हिसाब किताब- भाग 2: क्यों बदल गई थी भाभी

अस्पताल से लौटने में कभीकभी मुझे देर हो जाया करती थी. ऐसे ही एक रात मैं देर से घर लौटा तो पाया कि घर के फाटक पर ताला लटक रहा था. मैं ने पड़ोसी से चाबी ले कर फाटक खोला. कमरे की चाभी भैया एक खास जगह रख कर जाते थे जिस का सिर्फ मुझे पता था. वहां से चाभी ले कर मैं ने कमरा खोला. बहुत भूख लगी थी. रसोई में जा कर बरतन उलटापुलटा कर के देखे, खाने के लिए कुछ न मिला. खिन्न मन से भैया को फोन लगाया तो पता चला कि वे ससुराल में हैं. अगले दिन दशहरा था, सो मना कर ही लौटेंगे. मैं ने स्वयं रोटी बनानी चाही. जैसे ही गैस जलाई, कुछ सैकंड जली, फिर बंद हो गई.

रात 12 बज गए. अब इतनी रात मुझे बाहर भी कुछ खाने को मिलने वाला न था. ऐसा ही था तो भैया मुझे फोन कर देते, मैं बाहर ही खापी कर आ जाता. खुद तो ससुराल में दावत उड़ा रहे हैं और मुझे भूखा मरने के लिए छोड़ गए. यह सोच कर मुझे तीव्र क्रोध आया, वहीं अपने हाल पर रोना भी. भैया को मुझ से क्या अदावत है, जो इतना दुराव कर रहे हैं. भाभी ही उन की सबकुछ हैं, मैं कुछ नहीं. अगर इतना ही है, साफसाफ कह देते, मैं अपना खाना खुद बना लूंगा. यही सब सोच कर क दिन मैं ने स्वयं पहल की. तनाव में रहने से अच्छा है, मैं खुद ही अलग हो जाऊं.

दशहरा बीतने के बाद भैयाभाभी घर लौट आए.

‘‘आप लोग नहीं चाहते हैं तो मैं अपना खाना खुद बना लूंगा.’’

भाभी ने सुना तो तुनक गईं, बोलीं, ‘‘यह तो अच्छी बात हुई. 6 महीने से हमारा खा रहे थे, अब जब कमाने लगे तो अलग गुजारे की बात करने लगे.’’

‘‘अलग गुजारे के लिए आप लोगों ने विवश किया. वैसे भी 6 महीने खिला कर कोई एहसान नहीं किया. 2 लाख रुपए थे मां के खाते में जिसे आप लोगों ने छल से निकाल लिया.’’ मैं ने भी कहने में कोई कसर न छोड़ी. अब जब अलग रहना ही है तो मन की भड़ास निकालना ही मुझे उचित लगा.

‘‘बेशर्म, हम लोगों पर इस तरह इलजाम लगाते हुए शर्म नहीं आती,’’ भैया चीखे.

‘‘हकीकत है, भैया, आज वह रुपया होता तो मुझे अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर अस्पताल की मामूली नौकरी न करनी पड़ती.’’

‘‘तो क्या कलैक्टरी करते?’’

‘‘कलैक्टरी नहीं करता मगर ढंग से नौकरी तो करता. आप ने पिता का फर्ज निभाना तो दूर, मेरा हक मार लिया.’’ उन्हें मेरा कथन इतना बुरा लगा कि मुझे थप्पड़ मारने के लिए उठे. मगर न जाने क्या सोच कर रुक गए.

‘‘आज से तुम्हारा हमारा संबंध खत्म,’’ कह कर भैया अपने कमरे में चले गए. पीछेपीछे भाभी भी पहुंचीं, ‘‘ऐसा भाई मैं ने जिंदगी में नहीं देखा था. बड़े भाई पर इलजाम लगा रहा है. 6 महीने से खिलापिला रहे थे यह सोच कर कि भाई है. उस का यह सिला दिया, एहसानफरामोश.’’ भैया सुनते रहे. तभी बड़ी बहन गीता आ गईं. मैं ने भरसक माहौल बदलने की कोशिश की तो भी वे समझ गईं. जब तक मां जिंदा थीं भैयाभाभी ने उन की खूब आवभगत की. मां पैंशन का आधा हिस्सा उन्हीं लोगों को दे देती थीं. शेष अपने लिए रखतीं. गीता के बच्चों की डिमांड वही पूरा करतीं. भैयाभाभी सिर्फ समय से नाश्ताखाना खिला देते. भाभी को इतना भी फर्ज पहाड़ सा लगता. पीठ पीछे भैया से भुनभुनातीं. दोचार दिन के लिए गीता दीदी आतीं तो भाभी चाहतीं कि दीदी किचन में उन का हाथ बंटाएं. अपने बच्चों का एक भी सामान वे गीता दीदी के बच्चों को देना नहीं चाहती थीं.

एक दिन रात सोने के समय उन का बौर्नविटा खत्म हो गया. दीदी का बड़ा बेटा उस के बिना दूध नहीं पीता था. सो, वे भाभी के पास गईं, ‘भाभी, जरा सा बौर्नविटा ले लेती हूं अपने सोनू के लिए. कल सुबह मंगा लूंगी.’ भाभी हंस कर टालने की नीयत से बोलीं, ‘अपना भी यही हाल है, थोड़ा सा बचा है, खत्म हो जाएगा तो मुश्किल होगी. इन का हाल तो जानती हैं,’ भैया की ओर मुखातिब हो कर बोलीं, ‘कोई सामान लाने में ये कितने आलसी हैं?’ भैया नजरें चुराने लगे.

दीदी को सबकुछ समझते देर न लगी. उन का मन तिक्त हो गया. वे उलटे पांव लौट आईं. मां को पता चला तो उन की त्योरियां चढ़ गईं. भाभी को सुनाने के लिए उठीं तो दीदी ने रोक दिया, ‘क्यों मेरे लिए उन से बैर लेती हो? मैं आज हूं कल अपने ससुराल चली जाऊंगी. रहना तो तुम्हें इन्हीं लोगों के साथ है.’ मां मन मसोस कर रह गईं.

भाभी का मायका आर्थिक रूप से कमजोर था. पिता एक प्राइवेट स्कूल में ड्राइवर थे. मां यह सोच कर उन्हें लाईं कि गरीब घर की बहू रहेगी तो निबाह हो जाएगा. मगर हुआ उलटा. कुछ न देखने वाली भाभी को जब सरकारी नौकरी वाला आर्थिक रूप से संपन्न पति मिला तो वे स्वार्थी और अहंकारी हो गईं. उन्हें लगा कि अब उन्हें किसी की जरूरत नहीं. मायके से उन्हें शह मिलती. उन की मां चाहती थीं कि किसी तरह उन के बेटीदामाद अपना अचल हिस्सा ले कर स्वतंत्र गृहस्थी बसाएं. मां के मरने के बाद भरसक उन का यही प्रयास रहा कि किसी तरह मैं इस मकान का अपना हिस्सा उन्हें बेच दूं. मैं ने मन बना लिया था कि चाहे वे जो भी कर लें, मैं पिताजी की अमानत नहीं छोड़ूंगा. मुझे मानसिक रूप से प्रताडि़त करने के पीछे उन की यही मंशा थी. इस प्रताड़ना से बचने के लिए जब मुझे तनख्वाह मिलने लगी तो उन के यहां खाना छोड़ दिया. यह भी उन्हें बरदाश्त न हुआ. कभी बिजली तो कभी मकान के टैक्स के नाम पर वे मुझे जबतब परेशान करतीं. एक दिन मुझ से रहा न गया, बोला, ‘‘भाभी, सब से ज्यादा बिजली आप खर्च करती हैं. टीवी, फ्रिज, इन्वर्टर, प्रैस सभी आप के पास हैं.’’

‘‘आप भी खरीद लीजिए. मैं ने मना तो नहीं किया है,’’ उन की वाणी में व्यंग्य का पुट था, ‘‘मगर बिजली का बिल आधा आप को देना ही होगा.’’

‘‘आधा क्यों?’’

‘‘कनैक्शन पिताजी के नाम है. घर की आधी हिस्सेदारी आप की भी बनती है. तो बिल भी तो आधा देना होगा.’’

‘‘अच्छा तर्क है आप का. बराबर क्यों?’’ मैं उखड़ा, ‘‘आप ज्यादा खर्च करेंगी, तो ज्यादा देंगी. मैं कम खर्च करूंगा तो कम दूंगा. बिजली के नाम पर मैं सिर्फ एक 15 वाट का सीएफएल और एक पंखे का इस्तेमाल करता हूं.’’ उन्हें मेरा तर्क नागवार लगा. तुनक कर भैया के पास गईं. भैया चुपचाप सुन रहे थे. मुझे अस्पताल की जल्दी थी, सो जल्दीजल्दी कपड़े पहन कर निकल गया. मेरे जाने के बाद दोनों के बीच जो भी खुसुरफुसुर हुई हो, मुझे पता नहीं. हां, 2 दिनों बाद भैया ने मुझे अपना फैसला सुनाया.

ममता: भाग 4- कैसी थी माधुरी की सास

उस की बात सुन कर मम्मीजी ने मुंह बिचका दिया था लेकिन जो घर नौकरों के द्वारा चलने से बेजान हो गया था माधुरी के हाथ लगाने मात्र से सजीव हो उठा था. इस बात को पापाजी और पल्लव के साथ मम्मीजी ने भी महसूस किया था.पल्लव, जो पहले रात में 10 बजे से पहले घर में कदम नहीं रखता था. वही अब ठीक 5 बजे घर आने लगा. यही हाल उस के पापाजी का भी था. एक बार भावुक हो कर पापा ने कहा भी था, ‘बेटा, तुम ने इस धर्मशाला बन चुके घर को पुन:

घर बना दिया. सचमुच जब तक घरवाली का हाथ घर में नहीं लगता तब तक घर सुव्यवस्थित नहीं हो पाता है.’एक बार पापाजी उस के हाथ के बने पनीर के पकवान की तारीफ कर रहे थे कि मम्मीजी चिढ़ कर बोलीं, ‘भई, मुझे तो बाहर के कामों से ही फुरसत नहीं है. इन बेकार के कामों के लिए समय कहां से निकालूं?’‘बाहर के लोगों के लिए समय है, किंतु घर वालों के लिए नहीं,’ तीखे स्वर में ससुरजी ने उत्तर दिया था जो सास के जरूरत से अधिक घर से बाहर रहने के कारण अब परेशान हो उठे थे.‘मैं अपनी पूरी जिंदगी घर में निठल्ले बैठे नहीं गुजार सकती. वैसे ही अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा इस परिवार को भेंट कर ही चुकी हूं, लेकिन अब और नहीं कर सकती,’ आक्रोश में सास ने उत्तर दिया था.‘मम्मीजी, घर में भी दूसरे सैकड़ों जरूरी काम हैं, यदि किए जाएं तो,’ कहना चाह कर भी माधुरी कह नहीं सकी थी. व्यर्थ ही उन का गुस्सा बढ़ जाता और हासिल कुछ भी न होता.

हो सकता है वे अपनी जगह ठीक हों वरना कौन पढ़ीलिखी औरत फालतू के कामों में अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहेगी.मम्मीजी का निर्णय अपना है. पर वह उस सचाई को कैसे भूल सकती है जिस के पीछे उस का भोगा हुआ अतीत छिपा है, तनहाइयां छिपी हैं, रुदन छिपा है, जिस को देखने का, पहचानने का उस के पालकों के पास समय ही नहीं था. उस समय उसे लगता था कि ऐसे दंपती संतान को जन्म ही क्यों देते हैं, जब उन के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है. वह बेचारा उन की प्यारभरी निगाह के लिए जीवनभर तड़पता ही रह जाता है लेकिन वह निगाह उसे नसीब नहीं होती. आज इंसान पैसों के पीछे भाग रहा है, लेकिन पैसों से मन की शांति, प्यार तो नहीं खरीदा जा सकता.एक बच्चे को जब मां की कोख की गरमी चाहिए तब उसे बोतल और पालना मिलता है, जब वह मां का हाथ पकड़ कर चलना चाहता है,

अपनी तोतली आवाज में दुनियाभर के प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहता है, तब उसे आया के हाथों में सौंप दिया जाता है या महानगरों में खुले के्रचों में, जहां उस का बचपन, उस की भावनाएं, उमंगें कुचल कर रह जाती हैं. वह एकाकीपन से इतना घबरा उठता है कि अकेले रहने मात्र से सिहर उठता है. उसे याद है कि वह 15 वर्ष तक अंगूठा पीती रही थी, अंगूठा चूसना उसे न केवल मानसिक तृप्ति देता था वरन आसपास किसी के रहने का एहसास भी कराता था. अचानक किसी को सामने पा कर चौंक उठना तथा ठीक से बातें न कर पाना भी उस की कमजोरी बन गई थी. इस कमजोरी के लिए भी सदा उसे ही दोषी ठहराया जाता रहा था.जब सब बच्चे स्कूल में छुट्टी होने पर खुश होते थे तब माधुरी चाहती थी कि कभी छुट्टी हो ही न, क्योंकि छुट्टी में वह और अकेली पड़ जाती थी.

मातापिता के काम पर जाने के बाद घर खाने को दौड़ता था. घर में सुखसुविधा का ढेरों सामान मौजूद रहने के बावजूद उस का बचपन सिसकता ही रह गया था. वह नहीं चाहती थी कि उस की संतानें भी उसी की तरह घुटघुट कर जीते हुए किसी अनहोनी का शिकार हों या मानसिक रोगी बन जाएं.बाद में पल्लव से ही पता चला था कि प्रारंभ में तो मम्मी पूरी तरह घरेलू ही थीं किंतु पापा के व्यापार में निरंतर मिलती सफलता के कारण वे अकेली होती गईं तथा समय गुजारने के लिए उन्होंने समाज सेवा प्रारंभ की. बढ़ती व्यस्तता के कारण घर को नौकरों पर छोड़ा जाने लगा और अब उन्होंने उस क्षेत्र में ऐसी जगह बना ली है कि जहां से लौटना उन के लिए न तो संभव है और शायद न ही उचित.‘‘बेटी, नाश्ता कर ले,’’ मम्मी का स्नेहिल स्वर उसे चौंका गया और वह अतीत की यादों से निकल कर वर्तमान में आ गई.‘‘न जाने तुम ने मम्मी पर क्या जादू कर दिया है कि सबकुछ छोड़ कर तुम्हारी तीमारदारी में लगी हैं,’’ मम्मीजी को आवश्यकता से अधिक उस की देखभाल करते देख पल्लव ने उसे चिढ़ाते हुए कहा था.‘‘क्यों नहीं करूंगी उस की देखभाल? तू तो सिर्फ मेरा बेटा ही है किंतु यह तो बहू होने के साथसाथ मेरी बेटी भी है तथा मेरे होने वाले पाते की मां भी है,’

’ मम्मीजी, जो पास में खड़े बेटे की बात सुन रही थीं, ने अपनी चिरपरिचित मुसकान के साथ कहा था.                  मम्मीजी जहां पहले एक दिन घर में रुकने के नाम पर भड़क जाती थीं, वहीं वह सप्ताहभर से अपने सारे कार्यक्रम छोड़ कर उस की देखभाल में लगी हैं. आज माधुरी को खुद पर ग्लानि हो रही थी. उस के मन में उन के लिए कितने कलुषित विचार थे. वास्तव में उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि स्त्री पहले मां है बाद में पत्नी या अन्य रूपों को जीती है. मां रूपी प्रेम का स्रोत कभी समाप्त नहीं होता. ममता कभी नहीं मरती.मम्मीजी उन स्त्रियों में से नहीं थीं जो घरपरिवार के लिए अपना पूर्ण जीवन समर्पित करना अपना ध्येय समझती हैं, वे उन से कहीं परे थीं, अलग थीं. अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने समाज में अपनी एक खास पहचान बनाई थी.अब उस की यह धारणा धूमिल होती जा रही थी कि समाज सेवा में लिप्त औरतें घर से बाहर रहने के लिए ही इस क्षेत्र में जाती हैं. कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं.उसे लग रहा था कि बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद यदि संभव हो सका तो वह भी देश के गरीब और पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए अपना योगदान अवश्य देगी. फिलहाल तो उसे अपनी कोख में पलने वाले बच्चे की ओर ध्यान देना है,

जो उस की जरा सी असावधानी से मरतेरते बचा है. सोचतेसोचते उस ने करवट बदली और उसी के साथ ही उसे महसूस हुआ मानो वह कह रहा है, ‘ममा, जरा संभल कर, कहीं मुझे फिर से चोट न लग जाए.’‘नहीं बेटा, अब तुझे कुछ नहीं होगा. मैं हूं न तेरी देखभाल के लिए,’ माधुरी ने दोनों हाथों से बढ़े पेट को ऐसे थाम लिया मानो वह गिरते हुए अपने कलेजे के टुकड़े को पकड़ रही है. उस के चेहरे पर मातृत्व की गरिमा, अजन्मे के लिए अनोखा, अटूट प्रेम दिखाई दे रहा था.  द्य    मां अत्यंत ही महत्त्वाकांक्षी थीं. यही कारण था कि दादी के बारबार यह कहने पर कि वंश चलाने के लिए बेटा होना ही चाहिए, उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन का कहना था कि आज के युग में लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया है.

एक साथी की तलाश: कैसी जिंदगी जी रही थी श्यामला

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ठोकर: सरला ने क्यों तोड़ा गौरिका का विश्वास

गौरिका ने आंखें खोलीं तो सिर दर्द से फटा जा रहा था. एक क्षण के लिए तो सबकुछ धुंधला सा लगा, मानो कोई डरावना सपना देख रही हो. उस ने कराहते हुए इधरउधर देखने की कोशिश की थी.

‘सरला, ओ सरला,’ उस ने बेहद कमजोर स्वर में अपनी सेविका को पुकारा. लेकिन उस की पुकार छत और दरवाजों से टकरा कर लौट आई.

‘कहां मर गई?’ कहते हुए गौरिका ने सारी शक्ति जुटा कर उठने का यत्न किया. तभी खून में लथपथ अपने हाथ को देख कर उसे झटका सा लगा और वह सिरदर्द भूल कर ‘खूनखून…’ चिल्लाती हुई दरवाजे की ओर भागी थी.

गौरिका की चीख सुन कर पड़ोस के दरवाजे खुलने लगे और पड़ोसिनें निशा और शिखा दौड़ी आई थीं.

‘क्या हुआ, गौरिका?’ दोनों ने समवेत स्वर में पूछा. खून में लथपथ गौरिका को देखते ही उन के रोंगटे खड़े हो गए थे. गौरिका अधिक देर खड़ी न रह सकी. वह दरवाजे के पास ही बेसुध हो कर गिर पड़ी.

तब तक वहां अच्छीखासी भीड़ जमा हो गई थी. निशा और शिखा बड़ी कठिनाई से गौरिका को उठा कर अंदर ले गईं. वहां का दृश्य देख कर वे भय से कांप उठीं. दीवान पूरी तरह खून से लथपथ था.

गौरिका के सिर पर गहरा घाव था. किसी भारी वस्तु से उस के सिर पर प्रहार किया गया था. शिखा ने भी सरला को पुकारा था पर कोई जवाब न पा कर वह स्वयं ही रसोईघर से थोड़ा जल ले आई थी और उसे होश में लाने का यत्न करने लगी थी.

निशा ने तुरंत गौरिका के पति कौशल को फोन कर सूचित किया था. अन्य पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दे दी थी. सभी इस घटना पर आश्चर्य जाहिर कर रहे थे. बड़े से पांचमंजिला भवन में 30 से अधिक फ्लैट थे. मुख्यद्वार पर 2 चौकीदार दिनरात उस अपार्टमेंट की रखवाली करते थे. नीचे ही उन के रहने का प्रबंध भी था.

इस साईं रेजिडेंसी के ज्यादातर निवासी वहां लंबे समय से रह रहे थे और भवन को पूरी तरह सुरक्षित समझते थे. अत: इस प्रकार की घटना से सभी का भयभीत होना स्वाभाविक ही था.

आननफानन में कौशल आ गया. उस का आफिस अधिक दूर नहीं था. पर आज आफिस से फ्लैट तक पहुंचने का 15 मिनट का समय उसे एक युग से भी लंबा प्रतीत हुआ था. अपने घर का दृश्य देखते ही कौशल के हाथों के तोते उड़ गए. घर का सामान बुरी तरह बिखरा हुआ था. लोहे की अलमारी का सेफ खुला पड़ा था और सामान गायब था.

‘सरला…सरला,’ कौशल ने भी घर में घुसते ही उसे पुकारा था पर उसे न पा कर एक झटका सा लगा उस भरोसे को जो उन्होंने सरला को ले कर बना रखा था.

सरला को गौरिका और कौशल ने सेविका समझा ही नहीं था. वह घर का काम करने के साथ ही गौरिका की सहेली भी बन बैठी थी. कौशल का पूरा दिन तो दफ्तर में बीतता था. घर लौटने में रात के 9-10 भी बज जाते थे.

कौशल एक साफ्टवेयर कंपनी में ऊंचे पद पर था. वैसे भी काम में जुटे होने पर उसे समय का होश कहां रहता था.

गौरिका से कौशल का विवाह हुए मात्र 10 माह हुए थे. गौरिका एक संपन्न परिवार की 2 बेटियों में सब से छोटी थी. पिता बड़े व्यापारी थे, अत: जीवन सुख- सुविधाओं में बीता था. मातापिता ने भी गौरिका और उस की बहन चारुल पर जी भर कर प्यार लुटाया था. ‘अभाव’ किस चिडि़या का नाम है यह तो उन्होंने जाना ही नहीं था.

कौशल का परिवार अधिक संपन्न नहीं था पर उस के पिता ने बच्चों की शिक्षा में कोई कोरकसर नहीं उठा रखी थी. विवाह में गौरिका के परिवार द्वारा किए गए खर्च को देख कर कौशल हैरान रह गया था. 4-5 दिनों तक विवाह का उत्सव चला था. 3 अलगअलग स्थानों पर रस्में निभाई गई थीं. उस शानो- शौकत को देख कर मित्र व संबंधी दंग रह गए थे. पर सब से अधिक प्रभावित हुआ था कौशल. उस ने अपने परिवार में धन का अपव्यय कभी नहीं देखा था. जहां जितना आवश्यक हो उतना ही व्यय किया जाता था, वह भी मोलतोल के बाद.

सुंदर, चुस्तदुरुस्त गौरिका गजब की मिलनसार थी. 10 माह में ही उस ने इतने मित्र बना लिए थे जितने कौशल पिछले 5 सालों में नहीं बना सका था.

अब दिनरात मित्रों का आनाजाना लगा रहता. मातापिता ने उपहार में गौरिका को घरेलू साजोसामान के साथ एक बड़ी सी कार भी दी थी. कौशल कार्यालय आनेजाने के लिए अपनी पुरानी कार का ही इस्तेमाल करता था. गौरिका अपनी मित्रमंडली के साथ घूमनेफिरने के लिए अपनी नई कार का प्रयोग करती थी.

मायके में कभी तिनका उठा कर इधरउधर न करने वाली गौरिका ने मित्रों के स्वागतसत्कार के लिए इस फ्लैट में आते ही 3 सेविकाओं का प्रबंध किया था. घर की सफाई और बरतन मांजने वाली अधेड़ उम्र की दमयंती साईं रेजिडेंसी से कुछ दूरी पर झोंपड़ी में रहती थी. कपड़े धोने और प्रेस करने वाली सईदा सड़क पार बने नए उपनगर में रहती थी.

सरला को गौरिका ने रहने के लिए निचली मंजिल पर कमरा दे रखा था. वह भोजन बनाने, मित्रों का स्वागतसत्कार करने के साथ ही उस के साथ खरीदारी करने, सिनेमा देखने जाती थी. 4-5 माह में ही सरला कुछ इस तरह गौरिका की विश्वासपात्र बन बैठी थी कि उस के गहने संभालने, दूध, समाचारपत्र आदि का हिसाबकिताब करने जैसे काम भी वह करने लगी थी.

कुछ दिनों के लिए कौशल के मातापिता बेटे की गृहस्थी को करीब से देखने की आकांक्षा लिए आए थे और नौकरों का एकछत्र साम्राज्य देख कर दंग रह गए थे. उस की मां ने दबी जबान में कौशल को समझाया भी था, ‘बेटा, 2 लोगों के लिए 3 सेवक? तुम्हारी पत्नी तो तुम्हारा सारा वेतन इसी तरह उड़ा देगी. अभी से बचत करने की सोचो, नहीं तो बाद में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा.’

‘मां, गौरिका हम जैसे मध्यम परिवार से नहीं है. उस के यहां तो नौकरों की फौज रखना साधारण सी बात है. हम उस से यह आशा तो नहीं कर सकते कि वह बरतन मांजने और घर की सफाई करने जैसे कार्य भी अपने हाथों से करेगी,’ कौशल ने उत्तर दिया था.

‘कपड़े धोने के लिए मशीन है, बेटे,’ मां बोलीं, ‘साफसफाई के लिए आने वाली दमयंती भी ठीक है, पर दिन भर घर में रहने वाली सरला मुझे फूटी आंखों नहीं भाती. कपडे़, गहने, रुपएपैसे आदि की जानकारी उसे भी है. किसी तीसरे को इस तरह अपने घर के भेद देना ठीक नहीं है. उस की आंखें मैं ने देखी हैं… घूर कर देखती है सबकुछ. काम रसोईघर में करती है, पर उस की नजरें पूरे घर पर रहती हैं. मुझे तो तुम्हारी और गौरिका की सुरक्षा को ले कर चिंता होने लगी है.’

‘मां, यह चिंता करनी छोड़ो. चलो, कहीं घूमने चलते हैं. सरला 6 माह से यहां काम कर रही है पर कभी एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ. गौरिका को तो उस पर अपनों से भी अधिक विश्वास है,’ कौशल ने बोझिल हो आए वातावरण को हलका करने का प्रयत्न किया था.

‘रहने भी दो, अब बच्चे बड़े हो गए हैं. अपना भलाबुरा समझते हैं. हम 2-4 दिनों के लिए घूमने आए हैं. तुम क्यों व्यर्थ ही अपना मन खराब करती हो,’ कौशल के पिताजी ने बात का रुख मोड़ने का प्रयत्न किया था.

‘क्या हुआ? सब ऐसे गुमसुम क्यों बैठे हैं,’ तभी गौरिका वहां आ गई थी.

‘कुछ नहीं, मां को कुछ पुरानी बातें याद आ गई थीं,’ कौशल हंसा था.

‘बातें बाद में होती रहेंगी, हम लोग तो पिकनिक पर जाने वाले थे, चलिए न, देर हो जाएगी,’ गौरिका ने कुछ ऐसे स्वर में अनुनय की थी कि सब हंस पड़े थे.

सरला ने चटपट भोजन तैयार कर दिया था. थर्मस में चाय भर दी थी. पर जब गौरिका ने सरला से भी साथ चलने को कहा तो कौशल ने मना कर दिया था.

‘मांपापा को अच्छा नहीं लगेगा, उन्हें परिवार के सदस्यों के बीच गैरों की उपस्थिति रास नहीं आती,’ कौशल ने समझाया था.

‘मैं ने सोचा था कि वहां कुछ काम करना होगा तो सरला कर देगी.’

‘ऐसा क्या काम पड़ेगा. फिर मैं हूं ना, सब संभाल लूंगा,’ सच तो यह था कि खुद कौशल को भी परिवार में सरला की उपस्थिति हर समय खटकती थी पर कुछ कह कर गौरिका को आहत नहीं करना चाहता था.

कौशल के मातापिता कुछ दिन रह कर चले गए थे पर कौशल की रेनू बूआ, जो उसी शहर के एक कालिज में व्याख्याता थीं, दशहरे की छुट्टियों में अचानक आ धमकी थीं. चूंकि  कौशल घर में सब से छोटा था इसकारण वह बूआ का विशेष लाड़ला था.

गौरिका से बूआ की खूब पटती थी. पर सरला को कर्ताधर्ता बनी देख वह एक दिन चाय पीते ही बोल पड़ी थीं, ‘गौरिका, नौकरों से इतना घुलनामिलना ठीक नहीं है. तुम्हें शायद यह पता नहीं है कि तुम अपनी सुरक्षा को किस तरह खतरे में डाल रही हो. आजकल का समय बड़ा ही कठिन है. हम किसी पर विश्वास कर ही नहीं सकते.’

‘मैं जानती हूं बूआजी, इसीलिए तो मैं ने किसी पुरुष को काम पर नहीं रखा. मैं अपनी कार के लिए एक चालक रखना चाहती थी. अधिक भीड़भाड़ में कार चलाने से बड़ी थकान हो जाती है. पर देखिए, हम दोनों स्वयं ही अपनी कार चलाते हैं.’

रेनू बूआ चुप रह गई थीं. वह शायद बताना चाहती थीं कि पुरुष हो या स्त्री कोई भी विश्वास के योग्य नहीं है. फिर भी उन्होंने गौरिका से यह आश्वासन जरूर ले लिया कि भविष्य में वह रुपएपैसे, गहनों से सरला को दूर ही रखेगी.

गौरिका ने रेनू बूआ का मन रखने के लिए उन्हें आश्वस्त कर दिया पर उसे सरला पर अविश्वास करने का कारण समझ में नहीं आता था. उस के अधिकतर पड़ोसी एक झाड़ ूबरतन वाली से काम चलाते थे लेकिन वह सोचती थी कि उस का स्तर उन सब से ऊंचा है.

कौशल ने सब से पहले गौरिका को पास के नर्सिंग होम में भरती कराया था. सिर पर घाव होने के कारण वहां टांके लगाए गए थे. निशा और शिखा ने गौरिका के पास रहने का आश्वासन दिया तो कौशल घर आ गया और आते ही उस ने अपने और गौरिका के मातापिता को सूचित कर दिया. कौशल ने रेनू बूआ को भी सूचित कर दिया. बूआ नजदीक थीं और वह अच्छी तरह से जानता था कि उस पर आई इस आफत को सुनते ही बूआ दौड़ी चली आएंगी.

प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखा कर कौशल दोबारा नर्सिंग होम चला गया था. सिर में टांके लगाने के लिए गौरिका के एक ओर के बाल साफ कर दिए गए थे. हाथ में पट्टी बंधी थी, पर वह पहले से ठीक लग रही थी.

‘कौशल, मेरे कपड़े बदलवा दो. सरला से कहना अलमारी से धुले कपडे़ निकाल देगी,’ गौरिका थके स्वर में बोली थी.

‘नाम मत लेना उस नमकहराम का. कहीं पता नहीं उस का. तुम्हें अब भी यह समझ में नहीं आया कि तुम्हारी यह दशा सरला ने ही की है,’ कौशल क्रोधित हो उठा था.

‘क्या कह रहे हो? सरला ऐसा नहीं कर सकती.’

‘याद करने की कोशिश करो, हुआ क्या था तुम्हारे साथ? पुलिस तुम्हारा बयान लेने आने वाली है.’

गौरिका ने आंखें मूंद ली थीं. देर तक आंसू बहते रहे थे. फिर वह अचानक उठ बैठी थी.

‘मुझे कुछ याद आ रहा है. मैं आज सरला के साथ बैंक गई थी. 50 हजार रुपए निकलवाए थे. घर आ कर सरला खाना बनाने लगी थी. मैं ने उस से एक प्याली चाय बनाने के लिए कहा था. चाय पीने के बाद क्या हुआ मुझे कुछ पता नहीं,’ गौरिका सुबकने लगी थी, ‘2 दिन बाद तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हें उपहार देना चाहती थी.’

तभी रेनू बूआ आ पहुंची थीं. उन के गले लग कर गौरिका फूटफूट कर रोई थी.

‘देखो बूआजी, क्या हो गया? मैं ने सरला पर अपनों से भी अधिक विश्वास किया. सभी सुखसुविधाएं दीं. उस ने मुझे उस का यह प्रतिदान दिया है,’ गौरिका बिलख रही थी.

रेनू बूआ चुप रह गई थीं. वह जानती थीं कि कभीकभी मौन शब्दों से भी अधिक मुखर हो उठता है. वह यह भी जानती थीं कि बहुत कम लोग दूसरों को ठोकर खाते देख कर संभलते हैं, अधिकतर को तो खुद ठोकर खा कर ही अक्ल आती है.

सरला 50 हजार रुपए के साथ ही घर में रखे गौरिका के गहनेकपड़े भी ले गई थी. लगभग 5 माह बाद वह अपने 2 साथियों के साथ पकड़ी गई थी और तभी गौरिका को पता चला कि वह पहले भी ऐसे अपराधों के लिए सजा काट चुकी थी. सुन कर गौरिका की रूह कांप गई थी. कौशल, मांबाप तथा घर के अन्य सभी सदस्यों ने उसे समझाया था कि भाग्यशाली हो जो तुम्हारी जान बच गई. नहीं तो ऐसे अपराधियों का क्या भरोसा.

इस घटना को 5 वर्ष बीत चुके हैं. फैशन डिजाइनर गौरिका का अपना बुटीक है. पर पति, 3 वर्षीय बंटी और बुटीक सबकुछ गौरिका स्वयं संभालती है. दमयंती अब भी उस का हाथ बंटाती है पर सब पर अविश्वास करना और अपना कार्य स्वयं करना सीख लिया है गौरिका ने.

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जहां से चले थे- भाग 2: पेरेंट्स की मौत के बाद क्या हुआ संध्या के साथ

एक दिन मांपापा ने मेरी पसंद और नापसंद के बीच झूलते हुए दुखी मन से कहा, ‘शादी तो तुम्हें करनी ही पड़ेगी. यही समाज का नियम है. तुम अपनी नहीं तो हमारी चिंता करो. लोग कैसीकैसी बातें करते हैं.’

पापा की जिद के सामने मुझे झुकना ही पड़ा और मैं विनम्रता से बोली कि जो आप को उचित लगे और मेरे विचारों के अनुकूल हो, आप उस से मेरा विवाह कर सकते हैं.

जल्दी ही एक जगह बात पक्की हो गई. लड़का भारतीय सेना में डाक्टर था. मुझे इस बात से संतोष था कि वह मेरे साथ नहीं रहेगा और मैं मनचाही नौकरी कर सकूंगी.

शादी के दिन मैं बड़े अनमने मन से तैयार हो रही थी. मुझे चूड़ा और कलीरें पहनना, महंगे लहंगे के साथ ढेर सारे जेवर और कोहनी तक मेहंदी रचाना आदि आडंबर लगे. मैं सोचती रही कि जल्दी से किसी तरह यह निबटे तो इस से मुक्ति मिले. हर शृंगार पर मैं पूछती कि इस के बाद तो कुछ नहीं बचा है.

‘क्यों, पति से मिलने की इतनी जल्दी है क्या?’ सहेलियों ने पूछा. कोई और अवसर होता तो मैं कभी का उन्हें भगा चुकी होती पर यह सामाजिक व्यवस्था थी उस पर मांपापा की इच्छा का भी खयाल था. जितनी देर होती रही मेरा धैर्य चुकता रहा.

उसी समय बरात आ गई. मेरी सहेलियां बरात देखने चली गईं और मैं अकेली कमरे में बैठी थी. तभी मेरे पास वाले कमरे से पापा की आवाज आई, ‘भाई साहब, हम से जो बन पड़ा है हम ने किया. कोई कमी रह गई हो तो हमें माफ कर दीजिए,’ मैं ने देखा, पापा हाथ जोड़ कर विनती कर रहे थे, ‘कार का इंतजाम इतनी जल्दी नहीं हो पाया वरना उसी में बिठा कर बेटी को विदा करता.’

‘कार की तो कोई बात नहीं, भाई साहब. बस, अपनी बेटी के महंगे गहने शादी के फौरन बाद ही उतरवा दीजिए.’

इतना सुनना था कि मेरे तेवर चढ़ गए. क्या मैं इतनी कमजोर और अनपढ़ हूं कि पापा को इतना कुछ देना पड़ रहा है. मैं ने वहीं पर तहलका मचा दिया कि इन दहेज के लालची लोगों के घर मैं नहीं जाऊंगी. चारों तरफ एक अफरातफरी का माहौल खड़ा हो गया. लड़के वालों को लोग अर्थपूर्ण नजरों से देखने लगे. पापा ने मुझे एक तरफ ले जा कर समझाने की कोशिश की, ‘बेटी, बात इतनी न बढ़ाओ कि संभालनी मुश्किल हो जाए,’ वे बोले, ‘लड़की की शादी में समाज और बिरादरी के भी कुछ नियम हैं. तुम क्या जानो कि क्या कुछ करना पड़ता है. बेटी पैदा होते ही अपना पिंजरा साथ ले कर आती है. इस में लड़के वालों की कोई गलती नहीं है.’

इतने में किसी ने पुलिस को खबर भेज दी. फिर क्या था, टीवी चैनल और प्रिंट मीडिया ने मुझे चारों तरफ से घेर लिया. मैं ने जो सुना, देखा था, थोड़ा बढ़ाचढ़ा कर कह दिया.

लड़के और उस के घर वाले तो सलाखों के पीछे पहुंच गए और मुझे रातोंरात लोग पहचानने लगे. मैं इंटरव्यू पर इंटरव्यू देती रही और वे इसे छापते रहे.

उस के बाद तो कई सामाजिक संगठन और समाजसेवी संस्थाएं आ कर मुझे मानसम्मान देने के लिए समय मांगती रहीं.

कुछ दिनों में यह बात ठंडी हो गई, पापा ने थाने में कई चक्कर लगा कर उन्हें दहेज के आरोप से मुक्त करवा दिया पर उन पर लांछन तो लग ही चुका था. पापा उस दिन के बाद अंतर्मुखी हो गए और मां भी जरूरत भर की बातें ही करतीं.

उस हादसे से पापा इतना टूट गए कि दुनिया से उन्होंने नाता ही तोड़ लिया. हां, मरने से पहले पापा बता गए थे कि लड़के वालों की तरफ से कोई दहेज की मांग नहीं थी. कार देने का वादा तो मैं ने ही किया था और गहने उतरवाने की बात पहले से ही तय थी. देर रात को मेरा इतना शृंगार कर के होटल में जाना अनचाहे तूफान से बचने का उपाय था, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त गुजरता गया और वक्त के साथसाथ मैं ऊंचाइयां छूती गई. पापा की मृत्यु के बाद तो मां ने भी चुप्पी साध ली थी. मैं उन के दुख को अच्छी तरह जानती थी. उन्हें एक ही चिंता थी कि उन के बाद मेरा कौन सहारा होगा. एक दिन मां ने समझाते हुए कहा, ‘संध्या, जवान और खूबसूरत लड़की समाज की नजरों में वैसे भी खटकती रहती है. औरत कितनी भी सबल क्यों न हो उसे मजबूत सहारे की जरूरत पड़ती ही है, जो उसे समाज की बुरी निगाहों से बचा कर रखता है…’

‘मां, छोड़ो भी यह सब बातें. मैं तुम्हें दिखा दूंगी कि मुझे किसी सहारे की तलाश नहीं है. बस, समाज को समझाने और टक्कर लेने की हिम्मत होनी चाहिए,’ यह कह कर मैं वहां से उठ गई थी.

मां के कहे शब्द दिमाग में कौंधे तो मैं चौंक कर उठ बैठी. मांपापा का जो रक्षा कवच मेरे चारों ओर था वह अब टूट चुका था, अपना झूठा दंभ कहां दिखाती. घर के सभी काम, जो सुनियोजित ढंग से चल रहे थे, अब मुझे ही संभालने थे. मुझे इन 4 दिनों में ही अपना अंधकारमय भविष्य नजर आने लगा.

संध्या की मां को गुजरे 4-5 दिन हो चुके थे पर वह आज भी अतीत में विचरण कर रही थी.

15 अगस्त वाले दिन सुबहसुबह मेरी अंतरंग सहेली वंदना मिलने आ गई. मैं उसे देखते ही उछल पड़ी और बोली, ‘अब आई है तुझे मेरी याद. मां की अंतिम यात्रा में शामिल हो कर तू ने समझा सारे फर्ज निभा दिए.’

नाराज होते हुए वह बोली, ‘मिलूं कैसे, आफिस में तेरा फोन हमेशा व्यस्त रहता है और घर तू देर से पहुंचती है.’

‘अच्छा, अब बातें न बना,’ यह कह कर उस का हाथ पकड़ उसे बिठाते हुए मैं बोली, ‘बता, क्या लेगी?’

‘कुछ भी बना ले,’ वंदना बोली, ‘तेरी बड़ी याद आ रही थी, सो सोचा कि तू आज के दिन तो घर पर ही मिलेगी,’ और इसी के साथ वंदना पांव पसार कर बैठ गई.

जब तक मैं चायनाश्ता तैयार कर के लाई वंदना ने मेज पर ढेर सारे पत्र और फोटो बिछा दिए.

‘यह सब क्या है,’ मैं ने मेज के एक कोने पर टे्र रखते हुए पूछा.

‘बस, क्या बताऊं संध्या, आंटी ने मरने से कुछ ही दिन पहले मुझे बुलाया और तेरे लिए पुन: घर वर खोजने को कहा था, शायद उन से तेरी बात हुई होगी. यह उसी विज्ञापन के पत्र हैं.’

‘बात तो हुई थी, मैं ने तो वैसे ही उन का मन रखने के लिए कह दिया था पर मुझे क्या पता था कि मां सचमुच मेरे विवाह के लिए इतनी सीरियस हैं. शायद उन्हें अपने जाने का एहसास हो गया था,’ कह कर मैं बिलखने लगी.

‘संध्या, जमाना अभी भी वहीं है और समाज आज भी पुरुषों का ही है, वश उन का ही चलता है. तुम नए सिरे से मनुस्मृति लिखने की कोशिश मत करो. रहना तुम्हें भी इसी समाज में है. तुम चाहे कितनी भी ऊंचाइयां छू लो, रहोगी तुम औरत ही. स्त्रियोचित मर्यादा, गुण, स्वभाव, शर्म तुम्हें भी अपनाने होंगे,’ कह कर वंदना चुप हो गई.

मैं इस बहस को ज्यादा तूल नहीं देना चाहती थी और उत्सुकतावश एकएक कर के पत्र और फोटो देखने लगी.

‘बस, यही सब रह गए हैं अब मेरे लिए,’ मैं कुछ लोगों का विवरण पढ़ते हुए बोली, ‘कोई विधुर 2 बच्चों का बाप है तो कोई तलाकशुदा. किसी का बच्चा विदेश में है तो कोई विकलांग. एकदो को छोड़ कर बाकी मुझ से आधी तनख्वाह भी नहीं पाते.’

‘मैडम, अब तुम्हारे लिए कोई 20-22 वर्ष का नौजवान तो मिलेगा नहीं. मिलेगा तो आदमी ही. तुम्हारी उम्र 45 के आसपास है, बालों में भी सफेद चांदी के तार चमकने लगे हैं. अब इस उम्र में कोई अपनी वंशवृद्धि के लिए तो विवाह करेगा नहीं और न ही तुम सक्षम हो, और कोई इस उम्र तक तुम्हारे लिए भी नहीं बैठा होगा. अब तो वही मिलेगा जो उम्र के इस पड़ाव में साथ चाहता होगा.’

‘तेरा मतलब है मैं उस की केयर टेकर बन कर उस का साथ दूं,’ यह कह कर मैं ने वंदना की ओर देखा और बोली, ‘इस से तो शादी न करना ही अच्छा है,’ मुझ से अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ.

ममता: भाग 2- कैसी थी माधुरी की सास

गंभीरतापूर्वक सोचविचार कर आखिरकार माधुरी ने ही उचित अवसर पर एक दिन पल्लव से कहा, ‘यदि हम अपनी इस मित्रता को रिश्ते में नहीं बदल सकते तो इसे तोड़ देना ही उचित होगा, क्योंकि आज शांतनु ने संदेह किया है, कल दूसरा करेगा तथा परसों तीसरा. हम किसकिस का मुंह बंद कर पाएंगे. आज हम खुद को कितना ही आधुनिक क्यों न कह लें किंतु कहीं न कहीं हम अपनी परंपराओं से बंधे हैं और ये परंपराएं एक सीमा तक ही उन्मुक्त आचरण की इजाजत देती हैं.’ पल्लव को भी लगा कि जिस को वह अभी तक मात्र मित्रता समझता रहा वह वास्तव में प्यार का ही एक रूप है, अत: उस ने अपने मातापिता को इस विवाह के लिए तैयार कर लिया. पल्लव के पिताजी बहुत बड़े व्यवसायी थे. वे खुले विचारों के थे इसलिए अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में करने को तैयार हो गए. मम्मीजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि जातिपांति पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यदि उन्हें लड़की पसंद आई तभी वे इस विवाह की इजाजत देंगी.माधुरी के मातापिता अतिव्यस्त अवश्य थे किंतु अपने संस्कारों तथा रीतिरिवाजों को नहीं छोड़ पाए थे इसलिए विजातीय पल्लव से विवाह की बात सुन कर पहले तो काफी क्रोधित हुए थे और विरोध भी किया था, लेकिन बेटी की दृढ़ता तथा निष्ठा देख कर आखिरकार तैयार हो गए थे तथा उस परिवार से मिलने की इच्छा जाहिर की थी.दोनों परिवारों की इच्छा एवं सुविधानुसार होटल में मुलाकात का समय निर्धारित किया गया था. बातों का सूत्र भी मम्मीजी ने ही संभाल रखा था. पंकज और पल्लव तो मूकदर्शक ही थे.

उन का जो भी निर्णय होता उसी पर उन्हें स्वीकृति की मुहर लगानी थी. यह बात जान कर माधुरी अत्यंत तनाव में थी तथा पल्लव भी मांजी की स्वीकृति का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.बातोंबातों में मां ने झिझक कर कहा था, ‘बहनजी, माधुरी को हम ने लाड़प्यार से पाला है, इस की प्रत्येक इच्छा को पूरा करने का प्रयास किया है. इस के पापा ने तो इसे कभी रसोई में घुसने ही नहीं दिया.’‘रसोई में तो मैं भी कभी नहीं गई तो यह क्या जाएगी,’ बात को बीच में ही काट कर गर्वभरे स्वर के साथ मम्मीजी ने कहा. मम्मीजी के इस वाक्य ने अनिश्चितता के बादल हटा दिए थे तथा पल्लव और माधुरी को उस पल एकाएक ऐसा महसूस हुआ कि मानो सारा आकाश उन की मुट्ठियों में समा गया हो. उन के स्वप्न साकार होने को मचलने लगे थे तथा शीघ्र ही शहनाई की धुन ने 2 शरीरों को एक कर दिया था.पल्लव के परिवार तथा माधुरी के परिवार के रहनसहन में जमीनआसमान का अंतर था. समानता थी तो सिर्फ इस बात में कि मम्मीजी भी मां की तरह घर को नौकरों के हाथ में छोड़ कर समाजसेवा में व्यस्त रहती थीं.

अंतर इतना था कि वहां एक नौकर था तथा यहां 4, मां नौकरी करती थीं तो ससुराल में सास समाजसेवा से जुड़ी थीं.मम्मीजी नारी मुक्ति आंदोलन जैसी अनेक संस्थाओं से जुड़ी हुई थीं, जहां गरीब और सताई गई स्त्रियों को न्याय और संरक्षण दिया जाता था. उन्होंने शुरू में उसे भी अपने साथ चलने के लिए कहा और उन का मन रखने के लिए वह गई भी, किंतु उसे यह सब कभी अच्छा नहीं लगा था. उस का विश्वास था कि नारी मुक्ति आंदोलन के नाम पर गरीब महिलाओं को गुमराह किया जा रहा है. एक महिला जिस पर अपने घरपरिवार का दायित्व रहता है, वह अपने घरपरिवार को छोड़ कर दूसरे के घरपरिवार के बारे में चिंतित रहे, यह कहां तक उचित है? कभीकभी तो ऐसी संस्थाएं अपने नाम और शोहरत के लिए भोलीभाली युवतियों को भड़का कर स्थिति को और भी भयावह बना देती हैं. उसे आज भी याद है कि उस की सहेली नीता का विवाह दिनेश के साथ हुआ था. एक दिन दिनेश अपने मित्रों के कहने पर शराब पी कर आया था तथा नीता के टोकने पर नशे में उस ने नीता को चांटा मार दिया. यद्यपि दूसरे दिन दिनेश ने माफी मांग ली थी तथा फिर से ऐसा न करने का वादा तक कर लिया था, किंतु नीता, जो महिला मुक्ति संस्था की सदस्य थी, ने इस बात को ऐसे पेश किया कि उस की ससुराल की इज्जत तो गई ही, साथ ही तलाक की स्थिति भी आ गई और आज उस का फल उन के मासूम बच्चे भोग रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएं भलाई का कोई काम ही नहीं करतीं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि किसी भी प्रतिष्ठान की अच्छाइयां छिप जाती हैं जबकि बुराइयां न चाहते हुए भी उभर कर सामने आ जाती हैं.वास्तव में स्त्रीपुरुष का संबंध अटूट विश्वास, प्यार और सहयोग पर आधारित होता है. जीवन एक समझौता है. जब 2 अजनबी सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु विवाह के बंधन में बंधते हैं तो उन्हें एकदूसरे की अच्छाइयों के साथसाथ बुराइयों को भी आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए. प्रेम और सद्भाव से उस की कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, न कि लड़झगड़ कर अलग हो जाना चाहिए.मम्मीजी की आएदिन समाचारपत्रों में फोटो छपती. कभी वह किसी समारोह का उद्घाटन कर रही होतीं तो कभी विधवा विवाह पर अपने विचार प्रकट कर रही होतीं, कभी वह अनाथाश्रम जा कर अनाथों को कपड़े बांट रही होतीं तो कभी किसी गरीब को अपने हाथों से खाना खिलाती दिखतीं. वह अत्यंत व्यस्त रहती थीं.

वास्तव में वह एक सामाजिक शख्सियत बन चुकी थीं, उन का जीवन घरपरिवार तक सीमित न रह कर दूरदराज तक फैल गया था. वह खुद ऊंची, बहुत ऊंची उठ चुकी थीं, लेकिन घर उपेक्षित रह गया था, जिस का खमियाजा परिवार वालों को भुगतना पड़ा था. घर में कीमती चीजें मौजूद थीं किंतु उन का उपयोग नहीं हो पाता था.मम्मीजी ने समय गुजारने के लिए उसे किसी क्लब की सदस्यता लेने के लिए कहा था किंतु उस ने अनिच्छा जाहिर कर दी थी. उस के अनुसार घर की 24 घंटे की नौकरी किसी काम से कम तो नहीं है. जहां तक समय गुजारने की बात है उस के लिए घर में ही बहुत से साधन मौजूद थे. उसे पढ़नेलिखने का शौक था, उस के कुछ लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुके थे. वह घर में रहते हुए अपनी इन रुचियों को पूरा करना चाहती थी.यह बात अलग है कि घर के कामों में लगी रहने वाली महिलाओं को शायद वह इज्जत और शोहरत नहीं मिल पाती है जो बाहर काम करने वाली को मिलती है. घरेलू औरतों को हीनता की नजर से देखा जाता है लेकिन माधुरी ने स्वेच्छा से घर के कामों से अपने को जोड़ लिया था.

घर के लोग, यहां तक कि पल्लव ने भी यह कह कर विरोध किया था कि नौकरों के रहते क्या उस का काम करना उचित लगेगा. तब उस ने कहा था कि ‘अपने घर का काम अपने हाथ से करने में क्या बुराई है, वह कोई निम्न स्तर का काम तो कर नहीं रही है. वह तो घर के लोगों को अपने हाथ का बना खाना खिलाना चाहती है. घर की सजावट में अपनी इच्छानुसार बदलाव लाना चाहती है और इस में भी वह नौकरों की सहायता लेगी, उन्हें गाइड करेगी.

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आंधी से बवंडर की ओर: अर्पिता क्या निकल पाई उस से बाहर

फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’

‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’

‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’

मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’

सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

मुझे अभी भी याद है कि शादी की खरीदारी में जब सभी लड़कियों के फ्राक व सलवारसूट के लिए एक थान कपड़ा आ जाता और लड़कों की पतलून भी एक ही थान से बनती तो इस ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि लोग सब को एक ही तरह के कपड़ों में देख कर मजाक तो नहीं बनाएंगे…बस, सब नए कपड़े की खुशी में खोए रहते और कुछ दिन तक उन कपड़ों का ‘खास’ ध्यान रखा जाता, बाकी सामान्य दिन तो विरासत में मिले कपड़े, जो बड़े भाईबहनों की पायदान से उतरते हुए हम तक पहुंचते, पहनने पड़ते थे. फिर भी कोई दुख नहीं होता था. अब तो ब्रांडेड कपड़ों का ढेर और बदलता फैशन…सोचतेसोचते मैं अपनी बेटी के साथ गाड़ी में बैठ गई और जब मेरी दृष्टि अपनी बेटी के चेहरे पर पड़ी तो वहां मुझे खुशी नहीं दिखाई पड़ी. वह अपने विचारों में खोईखोई सी बोली, ‘‘गाड़ी जरा बुकशौप पर ले लीजिए, पिछले साल के पेपर्स खरीदने हैं.’’

सुन कर मेरा दिल पसीजने लगा. सच तो यह है कि खुशी महसूस करने का समय ही कहां है इन बच्चों के पास. ये तो बस, एक मशीनी जिंदगी का हिस्सा बन जी रहे हैं. कपड़े खरीदना और पहनना भी उसी जिंदगी का एक हिस्सा है, जो क्षणिक खुशी तो दे सकता है पर खुशी से सराबोर नहीं कर पाता क्योंकि अगले ही पल इन्हें अपना कैरियर याद आने लगता है.

इसी सोच में डूबे हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. मैं सारे पैकेट ले कर उन्हें अप्पी के कमरे में रखने के लिए गई. पूरे पलंग पर अप्पी की किताबें, कंप्यूटर आदि फैले थे…उन्हीं पर जगह बना कर मैं ने पैकेट रखे और पलंग के एक किनारे पर निढाल सी लेट गई. आज अपनी बेटी का खोयाखोया सा चेहरा देख मुझे अपना समय याद आने लगा…कितना अंतर है दोनों के समय में…

मेरा भाई गिल्लीडंडा खेलते समय जोर की आवाज लगाता और हम सभी 10-12 बच्चे हाथ ऊपर कर के हल्ला मचाते. अगले ही पल वह हवा में गिल्ली उछालता और बच्चों का पूरा झुंड गिल्ली को पकड़ने के लिए पीछेपीछे…उस झुंड में 5-6 तो हम चचेरे भाईबहन थे, बाकी पासपड़ोस के बच्चे. हम में स्टेटस का कोई टेंशन नहीं था.

देवीलाल पान वाले का बेटा, चरणदास सब्जी वाले की बेटी और ऐसे ही हर तरह के परिवार के सब बच्चे एकसाथ…एक सोच…निश्ंिचत…स्वतंत्र गिल्ली के पीछेपीछे, और यह कैच… परंतु शाम होतेहोते अचानक ही जब मेरे पिता की रौबदार आवाज सुनाई पड़ती, चलो घर, कब तक खेलते रहोगे…तो भगदड़ मच जाती…

धूल से सने पांव रास्ते में पानी की टंकी से धोए जाते. जल्दी में पैरों के पिछले हिस्से में धूल लगी रह जाती…पर कोई चिंता नहीं. घर जा कर सभी अपनीअपनी किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाते. रोज का पाठ दोहराना होता था…बस, उस के साथसाथ मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई अलग से थोड़ी करनी होती थी, अत: 9 बजे तक पाठ पूरा कर के निश्ंिचतता की नींद के आगोश में सो जाते पर आज…

रात को देर तक जागना और पढ़ना…ढेर सारे तनाव के साथ कि पता नहीं क्या होगा. कहीं चयन न हुआ तो? एक ही कमरे में बंद, यह तक पता नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है. इन का दायरा तो फेसबुक व इंटरनेट के अनजान चेहरे से दोस्ती कर परीलोक की सैर करने तक सीमित है, एक हम थे…पूरे पड़ोस बल्कि दूरदूर के पड़ोसियों के बच्चों से मेलजोल…कोई रोकटोक नहीं. पर अब ऐसा कहां, क्योंकि मुझे याद है कि कुछ साल पहले मैं जब एक दिन अपनी बेटी को ले कर पड़ोस के जोशीजी के घर गई तो संयोगवश जोशी दंपती घर पर नहीं थे. वहीं पर जोशीजी की माताजी से मुलाकात हुई जोकि अपनी पोती के पास बैठी बुनाई कर रही थीं. पोती एक स्वचालित खिलौना कार में बैठ कर आंगन में गोलगोल चक्कर लगा रही थी, कार देख कर मैं अपने को न रोक सकी और बोल पड़ी…

‘आंटी, आजकल कितनी अच्छी- अच्छी चीजें चल गई हैं, कितने भाग्यशाली हैं आज के बच्चे, वे जो मांगते हैं, मिल जाता है और एक हमारा बचपन…ऐसी कार का तो सपना भी नहीं देखा, हमारे समय में तो लकड़ी की पेटी से ही यह शौक पूरा होता था, उसी में रस्सी बांध कर एक बच्चा खींचता था, बाकी धक्का देते थे और बारीबारी से सभी उस पेटी में बैठ कर सैर करते थे. काश, ऐसा ही हमारा भी बचपन होता, हमें भी इतनी सुंदरसुंदर चीजें मिलतीं.’

‘अरे सोनिया, सोने के पिंजरे में कभी कोई पक्षी खुश रह सका है भला. तुम गलत सोचती हो…इन खिलौनों के बदले में इन के मातापिता ने इन की सब से अमूल्य चीज छीन ली है और जो कभी इन्हें वापस नहीं मिलेगी, वह है इन की आजादी. हम ने तो कभी यह नहीं सोचा कि फलां बच्चा अच्छा है या बुरा. अरे, बच्चा तो बच्चा है, बुरा कैसे हो सकता है, यही सोच कर अपने बच्चों को सब के साथ खेलने की आजादी दी. फिर उसी में उन्होंने प्यार से लड़ कर, रूठ कर, मना कर जिंदगी के पाठ सीखे, धैर्य रखना सीखा. पर आज इसी को देखो…पोती की ओर इशारा कर वे बोलीं, ‘घर में बंद है और मुझे पहरेदार की तरह बैठना है कि कहीं पड़ोस के गुलाटीजी का लड़का न आ जाए. उसे मैनर्स नहीं हैं. इसे भी बिगाड़ देगा. मेरी मजबूरी है इस का साथ देना, पर जब मुझे इतनी घुटन है तो बेचारी बच्ची की सोचो.’

मैं उन के उस तर्क का जवाब न दे सकी, क्योंकि वे शतप्रतिशत सही थीं.

हमारे जमाने में तो मनोरंजन के साधन भी अपने इर्दगिर्द ही मिल जाते थे. पड़ोस में रहने वाले पांडेजी भी किसी विदूषक से कम न थे, ‘क्वैक- क्वैक’ की आवाज निकालते तो थोड़ी दूर पर स्थित एक अंडे वाले की दुकान में पल रही बत्तखें दौड़ कर पांडेजी के पास आ कर उन के हाथ से दाना  खातीं और हम बच्चे फ्री का शो पूरी तन्मयता व प्रसन्न मन से देखते. कोई डिस्कवरी चैनल नहीं, सब प्रत्यक्ष दर्शन. कभी पांडेजी बोट हाउस क्लब से पुराना रिकार्ड प्लेयर ले आते और उस पर घिसा रिकार्ड लगा कर अपने जोड़ीदार को वैजयंती माला बना कर खुद दिलीप कुमार का रोल निभाते हुए जब थिरकथिरक कर नाचते तो देखने वाले अपनी सारी चिंता, थकान, तनाव भूल कर मुसकरा देते. ढपली का स्थान टिन का डब्बा पूरा कर देता. कितना स्वाभाविक, सरल तथा निष्कपट था सबकुछ…

सब को हंसाने वाले पांडेजी दुनिया से गए भी एक निराले अंदाज में. हुआ यह कि पहली अप्रैल को हमारे महल्ले के इस विदूषक की निष्प्राण देह उन के कमरे में जब उन की पत्नी ने देखी तो उन की चीख सुन पूरा महल्ला उमड़ पड़ा, सभी की आंखों में आंसू थे…सब रो रहे थे क्योंकि सभी का कोई अपना चला गया था अनंत यात्रा पर, ऐसा लग रहा था कि मानो अभी पांडेजी उठ कर जोर से चिल्लाएंगे और कहेंगे कि अरे, मैं तो अप्रैल फूल बना रहा था.

कहां गया वह उन्मुक्त वातावरण, वह खुला आसमान, अब सबकुछ इतना बंद व कांटों की बाड़ से घिरा क्यों लगता है? अभी कुछ सालों पहले जब मैं अपने मायके गई थी तो वहां पर पांडेजी की छत पर बैठे 14-15 वर्ष के लड़के को देख समझ गई कि ये छोटे पांडेजी हमारे पांडेजी का पोता ही है…परंतु उस बेचारे को भी आज की हवा लग चुकी थी. चेहरा तो पांडेजी का था किंतु उस चिरपरिचित मुसकान के स्थान पर नितांत उदासी व अकेलेपन तथा बेगानेपन का भाव…बदलते समय व सोच को परिलक्षित कर रहा था. देख कर मन में गहरी टीस उठी…कितना कुछ गंवा रहे हैं हम. फिर भी भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं, आंखें बंद कर के.

अभी मैं अपनी पुरानी यादों में खोई, अपने व अपनी बेटी के समय की तुलना कर ही रही थी कि मेरी बेटी ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मा, मैं कोचिंग क्लास में जा रही हूं…दरवाजा बंद कर लीजिए…’’

मैं उठी और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में ही बैठ गई. मन में अनेक प्रकार की उलझनें थीं… लाख बुराइयां दिखने के बाद भी मैं ने भी तो अपनी बेटी को उसी सिस्टम का हिस्सा बना दिया है जो मुझे आज गलत नजर आ रहा था.

सोचतेसोचते मेरे हाथ में रिमोट आ गया और मैंने टेलीविजन औन किया… ब्रेकिंग न्यूज…बनारस में बी.टेक. की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कामर्स पढ़ना चाहती थी…लड़की ने मातापिता द्वारा जोर देने पर इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था. मुझे याद आया कि बी.ए. में मैं ने अपने पिता से कुछ ऐसी ही जिद की थी… ‘पापा, मुझे भूगोल की कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि मेरी सारी दोस्त अर्थशास्त्र में हैं. मैं भूगोल छोड़ रही हूं…’

‘ठीक है, पर मन लगा कर पढ़ना,’ कहते हुए मेरे पिता अखबार पढ़ने में लीन हो गए थे और मैं ने विषय बदल लिया था. परंतु अब हम अपने बच्चों को ‘विशेष कुछ’ बनाने की दौड़ में शामिल हो कर क्या अपने मातापिता से श्रेष्ठ, मातापिता साबित हो रहे हैं, यह तो वक्त बताएगा. पर यह तो तय है कि फिलहाल इन का आने वाला कल बनाने की हवस में हम ने इन का आज तो छीन ही लिया है.

सोचतेसोचते मेरा मन भारी होने लगा…मुझे अपनी ‘अप्पी’ पर बेहद तरस आने लगा. दौड़तेदौड़ते जब यह ‘कुछ’ हासिल भी कर लेगी तो क्या वैसी ही निश्ंिचत जिंदगी पा सकेगी जो हमारी थी… कितना कुछ गंवा बैठी है आज की युवा पीढ़ी. यह क्या जाने कि शाम को घर के अहाते में ‘छिप्पीछिपाई’, ‘इजोदूजो’, ‘राजा की बरात’, ‘गिल्लीडंडा’ आदि खेल खेलने में कितनी खुशी महसूस की जा सकती थी…रक्त संचार तो ऐसा होता था कि उस के लिए किसी योग गुरु के पास जा कर ‘प्राणायाम’ करने की आवश्यकता ही न थी. तनाव शब्द तो तब केवल शब्दकोश की शोभा बढ़ाता था… हमारी बोलचाल या समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की खबरों की नहीं.

अचानक मैं उठी और मैं ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि मैं अपनी ‘अप्पी’ को इस ‘रैट रेस’ का हिस्सा नहीं बनने दूंगी. आज जब वह कोचिंग से लौटेगी तो उस को पूरा विश्वास दिला दूंगी कि वह जो करना चाहती है करे, हम बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. मेरा मन थोड़ा हलका हुआ और मैं एक कप चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी…तभी टेलीफोन की घंटी बजी…मेरी ननद का फोन था…

‘‘भाभीजी, क्या बताऊं, नेहा का रिश्ता होतेहोते रह गया, लड़का वर्किंग लड़की चाह रहा है. वह भी एम.बी.ए. हो. नहीं तो दहेज में मोटी रकम चाहिए. डर लगता है कि एक बार दहेज दे दिया तो क्या रोजरोज मांग नहीं करेगा?’’

उस के आगे जैसे मेरे कानों में केवल शब्दों की सनसनाहट सुनाई देने लगी, ऐसा लगने लगा मानो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई हो…अभी मैं अपनी अप्पी को आजाद करने की सोच रही थी और अब ऐसा समाचार.

क्या हो गया है हम सब को? किस मृगतृष्णा के शिकार हो कर हम सबकुछ जानते हुए भी अनजान बने अपने बच्चों को उस मशीनी सिस्टम की आग में धकेल रहे हैं…मैं ने चुपचाप फोन रख दिया और धम्म से सोफे पर बैठ गई. मुझे अपनी भतीजी अनुभा याद आने लगी, जिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहे अपने एक सहकर्मी से इसलिए शादी की क्योंकि आज की भाषा में उन दोनों की ‘वेवलैंथ’ मिलती थी. पर उस का परिणाम क्या हुआ? 10 महीने बाद अलगाव और डेढ़ साल बाद तलाक.

मुझे याद है कि मेरी मां हमेशा कहती थीं कि पति के दिल तक पेट के रास्ते से जाया जाता है. समय बदला, मूल्य बदले और दिल तक जाने का रास्ता भी बदल गया. अब वह पेट जेब का रास्ता बन चुका था…जितना मोटा वेतन, उतना ही दिल के करीब…पर पुरुष की मूल प्रकृति, समय के साथ कहां बदली…आफिस से घर पहुंचने पर भूख तो भोजन ही मिटा सकता है और उस को बनाने का दायित्व निभाने वाली आफिस से लौटी ही न हो तो पुरुष का प्रकृति प्रदत्त अहं उभर कर आएगा ही. वही हुआ भी. रोजरोज की चिकचिक, बरतनों की उठापटक से ऊब कर दोनों ने अलगाव का रास्ता चुन लिया…ये कौन सा चक्रव्यूह है जिस के अंदर हम सब फंस चुके हैं और उसे ‘सिस्टम’ का नाम दे दिया…

मेरा सिर चकराने लगा. दूर से आवाज आ रही थी, ‘दीदी, भागो, अंधड़ आ रहा है…बवंडर न बन जाए, हम फंस जाएंगे तो निकल नहीं पाएंगे.’ बचपन में आंधी आने पर मेरा भाई मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूर तक भगाता ले जाता था. काश, आज मुझे भी कोई ऐसा रास्ता नजर आ जाए जिस पर मैं अपनी ‘अप्पी’ का हाथ पकड़ कर ऐसे भागूं कि इस सिस्टम के बवंडर बनने से पहले अपनी अप्पी को उस में फंसने से बचा सकूं, क्योंकि यह तो तय है कि इस बवंडर रूपी चक्रव्यूह को निर्मित करने वाले भी हम हैं…तो निकलने का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व भी हमारा ही है…वरना हमारे न जाने कितने ‘अभिमन्यु’ इस चक्रव्यूह के शिकार बन जाएंगे.

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चाय: गायत्री की क्या इच्छा थी?

गायत्री को अभी तक होश नहीं आया था. वैसे रविकांत गायत्री के लिए कभी परेशान ही नहीं हुए थे. उस की ओर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. बस, घर सुचारु रूप से चलता आ रहा था. घर से भी ज्यादा उन के अपने कार्यक्रम तयशुदा समय से होते आ रहे थे. सुबह वे सैर को निकल जाते थे, शाम को टैनिस जरूर खेलते, रात को टीवी देखते हुए डिनर लेते और फिर कोई पत्रिका पढ़तेपढ़ते सो जाते. उन की अपनी दुनिया थी, जिसे उन्होंने अपने इर्दगिर्द बुन कर अपनेआप को एक कठघरे में कैद कर लिया था. उन का शरीर कसा हुआ और स्वस्थ था.

रविकांत ने कभी सोचने की कोशिश ही नहीं की कि गायत्री की दिनचर्चा क्या है.? दिनचर्या तो बहुत दूर की बात, उन्हें तो उस का पुराना चेहरा ही याद था, जो उन्होंने विवाह के समय और उस के बाद के कुछ अरसे तक देखा था. सामने अस्पताल के पलंग पर बेहोश पड़ी गायत्री उन्हें एक अनजान औरत लग रही थी.

रविकांत को लगा कि अगर वे कहीं बाहर मिलते तो शायद गायत्री को पहचान ही न पाते. क्या गायत्री भी उन्हें पहचान नहीं पाती? अधिक सोचना नहीं पड़ा. गायत्री तो उन के पद्चाप, कहीं से आने पर उन के तन की महक और आवाज आदि से ही उन्हें पहचान लेती थी. कितनी ही बार उन्हें अपनी ही रखी हुई चीज न मिलती और वे झल्लाते रहते. पर गायत्री चुटकी बजाते ही उस चीज को उन के सामने पेश कर देती.

पिछले कई दिनों से रविकांत, बस, सोचविचार में ही डूबे हुए थे. बेटे ने उन से कहा था, ‘‘पिताजी, आप घर जा कर आराम कीजिए, मां जब भी होश में आएंगी, आप को फोन कर दूंगा.’’

बहू ने भी बहुतेरा कहा, पर वे माने नहीं. रविकांत का चिंतित, थकाहारा और निराश चेहरा शायद पहले किसी ने भी नहीं देखा था. हमेशा उन में गर्व और आत्मविश्वास भरा रहता. यह भाव उन की बातों में भी झलकता था. वे अपने दोस्तों की हंसी उड़ाते थे कि बीवी के गुलाम हैं. पत्नी की मदद करने को वे चापलूसी समझते.

रविकांत सोच रहे थे कि गायत्री से हंस कर बातचीत किए कितना समय बीत चुका है. बेचारी मशीन की तरह काम करती रहती थी. उन्हें कभी ऐसा क्यों नहीं महसूस हुआ कि उसे भी बदलाव चाहिए?

एक शाम जब वे क्लब से खेल कर लौटे, तो देखा कि घर के बाहर एंबुलैंस खड़ी है और स्ट्रैचर पर लेटी हुई गायत्री को उस में चढ़ाया जा रहा है. उस समय भी तो अपने खास गर्वीले अंदाज में ही उन्होंने पूछा था, ‘एंबुलैंस आने लायक क्या हो गया?’

फिर बेटेबहू का उतरा चेहरा और पोते की छलछलाती आंखों ने उन्हें एहसास दिलाया कि बात गंभीर है. बहू ने हौले से बताया, ‘मांजी बैठेबैठे अचानक बेहोश हो गईं. डाक्टर ने नर्सिंगहोम में भरती कराने को कहा है.’

तब भी उन्हें चिंता के बजाय गुस्सा ही आया, ‘जरूर व्रतउपवास से ऐसा हुआ होगा या बाहर से समोसे वगैरह खाए होंगे.’

यह सुन कर बेटा पहली बार उन से नाराज हुआ, ‘पिताजी, कुछ तो खयाल कीजिए, मां की हालत चिंताजनक है, अगर उन्हें कुछ हो गया तो…?’

13 वर्षीय पोता मनु अपने पिता को सांत्वना देते हुए बोल रहा था, ‘नहीं पिताजी, दादी को कुछ नहीं होगा,’ फिर वह अपने दादा की ओर मुड़ कर बोला, ‘आप को यह भी नहीं पता कि दादी बाजार का कुछ खाती नहीं.’

उस समय उन्होंने पोते के चेहरे पर खुद के लिए अवज्ञा व अनादर की झलक सी देखी. उस के बाद कुछ भी बोलने का रविकांत का साहस न हुआ. उन का भय बढ़ता जा रहा था. डाक्टर जांच कर रहे थे. एकदम ठीकठीक कुछ भी कहने की स्थिति में वे भी नहीं थे कि गायत्री की बेहोशी कब टूटेगी. इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं था.

कुछ बरस पहले गायत्री के घुटनों में सूजन आने लगी थी. वह गठिया रोग से परेशान रहने लगी थी. दोपहर 3 बजे उसे चाय की तलब होती. वह सोचती कि कोई चाय पिला दे तो फिर उठ कर कुछ और काम कर ले. बहू दफ्तर से शाम तक ही आती. एक दिन असहनीय दर्द में गायत्री ने रविकांत से कहा, ‘मुझे अच्छी सी चाय बना कर पिलाइए न, अपने ही हाथ की पीपी कर थक गई हूं.’

रविकांत झल्लाते हुए बोले, ‘और भेजो बहू को दफ्तर. वह अगर घर संभालती तो तुम्हें भी आराम होता.’

हालांकि रविकांत अच्छी तरह जानते थे कि अब महिलाओं को केवल घर से बांध कर रखने का जमाना नहीं रहा, पर अपनी गलत बात को भी सही साबित करने से ही तो उन के अहं की पुष्टि होती थी.

कुछ माह पूर्व रात को सब साथ बैठ कर खाना खा रहे थे. रविकांत हमेशा की तरह अपना खाना जल्दीजल्दी खत्म कर हाथ धो कर वहीं दूसरी कुरसी पर बैठ गए और टीवी देखने लगे. अचानक मनु ने पूछा, ‘दादाजी, क्या आप दादीजी में कुछ फर्क देख रहे हैं?’

रविकांत ने टीवी पर से आंखें हटाए बिना पूछा, ‘कैसा फर्क?’

‘पहले दादीजी को देखिए न, तब तो पता चलेगा.’

बेचारी गायत्री अपने में ही सिमटी जा रही थी. रविकांत ने एक उड़ती नजर उस पर डाली और बोले, ‘नहीं, मुझे तो कोई फर्क नहीं लग रहा है.’

‘आप ठीक से देख ही कहां रहे हैं, फर्क कैसे महसूस होगा?’ मनु निराशा से बोला. इस बीच बहूबेटा मुसकराते रहे.

‘पिताजी, बोलिए न, दादाजी को बता दूं?’ मनु ने लाड़ से पूछा.

फिर वह गंभीर स्वर में बोला, ‘दादाजी, दादी को दोपहर की चाय कौन बना कर पिलाता है, बता सकते हैं?’

दादाजी कुछ बोलें, उस से पहले ही छाती तानते हुए वह बोला, ‘और कौन, सिवा मास्टर मनु के…’

‘तू चाय बना कर पिलाता है?’ रविकांत अविश्वास से हंसते हुए बोले.

‘क्यों, मैं क्या अब छोटा बच्चा हूं? दादीजी से पूछिए, उन की पसंद की कितनी बढि़या चाय बनाता हूं.’

उस समय रविकांत को लगा था कि पोते ने उन्हें मात दे दी. उन के बेटे ने उन से कभी खुल कर बात नहीं की थी. उन का स्वाभिमान, भले ही वह झूठा हो, उन्हें बाध्य कर रहा था कि मनु के बारे में वही खयाल बनाएं जो अन्य पुरुषों के बारे में थे. उन्हें लगा, मनु भी बस अपनी बीवी की मदद करते हुए ही जिंदगी बिता देगा. ऐसे लोगों के प्रति उन की राय कभी भी अच्छी नहीं रही.

अस्पताल में बैठेबैठे न जाने क्यों उन्हें ऐसा लग रहा था कि अब चाय बनाना सीख ही लें. गायत्री को होश आते ही अपने हाथ की बनी चाय पिलाएं तो उसे कितना अच्छा लगेगा. अपनी सोच में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन से वे खुद भी आश्चर्य से भर गए.

एक दिन रविकांत मनु से बोले, ‘‘आज जब भी तू चाय बनाए तो मुझे बताना कि कितना पानी, कितनी चीनी और दूध वगैरह कब डालना है. सब बताएगा न?’’

‘‘ठीक है, जब बनाऊंगा, आप खुद ही देख लीजिएगा. आजकल तो केवल आप के लिए बनती है. वैसे दादी की और मेरी चाय में दूध और चीनी कुछ ज्यादा होती है.’’

‘‘तुम नहीं पियोगे?’’

‘‘जब से दादी अस्पताल गई हैं, मैं ने चाय पीनी छोड़ दी है,’’ कहतेकहते मनु की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘आज से हम दोनों साथसाथ चाय पिएंगे. आज मैं बनाना सीख लूंगा तो कल से खुद बनाऊंगा.’’

मनु सुबकसुबक कर रोने लगा, ‘‘नहीं दादाजी, जब तक दादीजी ठीक नहीं हो जाएंगी, मैं चाय नहीं पिऊंगा.’’

रविकांत को पहली बार लगा कि गायत्री की घर में कोई हैसियत है, बल्कि हलकी सी ईर्ष्या भी हुई कि उस ने बहू व पोते पर जादू सा कर दिया है. मनु को गले लगाते हुए वे बोले, ‘‘तुम अपनी दादी को बहुत चाहते हो न?’’

‘‘क्यों नहीं चाहूंगा, मेरे कितने दोस्तों की दादियां दिनभर ‘चिड़चिड़’ करती रहती हैं. घर में सब को डांटती रहती हैं, पर मेरी दादी तो सभी को केवल प्यार करती हैं और मुझे अच्छीअच्छी कहानियां सुनाती हैं. मालूम है, मुझे उन्होंने ही कैरम व शतरंज खेलना सिखाया. मां भी हमेशा दादी की तारीफ करती हैं. बिना दादीजी के तो हम लोग उन के प्यार को तरस जाएंगे.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा मत बोल. तेरी दादी को जल्दी ही होश आ जाएगा. फिर हम तीनों साथसाथ चाय पिएंगे,’’ पहली बार रविकांत को अपनी आवाज में कंपन महसूस हुआ.

उस दिन उन्होंने चाय बनानी सीख ही ली. मनु को खुश करने को उन्हें अचानक एक तरकीब सूझी, ‘‘क्यों न ऐसा करें, हम रोज दोपहर की चाय बना कर अस्पताल ले जाएं, किसी दिन तो तुम्हारी दादी होश में आएंगी, फिर तीनों साथसाथ चाय पिएंगे.’’

मनु उन की बात से बहुत उत्साहित तो नहीं हुआ, पर न जाने क्यों दिल उन की बात मानने को तैयार हो रहा था.

अगले दिन दोपहर को अस्पताल से फोन आया, बहू बोल रही थी, ‘‘पिताजी, मांजी होश में आ गई हैं, आप मनु को ले कर तुरंत आ जाइए.’’

रविकांत बच्चों की तरह उत्साह से भर उठे. जल्दीजल्दी चाय बना कर थर्मस में भर कर साथ ले गए. वहां गायत्री पलंग पर लेटी जरूर थी, पर डाक्टरों, नर्सों और दूसरे कर्मचारियों के खड़े रहने से दिख नहीं पा रही थी. मनु किसी तरह पलंग के पास पहुंच कर दादी की नजर पड़ने का इंतजार करने लगा.

रविकांत के मन में बस एक ही बात थी कि थर्मस में से अपने हाथ की बनी चाय पिला कर गायत्री को चकित कर दें, उन्होंने यह भी नहीं देखा कि वह वास्तव में होश में आ गई है या नहीं और डाक्टर क्या कह रहे हैं? बस, कप में चाय भर कर गायत्री के पास खड़े हो गए. गायत्री मनु को देख रही थी और मनु उस के हाथ को सहला रहा था.

डाक्टर ने रविकांत को देखा, ‘‘यह आप कप में क्या लाए हैं?’’

‘‘जी, इन्हें पिलाने के लिए चाय लाया हूं,’’ रविकांत की इच्छा हो रही थी कि कहें, ‘अपने हाथ की बनी,’ पर संकोच आड़े आ रहा था.

‘‘नहीं, अब आप को इन का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. मैं पूरा डाइट चार्ट बना कर देता हूं. उसी हिसाब और समय से इन्हें वही चीजें दें, जो मैं लिख कर दूं. चीनी, चावल, आलू, घी, वसा सब एकदम बंद. शक्कर वाली चाय तो इन के पास भी मत लाइए.’’

रविकांत चाय का प्याला हाथ में लिए बुत की तरह खड़े रहे. मनु नर्स द्वारा लाया गया सूप छोटे से चम्मच से बड़े जतन से दादी के मुंह में डाल रहा था.

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अंतर्व्यथा- भाग 3: कैसी विंडबना में थी वह

इसी कारण उन के मुंह से यह बात निकली. लेकिन मेरा? मेरा क्या? मेरा तो हर तरफ से छिन गया. लग रहा था छाती के अंदर, जो रस या खून से भराभरा रहता है, उस को किसी ने बाहर निकाल कर स्पंज की तरह निचोड़ दिया हो. टीवी के हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में यह खबर प्रसारित हो रही थी. दूसरे दिन अपहरणकर्ता का संभावित स्कैच जारी किया गया. दाढ़ी भरे उस दुबलेपतले चेहरे में भी चमकती उन 2 आंखों को पहचानने में मेरी आंखें धोखा नहीं खा पाईं. मैं ने अनुज को फोन लगाया, उस ने मेरे शक को यकीन में बदला. रहीसही कसर उस के नाम से पूरी हुई- ‘अज्जू भैया’. मैं शरद के मुंह से कई बार यह नाम सुन चुकी थी. ‘बहुत खतरनाक खूंखार इंसान है, इस को किसी तरह पकड़ लिया तो समझो नक्सलियों का खेल खत्म.’ उस ने ही बारूदी सुरंग बिछा कर पैट्रोलिंग पर गए शरद को बंदी बनाया. 2 कौंस्टेबल, 1 ड्राइवर शहीद हुए थे. अनुज आ गया था. नक्सलियों से 2 बार बातचीत असफल रही थी. मुख्यमंत्री की अपील का भी कोई असर नहीं था. अनुज के साथ मिल कर बहुत हिम्मत कर के मैं ने यह निर्णय लिया. मैं ने कलैक्टर साहब से बात की, ‘मुझे वार्त्ता के लिए भेजा जाए,’ पहले तो उन्होंने साफ मना कर दिया, ‘आप? वह भी इस उम्र में, एक खूंखार नक्सली से मिलने जंगल जाएंगी? पता भी है कितनी जानें ले चुका है?

बातचीत में, व्यवहार में, जरा सी चूक से जान जा सकती है.’ मैं फफक पड़ी, ‘ममता की कोई उम्र नहीं होती, सर. भले ही वह खूंखार हो, है तो किसी का बेटा ही, एक मां के आगे जरूर झुकेगा.’ मैं ने रंजनजी को भी जाने से सख्ती से मना कर दिया. अनुज मेरे साथ था. घने सरई, सागवान, पलाश के पेड़ों, बरगद की विशाल लटों से उलझते हुए हमें एक खुली जगह ले जाया गया. आंखें बंधी थीं. अंदाज से समझ में आया कि गंतव्य आ गया है. फुसफुसाहट हो रही थी. रास्ते में 5-6 जगह हमारी जांच की गई थी. यहां फिर जांच हुई और पट्टी खोल दी गई. साफसुथरी जगह में एक झोंपड़ीनुमा घर था. उसी के सामने खटिया पर अजय बैठा था. मामा को देखते ही परिचय की कौंध सी चमकी जो मुझे देखते ही विलुप्त हो गई. कितनी घृणा, कितना आक्रोश था उन नजरों में. कुछ देर की खामोशी के बाद उस ने साथियों को आंखों से जाने का इशारा किया. अब सिर्फ हम 3 थे. वह हमारी तरफ मुखातिब हुआ, ‘ओह, तो वह पुलिस वाला आप का बेटा है, कहिए, क्यों आई हैं? रिश्ते का कौन सा जख्म बचा है जिसे और खरोंचने आई हैं? आप क्या सोचती हैं, मैं उसे छोड़ दूंगा, कभी नहीं. अब तो और नहीं. मुझे जन्म दे कर आप ने जो पाप किया है उस की सजा तो आप को भुगतनी ही होगी.’ अनुज कुछ कहने को आतुर हुआ, उस के पहले ही मैं उस के पैरों पर गिर पड़ी, ‘मुझे सजा दो, गोलियों से भून दो, आजीवन बेडि़यों से जकड़ कर अपने पास रखो लेकिन उसे छोड़ दो, उसे मेरी गलती की सजा मत दो. मैं पापिन हूं, तुम को अधिकार है, तुम अपने सारे कष्टों का, दुखों का बदला मुझ से ले लो. ‘मैं लाचार थी. तुम ने एक गाय देखी है रस्सी में बंधी, जिसे उस का मालिक दूसरे के हाथों में थमा देता है, वह चुपचाप चल देती है दूसरे खूंटे से बंधने.’ ‘नहीं, गाय से मत कीजिए तुलना,’ वह चिल्लाया, ‘गाय तो अपने बच्चे के लिए खूंटा उखाड़ कर भाग आती है. आप तो वह भी नहीं कर पाईं.

एक मासूम को तिलतिल कर जलते देखती रहीं. आप ने एक पाप किया मुझे जन्म दे कर, दूसरा पाप किया मुझे पालपोस कर जिंदा रखने का. यह जिंदगी ही मेरे लिए नरक बन गई. जिस जिंदगी को आप संवार नहीं सकती थीं उस में जान फूंकने का आप को कोई हक नहीं था,’ उस का एकएक शब्द घृणा और तिरस्कार में लिपटा था. मैं गिड़गिड़ाने लगी, ‘मैं कमजोर थी, सचमुच गाय से भी कमजोर. अजय, मेरे बेटे, मैं माफी के भी काबिल नहीं. मैं मरना चाहती हूं, वह भी तुम्हारे हाथों, तभी मुझे शांति मिलेगी. बेटा, मुझे बंधक बना लो लेकिन उसे छोड़ दो, वह तुम्हारा भाई है.’ ‘खबरदार, भाई मत कहना, अगर यह वास्ता दोगी तो अभी जा कर उसे गोलियों से भून दूंगा,’ वह चिल्लाया, पहली बार उस के मुंह से मेरे लिए अनादर सूचक संबोधन निकले थे, ‘वह तुम्हारा बेटा है बस, इतना ही जानता हूं. जानते हैं मामा,’ वह अनुज की तरफ मुड़ कर कह रहा था, ‘नानाजी ने पता नहीं क्या सोच कर 15वीं सालगिरह पर दिनकर की रश्मिरथि मुझे उपहार में दी थी. अकसर मैं जब बहुत उदास होता, उसे खोल कर बैठ जाता. न जाने कितनी रातों की उदासी को मैं ने अपने आंसुओं से धोया है उसे पढ़ते हुए, कुंती-कर्ण संवाद तो मुझे कंठस्थ थे- दुनिया तो उस से सदा सभी कुछ लेगी पर क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी. लेकिन मामा, मैं कर्ण नहीं हूं, मैं कर्ण नहीं बनूंगा.’

लोगों की नजरों में एक क्रूर, हत्यारा अज्जू भैया अभी निर्विरोध मेरे सीने से लग कर फूटफूट कर रो रहा था. रात बीतने को थी, अचानक वह उठा, झोपड़ी के अंदर गया और कोई चीज अनुज को थमाई, फिर थोड़ी देर उसे कुछ समझाता रहा. अनुज पीछे की तरफ पहाड़ी की ओर चला गया. मैं ने निर्णय ले लिया था कि अब अजय को छोड़ कर नहीं जाऊंगी. मुझे किसी की चिंता नहीं थी, किसी का डर नहीं था लेकिन अजय ने मेरी बात सुन कर फिर उसी घृणित भाव से कहा, ‘अब बहुत देर हो गई, यहां किस के साथ किस के भरोसे रहेंगी, शेर, चीता और भालू के भरोसे? क्या आप जानती हैं एसपी को छोड़ने के बाद मेरे साथी मुझे जिंदा छोड़ेंगे? कभी नहीं. उन के हाथों मरने से तो अच्छा है खुद ही…’ बात अचानक बीच में ही छोड़ कर उस ने मेरी आंखों पर पट्टी बांधी और एक जगह ला कर छोड़ दिया फिर बोला, ‘भागिए.’ मैं असमंजस में थी. आगे शरद और अनुज दौड़ रहे थे. मैं भी उन के पीछे हांफते हुए दौड़ने लगी. अनुज ने रुक कर मुझे अपने आगे कर लिया. तभी पीछे से 3-4 राउंड गोली चलने की आवाज आई.

अनुज चिल्लाया, ‘शरद, गोली चलाओ, वे लोग हमारा पीछा कर रहे हैं,’ शरद के पास बंदूक कहां होगी? मैं सोच ही रही थी कि सचमुच शरद पीछे मुड़ कर गोलियां दागने लगा. घबरा कर मैं बेहोश हो गई. सुबह जब मेरी आंखें खुलीं, मैं अस्पताल में थी. तालियों की गड़गड़ाहट सुन कर मैं वर्तमान में लौटी. मेयर साहब शरद को मैडल पहना रहे थे. शरद की इस बड़ी उपलब्धि का सारा खोखलापन नजर आ रहा था. भीतर ही भीतर यह खोखलापन मुझे ही खोखला करता जा रहा था. अजय का अनुज को कुछ दे कर समझाना. शरद के पास बंदूक का होना. अनुज का शरद को गोली चलाने के लिए उकसाना. अचानक मेरे सामने से सारे रहस्य पर से परदा उठ गया. मैं स्तब्ध थी. प्रायश्चित्त का गहरा बवंडर घुमड़ रहा था जो मुझे निगलता जा रहा था. मेरा दम घुटने लगा. सामने टीवी पर अजय की फोटो दिखाई दी. नीचे लिखा था, ‘आतंक का अंत’. फिर मेरी बड़ी सी सुंदर तसवीर दिखाई जाने लगी और शीर्षक था ‘ममता की विजय’. मेरे पुत्रप्रेम और हिम्मत के कसीदे पढ़े जा रहे थे लेकिन मुझे मेरा चेहरा धीरेधीरे विकृत, फिर भयानक होता नजर आया. घबरा कर मैं ने पास रखे पेपरवेट को उठा कर टीवी पर जोर से फेंका और दूसरी ओर लुढ़क गई

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