एहसास- भाग 1: क्यों सास से नाराज थी निधि

मालती ने अलमारी खोली. कपड़े ड्राईक्लीनर को देने के लिए, सुबह ही अजय बोल कर गया था, ‘मां ठंड शुरू हो गई है. मेरे कुछ स्वेटर और जैकेट निकाल देना,’ कपड़े समेटते हुए उस की नजर कुचड़मुचड़ कर रखे शौल पर पड़ी. उस ने खींच कर उसे शैल्फ से निकाला. हलके क्रीम कलर के पश्मीना के चारों ओर सुंदर कढ़ाई का बौर्डर बना था. गहरे नारंगी और मैजेंटा रंग के धागों से चिनार के पत्तों का पैटर्न. शौल के ठीक बीचोंबीच गहरा दाग लगा था. शायद, चटनी या सब्जी के रस का था जो बहुत भद्दा लग रहा था.

यह वही शौल था जो उस ने कुछ साल पहले कश्मीर एंपोरियम से बड़े शौक से खरीदा था. प्योर पश्मीना था. अजय की बहू को मुंहदिखाई पर दूंगी, तब उस ने सोचा था. पर इतने महंगे शौल का ऐसा हाल देख कर उस ने माथा पीट लिया. हद होती है, किसी भी चीज की. निधि की इस लापरवाही पर बहुत गुस्सा आया. पिछले संडे एक रिश्तेदार की शादी थी, वहीं कुछ गिरगिरा दिया गया होगा खाना खाते वक्त, दाग लगा, सो लगा, पर महारानी से इतना भी न हुआ की ड्राईक्लीन को दे देती या घर आ कर साफ ही कर लेती.

तमीज नाम की चीज नहीं इस लड़की को. कुछ तो कद्र करे किसी सामान की. ऐसा अल्हड़पन कब तब चलेगा. मालती बड़बड़ाती हुई किचन में आई. किचन में काम कर रही राधा को उन्होंने शाम के खाने के लिए क्या बनाना है, यह बताया और कपड़ों को ड्राइंगरूम में रखे दीवान के ऊपर रख दिया. और फिर हमेशा की तरह शाम के अपने नित्य काम में लग गई.

देर शाम अजय और निधि हमेशा की तरह हंसतेबतियाते, चुहल करते घर में दाखिल हुए. ‘‘राधा, कौफी,’’ निधि ने आते ही आवाज दी और अपना महंगा पर्स सोफे पर उछाल कर सीधे बाथरूम की ओर बढ़ गई. अजय वहीं लगे दीवान पर पसर गया था. मालती टीवी पर कोई मनपसंद सीरियल देख रही थी, पर उस की नजरें निधि पर ही थीं. वह उस के बाथरूम से आने का इंतजार करने लगी. शौल का दाग दिमाग में घूम रहा था.

‘‘और मां, क्या किया आज?’’ जुराबें उतारते हुए अजय ने रोज की तरह मां के दिनभर का हाल पूछा. बेचारा कितना थक जाता है, बेटे की तरफ प्यार से देखते हुए उन्होंने सोचा और किचन में अपने हाथों से उस के लिए चाय बनाने चली गई. इस घर में, बस, वे दोनों ही चाय के शौकीन थे. निधि को कौफी पसंद थी.

निधि फ्रैश हो कर एक टीशर्ट और लोअर में अजय की बगल में बैठ कर कौफी के सिप लेने लगी. मालती उस की तरफ देख कर थोड़े नाराजगीभरे स्वर में बोली, ‘‘निधि, ड्राईक्लीन के लिए कपड़े निकाल दिए हैं. सुबह औफिस जाते हुए दे देना. तुम्हारे औफिस के रास्ते में ही पड़ता है तो मैं ने निकाल कर रख दिए,’’ मालती ने जानबू झ कर शौल सब से ऊपर दाग वाली तरफ से रखा था कि उस पर निधि की नजर पड़े.

‘‘ठीक है मां,’’ कह कर निधि अपने मोबाइल में मैसेज पढ़ने में बिजी हो गई. उस ने नजर उठा कर भी उन कपड़ों की तरफ नहीं देखा.

मालती कुनमुना कर रह गई. उस ने उम्मीद की थी की निधि कुछ नानुकुर करेगी कि नहीं, मैं नहीं दे पाऊंगी, टाइम नहीं है, औफिस के लिए लेट हो जाएगा वगैरहवगैरह. पर यहां तो उस के हाथ से एक और वाकयुद्ध का मौका निकल गया. हमेशा यही होता है, उस के लाख चाहने के बावजूद निधि का ठंडापन और चीजों को हलके में लेना मालती की शिकायतों की पोटली खुलने ही नहीं देता था.

मालती उन औरतों में खुद को शुमार नहीं करना चाहती थी जो बहू से बहाने लेले कर लड़ाई करे और बेटे की नजरों में खुद मासूम बनी रहे. वह खुद को आधुनिक सम झती थी और यही वजह थी कि अपनी तरफ से वह कोई राई का पहाड़ वाली बात नहीं उठाती थी. वैसे भी, घर में कुल जमा 3 प्राणी थे और चिकचिक उसे पसंद नहीं थी. पर कभीकभी वह निधि की आदतों से चिढ़ जाती थी. मालती को घर में बहू चाहिए थी जो सलीके से घरबाहर की जिम्मेदारी संभाले. पर यहां तो मामला उलटा था. ठीक है, उस ने सोचा, अगर किसी को कोई परवा नहीं तो मैं भी क्यों अपना खून जलाऊं, मैं भी दिखा दूंगी कि मु झे फालतू का शौक नहीं कि हर बात में इन के पीछे पड़ूं. इन की तरह मैं भी, वह क्या कहते हैं, कूल हूं.

अपनी इकलौती संतान को ले कर हर मां की तरह मालती के भी बड़े सपने थे. अजय को जौब मिली भी नहीं थी कि रिश्तेदारी में उस की शादी की बातें उठने लगीं. मालती खुद से कोई जल्दी में नहीं थी. पर कोई भाभी, चाची या पड़ोसिन अजय के लिए किसी न किसी लड़की का रिश्ता खुद से पेश कर देती. ‘अभी अजय की कौन सी उम्र निकली जा रही है. जरा सैटल हो जाने दो.’ यह कह कर वह लोगों को टरकाया करती.

पर दिल ही दिल में अपनी होने वाली बहू की एक तसवीर उस के मन में बन चुकी थी. चांद सी खूबसूरत, गोरी, पतली, नाजुक सी, सलीकेदार जो घर में खाना पकाने से ले कर हर काम में हुनरमंद हो. अब यह सब थोड़ा मुश्किल तो हो सकता है पर नामुमकिन नहीं. वह तो ऐसी लड़की ढूंढ़ कर रहेगी अपने लाड़ले के लिए. लेकिन उस की उम्मीदों के गुब्बारे को उस के लाड़ले ने ही फोड़ा था. एक दिन, निधि को घर ला कर.

उसे निधि का इस तरह घर पर आना बहुत अटपटा लगा था. क्योंकि अजय किसी लड़की को इस तरह से कभी घर ले कर नहीं आया था. वह बात अलग थी कि स्कूलकालेज के दोस्त  झुंड बना कर कभीकभार आ धमकते थे. जिस में बहुत सी लड़कियां भी होती थीं.

मालती को कभी अखरता नहीं था अजय के यारदोस्तों का आना. पर उस ने अपने लिए कोई लड़की पसंद कर ली थी, यह बात मालती को सपने में भी नहीं आई थी. उस का बेटा अपनी मां की पसंद से शादी करेगा, यही मालती को गुमान था. जिस दिन अजय ने बताया कि वह अपनी किसी खास दोस्त को उस से मिलाने ला रहा है, वह सम झ कर भी अनजान बनने का नाटक करती रही. एक बार भी नहीं पूछा अजय से कि आखिर इस बात का मतलब क्या है?

उस दिन शाम को अजय निधि को अपनी बाइक पर बिठा कर घर ले आया. मालती ने कनखियों से निधि को देखा. नहीं, नहीं, उस के सपनों में बसी बहूरानी के किसी भी सांचे में वह फिट नहीं बैठती थी. आते ही ‘नमस्ते आंटी’ बोल कर धम्म से सोफे पर पसर गई. निधि लगातार च्युइंगम चबा रही थी. बौयकट हेयर, टाइट जींस और टीशर्ट में उस की हलकी सी तोंद भी  झलक रही थी. अजय ने मालती को ऐसे देखा जैसे कोई बच्चा अपना इनाम का मैडल दिखा कर घरवालों के रिऐक्शन का इंतजार करता है.

कर्तव्य पालन- भाग 2: क्या रामेंद्र को हुआ गलती का एहसास

घर पर ताला लगा देख उन्होंने लोगों से पूछताछ की तो पता लगा कि अविवाहित बेटी के गर्भवती होने की बदनामी के डर से उन्होंने हमेशा के लिए गांव छोड़ दिया. वे पागलों की भांति इधरउधर भटक कर उस की तलाश करने लगे परंतु कहीं कुछ पता न चला. उधर, उन के मातापिता ने जबरदस्ती उन का विवाह बिरादरी की एक लड़की अलका के साथ संपन्न कर दिया. तभी अलका ने करवट बदली. बिस्तर हिलने से इरा की तसवीर फिसल कर फिर से नीचे जा गिरी. ‘‘सोए नहीं अभी तक?’’ अलका आंखें खोल कर असमंजस से पूछने लगी, ‘‘तुम अभी तक राजेश की चिंता में जाग रहे हो? क्या वह आया नहीं अभी तक?’’ अलका चिंतित हो उठ कर बैठ गई.

‘‘वह आ चुका है और कमरे में सो रहा है.’’‘‘तुम भी सो जाओ, नहीं तो बीमार पड़ जाओगे,’’ अलका ने कहा और फिर अलमारी खोल कर नींद की एक गोली ला कर उन्हें थमा दी.

पानी के साथ गोली निगल कर वे सोने की कोशिश करने लगे. अलका कहती रही, ‘‘जब बाप के पैर का जूता बेटे के पैरों में सही बैठने लगे तो बाप को बेटे के कार्यों में मीनमेख न निकाल कर, उसे मित्रवत समझाना चाहिए.’’ पर रामेंद्र का ध्यान कहीं और अटका हुआ था. सुबह बिस्तर से उठ कर वे स्नान, नाश्ते से निबट कर फैक्टरी जाने हेतु कार की तरफ बढ़े तो पाया कि राजेश अभी भी सो रहा है. अलका ने कहा कि वह राजेश को फैक्टरी भेज देगी, ताकि उस को जिम्मेदारी निभाने की आदत पड़ जाए. रामेंद्र जैसे ही फैक्टरी के दफ्तर में प्रविष्ट हुए तो वहां पहले से उपस्थित एक अनजान लड़की को बैठा देख कर चकित रह गए.

लड़की ने उठ कर उन्हें नमस्ते किया.

‘‘कौन हो तुम? क्या चाहती हो?’’ वे रूखेपन से बोले.

‘‘मेरा नाम श्वेता है. नौकरी पाने की उम्मीद ले कर आई हूं.’’

‘‘हमारे यहां कोई रिक्त स्थान नहीं है. तुम जा सकती हो,’’ कह कर वे अंदर जा कर काम देखने लगे. कुछ देर बाद जब वे किसी कार्यवश बाहर निकले तो लड़की को उसी अवस्था में बैठी देख कर हतप्रभ रह गए, ‘‘तुम गईं नहीं?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘मुझे राजेश ने भेजा है.’’

‘‘तुम उसे कैसे जानती हो?’’

‘‘मैं आप की बेटी त्रिशाला की सहेली हूं,’’ कहतेकहते श्वेता का स्वर आर्द्र हो उठा, ‘‘मैं अपने सौतेले बाप व सौतेले भाइयों से बेहद परेशान हूं. आप मुझे नौकरी दे कर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान करेंगे. मैं व मेरी मां दोनों भूखों मरने से बच जाएंगी.’’

‘‘सौतेला बाप,’’ उन के मन में जिज्ञासा पनपी.

श्वेता ने कुछ झिझक के साथ कहा, ‘‘मेरी मां ने प्रेमी से धोखा खाने के पश्चात 2 बेटों के बाप, विधुर डेविड से शादी की थी. मैं मां के प्रेमी की निशानी हूं.’’

छि:छि:…रामेंद्र का मन घिन से भर उठा. कहीं अवैध संतान भी किसी की सगी होती है. जी चाहा अभी इस लड़की को धक्के दे कर फैक्टरी से बाहर निकाल दें पर श्वेता के चेहरे की दयनीयता देख उन की कठोरता बर्फ की भांति पिघल गई. उस का सूखा चेहरा बता रहा था कि उस ने कई दिनों से पेटभर कर भोजन नहीं किया है. सहानुभूतिवश उन्होंने श्वेता को थोड़े वेतन पर महिला श्रमिकों की देखरेख पर रख लिया. श्वेता उन के समक्ष नतमस्तक हो उठी व कुछ संकोच के साथ बोली, ‘‘सर, अपने बारे में मैं ने जो कुछ आप को बताया है उसे अपने तक ही सीमित रखें. राजेश व त्रिशाला को भी न बताएं.’’

‘‘नहीं बताऊंगा.’’श्वेता आश्वस्त हो कर घर चली गई और अगले दिन से नियमित काम पर आने लगी. पर रामेंद्र के मन में श्वेता व राजेश को ले कर उधेड़बुन शुरू हो चुकी थी. आखिर राजेश की श्वेता से किस प्रकार की जानपहचान है. श्वेता उस की सिफारिश ले कर नौकरी पाने क्यों आई? उन्होंने श्वेता के घर का संपूर्ण पता व उस की योग्यता के प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट की प्रतियां अपने पास संभाल कर रख लीं. राजेश पूरे दिन फैक्टरी में नहीं आया. शाम को रामेंद्र ने घर पहुंचते ही अलका से उस के बारे में पूछा तो पता लगा कि वह बुखार के कारण पूरे दिन घर में ही पड़ा रहा. वे दनदनाते हुए राजेश के कमरे में दाखिल हो गए, ‘‘कैसी है तबीयत?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘जी,’’ अचकचा कर राजेश ने उठते हुए कहा.

‘‘लेटे रहो, स्वास्थ्य का खयाल न रखोगे तो यही होगा. क्या आवश्यकता है देर तक घूमनेफिरने की?’’

‘‘कल एक मित्र के यहां पार्टी थी,’’ राजेश सफाई पेश करने लगा.

‘‘फैक्टरी का काम देखना अधिक आवश्यक है. तुम अपनी इंजीनियरिंग व एमबीए की पढ़ाई पूरी कर चुके

हो. अब तुम्हें अपनी जिम्मेदारियां समझनी चाहिए.’’

‘‘जी, जी.’’

‘‘श्वेता को कब से जानते हो?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘जी, काफी अरसे से. वह एक दुखी व निराश्रित लड़की है, इसलिए मैं ने उसे फैक्टरी में नौकरी पाने के लिए भेजा था, पर आप को इस बारे में बताना याद नहीं रहा.’’

‘‘मैं ने उसे नौकरी दे दी है. लड़की परिश्रमी मालूम पड़ती है, पर तुम्हें इस प्रकार के छोटे स्तर के लोगों से मित्रता नहीं रखनी चाहिए.’’

‘‘जी, खयाल रखूंगा.’’

रामेंद्र के उपदेश चालू रहे. कई दिनों बाद आज उन्हें बेटे से बात करने का अवसर मिला था. सो, देर तक उसे जमाने की ऊंचनीच समझाते रहे.तभी त्रिशाला ने पुकारा, ‘‘पिताजी, चाय ठंडी हुई जा रही है. मैं ने नाश्ते में पनीर के पकौड़े बनाए हैं, आप खा कर बताइए कैसे बने हैं?’’ रामेंद्र आ कर चायनाश्ता करने लगे. त्रिशाला बताती रही कि आजकल वह बेकरी का कोर्स कर रही है, फिर दूसरा कोई कोर्स करेगी.

वे पकौड़ों की प्रशंसा करते रहे. अलका काफी देर से खामोश बैठी थी. अवसर मिलते ही उबल पड़ी, ‘‘तुम्हें बीमार बेटे से इस प्रकार के प्रश्न नहीं पूछने चाहिए. श्वेता को सिर्फ वही अकेला नहीं, बल्कि हम सभी जानते हैं. वह त्रिशाला की सखी है, इस नाते घर में आनाजाना होता रहता है. राजेश ने दयावश ही उसे अपनी फैक्टरी में नौकरी पाने हेतु आप के पास भेज दिया होगा.’’

‘‘पर मैं ने भी तो बुरा नहीं कहा. बस, यही कहा कि बच्चों को अपने स्तर के लोगों से ही मित्रता रखनी चाहिए.’’

‘‘बच्चों के मन में, छोटेबड़े का भेदभाव बैठाना उचित नहीं है.’’

‘‘ये दोनों अब बच्चे नहीं रहे, तभी तो कह रहा हूं,’’ रामेंद्र हार मानने को तैयार नहीं थे,  ‘‘देखो अलका, छोटी सी चिनगारी से आग का दरिया उमड़ पड़ता है. युवा बच्चों के कदम फिसलते देर नहीं लगती. तुम राजेश पर नजर रखा करो, उस का श्वेता जैसी लड़कियों के साथ उठनाबैठना उचित नहीं.’’ अलका पति रामेंद्र व इरा की प्रेम कहानी से भली प्रकार वाकिफ थी, इसलिए उस के मन में आया कि कह दे कि राजेश तुम्हारे जैसा नहीं है कि मछुआरिन जैसी लड़की के प्रेमपाश में बंध जाएगा. उस के लिए एक से एक बड़े घरों के रिश्ते आ रहे हैं. तुम्हें तो सिर्फ श्वेता से दोस्ती ही दिखाई दे रही है, उस के बड़े घरों के मित्र क्यों नहीं दिखाई देते? पर वह शांत बनी रही. इरा का नाम लेने से घर में फालतू का क्लेश ही उत्पन्न होता. श्वेता ने जिस खूबी से फैक्टरी का कार्य संभाला, उसे देख रामेंद्र दंग रह गए.

रिश्तों का सच- भाग 3: क्या सुधर पाया ननद-भाभी का रिश्ता

‘‘रवि की तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ रसोईघर से आता दीदी का स्वर सुन रवि के कान चौकन्ने हो गए. पलभर की खामोशी के बाद चंद्रिका का स्वर उभरा, ‘‘नहीं तो, आजकल औफिस में काम अधिक होने से ज्यादा थक जाते हैं, इसलिए थोड़े खामोश हो गए हैं. आप को बुरा लगा क्या?’’

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने की क्या बात है? वैसे भी तुम्हारा साथ ज्यादा भला लग रहा है. पहली बार ऐसा लग रहा है कि अपने मायके आई हूं. मां तो थीं नहीं, जिन से यहां आने पर मायके का एहसास होता. पिताजी और भाई का मानदुलार था तो, पर असली मायके का एहसास तो मां या भौजाई के प्यार और मनुहार से ही होता है.’’

‘‘दीदी, मुझे माफ कर दीजिए,’’ चंद्रिका ने हौले से कहा, ‘‘मैं ने आप के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया…’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है, हम ने तुम्हें अवसर ही कहां दिया था कि तुम अपना अच्छा या बुरा व्यवहार सिद्ध कर सको. खैर छोड़ो, इस बार जैसा सुकून मुझे पहले कभी नहीं मिला,’’ दीदी का स्वर संतुष्टिभरा था.

टीवी के सामने बैठे रवि का मन भी दीदी की खुशी और संतुष्टि देख चंद्रिका के प्रति प्यार और गर्व से भर उठा था. सुबह उस के उठने से पहले ही दीदी और चंद्रिका उठ कर काम के साथसाथ बातों में व्यस्त थीं. रात भी रवि तो सो गया था, वे दोनों जाने कितनी देर तक एकसाथ जागती रही थीं. जाने उन के अंदर कितनी बातें दबी पड़ी थीं, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. रवि को एक बार फिर अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ. बिस्तर से उठ कर वह औफिस जाने की तैयारी में लग गया.

‘‘कहां जा रहे हो?’’ शीशे के सामने बाल संवार रहे रवि के हाथ अचानक चंद्रिका को देख रुक गए. ‘‘औफिस.’’

‘‘दीदी आई हैं, फिर भी?’’ चंद्रिका की हैरानी वाजिब थी. दीदी के लिए रवि पहले पूरे वर्ष की छुट्टियां बचा के रखता था. जितने भी दिन वह रहतीं, वे उन्हें घुमानेफिराने के लिए छुट्टियां ले कर घर बैठा रहता था. ‘‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? हम सब घूमने चलेंगे,’’ चंद्रिका जोर देते हुए बोली.

‘‘नहीं, इस बार छुट्टियां बचा रहा हूं, शरारतभरी नजर चंद्रिका के चेहरे पर डालता हुआ रवि बोला.’’ ‘‘क्यों?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में उस ने उसे अपने पास खींच लिया, ‘‘क्योंकि इस बार मैं तुम्हें मसूरी घुमाने ले जा रहा हूं. अभी छुट्टी ले लूंगा, तो बाद में नही मिलेंगी.’’

चंद्रिका की आंखें भीग उठी थीं, शायद वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि रवि की जिंदगी और दिल में उस के लिए भी इतना प्यार छिपा हुआ है. अपने को संभाल आंखें पोंछती वह लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘मसूरी जाना क्या दीदी से अधिक जरूरी है? मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हें छुट्टी लेनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अच्छा, ऐसा करता हूं, सिर्फ आज की छुट्टी ले लेता हूं,’’ वह समझौते के अंदाज में बोला. ‘‘लेकिन इस के बाद जितने भी दिन दीदी रहेंगी, तुम्हीं उन के साथ रहोगी.’’

‘‘मैं, अकेले?’’ चंद्रिका घबरा रही थी, ‘‘मुझ से फिर कोई गलती हो गई तो?’’ ‘‘तो क्या, उसे सुधार लेना. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है,’’ मन ही मन सोचता जा रहा था रवि, ‘मैं भी तो अपनी गलती ही सुधार रहा हूं.’

वह रवि की प्यार और विश्वासभरी निगाहों को पलभर देखती रही, फिर हंस कर बोली, ‘‘अच्छा, अब छोड़ो, चल कर कम से कम आज की पिकनिक की तैयारी करूं.’’ दीदी पूरे 15 दिनों के लिए रुकी थीं, चंद्रिका और उन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए थे. इस बार पिताजी भी अधिक खुश नजर आ रहे थे. दीदी के जाने का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, चंद्रिका उदास होती जा रही थी.

आखिरकार, जीजाजी के बुलावे के पत्र ने उन के लौटने की तारीख तय कर दी. दौड़ीदौड़ी चंद्रिका बाजार जा कर दीदी के लिए साड़ी और जीजाजी के लिए कपड़े खरीद लाई थी. तरहतरह के पापड़ और अचार दीदी के मना करने के बावजूद उस ने बांध दिए थे. शाम की ट्रेन थी. चंद्रिका दीदी के साथ के लिए तरहतरह की चीजें बनाने में व्यस्त थी. रवि सामान पैक करती दीदी के पास आ बैठा. दीदी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा, ‘‘अब तुम कब आ रहे हो चंद्रिका को ले कर?’’

‘‘आऊंगा दीदी, जल्दी ही आऊंगा,’’ बैठी हुई दीदी की गोद में वह सिर रख लेट गया था, ‘‘तुम नाराज तो नहीं हो न?’’ ‘‘किसलिए?’’ उस के बालों में हाथ फेरती हुई दीदी एकाएक ही उस की बात सुन हैरत में पड़ गईं.

‘‘मैं तुम्हारे साथ पहले जितना समय नहीं बिता पाया न?’’ रवि बोला. ‘‘नहीं रे, बल्कि इस बार मैं यहां जितनी खुश रही हूं, उतनी पहले कभी नहीं रही. चंद्रिका के होते मुझे किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. एक बात बताऊं, मुझे बहुत डर लगता था. तेरे इतने प्यार जताने के बाद भी लगता था, मेरा भाई मुझ से अलग हो जाएगा. कभीकभी सोचती, शायद मेरे आने की वजह से ही चंद्रिका और तुम्हारे बीच झगड़ा होता है. तुझे देखने के लिए मन न तड़पता तो शायद यहां कभी आती ही नहीं.

‘‘चंद्रिका के इस बार के अच्छे व्यवहार ने मुझे एहसास दिलाया है कि भाई तो अपना होता ही है, पर भौजाई को अपना बनाना पड़ता है, क्योंकि वह अगर अपनी न बने तो धीरेधीरे भाई भी पराया हो जाता है. आज मैं सुकून महसूस कर रही हूं. चंद्रिका जैसी अच्छी भौजाई के होते मेरा भाई कभी पराया नहीं होगा. इस सब से भी बढ़ कर पता है, उस ने क्या दिया है मुझे?’’ ‘‘क्या?’’

‘‘मेरा मायका, जो मुझे पहले कभी नहीं मिला था. चंद्रिका ने मुझे वह सब दे दिया है,’’ दीदी की आंखें बरस उठी थीं, ‘‘चंद्रिका ने यह जो एहसान मुझ पर किया है, इस का कर्ज कभी नहीं चुका पाऊंगी.’’ ‘‘खाना तैयार है,’’ चंद्रिका कब कमरे में आई, पता ही न चला. लेकिन उस की भीगीभीगी आंखें बता रही थीं कि वह बहुतकुछ सुन चुकी थी. गर्व से निहारती रवि की आंखों में झांक चंद्रिका बोली, ‘‘कैसे भाई हो, पता नहीं, आज सुबह से दीदी ने कुछ नहीं खाया. चलो, खाना ठंडा हो रहा है.’’

दीदी को ट्रेन में बिठा रवि उन का सामान व्यवस्थित करने में लगा हुआ था. चंद्रिका दीदी के साथ ही बैठी उन्हें दशहरे की छुट्टियों में आने के लिए मना रही थी. हमेशा उतरे मुंह से वापस होने वाली दीदी का चेहरा इस बार चमक रहा था. ट्रेन की सीटी की आवाज के साथ ही रवि ने कहा, ‘‘उतरो चंद्रिका, ट्रेन चलने वाली है.’’

चंद्रिका दीदी से लिपट गई, ‘‘जल्दी आना और जाते ही पत्र लिखना.’’ ‘‘अब पहले तुम दोनों मेरे घर आना,’’ भीगी आंखों के साथ दीदी मुसकरा रही थीं.

उन के नीचे उतरते ही ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. ‘‘दीदी, पत्र जरूर लिखना,’’ दोनों अपनेअपने रूमाल हिला रही थीं. ट्रेन गति पकड़ स्टेशन से दूर होती जा रही थी. चंद्रिका ने पलट कर रवि की तरफ देखा. रवि की गर्वभरी आंखों को निहारती चंद्रिका की आंखें भी चमक उठी थीं.

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एहसास- भाग 3: क्यों सास से नाराज थी निधि

एक हफ्ते बाद मालती जब वापस घर लौटी तो सुबह की ट्रेन लेट हो कर दिन में पहुंची. स्टेशन से औटो कर के घर पहुंची. एक चाबी उस के पास थी पर्स में. अंदर आ कर सामान वहीं नीचे रख कर वह सोफे पर थोड़ा सुस्ताने बैठी. उस ने सोचा, चाय बनाएगी पहले अपने लिए, फिर फ्रैश होगी. सिर दर्द कर रहा था सफर की थकावट से. एक सरसरी नजर घर पर डाली उस ने पर सफाई का नामोनिशान नजर नहीं आ रहा था. उस के पैरों के पास कालीन पर दालभुजिया बिखरी पड़ी थी.  झाड़ू तक नहीं लगी  थी घर में लगता है उस के जाने के बाद.

वह बुदबुदाती हुई रसोई की तरफ बढ़ी ही थी कि तभी उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. अजय के दोस्त का फोन था, ‘‘हैलो बेटा,’’ मालती ने फोन रिसीव किया. दूसरी तरफ से जो उसे सुनाई दिया उसे सुन कर वह धम्म से सोफे पर गिर पड़ी. अजय के दोस्त ने उसे हौस्पिटल का नाम बता कर जल्द आने को कहा. अजय की बाइक को किसी गाड़ी ने पीछे से टक्कर मार दी थी.

आननफानन मालती ज्यों की त्यों हालत में हौस्पिटल के लिए निकल पड़ी. गेट पर ही उसे अजय का दोस्त यश मिल गया था. दोनों कालेज के गहरे दोस्त थे. अजय को आईसीयू में रखा गया था. उस के हाथपैरों में गहरी चोटें आई थीं. पर उस की हालत खतरे से बाहर थी. मालती ने अपनी रुलाई दबा कर बेटे की तरफ देखा. खून से अजय के कपड़े सने थे और न जाने कितनी पट्टियां उस के शरीर पर बंधी थीं.

‘‘आंटी आप बाहर बैठ जाइए,’’ मालती की हालत देख कर यश ने कहा और सहारा दे कर उस ने मालती को आईसीयू के बाहर बैंच पर बिठा दिया. यश ने उसे बताया कि कैसे ऐक्सिडैंट की जानकारी पुलिस से पहले उसे ही मिली थी. निधि अपनी एक सहेली के साथ मूवी देखने गई हुई थी. उस का फोन शायद इसीलिए नहीं मिल पाया. पास के वाटरकूलर से एक गिलास पानी ला कर उस ने मालती को दिया.

मालती ने होशोहवास दुरुस्त करने की कोशिश की. तभी उसे निधि बदहवास भागती आती दिखाई दी. मालती के पास पहुंच कर वह उस से लिपट कर रो पड़ी. मालती, जो बड़ी देर से अपने आंसू रोके बैठी थी, अब अपनी रुलाई नहीं रोक पाई. कुछ संयत हो कर निधि ने अजय को आईसीयू में देखा, बैड पर बेहोश ग्लूकोस और खून की पाइप्स से घिरा हुआ. निधि ने डाक्टर से अजय की हालत के बारे में पूछा और डाक्टर की पर्ची ले कर दवाइयां लेने चली गई. रात को मालती के लाख मना करने के बावजूद निधि ने उसे यश के साथ घर भेज दिया.

सुबह जल्दी उठ कर मालती कुछ जरूरी चीजें एक बैग में और एक थरमस में कौफी भर कर हौस्पिटल पहुंची. निधि की आंखें बता रही थीं कि सारी रात वह सोई नहीं. सो तो मालती भी नहीं पाई थी पूरी रात. निधि ने बैंच पर बैठे एक लंबी अंगड़ाई ली और थरमस से कौफी ले कर पीने लगी. मालती अजय के पास गई. वह होश में था. पर डाक्टर ने बातें करने से मना किया था. मालती को देख कर अजय ने धीरे से मुसकराने की कोशिश की. मालती ने उस का हाथ कोमलता से अपने हाथों में ले लिया और जवाब में मुसकरा दी.

करीब एक हफ्ते बाद अजय डिस्चार्ज हो कर घर आ गया. उस के पैर में अभी भी प्लास्टर लगा था. हड्डी की चोट थी, डाक्टर ने फुल रैस्ट के लिए बोला था. एक महीने के लिए उस ने औफिस से छुट्टी ले ली थी. निधि और मालती दिनरात उस की तीमारदारी में जुट गए. एक महीने के बाद जब अजय के पैर का प्लास्टर उतरा तो उस ने हलकी चहलकदमी शुरू कर दी. मगर समय शायद ठीक नहीं चल रहा था. बाथरूम में फिसलने की वजह से उसे फिर से एक और प्लास्टर लगवाना पड़ा. प्राइवेट जौब में कितने दिन छुट्टी मिलती, तंग आ कर अजय ने रिजाइन दे दिया. निधि और मालती उसे इस हालत में अब बिस्तर से उठने तक नहीं देती थीं.

कहने को तो घर में कोई कमी नहीं थी पर अजय की नौकरी न रहने से मालती को तमाम बातों की चिंता सताने लगी. अजय ने शादी के वक्त नया घर बुक कराया था, जिस की हर महीने किस्त जाती थी. उस के अलावा, घर के खर्चे, अजय की गाड़ी की किस्तें, खुद मालती की दवाइयों का खर्च. हालांकि उसे अपने पति की पैंशन मिलती थी, पर उस के भरोसे सबकुछ नहीं चल सकता था.

निधि ने अपने काम पर जाना शुरू कर दिया था. वह एक लैंग्वेज टीचर थी और पास के एक इंस्टिट्यूट में जौब करती थी. एक दिन उसे घर लौटने में बहुत देर हो गई, तो मालती की त्योरियां चढ़ गईं.

अजय की इस हालत में इतनी देर निधि का यों बाहर रहना मालती को अच्छा नहीं लगा. उस ने सोचा कि अजय भी इस बात पर नाराज होगा. लेकिन उन दोनों को आराम से बातें करते देख उसे लगा नहीं कि अजय को कुछ फर्क पड़ा. हुहूं, बीवी का गुलाम है, बहुत छूट दे रखी है निधि को इस ने, एक बार पूछा तक नहीं, यह सब सोच कर मालती कुढ़ गई थी.

किचन में अजय के लिए थाली लगाती मालती के कंधे पर हाथ रखते हुए निधि बोली, ‘‘मां, आप बैठो अजय के पास, आप दोनों की थाली मैं लगा देती हूं.’’

‘‘रहने दो, तुम दोनों खाओ साथ में, वैसे भी दिनभर अजय अकेला बोर हो जाता है तुम्हारे बिना,’’ मालती कुछ रुखाई से बोली.

‘‘सौरी मां, अब से मु झे आते देर हो जाया करेगी, मैं ने एक और जगह जौइन कर लिया है. तो कुछ घंटे वहां भी लग जाएंगे,’’ निधि ने उस के हाथ से प्लेट लेते हुए बताया.

‘‘तुम ने अजय को बताया क्या?’’

‘‘मां, मैं ने अजय से पहले ही पूछ लिया था और वैसे भी, कुछ ही घंटों की बात है, तो मैं मैनेज कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है, अगर तुम दोनों को सही लगता है तो, लेकिन देख लो, थक तो नहीं जाओगी? तुम्हें आदत नहीं इतनी मेहनत करने की,’’ मालती ने अपनी तरफ से जिम्मेदारी निभाई.

‘‘आप चिंता मत करो मां. बस, कुछ दिनों की तो बात है.’’

मालती ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की घर के फालतू खर्चे कम करने की. वह अब थोड़ी कंजूसी से भी चलने लगी थी. सब्जी और फल लेते समय भरसक मोलभाव करती थी. उसे लगा निधि अपने खर्चों पर लगाम नहीं लगा पाएगी. पर जब से अजय का ऐक्सिडैंट हुआ था, निधि की आदतों में फर्क साफ नजर आता था. जो लड़की फर्स्ट डे फर्स्ट शो मूवी देखती थी, तकरीबन रोज ही शौपिंग, आएदिन अजय के साथ बाहर डिनर करना जिस के शौक थे, वह अब बड़े हिसाबकिताब से चलने लगी थी. और तो और, घर के कामों को भी वह मालती के तरीके से ही करने की कोशिश करती थी.

Father’s Day 2022: अथ से इति तक- बेटी के विद्रोह ने हिला दी माता- पिता की दुनिया

‘‘चल न शांता, बड़ी अच्छी फिल्म लगी है ‘संगीत’ में. कितने दिन से घर से बाहर गए भी तो नहीं हैं…इन के पास तो कभी समय ही नहीं रहता है,’’ पति के कार्यालय तथा बच्चों के स्कूल, कालेज जाते ही शुभ्रा अपनी सहेली शांता के घर चली आई.

‘‘आज नहीं शुभ्रा, आज बहुत काम है. फिर मैं ने राजेश्वर को बताया भी नहीं है. अचानक ही बिना बताए चली गई तो न जाने क्या समझ बैठें,’’ शांता ने टालने का प्रयत्न किया.

‘‘लो सुनो, अरे, शादी को 20 वर्ष बीत गए, अब भी और कुछ समझने की गुंजाइश है? ले, फोन उठा और बता दे भाईसाहब को कि तू आज मेरे साथ फिल्म देखने जा रही है.’’

‘‘तू नहीं मानने वाली…चल, आज तेरी बात मान ही लेती हूं, तू भी क्या याद करेगी,’’ शांता निर्णयात्मक स्वर में बोली.

निर्णय लेने भर की देर थी, फिर तो शांता ने झटपट पति को फोन किया. बेटी प्रांजलि के नाम पत्र लिख कर खाने की मेज पर फूलदान के नीचे दबा दिया और आननफानन में तैयार हो कर घर की चाबी पड़ोस में देते हुए दोनों सहेलियां बाहर सड़क पर आ गईं.

‘‘अकेले घूमनेफिरने का मजा ही कुछ और है. पति व बच्चों के साथ तो सदा ही जाते हैं, पर यह सब बड़ा रूढि़वादी लगता है. अब देखो, केवल हम दोनों और यह स्वतंत्रता का एहसास, मानो हर आनेजाने वाले की निगाह हमें सहला रही हो,’’ शुभ्रा चहकते हुए बोली.

‘‘पता नहीं, मेरी तो इतनी उलटीसीधी बातें सोचने की आदत ही नहीं है,’’ शांता ने मुसकरा कर टालने का प्रयत्न किया.

‘‘अच्छा शांता, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ समय के लिए हमारी किशोरावस्था हमें वापस मिल जाए. फिर वही पंखों पर उड़ते से हलकेफुलके दिन, सपनीली पलकें लिए झुकीझुकी आंखें…’’ शुभ्रा, अपनी ही रौ में बोलती चली गई.

‘‘शुभ्रा, हम सड़क पर हैं. माना कि तुझे कविता कहने का बड़ा शौक है, पर कुछ तो शर्म किया कर…अब हम किशोरियां नहीं, अब हम किशोरियों की माताएं हैं. कोई ऐसी बातें सुनेगा तो क्या सोचेगा?’’ शांता ने उसे चुप कराने के लिए कहा.

‘‘तू बड़ी मूर्ख है शांता, तू तो किशोरा- वस्था में भी दादीअम्मां की तरह उपदेश झाड़ा करती थी, अब तो फिर भी आयु हो गई, पर एक राज की बात बताऊं?’’

‘‘क्या?’’

‘‘कोई कह नहीं सकता कि तेरी 17-18 वर्ष की बेटी है,’’ शुभ्रा मुसकराई.

‘‘शुभ्रा, तू कभी बड़ी नहीं होगी, यह हमारी आयु है, ऐसी बातें करने की?’’

‘‘लो भला, हमारी आयु को क्या हुआ है…विदेशों में तो हमारे बराबर की स्त्रियां रास रचाती घूमती हैं,’’ शुभ्रा ने शरारत भरा उत्तर दिया.

इस से पहले कि शांता कोई उत्तर दे पाती, आटोरिकशा एक झटके के साथ रुका और दोनों सहेलियां वास्तविकता की धरती पर लौट आईं.

टिकट खरीदने के लिए लंबी कतार लगी थी. शुभ्रा लपक कर वहां खड़ी हो गई और शांता कुछ दूर खड़ी हो कर उस की प्रतीक्षा करने लगी. रंगबिरंगे कपड़े पहने युवकयुवतियों और स्त्रीपुरुषों को शांता बड़े ध्यान से देख रही थी. ऐसे अवसरों पर ही तो नए फैशन, परिधानों आदि का जायजा लिया जा सकता है.

फिल्म का शो खत्म हुआ. शांता भीड़ से बचने के लिए एक ओर हटी ही थी कि तभी भीड़ में जाते एक जोड़े को देख कर मानो उसे सांप सूंघ गया. क्या 2 व्यक्तियों की शक्ल, आकार, चालढाल इतनी अधिक मेल खा सकती है? युवती बिलकुल उस की बेटी प्रांजलि जैसी लग रही थी. ‘कहीं यह प्रांजलि ही तो नहीं?’ एक क्षण को यह विचार मस्तिष्क में कौंधा, पर दूसरे ही क्षण उस ने उसे झटक दिया. प्रांजलि भला इस समय यहां क्या कर रही होगी? वह तो कालेज में होगी. वह युवती कुछ दूर चली गई थी और अपने पुरुष मित्र की किसी बात पर खिलखिला कर हंस रही थी. शांता कुछ देर के लिए उसे घूर कर देखती रही, ‘नहीं, उस की निगाहें इतना धोखा नहीं खा सकतीं, क्या वह अपनी बेटी को नहीं पहचान सकती?’

पर तभी उसे खयाल आया कि प्रांजलि आज स्कर्टब्लाउज पहन कर गई थी और यह युवती तो नीले रंग के चूड़ीदार पाजामेकुरते में थी. शांता ने राहत की सांस ली, पर दूसरे ही क्षण उसे याद आया कि ऐसा ही चूड़ीदार पाजामाकुरता प्रांजलि के पास भी है. संशय दूर करने के लिए उस ने उस युवती को पुकारने के लिए मुंह खोला ही था कि शुभ्रा के वहां होने के एहसास ने उस के मुंह पर मानो ताला जड़ दिया. शुभ्रा लाख उस की सहेली थी पर अपनी बेटी के संबंध में शांता किसी तरह का खतरा नहीं उठा सकती थी. प्रांजलि के संबंध में कोई ऐसीवैसी बात शुभ्रा को पता चले और फिर यह आम चर्चा का विषय बन जाए, यह वह कभी सहन नहीं कर सकती थी. अत: वह चुपचाप खड़ी रह गई.

‘‘क्या बात है शांता, तबीयत खराब है क्या?’’ तभी शुभ्रा टिकट ले कर आ गई.

‘‘पता नहीं शुभ्रा, कुछ अजीब सा लग रहा है. चक्कर आ रहा है. लगता है, अब मैं अधिक समय खड़ी नहीं रह सकूंगी,’’ शांता किसी प्रकार बोली. सचमुच उस का गला सूख रहा था तथा नेत्रों के सम्मुख अंधेरा छा रहा था.

‘‘गरमी भी तो कैसी पड़ रही है…चल, कुछ ठंडा पीते हैं…’’ कहती शुभ्रा उसे शीतल पेय की दुकान की ओर खींच ले गई.

शीतल पेय पी कर शांता को कुछ राहत अवश्य मिली किंतु मन अब भी ठिकाने पर नहीं था. कुछ देर पहले के हंसीठहाके उदासी में बदल गए थे. फिल्म देखते हुए भी उस की निगाह में प्रांजलि ही घूम रही थी. किसी प्रकार फिल्म समाप्त हुई तो उस ने राहत की सांस ली.

अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी लेकिन शुभ्रा तो बाहर ही खाने का निश्चय कर के आई थी. पर शांता की दशा देख कर शुभ्रा ने भी अपना विचार बदल दिया और दोनों सहेलियां घर पहुंच गईं.

शांता घर पहुंची तो देखा, प्रांजलि अभी घर नहीं लौटी थी. उस की घबराहट की तो कोई सीमा ही नहीं थी. सोचने लगी, ‘लगभग 3 घंटे पहले प्रांजलि को देखा था, न जाने किस आवारा के साथ घूम रही थी? लगता है, यह लड़की तो हमें कहीं का न छोड़ेगी,’ सोचते हुए शांता तो रोने को हो आई.

जब और कुछ न सूझा तो शांता पति का फोन नंबर मिलाने लगी, लेकिन तभी द्वार की घंटी बज उठी. वह लपक कर द्वार तक पहुंची. घबराहट से उस का हृदय तेजी से धड़क रहा था. दरवाजा खोला तो सामने खड़ी प्रांजलि को देख कर उस की जान में जान आई, पर इस बात पर तो वह हैरान रह गई कि प्रांजलि तो वही स्कर्टब्लाउज पहने थी जो वह सुबह पहन कर गई थी. फिर वह नीले चूड़ीदार पाजामेकुरते वाली लड़की? क्या यह संभव नहीं कि उस ने प्रांजलि जैसी शक्लसूरत की किसी अन्य लड़की को देखा हो.

‘‘क्या बात है, मां? इस तरह रास्ता रोक कर क्यों खड़ी हो? मुझे अंदर तो आने दो.’’

‘‘अंदर? हांहां, आओ, तुम्हारा ही तो घर है,’’ शांता वहां से हटते हुए बोली, पर प्रांजलि के अंदर आते ही उस ने शीघ्रता से बेटी के कंधे पर लटकता बैग उतारा और सारा सामान उलट दिया.

नीला चूड़ीदार पाजामाकुरता बैग से बाहर पड़ा शांता को मुंह चिढ़ा रहा था. प्रांजलि भी मां के इस व्यवहार पर स्तब्ध खड़ी थी.

‘‘इस तरह छिपा कर ये कपड़े ले जाने की क्या आवश्यकता थी?’’ शांता का स्वर आवश्यकता से अधिक तीखा था.

‘‘मैं क्यों छिपा कर ले जाने लगी?’’ प्रांजलि अब तक संभल चुकी थी, ‘‘पहले से ही रखा होगा.’’

‘‘तुम अब भी झूठ बोले जा रही हो, प्रांजलि. कालेज छोड़ कर किस के साथ फिल्म देख रही थीं, ‘संगीत’ में? वह तो शुभ्रा मेरे साथ थी और मैं नहीं चाहती थी कि उस के सामने कोई तमाशा खड़ा हो, नहीं तो यह प्रश्न मैं तुम से वहीं करती,’’ शांता गुस्से से चीखी.

‘‘वहीं पूछ लेना था, मां. शुभ्रा चाची तो बिलकुल घर जैसी हैं. फिर एक दिन तो सब को पता चलना ही है.’’

‘‘अपनी मां से इस तरह बेशर्मी से बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या किया है, मां? सुबोध और मैं एकदूसरे को प्यार करते हैं और विवाह करना चाहते हैं…साथसाथ फिल्म देखने चले गए तो क्या हो गया?’’

‘‘शर्म नहीं आती, ऐसा कहते? तुम क्या समझती हो कि तुम मनमानी करती रहोगी और हम चुपचाप देखते रहेंगे? आज से तुम्हारा घर से निकलना बंद…बंद करो यह कालेज जाना भी, बहुत हो गई पढ़ाई,’’ शांता ने मानो अपना आज्ञापत्र जारी कर दिया.

प्रांजलि पैर पटकती अपने कमरे में चली गई और स्तंभित शांता वहीं बैठ कर फूटफूट कर रो पड़ी.

शायद- भाग 3: क्या हुआ था सुवीरा के साथ

एक दिन अचानक दीनदयाल के मरने का समाचार मिला. कांप कर रह गई सुवीरा उस दिन. अब तक दीनदयाल ही ऐसे थे जो संवेदनात्मक रूप से बेटी से जुड़े थे. मां की मांग का सिंदूर यों धुलपुंछ जाएगा, सुवीरा ने कभी इस की कल्पना भी नहीं की थी. पति चाहे बूढ़ा, लाचार या बेसहारा ही क्यों न हो, उस की छत्रछाया में पत्नी खुद को सुरक्षित महसूस करती है.

अब क्या होगा, कैसे होगा, सोचते- विचारते सुवीरा मायके जाने की तैयारी करने लगी तो पहली बार अंगरक्षक के समान पति और दोनों बेटे भी साथ चलने के लिए तैयार हो उठे. एक मत से सभी ने यही कहा कि वहां जा कर फिर से अपमान की भागी बनोगी. पर सुवीरा खुद को रोक नहीं पाई थी. मोह, ममता, निष्ठा, अपनत्व के सामने सारे बंधन कमजोर पड़ते चले गए थे. ऐसे में सीमा ने ही साथ दिया था.

‘जाने दीजिए आप लोग मां को. ऐसे समय में तो लोग पुरानी दुश्मनी भूल कर भी एक हो जाते हैं. यह भी तो सोचिए, नानाजी मां को कितना चाहते थे. कोई बेटी खुद को रोक कैसे सकती है.’

मातमी माहौल में दुग्धधवल साड़ी में लिपटी अम्मां के बगल में बैठ गई थी सुवीरा. दिल से पुरजोर स्वर उभरा था. सोहन के पास तो इतना पैसा भी नहीं होगा कि बाबूजी की उठावनी का खर्चा भी संभाल सके. भाई से सलाह करने के लिए उठी तो लोगों की भीड़ की परवाह न करते हुए सोहन जोरजोर से चीखने लगा, ‘चलो, जीतेजी न सही, बाप के मरने के बाद तो तुम्हें याद आया कि तुम्हारे रिश्तेदार इस धरती पर मौजूद हैं.’

चाहती तो सुवीरा भी पलट कर इसी तरह उसे अपमानित कर सकती थी. जी में आया भी था कि इन लोगों से पूछे कि चलो मैं न सही पर तुम लोगों ने ही मुझ से कितना रिश्ता निभाया है, पर कहा कुछ नहीं था. बस, खून का घूंट पी कर रह गई थी.

लोगों की भीड़ छंटी तो सोहन की पत्नी से पूछ लिया था सुवीरा ने, ‘बैंक में हड़ताल है और मुझ से इस घर की आर्थिक स्थिति छिपी नहीं है. ऐसे मौकों पर अच्छीखासी रकम की जरूरत होती है. इसीलिए कुछ पैसे लाई थी, रख लो.’

‘क्यों लाई है पैसे?’ मां के मन में पहली बार परिस्थितिजन्य करुणा उभरी थी, पर सोहन का स्वर अब भी बुलंद था.

‘तुम मदद करने नहीं जायदाद बांटने आई हो. जाओ बहना, जाओ. अब तुम्हारा यहां कोई भी नहीं है.’

सोहन की पत्नी ने कई बार पति को शांत करने का असफल प्रयास किया था लेकिन गिरीश अच्छी तरह समझ गए थे कि सोहन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है. दंभी इनसान हमेशा दूसरे को गलत खुद को सही मानता है.

‘इस बदजबान को हम सुधारेंगे,’ जवानी का खून कहीं अनर्थ न कर डाले, इसीलिए सुवीरा ने रोका था अपने बेटों को.

‘हम कौन होते हैं किसी को सुधारने वाले? स्वभाव तो संस्कारों की देन है.’

लेकिन गिरीश उद्विग्न हो उठे थे.

‘सुवीरा, कब तक आदर्शों की सलीब पर टंगी रहोगी? खुद भी झुकोगी मुझे भी झुकाओगी? जिन लोगों में इनसानियत नहीं उन से रिश्ता निभाना बेवकूफी है. यदि आज के बाद तुम ने इन लोगों से संबंध रखा तो मेरा मरा मुंह देखोगी.’

घर लौट कर गिरीश ने कई बार अपनी दी हुई शपथ का विश्लेषण किया था पर हर बार खुद को सही पाया था. जिन रिश्तों के निभाने से तर्कवितर्क के पैने कंटीले झाड़ की सी चुभन महसूस हो, गहन पीड़ा की अनुभूति हो, उसे तोड़ देना क्या गलत था? कहते समय कब सोचा था उन्होंने कि सुवीरा का पड़ाव इतना निकट था?

बेहोशी की दशा में सन्नाटे को चीरते हुए सुवीरा के होंठों से जब सोहन और अम्मां का नाम छलक कर उन के कानों से टकराया तो उन्हें महसूस हुआ कि इतना सरल नहीं था सब. सिरहाने बैठे विक्रम की हथेलियों को हौले से थाम कर सुवीरा ने अपने शुष्क होंठों से सटाया, फिर चारों ओर देखा. उस की नजरें मुख्यद्वार पर अटक कर रह गईं.

‘‘सुवीरा, विगत को भूल जाओ. मांगो, जो चाहे मांगो. मैं अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखूंगा.’’

‘‘अंतिम समय… इस धरती से विदा लेते समय कांटों की गहरी चुभन झेलते हुए प्राण त्याग कर मुझे कौन सी शांति मिलेगी?’’

‘‘क्यों इतना दुख करती हो? संबंधजन्य दुख ही तो दुख का कारण होते हैं,’’ दीर्घ निश्वास भर कर गिरीश ने पत्नी को सांत्वना दी थी.

‘‘देखना, मेरे मरने के बाद ये लोग समझेंगे कि मेरा निश्छल प्रेम किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता था. मुझे तो सिर्फ प्यार के दो मीठे बोल और वैसी ही आत्मीयता चाहिए थी जैसी अम्मां सोहन को देती थीं.’’

घनघोर अंधेरे में सुवीरा की आवाज डूबती चली गई. शरीर शिथिल पड़ने लगा, आंखों की रंगत फीकी पड़ने लगी. धीरेधीरे उन के चेहरे की तड़प शांत हो गई. स्थिर चिरनिद्रा में सो गई सुवीरा.

पत्नी की शांत निर्जीव देह को सफेद चादर से ढक उन की निर्जीव पलकों को हाथों के दोनों अंगूठों से हौले से बंद करते हुए गिरीश आत्मग्लानि से घिर गए. पश्चात्ताप से टपटप उन की आंखों से बहते आंसू सुवीरा की पेशानी को न जाने कब तक भिगोते रहे.

‘‘अपनी अम्मां और भाई को एक नजर देखने की तुम्हारी अभिलाषा मेरे ही कारण अधूरी रह गई. दोषी हूं तुम्हारा. गुनहगार हूं. मुझे क्षमा कर दो.’’

जैसे ही सुवीरा के मरने का समाचार लोगों तक पहुंचा, भीड़ का रेला उमड़ पड़ा. गिरीश और दोनों बेटों की जान- पहचान, मित्रों और परिजनों का दायरा काफी बड़ा था.

तभी लोगों की भीड़ को चीरते हुए सोहन और तारिणी देवी आते दिखाई दिए. बहन की शांत देह को देख सोहन जोरजोर से छाती पीटने लगा. उसे देख तारिणी देवी भी रोने लगीं.

‘‘अपने लिए तो कभी जी ही नहीं. हमेशा दूसरों के लिए ही जीती रही.’’

‘‘हमें अकेला छोड़ गई. कैसे जीएंगे सुवीरा के बिना हम लोग?’’

नानी का रुदन सुन दोनों जवान बेटों का खून भड़क उठा. मरने के बाद मां एकाएक उन के लिए इतनी महान कैसे हो गईं? दंभ और आडंबर की पराकाष्ठा थी यह. यह सब मां के सामने क्यों नहीं कहा? इन्हीं की चिंता में मां ने आयु के सुख के उन क्षणों को भी अखबारी कागज की तरह जला कर राख कर दिया जो उन्हें जीवन के नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर सकते थे.

उधर शांत, निर्लिप्त गिरीश कुछ और सोच रहे थे. कमल और बरगद की जिंदगी एक ही तराजू में तौली जाती है. कमल 12 घंटे जीने के बावजूद अपने सौंदर्य का अनश्वर और अक्षय आभास छोड़ जाता है जबकि 300 वर्ष जीने के बाद जब बरगद उखड़ता है तब जड़ भी शेष नहीं रहती.

कई बार सुवीरा के मुंह से गिरीश ने यह कहते सुना था कि प्यार के बिना जीवन व्यर्थ है. लंबी जिंदगी कैदी के पैर में बंधी हुई वह बेड़ी है जिस का वजन शरीर से ज्यादा होता है. बंधनों के भार से शरीर की मुक्ति ज्यादा बड़ा वरदान है.

सुवीरा की देह को मुखाग्नि दी जा रही थी लेकिन गिरीश के सामने एक जीवंत प्रश्न विकराल रूप से आ कर खड़ा हो गया था. कई परिवार बेटे को बेटी से अधिक मान देते हैं. बेटा चाहे निकम्मा, नाकारा, आवारागर्द और ऐयाश क्यों न हो, उसे कुल का दीपक माना जाता है, जबकि बेटी मनप्राण से जुड़ी रहती है अपने जन्मदाताओं के साथ फिर भी उतने मानसम्मान, प्यार और अपनत्व की अधिकारिणी क्यों नहीं बन पाती वह जितना बेटों को बनाया जाता है. यदि इन अवधारणाओं और भ्रांतियों का विश्लेषण किया जाए तो रिश्तों की मधुरता शायद कभी समाप्त नहीं होगी.

एक साथी की तलाश- भाग 4: कैसी जिंदगी जी रही थी श्यामला

‘‘जिन भावनाओं को, जिन संवेदनाओं को जीने की इतनी जद्दोजेहद थी मेरे अंदर, वह सब तो कब की मर चुकी है. फिर अब क्यों आऊं आप के बाकी के जीवन जीने का साधन बन कर? मुझे अब आप की जरूरत नहीं है. मैं अब नहीं आऊंगी.’’

‘‘नहीं श्यामला,’’ मधुप ने आगे बढ़ कर श्यामला की दोनों हथेलियां अपने हाथों में थाम लीं, ‘‘ऐसा मत कहो, साथी की तलाश कभी खत्म नहीं होती. हर उम्र, हर मोड़ पर साथी के लिए तनमन तरसता है, पशुपक्षी भी अपने लिए साथी ढूंढ़ते हैं. यही प्रकृति का नियम है. मुझ से गलती हुई है. इस के लिए मैं तुम से तहेदिल से क्षमा मांग रहा हूं. इस बार तुम नहीं, मैं आऊंगा तुम्हारे पास. इस बार तुम मेरे सांचे में नहीं, बल्कि मैं तुम्हारे सांचे में ढलूंगा, संवेदनाएं और भावनाएं कभी मरती नहीं हैं श्यामला, बल्कि हमारी गलतियों व उपेक्षाओं से सुप्तावस्था में चली जाती हैं, उन्हें तो बस जगाने की जरूरत है. अपने हृदय से पूछो, क्या तुम सचमुच मेरा साथ नहीं चाहतीं, सचमुच चाहती हो कि मैं चला जाऊं…’’

श्यामला चुपचाप डबडबाई आंखों से उन्हें देखती रह गई. कितने बदल गए थे मधुप. समय ने, अकेलेपन ने उन्हें उन की गलतियों का एहसास करा दिया था. पतिपत्नी में से अगर एक अपनी मरजी से जीता है तो दूसरा दूसरे की मरजी से मरता है.

‘‘बोलो श्यामला,’’ मधुप ने श्यामला को कंधों से पकड़ कर धीरे से हिलाया, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास आ गया हूं और अब लौट कर नहीं जाऊंगा,’’ मधुप पूरे विश्वास व अधिकार से बोले.

लेकिन श्यामला ने धीरे से उन के हाथ कंधों से अलग कर दिए. ‘‘अब मुझ से न आया जाएगा मधुप. मेरे जीवन की धारा अब एक अलग मोड़ मुड़ चुकी है, कितनी बार जीवन में टूटूं, बिखरूं और फिर जुड़ूं, मुझ में अब ताकत नहीं बची. मैं ने अपने जीवन को एक अलग सांचे

में ढाल लिया है जिस में अब आप के लिए कोई जगह नहीं. मैं अब नहीं आ पाऊंगी. मुझे माफ कर दो,’’ कह कर श्यामला दूसरे कमरे में चली गई. स्पष्ट संकेत था उन के लिए कि वे अब जा सकते हैं. मधुप भौचक्के खड़े, पलभर में हुए अपनी उम्मीदों के टुकड़ों को बिखरते महसूस करते रहे. फिर अपना बैग उठा कर बाहर निकल गए वापस जाने के लिए. बेटे के आने का भी इंतजार नहीं किया उन्होंने.

जयपुर से वापसी का सफर बेहद बोझिल था. सबकुछ तो उन्होंने पहले ही खो दिया था. एक उम्मीद बची थी, आज वे उसे भी खो कर आ गए थे. घर पहुंचे तो उन्हें अकेले व हताश देख कर बिरुवा सबकुछ समझ गया. कुछ न पूछा. चुपचाप से हाथ से बैग ले कर अंदर रख आया और किचन में चाय बनाने चला गया.

उधर श्यामला खिड़की के परदे के पीछे से थके कदमों से जाते मधुप को  देखती रही थी, जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए थे. दिल कर रहा था दौड़ कर मधुप को रोक ले लेकिन कदम न बढ़ पा रहे थे. जो गुजर चुका था, वह सबकुछ याद आ रहा था.

मधुप चले गए, लेकिन श्यामला के दिल का नासूर फिर से बहने लगा. रात देर तक बिस्तर पर करवट बदलते हुए सोचती रही कि जिंदगी मधुप के साथ अगर बोझिलभरी थी तो उन के बिना भी क्या है. क्या एक दिन भी ऐसा गुजरा जब उस ने मधुप को याद न किया हो. उस के मधुप से अलग होने के निर्णय का दर्द बच्चों ने भी भुगता था. बच्चों ने भी तब कितना चाहा था कि वे दोनों साथ रहें. अपने विवाह के बाद ही बच्चे चुप हुए थे. पर पता नहीं कैसी जिद भर गई थी उस के खुद के अंदर. और मधुप ने भी कभी आगे बढ़ कर अपनी गलती मानने की कोशिश नहीं की. उन दोनों का सारा जीवन यों वीरान सा गुजर गया. जो मधुप आज महसूस कर रहे हैं, काश, यही बात तब समझ पाते तो उन की जिंदगी की कहानी कुछ और ही होती.

लेकिन अब जो तार टूट चुके हैं, क्या फिर से जुड़ सकते हैं और जुड़ कर क्या उतने मजबूत हो सकते हैं. एक कोशिश मधुप ने की, एक कदम उन्होंने बढ़ाया तो क्या एक कोशिश उसे भी करनी चाहिए, एक कदम उसे भी बढ़ाना चाहिए. कहीं आज निर्णय लेने में उस से कोई गलती तो नहीं हो गई. इसी ऊहापोह में करवटें बदलते सुबह हो गई.

पूरी रात वह सोचती रही थी, फिर अनायास ही अपना बैग तैयार करने लगी. उस को तैयारी करते देख बेटेबहू आश्चर्यचकित थे पर उन्होंने कुछ न पूछना ही उचित समझा. मन ही मन सब समझ रहे थे. खुशी का अनुभव कर रहे थे. श्यामला जब जाने को हुई तो बेटे ने साथ में जाने की पेशकश की. पर श्यामला ने मना कर दिया.

उधर, उस दिन जब दोपहर को सोए हुए मधुप की शाम को नींद खुली तो वह शाम और दूसरी शाम की तरह ही थी, पर पता नहीं मधुप आज अपने अंदर हलकी सी तरंग क्यों महसूस कर रहे थे. तभी बिरुवा चाय बना कर ले आया. उन्होंने चाय का पहला घूंट भरा ही था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘देखना बिरुवा, कौन आया है?’’

‘‘अखबार वाला होगा, पैसे लेने आया होगा. शाम को वही आता है,’’ कह कर बिरुवा बाहर चला गया. लेकिन पलभर में ही खुशी से उमंगता हाथ में बैग उठाए अंदर आ गया. मधुप आश्चर्य से उसे देखने लगे, ‘‘कौन है बिरुवा, कौन आया है और यह बैग किस का है?’’

‘‘बाहर जा कर देखिए साहब, समझ लीजिए पूरे संसार की खुशियां चल कर आ गई हैं आज दरवाजे पर,’’ कह कर बिरुवा घर में कहीं गुम हो गया. वे जल्दी से बाहर गए, देखा, दरवाजे पर श्यामला खड़ी थी. वे आश्चर्यचकित, किंकर्तव्यविमूढ़ से उसे देखते रह गए.

‘‘श्यामला तुम.’’ उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘हां मैं,’’ वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे?’’

‘‘श्यामला,’’ खुशी के अतिरेक में उन्होंने आगे बढ़ कर श्यामला को गले लगा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो.’’

‘‘बस, अब कुछ मत कहो. आप भी मुझे माफ कर दो. जो कुछ हुआ वह सब भूल कर आई हूं.’’

दोनों थोड़ी देर एकदूसरे को गले लगाए ऐसे ही खड़े रहे. तभी पीछे कुछ आवाज सुन कर दोनों अलग हुए, मुड़ कर देखा तो बिरुवा फूलों के हार लिए खड़ा था. मधुप और श्यामला दोनों हंस पड़े.

‘‘आज तो बहुत खुशी का दिन है, साहब.’’

‘‘हां बिरुवा, क्यों नहीं. आज मैं तुम्हें किसी बात के लिए नहीं रोकूंगा,’’ कह कर मधुप श्यामला की बगल में खड़े हो गए और बिरुवा ने उन दोनों को एकएक हार थमा दिया. दोनों आज खुशी का हर पल जीना चाहते थे. बहुत वक्त गंवा चुके थे, पर अब नहीं. बस अब और नहीं.

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कर्तव्य पालन- भाग 1: क्या रामेंद्र को हुआ गलती का एहसास

भोजन की मेज पर राजेश को न पा कर रामेंद्र विचलित हो उठे, बेमन से रोटी का कौर तोड़ कर बोले, ‘‘आज फिर राजेश ने आने में देरी कर दी.’’

‘‘मित्रों में देरी हो ही जाती है. आप चिंता मत कीजिए,’’ अलका ने सब्जी का डोंगा उन की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘राजेश का रात गए तक बाहर रुकना उचित नहीं है. 10 बज चुके हैं.’’

‘‘मैं क्या कर सकती हूं. मैं ने थोड़े ही उसे बाहर रुकने को कहा है,’’ अलका समझाने लगी.

‘‘तुम्हीं ने उस की हर मांग पूरी कर के उसे सिर चढ़ा रखा है. आवश्यकता से अधिक लाड़प्यार ठीक नहीं होता.’’

क्रोध से भर कर अलका कोई कड़वा उत्तर देने जा रही थी, पर तभी यह सोच कर चुप रही कि रामेंद्र से उलझना व उन पर क्रोध प्रकट करना बुद्धिमानी नहीं है. नाहक ही पतिपत्नी की मामूली सी तकरार बढ़ कर बतंगड़ बन जाएगी. फिर हफ्तेभर के लिए बोलचाल बंद हो जाना मामूली सी बात है. मन को संयत कर के वह पति को समझाने लगी, ‘‘राजेश बुरे रास्ते पर जाने वाला लड़का नहीं है, आप अकारण ही उसे संदेह की नजर से देखने लगे हैं.’’ रामेंद्र ने थोड़ा सा खा कर ही हाथ खींच लिया. अलका भी उठ कर खड़ी हो गई. त्रिशाला का मन क्षुब्ध हो उठा. आज उस ने अपने हाथों से सब्जियां बना कर सजाई थीं, सोचा था कि मातापिता दोनों की राय लेगी कि उस की बनाई सब्जियां नौकर से अधिक स्वादिष्ठ बनी हैं या नहीं. पर दोनों की नोकझोंक में खाने का स्वाद ही खराब हो गया. वह भी उठ कर खड़ी हो गई.

नौकर ने 3 प्याले कौफी बना कर तीनों के हाथों में थमा दी. परंतु रामेंद्र बगैर कौफी पिए ही अपने शयनकक्ष में चले गए और बिस्तर पर पड़ गए. बिस्तर पर पड़ेपड़े वे सोचने लगे कि अलका का व्यवहार दिनप्रतिदिन उन की तरफ से रूखा क्यों होता जा रहा है? वह पति के बजाय बेटे को अहमियत देती रहती है. रातरात भर घर से गायब रहने वाला बेटा उसे शरीफ लगता है. वह सोचती क्यों नहीं कि बड़े घर का इकलौता लड़का सभी की नजरों में खटकता है. लोग उसे बहका कर गलत रास्ते पर डाल सकते हैं. कुछ क्षण के उपरांत अलका भी शयनकक्ष में दाखिल हो गई. फिर गुसलखाने में जा कर रोज की तरह साड़ी बदल कर ढीलाढाला रेशमी गाउन पहन कर पलंग पर आ लेटी.

रामेंद्र ने निर्विकार भाव से करवट बदली. बच्चों के प्रति अलका की लापरवाही उन्हें कचोटती रहती थी कि ब्यूटीपार्लरों में 4-4 घंटे बिता कर अपने ढलते रूपयौवन के प्रति सजग रहने वाली अलका आखिर राजेश की तरफ ध्यान क्यों नहीं देती? अलका के शरीर से उठ रही इत्र की तेज खुशबू भी उन के मन की चिंता दूर नहीं कर पाई. वे दरवाजे की तरफ कान लगाए राजेश के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए बारबार दीवारघड़ी की ओर देखने लगे. डेढ़ बज के आसपास बाहर लगी घंटी की टनटनाहट गूंजी तो रामेंद्र अलका को गहरी नींद सोई देख कर खुद ही दरवाजा खोलने के उद्देश्य से बाहर निकले, पर उन के पहुंचने के पूर्व ही त्रिशाला दरवाजा खोल चुकी थी. राजेश उन्हें देख कर पहले कुछ ठिठका, फिर सफाई पेश करता हुआ बोला, ‘‘माफ करना पिताजी, फिल्म देखने व मित्रों के साथ भोजन करने में समय का कुछ खयाल ही नहीं रहा.’’ बेटे को खूब जीभर कर खरीखोटी सुनाने की उन की इच्छा उन के मन में ही रह गई क्योंकि राजेश ने शीघ्रता से अपने कमरे में दाखिल हो कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया था.

उस के स्वर की हड़बड़ाहट से वे समझ चुके थे कि राजेश शराब पी कर घर लौटा है. सिर्फ शराब ही क्या, कल को वह जुआ भी खेल सकता है, कालगर्ल का उपयोग भी कर सकता है. मित्रों के इशारे पर पिता की कठिन परिश्रम की कमाई उड़ाने में भी उसे संकोच नहीं होगा. उद्विग्नतावश उन्हें नींद नहीं आ रही थी. बारबार करवटें बदल रहे थे. फिर मन बहलाने के खयाल से उन्होंने किताबों के रैक में से एक किताब निकाल कर तेज रोशनी का बल्ब जला कर उस के पृष्ठ पलटने शुरू कर दिए. तभी किताब में से निकल कर कुछ नीचे गिरा. उन्होंने झुक कर उठाया तो देखा, वह इरा की तसवीर थी, जो न मालूम कब उन्होंने पुस्तक में रख छोड़ी थी. तसवीर पर नजर पड़ते ही पुरानी स्मृतियां सजीव हो उठीं. वे एकटक उस को निहारते रह गए. ऐसा लगा जैसे व्यंग्य से वह हंस रही हो कि यही है तुम्हारी सुखद गृहस्थ पत्नी, बेटा. कोई भी तुम्हारे कहने में नहीं है. तुम किसी से संतुष्ट नहीं हो. क्या यही सब पाने के लिए तुम ने मेरा परित्याग किया था… लगा, इरा अपनी मनपसंद हरी साड़ी में लिपटी उन के सिरहाने आ कर बैठ गई हो व मुसकरा कर उन्हें निहार रही हो. कल्पनालोक में गोते लगाते हुए वे उस की घनी स्याह रेशमी केशराशि को सहलाते हुए भर्राए कंठ से कह उठे, ‘सबकुछ अपनी पसंद का तो नहीं होता, इरा. मैं तुम्हें हृदय की गहराइयों से चाहता था, पर…’

इरा अचानक हंस पड़ी, फिर रोने लगी, ‘तुम झूठे हो, तुम ने मुझे अपनाना ही कहां चाहा था.’ उन की आंखों की कोरों से भी अश्रु फूट पड़े, ‘इरा, तुम मेरी मजबूरी नहीं समझ पाओगी.’ दरअसल, रामेंद्र अपनी पढ़ाई समाप्त कर के छुट्टियां बिताने अपने ननिहाल कलकत्ता के नजदीक एक गांव में गए. एक दिन जब वे नहर में नहाने गए तो वहां कपड़े धोती हुई सांवली रंगत की बड़ीबड़ी आंखों वाली इरा को ठगे से घूरते रह गए. वह उन की नानी के घर के बराबर में ही रहती थी. दोनों घरों में आनाजाना होने के कारण रामेंद्र को उस से बात करने में कोई मुश्किल पेश नहीं आई. सभी गांव वालों का नहानाधोना नहर पर होने के कारण वहां मेले जैसा दृश्य उपस्थित रहता था. वे अपने हमउम्र साथियों के साथ वहीं मौजूद रहते थे, इधरउधर घूम कर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लूटते रहते. इरा नहर में कपड़े धो कर जब उन्हें आसपास के झाड़झंकार पर सूखने के लिए डालने आती तो वहां पर पहले से मौजूद रामेंद्र चुपके से उस की तसवीरें खींच लेते. कैमरे की चमक से चकित इरा उन की तरफ घूरती तो वे मुंह फेर कर इधरउधर ताकने लगते. इरा के आकर्षण में डूबे वे जब बारबार नानी के गांव आने लगे तो सब के कान खड़े हो गए. लोग उन दोनों पर नजर रखने लगे, पर दुनिया वालों से अनजान वे दोनों प्रेमालाप में डूबे रहते.

‘मुझे दुलहन बना कर अपने घर कब ले जाओगे?’ इरा पूछती.

‘बहुत जल्दी,’ वे इरा का मन रखने को कह देते, पर अपने घर वालों की कट्टरता भांप कर सोच में पड़ जाते. फिर बात बदल कर गंभीरता से कह उठते, ‘इरा, तुम मछली खाना बंद क्यों नहीं कर देतीं? क्या सब्जियों की कमी है जो इन मासूम प्राणियों का भक्षण करती रहती हो?’

यह सुन वह हंस पड़ती, ‘सभी बंगाली खाते हैं.’

‘पर हमारे घर में मांसाहार वर्जित है.’

‘पहले शादी तो करो. मैं मछली खाना बंद कर दूंगी.’ एक दिन ननिहाल वालों ने उन की चोरी पकड़ कर उन्हें खूब डांटाफटकारा. इरा को भी काफी जलील किया गया. घबरा कर वे प्यारव्यार भूल कर ननिहाल से भाग आए. मामामामी ने उन के मातापिता को पत्र लिख कर संपूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत करा दिया. पत्र पढ़ते ही घर में तूफान जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई. मां ने रोरो कर आंखें लाल कर लीं. पिताजी क्रोध से भर कर दहाड़ उठे, ‘वह गंवई गांव की मछुआरिन क्या हमारे घर की बहू बनने के लायक है? आइंदा वहां गए तो तुम्हारी टांगें तोड़ कर रख दूंगा.’ उस के बाद पिताजी जबरदस्ती उन्हें अपनी फैक्टरी में ले जा कर काम में लगाने लगे.

उधर, मां ने उन के रिश्ते की बात शुरू कर दी. एक दिन टूटीफूटी लिखावट में इरा का पत्र मिला. लिखा था, ‘मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं…आ कर ले जाओ.’ वे तड़प उठे व मातापिता की निगाहों से छिप कर नानी के गांव जा पहुंचे, पर उन के वहां पहुंचने से पूर्व ही इरा के घर वाले उसे ले कर कहीं लापता हो चुके थे.

रिश्तों का सच- भाग 2: क्या सुधर पाया ननद-भाभी का रिश्ता

‘बेटा, विवाह के बाद सब से नजदीकी रिश्ता पतिपत्नी का ही होता है. बाकी संबंध गौण हो जाते हैं. माना कि सभी संबंधों की अपनीअपनी अहमियत है, लेकिन किसी भी रिश्ते पर कोई रिश्ता हावी नहीं होना चाहिए, वरना कोई भी सुखी नहीं रहता. तुम्हीं बताओ, इतनी कोशिशों के बाद भी क्या तुम्हारी दीदी खुश है?’ समझातेसमझाते पिताजी सवाल सा कर उठे थे. ‘तो मैं क्या करूं? चंद्रिका की खुशी के लिए उन से सारे संबंध तोड़ लूं या फिर दीदी के लिए चंद्रिका से,’ रवि असमंजस में था, ‘आप तो जानते ही हैं कि दोनों ही मुझे कितनी प्रिय हैं.’

‘संबंध तोड़ने के लिए कौन कहता है,’ पिताजी धीरे से हंस पड़े थे, फिर गंभीर हो, बोले, ‘यह तो तुम भी मानते ही होगे कि चंद्रिका मन से बुरी या झगड़ालू नहीं है. मेरा कितना खयाल रखती है, तुम्हारे लिए भी आदर्श पत्नी सिद्ध हुई है.’ ‘फिर दीदी से ही उस की क्या दुश्मनी है?’ रवि के इस सवाल पर थोड़ी देर तक उसे गहरी नजरों से देखने के बाद वे बोले ‘कोई दुश्मनी नहीं है. याद करो, पहली बार वह भी कितनी उत्साहित थी. इस सब के लिए. अगर कोई दोषी है तो वह स्वयं तुम हो.’

‘मैं?’ सीधेसीधे अपने को अपराधी पा रवि अचकचा उठा था. ‘हां, तुम उन दोनों के बीच एक दीवार बन कर खड़े हो. कुछ करने का मौका ही कहां देते हो. आखिर वह तुम्हारी पत्नी है, वह तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, लेकिन तुम हो कि अपनी बहन के आते ही उस के पूरे के पूरे व्यक्तित्व को ही नकार देते हो,’ पिताजी सांस लेने के लिए तनिक रुके थे.

रवि सिर झुकाए चुप बैठा किसी सोच में डूबा सा था. ‘बेटा, मुझे बहुत खुशी है कि तुम्हारी दीदी और तुम में इतना स्नेह है. भाईबहन से कहीं अधिक तुम दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त हो, पर अपनी दोस्ती की सीमाओं को बढ़ाओ. अब चंद्रिका को भी इस में शामिल कर लो. यह उस का भी घर है. उसे तय करने दो कि वह अपने मेहमान का कैसे स्वागत करती है. विश्वास मानो, इस से तुम सब के बीच से तनाव और गलतफहमियों के बादल छंट जाएंगे. और तुम सब एकदूसरे के अधिक पास आ जाओगे.’

‘‘अंदर कितनी देर लगाओगे?’’ चंद्रिका की आवाज सुन वह चौंक उठा, ‘अरे, इतनी देर से मैं बाथरूम में ही बैठा हूं.’ झटपट नहा कर वह बाहर निकल आया. चाय और गरमागरम नाश्ते की प्लेट उस का इंतजार कर रही थी. इस दौरान वे खामोश ही रहे. जूठे कप व प्लेटें समेटती चंद्रिका की हैरत यह देख और बढ़ गई कि रवि पत्र को हाथ लगाए बगैर ही एक पत्रिका पढ़ने लगा है.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ चंद्रिका का चिंतित चेहरा देख कर अपनी हंसी को रवि ने मुश्किल से रोका, ‘‘हां, ठीक है, क्यों?’’ ‘‘फिर अभी तक दीदी का पत्र क्यों नहीं पढ़ा?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में वह लापरवाही से बोला, ‘‘तुम ने तो पढ़ा ही होगा, खुद ही बता दो, क्या लिखा है?’’

‘‘वे कल दोपहर की गाड़ी से आ रही हैं.’’ ‘‘अच्छा,’’ कह वह फिर पत्रिका पढ़ने में मशगूल हो गया. कुछ देर तक चंद्रिका वहीं खड़ी गौर से उसे देखती रही, फिर कमरे से बाहर निकल गई.

दूसरे दिन रविवार था. सुबहसुबह रवि को अखबार में खोया पा कर चंद्रिका बहुत देर तक खामोश न रह सकी, ‘‘दीदी आने वाली हैं. तुम्हें कुछ खयाल भी है?’’ ‘‘पता है,’’ अखबार में नजरें जमाए हुए ही वह बोला.

‘‘खाक पता है,’’ चंद्रिका झुंझला उठी थी, ‘‘कुछ सामान वगैरह लाना है या नहीं?’’ ‘‘घर तुम्हारा है, तुम जानो,’’ उस की झुंझलाहट पर वह खुद मुसकरा उठा.

कुछ देर तक उसे घूरने के बाद पैर पटकती हुई चंद्रिका थैला और पर्स ले बाहर निकल गई. ?जब वह लौटी तो भारी थैले के साथ पसीने से तरबतर थी. रवि आश्चर्यचकित था. वह दीदी की पसंद की एकएक चीज छांट कर लाई थी.

‘‘दोपहर के खाने में क्या बनाऊं?’’ सवालिया नजरों से उसे देखते हुए चंद्रिका ने पूछा. ‘‘तुम जो भी बनाओगी, लाजवाब ही होगा. कुछ भी बना लो,’’ रवि की बात सुन चंद्रिका ने उसे यों घूर कर देखा, जैसे उस के सिर पर सींग उग आए हों.

दोपहर से काफी पहले ही वह खाना तैयार कर चुकी थी. रवि की तेज नजरों ने देख लिया था कि सभी चीजें दीदी की पसंद की ही बनी हैं. वास्तव में वह मन ही मन पछता भी रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि उस के बचकाने व्यवहार की वजह से ही दीदी और चंद्रिका इतने समय तक अजनबी बन परेशान होती रहीं.

‘‘ट्रेन का टाइम हो रहा है. स्टेशन जाने के लिए कपड़े निकाल दूं?’’ चंद्रिका अपने अगले सवाल के साथ सामने खड़ी थी. अपने को व्यस्त सा दिखाता रवि बोला, ‘‘उन्हें रास्ता तो पता है, औटो ले कर आ जाएंगी.’’ ‘‘तुम्हारा दिमाग तो सही है?’’ बहुत देर से जमा हो रहा लावा अचानक ही फूट कर बह निकला था, ‘‘पता है न कि वे अकेली आ रही हैं. लेने नहीं जाओगे तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. आखिर, तुम्हें हुआ क्या है?’’

‘‘अच्छा बाबा, जाता हूं, पर एक शर्त पर, तुम भी साथ चलो.’’ ‘‘मैं?’’ हैरत में पड़ी चंद्रिका बोली, ‘‘मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी.’’

‘‘फिर मैं भी नहीं जाता.’’ उसे अपनी जगह से टस से मस न होते देख आखिर, चंद्रिका ने ही हथियार डाल दिए, ‘‘अच्छा उठो, मैं भी चलती हूं.’’

चंद्रिका को साथ आया देख दीदी पहले तो हैरत में पड़ीं, फिर खिल उठीं. शायद पिछली बार के कटु अनुभवों ने उन्हें भयभीत कर रखा था. स्टेशन पर चंद्रिका को भी देख एक पल में सारी शंकाएं दूर हो गईर्ं. वे खुशी से पैर छूने को झुकी चंद्रिका के गले से लिपट गईं.

रवि सोच रहा था, इतनी अच्छी तरह से तो वह घर में भी कभी नहीं मिली थी. ‘‘किस सोच में डूब गए?’’ दीदी का खिलखिलाता स्वर उसे गहरे तक खुशी से भर गया. सामान उठा वह आगेआगे चल दिया. चंद्रिका और दीदी पीछेपीछे बतियाती हुई आ रही थीं.

खाने की मेज पर भी रवि कम बोल रहा था. चंद्रिका ही आग्रह करकर के दीदी को खिला रही थी. हर बार चंद्रिका के अबोलेपन की स्थिति से शायद माहौल तनावयुक्त हो उठता था, इसीलिए दीदी अब जितनी सहज व खुश लग रही थीं, उतनी पहले कभी नहीं लगी थीं. खाने के बाद वह उठ कर अपने कमरे में आ गया. वे दोनों बहुत देर तक वहीं बैठी बातों में जुटी रहीं. कुछ देर बाद चंद्रिका कमरे में आ कर दबे स्वर में बोली, ‘‘यहां क्यों बैठे हो? जाओ, दीदी से कुछ बातें करो न.’’

‘‘तुम हो न, मैं कुछ देर सोऊंगा…’’ कहतेकहते रवि ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. रात के खाने की तैयारी में चंद्रिका का हाथ बंटाने के लिए दीदी भी रसोई में ही आ गईं. रवि टीवी खोल कर बैठा था.

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