Serial Story: कल पति आज पत्नी (भाग-1)

25 जून की मध्य रात्रि. समय लगभग साढ़े 3 बजे का था. वैद्यराज दीनानाथ शास्त्री अपनी पत्नी सुशीला देवी के साथ इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एअरपोर्ट पर बैठे कैलिफोर्निया से आने वाली उड़ान का इंतजार कर रहे हैं. जहाज के आने का समय 4 बजे का है. अनाउंसमैंट हो चुका है कि फ्लाइट ठीक समय पर आ रही है.

पतिपत्नी अपने इकलौते बेटे कमलदीप और उस की पत्नी के आने का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. बेटा कमलदीप 4 साल पहले कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट औफ फैशन डिजाइनिंग में पढ़ने गया था. पहली बार तो बेटा 6 महीने बाद ही आ गया था. दूसरी बार 1 साल बाद आया तो उस के रंगढंग काफी बदले हुए थे. वह बातें करता तो हिंदी कम और अमेरिकन अंगरेजी का मिश्रण ज्यादा होता. उस पर आधेआधे शब्दों का उच्चारण, जो कम ही समझ में आता. रंगीले भड़कदार अजीबोगरीब सी बनावट के कपड़े, बिना बांहों की शर्ट और कमर के नीचे की जीन्स, घुटनों से नीची और टखनों से ऊपर. सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल, आंखों में काजल तथा कानों में छोटीछोटी बालियां. बात करते हुए हाथों का इशारा, गरदन का हिलाना और आंखों का मटकाना, इसी के साथ चाल में अजीब सी मस्ती.

बेटे का हुलिया और चालढाल देख कर वैद्यजी को कुछ अच्छा नहीं लगा, लेकिन यही सोच कर चुप रह गए कि चलो, एक और साल की ही तो बात है, कोर्स पूरा होने पर जब लौट कर घर आएगा तो धीरेधीरे यहां के रीतिरिवाजों में ढल कर ठीक हो जाएगा.

वैसे भी कमलदीप को मजबूरी में ही बाहर पढ़ने के लिए भेजना पड़ा था. 19 साल की उम्र तक विभिन्न कक्षाओं में 3 बार फेल होने के बाद वह सैकंड डिवीजन से इंटर की परीक्षा पास कर पाया था. मथुरा के आसपास ही नहीं, बल्कि दूरदराज के भी किसी कालेज में उसे दाखिला न मिलने की वजह से वैद्यजी को बेटे के भविष्य की चिंता थी. पढ़ाई में उस की कोई खास दिलचस्पी तो थी नहीं, बस लोकल ड्रामा कंपनियों के साथ रह कर तरहतरह के नाटकों में ज्यादातर लड़कियों की भूमिकाएं करने में उसे मजा आता था.

मथुरावृंदावन के सालाना जलसों में कृष्ण की रासलीला में राधा की भूमिका पर पिछले 3 साल से उस का एकाधिकार था. शहर के लोग वैद्यजी को बधाई देते हुए कमलदीप के अभिनय की तारीफ करते थे. मगर वैद्यजी को बेटे के रंगढंग देखते हुए उस के भविष्य की चिंता बनी रहती थी.

स्कूल में भी कमलदीप खाली समय में अपने साथियों के बीच लड़कियों की सी हरकतें तथा सिनेमा की नायिकाओं की नकल करता. अब तो उस का ज्यादातर समय किसी न किसी नाटक में अभिनय के बहाने रासलीला की रिहर्सल में बीतने लगा था. वैद्यजी का माथा तो तब ठनका जब उन्होंने बेटे को घर के पिछवाड़े  प्रेमिका के रूप में दूसरे लड़के के साथ रासक्रीड़ा की विभिन्न मुद्राओं में मग्न देखा.

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उस घटना के बाद से वैद्यजी का मन व्याकुल था. तभी उन्होंने अगले दिन अखबारों में बड़ेबड़े विज्ञापन देखे कि दिल्ली के होटल अशोका में विश्वस्तर के कालेजों तथा विश्वविद्यालयों का मेला लग रहा है जिस में कौन्फ्रैंस, सेमिनार तथा काउंसलिंग के जरिए बच्चों के इंटरव्यू होंगे और उन को विदेशों में उच्च शिक्षा में ऐडमिशन मिलेगा.

वैद्यजी ने सोचा कि बेटा विदेश जा कर कुछ पढ़ाईलिखाई करेगा तो एक तो उस का कैरियर बन जाएगा और वहां उस का यह छिछोरापन भी धीरेधीरे समाप्त हो जाएगा. यही सोच कर वैद्यजी ने तुरंत कमलदीप को साथ ले कर दिल्ली चलने का फैसला किया.

काफी भागदौड़ के बाद कैलिफोर्निया के इंस्टिट्यूट औफ फैशन डिजाइनिंग में एक स्थानीय एजेंट ने उस के ऐडमिशन के लिए हां कर दी. ऐडमिशन की फीस, वीजा, जाने का खर्च और 1 साल की फीस तथा रहनेखाने का खर्च आदि मिला कर लगभग 12 लाख रुपए जमा कराने थे. वैद्यजी को रकम भारी तो लगी, मगर बेटे के भविष्य और उस के कैरियर की खातिर ऐडमिशन की तैयारी शुरू हो गई. डेढ़ महीने बाद बेटा फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने अमेरिका चला गया.

जहाज आ चुका था, अत: दोनों पतिपत्नी बाहर जा कर रेलिंग के सहारे खड़े हो गए. यात्रियों का आना शुरू हो गया था.

वैद्यजी पत्नी के साथ भीड़ में बहूबेटे को टटोल रहे थे कि पंडिताइन कुछ बेचैन सी घबराहट के साथ बोलीं कि आप ही ध्यान रखिए, मैं तो शायद उसे पहचान भी नहीं पाऊंगी. पिछले ढाई साल में अपना कमलदीप कितना बदल गया होगा. पंडितजी थोड़ा कटाक्ष से बोले, ‘‘तुम मां हो. अपने बेटे को नहीं पहचान पाओगी तो और कौन पहचानेगा? फिर भी कोई हिंदुस्तानी लड़का किसी गोरी अंगरेजन के साथ आता दिखाई दे तो समझ लेना कि तुम्हारा कमल ही होगा.’’

6 महीने पहले ही कमलदीप ने मां को बताया था कि वह 1 साल से किसी संस्था के साथ काम कर रहा है और एक घनिष्ठ मित्र के साथ ही एक कमरे के फ्लैट में रहता है. उसी के साथ उस ने पिछले महीने शादी भी कर ली है. उस का नाम जैक है और वह स्वीडन से है. दोनों का पिछले 1 साल में विदेशों में भी काफी आनाजाना रहा है. अभी तक कनाडा, आस्ट्रेलिया, स्वीडन, स्पेन तथा यूरोप आदि के दौरे कर चुके हैं.

मातापिता भी यह सोच कर संतुष्ट थे कि शायद किसी अच्छे ओहदे पर बेटा काम कर रहा होगा क्योंकि एकडेढ़ साल में उस ने कोई रुपया नहीं मंगाया. अपना खर्च स्वयं चला रहा है और विदेशों में भी उस का काफी घूमनाफिरना रहता है. अत: बेटा अपने पैरों पर खड़ा है और शायद कामकाज की व्यस्तता के कारण ज्यादा बात नहीं कर पाता.

बस, 3 दिन पहले ही उस का टैलीफोन आया था कि एक हफ्ते के लिए वे दोनोें दिल्ली आ रहे हैं. दिल्ली में औल इंडिया कौन्फ्रैंस है तथा जरूरी मीटिंग्स अटैंड करनी हैं. अत: 1 दिन से ज्यादा वह उन के साथ नहीं रह पाएगा. आगे का कार्यक्रम वहीं पर डिसाइड होगा कि उन्हें कहांकहां जाना है और क्याक्या करना है.

आने वाले यात्रियों की जैसेजैसे भीड़ छंट रही थी, मातापिता की बेचैनी भी उसी तरह बढ़ रही थी. पंडिताइन रोंआसी सी आवाज में बोलीं, ‘‘बस जी, बहुत हो चुका, अब नहीं भेजना है उसे वापस. बहुत रह चुका विदेश में, दुनिया घूम चुका है. अब तो शादी भी कर ली है. बस, यहीं रहेगा, बहू के साथ, हमारे पास. आगे बच्चे होंगे, परिवार बढ़ेगा. कैसे संभालेंगे बच्चों को अकेले रह कर विदेश में, यहां किसी चीज की कमी नहीं है हमारे पास. बस, यहीं रहेगा और जो कुछ भी करना है करे, मगर करेगा यहीं रह कर.’’

वैद्यजी भी खामोशी में ऐसा ही कुछ सोच रहे थे कि पंडिताइन की हालत देख कर उन का भी दिल पसीज गया. अपनेआप को संभाला और पंडिताइन को सहारा दिया कि एकाएक 2 लड़के सामने से आते हुए वैद्यजी को दिखाई दिए जो थोड़ी दूर पर हंसते- खिलखिलाते से मस्ती के साथ अजीब से रंगरंगीले पहनावे में थे.

वैद्यजी बड़े उल्लास भरे स्वर में पंडिताइन से बोले, ‘‘लो, देखो, लगता है कि तुम्हारा लाल कमलदीप आ गया,’’ वैद्यजी थोड़ा और रुक कर बोले, ‘‘लेकिन इस के साथ तो कोई अंगरेज लड़का है. बहूरानी जैसी तो कोई उस के साथ दिखाई नहीं दे रही.’’

अपना चश्मा ठीक करती पंडिताइन बोलीं, ‘‘वह क्या कोई साड़ीलहंगा पहन कर आएगी यहां. आजकल तो सारे एक जैसे ही कपड़े पहनते हैं. लड़का हो या लड़की, सब एक जैसे लगते हैं. पहननेओढ़ने में, चालढाल में, बातचीत करने में और फिर उस की बहू तो अंगरेज है. आजकल तो कई बार लड़के और लड़की में कोई फर्क पता ही नहीं लगता.’’

देखते ही देखते दोनों थोड़ा और पास आ गए. कमलदीप ने अपने मातापिता को इंतजार करते हुए देख लिया और भागते हुए उन के पास आ गया. अपने साथी को वहीं छोड़ कर ऊंचे स्वर में कमलदीप दूर से ही चिल्लाया, ‘‘हाय डैड, हाय मौम. व्हाट हैपैंड टू यू, लुक टु बी वैरी सीरियस. आर यू औल राइट मौम. कम औन, आई एम हियर,’’ और कहतेकहते कमलदीप रेलिंग से बाहर आ गया.

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पिताजी का आशीर्वाद और मां का प्यार बांधे रहा उसे थोड़ी देर. धीरेधीरे लग रहा था कि कमलदीप कितना बदल गया है. एक सभ्य घराने का लड़का और बोलचाल में, पहनावे में और चालढाल में लड़कियों जैसी हरकत करता है तथा कूल्हे मटकाते हुए हिजड़ों जैसी चाल चलता है. उस का जिप्सियों जैसा पहनावा, अजीबअजीब से रंगीन छोटेबड़े, ऊंचेनीचे कपड़े, कानों में बालियां, हाथों में मोटे कड़े, रंगीन चूडि़यों के साथ और गले में रंगीन रस्सियों की माला जिस में तरहतरह के रंगबिरंगे पत्थर गुथे हुए थे.

पंडिताइन से रहा नहीं गया तो बोलीं कि यह क्या हुलिया बनाया हुआ है तू ने? यह लड़कियों वाला भेष बना कर आया है तू यहां. कमलदीप बोला, ‘‘अरे, क्या मौम आप का वही पुराना घिसापिटा सा कल्चर, यू नो दिस इज द यूनीसैक्स ड्रैस-लेटैस्ट इन फैशन. यानी लड़के हों या लड़कियां अब सभी एक सी ही ड्रैस से काम चला लेते हैं.’’

वैद्यजी कुछ झिझकते हुए से बोले, ‘‘बेटा…लेकिन लेटैस्ट में लड़का लड़की तो नहीं बन जाता या वह भी है?’’

‘‘ओ, डैड यू आर ग्रेट. यू सीम टू अंडरस्टैंड एवरीथिंग वैरी क्विकली.’’

माताजी से रुका नहीं जा रहा था अत: बात बीच में ही काटते हुए कुछ संकुचित सी हो कर बोलीं, ‘‘तू ने तो शादी कर ली है न. कहां है बहू, तू लाने वाला था न अपने साथ.’’

‘‘ओ यैस, आई विल गिव यू ए बिग सरप्राइज. आई एम ट्र ू टू माई वर्ड्स,’’ और कहतेकहते उस ने अपने साथी जैक को आवाज दी, ‘‘कम हियर एंड मीट दैम, शी इज माई मौम एंड मीट माई डैड.’’

पंडिताइन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बहू के नाम पर यह किस से मिला रहा है उन का बेटा.

सामने जैक खड़ा था. और वह भारतीय सभ्यता की नकल करता हुआ हाथ जोड़ते हुए बोला, ‘‘हाय, डैड एंड मौम. आई एम जैक, योअर सन इन ला.’’ लेकिन जब उस ने आगे कहा, ‘‘होप यू लाइक मी टु बी द हसबैंड औफ योर सन के.डी.’’ उस की बात को आगे बढ़ाते हुए डिटेल में समझाते हुए कमलदीप ने कहा कि हम ने 6 महीने पहले ही कैलिफोर्निया कोर्ट में शादी की है. इट इज ए कौंट्रैक्चुअल मैरिज और कौंट्रैक्ट के अनुसार, हर 6 महीने बाद हमारे रिश्ते यानी कि हसबैंड और वाइफ के रिश्ते बदल जाते हैं. यानी शादी के समय जैक मेरी पत्नी थी और मैं उस का पति लेकिन पिछले 2 हफ्ते से जैक मेरा पति है और मैं इस की पत्नी.

यह सब कमलदीप एक ही सांस में कह गया, अमेरिकन अंगरेजी के साथ हिंदी में भी. मातापिता को दोनों की बातें सुन कर बड़ा अटपटा सा लगा. क्या बोल रहा है यह, कहीं कोई मजाक तो नहीं कर रहा है? वैद्यजी बड़े असमंजस में थे कि पंडिताइन बोलीं, ‘‘देखा आप ने, कैसा मजाक कर रहा है यह मांबाप के साथ. अमेरिका में क्या रहा कि सारी शर्म, मानमर्यादा, बड़ों का सम्मान सभी कुछ खो दिया इस ने, पता नहीं इस को कि बड़ों से ऐसा मजाक नहीं करते. समझाइए इसे आप ही, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

वैद्यजी संभलते हुए बोले कि चलो, बहुत हो चुका मजाक, अब बताओ कि यह तुम्हारे साथ जैक कौन है, कहां से आया है और बहूरानी कहां है?

‘‘आई एम सीरियस डैड…आप क्या समझते हैं कि मैं आप से कोई मजाक करूंगा. दिस इज ट्रू, ही इज माई हसबैंड एंड आई एम हिज वाइफ सिंस लास्ट टू वीक्स. बिफोर दैट आई वाज हसबैंड एंड ही यूज्ड टु बी माई वाइफ,’’ कमलदीप यह सब कहता जा रहा था और वैद्यजी का पारा चढ़ता जा रहा था. चेहरा तमतमाने लगा, जिसे देख कर पंडिताइन ने भांप लिया कि कुछ गड़बड़ है जिसे वैद्यजी सहन नहीं कर पा रहे हैं. अत: पंडिताइन अपने पति का साथ देते हुए काफी उत्तेजित स्वर में बोलीं, ‘‘के.डी., ठीठीक क्यों नहीं बताता कि आखिर बात क्या है. पहेलियां बुझाना बंद कर और साफसाफ बता कि माजरा क्या है?’’

के.डी. हक्काबक्का सा सोच रहा था कि किन शब्दों में बताए इन को? पंडितजी के.डी. की बांह पकड़ कर पूरी ताकत से उसे झकझोरते हुए बोले, ‘‘यह नालायक क्या बताएगा तुम्हें, लड़की बन कर आया है तुम्हारे पास. यह कह रहा है कि जैक से उस ने शादी की है, वह इस का पति है और यह तुम्हारा लाड़ला इस की पत्नी.’’

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पति के मुंह से यह सुनते ही पंडिताइन भी बौखला गईं और अपनी भरीभरी आवाज में चिल्लाईं, ‘‘बोलता क्यों नहीं कि यह सब झूठ है, क्या तू लड़का हो कर इस गधे की पत्नी बन कर रहेगा.’’

– क्रमश:

घमंडी: जब पति ने पत्नी पर लगाया चरित्रहीन होने का आरोप

Serial Story: घमंडी (भाग-1)

‘‘यह चांद का टुकड़ा कहां से ले आई बहू?’’ दादी ने पोते को पहली बार गोद में ले कर कहा था,  ‘‘जरा तो मेरे बुढ़ापे का खयाल किया होता. इस के जैसी सुंदर बहू कहां ढूंढ़ती फिरूंगी.’’

कालेज तक पहुंचतेपहुंचते दादी के ये शब्द मधुप को हजारों बार सुनने के कारण याद हो गए थे और वह अपने को रूपरंग में अद्वितीय समझने लगा था. पापा का यह कहना कि सुंदर और स्मार्ट लगने से कुछ नहीं होगा, तुम्हें पढ़ाई, खेलकूद में भी होशियारी दिखानी होगी, भी काम कर गया था और अब वह एक तरह से आलराउंडर ही बन चुका था और अपने पर मर मिटने को तैयार लड़कियों में उसे कोईर् अपने लायक ही नहीं लगती थी. इस का फायदा यह हुआ कि वह इश्कविश्क के चक्कर से बच कर पढ़ाई करता रहा. इस का परिणाम अच्छा रहा और आईआईटी और आईआईएम की डिगरियां और बढि़या नौकरी आसानी से उस की झोली में आ गिरी. लेकिन असली मुसीबत अब शुरू हुई थी. शादी पारिवारिक, सामाजिक और शारीरिक जरूरत बन गई थी, लेकिन न खुद को और न ही घर वालों को कोई लड़की पसंद आ रही थी. अचानक एक शादी में मामा ने दूर से कशिश दिखाई तो मधुप उसे अपलक देखता रह गया. तराशे हुए नैननक्श सुबह की लालिमा लिए उजला रंग और लंबा कद. बचपन से पढ़ी परी कथा की नायिका जैसी.

‘‘पसंद है तो रिश्ते की बात चलाऊं?’’ मां ने पूछा. मधुप कहना तो चाहता था कि चलवानेवलवाने का चक्कर छोड़ कर खुद ही जा कर रिश्ता मांग लोे, लेकिन हेकड़ी से बोला,  ‘‘शोकेस में सजाने के लिए तो ठीक है, लेकिन मुझे तो बीवी चाहिए अपने मुकाबले की पढ़ीलिखी कैरियर गर्ल?’’

‘‘कशिश क्वालीफाइड है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में सैक्रेटरी है. अब तुम उसे अपनी टक्कर के लगते हो या नहीं यह मैं नहीं कह सकता,’’ मामा ने मधुप की हेकड़ी से चिढ़ कर नहले पर दहला जड़ा.

खिसियाया मधुप इतना ही पूछ सका,  ‘‘आप यह सब कैसे जानते हैं?’’

‘‘अकसर मैं रविवार को इस के पापा के साथ गोल्फ खेल कर लंच लेता हूं. तभी परिवार के  बारे में बातचीत हो जाती है.’’

‘‘आप ने उन को मेरे बारे में बताया?’’

‘‘अभी तक तो नहीं, लेकिन वह यहीं है, चाहो तो मिलवा सकता हूं?’’

कहना तो चाहा कि पूछते क्यों हैं, जल्दी से मिलवाइए, पर हेकड़ी ने फिर सिर उठाया,  ‘‘ठीक है, मिल लेते हैं, लेकिन शादीब्याह की बात आप अभी नहीं करेंगे.’’

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‘‘मैं तो कभी नहीं करूंगा, परस्पर परिचय करवा कर तटस्थ हो जाऊंगा,’’ कह कर मामा ने उसे डाक्टर धरणीधर से मिलवा दिया. जैसा उस ने सोचा था, धरणीधर ने तुरंत अपनी बेटी कशिश और पत्नी कामिनी से मिलवाया और मधुप ने उन्हें अपने मम्मीपापा से. परिचय करवाने वाले मामा शादी की भीड़ में न जाने कहां खो गए. किसी ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश भी नहीं की. चलने से पहले डा. धरणीधर ने उन लोगों को अगले सप्ताहांत डिनर पर बुलाया जिसे मधुप के परिवार ने सर्हष मान लिया. मधुप की बेसब्री तो इतनी बढ़ चुकी थी कि 3 रोज के बाद आने वाला सप्ताहांत भी बहुत दूर लग रहा था और धरणीधर के घर जा कर तो वह बेचैनी और भी बढ़ गई. कशिश को खाना बनाने, घर सजाने यानी जिंदगी की हर शै को जीने का शौक था. ‘‘इस का कहना है कि आप अपनी नौकरी या व्यवसाय में तभी तरक्की कर सकते हो जब आप उस से कमाए पैसे का भरपूर आनंद लो. यह आप को अपना काम बेहतर करने की ललक और प्रेरणा देता है,’’ धरणीधर ने बताया,  ‘‘अब तो मैं भी इस का यह तर्क मानने लग गया हूं.’’

उस के बाद सब कुछ बहुत जल्दी हो गया यानी सगाई, शादी. मधुप को मानना पड़ा कि कशिश बगैर किसी पूर्वाग्रह के जीने की कला जानती यानी जीवन की विभिन्न विधाओं में तालमेल बैठाना. न  तो उसे अपने औफिस की समस्याओं को ले कर कोई तनाव होता और न ही किसी घरेलू नौकर के बगैर बताए छुट्टी लेने पर यानी घर और औफिस सुचारु रूप से चला रही थी. मधुप को भी कभी आज नहीं, आज बहुत थक गई हूं कह कर नहीं टाला था.

समय पंख लगा कर उड़ रहा था. शादी की तीसरी सालगिरह पर सास और मां ने दादीनानी बनाने की फरमाइश की. कशिश भी कैरियर में उस मुकाम पर पहुंच चुकी थी जहां पर कुछ समय के लिए विराम ले सकती थी. मधुप को भी कोई एतराज नहीं था. सो दोनों ने स्वेच्छा से परिवार नियोजन को तिलांजलि दे दी. लेकिन जब साल भर तक कुछ नहीं हुआ तो कशिश ने मैडिकल परीक्षण करवाया. उस की फैलोपियन ट्यूब में कुछ विकार था, जो इलाज से ठीक हो सकता था. डा. धरणीधर शहर की जानीमानी स्त्रीरोग विशेषज्ञा डा. विशाखा से अपनी देखरेख में कशिश का उपचार करवाने लगे. प्रत्येक टैस्ट अपने सामने 2 प्रयोगशालाओं में करवाते थे.

उस रात कशिश और मधुप रात का खाना खाने ही वाले थे कि अचानक डा. धरणीधर और कामिनी आ गए. डा. धरणीधर मधुप को बांहों में भर कर बोले,  ‘‘साल भर पूरा होने से पहले ही मुझे नाना बनाओ. आज की रिपोर्ट के मुताबिक कशिश अब एकदम स्वस्थ है सो गैट सैट रैडी ऐंड गो मधुप. मगर अभी तो हमारे साथ चलो, कहीं जश्न मनाते हैं.’’

‘‘आज तो घर पर ही सैलिब्रेट कर लेते हैं पापा,’’ कशिश ने शरमाते हुए कहा, ‘‘बाहर किसी जानपहचान वाले ने वजह पूछ ली तो क्या कहेंगे?’’

‘‘वही जो सच है. मैं तो खुद ही आगे बढ़ कर सब को बताना चाह रहा हूं. मगर तुम कहती हो तो घर पर ही सही,’’ धरणीधर ने मधुप को छेड़ा, ‘‘नाना बनने वाला हूं, उस के स्तर की खातिर करो होने वाले पापाजी.’’

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डा. धरणीधर देर रात आने वाले मेहमानों के आगमन की तैयारी की बातें करते रहे. कामिनी ने याद दिलाया कि घर चलना चाहिए, सुबह सब को काम पर जाना है, वे नाना बनने वाले हैं इस खुशी में कल छुट्टी नहीं है.

‘‘पापा, आप के साथ ड्राइवर नहीं है. आप अपनी गाड़ी यहीं छोड़ दें. सुबह ड्राइवर से मंगवा लीजिएगा. अभी आप को हम लोग घर पहुंचा देते हैं,’’ मधुप ने कहा.

‘‘तुम लोग तो अब बेटाजी, तुरंत आने वाले मेहमान को लाने की तैयारी में जुट जाओ. हमारी फिक्र मत करो. गाड़ी क्या आज तो मैं हवाईजहाज भी चला सकता हूं,’’ धरणीधर जोश से बोले.

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Serial Story: घमंडी (भाग-3)

‘‘उस का तो अब सवाल ही नहीं उठता, तुम्हारे 7 या 70 खून भी माफ,’’ मधुप हंसा. मगर उस के स्वर में क्षमायाचना या पश्चात्ताप नहीं था. समझ तो गया कि कशिश को तलाक के कागज मिल गए हैं और यह कह कर कि अब उस का सवाल ही नहीं उठता, उस ने बात भी खत्म कर दी थी व कशिश को उस की गुस्ताखी और औकात की याद भी दिला दी थी. यों तो उसे वकील से भी संपर्क करना चाहिए था पर इस से अहं को ठेस लगती. कशिश से जवाब न मिलने पर जब वकील उस से अगले कदम के बारे में पूछेगा तो कह देगा कशिश ने भूल सुधार ली है.

मधुप को कशिश के औफिस जाने पर तो एतराज नहीं था, लेकिन जबतब मम्मीपापा के घर जा कर कशिश का उदास होना उसे पसंद नहीं था. घर की देखभाल के लिए जाना भी जरूरी था, नौकरों के भरोसे तो छोड़ा नहीं जा सकता था. मधुप ने कशिश को समझाया कि क्यों न पापा के क्लीनिक संभालने वाले विधुर डा. सुधीर से कोठी में ही रहने को कहें. सुन कर कशिश फड़क उठी जैसे किसी बहुत बड़ी समस्या का हल मिल गया हो. उस के बाद कशिश पूर्णतया सहज और तनावमुक्त हो गई.

‘‘आज मैं औफिस नहीं जाऊंगी, घर पर रह कर छोटेमोटे काम करूंगी जैसे कपड़ों की अलमारी में आने वाले महीनों में जो नहीं पहनने हैं उन्हें सहेज कर रखना और जो ढीले हो सकते हैं उन्हें अलग रखना वगैरह,’’ एक रोज कशिश ने बड़े सहज भाव से कहा, ‘‘फिक्र मत करो, थकाने वाला काम नहीं है और फिर घर पर ही हूं. थकान होगी तो आराम कर लूंगी.’’

मधुप आश्वस्त हो कर औफिस चला गया. जब वह लंच के लिए घर आया तो कशिश घर पर नहीं थी. नौकर ने बताया कि कुछ देर पहले गाड़ी में सामान से भरे हुए कुछ बैग और सूटकेस ले कर मैडम बाहर गई हैं.

‘‘यह नहीं बताया कि कब आएंगी या कहां गई हैं?’’

‘‘नहीं साहब.’’

जाहिर था कि सामान ले कर कशिश अपने पापा के घर ही गई होगी. मधुप ने फोन करने के बजाय वहां जाना बेहतर समझा. ड्राइव वे में कशिश की गाड़ी खड़ी थी. उस की गाड़ी को देखते ही बजाय दरवाजा खेलने के चौकीदार ने रुखाई से कहा, ‘‘बिटिया ने कहा है आप को अंदर नहीं आने दें.’’

तभी अंदर से डा. सुधीर आ गया. बोला, ‘‘कशिश से अब आप का संपर्क केवल अपने वकील द्वारा ही होगा सो आइंदा यहां मत आइएगा.’’

‘‘कैसे नहीं आऊंगा… कशिश मेरी बीवी है…’’

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‘‘वही बीवी जिसे आप ने बदचलनी के आरोप में तलाक का नोटिस भिजवाया है?’’ सुधीर ने व्यंग्य से बात काटी, ‘‘आप अपने वकील से कशिश की प्रतिक्रिया की प्रति ले लीजिए.’’

मधुप का सिर भन्ना गया. बोला, ‘‘मुझे कशिश को नोटिस भेजने की वजह बतानी है.’’

‘‘जो भी बताना है वकील के द्वारा बताइए. कशिश से तो आप की मुलाकात अब कोर्ट में ही होगी,’’ कह कर सुधीर चला गया. ‘‘आप भी जाइए साहब, हमें हाथ उठाने को मजबूर मत करिए,’’ चौकीदार ने बेबसी से कहा. मधुप भिनभिनाता हुआ अर्देशीर के औफिस पहुंचा.

‘‘आप की पत्नी भी बगैर किसी शर्त के आप को तुरंत तलाक देने को तैयार है सो पहली सुनवाई में ही फैसला हो जाएगा. हम जितनी जल्दी हो सकेगा तारीख लेने की कोशिश करेंगे,’’ अर्देशीर ने उसे देखते ही कहा.

‘‘मगर मुझे तलाक नहीं चाहिए. मैं अपने आरोप और केस वापस लेना चाहता हूं. आप तुरंत इस आशय का नोटिस कशिश के वकील को भेज दीजिए,’’ मधुप ने उतावली से कहा. अर्देशीर ने आश्चर्य और फिर दया मिश्रित भाव से उस की ओर देखा.

‘‘ऐसे मामलों को वकीलों द्वारा नहीं आपसी बातचीत द्वारा सुलझाना बेहतर होता है.’’

‘‘चाहता तो मैं भी यही हूं,

लेकिन कशिश मुझ से मिलने को ही तैयार नहीं है. आप तुरंत उस के वकील को केस और आरोप वापस लेने का नोटिस भिजवा दें.’’

‘‘इस से मामला बहुत बिगड़ जाएगा. कशिश की वकील सोनाली उलटे आप पर अपने क्लाइंट को बिन वजह परेशान करने और मानसिक संत्रास देने का आरोप लगा देगी.’’

‘‘कशिश की वकील सोनाली?’’

‘‘जी हां, आप उन्हें जानते हैं?’’

‘‘हां. कशिश की बहुत अच्छी सहेली है.’’‘‘तो आप उन से मिल कर समझौता कर लीजिए. वैसे भी हमारे लिए तो अब इस केस में करने के लिए कुछ रहा ही नहीं है,’’ अर्देशीर ने रुखाई से कहा.

मधुप तुंरत सोनाली के घर गया. उस की आशा के विपरीत सोनाली उस से बहुत अच्छी तरह मिली. ‘‘मैं बताना चाहता हूं कि मैं ने वह नोटिस कशिश को महज झटका देने को भिजवाया था. उसे अपनी गलती का एहसास करवाने को. उस के गर्भवती होने की खबर मिलते ही मैं ने उस से कहा भी था कि अब तलाक का सवाल ही नहीं उठता, तो बात को रफादफा करने के बजाय कशिश ने मामला आगे क्यों बढ़ाया सोनाली?’’

‘‘क्योंकि तुम ने उस के स्वाभिमान को ललकारा था मधुप या यह कहो उस पर अपनी मर्दानगी थोपनी चाही थी. यदि उसी समय तुम नोटिस भिजवाने के लिए माफी मांग लेते तो हो सकता था कि कशिश मान जाती. लेकिन तुम ने तो अपने वकील को भी नोटिस खारिज करने

को नहीं कहा, क्योंकि इस से तुम्हारा अहं आहत होता था. मानती हूं सर्वसाधारण से हट कर हो तुम, लेकिन कशिश भी तुम से 19 नहीं है शायद 21 ही होगी. फिर वह क्यों बनवाए स्वयं को डोरमैट, क्यों लहूलुहान करवाए अपना सम्मान?’’ सोनाली बोली.

‘‘मेरे चरित्रहीनता वाले मिथ्या आरोप को मान कर क्या वह स्वयं ही खुद पर कीचड़ नहीं उछाल रही?’’

‘‘नहीं मधुप, कशिश का मानना है कि विवाह एक पवित्र रिश्ता है, जो 2 प्यार करने वालोेंके बीच होना चाहिए. बगैर प्यार के शादी या एकतरफा प्यार में पतिपत्नी की तरह रहना लिव इन रिलेशनशिप से भी ज्यादा अनैतिक है, क्योंकि लिव इन में प्यार को परखने का प्रयास तो होता है, लेकिन एकतरफा प्यार अभिसार नहीं व्याभिचार है सो अनैतिक कहलाएगा और अनैतिक रिश्ते में रहने वाली स्त्री चरित्रहीन…’’

‘‘मगर कशिश का एकतरफा प्यार कैसे हो गया? वह अच्छी तरह जानती है कि मैं उसे कितनी शिद्दत से प्यार करता हूं,’’ मधुप ने बात काटी. ‘‘कशिश का कहना है कि तुम सिर्फ खुद से और खुद की उपलब्धियों से प्यार करते हो. कशिश जैसी ‘ब्रेन विद ब्यूटी’ कहलाने वाली बीवी भी एक उपलब्धि ही तो थी तुम्हारे लिए… अगर तुम्हें उस से वाकई में प्यार होता तो तुम उस के लिए चरित्रहीन जैसा घिनौना शब्द इस्तेमाल ही नहीं करते.’’

‘‘वह तो मैं ने कशिश के उकसाने पर ही किया था. खैर, अब बोलो आगे क्या करना है या तुम क्या कर सकती हो?’’

‘‘बगैर तुम्हारे आरोप की धज्जियां उड़ाए या तुम्हारे वकील को कशिश के चरित्र पर कीचड़ उछालने का मौका दिए, आपसी समझौते से तलाक दिलवा सकती हूं.’’

‘‘मगर मैं तलाक नहीं चाहता सोनाली.’’ ‘‘कशिश चाहती है और मैं कशिश की वकील हूं,’’ सोनाली ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘वही करूंगी जो वह चाहती है.’’

‘‘तो तलाक करवा दो, मगर इस शर्त पर कि मुझे अपने बच्चे को देखने का हक होगा.’’

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‘‘चरित्रहीन का आरोप लगाने के बाद तुम किस मुंह से यह शर्त रख सकते हो मधुप?’’ बच्चे के लिए यह तलाक हो जाने के बाद या तो तुम दूसरी शादी कर लेना या अपनी उपलब्धियों अथवा घमंड को पालते रहना बच्चे की तरह,’’ कह कर सोनाली व्यंग्य से हंस पड़ी.

‘‘सलाह के लिए शुक्रिया,’’ घमंडी मधुप इतना ही कह सका. पर उसे लग रहा था कि उस के पैरों में अभी जंजीरें पड़ी हैं. चांद का टुकड़ा तो वह था पर चांद का जिस पर न कोई जीवन है, न हवा, न पानी, बस उबड़खाबड़ गड्ढे हैं.

Serial Story: घमंडी (भाग-2)

उसी जोश में तेज गाड़ी भगाते हुए उन्होंने सड़क के किनारे खड़े ट्रक को इतनी जोर से टक्कर मार दी कि गाड़ी में तुरंत आग लग गई, जिस के बुझने पर राख में सिर्फ अस्थिपंजर और लोहे के भाग मिले. शेष सब कुछ पल भर में ही भस्म हो गया. कशिश तो इस हादसे से जैसे विक्षप्त ही हो गई थी. अकेली संतान होने के कारण समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे खुद को संभाले और कैसे मम्मीपापा द्वारा छोड़ी गई अपार संपत्ति को. मधुप उस के अथाह दुख को समझ रहा था और यथासंभव उस की सहायता भी कर रहा था, लेकिन कशिश को शायद उस दुख के साथ जीने में ही मजा आ रहा था. औफिस तो जाती थी, लेकिन मधुप और घर की ओर से प्राय: उदासीन हो चली थी. मधुप का संयम टूटने लगा था. एक रोज कशिश ने बताया कि उस ने वकील से पापा की संपत्ति का समाजसेवा संस्था के लिए ट्रस्ट बनाने को कहा था मगर उन का कहना है कि फिलहाल कोठी को किराए पर चढ़ा दो और पैसे को फिक्स्ड डिपौजिट में डालती रहो. कुछ वर्षों के बाद जब पापा के नातीनातिन बड़े हो जाएं तो उन्हें फैसला करने देना कि वे उस संपत्ति का क्या करना चाहते हैं.

‘‘बिलकुल ठीक कहते हैं वकील साहब. मम्मीपापा जीवित रहते तो यही करते और तुम्हें भी वही करना चाहिए जो मम्मीपापा की अंतिम इच्छा थी,’’ मधुप ने कहा.

‘‘अंतिम इच्छा क्या थी?’’

‘‘अपने नातीनातिन को जल्दी से दुनिया में बुलवाने की. हमें उन की यह इच्छा जल्दी से जल्दी पूरी करनी चाहिए,’’ मधुप ने मौका लपका और कशिश को अपनी बांहों में भर लिया.

कशिश कसमसा कर उस की बांहों से निकल गई. फिर बोली,  ‘‘मम्मीपापा के घर से निकलते ही तुम रात भर उन की यह इच्छा तो पूरी करने में लगे रहे थे और इसलिए बारबार बजने पर भी फोन नहीं उठाया था…’’

‘‘फोन उठा कर भी क्या होता कशिश?’’ मधुप ने बात काटी, ‘‘फोन तो सब

कुछ खत्म होने के बाद ही आया था.’’

‘‘हां, सब कुछ ही तो खत्म हो गया,’’ कशिश ने आह भर कर कहा.

‘‘कुछ खत्म नहीं हुआ कशिश, हम हैं न मम्मीपापा के सपने जीवित रखने को,’’ कह कर मधुप ने उसे फिर बांहों में भर लिया.

‘‘प्लीज मधुप, अभी मैं शोक में हूं.’’

‘‘कब तक शोक में रहोगी? तुम्हारे इस तरह से शोक में रहने से मम्मीपापा लौट आएंगे?’’

कशिश ने मायूसी से सिर हिलाया. फिर बोली, ‘‘मगर मुझे सिवा उन की याद में रहने के और कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

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‘‘मगर मुझे ब्रह्मचारी बन कर रहना अच्छा नहीं लग रहा. अपनी पुरानी जिंदगी के साथ ही मुझे अब बच्चा भी चाहिए, मधुप ने आजिजी से कहा.’’ ‘‘कहा न, मैं अभी उस मनोस्थिति में नहीं हूं.’’ ‘‘मनोस्थिति बनाना अपने हाथ में होता है कशिश. मैं अब बच्चे के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना चाहता. औलाद सही उम्र में होनी चाहिए ताकि अपनी सेवानिवृत्ति से पहले आप अपने बच्चों को जीवन में व्यवस्थित कर सकें,’’ मधुप ने समझाने के स्वर में कहा.

‘‘उफ, तो आप भी सोचने लगे हैं और वह भी बहुत दूर की,’’ कशिश व्यंग्य से बोली. मधुप तिलमिला गया. कशिश समझती क्या है अपने को? बजाय इस के कि उस के संयम और सहयोग की सराहना करे, कशिश उस का मजाक उड़ा रही है. बहुत हो गया, अब कशिश को उस की औकात बतानी ही पड़ेगी.

‘‘बेहतर रहेगा तुम भी ऐसा ही सोचने लगो,’’ मधुप ने भी उसी अंदाज में कहा.

‘‘अगर न सोचूं तो?’’ ‘‘तो मुझे मजबूरन तुम्हें तलाक दे कर औलाद के लिए दूसरी शादी करनी होगी. बहुत इंतजार कर लिया, अब मैं और मेरे मातापिता बच्चे के लिए और इंतजार नहीं कर सकते.’’

कशिश फिर व्यंग्य से हंस पड़ी, ‘‘यही वजह तलाक के लिए काफी नहीं होगी.’’ ‘‘जानता हूं और उंगली टेढ़ी करनी भी. तुम्हें चरित्रहीन साबित कर के आसानी से तलाक ले सकता हूं. फर्जी गवाह या फोटो तो 1 हजार मिलते हैं.’’ ‘‘तुम्हें तो उन की तलाश भी नहीं करनी पड़ेगी… मेरी तरक्की से जलेभुने बहुत लोग हैं, तुम जो चाहोगे उस से भी ज्यादा मुफ्त में कह देंगे,’’ कशिश के कहने के ढंग से मधुप भी हंस पड़ा.

तलाक की बात कशिश को बुरी तो बहुत लगी थी, लेकिन इस समय वह बात को बढ़ा कर एक और समस्या खड़ी नहीं करना चाहती थी सो उस ने बड़ी सफाईर् से बात बदल दी, ‘‘फोटो के जिक्र पर याद आया मधुप, आज के अखबार में तुम ने सुशील का फोटो देखा?’’

‘‘हां और उसे पेज थ्री पर आने के लिए बधाई भी दे दी,’’ मधुप हंसा, ‘‘कब से हाथपैर मार रहा था इस के लिए.’’ बात आईगई हो गई. 3-4 रोज के बाद कशिश अपनी अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही थी कि सैनेटरी नैपकिन के पैकेट पर नजर पड़ते ही वह चौंक पड़ी. 2 महीने से ज्यादा हो गए, उस ने उन का इस्तेमाल ही नहीं किया. इस की वजह अवसाद भी हो सकती है. मगर क्या पता खुशी दरवाजे पर दस्तक दे रही हो? उस ने तुरंत डा. विशाखा को फोन किया. कुछ काम निबटा कर वह डा. विशाखा के पास जाने को निकल ही रही थी कि कुरियर से जानेमाने वकील अर्देशीर द्वारा भिजवाया गया मधुप का तलाक का नोटिस मिला. कशिश का सिर घूम गया.

वह कुछ देर कुछ सोचती रही फिर मुसकरा कर बाहर आ गई. डा. विशाखा उस की जांच करने के बाद मोबाइल नंबर मिलाने लगीं, ‘‘बधाई हो मधुप, कशिश को 10 सप्ताह का गर्भ है. तुम तुरंत मेरे नर्सिंगहोम में पहुंचो, मैं तुम दोनों को एकसाथ कुछ सलाह दूंगी,’’ कह विशाखा कशिश की ओर मुड़ी, ‘‘अब तक सब ठीक रहा है, तो आगे भी ठीक रहेगा वाला रवैया नहीं चलेगा. तुम्हें अपना बहुत खयाल रखना होगा, जो तुम तो रखने से रहीं इसलिए मधुप को यह जिम्मेदारी सौपूंगी.’’

कशिश मुसकरा दी. उस मुसकराहट में छिपा विद्रूप और व्यंग्य डा. विशाखा ने नहीं देखा. मधुप से खुशी समेटे नहीं सिमट रही थी. बोला, ‘‘आप फिक्र मत करिए डा. विशाखा. मैं साए की तरह कशिश के साथ रहूंगा, लंबी छुट्टी ले लूंगा काम से.’’

‘‘मगर मैं तो जब तक जा सकती हूं, काम पर जाऊंगी,’’ कशिश ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘घर में बेकार बैठ कर बोर होने का असर मेरी सेहत पर पड़ेगा.’’

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‘‘वह तो है, जरूर काम पर जाओ मगर निश्चित समय पर खाओपीओ और आराम करो,’’ कह कर विशाखा ने दोनों को क्या करना है क्या नहीं यह बताया.

‘‘हम दोनों लंच के लिए घर आया करेंगे, फिर आराम करने के बाद कुछ देर के बाद जरूरी हुआ तो औफिस जाएंगे, फिर रात के खाने के बाद नियमित टहलने. इस में तुम कोईर् फेरबदल नहीं कारोगी,’’ मधुप ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘करूंगी तो तुम मुझे तलाक दे दोगे?’’ कशिश के स्वर में व्यंग्य था.

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Serial Story: खुद की तलाश (भाग-3)

लेखिका- नमिता दुबे

भले ही मानसी की अपनी पहचान थी, लेकिन शहर के सोशल सर्किल में मांपापा विभा के अभिभावक के रूप में मशहूर थे.

‘‘जानती हो विभा, जब मैं अकेले बैंगलुरु में रहती थी तब मु झे तुम से काफी ईर्ष्या होती थी. मैं तुम्हें देखदेख के कुंठित हो उठती थी.’’

‘‘क्या? मु झ से ईर्ष्या? मैं ने ऐसा क्या किया है दीदी जीवन में?’’ विभा ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘तुम ने जिंदगी में रिश्ते बनाए हैं विभा… यह हर किसी के बस की बात नहीं होती है. तुम में साहस है कि तुम अपनी परवाह किए बिना अपनेआप को पूर्णत: समर्पित कर दो. हां, मेरी आज अपनी एक पहचान है विभा, मैं ने यही पहचान सर्वथा चाही थी. तुम स्वयं से पूछो, क्या तुम्हें जीवन से वही चाहिए जो मु झे?’’

काफी देर शांत रहने के बाद विभा ने सिर ‘न’ में हिलाया, ‘‘फिर तुम मु झ से क्यों जलती थीं दीदी?’’ उस ने कुतुहल से पूछा.

‘‘बस तुम्हारी बातें सुनसुन कर… नित घूमनाफिरना, मिलनाजुलना. हालांकि ये सब सम झ में ज्यादा नहीं आता पर फिर भी तुम्हें देख ईर्ष्या होती थी.’’

‘‘मैं तो बिलकुल बच्ची थी, दीदी,’’ विभा ने एक दुखी मुसकान के साथ कहा.

‘‘मैं बहुत बाद में सम झी विभा,’’ मानसी ने विभा का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘मु झे ईर्ष्या तुम से नहीं थी. मु झे ईर्ष्या तुम्हारे जीवन से थी , इस बात से थी कि तुम ने जो जीवन से चाहा वह तुम्हें मिल गया पर जो मैं चाहती थी वह मु झ से काफी दूर था. इसलिए मैं ने मन कड़ा कर अपना सबकुछ अपने कैरियर को बनाने में दे दिया.’’

दोनों कुछ देर शांत रहीं. चांद आसमान में काफी ऊपर तक चढ़ गया था.

‘‘पर मु झे कहां कुछ मिला दीदी?’’ विभा ने थके स्वर में बोला.

‘‘हुआ क्या है विभा? किस बात ने इतना दुखी कर दिया है तुम्हें?’’ यह कह मानसी ने उसे गले लगा लिया.

बस इतने भर से उस के मन का बांध फूट पड़ा और वह 1-1 कर सब बताती चली गई…

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कैसे अभय के होने के कुछ वक्त बाद उस के ससुर, अशोकजी की तबीयत खराब होने लग गई. विभोर का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. छोटे बच्चे और पिता की बिगड़ती हालत के कारण उस ने अकेले ही वहां रहना उचित सम झा. विभा और उस की ननद शीला ने खूब सेवा की पर उन्हें बचाया नहीं जा सका.

इस दौरान काफी जोरआजमाइश के बाद विभोर का स्थानांतरण वापस पटना हुआ पर आर्थिक स्थिति बिगड़ गई. जब विभा प्रैगनैंट हुई तो विभोर ने अबौर्शन की सलाह दी. तब शीला ने सम झाबु झा कर विभोर को मनाया था. कुछ वक्त सब ठीक रहा, लेकिन जब शीला ने ससुराल से ज्यादा मायके रहना शुरू कर दिया तो सभी को आश्चर्य हुआ. विभा को ज्ञात था कि शीला जीजी और जीजाजी के संबंध बहुत मधुर नहीं हैं. उसे डर लगा कि मायके में ज्यादा समय देने के कारण कहीं वह जीजी से रुष्ट न हो जाएं. फिर आखिरकार एक दिन टूट कर शीला ने बता ही दिया कि वह वापस नहीं जाएगी. कोर्टकचहरी में पैसा बहा सो अलग. मां की तबीयत फिर खराब होने लगी. रोजरोज के तनाव, पैसों को ले कर  झगड़े से तंग आ कर आखिर विभा बच्चों को ले कर घर आ गई.

एक लंबे वक्त तक दोनों बहनें एकदूसरे से लिपटी रहीं, ‘‘तुम ने पहले कुछ क्यों

नहीं बताया विभा?’’

‘‘परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी,’’ उस ने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘और क्या बताती दीदी?’’ एक रूखी हंसी हंसते हुए उस ने कहना जारी रखा, ‘‘तुम कह रही थीं कि मैं रिश्ते निभाती हूं. अब देखो न दीदी आज जब मेरे परिवार को मेरी सब से ज्यादा जरूरत थी, मैं परिस्थितियों से घबरा कर भाग आई.’’

‘‘विभा, विषम परिस्थितियों से जू झते हुए हर किसी के लिए आवश्यक हो जाता है कि कभीकभी थोड़ी दूरी बना ली जाए. तुम वहां रहती तो बच्चों पर भी गलत प्रभाव पड़ता.’’

‘‘हमारी कई दिन से बात नहीं हुई है दीदी.’’ उस ने घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘अगर मेरे साथ भी शीला जीजी जैसा हुआ तो…’’

‘‘बेकार की बातें मत सोचो विभा. वह तुम्हें याद कर रहा होगा पर नहीं चाहता कि तुम कोई दबाव महसूस करो. तुम ने उसे बताया कि वापस कब जा रही हो?’’ तभी अचानक कुछ सोचते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम वापस तो जा रही हो न?’’

‘‘हां, दीदी,’’ उस ने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया. ‘‘वह मेरा घर है.’’

कुछ दिन बाद जब विभा वापस अपने घर लौटी तब मानसी भी उस के साथ गई.

‘‘भाभी,बड़ी देर लगा दी. अब संभालो अपनी गृहस्थी. एक चीज नहीं मिलती थी मु झे, विभोर ने पागल कर दिया,’’ शीला रोते हुए विभा के गले लग गई थी.

काफी देर तक ननदभाभी ऐसे ही खड़ी रहीं. विभोर गाड़ी से सामान निकालने में व्यस्त था और बच्चे दादी के कमरे की ओर दौड़ गए थे. मानसी भी उन के पीछे हो ली. उस ने वह मौन संवाद देखा था, जब विभोर उन्हें घर से लेने आया था. बिन कुछ कहे ही विभाविभोर ने एकदूसरे से माफी मांग ली थी. बच्चे पापा क गले लग गए थे. थोड़ेबहुत शिष्टाचार के बाद वे लोग निकल पड़े थे.

मानसी यों तो विभा को संबल देने आई थी पर उस के आने का एक कारण और था. उसे बस सही मौके की तलाश थी. शाम को खाना शीला ने ही बनाया था, ‘‘तुम थक गई होंगी, भाभी’’ कह कर उस ने विभा को कुछ नहीं करने दिया.

उन सब के आपसी प्रेम को देख कर मानसी को बड़ी खुशी हुई. रात को जब सब सोने चले गए, मानसी बगीचे में टहलने निकल गई. अब उस के पास कुछ ही दिन थे, फिर उसे वापस जाना होगा. वह विचारों में मग्न थी कि तभी किसी के वहां होने का एहसास हुआ. उस ने पलट कर देखा तो शीला खड़ी थी. दोनों में शुरू में इधरउधर की बातें होती रहीं…

‘‘जब पापा…’’ कहतेकहते रुक गई थी शीला, ‘‘तब उन के पास विभा ही थी.’’

मानसी ने उस की आंखों में वेदना को देखा.

‘‘फिर विभोर का इतना दूर होना, वापस आने पर…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.

मगर मानसी सम झ गई कि वह क्या कहना चाहती है.

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‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गईं. लंबे अरसे बाद मैं ने विभा का यह रूप देखा है.’’

शीला के इस कथन पर मानसी के अधरों पर स्वत: ही मुसकान खेल गई.

उसी रात मानसी और शीला ने निकट भविष्य के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय

ले लिए.

1 वर्ष बाद मानसी, मम्मीपापा के पास जा रही है. इस बार उस की यात्रा एकांत में नहीं है. कुछ माह में ही शीला ने देश की सर्वोच्च साहित्यिक संस्थान में अपनी जगह बना ली. अब वह देशभर में लिटरेरी इवेंट्स करवाती है. संभवत: शीघ्र ही वह इंटरनैशनल कम्युनिटी में भी इवेंट्स और्गेनाइज करे. गत वर्ष की घटनाएं मानसी के मन में उभरने लगी.

उस ने कितना सही फैसला लिया था शीला को और्गेनाइजर बनाने का. उस निर्णय का इतना प्रभावपूर्ण परिणाम निकलेगा इस की कल्पना तो उस ने भी नहीं की थी. जब विभा ने उसे सबकुछ बताया था तभी उस ने सोच लिया था कि वह शीला की जितनह बन पड़ेगी उतनी मदद करेगी. उस रात जब शीला उस से बात करने आई, उसे ऐसी अनुभूति हुई मानो यदि स्वयं मानसी ने कभी दबाव में आ कर आननफानन में विवाह कर लिया होता तो वह भी यों ही बिखर गई होती. तभी उस ने निश्चय कर लिया था कि वह शीला की हरसंभव सहायता करेगी. इसी उद्देश्य से वह उसे अपने साथ दिल्ली ले आई.

विभा और विभोर की गृहस्थी वापस पटरी पर आ गई. शीला को काम संभाले कुछ ही सप्ताह हुए थे कि अशोकजी ने जग को अलविदा बोल दिया. जाने से पहले उन्होंने बड़ी सहृदयता से मानसी का धन्यवाद किया था. उन को प्रसन्न करने में मानसी का भी योगदान था, इतना भर उस के लिए बहुत था.

आज जब वह पटना जा रहे हैं, इस के पीछे सिर्फ परिवार से मिलना ही इकलौता

उद्देश्य नहीं है. एक तो उन की एक गोष्ठी है, जिसे शीला संभाल रही है और जिस में मानसी अपनी रचना पढ़ने वाली है. दूसरी और अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस गोष्ठी से एकत्रित राशि एक संस्था जिस से कि हाल ही में विभा जुड़ी है, उस के द्वारा एक सेहतगाह को जाएगी. इस सैनेटोरियम में उन बुजुर्गों की देखभाल होती है, जिन का कोई नहीं है या जिन की देखभाल का जिम्मा उन का परिवार उठा नहीं सकता या उठाना नहीं चाहता.

‘यदि हमें पता हो कि जिंदगी में क्या चाहिए तो उसे पा लेने की यात्रा तनिक सरल हो जाती है,’ मानसी के मन में खयाल आया. वह ट्रेन के बाहर फैली सुंदर धूप को निहार रही थी. ‘यदि नहीं भी पता हो, तो कदाचित यात्रा आरंभ होने पर उस का एहसास हो जाता है. यह यात्रा होती तो सब की एकांत में ही है पर कभीकभी 2 लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो अपना एकांत आपस में बांट सकते हैं. वह रिश्ता सिर्फ एक ही हो ऐसा तो आवश्यक नहीं. कभी हमें जीवन में सहारा एक दोस्त से मिलता है, कभी परिवार से, कभी किसी अजनबी से भी. हरकोई अपना जीवन सिर्फ किसी एक रिश्ते के पीछे भागने में लगा दें, यह तो बुद्धिमत्ता नहीं होगी.’

मानसी को पता है बहुत से लोग आज भी अपने जीवन का आधार किसी अन्य को बनाना ही जीवन का महत्त्व सम झते हैं. हो सकता है ऐसा करना आसान होता हो या हो सकता यह दुष्कर हो, परंतु जीवन में सभी का एक ही मार्ग हो, यह तो संभव नहीं. उसे उम्मीद है कि लोग यह धीरेधीरे सम झने लगेंगे और फिर शीलाओं को यों टूट, बिखर कर पुन: खुद को तलाशने की जरूरत नहीं होगी.

‘‘एक अच्छी शिक्षिका होने के नाते उस की

ख्याति दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. विद्यार्थी ही नहीं

शिक्षक भी उस की बुद्धि का लोहा मानते थे….’’

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खुद की तलाश: घर के माहौल से अलग मानसी ने जब संवारी अपनी दुनिया

नादान दिल: शादी में प्यार की कमी ने जब ईशा को ऱशीद से मिलाया

Serial Story: नादान दिल (भाग-1)

जबसे ईशा यहां आई थी उस ने जी भर कर चिनार के पेड़ देख लिए थे. उन की खुशबू को करीब से महसूस किया था. उसे बहुत भाते थे चिनार के पत्ते. जहां भी जाती 1 अपनी डायरी में रखने के लिए ले आती. बहुत ही दिलकश वादियां थीं. उस ने आंखों ही आंखों में कुदरत की मनमोहक ठंडक अपने अंदर समेटनी चाही.

‘‘ईशा…’’ अपना नाम सुन कर उस की तंद्रा भंग हुई और फिर छोटी सी पगडंडी से कूदतीफांदती होटल के सामने की सड़क पर आ गई.

‘‘बहुत देर हो गई है… अब चला जाए,’’ पास आती शर्मीला ने कहा, ‘‘सुबह पहलगाम के लिए जल्दी निकलना है. थोड़ा आराम कर लेंगे.’’

‘‘ईशा भाभी तो यहां आ कर एकदम बच्ची बन गई हैं, मैं ने अभी देखा पहाड़ी में दौड़ती फिर रही थीं,’’ विरेन भाई ने चुटकी ली.

ईशा झेंप गई. वह खुद में इतनी गुम थी कि पति परेश और उस के दोस्तों की मौजूदगी ही भूल गई थी. इन हसीन वादियों ने उस के पैरों में जैसे पंख लगा दिए थे. ईशा ने कश्मीर की खूबसूरती के बारे में बहुत पढ़ा और सुना था. अकसर फिल्मों में लव सौंग गाते हीरोहीरोइन के पीछे दिखती बर्फ से ढकी पहाडि़यों पर उस की नजरें ठहर जाती थीं और फिर रोमानी खयालात मचल उठते.

कभी सोचा नहीं था कि गुजरात से इतनी दूर यहां घूमने आएगी और इन वादियों में आजाद पंछी की तरह उड़ती फिरेगी. उस ने खुद को एक अरसे बाद इतना खुश पाया था. वे लोग देर तक बस घूम ही रहे थे. अब अंधेरा गहराने लगा तो वापस होटल चल पड़े. शाम से ही पहाड़ों पर हलकी बारिश होने लगी थी. ठंड कुछ और बढ़ गई थी. होटल के अपने नर्म बिस्तर पर करवटें बदलती ईशा की नींद आंखमिचौली खेल रही थी. बगल में सोया परेश गहरी नींद में डूबा था. रात काफी बीत चुकी थी. उस ने एक बार फिर घड़ी पर नजर डाली. वक्त जैसे कट ही नहीं रहा था. हैरत की बात थी कि दिन भर घूमने के बाद भी थकान का नामोनिशान न था.

खयालों का काफिला गुजरता जा रहा था कि एकाएक 2 नीली आंखें जैसे सामने आ गईं. झील सा नीला रंग लिए रशीद की आंखें… वह  2 दिनों से उन लोगों का ड्राइवर एवं गाडड बना था. जिस दिन वे लोग होटल पहुंचे थे, परेश ने घूमने के लिए रशीद की ही गाड़ी बुक कराई थी. किसी विदेशी मौडल सा दिखने वाला गोराचिट्टा रशीद स्वभाव से भी बड़ा मीठा था. उस के बारे में एक और बात उन लोगों को पसंद आई कि वह कहीं पास ही रहता था. वे जब भी बुलाते तुरंत हाजिर हो जाता.

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2 दिनों में ही रशीद ने उन्हें करीब हर घूमने लायक जगह दिखा दी थी. ईशा रशीद से उन जगहों के बारे में बहुत सी बातें पूछती और पूरी जानकारी अपनी डायरी में लिख लेती. ईशा को डायरी लिखने का शौक था. उस के हर अच्छेबुरे अनुभव की साक्षी थी उस की डायरी. बाकी लोग अपने काम से काम रखने वाले थे, मगर ईशा के बातूनीपन की वजह से रशीद और ईशा के बीच खूब बातें होतीं और लगभग एक ही उम्र के होने की वजह से बहुत सी बातों में दोनों की पसंद भी मिलती थी. अकसर ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठी ईशा जब कभी अचानक सामने देखती, शीशे में उस की और रशीद की नजरें टकरा जातीं. झेंप कर ईशा नजरें झुका लेती. रशीद भी थोड़ा शरमा जाता. उस के साथ हुई बातों से ईशा को पता चला कि वह पढ़ालिखा है और किसी बेहतर काम की तलाश में है. छोटी बहन की शादी की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी, जिस के लिए उसे पैसों की जरूरत थी. उस की सादगी भरी बातों से ईशा के दिल में उस के प्रति हमदर्दी पैदा हो गई थी, जिस में दोस्ती की महक भी शामिल थी.

अहमदाबाद के रहने वाले परेश और ईशा की शादी को कम ही अरसा हुआ था. मरजी के खिलाफ हुई इस शादी से ईशा खुश नहीं थी. पारंपरिक विचारों वाले परिवार में पलीबढ़ी ईशा अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती थी. मगर जब मैनेजमैंट की पढ़ाई के बीच ही घर वालों ने एक खातेपीते व्यापारी परिवार के लड़के परेश से रिश्ता तय कर दिया तो ईशा के कुछ कर दिखाने के सपने अधूरे ही रह गए.

वह किसी बड़ी नौकरी में अपनी काबिलीयत साबित करना चाहती थी. बहुत झगड़ी थी घर वालों से पर पिता ने बीमार होने का जो जबरदस्त नाटक खेला था उस दबाव में आ कर ईशा ने हथियार डाल दिए थे. ऊपर से मां ने भी पिता का ही साथ दिया. ईशा को समझाया कि उसे कौन सी नौकरी करनी है. व्यापारी परिवार की बहुएं तो बस घर संभालती हैं.

शादी के बाद पति परेश के स्वभाव का विरोधाभास भी दोनों के बीच की दीवार बना. दोनों मन से जुड़ ही नहीं पाए थे. एक फासला हमेशा बरकरार रहता जिसे न कभी ईशा भर पाई न ही परेश. जिस मलाल को ले कर ईशा का मन आहत था, परेश ने कभी उस पर प्यार का मरहम तक लगाने की कोशिश नहीं की. घर का इकलौता बेटा परेश अपने पिता के साथ खानदानी कारोबार में व्यस्त रहता. सुबह का निकला देर रात ही घर लौटता था.

एक बंधेबंधाए ढर्रे पर जिंदगी बिताते परेश और ईशा नदी के 2 किनारों जैसे थे, जो साथ चलते तो हैं, मगर कभी एक नहीं हो पाते. ईशा पैसे की अहमियत समझती थी, मगर जिंदगी के लिए सिर्फ पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता. परेश उस के लिए वक्त निकालने की कोई जरूरत तक नहीं समझता था. यह और बात थी कि दोनों हमबिस्तर होते, मगर वह मिलन सूखी रेत पर पानी की बूंदों जैसा होता, जो ऊपर ही ऊपर सूख जाता अंदर तक भिगोता ही नहीं था.

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चुलबुली और बातूनी ईशा शादी के बाद उत्साहहीन रहने लगी. आम पतियों की तरह परेश उस पर जबतब रोब नहीं गांठता था. दोनों के बीच कोई खटास या मनमुटाव भी नहीं था, मगर वह कशिश भी नहीं थी, जो 2 दिलों को एकदूजे के लिए धड़काती है.  विरेन और परेश की दोस्ती पुरानी थी. विरेन को दोस्त का हाल खूब पता था. विरेन ने एक दिन परेश को सुझाव दिया कि ईशा के साथ कुछ वक्त अकेले में बिताने के लिए दोनों को घर से कहीं दूर घूम आना चाहिए.

आगे पढ़ें- शादी के बाद कुछ कारोबारी जिम्मेदारियों के चलते दोनों…

Serial Story: नादान दिल (भाग-2)

ईशा जानती थी कि विरेन भाई उन के हितैषी हैं, मगर परेशानी यह थी कि परेश के मन की थाह ईशा अभी तक नहीं लगा पाई थी. परेश उस से कितना तटस्थ रहता पर ईशा कोई कदम नहीं उठाती उस दूरी को मिटाने के लिए. अपने घर वालों की मनमरजी का बदला एक तरह से वह अपनी शादी से ले रही थी. यह बात उस के मन में घर कर गई थी कि कहीं न कहीं परेश भी उतना ही दोषी है जितने ईशा के मांबाप. वह सब को दिखा देना चाहती थी कि वह इस जबरदस्ती थोपे गए रिश्ते से खुश नहीं है.

शादी के बाद कुछ कारोबारी जिम्मेदारियों के चलते दोनों कहीं नहीं जा पाए थे और ईशा ने भी कभी कहीं जाने की उत्सुकता नहीं दिखाई. इस तरह से उन का हनीमून कभी हुआ ही नहीं. अब जब अकेले घूम आने की चर्चा हुई तो ईशा को लग रहा था कि परेश और वह एकदूसरे के साथ से जल्दी ऊब जाएंगे. अत: उस ने विरेन और उस की पत्नी शर्मीला को साथ चलने को कहा. सब ने मिल कर जगह का चुनाव किया और कश्मीर आ गए.  रात के अंधेरे में हाउस बोटों की रोशनी जब पानी पर पड़ती तो किसी नगीने सी

झिलमिलाती झील और भी खूबसूरत लगती. ईशा पानी में बनतीमिटती रंगीन रोशनी को घंटों निहारती रही. कदमकदम पर अपना हुस्न बिछाए बैठी कुदरत ने उस के दिल के तार झनझना दिए. उस का मन किया कि परेश उस के करीब आए, उस से अपने दिल की बात करे. अपने अंह को कुचल कर वह खुद पहल नहीं करना चाहती थी. उन के पास बेशुमार मौके थे इन खूबसूरत नजारों में एकदूसरे के करीब आने के बशर्ते परेश भी यही महसूस करता. शर्मीला और ईशा दोस्त जरूर थीं, मगर दोस्ती उतनी गहरी भी नहीं थी कि ईशा उस से अपना दुखड़ा रोती. ऐसे में वह खुद को और भी तनहा महसूस करती.

बहुत देर तक यों ही अकेले बैठी ईशा का मन ऊब गया तो वह कमरे में आ गई. परेश वहां नहीं था. शायद जाम का दौर अभी और चलेगा. उस ने उकता कर एक किताब खोली, पर फिर झल्ला कर उसे भी बंद कर दिया.

‘चलो शर्मीला से गप्पें लड़ाई जाएं’ उस ने सोचा. शर्मीला और विरेन का कमरा बगल में ही था. कमरे के पास पहुंच कर उस ने दरवाजे पर दस्तक दी. कुछ देर इंतजार के बाद कोई जवाब न पा कर उलटे पैर लौट आई अपने कमरे में और बत्ती बुझा कर उस तनहाई के अंधेरे में बिस्तर पर निढाल हो गई. आंसुओं की गरम बूंदें तकिया भिगोने लगीं. नींद आज भी खफा थी.

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दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर सब घूमने निकल गए. रशीद हमेशा की तरह समय पर आ गया था. रास्ता पैदल चढ़ाई का था. पहाड़ी रास्तों को तेज कदमों से लांघतीफांदती ईशा जब ऊपर चोटी पर पहुंच कर किसी उत्साही बच्चे की तरह विजयी भाव से खिलखिलाने लगी तो रशीद ने उसे पानी की बोतल थमाई. ईशा ने ढलान की ओर देखा सब कछुए की चाल से आ रहे थे. घने जंगल से घिरी छोटी सी यह घाटी बहुत लुभावनी लग रही थी. ‘‘आप तो बहुत तेज चलती हैं मैडमजी,’’ रशीद हैरान था उसे देख कर कि शहर की यह कमसिन लड़की कैसे इन पहाड़ी रास्तों पर इतनी तेजी से चल रही है. ईशा ने अपनी दोनों बांहें हवा में लहरा दीं और फिर आंखें बंद कर के एक गहरी सांस ली. ताजा हवा में देवदार और चीड़ के पेड़ों की खुशबू बसी थी.

‘‘रशीद तुम कितनी खूबसूरत जगह रहते हो,’’ ईशा मुग्ध स्वर में बोली. रशीद ने उस पर एक मुसकराहट भरी नजर फेंकी. आज से पहले किसी टूरिस्ट ने उस से इतनी घुलमिल कर बातें नहीं की थीं. ईशा के सवाल कभी थमते नहीं थे और रशीद को भी उस से बातें करना अच्छा लगता था.

अब तक बाकी लोग भी ऊपर आ चुके थे. उस सीधी चढ़ाई से परेश, विरेन और शर्मीला बुरी तरह हांफने लगे थे. थका सा परेश एक बड़े पत्थर पर बैठ गया तो ईशा को न जाने क्यों हंसी आ गई. काम में उलझा परेश खुद को चुस्त रखने के लिए कुछ नहीं करता था. विरेन कैमरा संभाल सब के फोटो खींचने लगा. वे लोग अभी मौसम का लुत्फ ले ही रहे थे कि एकाएक आसमान में बादल घिर आए और देखते ही देखते चमकती धूप में भी झमाझम बारिश शुरू हो गई. जिसे जहां जगह दिखी वहीं दौड़ पड़ा बारिश से बचने के लिए. बारीश ने बहुत देर तक रुकने का नाम नहीं लिया तो उन लोगों ने घोड़े

किराए पर ले लिए होटल लौटने के लिए. पहली बार घोड़े पर बैठी ईशा बहुत घबरा रही थी. बारिश के कारण रास्ता बेहद फिसलन भरा हो गया था. बाकी घोड़े न जाने कब उस बारिश में आंखों से ओझल हो गए. रशीद ईशा के घोड़े की लगाम पकड़े साथ चल रहा था. ईशा का डर दूर करने के लिए वह घोड़े को धीमी रफ्तार से ले जा रहा था.

‘‘और धीरे चलो रशीद वरना मैं गिर जाऊंगी,’’ ईशा को डर था कि जरूर उस का घोड़ा इस पतली पगडंडी में फिसल पड़ेगा और वह गिर जाएगी.

‘‘आप फिक्र न करो मैडमजी. आप को कुछ नहीं होगा. धीरे चले तो बहुत देर हो जाएगी,’’ रशीद दिनरात इन रास्तों का अभ्यस्त था. उस ने घोड़े की लगाम खींच कर थोड़ा तेज किया ही था कि वही हुआ जिस का ईशा को डर था. घोड़ा जरा सा लड़खड़ा गया और ईशा संतुलन खो कर उस की पीठ से फिसल गई. एक चीख उस के मुंह से निकल पड़ी.

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रशीद ने लपक कर उसे थाम लिया और दोनों ही गीली जमीन पर गिर पड़े. ईशा के घने बालों ने रशीद का चेहरा ढांप लिया. दोनों इतने पास थे कि उन की सांसें आपस में टकराने लगीं. रशीद का स्पर्श उसे ऐसा लगा जैसे बिजली का तार छू गया हो. रशीद की बांहों ने उसे घेरा था. उस अजीब सी हालत में दोनों की आंखें मिलीं तो ईशा के तनबदन में जैसे आग लग गई. चिकन की कुरती भीग कर उस के बदन से चिपक गई थी. मारे शर्म के ईशा का चेहरा लाल हो उठा. उस की पलकें झुकी जा रही थीं. उस ने खुद को अलग करने की पूरी कोशिश की. दोनों को उस फिसलन भरी डगर पर संभलने में वक्त लग गया. पूरा रास्ता दोनों खामोश रहे. उस एक पल ने उन की सहज दोस्ती को जैसे चुनौती दे दी थी. बेखुदी में ईशा को कुछ याद नहीं रहा कि कब वह होटल पहुंची. गेट से अंदर आते ही उस ने देखा परेश, विरेन और शर्मीला होटल की लौबी में बेसब्री से उस का इंतजार कर रहे थे.

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