Serial Story: एक छत के नीचे (भाग-1)

ट्रेन दिल्ली की ओर बढ़ रही थी. मैं ने प्लेटफार्म पर ट्रेन के पहुंचने से पहले अपना सामान समेटा और शीघ्रता से उतर गई. निगाहें बेसब्री से मिलन को ढूंढ़ रही थीं. थोड़ा आश्चर्य सा हुआ. हमेशा समय से पहले पहुंचने वाले मिलन आज लेट कैसे हो गए. तभी मेरे मोबाइल पर मिलन का संदेश आ गया.

‘‘सौरी डार्लिंग, आज बोर्ड की मीटिंग है और 9 बजे दफ्तर पहुंचना है, इसलिए तुम्हें लेने स्टेशन नहीं पहुंच पाया.’’ टैक्सी से घर पहुंची तो मिलन बरामदे की सीढि़यों पर ही मिल गए. साथ में निक्की भी थी. हलके गुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी, जो उस के जन्मदिन पर मिलन ने उसे भेंट की थी, सुर्ख बिंदी, लिपस्टिक और हाथों में खनकती चूडि़यां… सब मुझे विस्मित कर रहे थे. मैं ने प्यार से निक्की के गालों को थपथपाया, फिर कलाई पर बंधी घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘तू क्यों इतनी जल्दी जा रही है? रुक जा, 1 घंटे बाद चली जाना.’’ ‘‘अगर अभी इन के साथ निकल गई तो आधे घंटे में पहुंच जाऊंगी, वरना पहले बस फिर मैट्रो, फिर बस. पूरे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘शाम को जल्दी आ जाएंगे,’’ कह कर मिलन सीढि़यां उतर गए और कार स्टार्ट कर दी. दौड़तीभागती निक्की भी उन की बगल में जा कर बैठ गई. सामान अंदर रखवा कर मैं ने भवानी को चाय बनाने का आदेश दिया. फिर पूरे घर का निरीक्षण कर डाला. हर चीज साफसुथरी, सुव्यवस्थित, करीने से सजी हुई थी.

चाय की प्याली ले कर भवानी मेरे पास आ कर बैठी तो मैं ने कहा, ‘‘रात के लिए चने भिगो दो. साहब चनेचावल बहुत शौक से खाते हैं.’’

‘‘आजकल साहब रात में खाना नहीं खाते,’’ भवानी का जवाब था.

‘‘क्यों…’’

‘‘एक दिन निक्की बिटिया ने टोक दिया कि आजकल साहब का वजन बहुत बढ़ रहा है, बस तभी से रात का खाना बंद कर दिया,’’ भवानी ने हंस कर कहा.

‘‘मुझे तो बहुत भूख लगी है. जो कुछ बन पड़े बना लो. फिर थोड़ी देर सोऊंगी. थकावट के मारे बुरा हाल है.’’ नींद खुली तो कमरे से बाहर निकल कर बालकनी में बैठ कर मिलन और निक्की की प्रतीक्षा करने लगी. अभी उन के आने में 1 घंटा बाकी था. मैं ने अपने डिजिटल कैमरे में कैद फोटोग्राफ देखने शुरू कर दिए.

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दिल्ली से जबलपुर तक ट्रेन और  उस के आगे टाटा सफारी से मंडला तक की यात्रा काफी कठिन थी. पूरा क्षेत्र पानी में डूबा हुआ था. नर्मदा नदी में बाढ़ की वजह से तबाही मची हुई थी. जगहजगह सहायता शिविर और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोले गए थे. बाढ़ पीडि़तों की सहायता के लिए हमारी संस्था के साथ कई अन्य समाजसेवी संस्थाएं भी एकजुट हो कर कार्यरत थीं. 8 दिन का कार्यक्रम 1 महीने तक खिंच गया था. जब तक स्थिति में सुधार नहीं होता, लौटने का प्रश्न ही कहां उठता था?

मिलन की गाड़ी गेट पर नजर आई तो कैमरा बंद कर भवानी से कह कर चाय के साथ गरमागरम पकौड़े तैयार करवा लिए.

‘‘यह क्या बनवा लिया, बूआ?’’

‘‘बरसात के मौसम में तेरे फूफाजी को चाय के साथ गरम पकौड़े बेहद पसंद हैं.’’

‘‘वजन देखा है, कितना तेजी से बढ़ रहा है?’’ निक्की ने न जाने किस अधिकार के तहत पकौड़ों की प्लेट खिसका कर मिलन की तरफ देखा. मुझे उस का यह तरीका अच्छा नहीं लगा था.

‘‘आजकल यह सब बंद कर दिया है.’’

‘‘सिर्फ 1 कप दूध लूंगा,’’ मिलन बोले.

इतनी देर में निक्की 2 कप ग्रीन टी बना कर ले आई थी. टीवी देखते समय मिलन ने महज औपचारिकता के चलते वहां की कुछ बातें पूछीं और बातचीत का मुद्दा बदल दिया. शादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ था जब मैं और मिलन एकदूसरे से इतने लंबे समय के लिए अलग हुए थे. पूरे 1 महीने बाद मैं घर लौटी थी. उस पर मेरा कार्यक्रम इतना व्यस्त रहा था कि 1 दिन भी मिलन से जी भर कर बात नहीं हुई थी. बेडरूम में पहुंच कर भी मिलन के व्यवहार में वैसी गर्मजोशी नजर नहीं आई थी, जिस की मैं ने उम्मीद की थी. हर रात शारीरिक संबंध की कामना करने वाले मिलन, आज खानापूर्ति के लिए पतिपत्नी के शारीरिक रिश्ते की जिम्मेदारी निभा कर सो गए. मिलन के व्यवहार में आए इस बदलाव को देख कर मेरे मन में अब शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा.

‘कहीं मेरी गैरहाजिरी में मिलन और निक्की? नहीं…नहीं…मिलन मेरे साथ ऐसी बेवफाई नहीं कर सकते,’ उन के प्रति मेरे विश्वास की इस डोर ने ही शायद मुझे निश्ंिचत हो कर सोने का हौसला दिया और आज उन के बजाय मैं तकिए से ही लिपट कर सो गई.

आधी रात को जब आंख खुली तो मिलन बिस्तर पर नहीं थे. एक बार फिर मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा तो मैं ने स्टडीरूम में जा कर देखा. मिलन वहां भी नहीं थे. तभी निक्की के कमरे से पुरुष स्वर उभरा. कमरे में झांका तो जो दृश्य मैं ने देखा, उसे देख कर एक बार तो मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. मेरे पति मिलन निक्की के ऊपर पूरी तरह से झुके हुए थे. फिर उन की धीमी आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘निक्की, समझने की कोशिश करो. जब तक तुम्हारी बूआ यहां रहेंगी, हमें इसी तरह अलगअलग रहना होगा. तरु को जरा भी शक हो गया तो जानती हो क्या होगा?’’

इस पर निक्की का शिथिल स्वर उभरा, ‘‘जानती हूं, लेकिन आप से अलग हो कर मैं एक दिन भी तो नहीं जी सकूंगी.’’ मैं यों ही जड़वत खड़ी रह गई. मेरी बेचैन नजरें अपने पति पर ठहर गईं, जो अब भी सब से बेखबर हो कर निक्की को बेतहाशा चूम रहे थे. दुख, क्रोध और घृणा से तिलमिलाई मैं अपनी भावनाओं को अपने अंदर ही जज्ब कर के अपने कमरे मेें लौट आई थी.

मैं ने अपनी याददाश्त पर जोर दिया. पिछली बार जब मैं ने मिलन से निक्की के ब्याह की बात छेड़ी थी तो उसे सुनते ही मिलन भड़क उठे थे.

‘यों अचानक, निक्की को घर से निकालने की बात तुम्हें क्यों सूझी? पहले उसे किसी काबिल तो हो जाने दो. ब्याह तो कभी भी हो जाएगा.’

‘शादी की भी एक उम्र होती है मिलन. निक्की की उम्र अब उस के योग्य हो गई है. अच्छे रिश्ते नसीब से ही मिलते हैं.’

इस के बाद, श्रीचंद के बेटे सुशांत का बायोडाटा, जो भाभी ने कोरियर से हमें भेजा था, मैं ने मिलन के सामने रख दिया था. सुशांत ने एमए के बाद एमबीए किया था और अब एक मल्टीनैशनल कंपनी से उसे 7 लाख का पैकेज मिल रहा था. मिलन सुशांत का बायोडाटा मेज पर पटक कर बोले, ‘हम अपनी निक्की के लिए इस से अच्छा मैच ढूंढ़ेंगे.’ एम. ए. पास निक्की के लिए इस से अच्छा मैच और कौन सा हो सकता था? उस पर सब से बड़ी बात, दहेज की कोई मांग नहीं थी. इतना तो मिलन ने कभी अपनी बेटी सोनिया के लिए भी नहीं सोचा था, जितना वे निक्की के लिए सोच रहे थे.

मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब  निक्की को मैं गांव से पहलेपहल अपने घर लाई थी. निक्की की दादी यानी मेरी मां तो उसे मेरे साथ बिलकुल नहीं भेजना चाह रही थीं लेकिन मैं अपनी ही जिद पर अड़ी थी, ‘निकालो इसे इस दड़बे से और नई दुनिया देखने दो. कब तक इस गांव में रह कर यह यहां की भाषा बोलती रहेगी.’

मां तो आखिर तक विरोध करती रही थीं लेकिन भाभी मान गई थीं. अपने आधा दर्जन बच्चों में से किसी एक बच्चे का भी जीवन संवर जाए तो भला किस मां को आपत्ति होगी? निक्की को देखते ही मेरे सासससुर के माथे पर बल पड़ गए थे. किसी जरूरतमंद, दीनहीन, लाचार व्यक्ति को, अपने विशाल वटवृक्ष तले स्नेह और विश्वास से सींच कर आश्रय देने वाले मिलन भी सहज नहीं दिखाई दिए थे. ‘अम्मांबाबूजी की दवा और सोनिया की पढ़ाईलिखाई के खर्चे पूरे करतेकरते ही हम दोनों की आधी से ज्यादा पगार निकल जाती है. निक्की पर होने वाले अतिरिक्त खर्चे को कैसे बरदाश्त कर पाएंगे हम?’

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अम्मांबाबूजी के ताने सुनने की तो मैं शुरू से आदी हो गई थी लेकिन मिलन का रूखा व्यवहार बरदाश्त से बाहर था. मैं ने मिलन को तरकीब सुझाई कि कालेज से लौट कर मैं शाम के समय 3-4 ट्यूशन पढ़ा लूंगी. मिलन के चेहरे पर से तनाव की सुर्खी अब भी नहीं हटी थी. मैं ने फिर से अपनी बात पर जोर दिया.

‘मिलन, बड़ी भाभी के मुझ पर बहुत उपकार हैं. बाबूजी ने तो हमें मंझधार में छोड़ कर अपनी अलग दुनिया बसा ली थी. दूसरे दोनों भाई अपनीअपनी गृहस्थी में रम गए. यदि भाभी का कृपाहाथ मुझ पर न होता तो शायद मेरा अस्तित्व ही न होता. भैया की मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन हमेशा किया ही है.’ मिलन चुप हो गए थे.

शुरूशुरू में निक्की किसी से बात नहीं करती थी. जब तक मैं कालेज से वापस नहीं लौटती, वह एक ही कमरे में दुबकी रहती. सोनिया उसे खूब चिढ़ाती. कभी उसे अपने साथ खेलने पर मजबूर करती तो कभी उस की लंबी चोटी को झटक देती. एक दिन ऐसे ही सोनिया ताली  पीटपीट कर निक्की को चिढ़ा रही  थी. निक्की कभी मिलन को देखती, कभी मुझे निहारती. मिलन ने प्यार से जैसे ही उसे अपने पास बुलाया, निक्की उन के गले में झूल गई थी. मिलन देर तक उसे अपनी गोद में बिठा कर पुचकारते रहे. देर से ही सही, निक्की हमारे परिवार की सदस्य बन गई थी. स्कूल खुले तो हम ने निक्की का दाखिला सोनिया के ही स्कूल में करवा दिया था. उस की शक्लसूरत देख कर प्रिंसिपल ने पहले तो प्रवेश देने से साफ मना कर दिया था, लेकिन जब मैं ने स्वयं दिनरात मेहनत करने का भरोसा दिलाया तो वे मान गई थीं.

एक अच्छे पार्लर में जा कर मैं ने उस के बाल कटवा दिए. पुराने कपड़ों का स्थान नए कपड़ों ने ले लिया था. गांव की भाषा को छोड़ कर वह शुद्ध हिंदी बोलने लगी थी. रहने का सलीका धीरेधीरे उस के व्यक्तित्व का अंग बनने लगा. सोनिया में अद्भुत शैक्षणिक प्रतिभा थी. निक्की औसत छात्रा थी. हम ने उस के लिए एक मास्टर नियुक्त कर दिया था लेकिन उस का मन किताबों में रमता ही नहीं था. जितनी देर  सोनिया पढ़ती, वह ऊंघती रहती. उस का ध्यान भंग करने के लिए निक्की कभी किताब बंद कर देती, कभी पैनपैंसिल छिपा देती. एक दिन मैं ने उसे बुरी तरह झिड़क दिया, ‘कुछ देर तो मन लगा कर पढ़ा करो. सोनिया को देखा. डाक्टर बन गई और तुम थर्ड डिवीजन में 12वीं पास कर पाई हो. पता नहीं किसी कालेज में तुम्हें दाखिला मिलेगा भी या नहीं?’

मैं सिर्फ सोनिया की ही नहीं निक्की की भी मां थी और मां को तो हर पहलू से सोचना भी पड़ता है. मैं तो यही चाहती थी कि सोनिया की तरह निक्की भी आत्मनिर्भर बने. सोनिया की इंटर्नशिप समाप्त होते ही मिलन ने उस का विवाह अभिषेक से तय कर दिया. अभिषेक जितने सुंदर थे, उतना ही उन का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था. व्यवहार में सौम्यता और मृदुता छलकती थी. हंसीमजाक करते रहना उस के स्वभाव में शामिल था. पेशे से वरिष्ठ सर्जन भी थे.

सोनिया को मिलन का प्रस्ताव जरा भी नहीं भाया था. खूब रोई थी वह उस दिन, ‘पापा, मैं इतनी जल्दी विवाह नहीं करना चाहती.’ मिलन काफी परेशान हो गए थे. बारबार एक ही वाक्य दोहराते, ‘22 वर्ष की हो गई है सोनिया. विवाह की यही सही उम्र है. देर करने से अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाते हैं. तुम किसी तरह समझाबुझा कर उसे विवाह के लिए राजी करो?’ सोनिया अभिषेक के साथ विवाह कर के बेंगलुरु चली गई. दोनों ने मिल कर वहां नर्सिंग होम खोल लिया. सोनिया के ब्याह के बाद हम दोनों पतिपत्नी बिलकुल अकेले पड़ गए थे. मिलन बेटी को बेहद प्यार करते थे. गहन उदासी उन्हें चारों ओर से घेरे रहती. किसी काम में मन नहीं लगता था. निक्की ही उन के पास बैठ कर उन का मन बहलाती. उन के खानेपीने का ध्यान रखती. मिलन भी सोतेजागते, उठतेबैठते निक्की की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे. मैं अकसर मिलन से कहती, ‘एक बेटी विदा हुई तो दूसरी हमारे पास है. जब यह भी चली जाएगी तब क्या होगा?’

मिलन झील जैसी शांत शीतल निगाहें उठा कर, एक नजर मुझ पर डाल कर, हताशा के गहन अंधकार में डूब जाते. जीवन मंथर गति से चल रहा था. उन्हीं दिनों मैं ने कालेज से त्यागपत्र दे देने का अहम फैसला ले लिया. मिलन ने सुना तो मेरे फैसले का कस कर विरोध किया था.

‘अगले साल रिजाइन कर देना. तब तक मैं भी रिटायर हो जाऊंगा. एकसाथ घूमेंगेफिरेंगे. फिलहाल घर बैठ कर क्या करोगी?’

‘समाजसेवा करूंगी.’

मिलन चुप हो गए थे. मैं ने कई समाजसेवी संस्थाओं से संपर्क स्थापित किए और समाजसेवा के कार्यों में जुट गई. सुबह कुष्ठ आश्रम, दोपहर में अनाथ आश्रम. कभी समाज के निम्नवर्ग के उत्थान के लिए चंदा जमा करती, कभी गरीबों के प्रशिक्षणार्थ समाज के समर्थ लोगों से मिलती. ‘सोनिया तो अपनी ससुराल चली गई. अब तुम भी समाजसेवा के चक्कर में मुझ से दूर होती जा रही हो एक दिन मिलन ने शिकायत की.’

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‘यहीं तो हूं, तुम्हारे पास.’

‘कहां?’ मिलन मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लेते. मैं खुद को उन की बाहों की गिरफ्त से मुक्त करने का असफल प्रयास करती.

‘तुम भी तो हर समय दफ्तर के कामों में उलझे रहते हो. शाम को निक्की तुम्हारी देखभाल कर लेती है.’

‘और रात में?’

‘धत्,’ मिलन शरारत से पूछते तो मैं मुसकरा कर उन के सीने पर सिर रख देती. उन्हीं दिनों भाभी 2 दिन के लिए दिल्ली आई थीं. साथ में सुशांत का बायोडाटा भी लाई थीं. मुझे देखते ही हैरान रह गईं. ‘यह क्या हाल बना रखा है तुम ने, तरु? शरीर बेडौल होता जा रहा है. न ढंग से पहनती हो, न सजतीसंवरती हो,’ उन्होंने मेरे टूटेफूटे नाखून और फटी एडि़यों की तरफ इशारा करते हुए पूछा.

‘अब सजसंवर कर किसे दिखाना है, भाभी?’

‘पुरुष का मनोविज्ञान बड़ा ही विचित्र होता है तरु. जिस पत्नी के साथ उस ने अपने जीवन के इतने वसंत देखे, हर सुखदुख में उस का साथ निभाया, जो पहले उसे अच्छी लगती थी, अब एकाएक उस में कमियां नजर आने लगेंगी और वह उसे फूटी आंख नहीं सुहाएगी.’ तब मैं ने भाभी की बात को मजाक में टाल दिया था, लेकिन आज उम्र के इस पड़ाव पर महसूस हो रहा था, जैसे अपनेआप को पूरी तरह समर्पित करने के बाद भी मैं मिलन का मन नहीं पा सकी. वरना उन के कदम क्यों भटकते?  2 घंटे बाद मिलन वापस लौटे. रात भर हम दोनों पतिपत्नी दो किनारों की तरह अलगअलग लेटे रहे. 2 अजनबियों की तरह आपस में ही सिमटे रहे. बंद आंखों से मैं ने महसूस किया, मिलन के हाथ मेरी ओर बढ़ते, फिर वे खुद पर काबू पा लेते. चादर पर बिछे गुलाब के कांटे मिलन को छेद रहे थे. वे मुझे भी तकलीफ पहुंचा रहे थे.

सुबह तेज बारिश हो रही थी. तेज हवा के झोंकों से खिड़कियों, दरवाजों के खटकने का शोर सुनाई दिया, तो मेरी तंद्रा भंग हुई. अब मैं वास्तविकता के धरातल पर थी. बेमन से बिस्तर छोड़ कर खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. तभी निक्की के कमरे का दरवाजा खुला. हाथ में छोटा एअरबैग लिए वह मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘कहीं जा रही हो?’’ मैं ने नीचे से ऊपर तक उसे निहारा.

‘‘जी, अपनी सहेली के पास.’’

‘‘यों अचानक?’’

मैं जानती थी कि यह मिलन और निक्की की पूर्व नियोजित योजना थी. आज रात की फ्लाइट से सोनिया, बेंगलुरु से आ रही थी. दिल्ली में 2 दिन का उस का सेमिनार था. सोनिया जब भी आती, निक्की हमेशा इसी तरह घर छोड़ कर चली जाती है. मन पश्चात्ताप की आग में जल उठा था. कई बार हम सच को अस्वीकार कर उस से दूर क्यों भागते हैं? मुझे याद है, पिछली बार जब सोनिया आई थी तब निक्की यों ही बहाना बना कर अपनी सहेली के घर चली गई थी. मिलन के मोबाइल पर लगातार एसएमएस की ट्रिनट्रिन सुन कर सोनिया ने मोबाइल उठा लिया था.

‘पापा को इतने मैसेज कौन भेजता है, ममा?’

‘अरे, यों ही विज्ञापन कंपनी वाले परेशान करते रहते हैं,’ मैं ने लापरवाही से बात उछाल दी थी.

सोनिया एकएक कर के मैसेज पढ़ती चली गई.

‘ ‘आई लव यू’ ममा, इस उम्र में पापा को इतने हौट मैसेज कौन भेजता है? अच्छा, यह पढ़ो, ‘तकदीर ने मिलाया, तकदीर ने बनाया, तकदीर ने हम को आप से मिलाया. बहुत खुशनसीब थे वो पल, जब आप जैसे दोस्त इस जिंदगी में आए.’

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सोनिया की बातों पर मैं ने जरा भी ध्यान नहीं दिया था. इस में कोई संदेह नहीं कि मिलन में किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने का गुण है. रिटायरमैंट की उम्र तक पहुंच गए, लेकिन यौवन दूर नहीं गया. उन की आंखों में एक विशेष तरह की गहराई है. हर समय सलीके से कपड़े पहनते हैं. रात में भी परफ्यूम से सराबोर हो कर वे मुझे अपने आगोश में भींचते तो ब्याह के शुरुआती दिन मुझे याद आ जाते.

‘ओह, मिलन, इस उम्र में भी तुम्हें हर रात…’

‘इंसान को हमेशा जवान बने रहना चाहिए. अपने विचार ही तो बुढ़ापा लाते हैं.’

– क्रमश:

Serial Story: एक छत के नीचे (भाग-3)

चिंता सी हो रही थी कि सहेली के घर वह न जाने किस हाल में होगी. दूसरे, इसी बहाने से वह सोनिया से मिल भी लेगी. कौफी हाउस में डोसा खाते समय सोनिया ने दिल को छू लेने वाला विषय छेड़ दिया था, ‘‘‘ममा, आप ने ‘चीनी कम’ फिल्म देखी है? एक युवती अपने पिता की उम्र के प्रौढ़ से पे्रम करती है…’

‘‘हां, इसी विषय पर और कई फिल्में बनी हैं, ‘निशब्द’, ‘दिल चाहता है’ आदि.’’

‘‘ऐसा क्यों होता है, ममा?’’

‘‘उस वक्त प्रौढ़ और वह युवती, दोनों ही यह समझते हैं कि प्यार की कोई सीमारेखा नहीं होती. उन्हें यही लगता है कि प्यार तो कभी भी किसी से भी हो सकता है. युवती यह समझती है कि यह उस की जिंदगी है और इसे अपने तरीके से जीना उस का अधिकार है. उधर प्रौढ़ को भी अपनी युवा प्रेमिका से कोई उम्मीद तो होती नहीं, हालांकि प्रेमिका की उम्र के उस के बच्चे होते हैं, लेकिन प्यार के शुरुआती दिनों में वह इस बात को ज्यादा अहमियत नहीं देता और अपनी युवा प्रेमिका के साथ भरपूर मौज करना चाहता है. लेकिन एक दिन जब परिवारजनों को पता चलने पर उसे परिवार की तीखी निगाहों व आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है तो उस के पास पछताने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता. और वह युवती? क्या पूरी उम्र रखैल की भूमिका निभा सकती है? नहीं. कभी न कभी उस का संयम भी जवाब दे जाता है.’’

मैं ने चोर नजरों से निक्की और मिलन की ओर देखा. दोनों के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं. मैं भी सोनिया के सामने कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाह रही थी. सोनिया को एअरपोर्ट छोड़ कर हम वापस लौट ही रहे थे कि मिलन के मोबाइल पर एसएमएस आने शुरू हो गए. निश्चित रूप से ये मैसेज निक्की ही भेज रही थी. न जाने किस मिट्टी की बनी थी यह लड़की? सोच कर हंसी भी आ रही थी, आश्चर्य भी हो रहा था. मेरे ही प्यार से सींचा गया यह पौधा, फिर भी इस पौधे ने इतना अलग रूप कैसे ले लिया? घर में कदम रखते ही मैं ने मिलन से सीधेसपाट शब्दों में पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है?’’

‘‘किस बारे में?’’ मिलन बुरी तरह हड़बड़ा गए थे.

मैं चुपचाप उन का चेहरा निहारती रही तो वे बोले, ‘‘तरु, तुम तो तरु हो. तुम्हारे नाम की सार्थकता इसी में है कि दूसरों को अपनी शीतल छाया के नीचे शरण दो. निक्की को रहने दो इसी घर में. समाज के सामने तो हम दोनों पतिपत्नी ही रहेंगे न?’’

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कितना भयावह रूप था मिलन का? जिस पुरुष के नाम का सिंदूर मैं अपनी मांग में भरती आई थी, उसी पुरुष ने मुझे कितनी आसानी से पराया बना दिया? क्या देह इतनी बेलगाम हो सकती है कि नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ कर बेबुनियाद रास्ता अपना ले? अपमान की आग में चोट खाया मन, अंदर ही अंदर सुलगने लगा. अगर हालात से समझौता कर लूं तो क्या इतना सहज होगा रिश्तों में संतुलन बनाना? कभी न कभी सोनिया और अभिषेक मेरे मन की थाह पा ही लेंगे, फिर तो वे मिलन से नफरत ही करेंगे. मिलन मेरी और निक्की दोनों की जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहे थे. मिलन करवट बदल कर लेट गए थे. मैं जानती थी कि उन्हें थोड़ी देर में नींद आ जाएगी. इतना ही अंतर होता है पुरुष और स्त्री में. पुरुष रिश्तों को ध्वस्त कर के भी सामान्य हो जाता है और स्त्री रिश्तों के भरभरा कर गिरने पर खुद भी टूट कर बिखर जाती है. पुरुष, जिसे अग्नि को साक्षी मान कर साथ निभाने का वचन देता है, उसे भूल कर दूसरी नारी के साथ संबंध स्थापित करने में जरा नहीं सकुचाता.

कमरे में अंधेरा सा छाने लगा तो मैं ने खिड़की के परदे हटा दिए थे. सूरज ढलने के बाद, जो मरियल सा उजाला फैला होता है, वही हर ओर पसरा था. सोनिया के जाते ही मिलन मुक्ति पर्व मनाने लगे. अब वे बेझिझक निक्की के कमरे में घुस जाते. घंटों वहीं बैठे रहते. उसे उपहार देते, घुमाने ले जाते, फिल्में दिखाते. उस दिन मैं ने नाश्ते की मेज पर मिलन को बुलाया. उन के पीछेपीछे निक्की भी आ गई थी

‘‘एक बात पूछूं, मिलन? उस शाम यदि निक्की के स्थान पर सोनिया होती तो क्या तब भी आप ऐसा ही घृणित कृत्य करते?’’ निक्की की मौजूदगी में मैं उन से ऐसा सीधा सपाट प्रश्न करूंगी, कभी सोचा नहीं था मिलन ने. ऐसा निर्मम और अश्लील प्रस्ताव सुनने के बाद मिलन अपना चेहरा झुकाए चुपचाप बैठे रहे.

मेरे सीने में जो अपमान भरा था, उसे तिलतिल कर खाली करते हुए मैं ने पुन: वही प्रश्न दोहराया तो मिलन उठ खड़े हुए. निक्की के लिए यह स्थिति अप्रत्याशित सी थी. वह तो यही समझ रही थी कि ऐसे ही चलता रहेगा सबकुछ. जवानी की दहलीज पर कदम रखती तरुणी की जैसे कुछ भी सोचनेसमझने की शक्ति चुक गई थी. किसी ने उस का मार्गदर्शन भी तो नहीं किया था. वह फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘‘बस कीजिए, बूआ. मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा हूं.’’

‘‘सच हमेशा कड़वा होता है, निक्की. पर जैसे आदमी अस्वस्थ हो तो उसे कड़वी दवा पीनी पड़ती है, उसी तरह इंसान यदि गलती करता है तो उसे कड़वे बोल सुनने पड़ते हैं. इस घर की छत के नीचे रह कर दूसरी औरत बनने से कहीं अच्छा है सुशांत के साथ ब्याह कर उस की अर्धांगिनी बनो.’’ निक्की अपने कमरे में चली गई तो मिलन बौखला से गए. बोले, ‘‘कहीं निक्की कोई गलत कदम न उठा ले…’’

‘‘कुछ नहीं होगा. सुंदर, सुव्यवस्थित गृहस्थी में प्रवेश कर वह अपने अतीत को एक दुस्वप्न की तरह भुला देगी. मिलन, उसे अपनी जिंदगी जीने दो और तुम भी लौट आओ अपनी गृहस्थी में,’’ मेरे चेहरे पर दृढ़ता के भाव मुखर हो उठे. उस रात मिलन ने अपनी बांहों में मुझे कस कर भींचा तो लगा कि मैं दम ही तोड़ दूंगी. कितना सुखद था वह एहसास. अगले माह सुशांत से निक्की का विवाह हो गया. मैं ने अपने घर की टूटती दीवारों को बचा लिया था. मेरे चेहरे पर संतोष की रेखाएं घिर आई थीं.

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क्षितिज ने पुकारा: क्या पति की जिद के आगे झुक गई नंदिनी?

Serial Story: क्षितिज ने पुकारा (भाग-2)

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 दिल की कोमल नंदिनी थिएटर आर्टिस्ट थी. नंदिनी का थिएटर में काम करना पति रूपेश को पसंद नहीं था. एक दिन रिहर्सल के दौरान देर हो गई. घर जाने के लिए बस नहीं मिली तो उस के साथ काम करने वाला प्रीतम अपने स्कूटर पर उसे घर तक छोड़ने गया. घर पर उस का पति रूपेश गुस्से से भरा बैठा उस का इंतजार कर रहा था, जिस ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई. रूपेश उसे बहुत कष्ट देता था. सास की मृत्यु के बाद घर में बूआ सास की हुकूमत चलती थी, जिस की खुद की जिंदगी काफी संघर्ष से बीती थी.

अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी से बूआ सास हमेशा नकारात्मक सोच ही रखती थीं, जिस का प्रतिबिंब पति रूपेश पर भी गहरा पड़ा था.

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ज्योत्सना की खिलीखिली अनुभूतियां कितनी ही रातें नंदिनी को आसमान की सैर करा देती थीं, मगर आज रिसते दर्द पर शूल सा चुभ रहा था यह चांद. भूखीप्यासी वह तंद्राच्छन्न होने लगी ही थी कि अचानक लड़ाकू सैनिक सा रूपेश कमरे में आ धमका. बत्ती जला दी उस ने. वितृष्णा और प्रतिशोध से धधकते रूपेश को नंदिनी की शीलहीनता और कृतध्नता ही दिखाई देने लगी थी.

टूटी, तड़पती नंदिनी उठ कर बिस्तर पर बैठ गई.

‘‘महारानी इधर आराम फरमा रही हैं… यह नहीं कि देखे बूआ सास और पति को क्या दिक्कतें हैं? बहुत सह ली मैं ने तुम्हारी मनमानी… बूआ ने सही चेताया है… ब्राह्मण परिवार की बहू को पराए मर्दों के साथ हजारों लोगों के सामने नौटंकी कराना हमारी बिरादरी में नहीं सुहाता. हमारे घर बेटी है. कभी बेटी की फिक्र भी करती हो? तुम्हारे 4-5 हजार रुपयों से हमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला… सोच लो वरना चली जाना हमेशा के लिए.’’

रूपेश ने नंदिनी के थिएटर के प्रेम पर, उस के काम पर दफन की आखिरी मिट्टी डाल दी थी.

थिएटर का काम अब फायदे वाला नहीं रह गया. इस में खर्चे तो बहुत पर कला के कद्रदान कम हो गए हैं. ऐसे में थिएटर में काम करने वालों को बहुत कम पैसे दिए जाते हैं. जो पुराने कलाकार हैं, जो कला के प्रति समर्पित हैं, उन्हें अपने फायदे का त्याग करना पड़ता है.

औडिटोरियम, लाइट्स, स्टेज सज्जा, वस्त्र सज्जा, साउंड इफैक्ट, स्पैशल इफैक्ट पर हर स्टेज शो के लिए कम से कम क्व30-40 हजार का खर्चा बैठता ही है और वह भी कम पैमाने के नाटक के लिए. ऊपर से प्रचार और विज्ञापन का खर्चा अलग से.

ऐसे में शुभंकर दा या प्रीतम जैसे लोग अपना पैसा तो लगाते ही हैं, बाहर से भी मदद का जुगाड़ करते हैं. उन के समर्पण को देखते हुए नंदिनी जैसे कलाकार जो सिर्फ अपना थोड़ा समय और थोड़ी सी कला ही दे सकते हैं कैसे उन के साथ पैसे के लिए जिद करें?

अपने परिवार की ओछी सोच के आगे अगर नंदिनी जैसे लोग हार मान लें तो थिएटर जैसा रचनात्मक क्षेत्र लुप्तप्राय हो जाए.

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नंदिनी निढाल सी बिस्तर पर पड़ी रही. रूपेश नीचे जा चुका था. सुबह के 5 बज रहे थे. नंदिनी बिस्तर समेट नहाधो आई. फिर वेणु को उठाया,

सोई निबटा कर वेणु को स्कूल बस तक छोड़ आई. आ कर सब को नाश्ता कराया. किसी ने उस से नहीं पूछा. वह खा नहीं पाई. घर के बाकी काम निबटाती रही.

रूपेश के औफिस जाने से पहले जिस का फोन आया, उस से वह बहुत उत्साहित हो कर बातें करने लगा.

नंदिनी के पास इतना अधिकार नहीं रह गया था कि वह रूपेश से कुछ पूछ सके. फोन रख कर जैसाकि हमेशा बात करता था एक बौस की तरह अभी भी उसी अंदाज में नंदिनी से बोला, ‘‘ये रुपए पकड़ो, बाजार से जो भी इच्छा लगे ले आना. बढि़या व्यंजन बना कर रखना. शाम को मेरा दोस्त नयन और उस की पत्नी शहाना आ रहे हैं. कहीं जाने की गलती न करना वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’ यह कहीं का मतलब थिएटर ही था.

पत्नी से बात करना रूपेश ने कभी सीखा ही नहीं. अत: नंदिनी ने भी अपनी जिंदगी के अभावों से समझौता कर लिया था.

मगर कल तक उस के नाटक का आखिरी रिहर्सल था. परसों से शो. कोलकाता के 2 हौल्स में टिकट बिकने को दिए गए थे. अब यह धोखा नंदिनी कैसे करे?

शाम को घर का माहौल काफी बदला सा था. करीने से सजे घर में महंगे डिजाइनर सैटों की साजसज्जा के बीच सलीके से सजी नंदिनी इतने शोर के बीच बड़ी शांत सी थी. शहाना शोरगुल के बीच भी नंदिनी पर नजर रखे थी. वेणु को भी वह काफी कटाकटा सा पा रही थी. कौफी का कप हाथ में लिए शहाना नंदिनी के पास जा पहुंची. फिर उस का हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘‘चलो कहीं घूम आती हैं. अभी तो शाम के 6 ही बजे हैं… खाना 10 बजे से पहले खाएंगे नहीं.’’

‘‘आप कहें तो मेरी पसंदीदी जगह चलें?’’

‘‘नंदिनी मुझे तुम आप न कहो. चलो, चलें.’’

शहाना नंदिनी को ले पति बिरादरी के पास पहुंच चुकी थी. उन की बातें सुन नंदिनी अवाक रह गई. नयन भी तो पुरुष हैं, पति हैं, यह कैसे संभव हो पाया.

नयन कह रहे थे, ‘‘इतना ही नहीं शहाना अपनी साल भर की बेटी को मेरी मां के घर राजोरी गार्डन छोड़ती, तब डांस ऐकैडेमी जा कर डांस के गुर सीखती. हफ्ते में 3 दिन उसे ग्रेटर नोएडा से आनाजाना पड़ता… बहुत संघर्ष कर के उस ने अपने डांस के शौक को बचाया है. यह इस के संघर्ष का फल है कि कल कोलकाता के टाउनहौल में इस की एकल प्रस्तुति है. मैं बहुत गर्वित हूं शहाना पर.’’

‘‘अरे नयन, तुम ज्यादा बोल रहे हो… ये सब तुम्हारे बिना बिलकुल संभव नहीं होता. अगर तुम घर में मेरी गैरमौजूदगी में घर को न संभालते तो मैं कहां आगे बढ़ पाती? सासूमां ने भी बेटी को संभालने के लिए कभी मना नहीं किया.’’

‘‘एक स्त्री के लिए घर और अपने शौक दोनों को एकसाथ संभालना कितना मुश्किल भरा काम है, मैं ही समझ सकती हूं. नौकरी एक बार में छोड़ी जा सकती है, पर कला, हुनर और जनून से मुंह मोड़ना नामुमकिन है. लेखन, नाटक, गायन, नृत्य क्षेत्र बेहद समर्पण मांगते हैं. ऐसे में एक समझदार, स्नेही और निस्वार्थ पति के संरक्षण में ही विवाहित स्त्री का शौक फूलफल सकता है,’’ कह शहाना थोड़ी रुक कर फिर बोली, ‘‘रूपेश भाई साहब हम घूमने जा रहे हैं. नंदिनी भी साथ जा रही हैं,’’ भाई साहब.

‘‘हांहां, क्यों नहीं?’’

पति के इस उदारवाद के पीछे की मानसिकता भी नंदिनी से छिपी नहीं थी. रूपेश अपनी छवि को ले कर दूसरों के सामने बहुत सचेत रहता था. उसे अभिनय का सहारा लेना पड़ता.

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ये भी विडंबना ही है. अन्य के चरित्र चित्रण में नंदिनी ने स्वयं को वास्तव में कभी नहीं खोया, लेकिन स्वयं के चरित्र में रूपेश को अन्य को धारण करना पड़ता है, खुद को छिपाना पड़ता है. नंदिनी शहाना को टौलीगंज के ड्रामा स्कूल ले गई.

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Serial Story: क्षितिज ने पुकारा (भाग-3)

‘‘अरे वाह, यह हमारा मनपसंद इलाका है. बंगाल के चलचित्र महानायक उत्तम कुमार का कर्मस्थान.’’

‘‘तुम्हें पसंद आएगा, मैं जानती थी.’’

‘‘तुम यहां किसी को जानती हो?’’

ड्रामा स्कूल में प्रवेश करते हुए नंदिनी शहाना से मुखातिब हुई, ‘‘यह ड्रामा स्कूल शुभंकर दा का है… मैं यहां सदस्य हूं.’’

‘‘तुम? तुम तो बड़ी सीधी सी बेजबान कोमलांगिनी, शरमीली, गृहवधू हो.’’

‘‘चलो, अंदर चलो,’’ नंदिनी ने मृदु स्वरमें कहा.

शुभंकर की टीम को नंदिनी का आगमन स्वयं कला की देवी के आविर्भाव सा प्रतीत हुआ.

इधरउधर बैठे टीम के सदस्य अपनेअपने रोल की प्रैक्टिस कर रहे थे. नंदिनी का रोल ही आधार चरित्र था. उस के बिना नाटक कर पाना असंभव था. नंदिनी को देख सभी बड़े खुश हुए, मगर नंदिनी कल की चिंता में बेचैन थी.

शुभंकर दा ने नंदिनी की बेचैनी को भांप लिया. आज शुभंकर दा की पत्नी अनुभा भाभी भी यहां थीं. जब से इन का बेटा अमेरिका गया था नौकरी के लिए, अनुभा भाभी कोई न कोई नया कुछ पकवान बना कर यहीं ले आती.  शुभंकर दा ने जब नंदिनी से बेचैनी का कारण पूछा तो उस की आंखों से आंसू बहने लगे.

अनुभा भाभी ने उसे अपने पास बैठाया. शहाना और टीम के सभी सदस्य भी पास आ गए, जब नंदिनी के संघर्ष का सच खुला तो शहाना अवाक रह गई कि इतनी जिल्लतें, इतनी धमकियां, दुर्व्यवहार झेलते हुए भी वह घर और अपने शौक के जनून दोनों के साथ न्याय कैसे कर पा रही हैं?

शहाना ने कहा, ‘‘नंदिनी तुम अब सब कुछ मुझ पर छोड़ दो. तुम्हारे शो का टाइम 8 बजे से है और मेरा शाम 4 से 6 बजे तक… सब ठीक हो जाएगा,’’ और फिर घर लौट आईं.रात को शहाना ने नयन को ऐसी जादुई खुशबू सुंघाई कि नयन ने कहा, ‘‘बस देखती जाओ.’’

सुबह होते ही नयन ने कहा, ‘‘यार मैं सोफे में धंस कर बंद दरवाजे के अंदर सुबह के सूरज को खोना नहीं चाहता. चल बाहर सैर को चलें.’’

दोनों पास के बगीचे की तरफ निकल गए. चलतेचलते नयन ने कहा, ‘‘यार रूपेश तुम्हारी बिरादरी में तो अकसर बीवियां गुणी होती हैं. घरगृहस्थी और पतिसेवा के अलावा भी उन की जिंदगी के कुछ मकसद होते हैं… नंदिनी भाभी क्या कुछ नहीं करतीं?’’

‘‘अरे छोड़ न तू भी क्या ले कर बैठ गया?’’

‘‘क्यों इस बात में क्या बुराई है?’’

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‘‘बुराई है… न मुझे और न ही बूआ को यह रास आता कि औरतें घर संभालने के अलावा भी कुछ करें और अगर करें तो इतना पैसा कमाएं कि उन का घर से बाहर निकलना परिवार वालों को भा जाए.’’

‘‘यार बुरा मत मानना. तुम लोगों की इन्हीं छोटी सोचों की वजह से पीढि़यां बस घिसट रही हैं. वास्तविक उन्नति नहीं हो पा रही है.’’

‘‘स्वार्थ, अहंकार, ईर्ष्या, जिद के वश में हो कर तुम लोग जो भी नियम बनाते हो उसे पत्नी पर थोप देते हो.’’

‘‘यार रूपेश तेरी सोच से 3 दशक पुरानी बू आ रही है. तेरी बूआ से बातें कर के लगा कि उन्होंने अपनी पूरी सोच तुझ में स्थानांतरित कर दी है. तू तो हमारी पीढ़ी का लगता ही नहीं.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और क्या… बापदादों सा अकड़ू, तर्कहीन, निर्दयी… क्या खाख आधुनिक है तू? नए आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल से स्वयं को आधुनिक नहीं बना सकते दोस्त… विचारों के बंद दरवाजे से सूरज लौट रहा है… बूआ की छोड़ रूपेश… उन्हें जो न मिला वह शायद उन के हिस्से में न था. तू अपना पारिवारिक जीवन क्यों नष्ट कर रहा है? बूआ की हर बात से प्रेरित हो कर तुम अपनी बेटी और पत्नी के साथ क्यों दुखद रवैया अपनाते हो?’’

वैसे तो जिद्दी लोगों का कायापलट जल्दी नहीं होता, फिर भी रूपेश ने सोचना शुरू कर दिया. बूआ सारा दिन टीवी सीरियलों के चालाक पात्रों से सीख लेती रहती हैं. अत: वे घर में ही जमी रहीं.

6 बजे शहाना का सफल शो खत्म होने के बाद शहाना और नंदिनी हौल पहुंची. शहाना कोलकाता के थिएटर के प्रति अपनी गहरी रुचि बता कर सभी को यहां ले आई थी. सभी अंदर गए तो नंदिनी ग्रीनरूम चली गई.

रूपेश की आंखें बारबार नंदिनी को ढूंढ़ रही थीं. नाटक शुरू होने पर रूपेश को भ्रम होने लगा कि क्या यह नंदिनी है… हां वही है.

मंच पर पूरी साजसज्जा में अदाकारा नंदिनी को देख वह हैरान था. इतनी डांट, अपमान यहां तक कि शारीरिक यातना के बाद भी जिस की जबान तक नहीं फूटती थी वह कब इतने लंबे डायलौग याद करती होगी? वह तो मानसिक पीड़ा में पेपर भी नहीं पढ़ सकता… कितनी प्रतिभाशाली है यह? उसे इतनी खीज और ईर्ष्या क्यों हो रही है? वह अपने सवालों में उलझ कर दीवाना सा होने लगा.

उस की अब तक की भावना उस के बाहर जाने, मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाने की काल्पनिक सोच पर ही आधारित थी.

बगल में बैठे नयन ने अचानक उस की बाजू पर अपना हाथ रखा. फिर कहा, ‘‘दोस्त, मैं समझ रहा हूं कि तुम विचलित हो… तुम्हारे लिए अपनी पुरानी सोचों पर विजय पाना कठिन है. मगर तुम पिंजरे में घुट कर मर रहे हो. प्रकृति ने जिसे जो गुण दिया है, उसे विकसित होने के पूरे मौके दो.’’

‘‘वेणु को भी नया सवेरा दो. क्या तुम ने नंदिनी को स्त्री होने की सजा देने का ठेका ले रखा है? वक्त रहते बदल जाओ नहीं तो वक्त की मार पड़ेगी.’’

रात बिस्तर पर चांदनी फिर आई. दोनों के बीच आज शांति की एक झीनी सी दीवार थी, लेकिन रूपेश का उद्वेलित मन पुरुष के कवच में सिमटा ही रह गया, पर चांदनी नंदिनी को महीनों बाद सुकून की नींद दे गई थी.

सुबह शहाना और नयन के जाने के बाद रूपेश भी औफिस निकलने को हुआ.

नंदिनी से दोपहर के खाने का डब्बा पकड़ते हुए रूपेश ने कहा, ‘‘शाम को थिएटर से आते वक्त सब्जियां ले आना. मेरी मीटिंग है… देर हो जाएगी लौटने में. और हां, कल थिएटर नहीं जाना, शोरूम चलेंगे स्कूटी देखने… थिएटर से वापसी में औटो का झंझट ही न रहे तो बेहतर.’’

पुरुष का पति बनना आज पृथ्वी की सब से मीठी घटना लग रही थी. नंदिनी की आंखों से विह्वल प्रेम की मीठी बयार जहां संकोच की दीवार लांघ रूपेश की नजरों से जा टकराई, रूपेश की नजरों ने प्रेयसी के होंठों का लावण्य भरा स्पर्श किया.

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नि:शब्द अनुभूतियों के आलिंगन में बंधी नंदिनी आज ज्योत्सना भरी उसी रात का बेसब्री से इंतजार करने लगी. हो भी क्यों न. यह तो धरती और आसमां का वह मिलन होगा जहां दायरे खत्म हो जाएंगे… क्षुद्र सीमाओं का असीम में विलय हो जाएगा.

Serial Story: क्षितिज ने पुकारा (भाग-1)

शुभंकर सर के ड्रामा स्कूल के गेट से निकल कर नंदिनी औटोस्टैंड की ओर बढ़ी ही थी कि पीछे से प्रीतम प्यारे ने आवाज दी, ‘‘कहां चली नंदिनी? रात हो रही है… शायद ही औटो मिले. चलो, मैं छोड़ देता हूं.’’

नंदिनी रुक गई. एक शालीन मनाही की खातिर. बोली, ‘‘नहीं प्रीतम, अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है. 9 ही तो बजे हैं.’’

‘‘तुम्हारी तरफ वाले औटो अब ज्यादा कहां?’’

नंदिनी ने अपनी चलने की गति बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मिल जाएंगे.’’

प्रीतम पास ही बाइक की स्पीड धीमी कर के चल रहा था.

नंदिनी चिंतित सी बोली, ‘‘प्रीतम, तुम चले जाओ… रूपेश ने देख लिया तो मैं…’’

‘‘ठीक है… चलो तुम्हें औटो में बैठा कर मैं निकल जाऊंगा. अकेले छोड़ दिया और फिर औटो नहीं मिला तो बड़ी मुश्किल होगी,’’ प्रीतम बोला.

कोलकाता शहर का टौलीगंज इलाका नृत्य, संगीत, सिनेमा, थिएटर के नशे में पूरी तरह विभोर. रोजगार देने वाला शहर होने की वजह से जनसंख्या अत्यधिक थी.

नंदिनी का घर सोनारपुर में पड़ता था. अपेक्षाकृत कुछ अविकसित इलाका. रात होते ही औटो की आवाजाही उधर कम हो जाती.

नंदिनी ने चुप्पी तोड़ी. बोली, ‘‘आज तुम अभी घर जा कर फिर एक बार शुभंकर दा के घर जाने वाले हो न स्क्रिप्ट फाइनल करने?’’

‘‘हां जाना ही पड़ेगा. शुक्रवार को शो है. फिर मालदा और रानाघाट भी शो फाइनल करने जाना पड़ेगा… सारी बातें उन के साथ करनी ही पड़ेंगी. चौकीदार के रोल के लिए कोई राजी नहीं हो रहा जबकि छोटा होने के बावजूद वह अहम रोल है.’’

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‘‘हां शुभंकर दा भले ही डाइरैक्टर हैं, लेकिन तुम्हारे बिना तो सारा कुछ असंभव सा है… वैसे टीम मैंबर सब अच्छे ही हैं.’’

‘‘नई त्रिशला अभी अकुशल है. उस के लिए शुभंकर दा की मेहनत थोड़ी ज्यादा हो गई है.’’

‘‘कोलकाता के 2 हौलों के टिकट की व्यवस्था कब तक हो जाएगी?’’

‘‘देखो शुभो दा क्या कहते हैं.’’

‘‘आधा घंटा होने को आया पर अभी तक कोई औटो नहीं आया. चलो बैठो नंदिनी अब जिद से कोई लाभ नहीं,’’ प्रीतम प्यारे बोला.

नंदिनी लाचार हो गई थी, पर प्रीतम का उस के लिए ठहरना उसे गवारा नहीं था… उस के साथ जाने या मतलब रूपेश के हाथों मौत को निमंत्रण देना था.

जैसे ही नंदिनी प्रीतम की बाइक पर पीछे बैठी रूपेश की आंखें, उस के गाल, उस के कान, उस के बाल, उस की मूंछें, उस की भौंहें सब कुछ धीरेधीरे किसी दैत्य सा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. वह समझ नहीं पाती कि पता नहीं वे लोग उस पर थोड़ी भी दया क्यों नहीं दिखाते.

नंदिनी के पिता की किराने की छोटी सी दुकान थी. दोनों बेटियों की शादी उन्होंने इसी दुकान के सहारे बड़ी धूमधाम से की थी. लेकिन आसपास बड़ेबड़े मौल्स, शौपिंग सैंटर्स आदि खुल जाने पर उन का महल्ला भी शहर की चकाचौंध में ऐसा गुम हुआ कि उन की दुकान बस मक्खियों का अड्डा बन कर रह गई.

पिता की दुकान से जब घर में फाके की नौबत आ गई तो फाइन आर्ट्स में ग्रैजुएशन करने की नंदिनी ने सोची. वह शौकिया थिएटर करती रहती थी. एक दिन प्रयोजन ने शुभंकर दत्ता के थिएटर स्कूल से उसे जोड़ दिया. शुभंकर दत्ता थिएटर से जुड़े समर्पित व्यक्तित्व थे. प्रीतम उन का दाहिना हाथ था, जो प्राइवेट फर्म में नौकरी के साथसाथ थिएटर और रंगमंच के प्रति भी पूरी तरह समर्पित था.

इस के अलावा यहां स्त्रीपुरुष मिला कर करीब 20 लोगों की टीम थी, जो थिएटर मंचन के लिए बाहर भी जाती और कोलकाता के अंदर भी हौल बुक कर टिकट बेच अपना शो चलाती.

ये सब भले ही पैसों की जरूरत के मारे थे, लेकिन जनून इतना था कि न इन्हें अपना न स्वास्थ्य दिखता न पैसा… न समय दिखता, न परिवार यानी थिएटर ही इन का सब कुछ बन गया था. लेकिन जितना ये इस थिएटर से कमाते, उस से कहीं ज्यादा इन्हें इस में लगाना पड़ जाता. खासकर शुभंकर और प्रीतम तो जैसे इस यूनिट को चलाए रखने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहते. वहां टीम के बाकी लोग भी कभी अपना समर्पण कम न करते.

रचनात्मकता के स्रोत जैसे इन के बीच लगातार फूटते रहते.

‘‘रुकोरुको प्रीतम… मैं यहीं उतर जाऊंगी,’’ कहते नंदिनी गाड़ी के धीरे होने से पहले ही उतरने की कोशिश करने लगी.

‘‘इतनी दूर अंदर तक अकेले जाओगी?’’

‘‘तुम चले जाओ प्रीतम…मैं रूपेश को फोन करती हूं.’’

कई बार फोन मिलाने के बावजूद कोई उत्तर नहीं. प्रीतम को न चाहते हुए भी अनदेखा कर वह घर की ओर चल पड़ी. प्रीतम प्यारे बड़ा खुशमिजाज, सच्चा और मददगार इनसान है. वह समझ गया था कि नंदिनी पति की ओर से काफी परेशानी है.

कई बार शादीशुदा व्यक्ति भी संवेदनशील न होने पर स्त्री की दशा बिना समझे उस पर ज्यादती करता है और कई बार प्रीतम प्यारे जैसे लोग शादीशुदा न हो कर भी संवेदनशील होने के कारण अपने आसपास की स्त्रियों की दशा भलीभांति समझ पाते हैं.

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प्रीतम पाल की इसी नर्मदिली की वजह से टीम की सारी महिलाएं उसे प्रीतम प्यारे कहतीं.

नंदिनी को घर में प्रवेश करते ही रूपेश बैठक में सोफे पर बैठा मिला. अखबार के पीछे छिपे रूपेश के चेहरे को यद्यपि वह पढ़ नहीं पा रही थी, लेकिन उस की मनोदशा से वह अनजान भी नहीं थी.

नंदिनी ने डरते हुए पूछा, ‘‘खाना लगा दूं?’’

शाम 5 बजे नंदिनी थिएटर रिहर्सल के लिए निकलती है तो खाना बना कर ही जाती है.

रूपेश की ओर से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर पूछा, ‘‘खाना दे दूं.’’

रूपेश ने बहुत शांत स्वर में कहा, ‘‘खाना हम ले लेंगे. बूआ तो हैं ही नौकरानी… वे ही सब काम कर लेंगी अब से… बेटी भी खुद ही पढ़ लेगी. तुम महारानी बाहर गुलछर्रे उड़ाओ और हमारी थाली में छेद करो.’’

नंदिनी के लिए वह कठिन वक्त होता जब उस के वापस आने से पहले ही रूपेश घर आ चुका होता.

वह इलैक्ट्रिक विभाग में इंजीनियर है. पैसा, रूतबा, घर, गाड़ी सब कुछ है.

दिल की कोमल नंदिनी झगड़ों से बहुत घबराती है, लेकिन अब उस की जिंदगी में झगड़ा, तानेउल्लाहने अहम हिस्सा हैं.

‘‘मुझे माफ कर दो, आज औटो नहीं मिल रहा था.’’

‘‘कैसे आई फिर?’’

‘बिना दोष के कलंकिनी साबित हो जाएगी वह, झूठ का ही सहारा लेना पड़ेगा… मगर शातिर रूपेश ने पकड़ लिया तो,’ पसीने से तरबतर नंदिनी ने सोचा. फिर बोली, ‘‘औटो काफी देर बाद मिला.’’

‘‘जरूरत ही क्या है बाहर जाने की? रोजीरोटी कमाने जा रही हो? हमें पालना पड़ रहा है तुम्हें? कितने पैसे आते हैं महीने में? मुश्किल से 7-8 हजार… इन के न आने से हमें क्या फर्क पड़ेगा? घर में रह कर घर का खयाल नहीं रख सकती? बाप के घर में खाने के लाले पड़े होंगे, जो बेटी का कमाया खाया… यहां हम बीवी का कमाया देखते तक नहीं.’’

‘‘इस की बेटी भी ज्यादा दिन घर में नहीं रहेगी, देख लेना… अभी ही अगर इस की मां को कुछ कह दें तो तुरंत जवाब देती है,’’ बूआ ने आग में घी का काम किया.

नंदिनी का दिल बैठा जा रहा था. ये लोग ऐसे ही बोलते रहेंगे तो 13 साल की बेटी भी जीने का उत्साह खो देगी. पति न समझे तो कैसे वह अपने जनून और कला को जिंदा रखे? कैसे रूपेश को समझाए कि यह 7-8 हजार की बात नहीं है. उस की नसों में, उस के खून के उबाल में अभिनय तड़पता है. उस तड़प की अभिव्यक्ति बिना वह मृतप्राय है.

पत्नी के मन को छुए बिना पति यह कैसे समझे कि यह न तो बाहरी मर्दों को पाने की चाह है, न पैसों की लालसा, न जिम्मेदारियों से भागने की मंशा और न ही पति के साथ प्रतियोगिता.

इस सब के बीच अपनी बेटी को वह कैसे स्त्री होने के मान और गौरव से सजाए यह भी नंदिनी के लिए एक बड़ा प्रश्न था.

बेटी वेणु ने डाइनिंग टेबल पर 2-4 मिनट रुक कर अपना खाना खत्म कर ऊपर अपने कमरे में चली गई. वह बहुत कम बोलती थी. न हंसतीखेलती थी और न ही किसी बात पर अपनी राय देती थी.

बूआ और रूपेश खाना खाते हुए व्यंग्यबाणों से नंदिनी का कलेजा छलनी कर रहे थे..

आए दिन खाते वक्त ही इन का यह सिलसिला शुरू होता और नंदिनी भूखे

पेट ही रह जाती. रसोई का काम निबटा कर वह अपने कमरे में चली गई. बेटी को झांका. वह

सो चुकी थी. अपने कमरे में आ कर वह बिस्तर पर लेट गई. आज उम्मीद नहीं थी कि रूपेश ऊपर आए. शायद नीचे बाबूजी के कमरे में ही सो जाए.

खुली खिड़की से आती ठंडी हवा उसे सहलाने लगी. निर्मम बूआ और उन्हीं की शिक्षा से पलेबढ़े रूपेश का चेहरा बारबार उस की आंखों के सामने आ रहा था.

आंसुओं के तूफान में नंदिनी को अपनी सास की हर बात याद आने लगी. उस की शादी के 2 साल बाद ही सास गुजर गई थीं, लेकिन उन के साथ बिताए पल उस की स्मृति में अब भी ताजा हैं. सास से सुना था उस ने…

बूआ सास अर्थात हिरन्मयी की शादी खातेपीते पुजारी ब्राह्मण से हुई थी. 70 के दशक के शुरुआती वर्ष में वह कच्चे यौवन से मदमाती खिलती कली थी. उम्र का 17वां पड़ाव घूंघट के नीचे आकंठ प्यास, शरीर में भौंरों का गुंजन, मन कामनाओं से सराबोर…

ससुराल में सास और पति के अलावा एक चंचल सा देवर जिस के होंठों में भरपूर रसीला सा आमंत्रण सदैव पारिवारिक कायदे में छिपा दबा रहता था.

30 साल के पति को परमेश्वर मानने की परंपरा ने हिरन्मयी को बस पति के भोग का साधन ही बना रखा था. जिंदगी चलती जा रही थी.

एक दिन अचानक ‘बस के खाई में गिरने से 50 की मौत’ के समाचार में पति का नाम देख उस की जिंदगी खत्म हो गई.

अब वह घर की बहू न रह गई थी. विधवा बहू सास के लिए बेटे के मौत की साक्षात तसवीर थी. सफेद साड़ी में लिपटी बहू हमेशा सास की आंखों के सामने बेटे की मौत की गवाह बनी रहती.

पंडिताई कर के ससुरजी ने बहुत कमाया था. घर में 2 गाएं भी थीं. अपनी जमीन थी, जो उन के शहर से दूर गांव में थी. सास वहां अपने खेत के चावल लेने जाया करतीं. अन्नसंपन्न घर था, लेकिन विधवा की स्थिति तब बहुत खराब थी. दिन भर दोमंजिले मकान में काम करते वह थकती नहीं थी, लेकिन सास को संतुष्ट कर पाना अब उस के वश में नहीं था.

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तानोंउलाहनों से उस के पंख कटे यौवन पर हर वक्त चोट करती रहती. बड़े बेटे की मौत ने उन्हें प्रकृति से प्रतिशोध का यही सहज तरीका सुझाया था. जहां सहानुभूति इनसान को जोड़ती है, कृतज्ञ बनाती है वहीं क्रूरता बगावत को निमंत्रण देती है. हिरन्मयी देवर के आकर्षण के प्रति सचेत सहने लगीं. रसोई हो या बरतन मांजने की जगह, छत पर कपड़े सुखाने हों या कमरों की सफाई करनी हो, साए की तरह देवर पीछे रहता.

ऐसे ही एक दिन सूखे कपड़े छत से उतारते वक्त देवर ने पीछे से आ जकड़ा. प्यासी हिरन्मयी चेतनाशून्य सी होने लगी. देवर उसे कमरे में ले गया और फिर दोनों दीनदुनिया से बेखबर एकदूसरे में समा गए.

छत से सास की सहेली गायत्री ने सारा नजारा अपनी आंखों में कैद कर लिया.

अचानक दरवाजे पर जोरजोर से ठकठक होने लगी तो दोनों कपड़े समेटते हुए खड़े हुए.

फिर बहू के लिए घर का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो गया. पर बेटा अपना था. अत: उसे माफ कर दिया गया.

गनीमत यह रही कि बड़े बेटे की इज्जत और छोटे ब्याह की खातिर बात दबा दी गई. शीघ्रातिशीघ्र हिरन्मयी के पिता को बुला कर बेटी सौंप दी गई. एक अध्याय समाप्त.

पिता और भाई ने उस के वैधव्य की हताश को छेड़े बिना उसे सहारा दिया. पिता के साथ वाले नीचे के कमरे में उसे हमेशा के लिए जगह दे दी गई. पिता की ओर से फिर कभी उस की शादी की कोशिश नहीं की गई. इसलिए कि कहीं दबीढकी बात खोजबीन में सामने न आ जाए और रहीसही शांति भी नष्ट हो जाए. निजी हताशा हिरन्मयी के पलपल में बसने लगी.

इधर रूपेश की मां अचानक बीमार रहने लगी. उसे क्या हुआ है डाक्टर पकड़ नहीं पा रहे थे. कभी मुंह में छाले, कभी बुखार तो कभी पेट दर्द. वह ज्यादातर वक्त या तो स्वयं को ले कर पस्त रहती या फिर परिवार के कामकाज को ले कर. अकेली बूआ ने अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए इस परिवार का भार अपने कंधों पर लेना शुरू कर दिया.

रूपेश से लगाव और स्नेह की मात्रा में स्वयं का आधिपत्य भी समाने लगा. ‘मुझे जिंदगी ने दिया ही क्या है’ के भाव की जगह ‘मुझे सब कुछ अपना बनाना होगा’ का भाव गहरा होता गया. बारबार उसे देवर की याद आती. सोचती कि अगर सास चाहती तो देवर के साथ उस का ब्याह कर सकती थी. देवर भी तो उस से 4 साल बड़ा ही था. लेकिन कलंकित मान कर बुरी तरह निकाल दिया.

इधर नंदिनी की सास की कायामात्र ही इस परिवार में बची रह गई थी. बूआ थीं वर्चस्व की अधिकारिणी.

रूपेश के जीवन पर बूआ की हर मानसिकता की गहरी छाप थी. बूआ का हरे से जीवन का अचानक पतझड़ में बदल जाना संतप्त और नकारात्मक व्यक्तित्व के निर्माण का मूल कारण बन गया था और इसी बूआ के सांचे में ढला रूपेश आज की आधुनिक जीवनशैली में भी सामंती सोच का प्रतिनिधि था.

आखिर रूपेश की शादी के 2 साल बाद लंबी बीमारी के बाद रूपेश की मां चल बसी. रूपेश का अपनी मां से लगाव न के बराबर रह गया था. उस के पूरे निर्णय और सोच बूआ की सत्तासीन सोचों से प्रेरित थे.

सास की मौत के कुछेक सालों में नंदिनी के ससुर भी गुजर गए.

– क्रमश:

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Serial Story: रिश्ता (भाग-2)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- रिश्ता भाग-1

उस शाम अशोकजी ने जब अलका से इस विषय पर बातचीत आरंभ की तो सोमनाथ भी वहां मौजूद थे.

सारी बात सुन कर अलका ने साफ शब्दों में अपना मत उन दोनों के सामने जाहिर कर दिया, ‘‘पापा, रोहन से मैं प्यार नहीं करती. फिर ऐसी कोई बात होती तो मैं आप को जरूर बताती.’’

‘‘बेटी, क्या तुम किसी और से प्यार करती हो?’’ सोमनाथजी ने सचाई जानने का मौका गंवाना उचित नहीं समझा था.

‘‘नहीं, अंकल, अभी तो अपना अच्छा कैरियर बनाना मैं  बेहद महत्त्वपूर्ण मानती हूं.’’

‘‘यह रोहन तुम्हें तंग करता है क्या?’’ अशोकजी की आंखों में गुस्से के भाव उभरे.

‘‘मुझे जैसे ही इस बात का एहसास हुआ कि वह मुझ से अलग तरह का रिश्ता बनाना चाहता है, तो मैं ने उस से बोलचाल बंद ही कर दी. उस ने मेरा इशारा न समझ आप को पत्र भेजा, इस बात से मैं हैरान भी हूं और परेशान भी.’’

‘‘तू बिलकुल परेशान मत हो, अलका. कल ही मैं उस से बात करता हूं. उस ने तुझे परेशान किया तो गोली मार दूंगा उस को,’’ अशोकजी का चेहरा गुस्से से भभक उठा.

‘‘यार, गुस्सा मत कर…नहीं तो तेरा ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा,’’ सोमनाथ ने अशोकजी को समझाया पर वह रोहन को ठीक करने की धमकियां देते ही रहे.

‘‘पापा,’’ अचानक अलका जोर से चिल्ला पड़ी, ‘‘आप शांत क्यों नहीं हो रहे हैं. एक बार हाई ब्लड पे्रशर के कारण नर्सिंग होम में रह आने के बाद भी आप की समझ में नहीं आ रहा है? आप फिर से अस्पताल जाने पर क्यों तुले हैं?’’

अपनी बेटी की डांट सुन कर अशोकजी चुप तो जरूर हो गए पर रोहन के प्रति उन के दिल का गुस्सा जरा भी कम नहीं हुआ था.

रोहन ने उस रात सोने से पहले अपनी मां मीनाक्षी को शर्मीली सी मुसकान होंठों पर ला कर जानकारी दी, ‘‘कल लंच पर मैं ने अलका और उस के पापा को बुलाया है. उन की अच्छी खातिरदारी करने की जिम्मेदारी आप की है.’’

‘‘यह अलका कौन है?’’ खुशी के मारे मीनाक्षी एकदम से उत्तेजित हो उठीं.

‘‘मेरे साथ पढ़ती है, मां.’’

‘‘प्यार करतेहो तुम दोनों एकदूसरे से?’’

रोहन ने गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘उस के पापा को तुम ने मना लिया तो रिश्ता पक्का समझो. वह गुस्सैल स्वभाव के हैं और अलका उन से डरती है.’’

‘‘अपने बेटे की खुशी की खातिर मैं उन्हें मनाऊंगी शादी के लिए. तू फिक्र न कर, मुझे अलका के बारे में बता,’’ मीनाक्षी की प्रसन्नता ने उन की नींद को कहीं दूर भगा दिया था.

अशोकजी ने फोन कर के रोहन को अपने घर बुलाया था, पर उस ने सुबह व्यस्तता का बहाना बना कर उन्हें व अलका को दोपहर के समय अपने घर आने को राजी कर लिया था.

‘‘बेटी, किसी के घर में बैठ कर उसे डांटनाडपटना जरा कठिन हो जाता है, पर वह लफंगा आसानी से सीधे रास्ते पर नहीं आया तो आज उस की खैर नहीं,’’ अशोकजी ने अपनी इस धमकी को एक बार फिर दोहरा दिया.

‘‘पापा, अपने गुस्से को जरा काबू में रखना, खासकर रोहन की मम्मी को कुछ उलटासीधा मत कह देना, क्योंकि रोहन उन्हें पूजता है. अपनी मां की हलकी सी बेइज्जती भी उस से बर्दाश्त नहीं होगी,’’ अलका बोली.

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‘‘मैं पागल नहीं हूं जो बिना बात किसी से उलझूंगा. रोहन तुम्हारा नाम अपने दिल से निकालने का वादा कर ले, तो बात खत्म. अगर वह ऐसा नहीं करता है तो मुझे सख्ती बरतनी ही पडे़गी,’’ अशोकजी ने अपनी बेटी की सलाह को पूरी तरह मानने से इनकार कर दिया.

‘‘पापा, समझदारी से काम लोगे तो इस मामले को निबटाना आसान हो जाएगा. हमें रोहन की मां को अपने पक्ष में करना है. बस, एक बार उन्होंने समझ लिया कि यह रिश्ता नहीं हो सकता तो रोहन को सीधे रास्ते पर लाने के लिए उन का एक आदेश ही काफी होगा.’’

‘‘मैं समझ गया.’’

‘‘गुड और गुस्से को काबू में रखना है.’’

‘‘ओके,’’ अपनी बेटी का गाल प्यार से थपथपा कर अशोकजी ने घंटी का बटन दबा दिया था.

मीनाक्षी ने मेहमानों की आवभगत के लिए पड़ोस में रहने वाली गायत्री को भी बुला लिया था.

वह अपनी भावी बहू व समधी की खातिर में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी. इतने अपनेपन से मीनाक्षी ने अशोकजी व अलका का स्वागत किया कि तनाव, शिकायतों व नाराजगी का माहौल पनपने ही नहीं पाया.

रोहन बाजार से मिठाई लेने चला गया था. वह कुछ ज्यादा ही देर से लौटा और तब तक मीनाक्षी ने मेज पर खाना लगा दिया था.

खाना इतना स्वादिष्ठ बना था कि अशोकजी ने सारी चिंता व परेशानी भुला कर भरपेट भोजन किया. मीनाक्षी के आग्रह के कारण शायद वह जरूरत से ज्यादा ही खा गए थे.

भोजन कर लेने के बाद ही मुद्दे की बात शुरू हो पाई. गायत्री आराम करने के लिए अपने घर चली गई थी.

‘‘मीनाक्षीजी, हम कुछ जरूरी बातें रोहन और आप से करने आए हैं,’’ अशोकजी ने बातचीत आरंभ की.

‘‘भाई साहब, मैं तो इतना कह सकती हूं कि अलका को सिरआंखों पर बिठा कर  रखूंगी मैं,’’ मीनाक्षी ने अलका को बडे़ प्यार से निहारते हुए जवाब दिया.

‘‘आंटी, मैं रोहन से प्यार नहीं करती हूं, इसलिए आप कोई गलतफहमी न पालें,’’ अलका ने कोमल लहजे में अपने दिल की बात उन से कह दी.

‘‘मुझे रोहन ने सब बता दिया है, अलका. अपने पापा से डर कर तुम अपनी इच्छा को मारो मत. मुझे विश्वास है कि भाई साहब आज इस रिश्ते के लिए ‘हां’ कर देंगे,’’ अपनी बात समाप्त कर मीनाक्षी ने प्रार्थना करने वाले अंदाज में अशोकजी के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘आप बात को समझ नहीं रही हैं, मीनाक्षीजी. मेरी बेटी आप के बेटे से शादी करना ही नहीं चाहती है, तो फिर  मेरी ‘हां’ या ‘ना’ का सवाल ही पैदा नहीं होता,’’ अशोकजी चिढ़ उठे.

‘‘पापा, डोंट बिकम एंग्री,’’ अलका ने अपने पिता को शांत रहने की बात याद दिलाई.

‘‘अंकल, आप इस रिश्ते  के लिए ‘हां’ कह दीजिए. अलका को राजी करना फिर मेरी जिम्मेदारी है,’’ रोहन ने विनती की.

‘‘कैसी बेहूदा बात कर रहे हो तुम भी,’’ अशोकजी को अपना गुस्सा काबू में रखने में काफी कठिनाई हो रही थी, ‘‘जब अलका की दिलचस्पी नहीं है तो मैं कैसे और क्यों ‘हां’ कर दूं?’’

‘‘वह तो आप से डरती है, अंकल.’’

‘‘शटअप.’’

‘‘पापा, प्लीज,’’ अलका ने फिर अशोकजी को शांत रहने की याद दिलाई.

‘‘लेकिन यह इनसान हमारी बात समझ क्यों नहीं रहा है?’’

‘‘अलका के दिल की इच्छा मैं अच्छी तरह से जानता हूं, अंकल.’’

‘‘तो क्या वह झूठमूठ इस वक्त ‘ना’ कह रही है?’’

‘‘जी हां, मुझे आप के घर से रिश्ता जोड़ना है और वैसा हो कर रहेगा, अंकल.’’

‘‘मैं तुम्हें जेल भिजवा दूंगा, मिस्टर रोहन,’’ अशोकजी ने धमकी दी.

‘‘भाई साहब, ऐसी अशुभ बातें मत कहिए. आप की बेटी इस घर में बहुत सुखी रहेगी, इस की गारंटी मैं देती हूं,’’ मीनाक्षी की आंखों में आंसू छलक आए तो अशोकजी चुप रह कर रोहन को क्रोधित नजरों से घूरने लगे.

‘‘पापा, आप इन्हें समझाइए और मैं रोहन को बाहर ले जा कर समझाती हूं,’’ अलका झटके से खड़ी हुई और बिना  जवाब का इंतजार किए दरवाजे की तरफ चल पड़ी.

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रोहन उस के पीछेपीछे घर से बाहर चला गया. मीनाक्षी और अशोकजी के बीच कुछ देर खामोशी छाई रही. सामने बैठी स्त्री की आंखों में छलक आए आंसुओं के चलते अशोकजी की समझ में  नहीं आ रहा था कि वह उस के मन को चोट  पहुंचाने वाली चर्चा को कैसे शुरू करें.

लेकिन एक बार उन के बीच बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो दोनों को वक्त का एहसास ही नहीं रहा. अपनेअपने खट्टेमीठे अनुभवों को एकदूसरे के साथ उन्होंने बांटना जो शुरू किया तो 2 घंटे का समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.

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रिश्ता: अकेले मां-बाप को नए रिश्ते में जोड़ते बच्चों की कहानी

Serial Story: रिश्ता (भाग-1)

अशोकजी शाम को अपने घर की छत पर टहल रहे थे. एक मोटरसाइकिल सवार गेट के सामने आ कर रुका, जिस का चेहरा हैलमेट में ढका हुआ था.

उस ने पहले अपनी जैकट की जेब से एक लिफाफा निकाल कर लैटर बौक्स में डाला, फिर सिर उठा कर अशोकजी की ओर देखा और हाथ हिलाने के बाद चला गया.

उस लिफाफे में अशोकजी को एक पत्र मिला जिस में लिखा था, ‘सर, आप के डर के कारण आप की बेटी अलका मुझ से रिश्ता नहीं जोड़ रही है. उस की तरह मैं भी 2 महीने बाद नौकरी करने अमेरिका जा रहा हूं. वहां मेरा सहारा पा कर वह सुरक्षित रहेगी.

‘मेरी आप से प्रार्थना है कि आप अलका से बात कर उस का भय दूर करें. आप ने हमारे रिश्ते को स्वीकार करने में अड़चनें डालीं तो जो होगा उस के जिम्मेदार सिर्फ आप ही होंगे.

‘मैं अलका का सहपाठी हूं. अपना फोन नंबर मैं ने नीचे लिख दिया है. आप जब चाहेंगे मैं मिलने आ जाऊंगा. आप के आशीर्वाद का इच्छुक-रोहन.’

पत्र पढ़ कर अशोकजी बौखला गए. उन के लिए रोहन नाम पूरी तरह से अपरिचित था. उन की इकलौती संतान अलका ने कभी किसी रोहन की चर्चा नहीं छेड़ी थी.

पत्र में जो धमकी का भाव मौजूद था उस ने अशोकजी को चिंतित कर दिया. अलका का मोबाइल नंबर मिलाने के बजाय उन्होंने अपने हमउम्र मित्र सोमनाथ का नंबर मिलाया.

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अशोकजी के फौरन बुलावे पर सोमनाथ 15 मिनट के अंदर उन के पास पहुंच गए. रोहन का पत्र पढ़ने के बाद उन्होंने चिंतित स्वर में टिप्पणी की, ‘‘यह तो इश्क का मामला लगता है मेरे भाई. अलका बेटी ने कभी इस रोहन के बारे में तुम से कुछ नहीं कहा?’’

‘‘एक शब्द भी नहीं,’’ अशोकजी भड़क उठे, ‘‘मुझे लगता है कि यह मजनू की औलाद मेरी बेटी को जरूर तंग कर रहा है. अलका ने इस के प्यार को ठुकराया होगा तो इस कमीने ने यह धमकी भरी चिट्ठी भेजी है.’’

‘‘दोस्त, यह भी तो हो सकता है कि अलका भी उसे चाहती…’’

सोमनाथ की बात को बीच में काटते हुए अशोकजी बोले, ‘‘अगर ऐसा होता तो मेरी बेटी जरूर मुझ से खुल कर सारी बात कहती. तू तो जानता ही है कि तेरी भाभी की मृत्यु के बाद अपनी बेटी से अच्छे संबंध बनाने के लिए मैं ने अपने स्वभाव को बहुत बदला है. वह मुझ से हर तरह की बात कर लेती है, तो इस महत्त्वपूर्ण बात को क्यों छिपाएगी?’’

‘‘अब क्या करेगा?’’

‘‘तू सलाह दे.’’

‘‘इस रोहन के बारे में जानकारी प्राप्त करनी पड़ेगी. अगर यह गलत किस्म का युवक निकला तो इस का दिमाग ठिकाने लगाने को पुलिस की मदद मैं दिलवाऊंगा.’’

सोमनाथ से हौसला पा कर अशोकजी की आंखों में चिंता के भाव कुछ कम हुए थे.

रोहन के बारे में जानकारी प्राप्त करने की जिम्मेदारी अशोकजी ने अपने भतीजे साहिल को सौंपी. उस की रिपोर्ट मिलने  तक उन्होंने अलका से इस बारे में कोई बात न करने का निर्णय किया था.

‘‘अंकल, रोहन सड़क छाप मजनू नहीं बल्कि बहुत काबिल युवक है,’’ साहिल ने 2 दिन बाद अशोकजी को बताया, ‘‘अलका दी और रोहन कक्षा के सब से होशियार विद्यार्थियों में हैं. तभी दोनों को अमेरिका में अच्छी नौकरी मिली है. पहले इन दोनों के बीच अच्छी दोस्ती थी पर करीब 2 सप्ताह से आपस में बोलचाल बंद है, रोहन के घर का पता इस कागज पर लिखा है.’’

साहिल ने एक कागज का टुकड़ा अशोकजी को पकड़ा दिया था.

‘‘तुम ने मालूम किया कि रोहन के घर में और कौनकौन हैं?’’

‘‘बड़ी बहन की शादी हो चुकी है और वह मुंबई में रहती है. रोहन अपनी विधवा मां के साथ रहता है. उस के पिता की सड़क दुर्घटना में जब मृत्यु हुई थी तब वह सिर्फ 10 साल का था.’’

‘‘और किसी महत्त्वपूर्ण बात की जानकारी मिली?’’ अशोकजी ने साहिल से पूछा.

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‘‘नहीं, चाचाजी, मैं ने जिस से भी पूछताछ की है, उस ने रोहन की तारीफ ही की है. हमारी जातबिरादरी का न सही पर लड़का अच्छा है. मेरी राय में अगर रिश्ते की बात उठे तो आप हां कहने में बिलकुल मत झिझकना,’’ अपनी राय बता कर साहिल चला गया था.

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Serial Story: रिश्ता (भाग-3)

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‘‘मीनाक्षीजी, आप के पास सोने का दिल है. मेरी बेटी आप के घर की बहू बन कर आती तो यह मैं उस का सौभाग्य मानता. मुझे पूरा विश्वास है कि वह इस घर में बेहद खुश व सुखी रहेगी. लेकिन अफसोस यह है कि अलका खुद इस रिश्ते में दिलचस्पी नहीं रखती है. मैं उसे राजी करने की कोशिश करूंगा, अगर वह नहीं मानी तो आप रोहन को समझा देना कि वह अलका को तंग न करे,’’ अशोकजी ने भावुक लहजे में मीनाक्षी से प्रार्थना की.

‘‘आप जैसे नेकदिल इनसान को जिस काम से दुख पहुंचे या आप की बेटी परेशान हो, वैसा कोई कार्य मैं अपने बेटे को नहीं करने दूंगी,’’ मीनाक्षी के इस वादे ने अशोकजी के दिल को बहुत राहत पहुंचाई.

अलका और रोहन के वापस लौटने पर इन दोनों ने उलटे सुर में बोलते हुए अपनीअपनी इच्छाएं जाहिर कीं तो उन दोनों को बहुत ही आश्चर्य हुआ.

‘‘अलका, तुम अगर रोहन को अच्छा मित्र बताती हो तो कल को अच्छा जीवनसाथी भी उस में पा लोगी. मीनाक्षीजी के घर में तुम बहुत सुखी और सुरक्षित रहोगी, इस का विश्वास है मुझे. मैं दबाव नहीं डाल रहा हूूं पर अगर तुम ने यह रिश्ता मंजूर कर लिया तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा,’’ अपनी इच्छा बता कर अशोकजी ने बेटी का माथा चूम लिया.

‘‘रोहन, अलका खुशीखुशी ‘हां’ कहे तो ठीक है, नहीं तो तुम इसे किसी भी तरह परेशान कभी मत करना. भाई साहब का ब्लड प्रेशर ऊंचा रहता है. तुम्हारी वजह से इन की तबीयत खराब हो, यह मैं कभी नहीं चाहूंगी,’’ मीनाक्षी ने बड़े भावुक अंदाज में रोहन से अपने मन की इच्छा बताई.

‘‘पापा, क्या आप चाहते हैं कि मैं रोहन से शादी कर लूं?’’ अलका ने हैरान स्वर में पूछा.

‘‘हां, बेटी.’’

‘‘आप की सोच में बदलाव आंटी के कारण आया है न?’’

‘‘हां, यह तुम्हारा बहुत खयाल रखेंगी, इन के पास सोने का दिल है.’’

‘‘गुड,’’ अलका की आंखों में अजीब सी चमक उभरी.

रोहन ने अपनी मां से पूछा, ‘‘मेरी इच्छा को नजरअंदाज कर अब जो आप कह रही हैं, उस के पीछे कारण क्या है, मां?’’

‘‘मैं इन को दुखी और चिंतित नहीं देखना चाहती हूं,’’ मीनाक्षी ने अशोकजी की तरफ इशारा करते हुए जवाब दिया.

‘‘आप की नजरों में यह कैसे इनसान हैं?’’

‘‘बडे़ नेक…बडे़ अच्छे.’’

‘‘गुड, वेरी गुड,’’ ऐसा जवाब दे कर रोहन ने अर्थपूर्ण नजरों से मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘इन बदली परिस्थितियों को देखते  हुए हमें सोचविचार के लिए एक बार फिर बाहर चलना चाहिए.’’

‘‘चलो,’’ अलका फौरन उठ कर दरवाजे की तरफ चल पड़ी.

‘‘कहां जा रहे हो दोनों?’’ मीनाक्षी और अशोकजी ने चौंक कर साथसाथ सवाल किए.

‘‘करीब आधे घंटे में आ कर बताते हैं,’’ रोहन ने जवाब दिया और अलका का हाथ पकड़ कर घर से बाहर निकल गया.

कुछ पलों की खामोशी के बाद अशोकजी ने टिप्पणी की, ‘‘इन दोनों का व्यवहार मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

‘‘अगर दोनों बच्चे शादी के लिए तैयार हो गए तो मजा आ जाएगा,’’ मीनाक्षी की आंखों में आशा के दीप जगमगा उठे.

अलका और रोहन करीब 45 मिनट के बाद जब लौटे तो सोमनाथ और गायत्री उन के साथ थे. इन चारों की आंखों में छाए खुशी व उत्तेजना के भावों को पढ़ कर मीनाक्षी और अशोकजी उलझन में पड़ गए.

‘‘आप दोनों का उचित मार्गदर्शन करने व हौसला बढ़ाने के लिए ही हम इन्हें साथ लाए हैं,’’ रोहन ने रहस्यमयी अंदाज में मुसकराते हुए मीनाक्षी व अशोकजी की आंखों में झलक रहे सवाल का जवाब दिया.

सोमनाथ अपने दोस्त की बगल में उस का हाथ पकड़ कर बैठ गए. गायत्री अपनी सहेली के पीछे उस के कंधों पर हाथ रख कर खड़ी हो गई.

रोहन ने बातचीत शुरू की, ‘‘अलका के पापा का दिल न दुखे इस के लिए मां ने मेरी इच्छा को नजरअंदाज कर मुझ से यह वादा मांगा है कि मैं अलका को कभी तंग नहीं करूंगा. लेकिन मैं अभी भी इस घर से रिश्ता जोड़ना चाहता हूूं.’’

मीनाक्षी या अशोकजी के कुछ बोलने से पहले ही अलका ने कहा, ‘‘मैं रोहन से प्रेम नहीं करती पर फिर भी दिल से चाहती हूं कि हमारे बीच मजबूत रिश्ता कायम हो.’’

‘‘तुम शादी से मना करोगी तो ऐसा कैसे संभव होगा?’’ अशोकजी ने उलझन भरे लहजे में पूछा.

‘‘एक तरीका है, पापा.’’

‘‘कौन सा तरीका?’’

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‘‘वह मैं बताता हूं,’’ सोमनाथजी ने खुलासा करना शुरू किया, ‘‘मुझे बताया गया है कि ़तुम मीनाक्षीजी से इतने प्रभावित हो कि अलका से इस घर की बहू बनने की इच्छा जाहिर की है तुम ने.’’

‘‘मीनाक्षीजी बहुत अच्छी और सहृदय महिला हैं और अलका…’’

‘‘मीनाक्षीजी, आप की मेरे दोस्त के बारे में क्या राय बनी है?’’ सोमनाथ ने अपने दोस्त को टोक कर चुप किया और मीनाक्षी से सवाल पूछा.

‘‘इन का दिल बहुत भावुक है और मैं नहीं चाहती कि इन का स्वास्थ्य रोहन की किसी हरकत के कारण बिगड़े. तभी मैं ने अपने बेटे से कहा कि अलका अगर शादी के लिए मना करती है तो…’’

‘‘यानी कि आप दोनों एकदूसरे को अच्छा इनसान मानते हैं और यही बात आधार बनेगी दोनों परिवारों के बीच मजबूत रिश्ता कायम करने में.’’

‘‘मतलब यह कि जीवनसाथी अलका और मैं नहीं बल्कि आप दोनों बनो,’’ रोहन ने साफ शब्दों में सारी बात कह दी.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’ अशोकजी चौंक पड़े.

‘‘यह क्या कह रहा है तू?’’ मीनाक्षी घबरा उठीं.

‘‘रोहन और मेरी यही इच्छा रही है,’’ अलका बोली, ‘‘आंटी और पापा को मिलाने के लिए हमें कुछ नाटक करना पड़ा. हम दोनों ही विदेश जाने के इच्छुक हैं. मेरे पापा की देखभाल की जिम्मेदारी आप संभालिए, प्लीज.’’

‘‘अंकल, विदेश में मैं अलका का खयाल रखूंगा और आप यहां मां का सहारा बन कर हमें चिंता से मुक्ति दिलाइए.’’

‘‘लेकिन…’’ अशोकजी की समझ में नहीं आया कि आगे क्या कहें और मीनाक्षी भी आगे एक शब्द नहीं बोल पाईं.

‘‘प्लीज, अंकल,’’ रोहन ने अशोकजी से विनती की.

‘‘आंटी, प्लीज, मुझे वह खुशी भरा अवसर दीजिए कि मैं आप को ‘मम्मी’ बुला सकूं,’’ अलका ने मीनाक्षी के दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर विनती की.

‘‘हां कह दे मेरे यार,’’ सोमनाथ ने अपने दोस्त पर दबाव डाला, ‘‘अपनी अकेलेपन की पीड़ा तू ने कई बार मेरे साथ बांटी है. अच्छे जीवनसाथी के प्रेम व सहारे की जरूरत तो उम्र के इसी मुकाम पर ज्यादा महसूस होती है जहां तुम हो. इस रिश्ते को हां कह कर बच्चों को चिंतामुक्त कर इन्हें पंख फैला कर ऊंचे आकाश में उड़ने को स्वतंत्र कर मेरे भाई.’’

गायत्री ने अपनी सहेली को समझाया, ‘‘मीनू, हम स्त्रियों को जिंदगी के हर मोड़ पर पुरुष का सहारा किसी न किसी रूप में लेना ही पड़ता है. बेटा विदेश चला जाएगा तो तू कितनी अकेली पड़ जाएगी, जरा सोच. तुझे ये पसंद हों तो फौरन हां कह दे. मुझे इन्हें ‘जीजाजी’ बुला कर खुशी होगी.’’

‘‘चुप कर,’’ मीनाक्षी के गाल शर्म से गुलाबी हो गए तो सब को उन का जवाब मालूम पड़ गया.

अशोकजी पक्के निर्णय पर पहुंचने की चमक आंखों में ला कर बोले, ‘‘मैं इस पल अपने दिल में जो खुशी व गुदगुदी महसूस कर रहा हूं, सिर्फ उसी के आधार पर मैं इस रिश्ते के लिए हां कह रहा हूं.’’

‘‘थैंक यू, अंकल,’’ रोहन ने हाथ जोड़ कर उन्हें धन्यवाद दिया.

‘‘थैंक यू, मेरी नई मम्मी,’’ अलका, मीनाक्षी के गले से लग गई.

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सोमनाथ और गायत्री ने तालियां बजा कर इस रिश्ते के मंगलमय होने की प्रार्थना मन ही मन की.

‘‘मेरी छोटी बहना, बधाई हो. हमारी योजना इतनी जल्दी और इस अंदाज में सफल होगी, मैं ने सोचा भी न था,’’ रोहन ने शरारती अंदाज में अलका की चोटी खींची तो मीनाक्षी और अशोकजी एकदूसरे की तरफ देख बडे़ प्रसन्न व संतोषपूर्ण ढंग से मुस्कुराए.

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