रहने के बाद विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या तुम पार्टी से जबरदस्ती जल्दी ले आए थे?’’ ‘‘मां, अच्छेबुरे लोग सभी जगह होते हैं. सुषमा जिस व्यक्ति के साथ बातें किए जा रही थी उस के बारे में दफ्तर में किसी की भी राय अच्छी नहीं है. दफ्तर में काम करने वाली हर लड़की उस से कतराती है. अब ऐसे में सुषमा का इतनी देर तक उस के साथ रहना…और ऊपर से वह नालायक भी ‘भाभीजी, भाभीजी’ करता उस के आगेपीछे ही लगा रहा, क्योंकि कोई और लड़की उसे लिफ्ट ही नहीं दे रही

‘‘मां, अब तुम ही बताओ, मेरे पास और क्या उपाय था, सिवा इस के कि मैं उसे वहां से वापस ले आता. उसे खुद भी तो अक्ल होनी चाहिए कि ऐसेवैसों को ज्यादा मुंह न लगाया करे. किसी भी बहाने से वह उस के पास से हट जाती तो भला मैं पार्टी बीच में छोड़ कर उसे जल्दी क्यों लाता?’’ तपन के स्वर में कुछ लाचारी थी, तो कुछ नाराजगी. विभा मन ही मन मुसकराई कि सुंदर पत्नी की चाह सभी को होती है, किंतु कभीकभी खूबसूरती भी सिरदर्द बन जाती है. वह बोली, ‘‘चलो छोड़ो, जाने दो. धीरेधीरे समझ जाएगी. तुम ही थोड़ा सब्र से काम लो,’’ और विभा घर की ओर पलट पड़ी.

ममता: भाग 1- कैसी थी माधुरी की सास

माधुरी को आज बिस्तर पकड़े  8 दिन हो गए थे. पल्लव के मित्र अखिल के विवाह से लौट कर कार में बैठते समय अचानक पैर मुड़ जाने के कारण वह गिर गई थी. पैर में तो मामूली मोच आई थी किंतु अचानक पेट में दर्द शुरू होने के कारण उस की कोख में पल रहे बच्चे की सुरक्षा के लिए उस के पारिवारिक डाक्टर ने उसे 15 दिन बैड रैस्ट की सलाह दी थी.

अपनी सास को इन 8 दिनों में हर पल अपनी सेवा करते देख उस के मन में उन के प्रति जो गलत धारणा बनी थी एकएक कर टूटती जा रही थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि मनोविज्ञान की छात्रा होने के बाद भी वह अपनी सास को समझने में चूक कैसे गई?उसे 2 वर्ष पहले का वह दिन याद आया जब मम्मीजी अपने पति पंकज और पुत्र पल्लव के साथ उसे देखने आई थीं. सुगठित शरीर के साथ सलीके से बांधी गई कीमती साड़ी, बौबकट घुंघराले बाल, हीरों का नैकलेस, लिपस्टिक तथा तराशे नाखूनों में लगी मैचिंग नेलपौलिश में वे बेहद सुंदर लग रही थीं. सच कहें तो वे पल्लव की मां कम बड़ी बहन ज्यादा नजर आ रही थीं तथा मन में बैठी सास की छवि में वह कहीं फिट नहीं हो पा रही थीं. उस समय उस ने तो क्या उस के मातापिता ने भी सोचा था कि इस दबंग व्यक्तित्व में कहीं उन की मासूम बेटी का व्यक्तित्व खो न जाए. वह उन के घर में खुद को समाहित भी कर पाएगी या नहीं. मन में संशय छा गया था लेकिन पल्लव की नशीली आंखों में छाए प्यार एवं अपनत्व को देख कर उस का मन सबकुछ सहने को तैयार हो गया था.

यद्यपि उस के मातापिता उच्चाधिकारी थे, किंतु मां को सादगी पसंद थी, उस ने उन्हें कभी भी गहनों से लदाफदा नहीं देखा था. वे साड़ी पहनती तो क्या, सिर्फ लपेट लेती थीं. लिपस्टिक और नेलपौलिश तो उन्होंने कभी लगाई ही नहीं थी. उन के अनुसार उन में पड़े रसायन त्चचा को नुकसान पहुंचाते हैं. वैसे भी उन्हें अपने काम से फुरसत नहीं मिलती थी.पापा को अच्छी तरह से रहने, खानेपीने और घूमने का शौक था. उन की  पैंटशर्ट में तो दूर रूमाल में भी कोई दागधब्बा रहने पर वे आसमान सिर पर उठा लेते थे. खानेपीने तथा घूमने का शौक भी मां के नौकरी करने के कारण पूरा नहीं हो पाया था, क्योंकि जब मां को छुट्टी मिलती थी तब पापा को नहीं मिल पाती थी और जब पापा को छुट्टी मिलती तब मां का कोई अतिआवश्यक काम आ जाता था. उन के घर रिश्तेदारों का आना भी बंद हो गया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि यहां आने पर मेजबान की परेशानियां बढ़ जाती हैं तथा उन्हें व्यर्थ की छुट्टी लेनी पड़ती है.

अत: वे भी कह देते थे, जब आप लोगों का मिलने का मन हो तब आ कर मिल जाइए.मां का अपने प्रति ढीलापन देख कर पापा टोकते तो वे बड़ी सरलता से उत्तर देतीं, ‘व्यक्ति कपड़ों से नहीं, अपने गुणों से पहचाना जाता है और यह भी एक सत्य है कि आज मैं जो कुछ हूं अपने गुणों के कारण हूं.’ वेएक प्राइवेट संस्थान में पर्सनल मैनेजर थीं. कभीकभी औफिस के काम से उन्हें टूर पर भी जाना पड़ता था. घर का काम नौकर के जिम्मे था, वह जो भी बना देता सब वही खा लेते थे. मातापिता का प्यार क्या होता है उसे पता ही नहीं था. जब वे छोटी थीं तब बीमार होने पर उस ने दोनों में इस बात पर झगड़ा होते भी देखा था कि उस की देखभाल के लिए कौन छुट्टी लेगा? तब वह खुद को अत्यंत ही उपेक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि उस की किसी को जरूरत ही नहीं है.मां अत्यंत ही महत्त्वाकांक्षी थीं. यही कारण था कि दादी के बारबार यह कहने पर कि वंश चलाने के लिए बेटा होना ही चाहिए, उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन का कहना था कि आज के युग में लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया है.

बस, परवरिश अच्छी तरह से होनी चाहिए लेकिन वे अच्छी तरह परवरिश भी कहां कर पाई थीं? जब तक दादी थीं तब तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन उन के बाद वह नितांत अकेली हो गई थी. स्कूल से लौटने के बाद घर उसे काटने को दौड़ता था, तब उसे एक नहीं अनेक बार खयाल आया था कि काश, उस के साथ खेलने के लिए कोई भाई या बहन होती.माधुरी को आज भी याद है कि हायर सेकेंडरी की परीक्षा से पहले मैडम सभी विद्यार्थियों से पूछ रही थीं कि वे जीवन में क्या बनना चाहते हैं? कोई डाक्टर बनना चाहता था तो कोई इंजीनियर, किसी की रुचि वैज्ञानिक बनने में थी तो कोई टीचर बनना चाहता था. जब उस की बारी आई तो उस ने कहा कि वह हाउस वाइफ बनना चाहती है. सभी विद्यार्थी उस के उत्तर पर खूब हंसे थे. तब मैडम ने मुसकराते हुए कहा था, ‘हाउस वाइफ के अलावा तुम और क्या बनना चाहोगी?’ उस ने चारों ओर देखते हुए आत्मविश्वास से कहा था, ‘घर की देखभाल करना एक कला है और मैं वही अपनाना चाहूंगी.’उस की इस इच्छा के पीछे शायद मातापिता का अतिव्यस्त रहना रहा था और इसी अतिव्यस्तता के कारण वे उस की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाए थे और शायद यही कारण था कि वह अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए पल्लव की तरफ आकर्षित हुई थी, जो उस की तरह कालेज में बैडमिंटन टीम का चैंपियन था.

वे दोनों एक ही क्लब में अभ्यास के लिए जाया करते थे. खेलतेखेलते उन में न जाने कब जानपहचान हो गई, पता ही न चला. उस से बात करना, उस के साथ घूमना उसे अच्छा लगने लगा था. दोनों साथसाथ पढ़ते, घूमते तथा खातेपीते थे, यहां तक कि कभीकभी फिल्म भी देख आते थे, पर विवाह का खयाल कभी उन के मन में नहीं आया था. शायद मातापिता के प्यार से वंचित उस का मन पल्लव के साथ बात करने से हलका हो जाता था.‘यार, कब तक प्यार की पींगें बढ़ाता रहेगा? अब तो विवाह के बंधन में बंध जा,’ एक दिन बातोंबातों में पल्लव के दोस्त शांतनु ने कहा था. क्या एक लड़की और लड़के में सिर्फ मित्रता नहीं हो सकती. यह शादीविवाह की बात बीच में कहां से आ गई?’ पल्लव ने तीखे स्वर में कहा था.‘मैं मान ही नहीं सकता. नर और मादा में बिना आकर्षण के मित्रता संभव ही नहीं है. भला प्रकृति के नियमों को तुम दोनों कैसे झुठला सकते हो? वह भी इस उम्र में,’ शांतनु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा.शांतनु तो कह कर चला गया, किंतु नदी की शांत लहरों में पत्थर फेंक गया था. पिछली बातों पर ध्यान गया तो लगा कि शांतनु की बातों में दम है, जिस बात को वे दोनों नहीं समझ सके या समझ कर भी अनजान बने रहे, उस आकर्षण को उस की पारखी निगाहों ने भांप लिया था.

Top 10 Best Father’s Day Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट फादर्स डे कहानियां हिंदी में

Father’s Day Story in Hindi: एक परिवार की सबसे अहम कड़ी हमारे माता-पिता होते हैं. वहीं मां को हम जहां अपने दिल की बात बताते हैं तो वहीं पिता हमारे हर सपने को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं. हालांकि वह अपने दिल की बात कभी शेयर नहीं कर पाते. हालांकि हमारा बुरा हो या अच्छा, हर वक्त में हमारे साथ चट्टान बनकर खड़े होते हैं. इसीलिए इस फादर्स डे के मौके पर आज हम आपके लिए लेकर आये हैं गृहशोभा की 10 Best Father’s Day Story in Hindi, जिसमें पिता के प्यार और परिवार के लिए निभाए फर्ज की दिलचस्प कहानियां हैं, जो आपके दिल को छू लेगी. साथ ही आपको इन Father’s Day Story से आपको कई तरह की सीख भी मिलेगी, जो आपके पिता से आपके रिश्तों को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौकिन हैं तो पढ़िए Grihshobha की Best Father’s Day Story in Hindi 2022.

1. Father’s Day 2022: दूसरा पिता- क्या दूसरे पिता को अपना पाई कल्पना

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पति के बिना पद्मा का जीवन सूखे कमल की भांति सूख चुका था. ऐसे में कमलकांत का मिलना उस के दिल में मीठी फुहार भर गया था. दोनों के गम एकदूसरे का सहारा बनने को आतुर हो उठे थे. परंतु …

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2. Father’s day 2022: फादर्स डे- वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

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नाजुक हालात कहें या वक्त का तकाजा पर फादर्स डे पर हुई उस एक घटना ने वरुण और मेरे बीच एक खामोश दीवार खड़ी कर दी थी. इस बार उस दीवार को ढहाने का काम हम दोनों में से किसी को तो करना ही था.

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3. Father’s day 2022: अब तो जी लें

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पिता के रिटायरमैंट के बाद उन के जीवन में आए अकेलेपन को दूर करने के लिए गौरव व शुभांगी ने ऐसा क्या किया कि उन के दोस्त भी मुरीद हो गए…

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4. Father’s day 2022: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

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गुंजन व रवि ने अपने मातापिता की खुशियों के लिए एक ऐसा प्लान बनाया कि उन के चेहरे की चमक एक बार फिर वापस लौट आई. आखिर क्या था उन दोनों का प्लान?

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5. Father’s Day 2022: वह कौन थी- एक दुखी पिता की कहानी?

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स्वार्थी बेटेबहू ने पिता अमरनाथ को अनजान शहर में भीख मांगने के लिए छोड़ दिया था. व्यथित अमरनाथ की ऐसे अजनबी ने गैर होते हुए भी विदेश में अपनों से ज्यादा सहयोग और सहारा दिया.

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6. Father’s Day 2022: त्रिकोण का चौथा कोण

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जीवनरूपी शतरंज के सभी मुहरों को अपनी मरजी से सैट करने वाले मोहित को किसी के हस्तक्षेप का अंदेशा न था. लेकिन उस के बेटे ने जब ऐसा किया तो क्या हुआ.

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7. Father’s Day 2022: पापा जल्दी आ जाना- क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

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पापा से बातबात पर मम्मी झगड़तीं जबकि मनोज नाम के व्यक्ति के साथ खूब हंसतीबोलती थीं. नटखट निकी को यह अच्छा नहीं लगता था. समय वह भी आया जब पापा को मम्मी से दूर जाना पड़ा.

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8. Father’s day 2022: पापा मिल गए

father story in hindi

शादी के बाद बानो केवल 2-4 दिन के लिए मायके आई थी. उन दिनों सोफिया इकबाल से बारबार पूछती, ‘‘मेरी अम्मी को आप कहां ले गए थे? कौन हैं आप?’’

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9. Father’s day 2022: बाप बड़ा न भैया- पिता की सीख ने बदली पुनदेव की जिंदगी

father story in hindi

5 बार मैट्रिक में फेल हुए पुनदेव को उस के पिता ने ऐसी राह दिखाई कि उस ने फिर मुड़ कर देखा तक नहीं. आखिर ऐसी कौन सी राह सुझाई थी उस के पिता ने.

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10. Father’s Day 2022: परीक्षाफल- क्या चिन्मय ने पूरा किया पिता का सपना

father story in hindi

मानव और रत्ना को अपने बेटे चिन्मय पर गर्व था क्योंकि वह कक्षा में हमेशा अव्वल आता था, उन का सपना था कि चिन्मय 10वीं की परीक्षा में देश में सब से अधिक अंक ले कर उत्तीर्ण हो.

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रिश्तों का सच: क्या सुधर पाया ननद-भाभी का रिश्ता

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बंजर जमीन: क्या हुआ था जगदीश के साथ

शाम को जब मैं कोर्ट से लौटा तो जैसे घर में सब मेरा ही इंतजार कर रहे थे. स्कूटर की आवाज सुन कर बिट्टू और नीरू दौड़ कर बाहर आ गए. मैं स्कूटर खड़ा भी नहीं कर पाया था कि बिट्टू लपक कर मेरे पास आ गया और उत्साहित हो कर बताने लगा, ‘‘पापा, आप को मालूम है?’’ मैं ने स्कूटर की डिग्गी से केस फाइल निकालते हुए पूछा, ‘‘क्या, बेटा?’’ ‘‘वह पिंकी के पापा हैं न…’’ ‘‘हां, उन्हें क्या हुआ?’’ ‘‘उन्होंने नई कार खरीदी है. देखिए न उधर, वह खड़ी है. कितना अच्छा कलर है.’’

मैं ने दाहिनी ओर मुड़ कर देखा. बगल वाले फ्लैट के सामने नई चमचमाती कार खड़ी थी. तब तक नीरू भी पास आ गई थी. वह आगे की जानकारी देते हुए बोली, ‘‘पापा, नए मौडल की कार है. पिंकी बता रही थी. बहुत महंगी है.’’ ‘‘अच्छा,’’ मैं ने भी बच्चों की खुशी में शामिल होते हुए आश्चर्य प्रकट किया. बिट्टू और करीब आ गया और मुझ से लिपटते हुए बोला, ‘‘मैं तो पिंकी के साथ कार में बैठा भी था. अंकल हम दोनों को घुमाने ले गए थे. खूब मजा आया. उन्होंने हमें मिठाई भी खिलाई,’’ फिर मचलते हुए बोला, ‘‘पापा, हम लोग भी कार खरीदेंगे न?’’ मैं ने बिट्टू को गोद में उठा लिया और प्यार करते हुए कहा, ‘‘जरूर खरीदेंगे.’’ फिर मैं भीतर चला गया और थोड़ी देर तक बच्चों को प्यार से तसल्ली देता रहा. मेरे आश्वासन पर दोनों खुश हो गए और उछलतेकूदते बाहर खेलने चले गए.

कोट उतार कर हैंगर पर लटका दिया, फिर सोफे पर पसरते हुए सविता को आवाज लगाई, ‘‘सविता, एक कप चाय लाना.’’ सविता को भी शायद मेरा ही इंतजार था. बच्चों के साथ बात करते हुए उस ने सुन लिया था, इसीलिए चाय का पानी शायद पहले ही चूल्हे पर चढ़ा चुकी थी. चाय की ट्रे सामने टेबल पर रख कर वह मेरे करीब बैठते हुए बोली, ‘‘आप ने तो बच्चों के मुंह से सुन लिया होगा और बगल वाले फ्लैट के बाहर देखा भी होगा. गौतम भाईसाहब ने नई कार खरीदी है. उन की पत्नी दोपहर में कार खरीदने की खुशी में मिठाई दे गई हैं.’’ फिर मिठाई मेरी ओर सरकाते हुए एक लंबी सांस लेती हुई बोली, ‘‘लीजिए, मुंह मीठा कीजिए, आप के दोस्त ने नई गाड़ी खरीदी है,’’ वाक्य का अंतिम छोर जानबूझ कर लंबा खींचा गया था, ताकि मैं समझ जाऊं कि सूचना के साथसाथ मेरे लिए एक उलाहना भी है.

मैंने मिठाई का एक टुकड़ा उठाया और अनमने से मुंह में डाल लिया. सविता चाय का कप मेरी ओर बढ़ाते हुए बोली, ‘‘आप को पता है, कालोनी में हमारे अलावा बाकी सब के पास कार है,’’ ‘‘यानी कि हमीं लोग बेकार हैं?’’ मैं ने हंसने की कोशिश की. ‘‘छोडि़ए भी, यह मजाक की बात नहीं है. आप ने कभी भी मेरी बात को गंभीरता से लिया है?’’ ‘‘क्यों नहीं लिया, मैं भी तो कोशिश कर रहा हूं कि कार जल्दी ही खरीद ली जाए, मगर…’’ ‘‘बसबस, रहने दीजिए, आप तो बस, कोशिश ही करते रहेंगे, कालोनी में सब के यहां कार आ चुकी है.’’ ‘‘जरूर आ चुकी है, मगर तुम जानती हो, वे सब व्यापारी या सरकारी अफसर हैं, लेकिन मैं तो एक साधारण सा वकील हूं. फिर भी…’’ ‘‘छोटे देवरजी कौन से व्यापारी हैं?

साधारण से डाक्टर ही तो हैं, फिर भी देवरानी को कार में घूमते हुए 2 साल हो गए और आप हैं कि…’’ ‘‘अरे, क्या बात करती हो…जीतू, मेरा छोटा भाई, एक काबिल सर्जन है. 10 सालों में उस ने कितना नाम कमा लिया है.’’ ‘‘छोड़ो भी, आप को भी तो वकालत करते 15 साल हो गए हैं, मगर अभी तक लेदे कर एक फ्लैट ही तो खरीद पाए हैं.’’ ‘‘ऐसा न कहो. सबकुछ तो है अपने पास. टीवी, फ्रिज, एसी, कूलर, स्कूटर, वाश्ंिग मशीन, गहने, कपड़े…’’ ‘‘ठीक है, ठीक है. ये चीजें तो सब के यहां होती हैं. जरा सोचिए, आप कार में कोर्ट जाएंगे तो लोगों पर रोब पड़ेगा और बच्चे भी काफी खुश होंगे.’’ ‘‘हूं, तुम ठीक कहती हो,’’ मैं ने सहमति में सिर हिलाया. फिर अलमारी के लौकर से बैंक की पासबुक निकाल लाया, ‘‘सविता, बैंक खाते में 1 लाख रुपए हैं, चाहें तो पुरानी गाड़ी खरीद सकते हैं.’’ ‘‘नहीं प्रेम, पुरानी गाड़ी नहीं लेंगे. गाड़ी तो नई ही होनी चाहिए.’’ ‘‘ठीक है. फिर तो और रुपयों की व्यवस्था करनी होगी.’’

मैं सोच में डूब गया. पत्नी भी कुछ देर तक सोचती रही. फिर जैसे अचानक कुछ याद आ गया हो, मेरे करीब आते हुए बोली, ‘‘आप के नाम से तो गांव में कुछ जमीन भी है न?’’ ‘‘हां, 5-6 एकड़ के करीब है तो सही, मगर बाबूजी के नाम से है. अगर कहूं तो वे उसे कल ही मेरे नाम कर देंगे.’’ ‘‘जमीन कितने की होगी?’’ ‘‘पता नहीं, वहां जा कर ही मालूम होगा.’’ सविता खुश हो गई, ‘‘फिर क्या सोचना, बेच दीजिए इस जमीन को.’’ ‘‘सो तो ठीक है, मगर इतने सालों बाद गांव जा कर यह सब करना क्या उचित होगा? जगदीश भैया क्या सोचेंगे?’’ ‘‘सोचेंगे क्या, हम उन की जमीन थोड़े ही ले रहे हैं. अपने हिस्से की जमीन बेचेंगे. वैसे भी बेकार ही तो पड़ी है.’’ समस्या का हल निकल चुका था. बस, थोड़े दिनों के लिए गांव जा कर यह सब निबटा देना था.

अब तो मुझे भी एक अदद कार के लालच ने उत्साहित कर दिया था. रात को खाना खाने के बाद जब मैं अगली पेशी में लगने वाले केसों की फाइल देख रहा था, तब भी मन बारबार गांव और वहां की जमीन में उलझा रहा. पता नहीं दिमाग में कार की बात इस कदर क्यों समा गई थी कि दूसरे विषयों में जी नहीं लग रहा था. मैं ने जब से वकालत शुरू की थी, कभी गांव के बारे में सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं की. कभीकभी बाबूजी खुद ही शहर चले आते थे और दोचार दिन यहां रह कर फिर गांव वापस चले जाते थे. उन्होंने अपनी जरूरतों या गांवघर की खोजखबर लेते रहने के बारे में अपने मुंह से कभी कुछ नहीं कहा था. जगदीश भैया गांव में रहते थे, वहीं प्राइमरी स्कूल में मास्टर थे. वे बीए ही कर पाए थे, इसलिए कोई विशेष नौकरी मिलने की संभावना नहीं थी. जैसेतैसे मास्टरी मिल गई थी.

गांव में पुराना मकान था. जगदीश भैया उस घर में परिवार सहित रहते थे. जमीन 15 एकड़ बची थी और हम 3 भाई थे, इसलिए बाबूजी ने मौखिक रूप से 5-5 एकड़ जमीन हम तीनों भाइयों के बीच बांट दी थी. चूंकि मैं और जीतू यानी डा. जितेंद्र प्रसाद शहर में ही रह रहे थे, इसलिए खेतीबारी जगदीश भैया ही देखते थे. सुबह उठते ही मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘परसों रविवार है, गांव चला जाता हूं और जमीन का सौदा कर आता हूं.’’ वह यह बात सुन कर खिल उठी. रविवार की सुबह मैं जल्दी तैयार हो गया. बैग में दोचार कपड़े डाले और नाश्ता करने के बाद स्कूटर ले कर गांव के लिए निकल पड़ा. रास्ते में बसंतपुर पड़ता था, जहां के सेठ हर्षद भाई मनसुख भाई का बिक्रीकर संबंधी मामला मेरे ही पास था. सो सोचा, चलतेचलते अपनी फीस भी वसूल करता चलूं, यही सोच कर हर्षद भाई की राइस मिल के सामने स्कूटर रोक दिया. हर्षद भाई अपने कर्मचारियों के बीच मशगूल थे. मुझे स्कूटर से उतरते देख नजदीक आते हुए बोले, ‘‘आइएआइए, तशरीफ लाइए,’’ कहते हुए मुझे साथ ले कर अपने औफिस की ओर बढ़ गए. वे चाय मंगवाने के बाद बोले, ‘‘वकील साहब, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ ‘‘बस हर्षद भाई, नीमखेड़ा तक जा रहा हूं. 2 दिनों तक कोर्ट बंद है, सोचा, थोड़ा गांव तक हो आऊं.’’ ‘‘अच्छा है.

अब आप यहां तक आए हैं तो अपनी पुरानी फीस भी लेते जाइए,’’ फिर पैसा निकाल कर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘‘पूरे 7 हजार रुपए हैं, गिन लीजिए.’’ रुपए कोट की जेब के हवाले करते हुए मैं ने कहा, ‘‘अरे, इस में देखना क्या है, ठीक ही होंगे,’’ हंसते हुए मैं आगे बढ़ गया. लगभग 76 किलोमीटर की पक्की सड़क थी, इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई. शेष 5 किलोमीटर का रास्ता कच्चा था. गांव की गलियों को पार करते हुए जब घर के सामने स्कूटर रोका तो आवाज सुन कर 3-4 बच्चे बाहर निकल आए और उत्सुकताभरी नजरों से मेरी ओर देखने लगे. बच्चों को गली की ओर दौड़ते देख उन की मां भी दरवाजे तक निकल आईं. मुझे देखते ही आश्चर्य से बोल उठीं, ‘‘देवरजी, आप. सविता भी आई है क्या? अच्छाअच्छा, आओ, अंदर आओ,’’ फिर बच्चों से बोलीं, ‘‘बबलू, राजू तुम्हारे प्रेम चाचा आए हैं, रायपुर वाले. देखते क्या हो, इन का सामान अंदर ले आओ.’’

बच्चों का मेरा परिचय मिल गया था. वे लपक कर स्कूटर से मेरा बैग उठा लाए और ‘चाचाजी आ गए, चाचीजी आ गए,’ कहते हुए आंगन की ओर दौड़ने लगे. वर्षों बाद गांव आया था, शायद 10 वर्षों के बाद. इतने वर्षों में बहुत कुछ बदल गया था. पुराना मकान, जहां हम भाईबहनों का बचपन बीता था, अब गिर चुका था. उस के स्थान पर 3 कमरों का एकमंजिला, जिस की दीवारें मिट्टी की और छत खपरैलों की बनी थी. सामने बरामदे से लगा हुआ एक बड़ा सा कमरा था, जहां से किसी के खांसने की आवाज आ रही थी. मैं उसी कमरे की ओर बढ़ गया. बाबूजी तख्त पर लेटे हुए थे. मुझे देख वे उठने की कोशिश करने लगे. सिरहाने रखी बनियान को गले में डाल कर बिस्तर पर रखे अपने चश्मे को ढूंढ़ने लगे. चश्मा चढ़ा लेने पर मुझे पहचानने की कोशिश करते हुए बोले, ‘‘कौन…प्रेम?’’ ‘‘जी, बाबूजी, मैं प्रेम ही हूं.’’ ‘‘आओ बेटे, आओ, इधर पास बैठो.’’ मैं उन के करीब बैठ गया.

बाबूजी मुझे कमजोर लगे रहे थे. खांसते समय सारा शरीर हिल उठता था. उन की कमजोर काया और चेहरे पर उभरी झुर्रियों को देख कर एकबारगी मैं घबरा उठा. अपनेआप को संयत करने की कोशिश में इधरउधर देखने लगा. कमरा खालीखाली सा था. तख्त से लगी हुई लकड़ी की पुरानी 3 कुरसियां रखी हुई थीं, जिन के हत्थे उखड़ चुके थे. कमरे के एक कोने में ईंटों के ऊपर 2 संदूक रखे हुए थे. पास की दीवार में एक खुली अलमारी बनी हुई थी, जिस में एक पुराना ट्रांजिस्टर, दवाइयों की कुछ भरी और कुछ खाली शीशियां, कागजों में लिपटी कुछ पुडि़यां, आईना और एक कंघी रखी हुई थी. दीवार पर लगी खूंटियों पर 2 थैले तथा बाबूजी की कमीज टंगी हुई थी.

अलगनी पर बाबूजी की धोती सूख रही थी, जिसे देख पुरानी बात याद आ गई. एक दिन बाबूजी जब हमारे यहां पौधों को पानी दे रहे थे तो नीरू की नजर उन की कमीज पर पड़ गई थी. कमीज जेब के पास से कुछ फटी हुई थी. नीरू ने पूछ लिया, ‘दादाजी आप की कमीज तो फटी हुई है.’ बच्ची की बात सुन बाबूजी ने अपनी फटी कमीज की ओर देखा और खूबसूरती से बात घुमाते हुए हंस कर बोले, ‘बेटे, यह कमीज फटी नहीं है. गांव में सभी ऐसी ही कमीज पहनते हैं. यह तो गांवों का फैशन है.’ बच्ची तो संतुष्ट हो गई थी, मगर बाबूजी अपनेआप को तसल्ली न दे सके थे और शायद तभी से ही उन्होंने अपने कमजोर हाथों से कपड़ों पर पैबंद लगाने शुरू कर दिए थे. बाबूजी को फिर खांसी आ गई थी. मैं ने पूछा, ‘‘आप की तबीयत ठीक नहीं लगती?’’ ‘‘नहीं रे, तबीयत तो ठीक है, बस, खांसी कभीकभी परेशान करती है.’’ ‘‘कोई दवाई ली?’’ ‘‘हां, ले रहा हूं. जगदीश बराबर खयाल रखता है.

2 दिन पहले ही तो दवाई ला कर दी है.’’ फिर जैसे उन्हें याद हो आया हो, कहने लगे, ‘‘तुम अकेले ही आए हो या बहू भी आई है?’’ ‘‘मैं अकेला ही आया हूं. एक केस के सिलसिले में बसंतपुर आया था. कल और परसों कोर्ट बंद है, तो सोचा, गांव होता जाऊं.’’ ‘‘बहुत अच्छा किया, बिट्टू और नीरू कैसे हैं?’’ ‘‘ठीक हैं, बाबूजी.’’ हम बातें कर ही रहे थे कि रानू आ गया और कहने लगा, ‘‘चाचाजी, आप नहा लीजिए.’’ तभी बाबूजी बोले, ‘‘जाओ, नहा लो.’’ आंगन के उस पार कुआं था और उस के पास ही ईंटों की दीवारें उठा कर उस पर टीन का शेड और टीन का ही दरवाजा लगा कर स्नानघर बनाया गया था. नहाते समय मुझे अपने फ्लैट के चमचमाते बाथरूम की याद आ गई.

मैं नहाधो कर तैयार हो गया. तब तक रसोईघर में खाना तैयार हो चुका था. रसोईघर भी क्या, बस बरामदे के ही एक छोर को मिट्टी की दीवार से घेर कर कमरे की शक्ल दे दी गई थी. भाभी दरी बिछाती हुई बोलीं, ‘‘प्रेम भैया, आओ बैठो, मैं खाना लगाती हूं.’’ मैं दरी पर बैठ गया. थाली परोसते हुए भाभी बोलीं, ‘‘फर्श पर बैठते हुए अजीब सा लग रहा होगा न? क्या करें, मेज वगैरह तो है नहीं.’’ ‘‘नहीं भाभी, कोईर् परेशानी नहीं है, सब ठीक है.’’ खाना तो साधारण था, मगर जिस स्नेह से परोसा जा रहा था, उस से आनंद आ गया. अब तक मैं घर के सभी कमरे, साजोसामान और जानवर वगैरह देख चुका था. कहीं पर भी मुझे संपन्नता की कोई निशानी नजर नहीं आई थी. अलबत्ता अपनेपन की महक हर ओर मौजूद थी. शाम को 4 बजे जगदीश भैया स्कूल से आ गए.

मुझे देखते ही उन के चेहरे पर खुशी छा गई. साइकिल बरामदे की दीवार से टिकाते हुए बोले, ‘‘कितने वर्षों बाद आया है, घर में सब कैसे हैं?’’ ‘‘ठीक हैं,’’ मेरा छोटा सा उत्तर था. आंगन में खाट बिछा कर उन्होंने मुझे बैठने का इशारा किया, फिर बबलू को आवाज लगाते हुए बोले, ‘‘बेटे, अपनी मां से कहो कि यहां 2 कप चाय लेती आए.’’ चाय पीने के बाद भैया बोले, ‘‘प्रेम, चलो, आज मैं तुम्हें खेतों पर ले चलता हूं. जमीनजायदाद की लड़ाई तो तुम ने अदालत में बहुत देखी होगी और लड़ी भी होगी, परंतु खेत क्या चाहते हैं, इसे अब स्वयं देखना.’’ खेतों के पास पहुंच कर फसलों के बीच खेत में जगदीश भैया बताने लगे, ‘‘प्रेम, ये हैं हम लोगों के खेत. यह सामने वाला खेत तुम्हारे हिस्से का है. इस की मिट्टी जीतू और मेरे हिस्से के खेत से अच्छी है. वह नाले के पास भी है, इसलिए इस में सिंचाई भी अच्छी होती है. मेरे पास बैलों की एक जोड़ी ही है न, इसलिए पूरी जमीन को जोत नहीं पाता.

15 एकड़ में से 10-12 एकड़ में ही खेती कर पाता हूं, शेष जमीन पड़ी रह जाती है. फसल का अच्छा होना भी पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर करता है. समय पर पानी बरस गया और कीड़ेमकोड़ों का प्रकोप न हुआ तो अनाज खलिहान तक पहुंचता है, नहीं तो हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी खाद और बीज तक की रकम वसूल नहीं होती.’’ थोड़ी देर रुक कर वे आगे बताने लगे, ‘‘बाबूजी बताते हैं कि दादाजी के जमाने में बस्ती से ले कर नाले तक की जमीन हमारी थी और यहां से वहां तक फसल लहलहाती थी. अब तो मात्र 15 एकड़ जमीन है, उस में भी पूरी जमीन पर फसल नहीं उगा पाता. बाबूजी की बड़ी इच्छा है कि पूरे 15 एकड़ जमीन में हरीभरी फसल लहलहाए, अगर एक जोड़ी बैल और खरीद सकता तो…’’ मेरे मुंह से अचानक निकल पड़ा, ‘‘बैलों की जोड़ी कितने में आती होगी?’’ ‘‘अच्छी जोड़ी तो 20-25 हजार रुपए से कम में नहीं आएगी.’’ मैं ने खेतों पर दूर तक नजर डाली.

किनारे की 2-3 एकड़ जमीन बंजर पड़ी थी, शेष हिस्से में गेहूं की फसल पकने को थी. थोड़ी देर बाद हम वहां से लौट आए. रात को खाना खाने के बाद मैं आंगन में खाट पर लेटा हुआ था. आसमान साफ था, दूरदूर तक चांदनी छिटकी हुई थी. रहरह कर मन में यही विचार उठता था कि अपने हिस्से की जमीन के बारे में बाबूजी और जगदीश भैया से कैसे कह सकूंगा? क्या मैं इतना स्वार्थी हो गया हूं? नहींनहीं, यह मुझ से नहीं हो सकेगा. दूसरे दिन सुबह घर का नौकर फिरतू कुछ सौदा लेने जामगांव के बाजार जा रहा था. मुझे भी बाजार जाना था, इसलिए उस से कहा, ‘‘फिरतू, चल बैठ स्कूटर के पीछे, जामगांव मैं भी जा रहा हूं.’’ ‘‘नहीं मालिक, मैं पैदल चला जाऊंगा.’’ ‘‘अरे, डरता क्यों है, बैठ पीछे.’’ वह झिझकते हुए पिछली सीट पर बैठ गया. 15-20 मिनट में हम बाजार पहुंच गए.

मैं ने स्कूटर पेड़ के नीचे खड़ा कर दिया और फिरतू को ले कर मवेशी बाजार की ओर बढ़ गया. थोड़ी देर की छानबीन और जांचपड़ताल के बाद बैलों की एक जोड़ी पसंद आ गई. साढ़े 23 हजार रुपए में सौदा पक्का हो गया. मैं ने कोट की जेब से रुपए निकाल कर बैलों के मालिक को कीमत का भुगतान कर दिया. फिरतू बैलों की जोड़ी देख कर खुशी से झूमने लगा. मैं ने फिरतू को बाकी सौदा खरीद लाने को कहा. जब वह सामान ले कर वापस आया तो मैं बैलों की रस्सी उसे थमाते हुए बोला, ‘‘फिरतू, तुम बैलों को ले कर गांव चले जाओ, मैं थोड़ी देर बाद आता हूं.’’ बाजार से वापस आ कर मैं जगदीश भैया के साथ बैठा चाय पी रहा था. इतने में बैलों की रस्सी थामे फिरतू भी आ गया, बैल देख कर जगदीश भैया चकित हो गए, कुतूहलवश पूछने लगे, ‘‘क्यों रे फिरतू, बैलों की जोड़ी किस की है?’’

‘‘अपनी ही है, वकील साहब ने खरीदी है.’’ जगदीश भैया को विश्वास नहीं हो रहा था, वे मेरी ओर मुड़ कर बोले, ‘‘क्यों प्रेम?’’ ‘‘भैया, बैलों की जोड़ी पसंद आ गई थी और संयोग से जेब में पैसे भी थे, इसलिए खरीद लाया. कहिए, जोड़ी कैसी है?’’ जगदीश भैया की आंखें खुशी से चमकने लगीं. झटपट उठ कर बैलों के एकदम पास चले गए. फिर दोनों बैलों की पीठ पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘वाह, क्या शानदार जोड़ी है. महंगी भी होगी? लेकिन तुम ने यह सब…’’ ‘‘कुछ नहीं भैया, कल खेतों को देखा तो लगा कि जमीन का कोईर् भी टुकड़ा बंजर नहीं रहना चाहिए.’’

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हिसाब किताब- भाग 3: क्यों बदल गई थी भाभी

‘‘मैं रोजरोज की किचकिच से ऊब चुका हूं. बेहतर होगा हम इस मकान को बेच कर अलग हो जाएं.’’

यह सुन कर मैं सन्न रह गया. मुझे सपने में भी भान नहीं था कि भैया पिताजी की विरासत के प्रति इस कदर निर्मम होंगे. आदमी जानवर पालता है तो उस से भी मोह हो जाता है. यहां तो पिताजी के सपनों का आशियाना था. इस से कितनी यादें हम लोगों की जुड़ी थीं. कितने कष्टों को झेल कर उन्होंने यह मकान बनवाया था. किराए के मकान में रह कर उन्होंने बहुत परेशानी झेली थी. 10 किराएदारों के बीच सुबह 4 बजे ही मम्मीपापा को उठना पड़ता था ताकि सब से पहले पानी भर सकें. साझा बाथरूम अलग सिरदर्द था. चीलकौओं को पानी देने वाला समाज व्यवहार में भैया जैसा ही होता है. लिहाजा, मैं ने मन मार कर उन के फैसले पर मुहर लगा दी.

मकान बिकने के बाद भैया ने दीदी को फूटी कौड़ी भी न दी. मामा ने मुझे सलाह दी कि अगर बड़े भैया गैरजिम्मेदार हो गए हैं तो तुम अपनी जिम्मेदारी निभाओ. उन्हीं के कहने पर मैं ने 50 हजार रुपए दीदी को पापा के हक के नाम कर दे दिए. उन्होंने भरसक मना किया. यहां तक कि रिश्तों की कसम देने की कोशिश की मगर मैं टस से मस नहीं हुआ. जीजाजी थोड़े रुष्ट हुए, कहने लगे, ‘किस चीज की हमारे पास कमी है. उस धन पर तुम दोनों भाइयों का हक है.’ भले ही उन्होंने मना किया पर मैं ससुराल वालों की मानसिकता को जानता था. पीठपीछे सासससुर जरूर ताना मारते. थोड़े रुपयों के लिए मैं नहीं चाहता था कि उन का सिर नीचा हो.

मैं एक किराए के मकान में रहने लगा. वक्त ने मुझे काफीकुछ सिखा दिया. दीदी के प्रयासों से मेरी शादी हो गई. मेरी शादी में भैया की तरफ से कोई नहीं आया. मैं ने भी मनुहार नहीं की. जब उन्हें अपने फर्ज की याद नहीं रही तो मैं क्यों पहल करूं. 10 साल गुजर गए. इस बीच भैयाभाभी का थोड़बहुत हालचाल अन्य स्रोतों से मिलता रहा. 1 लड़की पहले से ही थी, 2 और हो गईं. वे 3 बच्चियों के पिता बन गए. शायद यही वजह रही जो उन्हें शराब की लत लग गई. लड़कियों को पढ़ालिखा कर आत्मनिर्भर बनाने की जगह जिम्मेदारियों से भागने का उन का यह तरीका मुझे कायराना लगा. एक दिन दीदी से खबर लगी कि उन की हालत बेहद खराब है. वे अस्पताल में भरती हैं. मैं सपरिवार उन्हें देखने गया. भाभी ने हमें खास तवज्जुह न दी. उलटे उलाहना देने लगीं कि इस संकट की घड़ी में किसी ने साथ नहीं दिया. चाहता तो मैं भी कह सकता था कि आप ने कौन सा रिश्ता निभाया? कभीकभार दीदी उन से मिलने जातीं तो इन का मुंह टेढ़ा ही रहता.

भैया किसी तरह ठीकठाक हुए इस चेतावनी के साथ कि अगर उन्होंने शराब नहीं छोड़ी तो निश्चय ही उन का गुर्दा खराब हो सकता है, फिर उन्हें कोई भी नहीं बचा पाएगा. भाभी सहम गईं. वे इस कदर कमजोर हो गए थे कि ठीक से उठबैठ नहीं सकते थे. औफिस कहने के लिए जाते. उन से कोई काम हो नहीं पाता था. पीने की लत अभी भी नहीं छूटी थी. शाम पी कर घर आते तो लड़ाईझगड़ा करते. वे हद दरजे के चिड़चिड़े हो गए थे. अपनी लड़कियों को फूटी आंख भी देखना पसंद नहीं करते थे. जबकि उन की बड़ी बेटी ही उन की देखभाल करने में आगे रहती थी. वे उन्हें हमेशा लताड़ते रहते. कहते कि तुम लोग मेरे लिए बोझ हो. उन्हें एक पुत्र की आस थी. 3 पुत्रियां ही हुईं.

एक दिन उन के पेट में फिर दर्द उठा. डाक्टर के पास ले गए तो उस ने वही पुरानी नसीहत दी मगर भैया पर कोई असर नहीं पड़ा. शराब ने उन्हें बुरी तरह तोड़ दिया था. एक हफ्ते औफिस नहीं गए. जा कर करते भी क्या? एक दिन साहब ने भाभी को बुलाया, ‘‘मैडम, काम नहीं तो तनख्वाह कैसी?’’

यह सुन कर भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. साहब ने उन की परेशानी भांप ली. एक रास्ता सुझाया, ‘‘आप कितनी पढ़ी हैं?’’

‘‘इंटर.’’

‘‘नियमानुसार ठीक तो नहीं मगर मानवता के नाते मैं एक रास्ता सुझाता हूं. आप इन की जगह यहां आ कर 10 से 5 बजे तक ड्यूटी करें.

‘‘काम बेहद आसान है. आप को सिर्फ लिफाफों पर मुहर लगानी है व फाइलों को इधर से उधर ले जाना है.’’

भाभी राजी हो गईं. इस तरह घर में भैया की देखभाल बड़ी बेटी करती और वे नौकरी. भैया की देखभाल की वजह से बड़ी बेटी की पढ़ाईलिखाई हमेशाहमेशा के लिए छूट गई.? इन्हीं झंझावतों के बीच एक दिन खबर आई कि भैया नहीं रहे. सुन कर मुझे तीव्र आघात लगा. मैं अपनी बीवीबच्चों के साथ आया. भाभी का रोरो कर बुरा हाल था. तीनों लड़कियों के भी आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. एक तरह से वे असहाय हो गए थे. मेरी पत्नी ने ढाढ़स बंधाया. ‘सब ठीक हो जाएगा.’

वे अपना रुदन रोक बोलीं, ‘‘मैं अकेली औरत 3-3 बेटियों को ले कर कैसे पहाड़ जैसी जिंदगी काटूंगी? कैसे इन की शादी होगी?’’

मैं ने अपनी ओर से आश्वासन दिया कि भैया की कमी भरसक पूरी करने की कोशिश करूंगा. 15 दिन बाद जब मैं सपत्नी वापस आने लगा तो भाभी रुंधे कंठ से बोलीं, ‘‘अगर सब एकसाथ होते तो अच्छा होता. कम से कम बुरे वक्त में एकदूसरे के करीब होते. एकदूसरे के काम आते.’’ मुझे मौका मिला अपने भीतर वर्षों से जमे जज्बातों को उड़ेलने का. किंचित भावुक स्वर में बोला, ‘‘भाभी, नौकरी के दरम्यान मृत्यु होने पर सरकार, उन के आश्रितों को अनुकंपा के आधार पर इसलिए नौकरी देती है कि परिवार आर्थिक समस्या से न जूझे और वे अपने परिवार की जिम्मेदारियों को वैसे ही निभाएं जैसे मृतक. क्या भैया ने वैसा किया? उन्होंने तो नौकरी पा कर ऐसे मुख मोड़ लिया, जैसे उन्हें यह नौकरी उन की योग्यता पर मिली हो. वे यह भूल गए कि यह नौकरी उन्हें पिताजी की अधूरी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए मिली थी, न कि अपना घर बसा कर ऐश करने के लिए.’’ भाभी चुप थीं. क्या जवाब देतीं? आज विपत्ति आई है तब सब की याद आई. जब उन का सब ठीकठाक था तो मुझे ठीक से खाना तक नहीं देती थीं. बिजली के बिल तक का हिसाब लेती थीं. आज परिस्थिति प्रतिकूल हुई तो पता चला कि जिंदगी का हिसाबकिताब कितना जटिल होता है. क्या उन के पास इस जटिल हिसाब का कोई समाधान है? शायद नहीं.

खुशियों की दस्तक: क्या कौस्तुभ और प्रिया की खुशी वापस लौटी

Family Story in Hindi

बंटवारा: क्या सुधर पाए शिखा के मामा

सिख होने के कारण ही मामाजी विवेक के साथ शिखा की शादी करने में आनाकानी कर रहे थे. लेकिन धर्म के आधार पर दिलों को नहीं बांटा जा सकता है, इस बात का आभास मामाजी को सरदार हुकम सिंह के घर नीरू को देख कर हुआ जो वर्षों पहले उठे धार्मिक उन्माद के तूफान में कहीं खो गई थी.

बचपन में वह मामाजी की गोद में चाकलेट, टाफी के लिए मचलती थी. वही उस की उंगली पकड़ कर पार्क में घुमाने ले जाते थे.सरकस, सिनेमा, खेलतमाशा, मेला दिखाने का जिम्मा भी उन्हीं का था. स्कूल की बस छूट जाती तो मां डांटने लगती थीं, पर यह मामाजी ही थे जो कार स्टार्ट कर पोर्च में ला कर हार्न बजाते और शिखा जान बचा कर भागतीहांफती कार में बैठ जाती थी.

‘बहुतबहुत धन्यवाद, मामाजी,’ कहते हुए वह मन की सारी कृतज्ञता, सारी खुशी उड़ेल देती थी. मामाजी का अपना घरपरिवार कहां था? न पत्नी, न बच्चे. शादी ही नहीं की थी उन्होंने. मस्ती से जीना और घुमक्कड़ी, यही उन का जीवन था.

खानदानी जमींदार, शाही खर्च, खर्चीली आदतें. मन आता तो शिखा के यहां चले आते या मुंबई, दिल्ली, कोलकाता घूमने निकल जाते…धनी, कुंआरा, बांका युवक…लड़कियों वाले मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगते, पर जाने क्या जिद थी कि उन्होंने शादी के लिए कभी ‘हां’ न भरी.

मां समझातेसमझाते हार गईं. रोधो भी लीं, पर जाने कौन सी रंभा या उर्वशी  खुभी थी आंखों में कि कोई लड़की उन्हें पसंद ही न आती. फिर मांबाप भी नहीं रहे सिर पर. बस, छोटी बहन यानी शिखा की मां थी. उसी का परिवार अब उन का अपना परिवार था.

उम्र निकल गई तो रिश्ते आने भी बंद हो गए, पर बहन फिर भी जोड़तोड़ बिठाती रहती थी. सोचती थी कि किसी तलाकशुदा स्त्री से ही उन का विवाह हो जाए. पर मामाजी जाने कौन सी मिट्टी के घड़े थे. अब तो खैर बालों में चांदी भर गई थी. बच्चों की शादी का समय आ गया था.

शिखा के पिता व्यापार के सिलसिले में घर से बाहर ही रहते थे. बच्चों की हारीबीमारी, रोनामचलना, जिदें सब मामाजी ही झेलते थे. टिंकू गणित में फेल हो गया तो मामाजी ही स्वयं बैठ कर उसे गणित के सवाल समझाते थे. बीनू के विज्ञान में कम अंक आए तो उन्होंने ही उसे वाणिज्य की महत्ता का पाठ पढ़ा कर ठेलठाल कर चार्टर्ड एकाउंटेंसी में दाखिल करवाया था. शिखा के स्कूल का कार्यक्रम रात 10 बजे समाप्त होता तो मामाजी की ही ड्यूटी रहती थी उसे वापस लाने की.

धीरेधीरे स्नेह के इस मायाजाल में वह ऐसे फंसे कि अब होटल प्रवास लगभग समाप्त हो गया था. कारोबार तो खैर कारिंदे ही देखते थे. आज वही मामाजी शिखा के कारण मां पर बरस रहे थे, ‘‘लड़की को कुछ अक्ल का पाठ पढ़ाओ. दिमाग को पाला मार गया है. लड़का पसंद किया तो साधारण मास्टर का. इस तिमंजिली कोठी में रहने के बाद यह क्या उस खोली में रह पाएगी? फिल्में देखदेख कर दिमाग चल गया है शायद.’’

शिखा धीमेधीमे सुबक रही थी. मां के सामने तो अभिमान से कह दिया था कि विवेक के साथ वह झोंपड़ी में रह लेगी, पर बातबात पर दुलारने वाले गलतसही सब जिदें मानने वाले मामाजी की अवज्ञा वह कैसे करती? क्रोध का प्रतिकार किया जा सकता है, पर प्यार के आगे विद्रोह कभी टिकता है भला?

मामाजी ने ही शिखा व विवेक के प्रेम संबंधों की चर्चा सब से पहले सुनी थी. सीधे शिखा से कुछ न पूछा और विवेक के घरपरिवार के बारे में सब पता लगा लिया. बिजली का सामान बनाने वाली एक कंपनी का साधारण सा सेल्समैन, ऊपर से सिख परिवार का मोना (कटे बालों वाला) बेटा. करेला और नीम चढ़ा. बाप सरदार हुकमसिंह सरकारी स्कूल में साधारण मास्टर थे. भला क्या देखा शिखा ने उस लड़के में? उसी बात को ले कर घर में इतना बावेला मच रहा था. शिखा के पिता, भाईबहन (मां और मामाजी) पर बकनाझकना छोड़ कर तटस्थ दर्शक से सब सुन रहे थे.

‘‘आखिर बुराई क्या है उस लड़के में,’’ पिताजी पूछ ही बैठे.

‘‘अच्छाई भी क्या है? साधारण नौकरी, मामूली घरबार. फिर पिता सिख बेटा हिंदू, कभी सुनी है ऐसी बात?’’ मामाजी उफन ही तो पड़े.

‘‘शायद उन लोगों ने उसे गोद लिया हो या मन्नत मांगी हो. कई हिंदू भी तो लड़कों के केश रखते हैं,’’ मां ने सुझाया.

‘‘तो क्या यहांवहां पड़ा यतीम ही रह गया है शिखा के लिए?’’ मामाजी गरजे.

‘‘उन लोगों से मिल कर बातचीत करने में क्या हर्ज है?’’ पिताजी ने सुझाया.

‘‘आप भी हद करते हैं. पंजाब में आग लगी है. बसों से घसीट कर हिंदुओं को मारा जाता है. अब ऐसे घर में बात चलाएंगे? अपनी बेटी देंगे?’’

‘‘कुछ उग्रवादियों के लिए सारी जाति को दोष देना उचित नहीं है. सभी तो एक समान नहीं हैं,’’ मां ने कहा.

‘‘जो इच्छा आए करो,’’ मामाजी ने हथियार डाल दिए.

‘‘लड़के को खाने पर बुला लेते हैं. शिखा का भी मन रह जाएगा,’’ पिताजी ने कहा.

अगले दिन शिखा के निमंत्रण पर विवेक घर में आया. सब को अच्छा लगा, टिंकू व बीनू को भी. शायद उस के आकर्षक व्यक्तित्व का ही जादू था कि मामाजी की आंखों का भी अनमनापन कम हो गया. विवेक ने अगले सप्ताह सब को अपने घर आने को कहा.

परंतु अगले ही दिन शहर में कर्फ्यू लग गया. शहर के चौक में गोली चल गई थी. कुछ सिख आतंकवादी 2 हत्याएं कर के कहीं छिप गए थे. पुलिस के हाथ कुछ नहीं लगा तो शहर में कर्फ्यू लग गया. सड़कों पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस की गश्तें लगने लगीं. जनजीवन अस्तव्यस्त हो कर भय व आतंक के घेरों में सिमट गया.

शहर की पुरानी बस्तियों वाले इलाकों में, जहां दैनिक सफाई, जमादारों पर निर्भर थी, गंदगी व सड़ांध का साम्राज्य हो गया. साधारण आय वाले घर, जहां महीने भर का राशन जमा नहीं रहता, अभावों में घिर गए. रोज मजदूरी कर के कमाने वालों के लिए तो भूखे मरने की नौबत आ गई.

8-10 दिन बाद कर्फ्यू में थोड़ी ढील दी गई. फिर धीरेधीरे कर्फ्यू उठा लिया गया.

मामाजी बड़बड़ाते रहे, ‘जिन लोगों के कारण इतना कुछ हो रहा है उन्हीं के घर में रिश्ता करने जा रहे हो?’

शिखा कहना चाहती थी, ‘नहीं, मामाजी, हथियार उठाने वाले लोग और ही हैं, राजनीतिक स्वार्थों से बंधे हुए. प्यार करने वाले तो इन बातों से कहीं ऊपर हैं,’ पर शरम के मारे कुछ कह नहीं पाती थी. आखिर कर्फ्यू हटा व जनजीवन सामान्य हो गया.

इस के बाद मामाजी विवेक के घर गए थे, तो अचानक ही उन का गुस्सा काफूर हो गया था और अनजाने उन के चिरकुमार रहने का रहस्य भी उजागर हो गया था.

विवेक के घर पहुंच कर मामाजी अचकचा से गए थे. सामने अधेड़ आयु की शालीन, सुसंस्कृत, मलमल की चादर से माथा ढके निरुपमाजी (विवेक की मां) खड़ी थीं. इस आयु में भी चेहरे पर तेज था.

‘‘नीरू, तुम…’’ मामाजी के मुख से निकला था, ‘‘आज इतने बरसों बाद मुलाकात होगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. और फिर इन परिस्थितियों में…’’

निरुपमाजी भी ठगी सी खड़ी थीं.

‘‘आप शायद वही निरुपमा हैं न जो लाहौर में हमारे कालिज में पढ़ती थीं. मुझ से अगली कक्षा में थीं.’’

मां उन्हें पहचानने का यत्न कर रही थीं.

सब के लिए यह सुखद आश्चर्य था. घर के बड़े पहले से ही एकदूसरे से परिचित थे.

‘‘यहां कैसे आईं? दंगों से कैसे बच कर निकलीं?’’ मां ने पूछा.

‘‘आप लोग तो शायद धर्मशाला चले गए थे न?’’ निरुपमाजी ने पूछा.

‘‘हां, हमें पिताजी ने पहले ही भेज दिया था. पर भैया वहीं रह गए थे,’’ मां ने बताया.

‘‘मुझे मालूम है.’’

मां, मामाजी तथा निरुपमाजी सभी जैसे अतीत में लौट गए थे.

‘‘नीरू, मैं ने तुम लोगों से कितना कहा था कि हमारी कोठी में आ जाओ. वह इलाका फिर भी थोड़ा सुरक्षित था,’’ मामाजी की आवाज जैसे कुएं से आ रही थी.

‘‘जिस दिन तुम ने यह बात कही थी और हमारे न मानने पर नाराज हो कर चले गए थे, उसी रात हमारी गली में हमला हुआ. आग, मारकाट, खून. मैं छत पर सो रही थी. उठ कर पिछली सीढि़यां फलांग कर भागी. गुंडों के हाथ से इन्हीं सरदारजी ने मुझे उस रात बचाया था. फिर कैंपों, काफिलों की भटकन. इसी बीच सारे परिवार की मौत की खबर मिली. उस समय इन्हीं ने मुझे सहारा दिया था.’’

अतीत के कांटों भरे पथ को निरुपमाजी आंसुओं से धो रही थीं. ‘‘मैं ने तुम्हें कितना ढूंढ़ा. कर्फ्यू हटा तो तुम्हारी गली में भी गया. पर वहां राख व धुएं के सिवा कुछ भी न मिला,’’ मामाजी धीरेधीरे कह रहे थे. उन का स्वर भारी हो चला था. सभी चुपचाप बैठे थे. मां मामाजी को गहरी नजरों से देख रही थीं.

सरदार हुकमसिंह ने सन्नाटा तोड़ा, ‘‘मैं ने विवेक को सिख बनाने की कभी जिद नहीं की. धर्म की आड़ में स्वार्थ का नंगा नाच हम लोग एक बार देख चुके हैं. इसलिए धर्म पर मेरा विश्वास नहीं रहा. हमारा धर्म तो केवल इनसानियत है. विवेक को भी हम केवल एक अच्छा इनसान बनाना चाहते हैं.’’

‘‘मैं आप का आभारी हूं कि आप ने सिख धर्म का अनुयायी होते हुए वर्षों पहले एक हिंदू लड़की की रक्षा की. काश, आज सभी इनसान आप जैसे होते तो घृणा की आग स्वयं ही बुझ जाती,’’ मामाजी ने भावविह्वल हो कर सरदारजी के हाथ माथे से लगा लिए.

‘‘तो भाई, क्या कहते हो, शगुन अभी दे दें?’’ शिखा के पिताजी ने पूछा.

‘‘हां…हां, क्यों नहीं. एक बार देश के टुकड़े हुए थे. उस के नासूर अभी तक रिस रहे हैं. अब फिर अगर धर्म के आधार पर दिलों का बंटवारा करेंगे तो घाव ताजे न हो जाएंगे?’’ कहते हुए मामाजी ने उंगली में पड़ी हीरे की अंगूठी उतार कर विवेक को पहना दी.

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