अंतर्व्यथा- भाग 1: कैसी विंडबना में थी वह

बंद अंधेरे कमरे में आंखें मूंदे लेटी हुई मैं परिस्थितियों से भागने का असफल प्रयास कर रही थी. शाम के कार्यक्रम में तो जाने से बिलकुल ही मना कर दिया, ‘‘नहीं, अभी मैं तन से, मन से उतनी स्वस्थ नहीं हुई हूं कि वहां जा पाऊं. तुम लोग जाओ,’’ शरद के सिर पर हाथ फेरते हुए मैं ने कहा, ‘‘मेरा आशीर्वाद तो तुम्हारे साथ है ही और हमेशा रहेगा.’’ सचमुच मेरा आशीर्वाद तो था ही उस के साथ वरना सोच कर ही मेरा सर्वांग सिहर उठा. शाम हो गई थी. नर्स ने आ कर कहा, ‘‘माताजी, साहब को जो इनाम मिलेगा न, उसे टीवी पर दिखलाया जा रहा है. मैडम ने कहा है कि आप के कमरे का टीवी औन कर दूं,’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह टीवी औन कर के चली गई. शहर के लोकल टीवी चैनल पर शरद के पुरस्कार समारोह का सीधा प्रसारण हो रहा था.

मंच पर शरद शहर के गण्यमान्य लोगों के बीच हंसताखिलखिलाता बैठा था. सुंदर तो वह था ही, पूरी तरह यूनिफौर्म में लैस उस का व्यक्तित्व पद की गरिमा और कर्तव्यपरायणता के तेज से दिपदिप कर रहा था. मंच के पीछे एक बड़े से पोस्टर पर शरद के साथसाथ मेरी भी तसवीर थी. मंच के नीचे पहली पंक्ति में रंजनजी, बहू, बच्चे सब खुशी से चहक रहे थे. लेकिन चाह कर भी मैं वर्तमान के इस सुखद वातावरण का रसास्वादन नहीं कर पा रही थी. मेरी चेतना ने जबरन खींच कर मुझे 35 साल पीछे पीहर के आंगन में पटक दिया. चारों तरफ गहमागहमी, सजता हुआ मंडप, गीत गाती महिलाएं, पीली धोती में इधरउधर भागते बाबूजी, चिल्लातेचिल्लाते बैठे गले से भाभी को हिदायतें देतीं मां और कमरे में सहेलियों के गूंजते ठहाके के बीच मुसकराती अपनेआप पर इठलाती सजीसंवरी मैं. अंतिम बेटी की शादी थी घर की, फिर विनयजी तो मेरी सुंदरता पर रीझ, अपने भैयाभाभी के विरुद्ध जा कर, बिना दानदहेज के यह शादी कर रहे थे. इसी कारण बाबूजी लेनदेन में, स्वागतसत्कार में कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहते थे.

शादी के बाद 2-4 दिन ससुराल में रह कर मैं विनयजी के साथ ही जबलपुर आ गई. शीघ्र ही घर में नए मेहमान के आने की खबर मायके पहुंच गई. भाभी छेड़तीं भी, ‘बबुनी, कुछ दिन तो मौजमस्ती करती, कितनी हड़बड़ी है मेहमानजी को.’ सचमुच विनयजी को हड़बड़ी ही थी. हमेशा की तरह उस दिन भी सुबह सैर करने निकले, बारिश का मौसम था. बिजली का एक तार खुला गिरा था सड़क पर, पैर पड़ा और क्षणभर में सबकुछ खत्म. मातापिता जिस बेटी को विदा कर के उऋण ही हुए थे उसी बेटी का भार एक अजन्मे शिशु के साथ फिर उन्हीं के सिर पर आ पड़ा. ससुराल में सासससुर थे नहीं. जेठजेठानी वैसे भी इस शादी के खिलाफ थे. क्रियाकर्म के बाद एक तरह से जबरन ही मैं वहां जाने को मजबूर थी. ‘सुंदरता नहीं काल है. यह एक को ग्रस गई, पता नहीं अब किस पर कहर बरसाएगी,’ हर रोज उन की बातों के तीक्ष्ण बाण मेरे क्षतविक्षत हृदय को और विदीर्ण करते. मन तो टूट ही चुका था, शरीर भी एक जीव का भार वहन करने से चुक गया.

7वें महीने ही सवा किलो के अजय का जन्म हुआ. जेठ साफ मुकर गए. 7वें महीने ही बेटा जना है. पता नहीं विनय का है भी या नहीं. एक भाई था वह गया, अब और किसी से मेरा कोई संबंध नहीं. सब यह समझ रहे थे कि हिस्सा न देने का यह एक बहाना है. कोर्टकचहरी करने का न तो किसी को साहस था न ही कोई मुझे अपने कुम्हलाए से सतमासे बच्चे के साथ वहां घृणा के माहौल में भेजना चाहता था. 1 साल तो अजय को स्वस्थ करने में लग गया. फिर मैं ने अपनी पढ़ाई की डिगरियों को खोजखाज कर निकाला. पहले प्राइमरी, बाद में मिडल स्कूल में पढ़ाने लगी. मायका आर्थिक रूप से इतना सुदृढ़ नहीं था कि हम 2 जान बेहिचक आश्रय पा सकें. महीने की पूरी कमाई पिताजी को सौंप देती. वे भी जानबूझ कर पैसा भाइयों के सामने लेते ताकि बेटे यह न समझें कि बेटी भार बन गई है. अपने जेबखर्च के लिए घर पर ही ट्यूशन पढ़ाती. मां की सेवा का असर था कि अजय अब डोलडोल कर चलने लगा था. इसी बीच, मेरे स्कूल के प्राध्यापक थे जिन के बड़े भाई प्यार में धोखा खा कर आजीवन कुंवारे रहने का निश्चय कर जीवन व्यतीत कर रहे थे. छत्तीसगढ़ में एक अच्छे पद पर कार्यरत थे. उन्हें सहयोगी ने मेरी कहानी सुनाई. वे इस कहानी से द्रवित हुए या मेरी सुंदरता पर मोहित हुए, पता नहीं लेकिन आजीवन कुंवारे रहने की उन की तपस्या टूट गई. वे शादी करने को तैयार थे लेकिन अजय को अपनाना नहीं चाहते थे. मैं शादी के लिए ही तैयार नहीं थी, अजय को छोड़ना तो बहुत बड़ी बात थी. मांबाबूजी थक रहे थे. वे असमंजस में थे. वे लोग मेरा भविष्य सुनिश्चित करना चाहते थे.

भाइयों के भरोसे बेटी को नहीं रखना चाहते थे. बहुत सोचसमझ कर उन्होंने मेरी शादी का निर्णय लिया. अजय को उन्होंने कानूनन अपना तीसरा बेटा बनाने का आश्वासन दिया. रंजनजी ने भी मिलनेमिलाने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई. इस प्रकार मेरे काफी प्रतिरोध, रोनेचिल्लाने के बावजूद मेरा विवाह रंजनजी के साथ हो गया. मैं ने अपने सारे गहने, विनयजी की मृत्यु के बाद मिले रुपए अजय के नाम कर अपनी ममता का मोल लगाना चाहा. एक आशा थी कि बेटा मांपिताजी के पास है जब चाहूंगी मिलती रहूंगी लेकिन जो चाहो, वह होता कहां है. शुरूशुरू में तो आतीजाती रही 8-10 दिन में ही. चाहती अजय को 8 जन्मों का प्यार दे डालूं. उसे गोद में ले कर दुलारती, रोतीबिलखती, खिलौनों से, उपहारों से उस को लाद देती. वह मासूम भी इस प्यारदुलार से अभिभूत, संबंधों के दांवपेंच से अनजान खुश होता.

बड़े भैया के बच्चों के साथसाथ मुझे बूआ पुकारता. धीरेधीरे मायके आनाजाना कम होता गया. शरद के होने के बाद तो रंजनजी कुछ ज्यादा कठोर हो गए. सख्त हिदायत थी कि अजय के विषय में कभी भी उसे कुछ नहीं बतलाया जाए. मायके में भी मेरे साथ शरद को कभी नहीं छोड़ते. मेरा मायके जाना भी लगभग बंद हो गया था. शायद वह अपने पुत्र को मेरा खंडित वात्सल्य नहीं देना चाहते थे. फोन का जमाना नहीं था. महीने दो महीने में चिट्ठी आती. मां बीमार रहने लगी थीं.

अंतर्व्यथा- भाग 2: कैसी विंडबना में थी वह

मेरे बड़े भैया मुंबई चले गए. छोटे भाई अनुज की भी शादी हो गई और जैसी उम्मीद थी उस की पत्नी सविता को 2 बड़ेबूढ़े और 1 बच्चे का भार कष्ट देने लगा. अंत में अजय को 11 साल की उम्र में ही रांची के बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया. फासले बढ़ते जा रहे थे और संबंध छीजते जा रहे थे. एकएक कर के पापामां दोनों का देहांत हो गया. मां के श्राद्ध में अजय आया था. लंबा, दुबलापतला विनयजी की प्रतिमूर्ति. जी चाहता खींच कर उसे सीने से लगा लूं, खूब प्यार करूं लेकिन अब उसे रिश्तों का तानाबाना समझ में आ चुका था.

वह गुमसुम, उदास और खिंचाखिंचा रहता. पापा के देहांत के बाद उस के प्यारदुलारस्नेह का एकमात्र स्रोत नानी ही थीं, वह सोता भी अब सूख चुका था. अब उसे मेरी जरूरत थी. मैं भी अजय के साथ कुछ दिन रहना चाहती थी. अपने स्नेह, अपनी ममता से उस के जख्म को सहलाना चाहती थी लेकिन रंजनजी के गुस्सैल स्वभाव व जिद के आगे मैं फिर हार गई. शरद को पड़ोस में छोड़ कर आई थी. उस की परीक्षा चल रही थी. जाना भी जरूरी था लेकिन वापस लौट कर एक दर्द की टीस संग लाई थी. इस दर्द का साझेदार भी किसी को बना नहीं पाती. जब शरद को दुलारती अजय का चेहरा दिखता. शरद को हंसता देखती तो अजय का उदास सूखा सा चेहरा आंखों पर आंसुओं की परत बिछा जाता. उस के बाद अजय का आना बहुत कम हो गया. छुट्टियों में भी वह घर नहीं आता.

महीने दो महीने में अनुज, मेरा छोटा भाई ही उस से भेंट कर आता. वह कहता, ‘दीदी, मुझे उस की बातों में एक अजीब सा आक्रोश महसूस होता है, कभी सरकार के विरुद्ध, कभी परिवार के विरुद्ध और कभी समाज के विरुद्ध. ‘इस महीने जब उस से मिलने गया था, वह कह रहा था, मामा, जिस समाज को आप सभ्य कहते हैं न वह एक निहायत ही सड़ी हुई व्यवस्था है. यहां हर इंसान दोगला है. बाहर से अच्छाई का आवरण ओढ़ कर भीतर ही भीतर किसी का हक, किसी की जायदाद, किसी की इज्जत हथियाने में लगा रहता है. मैं इन सब को बेनकाब कर दूंगा. ‘ये आदिवासी लोग भोलेभाले हैं. यही भारत के मूल निवासी हैं और यही सब से ज्यादा उपेक्षित हैं. मैं उन्हें जाग्रत कर रहा हूं अपने अधिकारों के प्रति. अगर मिलता नहीं है तो छीन लो. यह समाज कुछ देने वाला नहीं है. ‘प्रगति के उत्थान के नाम पर भी इन का दोहन ही हो रहा है. इन के साथसाथ जंगल, जो इन का आश्रयदाता है, जिस पर ये लोग आर्थिक रूप से भी निर्भर हैं, उस का व उस में पाई जाने वाली औषधियों, वनोपाज सब का दोहन हो रहा है.

अगर यही हाल रहा तो ये जनजाति ही विलुप्त हो जाएगी. मैं ऐसा होने नहीं दूंगा.’ अचानक एक दिन खबर आई कि अजय लापता है. अनुज ने उसे ढूंढ़ने में जीजान लगा दी. मैं भी एक सप्ताह तक रांची में उस के कमरे में डटी रही. उस के कपड़े, किताबें सहेजती, उस के अंतस की थाह तलाशती रही. दोस्तों ने बतलाया कि उस के लिए घर से जो भी पैसा आता उसे वह गांव वालों में बांट देता. उन्हें पढ़ाता, उन का इलाज करवाता, उन के बच्चों के लिए किताबें, कपड़े, दवा, खिलौने ले कर जाता. उन के साथ गिल्लीडंडा, हौकी खेलता. अपने परिवार से मिली उपेक्षा, मातापिता के प्यार की प्यास ने ही उसे उन आदिवासियों की तरफ आकृष्ट किया. उन भोलेभाले लोगों का निश्छल प्रेम उस के अंदर अपनों के प्रति धधक रहे आक्रोश को शांत करता और इसी कारण उन लोगों के प्रति एक कर्तव्यभावना जाग्रत हुई जो धीरेधीरे नक्सलवाद की तरफ बढ़ती चली गई. अजय का कुछ पता नहीं चला. वहां से लौटने पर पहली बार रंजनजी से जम कर लड़ी थी, ‘आप के कारण मेरा बेटा चला गया. आप को मैं कभी माफ नहीं करूंगी.

क्या मैं सौतेली मां थी कि आप को लगा, अपने दोनों बेटों में भेदभाव करती. रही बात उस के खर्च की तो उस के पास पैसों की कभी कमी नहीं थी. उसे केवल प्यार की दरकार थी, ममता की छांव चाहिए थी, वह भी मैं नहीं दे पाई. मेरा आंचल इतना छोटा नहीं था जिस में केवल एक ही पुत्र का सिर समा सकता था. एक मां का आंचल तो इतना विशाल होता है कि एक या दो क्या, धरती का हर पुत्र आश्रय पा सकता है. आप को आप के किए की सजा अवश्य मिलेगी.’ पता नहीं मेरे भीतर उस वक्त कौन सा शैतान घुस गया था कि मैं अपने पुत्र के लिए अपने ही पति को श्राप दिए जा रही थी. रंजनजी को भी अपनी गलती का पछतावा था. शायद इसी कारण वे मेरी बातें चुपचाप सह गए. दिन, महीने, साल बीत गए, अजय का कुछ पता नहीं चला. इधर, शरद अपनी बुद्धि और पिता के कुशल मार्गदर्शन में कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता हुआ आईपीएस में चयनित हो गया. शादी हुई, 2 प्यारे बच्चे हुए. अभी उस की पोस्टिंग बस्तर के इलाके में हुई थी. मैं और रंजनजी दोनों ने विरोध किया, ‘लेदे कर कहीं दूसरी जगह तबादला करवा लो.’ लेकिन उस ने भी उस चैलेंज को स्वीकार किया.

‘मां, बड़े शहर के लोगों का दिल छोटा होता है, न शुद्ध हवा, न पानी, न खाना. यहां तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. इसी वातावरण में तो बड़ा हुआ हूं. मुझे क्यों दिक्कत होगी.’ सचमुच 1 साल के भीतर उस की ख्याति फैल गई. आत्मसमर्पण किए नक्सलियों के लिए ‘अपनालय’ का शुभारंभ किया जिस में मैडिटेशन सैंटर, गोशाला, फलों का बगीचा सबकुछ था उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए. खुद मुख्यमंत्री ने इस का उद्घाटन किया था. प्रदेश में हजारों नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, पकड़े भी गए. शरद का यही सुप्रयास उस की जान का दुश्मन बन गया. उस दिन सुबह 6 बजे ही घर के हर फोन की घंटियां घनघनाने लगीं. फोन उठाते ही रंजनजी चौंक उठे और उन्हें चौंका देख मैं घबरा गई. ‘क्या? कब? कैसे? जंगल में वह क्या करने गया था.’ हर प्रश्न हृदय पर हथौड़े सा प्रहार कर रहा था. ‘क्या हुआ था उस के साथ?’ मेरी आवाज लड़खड़ा गई. ‘तुम्हारी आह लग गई. शरद का अपहरण हो गया,’ वे फूटफूट कर रो रहे थे. बरसों पहले कही बात उन के मन में धंस गई थी. शायद अपनी करनी से वे भयाकांत भी थे. इसी कारण उन के मुंह से यह बात निकली. लेकिन मेरा? मेरा क्या? मेरा तो हर तरफ से छिन गया. लग रहा था छाती के अंदर, जो रस या खून से भराभरा रहता है, उस को किसी ने बाहर निकाल कर स्पंज की तरह निचोड़ दिया हो.

कर्तव्य पालन- भाग 4: क्या रामेंद्र को हुआ गलती का एहसास

मेरी मां ने अपने प्रेमी से धोखा खा कर किस प्रकार से मुझे जीवित रखा, पढ़ालिखा कर अपने पैरों पर खड़ा किया. इतनी लंबी जीवनयात्रा में किस प्रकार वे आधा पेट खा कर रहीं, समाज से कितनी अधिक मानसिक प्रताड़ना सहन कीं, उन के अतिरिक्त कौन समझ सकता है. मुझे नफरत है उस पुरुष से जो मेरी मां को मौत के कगार पर छोड़ गया. उसे पिता मानने को मैं कतई तैयार नहीं हूं,’’ यह कहने के साथ श्वेता की आंखें बरस पड़ीं. वह फिर बोली, ‘‘और वह मेरा सौतेला बाप, कितना घिनौना इंसान है, शराब पी कर मेरी व मेरी मां की जानवरों की भांति पिटाई करता है. क्या वह बाप कहलाने के योग्य है? मुझे नफरत हो चुकी है मर्द जाति से.’’

‘‘सभी मर्द एकजैसे नहीं होते. मैं व राजेश क्या ऐसे हैं?’’

‘‘आप मालिक हैं. आप की दी नौकरी से हमारा गुजारा चल रहा है. मैं आप के बारे में क्या कह सकती हूं.’’‘‘राजेश के बारे में तो कह सकती हो?’’

‘‘वह आयु में मुझ से छोटा है. बात, व्यवहार में बिलकुल लापरवाह. बच्चों जैसा भोला मालूम पड़ता है. उस के बारे में मैं क्या कह सकती हूं. मालिक तो वह भी है. आप दोनों की बदौलत ही हमें दो वक्त की रोटी मिलने लगी है.’’ श्वेता के उत्तर से रामेंद्र संतुष्ट नहीं हुए. वे उसे डांट कर स्पष्ट कह देना चाहते थे कि वह राजेश से बात करना बिलकुल बंद कर दे पर कह नहीं पाए. फिर आकस्मिक रूप से श्वेता 2 दिन तक काम पर नहीं आई तो वे चिंतित हो उठे. तीसरे दिन उस के घर जानकारी हेतु किसी को भेजना ही चाहते थे कि वह आ कर खड़ी हो गई. उस के चेहरे पर खरोंचों के निशान व सूजन थी. हाथपैरों में भी चोटों के निशान थे. ‘‘यह क्या हाल बना रखा है?’’ वे पूछ बैठे. फैक्टरी के कर्मचारी भी आ कर कारण जानने हेतु उत्सुक हो उठे थे. श्वेता ने रोरो कर बताया कि उस के सौतेले बाप व भाइयों ने मारमार कर बुरा हाल कर दिया. वे नहीं चाहते कि मैं अपने वेतन में से कुछ रुपए भी मां के इलाज पर खर्च करूं. मां बीमार रहती हैं व सरकारी अस्पताल की दवा से कुछ फायदा नहीं होता. वे लोग मेरा पूरा वेतन खुद हड़पना चाहते हैं.

‘‘तुम खुद स्वावलंबी हो, उस घर को छोड़ क्यों नहीं देतीं?’’

‘‘मैं यही कहने आप के पास आई हूं कि आप हम दोनों मांबेटी को यहां टिनशेड के नीचे रहने की इजाजत दे दें.’’

मैनेजर ने भी श्वेता की बात का समर्थन किया कि यहां काफी जगह खाली पड़ी है, मांबेटी आराम से गुजरबसर कर लेंगी. रात में सुरक्षा की दृष्टि से पहरेदार रहते ही हैं. रामेंद्र सोच में पड़ गए कि फैक्टरी के नियम सभी कर्मचारियों पर समानरूप से लागू होते हैं. यदि आज श्वेता को जगह दी तो कल अन्य महिला श्रमिक भी जगह मांगने लग जाएंगी. इसलिए उन्होंने इस की इजाजत नहीं दी. उन्होंने कहा कि शहर में किराए के मकानों की कमी तो नहीं है. सो, उन्होंने श्वेता को मकान खोजने हेतु 2 दिनों का अवकाश प्रदान कर दिया. श्वेता के प्रति उन की असहनीय कठोरता पर अलका कई दिन तक व्यग्र बनी रही व उन्हें सुनाती रही कि पता नहीं, उस लड़की में तुम ने कौन सी बुराइयां देख ली हैं, जो उस के प्रति सीमा से अधिक निर्दयी बनते जा रहे हो. यदि उसे घर के पिछवाड़े का सर्वेंट क्वार्टर ही दे देते, तब भी मांबेटी चैन से रह लेतीं. पूरी दुनिया में उन का हमारे अतिरिक्त और कोई दूसरा सहारा भी तो नहीं है. पर रामेंद्र पत्थर बने रहे. फैक्टरी के कर्मचारियों पर फालतू की दया दिखाना उन्होंने सीखा नहीं था. उधर, श्वेता ने 2 दिन की छुट्टी में किराए का मकान ले कर उस में अपना सामान जमा कर लिया. तीसरे दिन से फिर से उस का नौकरी पर आना शुरू हो गया.  वह रामेंद्र से कहती रहती, ‘‘मां आप की बेहद कृतज्ञ हैं. वे आप से मिलना चाहती हैं.’’ रामेंद्र टाल जाते. सोचते, खामखां इन साधारण लोगों को मुंह लगाने से क्या लाभ.

2 हफ्ते पश्चात श्वेता फिर से गंभीर रहने लगी तो रामेंद्र ने उस से कारण पूछा तो वह बोली, ‘‘वे लोग नहीं चाहते कि हम अलग घर में चैन से जीएं,’’ उस का आशय अपने सौतेले बाप व भाइयों से था.

‘‘क्यों?’’

‘‘उन्हें मेरा वेतन चाहिए.’’

‘‘यह तो घोर अन्याय है. वे इंसान हैं या हैवान.’’

अपने प्रति पहली बार रामेंद्र की सहानुभूति पा कर श्वेता की आंखें बरस पड़ीं, ‘‘सर, आप ही कुछ कीजिए न, आप जा कर कुछ सख्ती दिखाएंगे तो वे लोग दोबारा सिर नहीं उठा पाएंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं प्रयास करूंगा,’’ रामेंद्र ने आश्वासन दे दिया पर गए नहीं.

एक दिन राजेश ने उन्हें उन की बात याद दिलाई, ‘‘पिताजी, आप को श्वेता के बाप, भाई को सबक सिखाने जाना था.’’

उन की भवों पर बल पड़ गए, ‘‘तुम्हें मतलब?’’

पर राजेश उन की भावभंगिमा से विचलित नहीं हुआ. उसी स्वर में बोला, ‘‘आप कहें तो मैं जा कर उन लोगों को हड़का आऊं?’’

‘‘नहीं, तुम इस मामले में मत पड़ो.’’

‘‘तो कौन पड़ेगा? आप को तो उस की चिंता ही नहीं है,’’ राजेश तैश में भर गया.

‘‘ठीक है, मैं देखूंगा,’’ उन्होंने उस को शांत करने को कह दिया पर गए नहीं.

तीसरे दिन श्वेता फिर देर से आई और आते ही गंभीरता से बोली, ‘‘मुझे आप से अति आवश्यक बातें करनी हैं, सर.’’

‘‘बोलो.’’

‘‘आप मेरे पिता समान हैं, इसलिए आप मुझे उचित सलाह ही देंगे. मैं ने एक निर्णय लिया है.’’

‘‘कैसा?’’

‘‘मैं विवाह कर रही हूं.’’

रामेंद्र चौंके, ‘‘यह अकस्मात बदलाव कैसे आया? तुम्हें तो मर्दों से नफरत थी?’’

‘‘मेरा मन बदल गया है. मां भी बारबार कहती हैं कि सभी मर्द एकजैसे नहीं होते. हम अकेली, असहाय औरतों को वे लोग चैन से जीने नहीं देंगे. सो, सुरक्षा की दृष्टि से एक मर्द तो होना ही चाहिए.’’

‘‘तो कौन है वह?’’

‘‘वह लाखों में एक है. उस से विवाह कर के मुझे वह सभी हासिल हो सकेगा जिस की चाहत प्रत्येक लड़की को होती है. घर, सम्मान, पैसा, जीवन की सभी सुखसुविधाएं. फिर मुझे आप की नौकरी करने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी.’’

‘‘पर वह है कौन?’’ वे व्यग्र हो उठे.

 

उस ने झिझक के साथ कहा, ‘‘वह हमारे ही मोहल्ले का है. दीपक नाम है.’’

यह सुनते ही मानो रामेंद्र के सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो. वे राहत की सांस ले कर बोले, ‘‘ठीक है, तुम शादी तय करो, हम अवश्य आएंगे.’’

‘‘सर, आप को एक वादा करना पड़ेगा, तभी मैं शादी कर पाऊंगी.’’

‘‘कौन सा वादा?’’

‘‘आप को मेरा कन्यादान करना होगा,’’ श्वेता की आंखें भर आईं.

रामेंद्र का मन भी भर आया, बोले, ‘‘तुम चिंता मत करो. जब तुम ने मुझे पिता बनाया है तो मैं अवश्य कन्यादान करूंगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर.’’

‘‘सर-वर नहीं, पिताजी कह कर पुकारो.’’

‘‘पिताजी…’’

‘‘अब तुम घर जा कर शादी की तैयारियां करो. वेतन कटने की चिंता मत करना. अब तुम हमारी कर्मचारी नहीं, बेटी हो,’’ रामेंद्र मुसकराए.

फिर खुद गाड़ी निकाल कर श्वेता को उस के घर छोड़ने चले गए. उस की मां से खूब बातचीत कर व खाना खा कर लौटे.

अलका, त्रिशाला, राजेश सभी उन के बदले व्यवहार से चकित थे. अलका ने इस का कारण पूछा तो रामेंद्र हंसते हुए बोले, ‘‘मैं उसे इस घर की बहू बनाने के विरुद्ध था, बेटी बनाने के लिए नहीं. मैं उसे बेटी बना कर बहुत खुश हूं. बड़ी बुद्धिमान, परिश्रमी बेटी है वह.’’ फिर उन्होंने खूब धूमधाम से श्वेता व दीपक का विवाह संपन्न कराया. कन्यादान करते वक्त उन्हें लग रहा था, जैसे वे इरा व अपनी अवैध संतान के प्रति समाज के डर से मुक्त हो कर कर्तव्य का पालन कर रहे हों. उन के मन में इरा व अपनी संतान को खोज कर उन्हें सुख पहुंचाने की कामना और अधिक बलवती हो उठी थी. वे श्वेता का अंजाम देख चुके थे. क्या मालूम इरा भी अपनी संतान सहित इसी प्रकार के कष्ट भोग रही हो.

एहसास- भाग 4: क्यों सास से नाराज थी निधि

मालती उस में आए इस बदलाव से हैरान थी. एक तरह से निधि ने घर की सारी जिम्मेदारी उठा ली थी. अजय भी थोड़ा बेफिक्र हो गया था. उसे निधि पर पूरा भरोसा था. पर मालती को एक तरह से यह बात चुभती थी कि बहू हो कर  वह बेटे की तरह घर चला रही है. आखिर, बहू तो बहू होती है, मालती सोचती थी.

एक दिन सुबह पार्क जाने से पहले मालती अजय के कमरे में आई. उस की बीपी की दवाई खत्म हो गई थी.

‘‘अजय, मु झे कुछ पैसे दे दे, दवाई लेनी है. पार्क के रास्ते में कैमिस्ट से  ले लूंगी.’’

‘‘लेकिन मां, मेरे पास कैश नहीं है, तुम निधि से ले लो,’’ अजय टीवी पर नजरें गड़ाए हुए बोला.

रहने दे, बाद में ले लूंगी जब एटीएम से पैसे निकालूंगी, ‘‘मालती ने जवाब दिया. निधि के सामने वह हाथ नहीं  फैलाना चाहती थी. बाहर आ कर उस ने पार्क ले जाने वाला बैग उठाया, तो उस के नीचे नोट रखे थे. मालती सम झ गई कि निधि ने चुपचाप से पैसे रखे होंगे ताकि मालती को उस से मांगना न पड़े. जब वह अजय से बात कर रही थी तो निधि बाथरूम में थी. शायद, उस ने उन दोनों की बातचीत सुन ली थी.

मालती को फिजियोथेरैपिस्ट के पास जाना पड़ता था. अकसर उसे पीठ और कमरदर्द की तकलीफ रहती थी. उस ने सोचा, यह खर्च कम करना चाहिए, तो जाना बंद कर दिया. लेकिन तबीयत खराब रहने लगी. अजय को पता चला तो बहुत नाराज हो गया. निधि पास में बैठी लैपटौप पर कुछ काम कर रही थी.

‘‘बेकार में पैसे खर्च होते हैं,’’ मालती ने सफाई दी, ‘‘पार्क में सब कसरत करते हैं, मैं भी वही किया करूंगी.’’

‘‘मां, अब से आप को क्लिनिक जाने की जरूरत नहीं, फिजियोथेरैपिस्ट यहीं घर पर आ कर आप को ट्रीटमैंट देगा,’’ निधि ने मालती से कहा.

‘‘नहीं, नहीं, इस में तो ज्यादा फीस लगेगी, रहने दो ये सब,’’ मालती को बात जंची नहीं.

‘‘मां, आप की तबीयत ठीक होना ज्यादा जरूरी है और आप के साथसाथ डाक्टर अजय को भी देख लेगा,’’ निधि ने तर्क दिया.

‘‘ठीक तो है मां, तुम घर पर ही आराम से ट्रीटमैंट करवाओ, क्लिनिक के चक्कर लगाने की जरूरत क्या है,’’ अजय ने उसे आश्वस्त किया.

अजय की तबीयत धीरेधीरे सुधरने लगी थी. निधि ने अपनी मेहनत से घर में कोई कमी नहीं आने दी. सबकुछ उस ने संभाल लिया था. घर और गाड़ी की किस्तें, महीने का घरखर्च, डाक्टर की फीस सब उस के पैसों से चल रहा था.

निधि के मांबाप 2 दिन पहले ही अमेरिका में रह रहे अपने बेटे के पास से लौटे थे. आते ही वे अजय को देखने आ गए थे. निधि उस वक्त औफिस  में थी.

आइए, चाय पी लीजिए, मालती अजय के पास बैठी निधि की मां से बोली. अजय अपने ससुरजी से बातें कर रहा था. ट्रे में 2 कप चाय उस ने अजय और निधि के पापा के लिए वहीं एक टेबल पर रख दी.

‘‘अरे, आप ने ये सब तकलीफ क्यों की, हम तो बेटी के घर कुछ खातेपीते नहीं,’’ निधि की मां कुछ सकुचा कर बोली.

‘‘छोडि़ए न बहनजी, पुराने रिवाज, आज की बहुएं क्या बेटों से कम हैं,’’ अकस्मात मालती के मुंह से निकल पड़ा.

दोनों चाय पीने लगीं. ‘‘निधि और अजय की शादी के बाद से आप से ठीक से मिलना नहीं हो पाया. आप तो जानती हैं, शादी के तुरंत बाद हमें बेटे के पास जाना पड़ा, इसलिए कभी आप से एकांत में बातें करने का मौका ही नहीं मिला,’’ निधि की मां कुछ गमगीन हो कर बोली.

‘‘हांजी, मु झे पता है, आप का जाना जरूरी था. यह तो समय का खेल है. जान बच गई अजय की, यह गनीमत है.’’

‘‘निधि को अब तक आप जान गई होंगी. अपने पापा की लाड़ली रही है शुरू से. मैं ने भी ज्यादा कुछ सिखाया नहीं उस को, मां हूं उस की, कितनी लापरवाह है, यह मैं जानती हूं. आप को बहुतकुछ सम झाना पड़ता होगा उसे. एक बेटी से बहू बनने में उसे थोड़ा वक्त लगेगा. उस की नादानियों का बुरा मत मानिएगा. बस, यही कहना चाहती थी आप से.’’

जिस दिन से अजय की शादी निधि से हुई थी मालती को हमेशा निधि में कोई न कोई गलती नजर आती थी, उस ने सोचा था कि कभी मौका मिलेगा तो निधि की मां से खूब शिकायतें करेगी कि बेटी को कुछ नहीं सिखाया. लेकिन आज न जाने क्यों मालती के पास कुछ नहीं था निधि की शिकायत करने को, उल्टा उसे बुरा लगा, ऐसा लगा निधि उस की अपनी बेटी है और कोई दूसरा उस की बुराई कर रहा है.

‘‘आप से किस ने कहा कि मु झे निधि से कोई परेशानी है. हर लड़की बेटी ही जन्म लेती है. बहू तो उसे बनना पड़ता है. लेकिन यह मत सम िझए कि निधि एक कुशल बहू नहीं है. आप कभी यह मत सोचिए कि हम खुश नहीं हैं. निधि अब मेरी बेटी है,’’ मालती कुछ रुंधे गले से बोली, उसे खुद यकीन नहीं हो रहा था कि वह यह सब बोल रही थी. पर ये शब्द दिल की गहराई से निकले थे, बिना किसी बनावट के.

एक बेटी की मां के चेहरे पर जो खुशी होती है, वह खुशी दोनों मांओं के चेहरे पर थी.

रात में खाना खाने के बाद मालती बालकनी में रखी कुरसी पर बैठी दूर

से जगमग करती शहर की रोशनी देख रही थी.

हाथ में कौफी का मग लिए निधि उस के पास आ कर धीरे से एक स्टूल ले कर बैठ गई.

‘‘मां, यह आप का टिकट है इलाहबाद का,’’ निधि ने ट्रेन का टिकट उस की तरफ बढ़ा दिया.

‘‘अरे, लेकिन मैं ने तो बोला ही नहीं जाने के लिए, हर शादी में जाना जरूरी नहीं है मेरा,’’ मालती बोली.

‘‘अरे वाह, क्यों नहीं जाएंगी आप? मामाजी को बुरा लगेगा अगर हमारे घर से कोईर् भी इस शादी में नहीं गया. सौरी मां, मैं ने आप से बिना पूछे टिकट ले लिया है. अजय और मु झे लगता है आप को जाना चाहिए.’’

‘‘वह तो ठीक है. पर अभी अजय को मेरी जरूरत है. तुम तो औफिस चली जाओगी. वापस आ कर घर का काम, कितना थक जाओगी. मैं तुम दोनों को छोड़ कर नहीं जा पाऊंगी. मन ही नहीं लगेगा मेरा वहां,’’ मालती ने इसरार किया.

‘‘अजय की तबीयत अब काफी ठीक है. अब तो वे जौब के लिए एकदो इंटरव्यू देने की भी सोच रहे हैं, आप बेफिक्र हो कर जाइए मां.’’

मालती ने निधि के चेहरे की तरफ देखा. वह बहुत सादगी से बोल रही थी, न कोई बनावट न कोई  झूठ. मेरी सगी बेटी भी होती तो इस से बढ़ कर और क्या करती इस घर के लिए. निधि ने बहू का ही नहीं, बेटे का फर्ज भी निभा कर दिखा दिया था. बस, वह खुद ही अपनी सोच का दायरा बढ़ा नहीं पाई. हमेशा उसे अपने हिसाब से ढालना चाहती रही. निधि की सचाई, उस के अपनेपन और इस घर के लिए उस के समर्पण को अब जा कर देख पाई मालती. क्या हुआ अगर उस के तरीके थोड़े अलग थे. लेकिन वह गलत तो नहीं. आज मालती ने अपना नजरिया बदला तो आंखों में जमी गलतफहमी की धूल भी साफ हो गई थी.

मालती ने निधि का हाथ अपने हाथों में लिया और शहद घुले स्वर में बोली, ‘‘थैंक्यू बेटा, हमारे घर में आने के लिए,’’ कुछ आश्चर्य और खुशी से निधि ने उसे देखा और बड़े प्यार से उस के गले लग गई.   द्य

मालती कुनमुना कर रह गई. उस ने उम्मीद की थी कि निधि कुछ नानुकुर करेगी कि नहीं, मैं नहीं दे पाऊंगी, टाइम नहीं है, औफिस के लिए लेट हो जाएगा वगैरहवगैरह. पर यहां तो उस के हाथ से एक और वाकयुद्ध का मौका निकल गया.

मालती उस में आए इस बदलाव से हैरान थी. एक तरह से निधि ने घर की सारी जिम्मेदारी उठा ली थी. अजय भी थोड़ा बेफिक्र हो गया था. उसे निधि पर पूरा भरोसा था. पर मालती को एक तरह से यह बात चुभती थी कि बहू हो कर वह बेटे की तरह घर चला रही है.

जहां से चले थे- भाग 3: पेरेंट्स की मौत के बाद क्या हुआ संध्या के साथ

वंदना मेरी तरफ देख कर बोली, ‘तब भी तुम में यही गरूर था जो आज है. आज तो फिर भी तुम्हारे पास 10-12 रिश्ते हैं, और देर करोगी तो 60-62 साल का वृद्ध ही मिलेगा, वह भी पेंशन होल्डर. जवानी का सारा सुख तो तुम ने दांव पर लगा दिया. मातृत्व सुख क्या होता है तुम्हें एहसास ही नहीं. जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहती थीं न…अब कोई जिम्मेदारी नहीं मिलेगी, सिवा इस के कि उस का हाथ पकड़ कर तुम सड़क पार कराओगी,’ चाय खत्म करते हुए वंदना ने कहना जारी रखा.

‘शायद इसीलिए पुराने लोग जल्द से जल्द बच्चों की शादी कर दिया करते थे. लड़की आसानी से उस परिवार में ढल जाती थी. एकदूसरे के साथ रहतेरहते, प्रेम, तकरार, संवेदनाओं और भावनाओं का एहसास होता रहता था. एक बार फिर से सोच लो तुम. यह जो कुछ तू ने कमा कर जोड़ा है न उस का सुख तब दूसरे ही भोगेंगे…पर इतना याद रखना, इस तपते रेगिस्तान में चलना तुम्हें अकेले ही पड़ेगा.’

बात कड़वी थी पर थी सच. मुझे वंदना की सरल भाषा में कही गई बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मैं अपने अंधेरे भविष्य को देख कर एकदम घबरा गई.

‘अच्छा, अब मैं चलती हूं. घर पर बच्चे इंतजार कर रहे होंगे. बस, इतना बता दो कि तुम शादी करना चाहती हो या नहीं, ताकि मैं इस बारे में आगे सोच सकूं. आंटी मुझे यह काम सौंप गई थीं, इसलिए मैं तुम्हें समझाने चली आई.’

मां की इच्छा और वंदना के तर्क के आगे मैं एकदम बौनी पड़ गई और मैं ने उस की बात मान ली.

जातेजाते वंदना बोल गई, ‘देखो, तुम दिन भर बैठ कर फिर से सारे पत्र पढ़ लो. समझ में आता है तो ठीक, नहीं तो नया विज्ञापन दे देती हूं. मैं शाम को आती हूं, फिर पता नहीं तुम्हें कब फुरसत मिले.’

शाम को वंदना के आने से पहले मैं ने सारे पत्र पढ़े. जैसा वर मुझे चाहिए था, उन में वैसा कोई न मिला. मैं विरोधाभास के समुद्र में तैरती रही. मांपापा की इच्छा का ध्यान रखते हुए मैं ने 2-3 बायोडाटा अलग रख लिए.

ठीक 6 बजे वंदना आ गई. अपने साथ आए एक व्यक्ति का परिचय करवाते हुए बोली, ‘यह विजय शर्मा हैं, यह मेरे परिचित भी हैं और मैरिज काउंसलर भी. मैं ने सोचा इन्हें साथ लेती चलूं ताकि तुम्हारे मन में कोई शंका हो तो निवारण कर लोगी.’

उन के लिए झट से शरबत बना कर मैं वहीं पास ही में बैठ गई.

‘संध्या, मैं ने इन को तुम्हारे बारे में सबकुछ बता दिया है, अब तुम बिना झिझक इन से बात कर सकती हो,’ वंदना मुझे देखते हुए बोली, ‘उन में से कोई तुम्हें पसंद आया क्या?’

मैं ने अपने चुने हुए पेपर उन के सामने रख दिए.

विजयजी ने पेपर्स देखते हुए पूछा, ‘मैम, क्या आप साफसाफ बता सकती हैं कि इस उम्र में शादी क्यों करना चाहती हैं?’

‘यह कैसा बेहूदा सवाल है?’ मैं ने चिढ़ कर कहा. मेरी आवाज में रोष स्पष्ट था.

‘यही तो अहम प्रश्न है, संध्या,’ उन की अनुभवी नजरों ने मुझे चीर कर रख दिया.

‘शायद इसलिए कि मां चाहती थीं या शायद समाज मुझे भेद भरी नजरों से न देखे इसलिए या शायद मुझे सहारे की जरूरत हो,’ मैं ने अपनेआप से प्रश्न किया. मैं मन ही मन उचित शब्दों को तलाशती रही फिर बोली, ‘मुझे लगता है मैं बहुत अकेली जी ली, अब कदम जिस उम्र की ओर बढ़ रहे हैं शायद मैं अकेली न चल सकूं,’ मैं ने 1-1 अक्षर पर जोर दे कर कहा.

‘तो वह व्यक्ति भी आप के स्टेटस का होना चाहिए?’ प्रश्न जितना सरल था समाधान उतना ही कठिन.

मैं ने वंदना की तरफ देख कर कहा, ‘मुझे लगता है यह अब संभव नहीं हो पाएगा. उम्र, जाति, बंधन, स्टेटस, धन, ऐश्वर्य की अब मुझे कोई चाहत नहीं है. व्यक्ति कैसा भी हो बस, मेरी भावनाओं को समझने वाला और सहारा देने वाला होना चाहिए. एक बार मैं ने शादी की उम्र में शादी क्या तोड़ दी, मुझे ग्रहण लग गया है. कभी पापा का सहारा तो कभी मां की गोद और एकएक कर के सभी संबंध टूटते चले गए. आज मैं बिलकुल अकेली खड़ी हूं,’ कह कर मैं सुबकने लगी. मेरा सारा दुख आंखों के रास्ते बाहर निकल गया. हमारे बीच एक गहरी चुप्पी छा गई.

‘संध्या,’ वंदना ने मेरे पास आ कर मेरे गाल थपथपाए और कहने लगी, ‘विजय वही व्यक्ति हैं जिस की शादी बरसों पहले तुम से हो रही थी. तुम्हारे झूठे लांछन की वजह से न इन की शादी हो पाई और न ही तुम ने की. मैं ने तुम से झूठ बोला कि यह मेरे जानने वाले हैं. विज्ञापन के उत्तर में इन का भी एक पत्र आया था, जो मैं ने संभाल कर रख लिया था. तुम से सबकुछ सुनने के बाद ही मैं ने इन से तुम्हारे बारे में बात की है. इन के मन में अब भी तुम्हारे प्रति रोष था किंतु मैं ने इन्हें सबकुछ बता दिया है. बाकी तुम दोनों बात कर लो.’

यह सुनते ही मेरी सांसें ठहर गईं. जैसे मैं सब के सामने निर्वसन हो गई हूं. मेरी जबान ने अब मेरा साथ छोड़ दिया. मैं बेहद परेशान हो गई थी. अपने पर काबू पाने में मुझे कुछ समय लगा, फिर मैं बोली, ‘मुझ में अब इतनी हिम्मत नहीं है कि इन से नजर भी मिला सकूं. पहले ही मैं ने इन का जीवन बरबाद कर दिया. मुझे जब तक इन के बारे में पता चला, बहुत देर ही चुकी थी. यदि यह मुझे स्वीकार कर लें तो इन का मुझ पर बड़ा एहसान होगा. मैं वादा करती हूं कि ताउम्र इन की दासी बन कर इन की सेवा करूंगी. बस, यह सिर्फ एक बार मुझे माफ कर दें.’

‘क्या तुम मेरे लिए नौकरी छोड़ सकती हो?’ विजयजी ने पूछा.

‘हां, आप की खुशी के लिए मैं अभी इस्तीफा भेज सकती हूं. बस, मुझे एक बार प्रायश्चित का अवसर दीजिए,’ कह कर मैं रोने लगी. मेरा कंठ एकदम अवरुद्ध हो गया और मैं उन के पैरों पर गिर पड़ी.

विजय ने मुझे उठा कर अपने सीने से लगा लिया और बोले, ‘मैं तुम्हें न तो नौकरी छोड़ने के लिए कहूंगा और न ही कुछ ऐसा कहूंगा जो तुम्हारी इच्छाओं के विरुद्ध हो. बस, पिछली बातों को ले कर मन में कोई अवसाद न रखना,’

मैं उन की ओर न देखने का बहाना करते भी चोरीचोरी उन्हें देखने लगी. पता नहीं कैसे मुझ में से 18 साल की किशोरी संध्या निकल कर बाहर आ गई और पुन: उन के सीने से जा लगी.

मुझे अपने चारों ओर बांहों के घेरे का एहसास हुआ तो मैं वापस वहीं पर पहुंच गई जहां से चली थी. कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी मुझे, यह बस, मैं ही जानती हूं.

वजूद: क्या छिपा रही थी शहला

‘‘शहला… अरी ओ शहला… सुन रही है न तू? जा, जल्दी से तैयार हो कर अपने कालेज जा,’’ आंगन में पोंछा लगाती अम्मी ने कहा, तो रसोईघर में चाय बनाती शहला को एकबारगी अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

हैरान सी शहला ने नजर उठा कर इधरउधर देखा. अम्मी उस से ही यह सब कह रही थीं.

शहला इतना ही कह पाई, ‘‘अम्मी, वह चाय…’’

‘‘मैं देख लूंगी. तू कालेज जा.’’

फिर क्या था, शहला को मानो पर लग गए थे. अगले 10 मिनट में वह तैयार हो कर किताबें संभाल अपनी साइकिल साफ कर के चलने को हुई, तो अम्मी ने आवाज लगाई, ‘‘रोटी सेंक दी है तेरे लिए. झटपट चाय के साथ खा ले, नहीं तो भूखी रहेगी दिनभर.’’

अम्मी में आए इस अचानक बदलाव से हैरान शहला बोल उठी, ‘‘अरे अम्मी, रहने दो न. मैं आ कर खा लूंगी. कालेज को देर हो जाएगी.’’

हालांकि शहला का पेट अम्मी द्वारा दी गई खुशी से लबालब था, फिर भी ‘अच्छाअच्छा, खा लेती हूं’ कह कर उस ने बात को खत्म किया.

शहला अम्मी को जरा सा भी नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए जल्दी से नाश्ता किया, बीचबीच में वह चोर निगाहों से अम्मी के चेहरे की तरफ देखती रही, फिर उस ने नजरें इधरउधर घुमा कर अपनी खुशी बांटने के लिए अब्बू को तलाशा. इस उम्मीद में कि शायद वे खेत से लौट आए हों, पर भीतर से वह जानती थी कि उन के लौटने में अभी देरी है.

सो, नफीसा के सिर पर हाथ फेर कर जावेद को स्कूल के लिए तैयार होने की कह कर मन ही मन अब्बू को सलाम कर के शहला ने अपनी साइकिल आंगन से बाहर निकाल ली. बैग कैरियर में लगाने के बाद वह ज्यों ही साइकिल पर सवार हुई, तो लगा मानो आज उस की साइकिल को पर लग गए हों.

चाय की इक्कादुक्का दुकानों को छोड़ कर शहर के बाजार अभी बंद ही थे. तेजी से रास्ता पार कर शहला अपने कालेज जा पहुंची.

चौकीदार राजबीर काका के बच्चे स्कूल जाने को तैयार खड़े थे. उन्होंने उसे नमस्ते किया और उस ने राजबीर काका को. स्टैंड पर साइकिल खड़ी कर के वह तकरीबन दौड़ती हुई पीछे मैदान में उस के पास जा पहुंची.

एक पल ठिठक कर उसे देखा और लिपट गई उस से. अब तक ओस की ठिठुरन से सिकुडा सा खड़ा वह अचानक उस की देह की छुअन, लिपटी बांहों की गरमी पा कर खुशी में झरने लगा था और उस को सिर से पैर तक भर दिया नारंगी डंडी वाले दूधिया फूलों से.

शहला कहने लगी, ‘‘बस बाबा, बस, अब बंद करो ये शबनम भीगे फूलों को बरसाना और जल्दी से मेरी बात सुनो,’’ वह उतावली हो रही थी.

शहला के गांव का स्कूल 12वीं जमात तक ही था. उस की जिगरी सहेलियों विद्या और मीनाक्षी को उन की जिद पर उन के मातापिता शहर के कालेज में भेजने को राजी हो गए, लेकिन शहला के लाख कहने पर भी उसे आगे पढ़ने की इजाजत नहीं मिली.

इस बात से शहला बहुत दुखी थी. उस की अम्मी की जिद के आगे किसी की न चली और उसे अपनी पक्की सहेलियों से बिछुड़ जाना पड़ा. यहां कुछ लड़कियों से उस की दोस्ती हो गई थी, पर विद्या और मीनाक्षी से जो दिल का रिश्ता था, वह किसी से न बन पाया, इसलिए वह खाली समय में अपने दिल की बात कहनेबांटने के लिए कालेज के बड़े से बगीचे के इस हरसिंगार के पेड़ के पास चली आती.

यह हरसिंगार भी तो रोज फूल बरसा कर उस का स्वागत करता, सब्र के साथ उस की बात सुनता, उसे मुसकराने की प्रेरणा दे कर उस को हौसला देता.

पर आज की बात ही कुछ और है, इसलिए शहला हरसिंगार के तने से पीठ टिका कर बैठी और कहने लगी, ‘‘आज अम्मी ने मुझे खुद कालेज आने के लिए कहा. उन्होंने मन लगा कर पढ़ने को कहा. अव्वल रहने को कहा और आगे ऊंची पढ़ाई करने को भी कहा.

‘‘मालूम है, उन अम्मी ने, उन्होंने… हरसिंगार तू जानता है न मेरी पुराने खयालात वाली अम्मी को. इसी तंगखयाली के मारे उन्होंने मुझे 12वीं के आगे पढ़ाने से मना कर दिया था. उन पर तो बस मेरे निकाह का भूत सवार था. दिनरात, सुबहशाम वे अब्बू को मेरे निकाह के लिए परेशान करती रहतीं.

‘‘इसी तरह अब्बू से दिनरात कहसुन कर उन्होंने कुछ दूर के एक गांव में मेरा रिश्ता तय करवा दिया था. लड़के वालों को तो और भी ज्यादा जल्दी थी. सो, निकाह की तारीख ही तय कर दी.

‘‘अच्छा, क्या कह रहा है तू कि मैं ने विरोध क्यों नहीं किया? अरे, किया…   अब्बू ने मेरी छोटी उम्र और पढ़ाई की अहमियत का वास्ता दिया, पर अम्मी ने किसी की न सुनी.

‘‘असल में मेरी छोटी बहन नफीसा  बहुत ही खूबसूरत है, पर कुदरत ने उस के साथ बहुत नाइंसाफी की. उस की आंखों का नूर छीन लिया.

‘‘3-4 साल पहले सीढ़ी से गिर कर उस के सिर पर चोट लग गई थी. इसी चोट की वजह से उस की आंखों की रोशनी चली गई थी. उस से छोटा मेरा भाई जावेद…

‘‘इसलिए… अब तू ही कह, जब अम्मी की जिद के आगे अब्बू की नहीं चली, तो मेरी मरजी क्या चलती?

‘‘हरसिंगार, तब तक तुम से भी तो मुलाकात नहीं हुई थी. यकीन मानो, बहुत अकेली पड़ गई थी मैं… इसलिए बेचारगी के उस आलम में मैं भी निकाह के लिए राजी हो गई.

‘‘पर तू जानता है हरसिंगार… मेरा निकाह भी एक बड़े ड्रामे या कहूं कि किसी हादसे से कम नहीं था…’’

हरसिंगार की तरफ देख कर शहला मुसकराते हुए आगे कहने लगी, ‘‘हुआ यों कि तय किए गए दिन बरात आई.

‘‘बरात को मसजिद के नजदीक के जनवासे में ठहराया गया था और वहीं सब रस्में होती रहीं. फिर काजी साहब ने निकाह भी पढ़वा दिया.

‘‘सबकुछ शांत ढंग से हो रहा था कि अम्मी की मुरादनगर वाली बहन यानी मेरी नसीम खाला रास्ते में जाम लगा होने की वजह से निकाह पढ़े जाने के थोड़ी देर बाद घर पहुंचीं.

‘‘बड़ी दबंग औरत हैं वे. जल्दबाजी में तय किए गए निकाह की वजह से वे अम्मी से नाराज थीं…’’ कहते हुए शहला ने हरसिंगार के तने पर अपनी पीठ को फिर से टिका लिया और आगे बोली, ‘‘इसलिए बिना ज्यादा किसी से बात किए वे दूल्हे को देखनेमिलने की मंसा से जनवासे में चली गईं. उस वक्त बराती खानेपीने में मसरूफ थे. उन्हें खाला की मौजूदगी का एहसास न हो पाया.

‘‘वे जनवासे से लौटीं और अचानक अम्मी पर बरस पड़ीं, ‘आपा, शहला का दूल्हा तो लंगड़ा है. तुम्हें ऐसी भी क्या जल्दी पड़ रही थी कि अपनी शहला के लिए तुम ने टूटाफूटा लड़का ढूंढ़ा?’

‘‘यह जान कर अम्मी, अब्बू और बाकी रिश्तेदार सब सकते में आ गए. मामले की तुरंत जांचपड़ताल से पता चला कि दूल्हा बदल दिया गया था.

‘‘लड़के वालों ने अब्बू के भोलेपन का फायदा उठा कर चालाकी से असली दूल्हे की जगह उस के बड़े भाई से मेरा निकाहनामा पढ़वा दिया था.

‘‘बात खुलते ही बिचौलिया और कुछ बराती दूल्हे को ले कर मौके से फरार हो गए.

‘‘हमारे खानदान व गांव के लोग इस धोखाधड़ी के चलते बहुत गुस्से में थे. सो, गांव की पंचायत व दूसरे लोगों के साथ मिल कर उन्होंने बाकी बरातियों को जनवासे के कमरे में बंद कर दिया.

‘‘अब मरता क्या न करता वाली बात होने पर दूल्हे के गांव की पंचायत और कुछ लोग बंधक बरातियों को छुड़ाने पहुंच गए. दोनों गांवों की पंचायतों और बुजुर्गों ने आपस में बात की. लड़के वाले किसी भी तरह से निकाह को परवान चढ़ाए रखना चाहते थे.

‘‘वे कहने लगे, ‘विकलांग का निकाह कराना कोई जुर्म तो नहीं, जो तुम इतना होहल्ला कर रहे हो. वैसे भी अब तो निकाह हो चुका है. बेहतर यही है कि तुम लड़की की रुखसती कर दो.

‘‘‘तुम लड़की वाले हो और लड़कियां तो सीने का पत्थर हुआ करती हैं. अब तुम ने तो लड़की का निकाह पढ़वा दिया है न. छोटे भाई से नहीं, तो बड़े से सही. क्या फर्क पड़ता है. तुम समझो कि तुम्हारे सिर से तो लड़की का बोझ उतर ही गया.’

‘‘सच कहूं, उस समय मुझे एहसास हुआ कि हम लड़कियां कितनी कमजोर होती हैं. हमारा कोई वजूद ही नहीं है. तभी अब्बू की भर्राई सी आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘मेरी बेटी कोई अल्लाह मियां की गाय नहीं, जो किसी भी खूंटे से बांध दी जाए और न ही वह मेरे ऊपर बोझ है. वह मेरी औलाद है, मेरा खून है. उस का सुख मेरी जिम्मेदारी है, न कि बोझ… अगर वह लड़की है, तो उसे ऐसे ही कैसे मैं किसी के भी हवाले कर दूं.’

‘‘और कुछ देर बाद हौसला कर के उन्होंने पंचायत से तलाकनामा के लिए दरख्वास्त करते हुए कहा, ‘जनाब, यह ठीक है कि विकलांग होना या उस का निकाह कराना कोई जुर्म नहीं, पर दूसरों को अंधेरे में रख कर या दूल्हा बदल कर ऐसा करना तो दगाबाजी हुई न?

‘‘‘मैं दगाबाजी का शिकार हो कर अपनी पढ़ीलिखी, सलीकेदार, जहीन लड़की को इस जाहिल, बेरोजगार और विकलांग के हाथ सौंप दूं, क्या यही पंचायत का इंसाफ है?’

‘‘यकीन मानो, मुझे उस दिन पता चला कि मैं कोई बोझ नहीं, बल्कि जीतीजागती इनसान हूं. उस दिन मेरी नजर में अब्बू की इज्जत कई गुना बढ़ गई थी, क्योंकि उन्होंने मेरी खातिर पूरे समाज, पंचायत से खिलाफत करने की ठान ली थी.

‘‘लेकिन, पुरानी रस्मों को एक झटके से तोड़ कर मनचाहा बदलाव ले आना, चाहे वह समाज के भले के लिए ही क्यों न हो, इतना आसान तो नहीं. चारों तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई थी… दोनों गांवों के लोग और पंचायत अभी भी सुलह कर के निकाह बरकरार रखने की सिफारिश कर रहे थे.

‘‘अब्बू उस समय बेहद अकेले पड़ गए थे. उस बेबसी के आलम में हथियार डालते हुए उन्होंने गुजारिश की, ‘ठीक है जनाब, पंच परमेश्वर होते हैं. मैं ने अपनी बात आप के आगे रखी, फिर भी अगर मेरी बच्ची की खुशियां लूट कर और उसे हलाल करने का गुनाह मुझ से करा कर शरीअत की आन और आप लोगों की आबरू बचती है, तो मैं निकाह को बरकरार रखते हुए अपनी बच्ची की रुखसती कर दूंगा, लेकिन मेरी भी एक शर्त है.

‘‘‘बात यह है कि शहला की छोटी बहन नफीसा बहुत ही खूबसूरत है और जहीन भी, लेकिन एक हादसे में उस की नजर जाती रही. बस, यही एक कमी है उस में.

‘‘‘आप के कहे मुताबिक जब बेटियों को हम बोझ ही समझते हैं और आप सब मेरे खैरख्वाह एक बोझ को उतारने में मेरी इतनी मदद कर रहे हैं. मुझे तो अपने दूसरे बोझ से भी नजात पानी है और फिर किसी शारीरिक कमी वाले शख्स का निकाह कराना कोई गुनाह भी नहीं, तो क्यों न आप नफीसा का निकाह इस लड़के के छोटे भाई यानी जिसे हम ने अपनी शहला के लिए पसंद किया था, उस से करा दें? हिसाबकिताब बराबर हो जाएगा और दोनों बहनें एकसाथ एकदूसरे के सहारे अपनी जिंदगी भी गुजार लेंगी.’

‘‘बस, फिर क्या था, हमारे गांव की पंचायत व बाकी लोग एक आवाज में अब्बू की बात की हामी भरने लगे, पर दूल्हे वालों को जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘हां, उस के बाद जो कुछ भी हुआ, मेरे लिए बेमानी था. मैं उस दिन जान पाई कि मेरा भी कोई वजूद है और मैं भेड़बकरी की तरह कट कर समाज की थाली में परोसे जाने वाली चीज नहीं हूं.

‘‘मेरे अब्बू अपनी बेटी के हक के लिए इस कदर लड़ाई लड़ सकते हैं, मैं सोच भी नहीं सकती थी. फिर तो… दूल्हे वालों ने मुझे तलाक देने में ही अपनी भलाई समझी. मैं तो वैसे भी इस निकाह के हक में नहीं थी, बल्कि आगे पढ़ना चाहती थी.

‘‘हां, उस के बाद कुछ दिन तक घर में चुप्पी का माहौल रहा, फिर परेशानी के आलम में अम्मी अब्बू से कहने लगीं, ‘जावेद के अब्बू, तुम्हीं कहो कि अब इस लड़की का क्या होगा. क्या यह बोझ सारी उम्र यों ही हमारे गले में बंधा रहेगा?’

‘‘हरसिंगार, तू जानना चाहता है कि अब्बू ने अम्मी से क्या कहा?’’ अब्बू बोले, ‘नुसरत, बेटियां बोझ नहीं हुआ करतीं. वे तो घर की रौनक होती हैं. बोझ होतीं तो कोई हमारे घर के बोझ को यों मांग कर के अपने घर ले जाता. बेटियां तो एक छोड़ 2-2 घर आबाद करती हैं. अब मत कोसना इन्हें.

‘‘‘कल मैं शहर के अस्पताल में नफीसा की आंखों के आपरेशन के लिए बात करने गया था. वहां आधे से ज्यादा तो लेडी डाक्टर थीं और वे भी 25-26 साल की लड़कियां. उन में से 2 तो मुसलिम हैं, डाक्टर जेबा और डाक्टर शबाना. क्या वे किसी की लड़कियां नहीं हैं?

‘‘‘हां, डाक्टर ने उम्मीद दिलाई है कि हमारी नफीसा फिर से देख सकेगी. और हां, तू इन के निकाह की चिंता मत कर. सब ठीक हो जाएगा.

‘‘‘अरे हां नुसरत, तब तक क्यों न शहला को आगे पढ़ने दें? कोई हुनर हाथ में होगा, तो समाजबिरादरी में सिर उठा कर जी सकेगी हमारी शहला.

‘‘‘अब जमाना बदल चुका है. तू भी लड़कियों के लिए अपनी तंगखयाली छोड़ उन के बारे में कुछ बढि़या सोच…’

‘‘और हरसिंगार, अब्बू ने जमाने की ऊंचनीच समझा कर, मेरी भलाई का वास्ता दे कर अम्मी को मना तो लिया, पर मुझे बड़े शहर भेज कर पढ़ाने को वे बिलकुल राजी नहीं हुईं, इसलिए अब्बू ने उन की रजामंदी से यहां कसबे के इस आईटीआई में कटिंगटेलरिंग और ड्रैस डिजाइनिंग कोर्स में मेरा दाखिला भी करा दिया.

‘‘अब मैं हर रोज साइकिल से यहां पढ़ने आने लगी. यहां नए लोग, नया माहौल, नया इल्म तो मिला ही, उस के साथसाथ हरदम व हर मौसम में खिलखिलाने वाले एक प्यारे दोस्त के रूप में तुम भी मिल गए और मेरी जिंदगी के माने ही बदल गए.

‘‘पर अम्मी अभी भी अंदर से घबराई हुईं और परेशान रहती हैं. जबतब मुझे कोसती रहती हैं, ताने मारती हैं और छोटेबड़े काम के लिए मुझे छुट्टी करने पर मजबूर करती हैं.

‘‘इसी बीच पिछले हफ्ते शहर के एक बड़े अस्पताल में अब्बू ने नफीसा की आंखों का आपरेशन करा दिया. उस दिन अम्मी भी हमारे साथ अस्पताल गई थीं और आपरेशन थिएटर के बाहर खड़ी थीं.

‘‘तभी आपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला और डाक्टर शबाना ने मुसकराते हुए कहा, ‘आंटीजी, मुबारक हो. आपरेशन बहुत मुश्किल था, इसलिए ज्यादा समय लग गया, पर पूरी तरह से कामयाब रहा.’

‘‘जानता है हरसिंगार, अम्मी हैरत में पड़ी उन्हें बहुत देर तक देखती रहीं, फिर उन से पूछने लगीं, ‘बेटी, यह आपरेशन तुम ने किया है क्या?’

‘‘वे बोलीं, ‘जी हां.’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘कुछ नहीं बेटी, मैं तो बस…’

‘‘उस के बाद अम्मी जितना वक्त अस्पताल में रहीं, वहां की लेडी डाक्टरों और नर्सों को एकटक काम करते देखती रहती थीं.

‘‘उस दिन से अम्मी काफी चुपचाप सी रहने लगी थीं. कल नफीसा के घर लौटने के बाद अब्बू से कहने लगीं, ‘शहला के अब्बू, सुनो…’

‘‘अब्बू ने अम्मी से पूछ ही लिया, ‘नुसरत, आज कुछ खास हो गया क्या, जो तुम मुझे जावेद के अब्बू की जगह शहला के अब्बू कह कर बुलाने लगी?’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘अरे, तुम ही तो कहते हो कि लड़का और लड़की में कोई फर्क नहीं होता और फिर तुम शहला के बाप न हो क्या?’

‘‘वे आगे कहने लगीं, ‘मैं तो यह कह रही थी कि नफीसा की आंख ठीक हो जाए, तो उसे भी दोबारा स्कूल पढ़ने भेज देंगे. पढ़लिख कर वह भी डाक्टर बन जाए, तो कैसा रहेगा?’

‘‘यह सुन कर अब्बू ने कहा, ‘अब तुम कह रही हो, तो ठीक ही रहेगा.’

‘‘इतना कह कर अब्बू मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगे थे और आज सुबह अम्मी ने मेरे कालेज जाने पर मुहर लगा दी.’’

खुशी में सराबोर शहला खड़ी हो कर फिर से लिपट गई अपने दोस्त से और आसमान की तरफ देख कर कहने लगी, ‘‘देखो न हरसिंगार, आज की सुबह कितनी खुशनुमा है… बेदाग… एकदम सफेद… है न?

‘‘आज तुझ से सब कह कर मैं हलकी हो गई हूं. निकाह के वाकिए को तो मैं एक बुरा सपना समझ कर भूल चुकी हूं. याद है तो मुझे अपनी पहचान, जिस से रूबरू होने के बाद अब जिंदगी मुझे बोझ नहीं, बल्कि एक सुरीला गीत लगती है,’’ कहतेकहते शहला की आंखों में जुगनू झिलमिलाने लगे.

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कर्तव्य पालन- भाग 3: क्या रामेंद्र को हुआ गलती का एहसास

श्वेता उन्हें राजेश व त्रिशाला से अधिक समझदार मालूम पड़ने लगी. काम पर आते वक्त अधिकतर महिला श्रमिक अपने साथ बच्चों को ले आती थीं जो इधरउधर घूम कर गंदगी फैलाते व लोगों की डांट खाते रहते थे. इस बाबत श्वेता ने सुझाव दिया, ‘‘क्यों न फैक्टरी के पीछे की खाली पड़ी जमीन पर एक टिनशेड डाल कर इन बच्चों के रहने, सोने, खेलने एवं थोड़ाबहुत पढ़नेलिखने की व्यवस्था कर दी जाए?’’ सुझाव सभी को पसंद आया. तत्काल टिनशेड की व्यवस्था कर दी गई. साथ ही, बच्चों की देखरेख के लिए एक आया व अक्षरज्ञान के लिए एक सेवानिवृत्त वृद्ध अध्यापिका की व्यवस्था कर दी गई. अपने बच्चों को प्रसन्न व साफसुथरा देख कर महिला श्रमिक दोगुने उत्साह से काम करने लगीं व सभी के मन में श्वेता के प्रति सम्मान के भाव उत्पन्न हो गए.

रामेंद्र ने श्वेता के कार्य से संतुष्ट हो कर उस का वेतन बढ़ा दिया, पर हृदय से वे उस को नापसंद ही करते रहे. उन के मन से यह कभी नहीं निकल पाया कि वह एक अवैध संतान है, जिस के पिता का कोई अतापता नहीं है. उन के मन में उस की मां के प्रति भी नफरत के भाव पनपते रहते, जिस ने अपने कुंआरे दामन पर कलंक लगा कर श्वेता को जन्म दिया था. श्वेता ने कई बार उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दिया पर रामेंद्र ने उन लोगों के प्रति पनपी वितृष्णा के कारण वहां जाना स्वीकार नहीं किया. वे श्वेता के मुंह से यह भी सुन चुके थे कि उस का सौतेला शराबी बाप उस की मां को मारतापीटता है, पर फिर भी उन्होंने उस के घर जाना उचित नहीं समझा.

ऐसे निम्नश्रेणी के लोगों के पचड़े में पड़ना उन्हें कतई स्वीकार नहीं था. एक दिन अलका व त्रिशाला घूमने के उद्देश्य से फैक्टरी में आईं तो श्वेता को घर आने का निमंत्रण दे गईं. छुट्टी के दिन कुछ संकोच के साथ श्वेता घर आई व औपचारिक बातचीत के पश्चात तुरंत जाने को उद्यत हुई मगर त्रिशाला ने जिद कर के उसे रोक लिया व उस के सामने मेज पर चाय के प्याले व भांतिभांति का नाश्ता लगा दिया. रामेंद्र मन मसोस कर देखते रहे कि घर के लोग किस प्रकार विशिष्ट अतिथि की भांति श्वेता को खिलापिला रहे हैं.

फिर तीनों लौन में जा कर बैडमिंटन खेलने लगे. श्वेता के लंबेलंबे हाथों में तैरता रैकेट हवा में उड़ता नजर आ रहा था. वह कभी राजेश के साथ तो कभी त्रिशाला के साथ देर तक खेलती रही. फिर राजेश रात हो जाने के कारण श्वेता को छोड़ने उस के साथ चला गया. उस के जाते ही रामेंद्र पत्नी पर बरस पड़े, ‘‘फैक्टरी की साधारण सी नौकर को घर में बुला कर आवश्यकता से अधिक मानसम्मान करना क्या उचित है?’’

‘‘वह त्रिशाला के साथ पढ़ी हुई, उस की सहेली भी तो है.’’

‘‘इस वक्त वह हमारी नौकर है. उस के साथ नौकरों जैसा ही व्यवहार करना चाहिए.’’

‘‘ठीक है, मैं त्रिशाला को समझा दूंगी.’’

‘‘इसी वक्त समझाओ. बुलाओ उसे,’’ रामेंद्र क्रोध से सुलग रहे थे.

अलका ने कमरे में आराम कर रही त्रिशाला को आवाज दे कर बुलाया. जब वह कमरे में आई तो रामेंद्र अलका के कहने से पूर्व ही उसे डांटने लगे कि उस ने श्वेता से फालतू की मित्रता क्यों कर रखी है. आइंदा कभी उस से बात करने की आवश्यकता नहीं है.

त्रिशाला ने सहम कर कहा, ‘‘ठीक है, मैं आगे से श्वेता से दूर रहूंगी.’’ राजेश वापस लौटा तो रामेंद्र ने उसे भी डांटा कि वह श्वेता को कार से छोड़ने क्यों गया? उस के लिए किराए का आटोरिकशा क्यों नहीं कर दिया.

जब सिर उठा कर राजेश ने अपनी गलती की माफी मांगी तभी रामेंद्र संतुष्ट हो पाए. पर शयनकक्ष में अलका ने उन्हें आड़े हाथों लिया, ‘‘यह तुम्हारे अंदर ऊंचनीच का भेदभाव कब से पनप उठा? तुम्हारी फैक्टरी की गाडि़यां भी तो श्रमिकों को लाने, ले जाने का काम करती हैं. कई बार तुम ने गाडि़यों से महिला श्रमिकों को उन के घर व अस्पताल पहुंचाया है.’’ कोई उत्तर न दे कर रामेंद्र विचारों के भंवरजाल में डूबतेउतराते रहे कि अलका कहां समझ पाएगी कि श्वेता में व अन्य महिला श्रमिकों में जमीनआसमान का अंतर है. श्वेता खूबसूरत है, उच्च शिक्षित है. उस में राजेश जैसे लड़कों को अपनी तरफ आकर्षित करने की क्षमता है. राजेश फैक्टरी में आने लगा, यह देख कर रामेंद्र संतुष्ट हुए कि वह काम में रुचि लेने लगा है. पर जब उन्होंने उसे चोरीछिपे श्वेता से बातें करते देखा तो उन का माथा ठनक गया. उन्हें दाल में काला नजर आया. वे शुरू से अब तक की कडि़यां जोड़ने लगे तो उन्हें ये सब राजेश की गहरी चाल नजर आई.

उन्हें लगा, वह फैक्टरी में श्वेता के कारण ही आता है. जरूर दोनों में गहरा प्यार है, जिसे दोनों अभी प्रकट नहीं करना चाहते. वक्त आने पर अवश्य प्रकट करेंगे. कहीं दोनों छिप कर ‘कोर्ट मैरिज’ न कर लें. कहीं ऐसा तो नहीं, श्वेता ही राजेश को अपने रूपजाल में फंसा रही हो. कोठी, कार, दौलत का लालच कम तो नहीं होता. मन का संदेह उन्होंने अलका के सामने प्रकट किया तो वह बिगड़ उठी, ‘‘अपनी युवावस्था में तुम जैसे रहे हो, बेटे को भी वैसा ही समझते हो. पता नहीं क्यों तुम्हारे मन में इकलौते बेटे के प्रति बुराइयां पनपती रहती हैं? तुम उसे गलत समझते हो, जबकि वह श्वेता को बहन के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझता. तुम ऐसा करो कि श्वेता को नौकरी से ही निकाल दो. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी,’’ कह कर वह मुंह फेर कर सो गई.

अलका के व्यवहार से रामेंद्र के मन को भारी ठेस लगी. यदि उन्होंने इरा से प्यार कर के गलती की तो क्या बेटे को भी वही गलती करने की छूट दे दें? मन रोंआसा हो कर फिर से इरा के इर्दगिर्द जा पहुंचा. वे फिर विचारों में खो गए कि पता नहीं कहां होगी इरा. उस की कोख में पलने वाले उन के खून का क्या हुआ. क्या मालूम जीवित भी है या नहीं. यदि राजेश फैक्टरी की जिम्मेदारी संभाल ले तो वे एक बार फिर से उस की खोज करने जाएंगे. अपने बच्चे का पता करेंगे. हो सका तो उसे अपनाने का प्रयास भी करेंगे ताकि इरा के मन से उन के प्रति वर्षों का जमा मैल निकल जाए. उस के सारे दुख, लांछन, सुख में बदल जाएं. वे उस वक्त अपने मातापिता व समाज से डरने वाले कायर युवक थे, पर अब एक जिम्मेदार पुरुष हैं. लाखों के मालिक हैं. इरा को अलग से एक मकान में रख कर उस का संपूर्ण खर्चा उठा सकते हैं अपने पुराने विचारों से निकल कर वे सोचने लगे कि राजेश अब विवाहयोग्य हो चुका है, उस का विवाह कर देना ही उचित रहेगा. पत्नी आ कर उस पर अंकुश रखेगी तो वह सही रास्ते पर आ जाएगा.

उधर, वे इस वक्त श्वेता को भी निकालने के लिए तैयार नहीं थे. कारण कि उस ने जिस खूबी से काम संभाला था वह हर किसी के वश का नहीं था. वे सोचने लगे कि हो सकता है राजेश व श्वेता के प्रति मैं भारी गलतफहमी का शिकार होऊं, अलका सही कह रही हो. अगले दिन उन्होंने अवसर पाते ही श्वेता के मन को टटोलना शुरू कर दिया, ‘‘तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं? तुम्हारी आयु की लड़कियां कभी का घर बसा चुकी हैं.’’ श्वेता के चेहरे पर भांतिभांति के भाव तैर उठे. वह आवेश से भर कर बोली, ‘‘अपनी मां की दुर्दशा देख कर भी क्या मैं विवाह के बारे में सोच सकती हूं? आप मर्द हैं, नारी मन को क्या समझ पाएंगे.

ममता: भाग 3- कैसी थी माधुरी की सास

‘क्या एक लड़की और लड़के में सिर्फ मित्रता नहीं हो सकती. यह शादीविवाह की बात बीच में कहां से आ गई?’ पल्लव ने तीखे स्वर में कहा था.‘मैं मान ही नहीं सकता. नर और मादा में बिना आकर्षण के मित्रता संभव ही नहीं है. भला प्रकृति के नियमों को तुम दोनों कैसे झुठला सकते हो? वह भी इस उम्र में,’ शांतनु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा.शांतनु तो कह कर चला गया, किंतु नदी की शांत लहरों में पत्थर फेंक गया था. पिछली बातों पर ध्यान गया तो लगा कि शांतनु की बातों में दम है, जिस बात को वे दोनों नहीं समझ सके या समझ कर भी अनजान बने रहे, उस आकर्षण को उस की पारखी निगाहों ने भांप लिया था. गंभीरतापूर्वक सोचविचार कर आखिरकार माधुरी ने ही उचित अवसर पर एक दिन पल्लव से कहा, ‘यदि हम अपनी इस मित्रता को रिश्ते में नहीं बदल सकते तो इसे तोड़ देना ही उचित होगा, क्योंकि आज शांतनु ने संदेह किया है,

कल दूसरा करेगा तथा परसों तीसरा. हम किसकिस का मुंह बंद कर पाएंगे. आज हम खुद को कितना ही आधुनिक क्यों न कह लें किंतु कहीं न कहीं हम अपनी परंपराओं से बंधे हैं और ये परंपराएं एक सीमा तक ही उन्मुक्त आचरण की इजाजत देती हैं.’ पल्लव को भी लगा कि जिस को वह अभी तक मात्र मित्रता समझता रहा वह वास्तव में प्यार का ही एक रूप है, अत: उस ने अपने मातापिता को इस विवाह के लिए तैयार कर लिया. पल्लव के पिताजी बहुत बड़े व्यवसायी थे. वे खुले विचारों के थे इसलिए अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में करने को तैयार हो गए. मम्मीजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि जातिपांति पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यदि उन्हें लड़की पसंद आई तभी वे इस विवाह की इजाजत देंगी.माधुरी के मातापिता अतिव्यस्त अवश्य थे किंतु अपने संस्कारों तथा रीतिरिवाजों को नहीं छोड़ पाए थे इसलिए विजातीय पल्लव से विवाह की बात सुन कर पहले तो काफी क्रोधित हुए थे और विरोध भी किया था, लेकिन बेटी की दृढ़ता तथा निष्ठा देख कर आखिरकार तैयार हो गए थे तथा उस परिवार से मिलने की इच्छा जाहिर की थी.

दोनों परिवारों की इच्छा एवं सुविधानुसार होटल में मुलाकात का समय निर्धारित किया गया था. बातों का सूत्र भी मम्मीजी ने ही संभाल रखा था. पंकज और पल्लव तो मूकदर्शक ही थे. उन का जो भी निर्णय होता उसी पर उन्हें स्वीकृति की मुहर लगानी थी. यह बात जान कर माधुरी अत्यंत तनाव में थी तथा पल्लव भी मांजी की स्वीकृति का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.बातोंबातों में मां ने झिझक कर कहा था, ‘बहनजी, माधुरी को हम ने लाड़प्यार से पाला है, इस की प्रत्येक इच्छा को पूरा करने का प्रयास किया है. इस के पापा ने तो इसे कभी रसोई में घुसने ही नहीं दिया.’‘रसोई में तो मैं भी कभी नहीं गई तो यह क्या जाएगी,’ बात को बीच में ही काट कर गर्वभरे स्वर के साथ मम्मीजी ने कहा. मम्मीजी के इस वाक्य ने अनिश्चितता के बादल हटा दिए थे तथा पल्लव और माधुरी को उस पल एकाएक ऐसा महसूस हुआ कि मानो सारा आकाश उन की मुट्ठियों में समा गया हो. उन के स्वप्न साकार होने को मचलने लगे थे तथा शीघ्र ही शहनाई की धुन ने 2 शरीरों को एक कर दिया था.पल्लव के परिवार तथा माधुरी के परिवार के रहनसहन में जमीनआसमान का अंतर था. समानता थी तो सिर्फ इस बात में कि मम्मीजी भी मां की तरह घर को नौकरों के हाथ में छोड़ कर समाजसेवा में व्यस्त रहती थीं.

अंतर इतना था कि वहां एक नौकर था तथा यहां 4, मां नौकरी करती थीं तो ससुराल में सास समाजसेवा से जुड़ी थीं.मम्मीजी नारी मुक्ति आंदोलन जैसी अनेक संस्थाओं से जुड़ी हुई थीं, जहां गरीब और सताई गई स्त्रियों को न्याय और संरक्षण दिया जाता था. उन्होंने शुरू में उसे भी अपने साथ चलने के लिए कहा और उन का मन रखने के लिए वह गई भी, किंतु उसे यह सब कभी अच्छा नहीं लगा था. उस का विश्वास था कि नारी मुक्ति आंदोलन के नाम पर गरीब महिलाओं को गुमराह किया जा रहा है. एक महिला जिस पर अपने घरपरिवार का दायित्व रहता है, वह अपने घरपरिवार को छोड़ कर दूसरे के घरपरिवार के बारे में चिंतित रहे, यह कहां तक उचित है? कभीकभी तो ऐसी संस्थाएं अपने नाम और शोहरत के लिए भोलीभाली युवतियों को भड़का कर स्थिति को और भी भयावह बना देती हैं. उसे आज भी याद है कि उस की सहेली नीता का विवाह दिनेश के साथ हुआ था. एक दिन दिनेश अपने मित्रों के कहने पर शराब पी कर आया था तथा नीता के टोकने पर नशे में उस ने नीता को चांटा मार दिया. यद्यपि दूसरे दिन दिनेश ने माफी मांग ली थी तथा फिर से ऐसा न करने का वादा तक कर लिया था, किंतु नीता, जो महिला मुक्ति संस्था की सदस्य थी, ने इस बात को ऐसे पेश किया कि उस की ससुराल की इज्जत तो गई ही,

साथ ही तलाक की स्थिति भी आ गई और आज उस का फल उन के मासूम बच्चे भोग रहे हैं.ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएं भलाई का कोई काम ही नहीं करतीं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि किसी भी प्रतिष्ठान की अच्छाइयां छिप जाती हैं जबकि बुराइयां न चाहते हुए भी उभर कर सामने आ जाती हैं.वास्तव में स्त्रीपुरुष का संबंध अटूट विश्वास, प्यार और सहयोग पर आधारित होता है. जीवन एक समझौता है. जब 2 अजनबी सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु विवाह के बंधन में बंधते हैं तो उन्हें एकदूसरे की अच्छाइयों के साथसाथ बुराइयों को भी आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए. प्रेम और सद्भाव से उस की कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, न कि लड़झगड़ कर अलग हो जाना चाहिए.मम्मीजी की आएदिन समाचारपत्रों में फोटो छपती. कभी वह किसी समारोह का उद्घाटन कर रही होतीं तो कभी विधवा विवाह पर अपने विचार प्रकट कर रही होतीं, कभी वह अनाथाश्रम जा कर अनाथों को कपड़े बांट रही होतीं तो कभी किसी गरीब को अपने हाथों से खाना खिलाती दिखतीं.

वह अत्यंत व्यस्त रहती थीं. वास्तव में वह एक सामाजिक शख्सियत बन चुकी थीं, उन का जीवन घरपरिवार तक सीमित न रह कर दूरदराज तक फैल गया था. वह खुद ऊंची, बहुत ऊंची उठ चुकी थीं, लेकिन घर उपेक्षित रह गया था, जिस का खमियाजा परिवार वालों को भुगतना पड़ा था. घर में कीमती चीजें मौजूद थीं किंतु उन का उपयोग नहीं हो पाता था.मम्मीजी ने समय गुजारने के लिए उसे किसी क्लब की सदस्यता लेने के लिए कहा था किंतु उस ने अनिच्छा जाहिर कर दी थी. उस के अनुसार घर की 24 घंटे की नौकरी किसी काम से कम तो नहीं है. जहां तक समय गुजारने की बात है उस के लिए घर में ही बहुत से साधन मौजूद थे. उसे पढ़नेलिखने का शौक था, उस के कुछ लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुके थे. वह घर में रहते हुए अपनी इन रुचियों को पूरा करना चाहती थी.यह बात अलग है कि घर के कामों में लगी रहने वाली महिलाओं को शायद वह इज्जत और शोहरत नहीं मिल पाती है जो बाहर काम करने वाली को मिलती है. घरेलू औरतों को हीनता की नजर से देखा जाता है लेकिन माधुरी ने स्वेच्छा से घर के कामों से अपने को जोड़ लिया था. घर के लोग, यहां तक कि पल्लव ने भी यह कह कर विरोध किया था कि नौकरों के रहते क्या उस का काम करना उचित लगेगा. तब उस ने कहा था कि ‘अपने घर का काम अपने हाथ से करने में क्या बुराई है, वह कोई निम्न स्तर का काम तो कर नहीं रही है. वह तो घर के लोगों को अपने हाथ का बना खाना खिलाना चाहती है. घर की सजावट में अपनी इच्छानुसार बदलाव लाना चाहती है और इस में भी वह नौकरों की सहायता लेगी, उन्हें गाइड करेगी.

जोड़ने की टूटन: हेमंत की मृत्यु के बाद क्या हुआ

‘‘आज पप्पू लौटे तो उस से आरक्षण के लिए कहूं.’’

‘‘आप को यहां कोई तकलीफ है, अम्मांजी?’’ पत्रिका पलटते हुए प्रमिला ने सिर उठा कर पूछा.

‘‘कैसी बात करती हो. अपने घर में भी कोई तकलीफ महसूस करता है, पप्पी.’’

अपनी 3 बहुओं का बड़ी, मझली और छोटी नामकरण करने के बाद अम्मांजी ने अपने सब से छोटे पप्पू की बहू का नाम पप्पी रख लिया था.

‘‘अभी आप को आए कौन से ज्यादा दिन हुए हैं, जो जाने की सोचने लगीं. अभी तो आप कहीं घूमीं भी नहीं. हम तो यही सोचते रहे कि बरसात थमे तो श्रीनगर, पहलगाम चलें.’’

‘‘घूमना तो फिर भी होता रहेगा लेकिन अभी मेरा इलाहाबाद पहुंचना जरूरी है.’’

‘‘छोटे भाई साहब ने तो लिखा है कि अस्पताल में इंतजाम पक्का हो गया है, फिर आप जा कर क्या करेंगी?’’

‘‘तुम समझती नहीं. अस्पताल में तो बिना रोग के भी दाखिल होना पड़े तो बाकी लोगों की दौड़ ही दौड़ हो जाती है. और फिर यह तो अंधी खेती है. ठीक से निबट जाए तो कुछ भी नहीं, वैसे होने को सौ बवाल…’’

‘‘सब ठीक ही होगा. आप बहुत ऊंचनीच सोचती रहती हैं.’’

‘‘सोचना तो सभी कुछ पड़ता है. दशहरा कौन सा दूर है. फिर 20-25 दिन पहले तो पहुंचना ही चाहिए.’’

‘‘सो तो ठीक है, लेकिन यहां अकेले मेरा मन घबराएगा. यह तो सुबह के गए शाम को भी देर से ही लौटते हैं,’’ प्रमिला के चेहरे पर उद्विग्नता छा गई.

‘‘बुरा क्या मुझे नहीं लगता? लेकिन सिर्फ अपने को देख कर दुनिया कहां चलती है, बेटी? मन लगाने के सौ तरीके हैं. तुम किताब भी तो इसीलिए पढ़ती हो.’’

दोपहर को पीछे के बरामदे में बैठी प्रमिला और उस की सास में बातें हो रही थीं. प्रमिला का पति प्रदीप सेना में अफसर था और 2 साल बाद उसे जम्मू में ऐसी नियुक्ति मिली थी जहां वह परिवार को अपने साथ रख सकता था.

प्रमिला के विवाह को अभी डेढ़ वर्ष ही हुआ था और सब से छोटी बहू होने के कारण वह अम्मांजी की विशेष लाड़ली भी थी. अम्मांजी के रहने से उसे घर की चिंता भी नहीं रहती थी. उलटे वह शाम होते ही उसे टोकने लगतीं, ‘‘पप्पू आता होगा. तुम तैयार हो जाओ. कुछ देर को दोनों घूम आना.’’

प्रमिला को बड़ा आश्चर्य हुआ जब शाम को लौटने पर प्रदीप ने अम्मांजी की सीट आरक्षण की बात सुन कर जरा सा भी विरोध नहीं किया और तपाक से कह दिया, ‘‘कल जिस दिन का भी आरक्षण हो सकेगा, उसी दिन का करा दूंगा.’’

रात में पतिपत्नी में चर्चा चलने पर प्रदीप ने प्रमिला से कहा, ‘‘तुम नई हो, अम्मां को नहीं जानतीं. अम्मां की प्राथमिकताएं बड़ी स्पष्ट रहती हैं. जहां वह अपनी जरूरत समझती हैं वहां वह जरूर पहुंचती हैं. आराम और तकलीफ उन के लिए निहायत छोटी बातें हैं. बाबूजी की मृत्यु के बाद अम्मां ने अपने बूते पर ही सारे परिवार को बांध रखा है.

‘‘बड़े भैया पुलिस में हैं. उन को होली पर भी छुट्टी नहीं मिल सकती. इसलिए होली पर सब भाइयों को बड़े भैया के पास पहुंचना पड़ता है, चाहे एक ही दिन को सही. तुम्हारा नया घर व्यवस्थित होना था इसलिए तुम्हारे पास आ गईं. अब छोटी भाभी के पास उन का रहना जरूरी है तो इलाहाबाद जा रही हैं.

‘‘तुम ने शायद ध्यान दिया हो कि अभी 3 महीने पहले बड़े भैया भ्रमण के लिए दक्षिण गए थे. किराया तो खैर सरकार ने दे दिया, लेकिन होटलों में ठहरने आदि में खर्चा अधिक हो गया और लाख चाहने पर भी किसी के लिए वहां की कोई चीज नहीं ला सके.

‘‘लेकिन बड़ी भाभी, दीदी के लिए कांजीवरम की एक साड़ी फिर भी खरीद ही लाईं. पता है क्यों? दीदी की जब शादी हुई थी तब तंगी की हालत थी. हम सब लोग पढ़ रहे थे, इसलिए उन की शादी अच्छे घर में नहीं हो सकी. जीजाजी इतनी लंबी नौकरी के बाद अभी तक बड़े बाबू ही तो हैं.

‘‘हम सभी को यह लगता है कि दीदी के साथ न्याय नहीं हुआ. आज बाबूजी के आशीर्वाद से हम सभी भाई अच्छेअच्छे पदों पर हैं, इसलिए उस का थोड़ाबहुत प्रतिकार करना चाहते हैं. होली, दीवाली, भाईदूज और रक्षाबंधन की साल में 3 साडि़यां तो हर भाई दीदी को देता ही है. फिर उन के बच्चों के लिए भी बराबर कुछ न कुछ दिया ही जाता है.

‘‘कोई भी कहीं बाहर से कोई चीज लाए तो पहले दीदी के लिए सब से बढि़या चीज लाता है. भाइयों से कुछ चूक होने भी लगे तो भाभियां पहले आगे बढ़ जाती हैं.

‘‘बड़ी भाभी तो बिलकुल अम्मांजी का प्रतिरूप हैं. मझली भाभी शुरू में जरूर कुछ कसमसाती थीं, लेकिन जब मझले भैया से कोई प्रोत्साहन नहीं मिला तो वह भी परिवार की लीक पर चलने लगीं. दीदी तो पचासों बार कह चुकी हैं कि शादी हो जाने के बाद भी उन्हें लगता ही नहीं कि वह इस घर से कट कर किसी दूसरे घर की हो गई हैं. अपने लिए साडि़यां तो उन्होंने कभी खरीदी ही नहीं. साल में एकडेढ़ दरजन साडि़यां तो उन्हें मिल ही जाती हैं.’’

‘‘दीदी हैं भी तो बड़े स्नेही स्वभाव की, बच्चों पर तो जान दिए फिरती हैं,’’ प्रमिला ने पति की बात में आगे जोड़ा.

‘‘तभी तो बच्चे बीमार पड़ते ही बूआजी की रट लगाते हैं. दीदी को कहीं सपने में भी किसी की तकलीफ की भनक मिल जाए तो दौड़ी चली आएंगी. इतनी दूरदूर रह कर भी कभी लगता ही नहीं कि हम लोग अलग हैं. अम्मां जिसे जहां जाने को कह दें वह वहीं दौड़ जाएगा, जरा भी आनाकानी नहीं करेगा.

‘‘एक बार मझले भैया को मोतीझरा बुखार हुआ था. अम्मां उन के पास थीं. तभी छोटे भैया को ट्रेनिंग पर जाना पड़ा. छोटी भाभी को धवल की पढ़ाई की वजह से रुकना पड़ा. मकान बहुत सुरक्षित नहीं था और छोटी भाभी हैं भी कुछ डरपोक स्वभाव की.

‘‘अम्मां वहां जा नहीं सकती थीं. उन्होंने बड़ी भाभी को लिखा कि वह छोटी भाभी के पास जा कर रहें, क्योंकि उन के यहां तो पुलिस का पहरेदार रहता ही है और बड़े बच्चों को बड़े भैया पर छोड़ देने में कोई दिक्कत नहीं होगी, अत: बड़ी भाभी न चाहते हुए भी छोटी भाभी के पास चली गईं.’’

प्रदीप अपनी रौ में न जाने क्याक्या कहता चला जा रहा था कि प्रमिला ने उनींदेपन से करवट बदलते हुए कहा, ‘‘अब बहुत हो लिया परिवार पुराण. आखिर सोना है कि नहीं?’’

अम्मांजी के इलाहाबाद जाने के 10 दिन बाद ही प्रदीप को तार मिला कि छोटी भाभी ने एक कन्या को जन्म दिया है और प्रसव में कोई दिक्कत भी नहीं हुई. इस खबर से दोनों ही निश्चिंत तो हुए, परंतु प्रमिला को नवजात शिशु के लिए नए डिजाइन के छोटेछोटे कपड़े सीने का शौक सवार हो गया. वह अनेक रंगबिरंगी पुस्तिकाएं और पत्रिकाएं उलटनेपलटने लगी.

अभी इलाहाबाद जाने का कार्यक्रम बना भी नहीं था कि झांसी से सूचना मिली कि मझले भैया प्रफुल्ल के लड़के मधुप को स्कूटर दुर्घटना में गंभीर चोटें आई हैं. प्रदीप और प्रमिला दोनों ही उसे देखने झांसी पहुंचे तो वहां अम्मांजी सदा की भांति सेवा में तत्पर थीं. देखते ही बोलीं, ‘‘सवा महीना बीतने पर छोटी बहू की लड़की का नामकरण संस्कार करने की सोच ही रही थी कि यहां से फोन आ गया कि मधुप के हाथपैर स्कूटर दुर्घटना में टूट गए हैं.

‘‘फौरन रात की गाड़ी से ही चल कर सुबह यहां पहुंची तो लड़का अस्पताल में कराह रहा था. वह तो खैर हुई कि जान बच गई. 2 जगह पैर की और एक जगह हाथ की हड्डियां टूटी हैं. प्लास्टर चढ़ा है तो क्या 6 हफ्ते से पहले थोड़े ही काटेंगे डाक्टर. दमदिलासा चाहे जैसा दे लें.’’

प्रमिला को यह देख कर कुछ विचित्र सा लगा कि मझली भाभी तो आनेजाने वाले मेहमानों और हितैषियों की खातिरखिदमत में अधिक लगी रहतीं और मधुप के पाखानेपेशाब से ले कर उसे हिलानेडुलाने तथा चादर बदलने तक का सारा काम अम्मांजी करतीं. किसकिस समय कौनकौन सी दवा दी जाती है, इस की पूरी जानकारी भी घर भर में अम्मांजी को ही थी. मझली भाभी तो अम्मांजी को सुबहशाम नहानेधोने की फुरसत देने के लिए ही मधुप के पास बैठतीं और कुछ बातचीत करतीं.

प्रदीप की छुट्टियां कम थीं. वह जब चलने लगा तो प्रमिला स्वयं ही बोली, ‘‘सोचती हूं इस बार दशहरा, दीवाली के त्योहार यहीं पर कर लूं. अगर हो सके तो तुम दीवाली को, चाहे एक दिन को ही, आ जाना. उस दिन तुम्हारे बिना मुझे बहुत बुरा लगेगा.’’

लेकिन अंतिम वाक्य कह कर वह स्वयं ही लजा गई. प्रदीप दाएं हाथ से उसे अपने नजदीक करता हुआ बोला, ‘‘खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग पकड़ता है. अब आना तो पड़ेगा ही.’’

और प्रमिला गुलाबीगुलाबी हो गई.

डेढ़ महीने बाद मधुप का प्लास्टर तो कट गया लेकिन न तो पैर और न हाथ ही पूरी तरह सीधा हो पाता था. डाक्टरों ने बताया कि हड्डियां तो ठीक से जुड़ गई हैं, लेकिन इतने समय एक ही जगह बंधे रहने से मांसपेशियां कड़ी पड़ गई हैं, जिन्हें नरम करने के लिए दिन में 3-4 बार नमक मिले गरम पानी से सिंकाई करनी होगी और सिंकाई  के बाद हलकीहलकी मालिश करने के लिए एक क्रीम भी बता दी.

अम्मांजी नियमित रूप से मधुप के हाथपैरों की सिंकाई करतीं और बड़े हलके हाथ से क्रीम लगा देतीं. वह भी और किसी के हाथ से क्रीम नहीं लगवाता था. हर किसी के हाथ से उसे दर्द होता था. हर बार दादी को ही पुकारता था. कभीकभी उस को बेचैनी होती तो कहता, ‘‘दादी, अब मेरे हाथपैर पहले जैसे तो होने से रहे. यों ही लंगड़ा कर चलना पड़ेगा.’’

लेकिन अम्मांजी तुरंत प्रतिवाद करते हुए उसे दिलासा देतीं, ‘‘तू तो बड़ा बहादुर बेटा है. बहादुर बेटे कहीं ऐसी बात करते हैं. तू थोड़ा धीरज रख. चलना तो क्या, तू तो फुटबाल तक खेलता फिरेगा.’’

इस घटना को बीते सालों हो गए हैं. मधुप आज भी कहता है कि वह अपनी दादी के सतत परिश्रम से ही चलनेफिरने योग्य बन सका है.

गरमियों में सविता दीदी की सब से बड़ी लड़की मंजुला की शादी निश्चित हो गई. लड़का भी अच्छा ही मिल गया. वह तेल तथा प्राकृतिक गैस आयोग में किसी अच्छे पद पर था. यह रिश्ता तय होने से परिवार में सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई. शादी में कौनकौन जाएगा और भात में क्याक्या देना होगा, यह सभी अम्मांजी ने चुटकी बजाते तय कर दिया.

‘‘प्रदीप पहले ही काफी छुट्टियां ले चुका है इसलिए उसे तो छुट्टी मिलने से रही. मझले प्रफुल्ल झांसी में हैं. वह भात के लिए चंदेरी से साडि़यां लाए, मर्दाने कपड़ों की व्यवस्था बड़े प्रसून करेंगे. प्रभात और उस की बहू शादी में भात ले कर जाएंगे. इसलिए वहां टीका व नजरन्योछावर करने में जो नकद खर्च करना होगा, उसे वह करेंगे. शादी के लिए अपनी फौजी कैंटीन से सामान जुटाने का जिम्मा प्रदीप का रहेगा,’’ अम्मांजी ने ऐसा ही तय किया और फिर ऐसा ही हुआ. इसी कारण इस शादी की चर्चा रिश्तेदारों में बहुत दिनों तक होती रही.

मंजुला के विवाह का उल्लास अभी परिवार पर छाया ही था कि क्रूर काल ने बाज की तरह एक झपट्टा मारा और मंजुला के पिता हेमंत बिना किसी लंबी बीमारी के एक ही दौरे में चल बसे. सारा परिवार सन्न रह गया. सविता दीदी के वैधव्य को ले कर सभी मर्माहत हो गए. सविता दीदी के बड़े लड़के विशाल ने एम.ए. की परीक्षा दी थी. छोटा तुषार तो बी.ए. में ही पहुंचा था.

पीडि़त परिवार की सहायता के लिए हेमंत के प्रतिष्ठान ने विशाल को क्लर्क की नौकरी देने की पेशकश की परंतु बड़े भैया प्रसून इस के लिए तैयार नहीं हुए. उन्होंने कहा, ‘‘अगर अभी से क्लर्की का पल्लू पकड़ लिया तो जिंदगी भर क्लर्क ही बना रहेगा. इस से अच्छा है कि विशाल मेरे पास रह कर एम.बी.ए. करे. उस के बाद उसे कोई न कोई अच्छी नौकरी अवश्य मिल जाएगी.’’

इस के बाद सविता दीदी भी अधिकांश समय प्रसून के पास ही रहतीं, यद्यपि अन्य भाइयों का भी प्रबल आग्रह रहता कि सविता दीदी कुछ समय उन के पास ही रहें. पिता के देहावसान ने विशाल को और अधिक परिश्रम करने को प्रेरित किया और वह एम.बी.ए. की परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ. इस के फलस्वरूप उसे एक अच्छी कंपनी में प्रशासनिक अधिकारी के रूप में आसानी से नौकरी मिल गई.

तुषार भी इस बीच एम.ए. में आ गया था लेकिन उस पर सरकारी नौकरियों का मोह सवार था और वह अभी से प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी करने लगा था.

बिरादरी और परिचितों में इस परिवार को बड़ी ईर्ष्या किंतु सम्मान से देखा जाता था. कुछ लोग चिढ़ कर कहते, ‘‘जब तक सब भाइयों में सुमति है तभी तक का खेल है, वरना बड़ेबड़े परिवारों को भी टूटने में क्या देर लगी?’’

इस तरह की अनेक बातें अम्मांजी के कानों में भी पहुंचतीं परंतु वह बड़ी शांति से कहतीं, ‘‘संयुक्त परिवार तो तभी चलता है जब परिवार का प्रत्येक सदस्य उस की उन्नति के लिए भरपूर सहयोग दे और अपने निजी स्वार्थ को अधिक महत्त्व न दे. आपसी नोचखसोट और छीनाझपटी शुरू होते ही संयुक्त परिवार बिखर जाता है.’’

हेमंत की मृत्यु के बाद से अम्मांजी काफी चुप रहने लगी थीं परंतु अपने काम में उन्होंने कोई शिथिलता नहीं आने दी थी. अभी भी वह पहले की तरह जहांतहां पहुंचती रहती थीं. प्रसून के हर्निया के आपरेशन के सिलसिले में वह उस के पास आई हुई थीं. आपरेशन ठीक से हो गया था और प्रसून अस्पताल से घर आ चुका था, लेकिन इस बार अम्मांजी की तबीयत कुछ डगमगा गई थी. पड़ोस की एक महिला उन से मिलने आईं तो बोलीं, ‘‘बहनजी, मैं तो आप को 1 साल के बाद देख रही हूं. अब आप काफी टूटी हुई सी लगती हैं.’’

अम्मांजी कुछ देर तो चुप रहीं. फिर कुछ सोचती हुई बोलीं, ‘‘बहनजी, औरत हर बच्चे को जन्म देने में टूटती है, लेकिन स्त्रीपुरुष के संबंधों की कंक्रीट से जुड़ाई बच्चे से ही होती है. वैसे ही परिवार को जोड़े रखने में भी इनसान को कहीं न कहीं टूटना पड़ता है. लेकिन इस जोड़ने की टूटन की पीड़ा बड़ी मीठीमीठी होती है, बिलकुल प्रसव वेदना की तरह.’’

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