क्यों दूर चले गए

सामाजिक मान्यताएं, संस्कार और परंपराएं व्यक्ति को अपने मकड़जाल में उलझाए रखती हैं. ऐसे में या तो वह विद्रोह कर के सब का कोपभाजन बने या फिर परिस्थितियों से समझौता कर के खुद को नियति के हाल पर छोड़ दे. किंतु यह जरूरी नहीं कि वह सुखी रह सके.

मैं भी जीवन के एक ऐसे दोराहे पर उस मकड़जाल में फंस गया कि जिस से निकलना शायद मेरे लिए संभव नहीं था. कोई मेरी मजबूरी नहीं समझना चाहता था. बस, अपनाअपना स्वार्थ भरा आदेश और निर्णय वे थोपते रहे और मैं अपने ही दिल के हाथों मजबूरी का पर्याय बन चुका था.

मैं जानता हूं कि पिछले कई दिनों से खुशी मेरे फोन का इंतजार कर रही थी. उस ने कई बार मेरा फैसला सुनने के लिए फोन भी किया था मगर मेरे पास वह साहस नहीं था कि उस का फोन उठा सकूं. वैसे हमारे बीच कोई अनबन नहीं थी और न ही कोई मतभेद था फिर भी मैं उस का फोन सुनने का साहस नहीं जुटा सका.

मैं ने कई बार यह कोशिश की कि खुशी को फोन पर सबकुछ साफसाफ बता दूं पर मेरा फोन पर हाथ जातेजाते रुक जाता और दिल तेजी से धड़कने लगता. मैं घबरा कर फोन रख देता.

खुशी मेरी प्रेमिका थी, मेरी जान थी, मेरी मंजिल थी. थोडे़ में कहूं तो वह मेरी सबकुछ थी. पिछले 4 सालों में हमारे बीच संबंध इतने गहरे बनते चले गए कि हम ने एकदूसरे की जिंदगी में आने का फैसला कर लिया था और आज जो समाचार मैं उसे देने जा रहा था वह किसी भी तरह से मनोनुकूल नहीं था. न मेरे लिए, न उस के लिए. फिर भी उसे बताना तो था ही.

मैं आफिस में बैठा घड़ी की तरफ देख रहा था. जैसे ही 2 बजेंगे वह फिर फोन करेगी क्योंकि इसी समय हम दोनों बातें किया करते थे. मैं भी अपने काम से फ्री हो जाता और वह भी. बाकी आफिस के लोग लंच में व्यस्त हो जाते.

मैं ने हिम्मत जुटा कर फोन किया, ‘‘खुशी.’’

‘‘अरे, कहां हो तुम? इतने दिन हो गए, न कोई फोन न कोई एसएमएस. मैं ने तुम्हें कितने फोेन किए, क्या बात है सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ठीक ही है. बस, तुम से मिलना चाहता हूं,’’ मैं ने बडे़ अनमने मन से कहा.

‘‘क्या बात है, तुम ऐसे क्यों बोल रहे हो? न डार्लिंग कहा, न जानू बोले. बस, सीधेसीधे औपचारिकता निभाने लग गए. घर पर कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘हां, हुई तो थी पर फोन पर नहीं बता सकता. तुम मिलो तो सारी बात बताऊंगा.’’

‘‘देखो, कुछ ऐसीवैसी बात मत बताना. मैं सह नहीं पाऊंगी,’’ वह एकदम घबरा कर बोली, ‘‘डार्लिंग, आई लव यू. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘आई लव यू टू, पर खुशी, लगता है हम इस जन्म में नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘यही खुशखबरी देने के लिए तुम मुझ से मिलना चाहते थे,’’ खुशी एकदम असंयत हो उठी, ‘‘तुम ने जरा भी नहीं सोचा कि मुझ पर क्या बीतेगी. क्या सोचेंगे वे लोग जो हमें हमेशा एकसाथ देखते थे. यही है तुम्हारा प्यार. तुम्हारे कहने पर ही मैं ने मम्मीपापा को अपने रिश्ते के बारे में बताया था. आज क्या कहूंगी कि सब झूठ है,’’ इतना कहतेकहते खुशी रो पड़ी और फोन काट दिया.

इस के बाद मैं ने कितनी ही बार उसे फोन किया पर हर बार वह काट देती और अंत में उस ने फोन ही बंद कर दिया.

मैं एकदम परेशान हो गया. कहता भी तो किस से.

खुशी का मुझ से गुस्सा होना स्वाभाविक था. मैं ने ही उस से झूठेसच्चे वादे किए थे. मैं ने उस को एक सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया था. अपना सुखदुख उस से बांटा था. उस ने हर समय मुझे एक रास्ता दिखाया था. मेरे बीमार होने पर वह बुरी तरह परेशान हो जाती थी और बिना कहे कई दवाइयां सीधे मेरे आफिस भिजवा देती और मेरे चपरासी को फोन कर के ढेर सारी हिदायतें भी देती. वह जानती थी कि मैं अपने प्रति बेहद लापरवाह हूं. आज मैं ने उस के सारे सपने पल भर में ही तोड़ दिए.

शाम को उदास मन और भरे दिल से मैं घर पहुंचा. मुझे देखते ही भाभी ने पूछा, ‘‘क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कहते हुए मैं रोंआसा सा हो गया. मुझे लगा कि वहां कुछ देर और खड़ा रहा तो आंसू न आ जाएं, इसलिए खुद को संभालता हुआ चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बिस्तर पर गिरते ही मेरा सारा अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. रोतेरोते आंसू तो सूख गए पर भीतर का मन शांत न हो सका. थोड़ी देर में भाभी ने खाने के लिए पूछा. मैं ने कह दिया कि खा कर आ रहा हूं, भूख नहीं है पर खाया कब था, मैं अपने विचारों से जितना बचना चाहता था वे मुझे उतना ही सताने लगे.

खुशी से मेरी मुलाकात 4 साल पहले आफिस के बाहर वाले बस स्टैंड पर हुई थी. उजला वर्ण, तीखी नाक, लंबा कद और सधी हुई देहयष्टि. ऊपर से कपडे़ पहनने का ढंग इतना निराला था कि मैं उसे देखे बिना नहीं रह सका और पहली ही नजर में वह आंखों के रास्ते दिल में उतर गई. हमारी चार्टर्ड बस और आफिस के छूटने का लगभग एक ही समय था. मैं 5 मिनट पहले ही बस स्टैंड पर पहुंच जाता. पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता था कि उस की आंखें निरंतर मुझे ही तलाशती रहती हैं. धीरेधीरे वह भी आतेजाते मुझे देख कर हंस देती. इस तरह हम एकदूसरे के करीब आ गए. उस के पिता नेवी में उच्च पद पर थे तथा मेरे पिता मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर थे.

बीतते दिनों के साथ खुशी से मेरा प्रेम भी परवान चढ़ता गया. हमारी मुलाकातों की संख्या और समय दोनों बढ़ते रहे. इस दौरान मुझे सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली एक बड़़ी कंपनी में बहुत अच्छा औफर मिला और मैं ने उसे स्वीकार कर लिया. अब दोनों के दफ्तरों में कई किलोमीटर का फासला हो गया था. इस के बावजूद भी हम कोई न कोई बहाना ढूंढ़ कर मिलते रहे. हम दोनों कभी फिल्में देखते तो कभी बिना मकसद बांहों में बांहें डाल कर इधरउधर घूमते.

एक दिन खुशी ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख कर कहा, ‘अब बहुत हो चुकी है चुहलमस्ती. सीधीसीधी बात बताओ, कब मिला रहे हो मुझे अपनी मम्मी से.’

‘अरे, तुम तो दिल के रास्ते सीधा घर पर कब्जा करने की सोच रही हो,’ मैं ने मजाक के लहजे में कहा.

‘मेरे पापा अब रिटायर होने वाले हैं. वह चाहते हैं कि मेरी जल्दी से शादी हो जाए ताकि नौकरी में रहते हुए वह अपनी तमाम सुविधाओं का उपयोग कर सकें. रिटायरमेंट के बाद तो हम सिविलियन हो जाएंगे. फिर कहां ये सुविधाएं मिलेंगी.’

‘तो कोर्ट मैरिज कर लेंगे,’ मैं ने चुटकी लेते हुए कहा और उस के माथे पर घिर आई लटों को पीछे करने के बहाने उसे अपने अंक में भींच लिया. उस ने बिना कोई प्रतिवाद किए अपना सिर मेरे कंधों पर टिका दिया.

‘सच कहूं तो मुझे इन मजबूत कंधों की बहुत जरूरत है. प्लीज, मेरी बात को सीरियसली लेना, नहीं तो तुम्हारी खुशी तुम्हारे हाथ से निकल जाएगी,’ कहतेकहते वह रोंआसी हो गई.

मैं ने उस की भर आई आंखों के कोरों से बहने वाले आंसू के कतरे को अपनी उंगलियों से पोंछा, ‘तुम तो बेहद संजीदा हो गई हो.’

‘हां, बात ही कुछ ऐसी है. इन दिनों मेरे रिश्ते की बातें चल रही हैं. तुम एक बार अपने घर पर बात कर लेते तो मैं भी कम से कम उन्हें बता देती.’

‘कौन सी बात? मैं ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘क्या कहोगी मेरे बारे में?’

‘यही कि तुम बेवकूफ हो, बुद्धू हो, एकदम बेकार और गुस्से वाले हो, पर तुम मेरे हो,’ कह कर पुन: खुशी ने मेरी गोद में सिर रख दिया. देर तक हम यों ही भविष्य के सपने संजोते रहे. मैं ने उस का हाथ अपने हाथों में रखा और उसे जल्दी ही बात करने का आश्वासन दिया. हम दोनों ही वहां से विदा हो गए.

घर पर मैं अपनी बात को इस ढंग से पेश करना चाहता था कि इनकार की कोई गुंजाइश ही न रहे और इस के लिए उचित अवसर तलाशता रहा.

भैया की शादी को 2 वर्ष हो चुके थे और उन का 8 माह का एक बेटा भी था. हमारे घर का माहौल बेहद सौहार्दपूर्ण था पर घर के सभी लोग एकसाथ नहीं मिल पाते थे.

मैं सपनों में जीने लगा था. एक दिन मैं आफिस में बैठा कोई काम कर रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर पापा का फोन आया. पता चला कि भैया का एक्सीडेंट हो गया और उन्हें काफी गंभीर चोटें आई हैं. वह जीवन नर्सिंगहोम में हैं. इस से पहले कि मैं वहां पहुंचता, भैया की निर्जीव देह को लोग एंबुलेंस में डाल कर घर ले जा रहे थे.

घर पर मरघट का सा सन्नाटा पसरा था. सभी एकदम स्तब्ध रह गए थे. भाभी तो जैसे पत्थर ही बन गईं और मम्मीपापा का रोरो कर बुरा हाल था. 2-3 दिनों तक घर का माहौल बेहद गमगीन रहा.

समय अपनी गति से चलता रहा. घर का माहौल धीरेधीरे संभलने लगा. खुशी मेरी विवशता समझती थी और दिल का हाल भी. जितनी बार भी समय निकाल कर मैं ने उस से संपर्क किया, बेहद नरम आवाज में वह संवेदना व्यक्त करती और मेरे घर पर आने की जिद करती. वह चाहती थी कि मैं अपने और उस के बारे में घर पर सबकुछ बता दूं मगर मैं ऐसा कर नहीं पा रहा था.

मम्मी भाभी को ले कर बेहद चिंतित और दुखी थीं. एक तो उन का बड़ा बेटा गुजर गया था, दूसरा जवान बहू का गम. उन्हें इस बात की बेहद चिंता थी कि बहू बाकी की तमाम उम्र इस घर में कैसे बिताएगी.

एक दिन खुशी और मैं पार्क में बैठे थे. वह भरे स्वर

में कहने लगी, ‘देखो, अब तक मैं पापा को जैसेतैसे टालती रही हूं पर अब और उन्हें टाल नहीं पाऊंगी. आज भी उन्होंने मुझे कई लड़कों के फोटो दिखाए हैं. तुम ने यदि अब तक अपने घर पर बात की होती तो मैं कम से कम तुम्हारे बारे में कुछ तो कह सकती. उन का इस तरह रोजरोज बात करना तो रुक जाता. मम्मी अकेले में कई बार मुझ से मेरी पसंद की तरफ भी इशारा करती हैं.’

‘तो फिर इंतजार किस बात का है,’ मैं ने खुशी से कहा, ‘तुम मेरे बारे में सबकुछ बता दो और मेरी मजबूरी भी उन्हें बता दो कि जैसे ही मुझे मौका मिला, मैं उन से मिलने आऊंगा.’

‘सच,’ उस ने अविश्वास भरे स्वर में ऐसे पूछा जैसे उसे मुझ पर शक हो.

‘तुम ऐसे अविश्वास से मुझे क्यों देख रही हो. तुम तो जानती हो कि मैं घर पर बात करने जा ही रहा था कि ऐसा हादसा हो गया,’ मैं ने कहा.

‘ओह डार्लिंग, पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि तुम इस बात को संजीदगी से नहीं ले रहे हो.’

‘मैं भी तुम्हारे बिना रह सकता हूं क्या?’ कह कर मैं ने उस के गालों पर एक प्यारा सा चुंबन जड़ दिया तो शर्म से खुशी ने अपनी पलकें झुका लीं और कस कर मुझ से लिपट गई.

एक दिन शाम को मैं घर आया. भाभी के मम्मीपापा आए हुए थे. मैं ने उन के चरण स्पर्श किए और बाथरूम में फ्रेश होने चला गया. मेरे आने पर भाभी चाय बना कर ले आईं. घर का माहौल बेहद गमगीन और घुटा हुआ था. खामोशी तोड़ने के लिए मम्मी ने पहल की थी.

‘बहनजी, अब तो मेरे बेटे को गुजरे हुए 3 महीने हो चुके हैं. किंतु बहू की ऐसी हालत मुझ से देखी नहीं जाती. मैं जब भी इसे देखती हूं कलेजा मुंह को आता है. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता. आप ही कुछ बताइए न.’

‘मैं क्या कहूं, मैं ने तो अपनी बेटी आप को दी है. आप जैसा उचित समझें, करें,’ वह बेहद भावुक हो कर बोलीं.

‘आप इसे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाइए. वहां थोड़ा इस का मन तो बहल जाएगा,’ मम्मी ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘नहीं, मम्मीजी, मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मैं इस घर में बहू बन कर आई थी और यहीं से मेरी अंतिम विदाई भी होगी,’ भाभी धीरे से बोलीं.

‘तुम्हें यहां से कौन भेज रहा है बहू. मैं तो कह रही हूं कि कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओ. वैसे तुम इस बात को भी ध्यान से सोचना कि तुम्हारे सामने सारी उम्र पड़ी है. तुम पहाड़ जैसा जीवन किस के सहारे काटोगी.’

‘मुन्ना है न, उसी में मैं उन का रूप देखती हूं,’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं.

‘बेटी, मुझे अपने बेटे के खोने से ज्यादा गम तुम्हारा है, क्योंकि मुझे तुम से हमदर्दी भी है और आत्मीयता भी. हम भला कब तक तुम्हारा साथ देंगे. एकल परिवारों की अपनी जन्मजात मुश्किलें हैं. कल अंकित की शादी होगी. उस की अपनी गृहस्थी बनेगी. हमारे जाने के बाद कौन कैसा व्यवहार करेगा…’

‘बहनजी, वैसे तो यह आप का पारिवारिक मामला है पर यदि अंकित की कहीं और बात नहीं चली हो तो संगीता भी तो…घर की बात घर में ही बन जाएगी और आप भी चिंतामुक्त हो जाएंगी. आप सोच लीजिए…’

उन के यह शब्द सुन कर मैं एकदम सकते में आ गया. मुझे लगा यदि मैं ने कोई कदम फौरन नहीं उठाया तो शायद किसी परेशानी में न फंस जाऊं.

‘आंटी, यह आप क्या कह रही हैं? मैं अपनी ही भाभी से…’ मैं ने कहा.

‘बेटा, जब भाई ही नहीं रहा तो यह रिश्ता कैसा,’ मम्मी ने कहा. जैसे वह भी इस रिश्ते को स्वीकार कर के बैठी थीं.

‘लेकिन मम्मी…’ मैं ने चौंक कर कहा.

‘ठीक है, तो सोच कर बता देना,’ मम्मी बोलीं, ‘हम ने तो बिना झिझक एक बात कही है. बाकी तुम जैसा उचित समझो, बता देना.’

मेरे लिए अब वहां का माहौल बेहद बोझिल होता जा रहा था. मुझ से और देर तक वहां बैठा नहीं गया और मैं उठ कर चला गया.

मेरे लिए अब बेहद जरूरी हो गया था कि मैं घर पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं, पर भाभी की उपस्थिति में मैं कोई बात नहीं करना चाहता था. इधर मुझ पर लगातार खुशी का दबाव बढ़ता जा रहा था.

एक दिन भाभी किसी काम से बाजार गई हुई थीं. मम्मीपापा बाहर बरामदे में बैठे थे. उचित अवसर देख कर मैं ने बिना कोई भूमिका बांधे कहा, ‘मम्मी, मैं एक लड़की को पसंद करता हूं. पिछले कई सालों से मेरा उस के साथ परिचय है और हम शादी करना चाहते हैं.’

‘ये प्रेमप्यार सब बेकार की बातें हैं. तुम जिसे प्रेम कहते हो वह महज कुछ ही दिनों का बुखार होता है,’ पापा ने एक तरह से मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया.

‘नहीं, यह बात नहीं है,’ मैं ने मजबूती से कहा.

‘बेटा, हम तुम्हारा कोई बुरा थोड़े ही चाहेंगे,’ मम्मी ने गरमाए माहौल की तीव्रता को कम करने की कोशिश की, ‘संगीता को इस घर में रहते हुए लगभग 2 साल हो चुके हैं. अब वह हम सब को अच्छी तरह जान चुकी है और हम उसे. नई लड़की इस घर में कैसे एडजेस्ट करेगी, यह कौन जानता है. इस हादसे के बाद तो वह इस घर में पूरी तरह समर्पित रहेगी. संगीता और तुम हमउम्र हो. तुम ने दुनियादारी को अभी ठीक से जाना नहीं है. आज जिसे तुम अपनी पत्नी बना कर लाना चाहते हो, क्या पता वह संगीता के साथ कैसा व्यवहार करे और तुम्हारा संगीता से मिलना उसे कितना उचित लगे. ऐसा नहीं है कि संगीता के मातापिता के कहने के बाद हम ने ऐसा निर्णय लिया है. सोच तो हम लोग पहले से रहे थे पर यह सब कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. अब अगर उस के घर वालों की भी ऐसी इच्छा है तो हमें कोई एतराज नहीं है.’

‘लेकिन मम्मी, मैं जिसे भाभी मानता आया हूं उसे पत्नी बनाने के बारे में कैसे सोच सकता हूं. यह शादी आप की नजरों में नैतिक हो सकती है पर युक्तिसंगत नहीं. मेरे भी अपने कुछ अरमान हैं, फिर मेरे उस लड़की के प्रति वादे और कसमें…’

‘अरे, बेटा, यह प्रेमप्यार कुछ दिनों का बुखार होता है. वह अपने घर में एडजेस्ट हो जाएगी और तुम अपने घर में,’ पापा ने अपनी बात फिर से दोहराई.

मैं ने उन्हें लाख समझाने की कोशिश की पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा.

मेरे पास अब 2 ही विकल्प बचे थे. मैं या तो संगीता भाभी से विवाह करूं या इस घर को छोड़ कर अपनी इच्छानुसार गृहस्थी बसा लूं. भैया की मौत के बाद अब मैं ही उन का सहारा था. मुझ से अब उन की सारी आशाएं बंधी थीं. हर हाल में वज्रपात मुझ पर ही होना था. यह तो सच था कि इस विवाह से न तो मैं सुखी रह सकता, न संगीता भाभी को खुश रख सकता और न ही खुशी ही सुखी रहती.

परिस्थितियां धीरेधीरे ऐसी बनती गईं कि मैं घर में तटस्थ होता चला गया और अंतर्मुखी भी.

हार कर इस घर की भलाई और मातापिता के फर्ज को निभाने के लिए मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पडे़. मुझे नहीं पता था कि नियति मेरे साथ ही ऐसा खेल क्यों खेल रही है. कहने को सब अपने थे पर अपनापन किसी में नहीं था.

मैं ने खुशी को कई बार फोन करने की कोशिश की मगर हर बार नाकामयाबी हाथ लगी. मैं उस की हालत भी अच्छी तरह जानता था. मैं ने उसे सचमुच कहीं का नहीं छोड़ा था. उस का गम मेरे गम से काफी गहरा था. आज मुझे उस की और उसे मेरी सख्त जरूरत थी पर वह मुझ से बहुत दूर जा चुकी थी. मैं ने भी समझ लिया कि मुझ पर अब जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती. मेरे सारे सपने पलकों में ही लरज कर रह गए और सारी हसरतें सीने में ही दफन हो कर रह गईं.

अचानक घर से संगीता भाभी का फोन आया तो मैं चाैंक पड़ा. मैं सपनों की जिस दुनिया में घूम रहा था, उस से बाहर निकल कर मोबाइल को कान से लगा लिया.

‘‘सौरी, मैं ने तुम्हें इस समय फोन किया. क्या तुम अभी घर पर आ सकते हो?’’

मैं एकदम घबरा गया. मुझे लगा मेरे लिए एक और आघात प्रतीक्षा कर रहा है. मैं ने पूछा, ‘‘क्या बात है. सब ठीक तो है?’’

‘‘सब ठीक नहीं है. बस, तुम घर आ जाओ,’’ इस बार भाभी का निवेदन आदेश में बदल गया.

‘‘बात क्या है?’’ मैं ने फिर पूछा.

‘‘सच बात तो यह है कि मैं ठीक से जानना चाहती हूं कि तुम इस विवाह से खुश हो या नहीं. मैं चाहती हूं कि तुम इसी समय घर पर आ जाओ. मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. ऐसे में तसल्ली से बैठ कर बात हो सकेगी ताकि हम कोई निर्णय ले सकें.’’

मुझे लगा शायद यही ठीक होगा. जो औरत मेरी जिंदगी का हिस्सा बनना चाहती है उसे मैं सबकुछ बता दूंगा पर खुशी की बात को छिपा जाऊंगा ताकि उस के भविष्य में कोई बाधा न पहुंचे.

मैं ने जैसे ही घर में कदम रखा, सामने खुशी बैठी थी. मेरा तनबदन एकदम सिहर उठा. पता नहीं, खुशी क्या कह चुकी होगी.

‘‘इसे पहचानते हैं, इस का नाम खुशी है,’’ भाभी ने भेद भरी नजरों से मुझे देखा, ‘‘मैं ने ही इसे यहां बुलाया है. मुझे इतना कमजोर और स्वार्थी मत समझना. तुम्हारे हावभाव से मैं समझ चुकी थी कि तुम किसी को बहुत चाहते हो. मुझे लगा, ऐसे घुटघुट कर जीने से क्या फायदा. जिंदगी जीने और काटने में बड़ा फर्क होता है अंकित, और तुम्हारी जिंदगी तो खुशी है, फिर परिस्थितियों से डट कर मुकाबला क्यों नहीं कर सकते. जब किसी से कोई सच्चा प्यार करता है तो उस के दिल में हमेशा वही बसा रहता है, फिर तुम मुझे कैसे खुश रख सकोगे?

‘‘मैं ने बड़ी मुश्किल से इस का नंबर तुम्हारे मोबाइल से ढूंढ़ा था. अपनी इस गलती के लिए मैं तुम से माफी मांगती हूं. जब मैं ने तुम्हारी सारी स्थिति खुशी के सामने रखी तो इस ने फौरन मुझ से मिलने की इच्छा जाहिर की.’’

‘‘मम्मीपापा मानेंगे क्या?’’ मैं ने अपनी शंका रखी.

‘‘जानते हो, वे दोनों खुशी के घर ही गए हैं इस का हाथ मांगने और यह पूरी की पूरी तुम्हारे सामने खड़ी है,’’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं और वह भीतर चली गईं.

मैं ने खुशी को कस कर अंक में भींच लिया. खुशी मुझ से अलग होते हुए बोली, ‘‘तुम मेरा सबकुछ ले कर क्यों दूर चले गए थे.’’

उम्र का फासला: क्या हुआ लक्षिता के साथ

नर्सरी  में देखो तो पौधे कितने खिलेखिले रहते हैं. मगर गमलों में शिफ्ट करते ही मुरझने लगते हैं. बराबर खादपानी देती हूं, सीधी धूप से भी बचाती हूं, फिर भी पता नहीं क्यों मिट्टी बदलते ही पौधे कुछ दिन तो ठीक रहते हैं, लेकिन फिर धीरेधीरे जल जाते हैं,’’ मां अपने टैरेस गार्डन में उदास खड़ी बड़बड़ा रही थी. आज फिर उस का जतन से लगाया एक प्यारा पौधा मुरझ गया था.

खिड़की में खड़ी लक्षिता अपनी मां को देख रही थी. खुद वह भी तो इन गमलों के पौधों जैसी ही है. शादी से पहले मायके में कितनी खिलीखिली रहती थी. ससुराल जाते ही मुरझ गई. हर समय चहकने वाली लक्षिता शादी के 2 साल बाद ही अपना घर छोड़ कर मायके आ गई थी. नहींनहीं, यह कोई व्यक्तिगत, सामाजिक या कानूनी अलगाव नहीं था, बस लक्षिता विशाल और अपने रिश्ते को थोड़ा और समय देना चाह रही थी.

ऐसा नहीं था कि उस ने अपनी जड़ों को पराई जमीन में रोपने में कोई कसर छोड़ी हो. भरसक प्रयास किया था नई मिट्टी के मुताबिक ढलने का… लेकिन पता नहीं मिट्टी में ही कीड़े थे या फिर धूप इतनी तेज कि उस पर तनी विशाल के प्रेम वाली हरी नैट भी बेअसर हो गई. लक्षिता अपनी असफल शादी को याद कर भर आई आंखें पोंछने लगी.

‘न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन. जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन…’ कितना झठ कहते है ये शायर लोग भी. कौन कहता है कि प्यार उम्र के फासले को पाट सकता है? यह तो वह खाई है जिसे लांघने की कोशिश करने वाले को अपने हाथपांव तुड़वाने ही पड़ते हैं. और यदि इस राह में जन्म का बंधन यानी जातिधर्म की चट्टान भी आ जाए तो फिर इन फासलों को पाटना किसी साधारण व्यक्ति के बस की बात तो नहीं हो सकती, लक्षिता मोबाइल की स्क्रीन पर लगी अपनी और विशाल की शादी की तसवीर को देख कर फीकी सी मुसकरा दी.

पूरे 10 वर्ष का फासला था दोनों की उम्र में. इस के साथसाथ विजातीय होने की अड़चन थी सो अलग… समाज में कैसे स्वीकार होता? स्वीकार होने की प्राथमिकता बढ़ भी जाती यदि विशाल की उम्र लक्षिता से अधिक होती क्योंकि प्रचलित सामाजिक धारणा के अनुसार पुरुष और घोड़े कभी बूढ़े नहीं होते बशर्ते उन्हें अच्छी खुराक दी जाए. शायद इसीलिए लड़कों को लड़कियों से अच्छा खानापीना दिए जाने का रिवाज चल पड़ा होगा. एक बात की कड़ी से कड़ी जोड़ती लक्षिता दूर तक सोच आई.

लक्षिता पुणे की एक मल्टी नैशनल कंपनी में मैनेजर थी और विशाल एक

मैनेजमैंट ट्रेनी… लक्षिता विशाल की बौस थी. 35 वर्षीय लक्षिता देखने में किसी मौडल सी लगती है जिसे देख कर उस की उम्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. चेहरे की स्किन ऐसी पारदर्शी है कि जरा नाखून भी लग जाए तो गाल कई दिनों तक लाल दिखाई दे. बाल बेशक कंधे तक कटे थे, लेकिन लेयर में होने के कारण चेहरे पर नहीं आते. हां, गरदन झकाने पर चेहरे को ढांप जरूर लेते थे जैसे बरसाती दिनों में चांद के चारों तरह घिरा सुनहरा आवरण. लक्षिता अपने चेहरे पर मेकअप नहीं पोतती, लेकिन कुछ तो ऐसा लगाती कि चेहरा हर समय दमकता रहता है. लिपस्टिक का शेड भी न्यूड सा ही रहता और आंखें हमेशा गोल्डन फ्रेम के चश्मे में कैद…

ऐसा नहीं है कि 35 वर्षीय इस युवती को अविवाहित रहने का कोई शौक या शगल था. कुछ मजबूरियां ही ऐसी रहीं कि सही उम्र में विवाह कर ही नहीं पाई. यों तो आजकल 35 में कोई बुढ़ाता नहीं है, लेकिन हां, युवाओं वाले मिजाज तो नर्म पड़ने ही लगते हैं. ऐसी ही ठंडी पड़ती चिनगारी को सुलगाने विशाल उस की जिंदगी में आया था.

विशाल ने जब उस का विभाग जौइन किया तो वह भी लक्षिता को एक आम ट्रेनी जैसा ही लगा था, लेकिन धीरेधीरे विशाल उस के वजूद को स्क्रब की तरह सहलातारगड़ता गया और वह निखरीनिखरी एक नए आकर्षक रूप में खिलती गई.

कभी ‘‘यह रोजरोज सलवारकमीज क्यों पहनती हैं? कभी कुरती के साथ जीन्स भी ट्राई कीजिए,’’ कह कर तो कभी ‘‘बालों को बांधना क्या औफिस के प्रोटोकाल में आता है? चलो मान लिया कि आता होगा, लेकिन औफिस टाइम के बाद तो इन्हें भी आजाद किया जाना चाहिए न?’’ जैसे जुमले वह लक्षिता के पास से गुजरते हुए फुसफुसा देता था. चेहरे पर भोलापन इतना कि लक्षिता चाह कर भी उसे लताड़ नहीं पाती थी.

कब लक्षिता के वार्डरोब में जीन्स और आधुनिक पैंट्स की संख्या बढ़ने लगी, कब औफिस बिल्डिंग के मुख्य दरवाजे से बाहर निकलते ही उस के बालों का कल्चर निकल

कर हैंडबैग के स्ट्रैप में लगने लगा वह जान ही नहीं पाई.

राजपूती कदकाठी को जस्टिफाई करता लंबे कद और चौड़े कंधों वाला विशाल अपने घुंघराले बालों के कारण पीठ पीछे से भी पहचाना जा सकता था. विशाल में गजब की ड्रैस सैंस थी. उस की शर्ट के रंग इतने मोहक और कूल होते कि उस की उपस्थिति एक ठंडक का एहसास दिला देती थी. भीनीभीनी महकती बगलें जैसे अपनी तरफ खींचती थीं. लक्षिता के पास आ कर किसी काम के लिए जब विशाल अपनी दोनों बांहें टेबल पर रख कर फाइलों पर झक जाता तो लक्षिता एक लंबी सांस लेने को मजबूर हो जाती थी. आंखें खुदबखुद मुंद जातीं और विशाल का पसीने मिला डीयो नाक से होता हुआ रूह तक अपना एहसास छोड़ जाता. विशाल एक कुहरे की तरह उसे ढकता गया और जब यह कुहांसा छंटा तो लक्षिता ने पाया कि प्रेम की धुंध उस के भीतर तक उतर चुकी है.

लक्षिता ने इस प्रेम को बहुत नकारा, लेकिन वह प्रेम ही क्या जो दीवानगी ले कर न आए. सच ही कहा है किसी ने कि प्रेम करना किसी समझदार के बस की बात नहीं है. यह तो एक फुतूर है जिसे कोई जनूनी ही निभा सकता है. लक्षिता हालांकि बहुत समझदारी दिखाने की कोशिश कर रही थी. जितना हो सके उतना वह विशाल को नजरअंदाज करने का प्रयास भी करती, लेकिन राजस्थान से आया यह नया ट्रेनी बिलकुल रेगिस्तानी धूल की तरह था. कितने भी खिड़कीदरवाजे बंद कर लो, इस का प्रवेश रोकना नामुमकिन था. अलमारी में रखी साडि़यों की भीतरी तह तक पहुंच जाने वाली गरद की तरह विशाल भी हर परत को बेधता हुआ आखिर लक्षिता के मन के गर्भगृह तक जा ही पहुंचा था.

अपने जन्मदिन पर विशाल ने लक्षिता को डिनर के लिए आमंत्रित किया तो वह इनकार नहीं कर सकी. अंधेरे में भी हाथ बढ़ाते ही हाथ में आने वाली ड्रैस पहनने वाली बेपरवाह लक्षिता को उस दिन अपने लिए ड्रैस का चुनाव करने में

2 घंटे लग गए. जब भी किसी कुरते या साड़ी पर हाथ रखती, पीछे खड़ा विशाल न में गरदन हिला देता. अंत में उसे चुप रहने की सख्त हिदायत देते हुए लक्षिता ने हलके हरे रंग का टौप और औरिजनल डैनिम की पैंट चुनी. गले में फंकी सा लौकेट डालते समय अपनी 35 की उम्र को याद करती वह हिचकी तो थी, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों कानों में भी झलते से लटकन डाल ही लिए थे. लिपस्टिक लगाते समय दिमाग ने पूछा भी था कि आज यह इतना रोमांटिक सा गुलाबी रंग क्यों? लेकिन तु?ो इस से क्या? अपने काम से काम रखा कर कहते हुए दिल ने दिमाग को ऐसा करारा जवाब दिया कि शेष समय दिमाग ने अपने होंठ सिल लिए. लक्षिता को उस का फायदा भी हुआ. पूरी मुलाकात के दौरान दिमाग ने कोई रायता नहीं फैलाया. बस, जो दिल ने कहा लक्षिता करती गई.

विशाल ने घुटनों पर बैठते हुए उसे प्रोपोज किया तो लक्षिता समझ नहीं पा रही थी कि सौगात पर हंसे या रोए. असमंजस में उलझ वह विशाल को भी असमंजस में उलझ छोड़ कर डाइनिंगहौल से बाहर निकल आई.

‘यह आज की पीढ़ी भी न. सपनों में ही जीती है. अरे सपनों से परे समाज भी तो होता है न? उस ने भी तो संसार के सफल संचालन के लिए कुछ नियम बनाए ही हैं. हां, जरूरी नहीं कि ये नियम सब को रास आएं ही, लेकिन नियम किसी एक व्यक्ति की खुशी या सुविधा को

ध्यान में रख कर तो नहीं बनाए जा सकते न?’ लक्षिता कैब में बैठी मन ही मन खुद को

समझने का प्रयास कर रही थी. रातभर विशाल के प्रश्नों के जवाब ही तैयार करती रही. वह जानती थी कि विशाल सवालों की लिस्ट लिए उसे औफिस के मुख्य दरवाजे पर ही खड़ा मिलेगा. लेकिन विशाल को इतना चैन कहां.

उस ने तो सुबहसवेरे ही लक्षिता के घर की घंटी बजा दी.

‘‘आज के दौर के बदलाव को देखते हुए बात करें तो मेरे और तुम्हारे बीच पूरी एक पीढ़ी का फासला कहा जा सकता है. समझ रहे हो न तुम? उम्र का यह फासला बहुत माने रखता है विशाल,’’ लक्षिता ने उसे चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, लेकिन उस के तो रोमरोम पर जैसे इश्क तारी था.

लक्षिता से झगड़ ही पड़ा, ‘‘प्यार हर फासले को पाट देता है,’’ कुछ संयत होने के बाद उसने लक्षिता के दोनों हाथ पकड़ लिए.

लक्षिता उन आंखों की तरलता को सहन नहीं कर सकी. वह पिघलने लगी. न केवल पिघली बल्कि वह तो विशाल के प्रेम प्रवाह में बह ही गई. बहतीबहती इतनी दूर निकल आई कि किनारे न जाने कहां पीछे छूट गए.

वह तो विशाल ने ही प्रेम के चरम को छूने के बाद उस की अधमुंदी आंखों को चूम कर

उसे इस स्वप्नलोक से बाहर निकाला वरना उस का मन तो चाह रहा था कि बस विशाल प्रेम की नैया को खेता रहे और वह बहती रहे.

लक्षिता ने विशाल का प्रेम स्वीकार कर लिया, लेकिन वह जानती थी कि अभी उम्र और जन्म के बंधन को भी पार पाना पड़ेगा. अभी तो शुरुआत हुई है. इस कहानी को अंजाम तक पहुंचाने में बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा. हो सकता है कि शुरुआत घर से ही हो. उस ने अपनी मां को विशाल के बारे में बताया.

जैसाकि उसे अंदेशा था, स्वीकार तो मां को भी नहीं था यह रिश्ता लेकिन ‘‘चलो, देर से ही सही. बेटी का घर तो बस जाएगा. बड़ी बहू, बड़े भाग,’’ कहते हुए किसी तरह उन्होंने खुद को समझ लिया था, मगर विशाल के मातापिता को यह रिश्ता जरा भी नहीं सुहाया था.

‘‘मति मारी गई है लड़के की. अरे 16 की उम्र में तो मैं अपनी मां की गोद में थी. साथ चलोगे तो लोग पतिपत्नी नहीं बल्कि बूआभतीजा सम?ोंगे. ऊपर से ब्राह्मण खानदान की अलग. जिन के पुरखे हमारे यजमान होते हैं हम उन्हें दान दें या उन से बेटी लें?’’ मां ने सख्ती से इस बेमेल जोड़ी की खिलाफत की.

‘‘औरतों के शरीर पर उम्र जल्दी झलकने लगती है. आगे की सोचो. जब इस लड़की की उम्र ढलने लगेगी तब क्या तुम्हारी हमउम्र तुम्हें ललचाएंगी नहीं? फिर अपने होने वाले बच्चों की भी तो सोचो. रिटायरमैंट की उम्र में यह पोतड़े धोएगी क्या?’’ यह कहते हुए पिता ने भी समझया था. लेकिन विशाल के भी अपने अलग तर्क थे.

‘‘अमृता सिंह से ले कर प्रियंका चोपड़ा तक… और शिखर धवन से ले कर सचिन तेंदुलकर तक… किसी को भी देख लो सब अपनी बड़ी पत्नियों के साथ खुश हैं. आप लोग पता नहीं क्यों उम्र के फासले को इतना तूल दे रहे हैं,’’ विशाल ने कई बड़ी हस्तियों के उदाहरण अपने पक्ष में दिए.

‘‘वे सब बड़े लोग हैं. उन्हें समाज से कोई विशेष मतलब नहीं होता, लेकिन हमें तो सब सोचना पड़ेगा न? लोग तुम्हीं में खोट निकालेंगे कि कोई मिली नहीं तो जो मिली उसी को ब्याह लिया,’’ मां ने अपना प्रतिरोध जारी रखा.

मगर विशाल तो सचमुच दीवाना हो उठा था. उस

ने उन की हर दलील को खारिज करते हुए जब कोर्ट मैरिज और घर छोड़ने की धमकी दी तो मन मार कर घर वालों को उस की सनक के सामने झकना पड़ा और तानोंतंजों के मध्य लक्षिता विशाल की ब्याहता बन कर उस के घर आ गई.

किसी आम फिल्मी कहानी की तरह इस दास्तान की कोई हैप्पी ऐंडिंग नहीं हुई थी बल्कि यहां से तो हैप्पीनैस की ऐंडिंग शुरू हुई थी.

‘‘उम्र में जितनी तुम विशु से बड़ी हो, लगभग उतनी ही बड़ी मैं तुम से हूं. मेरी सहेलियां कहती हैं कि बहू से मांजी नहीं बल्कि दीदी कहलवाया करो,’’ सास बातों ही बातों में लक्षिता को उस की उम्र जता देती थी.

‘‘ये तो छोटा है लेकिन तुम तो बड़ी हो न. तुम से तो समझदारी की उम्मीद की ही जा सकती है,’’ कहते हुए विशाल के पिता भी जबतब उस पर बड़प्पन लाद देते.

लक्षिता क्या करती. कट कर रह जाती.

कभीकभी तो शाकाहारमांसाहार को ले कर घर में ऐसी बहस छिड़ती कि लक्षिता को सचमुच यह शादी जल्दबाजी में लिया गया फैसला लगने लगती.

‘विशाल को भी बारबार खुरचने से क्या फायदा. खून का रिश्ता है, किसी दिन उबाल खा गया तो बेवजह बतंगड़ बन जाएगा और लोगों को अपनी आशंका सही साबित होने का दावा करने का मौका मिल जाएगा,’ यही सोच कर लक्षिता चुप्पी साध लेती.

मां से मन की कही तो उन्होंने भी, ‘‘यह तो एक दिन होना ही था,’’ कह कर उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया.

लक्षिता को जब कुछ नहीं सूझ तो उस ने यहां मुंबई यानी अपने मायके में ट्रांसफर ले लिया. इधर मां भी अकेली थी, इसलिए लक्षिता और उन्हें दोनों को ही यह व्यवस्था रास आ गई. काम की अधिकता का बहाना बना कर वह ससुराल जाना टालती रहती. विशाल ही हफ्ते 10 दिन में उस से मिलने आ जाता. गनीमत कि विशाल की उस के प्रति दीवानगी और प्यार अभी भी बरकार थी, इसलिए यह रिश्ता जुड़ा हुआ था. रोज उस से फोन पर बात होती रहती. एक दिन उसी से पता चला कि उस के पापा कोरोना पौजिटिव हो गए हैं. 3 ही दिन में इतने गंभीर हो गए कि उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा.

कहने को तो मरीज की पूरी देखभाल अस्पताल के जिम्मे ही थी, लेकिन अस्पताल के बाहर भी सैकड़ों काम होते हैं यह विशाल को इसी दौरान पता चला. बेचारा विशाल उन के लिए आवश्यक दवाओं, औक्सीजन और आईसीयू बेड की व्यवस्था करता हकलान हुआ जा रहा था. कभी इस डाक्टर से राय लेता तो कभी उस डाक्टर से. विशाल को समझ में नहीं आ रहा था कि जिंदगी में आए इस भूचाल को कैसे व्यवस्थित करे. इस से पहले तो कभी पापा ने उसे इस उलझन में आने ही नहीं दिया.

दूसरी तरफ मां का हाल अलग ही बुरा था. वह बारबार अस्पताल जाने और पापा को देखने की जिद किए जा रही थी. विशाल अपनी सारी परेशानी लक्षिता को सुना कर हलका हो लिया करता था. लक्षिता भी कभी केवल सुन कर तो कभी सलाह दे कर उस का हौसला बढ़ाती रहती.

अगले 2 दिन विशाल का फोन नहीं आया. ‘व्यस्त होगा,’ सोच कर लक्षिता ने भी उसे डिस्टर्ब नहीं किया. आज रविवार की छुट्टी थी. लक्षिता को विशाल के आने की उम्मीद थी. जब से वह यहां शिफ्ट हुई है, एक छोड़ एक रविवार को विशाल आता है उस से मिलने.

शाम ढलने को थी, लेकिन विशाल नहीं आया. उस के इंतजार में लक्षिता ने लंच भी नहीं किया. सोचा साथ ही करेंगे, लेकिन अब तो वह शाम की चाय भी पी चुकी थी. मां ने जिद की तो चाय के साथ 2 बिस्कुट ले लिए.

‘‘आज विशाल नहीं आया?’’ मां ने पूछा.

लक्षिता सिर्फ ‘‘हम्म’’ कह कर रह गई.

‘‘क्यों?’’ मां ने फिर पूछा तो लक्षिता ने ससुरजी के कोरोना ग्रस्त और विशाल के परेशानी में होने की जानकारी दी. लक्षिता ने महसूस किया कि उस के हर वाक्य के साथ मां की आंखें आश्चर्य से फैलतीं और माथे की लकीरें तनाव से सिकुड़ती जा रही थीं.

‘‘अरे, विशाल तो छोटा है, लेकिन तु?ो भी अकल क्यों नहीं आई. कम से कम ऐसे समय तो सासससुर को बहू से सेवा की आशा रहती ही है. मैं तो कहती हूं कि तुझे कल ही वहां चले जाना चाहिए. तू ऐसा कर, अभी विशाल को फोन कर. उसे हिम्मत बंधा और अपना सामान पैक कर. और सुन, औफिस से कम से कम 15 दिन की छुट्टी ले कर जाना.’’

मां ने लक्षिता को दुनियादारी सिखाई.

लक्षिता को हालांकि मां का उम्र का हवाला देना अखरा, लेकिन उसे अपनी गलती भी महसूस हुई.

‘अकेला लड़का, बेचारा परेशान हो रहा है. न घरबाहर संभल रहा होगा… मुझ से भी तो आने को कह सकता था न,’’ सोचतेविचारते हुए उस ने विशाल को फोन किया.

‘‘क्या बताता तुम्हें? पापा को संभालतेसंभालते मैं खुद संक्रमित हो गया. तुम्हें बताता तो तुम आने की जिद करती और तुम्हारे लिए मैं कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता. फिलहाल तो लक्षण गंभीर नहीं दिख रहे इसलिए घर पर ही क्वारंटीन हूं, लेकिन मु?ो बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्या होगा,’’ लक्षिता का फोन सुनते ही विशाल छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगा.

इधर लक्षिता के पांवों तले से भी जमीन दरक गई. उसे पति पर दया भी आई और लाड़ भी. अगले दिन सुबह लक्षिता विशाल के घर अपनी सास के पास थी.

घर पहुंचते ही लक्षिता ने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. साफसफाई से ले कर पौष्टिक खाने तक सभी काम वह अपनी निगरानी में ही करवाती. विशाल एक अलग कमरे में क्वारंटीन था. लक्षिता उस की हर जरूरत का खयाल रख रही थी. वह विशाल की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर अपनी नजर बनाए हुए थी. विशाल को अकेलापन न खले इस का भी उसे पूरा खयाल था. लगातार वीडियो कौल पर बातों के साथसाथ कुछ अच्छी पुस्तकों और कई ओटीटी प्लेटफौर्म उसे सब्सक्राइब करवा दिए ताकि उस का मन बहलता रहे.

लक्षिता की सास उस की हर गतिविधि का अवलोकन कर रही थी. हालांकि लक्षिता ऐसा कुछ भी विशेष नहीं कर रही थी जो कोई अन्य नहीं कर सकता, लेकिन उस ने महसूस किया कि लक्षिता के हर क्रियाकलाप में एक गंभीरता है, परिपक्वता है. वह कोई भी काम चाहे किसी डाक्टर से परामर्श लेना हो या कोई घरेलू उपाय, हड़बड़ी या घबराहट में नहीं करती बल्कि पूरी तरह से विचार कर, आगापीछा सोच कर करती है. इस दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आया कि यदि बहू विशाल की हमउम्र होती तो ऐसी परिस्थति में कैसे रिएक्ट करती. शायद मुसीबतों का भी व्यक्ति की उम्र से कुछ लेनादेना नहीं होता.

डाक्टर की दवाओं के साथसाथ लक्षिता एक वैद्य के संपर्क में भी थी.

ऐलोपैथी और आयुर्वेद के साथसाथ लक्षिता की मेहनत भी मिल गई थी. तीनों ने मिल कर उम्मीद से कहीं अधिक अच्छे परिणाम दिए. विशाल अब पहले से काफी बेहतर महसूस कर रहा था. सप्ताह भर बाद उस की कोरोना रिपोर्ट भी नैगेटिव आ गई और इधर विशाल के पापा को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वे भी लक्षिता की समझदारी की तारीफ करते नहीं थक रहे थे.

इन दिनों लक्षिता की सास के चेहरे पर संतुष्टि की चमक उत्तरोत्तर गहराने लगी थी. उस ने यह भी लक्ष्य किया कि लक्षिता के सलीके और सुघड़ता को देख कर उस की और विशाल की उम्र के अंतर को भांप पाना आसान नहीं लगता.

विशाल अब पूरी तरह से स्वस्थ था. पापा की रिकवरी भी बहुत अच्छी हो रही थी. 2 दिन बाद लक्षिता की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. लक्षिता ने घर में साफसफाई और खाने की व्यवस्था करवा दी. कपड़े धोने के लिए औटोमैटिक वाशिंग मशीन भी खरीद लाई. एकबारगी काम चलाने लायक जुगाड़ हो गया था. यह भी तय हुआ कि जब तक पापा पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तब तक लक्षिता हर सप्ताह उन्हें देखने आएगी. यही सब बताने के लिए लक्षिता अपनी सास के कमरे की तरफ जा रही थी कि भीतर से आते संवाद में अपने नाम का जिक्र सुन कर दरवाजे पर ही ठिठक गई.

‘‘लक्षिता, सचमुच बहुत समझदार है. उस के व्यवहार ने मेरी उस धारणा को गलत साबित कर दिया कि अधिक उम्र की लड़की अपने पति को बच्चा समझ कर उस के साथ मां की तरह पेश आती है बल्कि अब तो मु?ो लग रहा है कि विशाल से तो लक्षिता जैसी समझदार पत्नी ही निभा सकती थी. कितना बचपना है विशाल में. एकदम अनाड़ी है दुनियादारी में.’’

अपने बारे में सास के विचार जान कर लक्षिता चौंक गई.

‘‘यानी तुम इस बात को स्वीकार करती

हो कि विवाहित जोड़े में किसी एक की उम्र

दूसरे से इतनी ही अधिक होनी चाहिए. तुम्हारे हिसाब से उम्र का यह फासला जायज है?’’ यह ससुर की आश्चर्य भरी प्रतिक्रिया थी. लक्षिता

इस प्रतिक्रिया का जवाब सुनने के लिए उतावली हो उठी. उस ने अपने कान सास के जवाब पर टिका दिए.

‘‘हर जोड़े में ऐसा ही हो यह जरूरी नहीं. इस बात में भी दोराय नहीं कि उम्र का

अधिक फासला रिश्तों में पेचीदगी लाता है, लेकिन हां, इस बात को मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूं कि प्रेम उम्र के फासले को पाट सकता है,’’ सास ने कहा तो लक्षिता के चेहरे की मुसकान और भी अधिक गहरी हो गई. वह सास के कमरे में जाने के बजाय रसोई की तरफ मुड़ गई. आज मन कुछ खास बनाने को हो आया.

‘‘लक्षिता, वैसे तो यह फैसला पतिपत्नी का होता है, लेकिन फिर भी मैं सलाह देना चाहूंगी कि तुम दोनों को अपना परिवार बढ़ाने में देर नहीं करनी चाहिए. उम्र बढ़ने पर कोई कौंप्लिकेसी आ सकती है,’’ सास ने रात को खाने की मेज पर सब के सामने कहा तो निवाला मुंह की तरफ बढ़ाते विशाल का हाथ रुक गया. वह कभी अपनी मां तो कभी लक्षिता की तरफ देखने लगा.

सब्जी परोसती लक्षिता के हाथ भी ठिठक गए. आज उसे सास का बड़ी उम्र का ताना देना भी बुरा नहीं लगा. रिश्ते को स्वीकृति देने के इस अनोखे अंदाज को समझते ही लक्षिता की आंखें शर्म से झक गईं.

‘‘मैं तो कहता हूं कि कोशिश कर के तुम अपना ट्रांसफर यहीं करवा लो, कम से कम परिवार एकसाथ तो रहेगा,’’ कहते हुए ससुरजी ने उस की तरफ देखा.

विशाल और लक्षिता एकदूसरे को चोर निगाहों से देखते हुए मंदमंद मुसकरा रहे थे.

जीने दो और जियो: क्यों खुश नहीं थी अर्चना

प्यार पर किस का बस चला है, जो अपने कैरियर के प्रति संप्रित अर्चना का चलता. न चाहते हुए भी नितिन से प्यार हो ही गया और इतना ज्यादा कि नितिन के नौकरी बदलने के बाद उस के लिए भी उस औफिस में काम करना असहनीय हो गया. एक दोपहर उस ने नितिन को फोन किया कि क्या वह लंबा लंचब्रेक ले कर उस से मिल सकता है. अर्चना ने इतनी आजिजी से पूछा था कि नितिन मना नहीं कर सका, उस के आते ही अर्चना ने पूछा, ‘‘तुम्हारे नए औफिस में मु झे कोई जगह मिल सकती है, नितिन?’’

‘‘औफिस में तो नहीं, मेरी जिंदगी और दिल में सारी जगह सिर्फ तुम्हारे लिए है. सो, आ जाओ वहां यानी शादी कर लो मु झ से.’’

‘‘और फिर घरगृहस्थी के चक्कर में फंस कर नौकरी को अलविदा कह दो. बहुत बड़ी कीमत मांग रहे हो प्यार की?’’

‘‘मु झ से शादी कर के तुम घरगृहस्थी के चक्कर में कभी नहीं फंसोगी क्योंकि मेरी मम्मी भी अपनी गृहस्थी वैसे ही खुशीखुशी संभाल रही हैं जैसे तुम्हारी मम्मी, अभी जैसे अपने घर से औफिस आती हो, शादी के बाद मेरे घर से आ जाया करना.’’

‘‘ऐसा अभी सोच रहे हो, लेकिन शादी के बाद तुम भी वैसा ही सोचने लगोगे जैसा तुम्हारी मम्मी सोचेगी कि बहू का काम घर संभालना है, औफिस नहीं.’’

‘‘मेरी मां की नसीहत है कि अगर जिंदगी में तरक्की करनी है तो शादी कामकाजी लड़की से ही करना. ‘मैं अकेले बोर हो रही हूं,’ कह कर तुम्हें, काम अधूरा छोड़ कर, जल्दी घर आने को मजबूर न करें.’’

‘‘तुम्हारी मम्मी भी कुछ काम करती हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, बहुत काम करती हैं अपने घर के अलावा पासपड़ोस के भी. जैसे किसी के लिए स्वेटर बुनना, किसी के लिए अचार डालना वगैरहवगैरह यानी, मम्मी हम बापबेटे के इंतजार में बैठ कर बोर नहीं होतीं, व्यस्त रखती हैं स्वयं को. क्यों न कुछ फैसला करने से पहले तुम मम्मी से मिल लो, अभी चलें?’’ नितिन के आग्रह को अर्चना टाल न सकी.

नितिन के घर के दरवाजे पर ताला था. ‘‘पापा औफिस में होंगे और मम्मी कहीं पड़ोस में,’’ कह कर नितिन ने मोबाइल पर नंबर मिलाया.

‘‘मम्मी पड़ोस में अय्यर आंटी को गाजर का हलवा बनाना सिखा रही हैं,’’ नितिन ने ताला खोलते हुए कहा, ‘‘जब तक मम्मी आती हैं तब तक तुम्हें अपना घर दिखाता हूं.’’ छत पर सूखते कपड़ों में जींस, टौप, लैगिंग, कुरतियां और पटियाला सलवार वगैरह देख कर अर्चना पूछे बगैर न रह सकी, ‘‘तुम्हारी कितनी बहनें हैं?’’

‘‘एक भी नहीं. ओह, सम झा, ये कपड़े देख कर पूछ रही हो. ये सब मम्मी के हैं. उधर देखो, मम्मी आ रही हैं.’’

फर्श को छूती अनारकली डै्रस आंखों पर महंगा धूप का चश्मा और स्लिंग बैग से मैच करते सैंडिल पहने एक स्थूल महिला चली आ रही थी. परस्पर परिचय के बाद नितिन ने कहा. ‘‘आप ने कहा था न कि अगर कोई लड़की पसंद हो तो बता. सो, मैं अर्चना को आप से मिलवाने लाया हूं.’’

‘‘मैं ने कहा था, बता, ताकि मैं उस के घर प्रस्ताव भिजवा सकूं, यह नहीं  कि उसे ही यहां ले आ डिसप्ले आइटम की तरह,’’ मम्मी ने स्नेह से अर्चना के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘सौरी बेटा, नितिन ने मु झे गलत सम झा.’’

‘‘मैं ने कुछ गलत नहीं सम झा, मम्मी. प्रस्ताव तो तब भिजवाओगी न, जब यह शादी करने को तैयार होगी,’’ नितिन बोला. ‘‘यह हार्डकोर कैरियर वुमन है. मु झ से प्यार तो करती है पर शादी से डरती है कि कहीं घरगृहस्थी के चक्कर में इसे नौकरी न छोड़नी पड़े.’’

‘‘मु झे नितिन के लिए उस की पसंद की जीवनसंगिनी चाहिए घर चलाने को अपने लिए सहायिका नहीं. मु झे यह घरसंसार चलाते हुए अढ़ाई दशकों से अधिक हो गए हैं अगले 2 दशक तक तो बगैर तुम्हारी मदद लिए या नौकरी छुड़वाए आसानी से यह गृहस्थी और नितिन के बालबच्चे संभाल सकती हूं. अगर मेरी बात पर भरोसा है तो किसी ऐसे का नाम बता दो जिसे तुम्हारे घर…’’

‘‘उस की फ्रिक मत करो, मम्मा. पापा के दोस्त अशोक अंकल अर्चना के मामा हैं,’’ नितिन ने बात काटी.

‘‘तुम्हें अगर मैं पसंद हूं तो हम आज ही अशोकजी से…’’ कि उन का मोबाइल बजने लगा, ‘‘हां रत्नावल्ली, बस, अभी आ रही हूं.’’ वे नितिन से बोलीं, ‘‘भई, इस से पहले कि ‘अईअईयो’ करती रत्नावल्ली अपने हलवे की कड़ाही उठाए यहां आ जाए, मैं उस का हलवा भुनवा कर आती हूं. तुम लोग बैठो.’’

‘‘हम भी चलेंगे, मम्मी. औफिस में छुट्टी नहीं है,’’ नितिन उठ खड़ा हुआ. ‘‘अय्यर आंटी के चक्कर में मम्मी ने तुम्हारा जवाब नहीं सुना. खैर, मु झे बता दो कि मम्मी कैसी लगीं?’’

‘‘अच्छी लगीं,’’ और बहुत मुश्किल से खुद को यह कहने से रोका कि ‘‘कुछ अटपटी या अजीब भी.’’

रात को सब लोग टीवी देख रहे थे कि पापा का मोबाइल बजा.  झुं झलाते हुए पापा ड्राइंगरूम से उठ कर चले गए. फिर कुछ देर के बाद मुसकराते हुए वापस आए, ‘‘तुम अशोक के दोस्त योगेश और उन की बीवी आशा से तो मिली हो न, रचना?’’

‘‘हां, बहुत अच्छी तरह जानती हूं चुलबुली, जिंदादिल आशा को. क्या हुआ उन्हें?’’

‘‘उन्होंने अपने बेटे नितिन के लिए अर्चना का हाथ मांगा है.’’

‘‘अरे नहीं, यह कैसे हो गया,’’ रचना चिल्लाई, ‘‘आशा से यह सुन कर कि चाहे वह कितनी भी मोटी और बेडौल हो जाए, जींस पहनना कभी नहीं छोड़ेगी, मैं ने सोचा था कि तब तो इस की बहू बड़ी सुखी रहेगी कि उस के जींस पहनने पर सास रोक नहीं लगाएगी. मु झे क्या पता था कि मेरी बेटी को ही यह सुख मिल सकता है.’’

‘‘मिल सकता नहीं, मिल गया है. अर्चना और नितिन एकदूसरे को पसंद करते हैं और अर्चना की सहमति के बाद ही उन लोगों ने प्रस्ताव भिजवाया है.’’

‘‘अरे वाह अर्ची, छिपी रुस्तम निकली तू तो. कब से चल रहा था वह सब?’’

‘‘मु झे खुद नहीं पता, मम्मी,’’ अर्चना ने रुंधे स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तो नितिन से अपने औफिस में काम दिलवाने को कहा था. उस ने शादी का प्रस्ताव रख दिया और बोला कि मना करने से पहले मेरी मां से मिल लो और मु झे अपने घर ले गया.’’

घर पर क्या हुआ बताने के बाद अर्चना ने कहा कि उसे आशा का व्यवहार आपत्तिजनक तो नहीं, अटपटा जरूर लगा.

‘‘अटपटा क्यों लगा?’’

‘‘उन के कपड़े पहनने और बातचीत का तरीका बड़ा बिंदास सा है, उन की आयु के अनुरूप नहीं.’’

‘‘वह तो है, अपनी उम्र के अनुरूप व्यवहार नहीं करती आशा. मगर तेरे लिए तो यह अच्छा ही है. इतने सहज स्वभाव की सास मुश्किल से मिलती है,’’ रचना ने बात काटी और पति की ओर मुड़ी, ‘‘आप ने क्या कहा अशोकजी से?’’

‘‘कहना क्या था, योगेश का नंबर ले लिया है. चाय या खाने पर आने को कब कहूं, यह तुम बताओ.’’

रचना ने अर्चना की ओर देखा, ‘‘कल ही बुला लें?’’

‘‘इतनी जल्दी नहीं मां, मु झे थोड़ा सोचने का समय दीजिए.’’

‘‘उस का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता, अर्ची. तू शादी इसीलिए नहीं करना चाहती न, कि इस से तेरे कैरियर पर असर पड़ेगा और उस का समाधान तेरी सास ने कर दिया है. अरे तू चाहे तो आशा तु झे स्टांपपेपर पर लिख कर दे देगी कि शादी के बाद तु झे घरगृहस्थी की चक्की में नहीं पिसना पड़ेगा. अपनी पसंद का वर, हर तरह से उपयुक्त संपन्न घर और आशा जैसी खुशमिजाज सास के मिलने पर सोचने के लिए रह क्या गया है?’’ रचना ने कहा.

‘‘बिलकुल ठीक कह रही हो, रचना. मैं योगेशजी को फोन कर के कहता हूं कि जब भी सुविधा हो, आ जाएं,’’ और पापा मोबाइल पर नंबर मिलाने लगे.

अर्चना अपने कमरे में आ गई. कुछ देर के बाद नितिन का फोन आया, ‘‘बधाई हो अर्चना, पापा ने अभी बताया कि फोन पर तो हमारी शादी पक्की हो गई है. मिलनेमिलाने की औपचारिकता इस सप्ताहांत यानी 2 रोज बाद हो जाएगी. अब तो खुश हो न?’’

सहारे की तलाश: क्या प्रकाश को जिम्मेदार बना पाई वैभवी?

दिल आज फिर दिमाग से विद्रोह कर बैठा. क्या ऐसी ही जिंदगी की उम्मीद की थी उस ने? क्या ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने? खुद वह कितनी संभावनाओं से भरी हुई थी, अपना रास्ता तलाश कर मंजिल तक पहुंचना वह जानती है, रिश्तों के तारों के छोर सहला कर उन्हें जोड़ना भी उसे आता है. जीवनसाथी ऐसा हो जिस पर नाज कर सके. उस का कोई तो रूप ऐसा हो, वह शारीरिक रूप से ताकतवर हो या मानसिक रूप से परिपक्व हो, खुला व्यक्तित्व हो या फिर आर्थिक रूप से हर सुख दे सके या फिर भावनात्मक रूप से इतना प्रेमी हो कि उस के माधुर्य में डूब जाओ. कोई तो कारण होना चाहिए किसी पर आसक्ति का. प्यार सिर्फ साथ रहने भर से हो सकता है, एकदूसरे की कुछ मूलभूत जरूरतें पूरी करने से हो सकता है. लेकिन आसक्ति, बिना काण नहीं हो सकती.

छलकपट से भरा दिमाग, कभी किसी को निस्वार्थ प्यार नहीं कर सकता और न पा सकता है. ऐसे इंसान पर प्यार लुटाना लुटने जैसा प्रतीत होता है. दिमाग समझता है जिंदगी को नहीं बदल सकते हम. इंसान को नहीं बदल सकते. पति की काबिलीयत, स्वभाव या क्षमता को घटाबढ़ा नहीं सकते, सबकुछ ले कर चालाकी से अपनी टांग ऊपर रखने की आदत को नहीं बदल सकते. पर खुद को बदल सकते हैं, खुद के नजरिए को बदल सकते हैं. दिमाग की यह घायल समझ दिल से आंसुओं के सैलाब में बह जाती है जब दिल नहीं सुन पाता है किसी की, जब दिल खुद से ही तर्क करने लग जाता है. पूरी जिंदगी रीत गई, अब क्या समेटना है. अब तक जिंदगी के हर पहलू को अपने सकारात्मक नजरिए से देखती रही. पर कब तक दिल में उठ रही नफरत को दबाती रहती. क्या किसी ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने जो सिर्फ बिस्तर पर ही रोमांटिक प्रणयी हो.

आज वैभवी के दिल के तार झनझना गए थे. उस के पिताजी ने अपनी छोटी सी जायदाद के 2 हिस्से कर अपने दोनों बच्चों में बांट दिए थे. भैया का परिवार मुंबई में रहता था. उस की नौकरी वहीं पर थी. वह खुद दिल्ली में रहती थी और मांपिताजी चंडीगढ़ में रहते थे. डाक्टर ने पिताजी को हर्निया का औपरेशन कराने के लिए कह दिया था. पिताजी काफी समय से तकलीफ में थे. जब वह पिछली बार चंडीगढ़ गई थी तो मां ने पिताजी की तकलीफ के बारे में उसे बताया था. वह विचलित हो गई थी. उस ने भैया से फोन पर बात की तो भाई ने यह कह कर मजबूरी जता दी थी कि इतनी छुट्टी उसे एकसाथ नहीं मिल सकती कि वह चंडीगढ़ जा कर औपरेशन करा सके और साथ ही मां से तेरी भाभी की बिलकुल नहीं बनती, इसलिए मुंबई ला कर भी औपरेशन की बात नहीं सोच सकता.

‘‘वैसे भी तू जानती है वैभवी, छोटा सा फ्लैट, पढ़ने वाले बच्चे, बीमार आदमी के साथ बडे़ शहर में बहुत मुश्किल हो जाती है,’’ भैया ने मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘तो फिर क्या पिताजी को ऐसे ही तकलीफ में मरने के लिए छोड़ दें,’’ वैभवी के स्वर में तल्खी आ गई थी.

‘‘तो फिर तू चली जा या फिर प्रकाश चला जाए. उस की तो सरकारी नौकरी है, छुट्टी मिलने में इतनी दिक्कत भी नहीं होगी,’’ उस के स्वर की तल्खी भांप कर वह भी चिढ़ गया था.

‘‘लेकिन भैया, बेटे के होते हुए दामाद का एहसान लेना क्या ठीक है?’’ वह अपने को संयमित कर लाचारी से बोली थी.

‘‘क्यों? जब हिस्सा मिला तब तो बेटीदामाद जैसी कोई बात नहीं हुई और जब जिम्मेदारी निभाने की बात आई तो वह दामाद हो गया,’’ भैया भुन्नाता हुआ बोला.

वह दुखी हो गई थी. दिल किया कि कोई तीखा सा जवाब दे दे. पर चुप रह गई. आखिर गलत भी नहीं कहा था. पर यह सब कहने का अधिकार भी भैया को तब ही था जब वह अपने कर्तव्य का हर समय पालन करता.

वह तो जायदाद में हिस्सा बिलकुल भी नहीं चाहती थी. उस ने पिताजी को बहुत मना भी किया था पर एक तो मांपिताजी की जिद और दूसरे, प्रकाश की चाहत भांप कर उस ने हां बोल दी. सोचा, जायदाद पा कर ही सही, प्रकाश उस के मांपिताजी के लिए नरम रुख अपना ले. इस के अलावा जरूरत पड़ने पर उसे चंडीगढ़ जाने में भी आसानी हो जाएगी. एकदम मना नहीं कर पाएगा प्रकाश उसे. पर भैया के व्यवहार में तब से तटस्थता आ गई थी. भाभी तो हमेशा से ही तटस्थ थीं. पर भैया का व्यवहार वैसे सामान्य था. उसे अपनी परवा नहीं थी. बस, मांपिताजी का ध्यान रख ले भैया, इसी से वह खुश रहती. पर भैया के जवाब से उस का दिल टूट गया था. भैया का अगर जवाब ऐसा है तो प्रकाश का जवाब तो वह पहले से ही जानती है. फिर भी उस ने सोचा एक बार तो प्रकाश से बात कर के देख ले. उस से और मां से पिताजी के औपरेशन का तामझाम नहीं संभलेगा. कोई भी परेशानी खड़ी हो गई तो एक पुरुष का साथ तो होना ही चाहिए औपरेशन के समय. प्रकाश का मूड ठीक सा भांप कर एक दिन उस ने प्रकाश से बात कर ही ली.

‘‘पिताजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही है प्रकाश, कल भी बात हुई थी मां से. डाक्टर कह रहे हैं कि समय से औपरेशन करवा लो.’’

‘‘हां तो करवा लें,’’ प्रकाश के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए थे.

‘‘तुम चलोगे चंडीगढ़, कुछ दिन की छुट्टी ले कर?’’

‘‘क्यों, उन के बेटे का क्या हुआ?’’

‘‘किस तरह से बोल रहे हो, प्रकाश. बात की थी मैं ने भैया से, छुट्टी नहीं मिल रही उन्हें. थोड़े दिन की छुट्टी तुम ले लो न. औपरेशन करवा कर तुम आ जाना. फिर कुछ दिन मैं रह लूंगी. फिर थोड़े दिन के लिए भैया भी आ जाएंगे. तो पिताजी की देखभाल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे भी छुट्टी नहीं मिलेगी अभी,’’ कह कर प्रकाश उठ कर बैडरूम की तरफ चल दिया, ‘‘और हां,’’ वह रुक कर बोला, ‘‘तुम भी वहां लंबा नहीं रह सकती हो, यहां खानेपीने की दिक्कत हो जाएगी मुझे,’’ इतना कह कर प्रकाश चला गया.

उस ने भी हार नहीं मानी. और उस के पीछे चल दी, चलतेचलते उस ने कहा, ‘‘प्रकाश, उन्होंने हम दोनों भाईबहन को अपना सबकुछ बांट दिया है तो हमारा भी तो उन के प्रति फर्ज बनता है.’’

‘‘तो,’’ प्रकाश तल्खी से बोला, ‘‘बेटी को ही दिया है क्या, बेटे को नहीं दिया, वह क्यों नहीं आ जाता?’’

‘‘उफ,’’ वैभवी का सिर भन्ना गया. प्रकाश के तर्क इतने अजीबोगरीब होते हैं कि जवाब में कुछ भी कहना मुश्किल है. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक चला जाता है. दिल घायल हो गया. पिताजी के 2 अपंग सहारे प्रकाश और भैया जिन पर पिताजी ने अपना सबकुछ लुटा दिया, जिन्हें पिताजी ने अपना आधार स्तंभ समझा, आज कैसा बदल गए हैं. इस के बाद उस ने प्रकाश से कोई बात नहीं की. चुपचाप अपना रिजर्वेशन करवाया और जाने की तैयारी करने लगी. प्रकाश के तने हुए चेहरे की परवा किए बिना वह चंडीगढ़ चली गई. उस की बेटी इंजीनियर थी और जौब कर रही थी. 2 दिन बाद वह कुछ दिनों की छुट्टी में घर आ रही थी. वैभवी ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत करवाया और चंडीगढ़ चली गई. मां ने वैभवी को देखा तो उन्हें थोड़ा सुकून मिला.

वैभवी को देख मां ने कहा, ‘‘दामाद जी नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारा बेटा आया जो दामाद आता,’’ वह चिढ़ कर बोली, ‘‘बेटी काफी नहीं है तुम्हारे लिए?’’

मां चुप हो गईं. एक वाक्य से ही सबकुछ समझ में आ गया था. पिताजी ने कुछ नहीं पूछा. दुनिया देखी थी उन्होंने. फिर कुछ पूछना और उस पर अफसोस करने का मतलब था पत्नी के दुख को और बढ़ाना. सबकुछ समझ कर भी ऐसा दिखाया जैसे कुछ हुआ ही न हो. पिताजी का जिस डाक्टर से इलाज चल रहा था उन से जा कर वह मिली. औपरेशन का दिन तय हो गया. उस ने प्रकाश व भाई को औपचारिक खबर दे दी. डरतेडरते उस ने पिताजी का औपरेशन करवा दिया. मन ही मन डर रही थी कि कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा. पर पिताजी का औपरेशन सहीसलामत हो गया, उस की जान में जान आई. पिताजी को जिस दिन अस्पताल से घर ले कर आई, मन में संतोष था कि वह उन के कुछ काम आ पाई. पिताजी को बिस्तर पर लिटा कर, लिहाफ उढ़ा कर उन के पास बैठ गई. उन के चेहरे पर उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे जो शायद बेटे के लिए नहीं होते. आज समाज में बेटी को पिता की जायदाद में हक जरूर मिल गया था लेकिन मातापिता अपना अधिकार आज भी बेटे पर ही समझते हैं.

पिताजी ने आंखें बंद कर लीं. वह चुपचाप पिताजी के निरीह चेहरे को निहारने लगी. दबंग पिताजी को उम्र ने कितना बेबस व लाचार बना दिया था. भैया व प्रकाश, पिताजी के 2 सहारे कहां हैं? वह सोचने लगी, उसे व भैया को पिताजी ने कितने प्यार से पढ़ायालिखाया, योग्य बनाया, वह लड़की होते हुए भी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता की जरूरत पर आ गई. लेकिन भैया, वह पुरुष होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता के काम नहीं आ पाए. सच है रिश्ते तो स्त्रियां ही संभालती हैं, चाहे फिर वह मायके के हों या ससुराल के. लेकिन पुरुष, वह ससुराल के क्या, वह तो अपने सगे रिश्ते भी नहीं संभाल पाता और उस का ठीकरा भी स्त्री के सिर फोड़ देता है. पिताजी कुछ दिन बिस्तर पर रहे. उन की तीमारदारी मां और वह दोनों मिल कर कर रही थीं. भैया ने पापा की चिंता इतनी ही की थी कि एक दिन फुरसत से मां व पिताजी से फोन पर बातचीत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘कुछ जरूरत हो तो बता देना, कुछ रुपए भिजवा देता हूं.’’

‘‘उस की जरूरत नहीं है, भैया,’’ रुपए का तो पिताजी ने भी अपने बुढ़ापे के लिए इंतजाम किया हुआ है. उन्हें तो तुम्हारी जरूरत थी. उस ने कुछ कहना चाहा पर रिश्तों में और भी कड़वाहट घुल जाएगी, सोच कर चुप्पी लगा गई और तभी फोन कट गया.

वैभवी 15 दिन रह कर घर वापस आ गई. प्रकाश का मुंह फूला हुआ था. उस ने परवा नहीं की. चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. प्रकाश ने पिताजी की कुशलक्षेम तक नहीं पूछी पर उस की सास का फोन उस के लिए भी और उस के मांपिताजी के लिए भी आया, उसे अच्छा लगा. सभी बुजुर्ग शायद एकदूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं. उस की बेटी वापस अपनी नौकरी पर चली गई थी. पिताजी की हालत में निरंतर सुधार हो रहा था, इसलिए वह निश्ंिचत थी. उस के सासससुर देहरादून में रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि तभी एक दिन उस की सास का बदहवास सा फोन आया. उस के ससुरजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था. वे दोनों तुरंत देहरादून के लिए निकल पड़े. प्रकाश का भाई अविनाश, जो पुणे में रहता था, अपनी पत्नी के साथ देहरादून पहुंच गया. पता चला कि प्रकाश के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. एंजियोग्राफी से पता चला कि उन की धमनियों में रुकावट थी. अब एंजियोप्लास्टी होनी थी.

अविनाश की पत्नी छवि स्कूल में पढ़ाती थी, वह 2-4 दिन की छुट्टी ले कर आई थी. पापा को तो एंजियोप्लास्टी और उस के बाद की देखभाल के लिए लंबे समय की जरूरत थी. प्रकाश के पापा अभी अस्पताल में ही थे. छवि की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. वह वापस जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘मैं भी चलता हूं, भैया,’’ अविनाश बोला, ‘‘छवि अकेले कैसे जाएगी?’’

‘लेकिन अविनाश, पापा को लंबी देखभाल और इलाज की जरूरत है. कुछ दिन हम रुक लेते हैं, कुछ दिन तुम छुट्टी ले कर आ जाओ,’’ प्रकाश बोला.

‘‘भैया, हम दोनों की तो प्राइवेट नौकरी है, इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिल पाएंगी और मम्मीपापा को पुणे भी नहीं ले जा सकता, छवि भी नौकरी करती है,’’ कह कर उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना दोनों पतिपत्नी पुणे के लिए निकल गए.

अब प्रकाश पसोपेश में पड़ गया. बड़ा भाई होने के नाते वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकता था. उस ने सहारे के लिए वैभवी की तरफ देखा. पर वहां तटस्थता के भाव थे. मौका पा कर धीरे से बोला, ‘‘वैभवी, मम्मीपापा को अपने साथ ले चलते हैं, वहां आराम से इलाज और देखभाल हो जाएगी. यहां तो हम इतना नहीं रुक पाएंगे. या फिर एंजियोप्लास्टी करवा कर मैं चला जाता हूं, तुम रुक जाओ, मैं आताजाता रहूंगा.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों रुकूं, फालतू हूं क्या? नौकरी नहीं कर रही हूं? तो क्या मेरी ही ड्यूटी हो गई, छवि या अविनाश नहीं रह सकता यहां?’’

‘‘लेकिन जब वे दोनों जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाह रहे हैं तो पापा को ऐसे तो नहीं छोड़ सकते हैं न. किसी को तो जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां तो, जिम्मेदारी उठाने के लिए सिर्फ हम ही रह गए. और सेवा करने के लिए सिर्फ मैं. कल को पापा की संपत्ति तो दोनों के बीच ही बंटेगी, सिर्फ हमें तो नहीं मिलेगी, मुझ से नहीं होगा.’’ कह कर पैर पटकती हुई वैभवी कमरे से बाहर निकल गई. बाहर लौबी में सास बैठी हुई थीं, उदास सी. उन का हाथ पकड़ कर किचन में ले गई वैभवी. उन्होंने सबकुछ सुन लिया था, उन के चेहरे से ऐसा लग रहा था. आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. चेहरे पर घोर निराशा थी.

‘‘मां,’’ वह उन का चेहरा ऊपर कर के बोली, ‘‘खुद को कभी अकेला मत समझना, हम हैं आप के साथ और आप की यह बेटी आप की सेवा करने के लिए है, मुझ पर विश्वास रखना, मैं प्रकाश के साथ सिर्फ नाटक कर रही थी, मैं उन्हें कुछ एहसास दिलाना चाहती थी, मुझे गलत मत समझना. आप के पास कुछ भी न हो, तब भी आप के बच्चों के कंधे बहुत मजबूत हैं, वे अपने मातापिता का सहारा बन सकते हैं.’’

सास रो रही थीं. उस ने उन्हें गले लगा लिया. सास को सबकुछ मालूम था, इसलिए सबकुछ समझ गई थीं. मांबेटी जैसा रिश्ता कायम कर रखा था वैभवी ने अपनी सास के साथ. और हर प्यारे रिश्ते का आधार ही विश्वास होता है. उस की सास को उस पर अगाध विश्वास था.

‘‘मां, चलने की तैयारी कर लो चुपचाप. यहां लंबा रहना संभव नहीं हो पाएगा. आप और पापा हमारे साथ चलिए, दिल्ली में अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी और पापा की देखभाल भी हो जाएगी, आप बिलकुल भी फिक्र मत करो, मां. सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर डाल कर निश्ंिचत रहो. पापा की देखभाल हमारी जिम्मेदारी है.’’ सास का मन बारबार भर रहा था. वे चुपचाप अपने कमरे में आ गईं. वैभवी भी अपने कमरे में गई और अटैची में कपड़े डालने लगी. प्रकाश सिटपिटाया सा चुपचाप बैठा था. वह स्वयं जानता था कि वह वैभवी को कुछ भी बोलने का अधिकार खो चुका है. अटैची पैक करतेकरते वैभवी चुपचाप प्रकाश को देखती रही. अपनी अटैची पैक कर के वैभवी प्रकाश की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘तुम्हारी अटैची भी पैक कर दूं.’’

‘‘वैभवी, एक बार फिर से सोच लो, पापा को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकते हम. मुझे तो रुकना ही पड़ेगा, लेकिन नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी मेरे लिए भी संभव नहीं है. मांपापा को साथ ले चलते हैं, वरना कैसे होगा उन का इलाज?’’

प्रकाश का गला भर्राया हुआ था. वह प्रकाश की आंखों में देखने लगी, वहां बादलों के कतरे जैसे बरसने को तैयार थे. अपने मातापिता से इतना प्यार करने वाला प्रकाश, आखिर उस के मातापिता के लिए इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?

पिताजी की याद आते ही उस का मन एकाएक प्रकाश के प्रति कड़वाहट और नकारात्मक भावों से भर गया. लेकिन उस के संस्कार उसे इस की इजाजत नहीं देते थे. वह अपने सासससुर के प्रति ऐसी निष्ठुर नहीं हो सकती. कोई भी इंसान जो अपने ही मातापिता से प्यार नहीं कर सकता, वह दूसरों से क्या प्यार करेगा. और जो अपने मातापिता से प्यार करता हो, वह दूसरों के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनेआप में डूबा देख कर प्रकाश उस के सामने खड़ा हो गया, ‘‘बोलो वैभवी, क्या सोच रही हो, पापा को साथ ले चलें न? उस ने प्रकाश के चेहरे पर पलभर नजर गड़ाई, फिर तटस्थता से बोली, ‘‘टैक्सी बुक करवा लो जाने के लिए.’’

कह कर वह बाहर निकल गई. प्रकाश कुछ समझा, कुछ नहीं समझा पर फिर घर के माहौल से सबकुछ समझ गया. पर वैभवी उसे कुछ भी कहने का मौका दिए बगैर अपने काम में लगी हु थी. तीसरे दिन वे मम्मीपापा को ले कर दिल्ली चले गए. पापा की एंजियोप्लास्टी हुई, कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद पापा घर आ गए. उन की देखभाल वैभवी बहुत प्यार से कर रही थी. प्रकाश उस के प्रति कृतज्ञ हो रहा था. पर वह तटस्थ थी. उस के दिल का घाव भरा नहीं था. प्रकाश को तो उस के पिताजी की सेवा करने की भी जरूरत नहीं थी. उस ने तो सिर्फ औपरेशन के वक्त रह कर उन को सहारा भर देना था, जो वह नहीं दे पाया था. उस के भाई के लिए भलाबुरा कहने का भी प्रकाश का कोई अधिकार नहीं था. जबकि उस ने अपना भी हिस्सा ले कर भी अपना फर्ज नहीं निभाया था. ये सब सोच कर भी वैभवी के दिल के घाव पर मरहम नहीं लग पा रहा था. पापा की सेवा वह पूरे मनोयोग से कर रही थी, जिस से वह बहुत तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. उस के सासससुर उस के पास लगभग 3 महीने रहे. उस के बाद सास जाने की पेशकश करने लगीं पर उस ने जाने नहीं दिया, कुछ दिनों के बाद उन्होंने जाने का निर्णय ले लिया. प्रकाश और वैभवी उन्हें देहरादून छोड़ कर कुछ दिन रुक कर, बंद पड़े घर को ठीकठाक कर वापस आ गए.

सबकुछ ठीक हो गया था पर उस के और प्रकाश के बीच का शीतयुद्ध अभी भी चल रहा था, उन के बीच की वह अदृश्य चुप्पी अभी खत्म नहीं हुई थी. प्रकाश अपराधबोध महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कैसे बताए वैभवी को कि उसे अपनी गलती का एहसास है. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. वह समझ रहा था कि इस तरह बच्चे मातापिता की जिम्मेदारी एकदूसरे पर डालेंगे तो उन की देखभाल कौन करेगा. कल यही अवस्था उन की भी होगी और तब उन के बेटाबेटी भी उन के साथ यही करें तो उन्हें कैसा लगेगा. एकाएक वैभवी की तटस्थता को दूर करने का उसे एक उपाय सूझा. वह वैभवी को टूर पर जाने की बात कह कर चंडीगढ़ चला गया. प्रकाश को गए हुए 2 दिन हो गए थे. शाम को वैभवी रात के खाने की तैयारी कर रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उस ने जा कर दरवाजा खोला. सामने मांपिताजी खड़े थे.

‘‘मांपिताजी आप, यहां कैसे?’’ वह आश्चर्यचकित सी उन्हें देखने लगी.

‘‘हां बेटा, दामादजी आ गए और जिद कर के हमें साथ ले आए, कहने लगे अगर मुझे बेटा मानते हो तो चल कर कुछ महीने हमारे साथ रहो. दामादजी ने इतना आग्रह किया कि आननफानन तैयारी करनी पड़ी.’’

तभी उस की नजर टैक्सी से सामान उतारते प्रकाश पर पड़ी. वह पैर छू कर मांपिताजी के गले लग गई. उस की आंखें बरसने लगी थीं. पिताजी के गले मिलते हुए उस ने प्रकाश की तरफ देखा, प्रकाश मुसकराते हुए जैसे उस से माफी मांग रहा था. उस ने डबडबाई आंखों से प्रकाश की तरफ देखा, उन आंखों में ढेर सारी कृतज्ञता और धन्यवाद झलक रहा था प्रकाश के लिए. प्रकाश सोच रहा था उस के सासससुर कितने खुश हैं और उस के खुद के मातापिता भी कितने खुश हो कर गए हैं यहां से. जब अपनी पूरी जवानी मातापिता ने अपने बच्चों के नाम कर दी तो इस उम्र में सहारे की तलाश भी तो वे अपने बच्चों में ही करेंगे न, फिर चाहे वह बेटा हो या बेटी, दोनों को ही अपने मातापिता को सहारा देना ही चाहिए.

मेरा संसार: अतीत और वर्तमान के अंतर्द्वंद्व में उलझे व्यक्ति की कहानी

प्यार की किश्ती में सवार मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरा साहिल कौन है, रचना या ज्योति? एक तरफ रचना जो सिर्फ अपने बारे में सोचती थी. दूसरी ओर ज्योति, जिस की दुनिया मुझ तक और मेरी बेटी तक सीमित थी.

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया. मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती?

कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है.

यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए.

जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है. तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता.

मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है.

जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं?

हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे. संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई.

मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है.

पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद. किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है.

गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है.

उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं.

ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है.

ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है. तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं.

फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ.

‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’

कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है.

ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है? इसलिए कि मैं अकेला हूं?

रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को.

बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का.

घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है. फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है.

सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है.

बंद खिड़कियां: क्या हुआ था रश्मि के साथ

वैशिकीकी आज विदाई थी. बड़ी धूमधाम से बेटी की हर छोटीबड़ी ख्वाहिश का ध्यान रखते हुए वैशिकी के मम्मीपापा बेटी की विदाई की तैयारी कर रहे थे. पूरे रीतिरिवाजों के साथ वैशिकी अपने मायके से विदा हो गई.

आज ससुराल में वैशिकी का पहला दिन था. चारों तरफ धूम मची हुई थी. सभी लोग खुश दिखाई दे रहे थे. चारों तरफ गहमागहमी का माहौल था.

वैशिकी अपनी जेठानी, ननदों, चाची इत्यादि की हंसीठिठोली के बीच लाल पड़ रही थी. जैसे ही वंशूक कमरे में आया, पल्लवी चाची उस का कान खींचते हुए बोलीं, ‘‘शैतान कहीं का, रुका नहीं जा रहा तु झ से… पूरी उम्रभर का साथ है तुम दोनों का… अभी तो थोड़ा सब्र करो.’’

वैशिकी ने देखा सब लोग हंसीठिठोली कर रहे थे परंतु वंशूक की मां यानी वैशिकी की सास रश्मि के चेहरे पर एक निर्लिप्त भाव थे. महंगे कपड़े और गहनों से लदीफदी होने के बावजूद वह बेहद अजीब सी लग रही थी. वैशिकी और वंशूक का आलीशान रिसैप्शन हुआ था. कुंदन के सैट और मोतिया रंग के जड़ाऊ काम के लहंगे में वैशिकी जितनी खूबसूरत लग रही थी और वहीं क्रीम रंग की शेरवानी में लाल दुपट्टे के साथ वंशूक भी बहुत सौम्य और प्यारा लग रहा था.

अगले दिन दोपहर तक पूरा घर खाली हो गया. सभी रिश्तेदार वापस जा चुके थे. अब घर में बस रह गए वंशूक की बड़ी बहन सुजाता और वंशूक के पापा अमित तथा मां रश्मि. अगले दिन वैशिकी को पगफेरे के लिए जाना था. वह साड़ी का चुनाव कर रही थी कि तभी उसे लगा कि क्यों न सास से पूछ ले, फिर हाथों में साड़ी ले कर वह रश्मि के पास चली गई. बोली, ‘‘मम्मीजी, यह बताइए पीली और नारंगी में से कौन सी साड़ी पहनूं कल?’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, जो अच्छी लगे उसे पहन लो… वैसे यह नारंगी रंग तुम पर खूब फबेगा.’’

तभी अमित ठहाके मारते हुए बोले, ‘‘रही न तुम गंवार की गंवार… यह चुभता हुआ रंग सर्दियों में अच्छा लगता है न कि मई के महीने में.’’

रश्मि एकदम चुप हो गई तो अमित फिर बोले, ‘‘वैशिकी बेटा, तुम अपनी सुजाता दीदी से पूछ लो.’’

वैशिकी को अपने ससुर का अपनी सास के प्रति व्यवहार बहुत अजीब सा लगा, साथ ही साथ उस के मन में यह डर भी समा गया कि क्या होगा अगर वंशूक का व्यवहार भी ऐसा ही हुआ तो? आखिर बेटा अपने पिता से ही तो सीखता है.

अगले दिन पगफेरे की रस्म के लिए वैशिकी पीले रंग की शिफौन की साड़ी पहन कर जाने को तैयार हो गई. रश्मि ने सुबह उठ कर नाश्ते में आलू के परांठे और मूंग की दाल का हलवा बनाया था.

सुजाता बोली, ‘‘मम्मी, आप तो हम सब को मोटा कर के ही मानेंगी.’’

वंशूक भी कटाक्ष करते हुए बोला, ‘‘मम्मी, कितनी बार कहा है कि कुछ डाइट फूड बनाना भी सीख लो.’’

अमित बोले, ‘‘कहां से सीखेगी तुम्हारी मम्मी? इसे तो खुद अपनी कमर को कमरा बनाने से फुरसत नहीं है.’’

सभी हंस पड़े, लेकिन तभी वैशिकी बोल उठी, ‘‘भई किसी को अच्छा लगे या न लगे

मु झे तो ऐसा लजीज नाश्ता पहली बार मिला है.’’

वैशिकी की बात सुन कर रश्मि का चेहरा खिल उठा. पगफेरे के बाद वैशिकी और वंशूक 15 दिनों के लिए हनीमून पर चले गए. हनीमून पर भी वैशिकी ने महसूस किया कि वंशूक के घर से या तो उस की दीदी या फिर पापा ही फोन करते. जब वंशूक और वैशिकी हनीमून से वापस आए तो वंशूक की दीदी सुजाता अपनी ससुराल जा चुकी थी. वैशिकी शाम को अपने साथ लाए उपहारों को रश्मि और अमित को दिखाने लगी.

वैशिकी अमित के लिए टीशर्ट और रश्मि के लिए धूप का चश्मा लाई थी. रश्मि का उपहार देख कर अमित बोले, ‘‘वैशिकी बेटा यह क्या ले आई हो तुम अपनी मम्मी के लिए? तुम्हारी मम्मी ने यह कभी नहीं लगाया… यह तो शहर में इतने सालों तक रहते हुए भी अभी तक नहीं बदल पाई है… अब क्या लगाएगी…’’

वैशिकी बोली, ‘‘अरे पापा तो अब लगा लेंगी, मैं बहुत मन से लाई हूं.’’

अगले दिन अमित और वंशूक दफ्तर चले गए, वैशिकी की अभी 7 दिन की छुट्टियां बची थीं. उस ने  िझ झकते हुए रसोई में कदम रखा तो देखा कि रश्मि बेसन के लड्डू बनाने में व्यस्त थी. वैशिकी को देख कर मुसकरा कर बोली, ‘‘बेटा, तुम्हें बेसन के लड्डू पसंद हैं न वही बना रही हूं.’’

वैशिकी ने एक लड्डू उठा कर खाते हुए कहा, ‘‘मम्मी, आप के हाथों में बहुत स्वाद है.  झूठ नहीं बोल रही हूं.’’

रश्मि उदास सी हो कर बोली, ‘‘बेटा पिछले 30 सालों से खाना बना रही हूं… यह भी अच्छा नहीं बना पाऊंगी तो क्या फायदा?’’

वैशिकी बोली, ‘‘मम्मी, नहीं सच कह रही हूं, आप बहुत अच्छा खाना बनाती हैं. हरकोई इतना अच्छा खाना नहीं बना सकता है.’’

वैशिकी सोच में पड़ गई कि सास घर के हर काम में बहुत सुघड़ हैं, पर न जाने क्यों अपने खुद के रखरखाव को ले कर बहुत उदासीन हैं.

जब शाम होने लगी तो रश्मि अमित और वंशूक के लिए

पोहा बनाने लगी. इतनी देर में वैशिकी तैयार हो कर आ गई. रश्मि को देख कर बोली, ‘‘मम्मी, जब तक मैं चाय बना रही हूं, आप भी तैयार हो जाइए.’’

‘‘वह भला क्यों?’’ रश्मि ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘वैशिकी रश्मि को एक नया सूट देते हुए बोली, ‘‘पापा आप को फ्रैशफ्रैश देखेंगे, तो खिल उठेंगे.’’

मगर अमित और वंशूक दफ्तर से वापस आए तो चाय की गरमगरम चुसिकयों के साथ वंशूक वैशिकी को अपने दफ्तर के नए प्रोजैक्ट के बारे में बता रहा था.

अमित ने एक सरसरी नजर रश्मि पर डाली और व्यंग्य करते हुए बोले, ‘‘काश, मैं भी किसी से दफ्तर के तनाव को डिस्कस कर सकता? केवल पोहा ही तनाव को कम नहीं कर सकता है.’’

रश्मि आंसुओं को पीते हुए कमरे में चली गई. वैशिकी का दिया हुआ सूट जो उस ने पहना था, उसे बदलते हुए सोच रही थी कि अमित ने उसे कब पत्नी का सम्मान दिया है. हर समय उसे गंवार बोलबोल कर ऐसे कर दिया है कि कभीकभी तो उसे अपनी पोस्ट ग्रैजुएशन की डिगरी पर शक होने लगता है.

रात को सोने के बिस्तर पर वैशिकी से नहीं रहा गया तो वह वंशूक से बोल उठी, ‘‘पापा क्यों मम्मी को हर समय ताने देते रहते हैं?’’

वंशूक बोला, ‘‘अरे पापा इतने  स्मार्ट हैं और मम्मी एकदम गंवार लगती हैं, इसलिए पापा ऐसे बोलते हैं,’’ फिर वैशिकी को बांहों में लेते हुए बोला, ‘‘हरकोई मेरी तरह नहीं होता है कि उसे सुंदर और स्मार्ट पत्नी मिले.’’

अगले दिन बापबेटे के औफिस जाने के बाद वैशिकी और रश्मि दोनों घर पर अकेली थीं तो वैशिकी रश्मि से बोली, ‘‘मम्मी, अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं? आप पापा की हर बात क्यों सुनती हैं?’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, क्योंकि मैं तुम्हारी तरह न स्मार्ट हूं, न ही सुंदर और न ही अपने पैरों पर खड़ी हूं.’’

वैशिकी आंखें बड़ी करते हुए बोली, ‘‘उफ, आप के पास कितने तीखे नैननक्श हैं… इतनी वैल मैंटेन्ड है, बस एक प्यारी सी मुसकान की कमी है.’’

रश्मि बोली, ‘‘अरे बेटा मजाक मत करो… मेरी सास, ननद, जेठानी और यहां तक कि बच्चे भी मु झे गंवार ही मानते हैं और फिर तुम्हारे पापा का और मेरा कोई जोड़ नहीं है.’’

वैशिकी बोली, ‘‘मम्मी, क्योंकि आप ऐसा सोचती हैं… जैसा आप अपने बारे में सोचेंगी दूसरे लोग भी वैसा ही सोचेंगे.’’

रात में वैशिकी ने खाने की टेबल पर अमित से कहा, ‘‘पापा, मम्मी इतना अच्छा खाना बनाती हैं… क्यों न हम कोई छोटामोटा बिजनैस सैटअप कर लें.’’

अमित बेचारगी से बोले, ‘‘बेटा, प्रेजैंटेशन का जमाना है… रश्मि जैसा खाना तो हरकोई बना लेता है… कौन करेगा मार्केटिंग और बाकी सब काम, तुम्हारी मम्मी तो बाहर वालों के सामने दो शब्द भी नहीं बोल सकती हैं… पूरी उम्र कुछ नहीं किया तो अब 51 वर्ष की उम्र में क्या करेंगी?’’

कोई भी कुछ नहीं बोल सका. सभी खाना खा कर सोने चले गए. रश्मि रसोई समेटने लगी.

अगले दिन रश्मि किचन में व्यस्त थी तो वैशिकी ने पूरी रूपरेखा तैयार कर ली थी. उस ने ‘रश्मि की रसोई’ नामक एक यूट्यूब चैनल खोल दिया, फिर बोली, ‘‘मम्मीजी, आप जो भी बनाती हैं बस मैं उस का वीडियो बना कर डालूंगी…’’

‘‘धीरेधीरे जैसेजैसे आप के सब्सक्राइबर बढ़ेंगे, वैसेवैसे लोगों को आप के नाम के बारे में पता चलेगा और फिर आप की आमदनी भी आरंभ हो जाएगी.’’

रश्मि घबरा कर बोली, ‘‘वैशिकी बेटा, मु झ से ये सब नहीं हो पाएगा.’’

‘‘मगर फिर वैशिकी के बहुत जोर देने पर रश्मि तैयार हो गई, लेकिन कभी कुछ न करने की लोगों की बातें दिमाग में घूम रही थीं,’’ जिस की वजह से घबराहट में रश्मि से पूरी सेव भाजी की सब्जी जल गई, तो रश्मि बोली, ‘‘देखा, वैशिकी, मैं ने कहा था न कि मैं गंवार हूं. मैं कुछ नहीं कर सकती हूं.’’

मगर वैशिकी पर तो जैसे जनून सवार था. शाम को बोली, ‘‘मम्मी, आप एक काम करें, पहले आप खूब अच्छी तरह से तैयार हो जाइए, फिर कोई छोटामोटा नाश्ता बनाइए. हम उसी से शुरू करते हैं.’’

इस बार वैशिकी ने रश्मि के द्वारा आटे का हलवा बनाने का वीडियो बना कर डाल दिया. वैशिकी ने उस वीडियो को अपने दफ्तर और दोस्तों के ग्रुप में शेयर कर दिया. शाम होने तक रश्मि के वीडियो को बहुत सारे व्यूज और काफी कमैंट भी मिल गए.

एक आदमी का यह कमैंट था, ‘‘भई, बीवी हो तो ऐसी सुंदर, सुशील और पाककला में निपुण.’’

वैशिकी ने कहा, ‘‘मम्मी, देखो आप की तो फैन फौलोइंग भी आरंभ हो गई है.’’

अगली सुबह रश्मि खुद ही तैयार हो गई थी. आज की वीडियो में वह

कल से अधिक कौन्फिडैंट थी. रश्मि के अपनी बहू वैशिकी के साथ दिन पलक  झपकते ही बीत रहे थे. इन दिनों में रश्मि ने फिर से हंसना, मुसकराना और अपने ऊपर विश्वास करना सीख लिया था.

वैशिकी छुट्टियों के बाद अगले दिन दफ्तर जाने की तैयारी में जुटी थी. रश्मि उस के कमरे में आ कर बोली, ‘‘बेटा, अब वह चैनल का क्या होगा?’’

वैशिकी बोली, ‘‘मम्मी, हम लोग रोज शाम को एक वीडियो करेंगे… और मैं आप को सिखा भी दूंगी कि कैसे बिना किसी की मदद के आप अपना वीडियो खुद बना सकती हैं.’’

वैशिकी के प्यार और सम्मान के कारण रश्मि अब फिर से अपने खुद के करीब आ गई थी. अब हर समय एक मुसकान उस के होंठों पर थिरकती रहती थी. धीरेधीरे वैशिकी की मदद से रश्मि ने औनलाइन और्डर भी लेने शुरू कर दिए थे.

आज रश्मि को अपनी मेहनत का पहला चैक मिला था क्व10 हजार का. रकम चाहे बहुत बड़ी न हो पर उस से निकलने वाले हौसले को रश्मि अपने शब्दों में बयां नहीं कर पा रही थी. जो अब तक लोगों की नजरों में फूहड़, गंवार आदि थी, यहां तक कि अमितजी खुद अपनी पत्नी के इस बदले हुए रूप पर चकित थे.

वंशूक बोला, ‘‘मम्मी, बहू ने तो आप की काया पलट कर दी.’’

वैशिकी बोली, ‘‘नहीं, हुनर तो पहले से ही था मम्मी में, बस उन हौसलों को उड़ान देनी थी.’’

रश्मि को सब की बातें सुन कर ऐसा लगा कि बहुत दिनों से अपनी जिंदगी की बंद पड़ी खिड़कियां खुल गई हैं और एक नई रैसिपी की खुशबू उन खुली खिड़कियों से आ रहे हवा के  झोंकों के साथ उस के मन को महका गई हो.

घोंसले का तिनका: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

7 बज चुके थे. मिशैल के आने में अभी 1 घंटा बचा था. मैं ने अपनी मनपसंद कौफी बनाई और जूते उतार कर आराम से सोफे पर लेट गया. मैं ने टेलीविजन चलाया और एक के बाद एक कई चैनल बदले पर मेरी पसंद का कोई भी प्रोग्राम नहीं आ रहा था. परेशान हो टीवी बंद कर अखबार पढ़ने लगा. यह मेरा रोज का कार्यक्रम था. मिशैल के आने के बाद ही हम खाने का प्रोग्राम बनाते थे. जब कभी उसे अस्पताल से देर हो जाती, मैं चिप्स और जूस पी कर सो जाता. मैं यहां एक मल्टीस्टोर में सेल्समैन था और मिशैल सिटी अस्पताल में नर्स.

दरवाजा खुलने के साथ ही मेरी तंद्रा टूटी. मिशैल ने अपना पर्स दरवाजे के पास बने काउंटर पर रखा और मेरे पास पीछे से गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘बहुत थके हुए लग रहे हो.’’

‘‘हां,’’ मैं ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, ‘‘वीकएंड के कारण सारा दिन व्यस्त रहा,’’ फिर उस की तरफ प्यार से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं. मैं भी अपने लिए कौफी बना कर लाती हूं,’’ कह कर वह किचन में जातेजाते पूछने लगी, ‘‘मेरे कौफी बींस लाए हो या आज भी भूल गए.’’

‘‘ओह मिशैल, आई एम रियली सौरी. मैं आज भी भूल गया. स्टोर बंद होने के समय मुझे बहुत काम होता है. फूड डिपार्टमेंट में जा नहीं सका.’’

3 दिन से लगातार मिशैल के कहने के बावजूद मैं उस की कौफी नहीं ला सका था. मैं ने उसी समय उठ कर जूते पहने और कहा, ‘‘मैं अभी सामने की दुकान से ला देता हूं, वह तो खुली होगी.’’

‘‘ओह नो, टोनी. मैं आज भी तुम्हारी कौफी से गुजारा कर लूंगी. मुझे तो तुम इसीलिए अच्छे लगते हो कि फौरन अपनी गलती मान लेते हो. थके होने के बावजूद तुम अभी भी वहां जाने को तैयार हो. आई लव यू, टोनी. तुम्हारी जगह कोई यहां का लड़का होता तो बस, इसी बात पर युद्ध छिड़ जाता.’’

मैं ऐसे हजारों प्रशंसा के वाक्य पहले भी मिशैल से अपने लिए सुन चुका था. 5 साल पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ जरमनी आया था और बस, यहीं का हो कर रह गया. भारत में वह जब भी मेरे घर आता, उस का व्यवहार और रहनसहन देख कर मैं बहुत प्रभावित होता था. उस का बातचीत का तरीका, उस का अंदाज, उस के कपड़े, उस के मुंह से निकले वाक्य और शब्द एकएक कर मुझ पर अमिट छाप छोड़ते गए. मुझ से कम पढ़ालिखा होने के बावजूद वह इतने अच्छे ढंग से जीवन जी रहा है और मैं पढ़ाई खत्म होने के 3 साल बाद भी जीवन की शुरुआत के लिए जूझ रहा था. मैं अपने परिवार की भावनाओं की कोई परवा न करते हुए उसी के साथ यहां आ गया था.

पहले तो मैं यहां की चकाचौंध और नियमित सी जिंदगी से बेहद प्रभावित हुआ. यहां की साफसुथरी सड़कें, मैट्रो, मल्टीस्टोर, शौपिंग मौल, ऊंचीऊंची इमारतों के साथसाथ समय की प्रतिबद्धता से मैं भारत की तुलना करता तो यहीं का पलड़ा भारी पाता. जैसेजैसे मैं यहां के जीवन की गहराई में उतरता गया, लगा जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं समझता था.

एक भारतीय औपचारिक समारोह में मेरी मुलाकत मिशैल से हो गई और उस दिन को अब मैं अपने जीवन का सब से बेहतरीन दिन मानता हूं. चूंकि मिशैल के साथ काम करने वाली कई नर्सें एशियाई मूल की थीं इसलिए उसे इन समारोहों में जाने की उत्सुकता होती थी. उसे पेइंग गेस्ट की जरूरत थी और मुझे घर की. हम दोनों की जरूरतें पूरी होती थीं इसलिए दोनों के बीच एक अलिखित समझौता हो गया.

मिशैल बहुत सुंदर तो नहीं थी पर उसे बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था. धीरेधीरे हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि अब एकदूसरे के पर्याय बन गए हैं. मेरी नीरस जिंदगी में बहार आने लगी है.

मिशैल जब भी मुझ से भारत की संस्कृति, सभ्यता और भारतीयों की वफादारी की बात करती है तो मैं चुप हो जाता हूं. मैं कैसे बताता कि जो कुछ उस ने सुना है, भारत वैसा नहीं है. वहां की तंग और गंदी गलियां, गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी से भाग कर ही तो मैं यहां आया हूं. उसे कैसे बताता कि भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बिजलीपानी का अभाव कैसे वहां के आमजन को तिलतिल कर जीने को मजबूर करता है. इन बातों को बताने का मतलब था कि उस के मन में भारत के प्रति जो सम्मान था वह शायद न रहता और शायद वह मुझ से भी नफरत करने  लग जाती. चूंकि मैं इतना सक्षम नहीं था कि अलग रह सकूं इसलिए कई बार उस की गलत बातों का भी समर्थन करना पड़ता था.

‘‘जानते हो, टोनी,’’ मिशैल कौफी का घूंट भरते हुए बोली, ‘‘इस बार हैनोवर इंटरनेशनल फेयर में तुम्हारे भारत को जरमन सरकार ने अतिथि देश चुना है और यहां के अखबार, न्यूज चैनलों में इस समाचार को बहुत बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है. जगहजगह भारत के झंडे लगे हुए हैं.’’

‘‘भारत यहां का अतिथि देश होगा?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनने की कोशिश की.

‘‘और क्या? देखा नहीं तुम ने…मैं एक बार तो जरूर जाऊंगी, शायद कोई सामान पसंद आ जाए.’’

‘‘मिशैल, भारतीय तो यहां से सामान खरीद कर भारत ले जाते हैं और तुम वहां का सामान…न कोई क्वालिटी होगी न वैराइटी,’’ मैं ने मुंह बनाया.

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर उस ने कौफी का आखिरी घूंट भरा और मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर बोली, ‘‘टोनी, तुम भी चलो न, वस्तुओं को समझने में आसानी होगी.’’

फेयर के पहले दिन सुबहसुबह ही मिशैल तैयार हो गई. मैं ने सोचा था कि उस को वहां छोड़ कर कोई बहाना कर के वहां से चला जाऊंगा. पर मैं ने जैसे ही मेन गेट पर गाड़ी रोकी, गेट पर ही भारत के विशालकाय झंडे, कई विशिष्ट व्यक्तियों की टीम, भारतीय टेलीविजन चैनलों की कतार और नेवी का पूरा बैंड देख कर मैं दंग रह गया. कुल मिला कर ऐसा लगा जैसे सारा भारत सिमट कर वहीं आ गया हो.

मैं ने उत्सुकतावश गाड़ी पार्किंग में खड़ी की तो मिशैल भाग कर वहां पहुंच गई. मेरे वहां पहुंचते ही बोली, ‘‘देखो, कैसा सजा रखा है गेट को.’’

मैं ने उत्सुकता से वहां खड़े एक भारतीय से पूछा, ‘‘यहां क्या हो रहा है?’’

‘‘यहां तो हम केवल प्रधानमंत्रीजी के स्वागत के लिए खड़े हैं. बाकी का सारा कार्यक्रम तो भीतर हमारे हाल नं. 6 में होगा.’’

‘‘भारत के प्रधानमंत्री यहां आ रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकतावश मिशैल से पूछा.

‘‘मैं ने कहा था न कि भारत अतिथि देश है पर लगता है यहां हम लोग ही अतिथि हो गए हैं. जानते हो टोनी, उन के स्वागत के लिए यहां के चांसलर स्वयं आ रहे हैं.’’

थोड़ी देर में वंदेमातरम की धुन चारों तरफ गूंजने लगी. प्रधानमंत्रीजी के पीछेपीछे हम लोग भी हाल नं. 6 में आ गए, जहां भारतीय मंडप को दुलहन की तरह सजाया हुआ था.

प्रधानमंत्रीजी के वहां पहुंचते ही भारतीय तिरंगा फहराने लगा और राष्ट्रीय गीत के साथसाथ सभी लोग सीधे खड़े हो गए, जैसा कि कभी मैं ने अपने स्कूल में देखा था. टोनी आज भारतीय होने पर गर्व महसूस कर रहा था. उसे भीतर तक एक झुरझुरी सी महसूस हुई कि क्या यही वह भारत था जिसे मैं कई बरस पहले छोड़ आया था. आज यदि जरमनी के लोगों ने इसे अतिथि देश स्वीकार किया है तो जरूर अपने देश में कोई बात होगी. मुझे पहली बार महसूस हुआ कि अपना देश और उस के लोग किस कदर अपने लगते हैं.

समारोह के समाप्त होते ही एक विशेष कक्ष में प्रधानमंत्री चले गए और बाकी लोग भारतीय सामान को देखने में व्यस्त हो गए. थोड़ी देर में प्रधानमंत्रीजी अपने मंत्रिमंडल एवं विदेश विभाग के लोगों के साथ भारतीय निर्यातकों से मिलने चले गए. उधर हाल में अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम होेते रहे. एक कोने में भारतीय टी एवं कौफी बोर्ड के स्टालों पर भी काफी भीड़ थी.

मैं ने मिशैल से कहा, ‘‘चलो, तुम्हें भारतीय कौफी पिलवाता हूं.’’

‘‘नहीं, पहले यहां कठपुतलियों का यह नाच देख लें. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.’’

अगले दिन मेरा मन पुन: विचलित हो उठा. मैं ने मिशैल से कहा तो वह भी वहां जाने को तैयार हो गई.

मैं एकएक कर के भारतीय सामान के स्टालों को देख रहा था. भारत की क्राकरी, हस्तनिर्मित सामान, गृहसज्जा का सामान, दरियां और कारपेट तथा हैंडीक्राफ्ट की गुणवत्ता और नक्काशी देख कर दंग रह गया. मैं जिस स्टोर में काम करता था वहां ऐसा कुछ भी सामान नहीं था. मैं एक भारतीय स्टैंड के पास बने बैंच पर कौफी ले कर सुस्ताने को बैठ गया. पास ही बैठे किसी कंपनी के कुछ लोग आपस में जरमन भाषा में बात कर रहे थे कि भारत का सामान कितना अच्छा और आधुनिक तरीकों से बना हुआ है. वे कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि यह सब भारत में ही बना हुआ है और एशिया के बाकी देशों की तुलना में भारत कहीं अधिक तरक्की कर चुका है. मुझे यह सब सुन कर अच्छा लग रहा था.

उन्होंने मेरी तरफ देख कर पूछा, ‘‘आप को क्या लगता है कि क्या सचमुच माल भी ऐसा ही होगा जैसा सैंपल दिखा रहे हैं?’’

‘‘मैं क्या जानूं, मैं तो कई वर्षों से यहीं रहता हूं,’’ मैं ने अपना सा मुंह बनाया.

मिशैल ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई गलत बात कह दी हो. वह धीरे से मुझ से कहने लगी, ‘‘तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था. क्या तुम्हें अपने देश से कोई प्रेम नहीं रहा?’’

मैं उस की बातों का अर्थ ढूंढ़ने का प्रयास करता रहा. शायद वह ठीक ही कह रही थी. हाल में दूर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में राजस्थानी लोकगीत की धुन के साथसाथ मिशैल के पांव भी थिरकने लगे. वह वहां से उठ कर चली गई.

मैं थोड़ी देर आराम करने के बाद भारतीय सामान से सजे स्टैंड की तरफ चला गया. मेरे हैंडीक्राफ्ट के स्टैंड पर पहुंचते ही एक व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया और बोला,  ‘‘मे आई हैल्प यू?’’

‘‘नो थैंक्स, मैं तो बस, यों ही,’’ मैं हिंदी में बोलने लगा.

‘‘कोई बात नहीं, भीतर आ जाइए और आराम से देखिए,’’ वह मुसकरा कर हिंदी में बोला.

तब तक पास के दूसरे स्टैंड से एक सरदारजी आ कर उस व्यक्ति से पूछने लगे, ‘‘यार, खाने का यहां क्या इंतजाम है?’’

‘‘पता नहीं सिंह साहब, लगता है यहां कोई इंडियन रेस्तरां नहीं है. शायद यहीं की सख्त बै्रड और हाट डाग खाने पड़ेंगे और पीने के लिए काली कौफी.’’

जिस के स्टैंड पर मैं खड़ा था वह मेरी तरफ देख कर बोले, ‘‘सर, आप तो यहीं रहते हैं. कोई भारतीय रेस्तरां है यहां? ’’

‘‘भारतीय रेस्तरां तो कई हैं, पर यहां कुछ दे पाएंगे…यह पूछना पड़ेगा,’’ मैं ने अपनत्व की भावना से कहा.

मैं ने एक रेस्तरां में फोन कर के उस से पूछा. पहले तो वह यहां तक पहुंचाने में आनाकानी करता रहा. फिर जब मैं ने उसे जरमन भाषा में थोड़ा सख्ती से डांट कर और इन की मजबूरी तथा कई लोगों के बारे में बताया तो वह तैयार हो गया. देखते ही देखते कई लोगों ने उसे आर्डर दे दिया. सब लोग मुझे बेहद आत्मीयता से धन्यवाद देने लगे कि मेरे कारण उन्हें यहां खाना तो नसीब होगा.

अगले 3 दिन मैं लगातार यहां आता रहा. मैं अब उन में अपनापन महसूस कर रहा था. मैं जरमन भाषा अच्छी तरह जानता हूं यह जान कर अकसर मुझे कई लोगों के लिए द्विभाषिए का काम करना पड़ता. कई तो मुझ से यहां के दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछते तो कई यहां की मैट्रो के बारे में. मैं ने उन को कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां दीं, जिस से पहले दिन ही उन के लिए सफर आसान हो गया.

आखिरी दिन मैं उन सब से विदा लेने गया. हाल में विदाई पार्टी चल रही थी. सभी ने मुझे उस में शामिल होने की प्रार्थना की. हम ने आपस में अपने फोन नंबर दिए, कइयों ने मुझे अपने हिसाब से गिफ्ट दिए. भारतीय मेला प्राधिकरण के अधिकारियों ने मुझे मेरे सहयोग के लिए सराहा और भविष्य में इस प्रकार के आयोजनों में समर्थन देने को कहा. मिशैल मेरे साथ थी जो इन सब बातों को बड़े ध्यान से देख रही थी.

अगले कई दिन तक मैं निरंतर अपनों की याद में खोया रहा. मन का एक कोना लगातार मुझे कोसता रहा, न चाहते हुए भी रहरह कर यह विचार आता रहा कि किस तरह अपने मातापिता से झूठ बोल कर विदेश चला आया. उस समय यह भी नहीं सोचा कि मेरे पीछे उन्होंने कैसे यह सब सहा होगा.

एक दिन मिशैल और मैं टेलीविजन पर कोई भारतीय प्रोग्राम देख रहे थे. कौफी की चुस्कियों के साथसाथ वह बोली, ‘‘तुम्हें याद है टोनी, उस दिन इंडियन कौफी बोर्ड की कौफी पी थी. सचमुच बहुत ही अच्छी थी. सबकुछ मुझे बहुत अच्छा लगा और वह कठपुतलियों का नाच भी…कभीकभी मेरा मन करता है कुछ दिन के लिए भारत चली जाऊं. सुना है कला और संस्कृति में भारत ही विश्व की राजधानी है.’’

‘‘क्या करोगी वहां जा कर. जैसा भारत तुम्हें यहां लगा असल में ऐसा है नहीं. यहां की सुविधाओं और समय की पाबंदियों के सामने तुम वहां एक दिन भी नहीं रह सकतीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर मैं जाना जरूर चाहूंगी. तुम वहां नहीं जाना चाहते क्या? क्या तुम्हारा मन नहीं करता कि तुम अपने देश जाओ?’’

‘‘मन तो करता है पर तुम मेरी मजबूरी नहीं समझ सकोगी,’’ मैं ने बड़े बेमन से कहा.

‘‘चलो, अपने लोगों से तुम न मिलना चाहो तो न सही पर हम कहीं और तो घूम ही सकते हैं.’’

मैं चुप रहा. मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर क्या चल रहा है. दरअसल, जिन हालात में मैं यहां आया था उन का सामना करने का मुझ में साहस नहीं था.

सबकुछ जानते हुए भी मैं ने अपनेआप को आने वाले समय पर छोड़ दिया और मिशैल के साथ भारत रवाना हो गया.

हमारा प्रोग्राम 3 दिन दिल्ली रुकने के बाद आगरा, जयपुर और हरिद्वार होते हुए वापस जाने का तय हो गया था. मिशैल के मन में जो कुछ देखने का था वह इसी प्रोग्राम से पूरा हो जाता था.

जैसे ही मैं एअरपोर्ट से बाहर निकला कि एक वातानुकूलित बस लुधियाना होते हुए अमृतसर के लिए तैयार खड़ी थी. मेरा मन कुछ क्षण के लिए विचलित सा हो गया और थोड़ा कसैला भी. मेरा अतीत इन शहरों के आसपास गुजरा था. इन 5 वर्षों में भारत में कितना बदलाव आ गया था. आज सबकुछ ठीक होता तो सीधा अपने घर चला जाता. मैं ने बड़े बेमन से एक टैक्सी की और मिशैल को साथ ले कर सीधा पहाड़गंज के एक होटल में चला गया. इस होटल की बुकिंग भी मिशैल ने की थी.

मैं जिन वस्तुओं और कारणों से भागता था, मिशैल को वही पसंद आने लगे. यहां के भीड़भाड़ वाले इलाके, दुकानों में जा कर मोलभाव करना, लोगों का तेजतेज बोलना, अपने अहं के लिए लड़ पड़ना और टै्रफिक की अनियमितताएं. हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर बैठना, मंदिरों में जा कर घंटियां बजाना उस के लिए एक सपनों की दुनिया में जाने जैसा था.

जैसेजैसे हमारे जाने के दिन करीब आते गए मेरा मन विचलित होने लगा. एक बार घर चला जाता तो अच्छा होता. हर सांस के साथ ऐसा लगता कि कुछ सांसें अपने घर के लिए भी तैर रही हैं. अतीत छाया की तरह भरमाता रहा. पर मैं ने ऐसा कोई दरवाजा खुला नहीं छोड़ा था जहां से प्रवेश कर सकूं. अपने सारे रास्ते स्वयं ही बंद कर के विदेश आया था. विदेश आने के लिए मैं इतना हद दर्जे तक गिर गया था कि बाबूजी के मना करने के बावजूद उन की अलमारी से फसल के सारे पैसे, बहन के विवाह के लिए बनाए गहने तक मैं ने नहीं छोड़े थे. तब मन में यही विश्वास था कि जैसे ही कुछ कमा लूंगा, उन्हें पैसे भेज दूंगा. उन के सारे गिलेशिक वे भी दूर हो जाएंगे और मैं भी ठीक से सैटल हो जाऊंगा. पर ऐसा हो न सका और धीरेधीरे अपने संबंधों और कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

शाम को मैं मिशैल के साथ करोल बाग घूम रहा था. सामने एक दंपती एक बच्चे को गोद में उठाए और दूसरे का हाथ पकड़ कर सड़क पार कर रहे थे. मिशैल ने उन की तरफ इशारा कर के मुझ से कहा, ‘‘टोनी, उन को देखो, कैसे खुशीखुशी बच्चों के साथ घूम रहे हैं,’’ फिर मेरी तरफ कनखियों से देख कर बोली, ‘‘कभी हम भी ऐसे होंगे क्या?’’

किसी और समय पर वह यह बात करती तो मैं उसे बांहों में कस कर भींच लेता और उसे चूम लेता पर इस समय शायद मैं बेगानी नजरों से उसे देखते हुए बोला, ‘‘शायद कभी नहीं.’’

‘‘ठीक भी है. बड़े जतन से उन के मातापिता उन्हें बड़ा कर रहे हैं और जब बडे़ हो जाएंगे तो पूछेंगे भी नहीं कि उन के मातापिता कैसे हैं…क्या कर रहे हैं… कभी उन को हमारी याद आती है या…’’ कहतेकहते मिशैल का गला भर गया.

मैं उस के कहने का इशारा समझ गया था, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’ मेरी आवाज भारी थी.

‘‘कुछ नहीं, डार्लिंग. मैं ने तो यों ही कह दिया था. मेरी बातों का गलत अर्थ मत लगाओ,’’ कह कर उस ने मेरी तरफ बड़ी संजीदगी से देखा और फिर हम वापस अपने होटल चले आए.

उस पूरी रात नींद पलकों पर टहल कर चली गई थी. सूरज की पहली किरणों के साथ मैं उठा और 2 कौफी का आर्डर दिया. मिशैल मेरी अलसाई आंखों को देखते हुए बोली, ‘‘रात भर नींद नहीं आई क्या. चलो, अब कौफी के साथसाथ तुम भी तैयार हो जाओ. नीचे बे्रकफास्ट तैयार हो गया होगा,’’ इतना कह कर वह बाथरूम चली गई.

दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने मिशैल को बाथरूम में ही रहने को कहा क्योंकि वह ऐसी अवस्था में नहीं थी  कि किसी के सामने जा सके.

दरवाजा खोलते ही मैं ने एक दंपती को देखा तो देखता ही रह गया. 5 साल पहले मैं ने जिस बहन को देखा था वह इतनी बड़ी हो गई होगी, मैं ने सोचा भी न था. साथ में एक पुरुष और मांग में सिंदूर की रेखा को देख कर मैं समझ गया कि उस की शादी हो चुकी है. मेरे कदम वहीं रुक गए और शब्द गले में ही अटक कर रह गए. वह तेजी से मेरी तरफ आई और मुझ से लिपट गई…बिना कुछ कहे.

मैं उसे यों ही लिपटाए पता नहीं कितनी देर तक खड़ा रहा. मिशैल ने मुझे संकेत किया और हम सब भीतर आ गए.

‘‘भैया, आप को मेरी जरा भी याद नहीं आई. कभी सोचा भी नहीं कि आप की छोटी कैसी है…कहां है…आप के सिवा और कौन था मेरा,’’ यह कह कर वह सुबकने लगी.

मेरे सारे शब्द बर्फ बन चुके थे. मेरे भीतर का कठोर मन और देर तक न रह सका और बड़े यत्न से दबाया गया रुदन फूट कर सामने आ गया. भरे गले से मैं ने पूछा, ‘‘पर तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिशैल के कारण. उन्होंने ही यहां का पता बताया था,’’ छोटी सुबकियां लेती हुई बोली.

तब तक मिशैल भी मेरे पास आ चुकी थी. वह कहने लगी, ‘‘टोनी, सच बात यह है कि तुम्हारे एक दोस्त से ही मैं ने तुम्हारे घर का पता लिया था. मैं सोचती रही कि शायद तुम एक बार अपने घर जरूर जाओगे. मैं तुम्हारे भीतर का दर्द भी समझती थी और बाहर का भी. तुम ने कभी भी अपने मन की पीड़ा और वेदना को किसी से नहीं बांटा, मेरे से भी नहीं. मैं कहती तो शायद तुम्हें बुरा लगता और तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचती. मुझ से कोई गलती हो गई हो तो माफ कर देना पर अपनों से इस तरह नाराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मां कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मां तो रही नहीं…तुम्हें बताते भी तो कहां?’’ कहतेकहते छोटी की आंखें नम हो गईं.

‘‘कब और कैसे?’’

‘‘एक साल पहले. हर पल तुम्हारा इंतजार करती रहती थीं. मां तुम्हारे गम में बुरी तरह टूट चुकी थीं. दिन में सौ बार जीतीं सौ बार मरतीं. वह शायद कुछ और साल जीवित भी रहतीं पर उन में जीने की इच्छा ही मर चुकी थी और आखिरी पलों में तो मेरी गोद में तुम्हारा ही नाम ले कर दरवाजे पर टकटकी बांधे देखती रहीं और जब वह मरीं तो आंखें खुली ही रहीं.’’

यह सब सुनना और सहना मेरे लिए इतना कष्टप्रद था कि मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. मैं दीवार का सहारा ले कर बैठ गया. मां की भोली आकृति मेरी आंखों के सामने तैरने लगी. मुझे एकएक कर के वे क्षण याद आते रहे जब मां मुझे स्कूल के लिए तैयार कर के भेजती थीं, जब मैं पास होता तो महल्ले भर में मिठाइयां बांटती फिरतीं, जब होलीदीवाली होती तो बाजार चल कर नए कपड़े सिलवातीं, जब नौकरी न मिली तो मुझे सांत्वना देतीं, जब राखी और भैया दूज का टीका होता तो इन त्योहारों का महत्त्व समझातीं और वह मां आज नहीं थीं.

‘‘उन के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन भी शायद मेरी तकदीर में नहीं थे,’’ कह कर मैं फूटफूट कर रोने लगा. छोटी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे इस अपमान और संवेदना से निकालने का प्रयत्न किया.

छोटी ने ही मेरे पूछने पर मुझे बताया था कि मेरे घर से निकलने के अगले दिन ही पता लग चुका था कि मैं विदेश के लिए रवाना हो चुका हूं. शुरू के कुछ दिन तो वह मुझे कोसने में लगे रहे पर बाद में सबकुछ सहज होने लगा. छोटी ही उन दिनों मां को सांत्वना देती रहती और कई बार झूठ ही कह देती कि मेरा फोन आया है और मैं कुशलता से हूं.

छोटी का पति उस की ही पसंद का था. दूसरी जाति का होने के बावजूद मांबाबूजी ने चुपचाप उसे शादी की सहमति दे दी. मेरे विदेश जाने में मेरी बातों का समर्थन न देने का अंजाम तो वे देख ही चुके थे.

अपने पति के साथ छोटी ने मुझे ढूंढ़ने की कोशिश भी की थी पर सब पुराने संपर्क टूट चुके थे. अब अचानक मिशैल के पत्र से वह खुश हो गई और बाबूजी को बताए बिना यहां तक आ पहुंची थी.

‘‘बाबूजी कैसे हैं?’’ मैं ने बड़ी धीमी और सहमी आवाज में पूछा.

‘‘ठीक हैं. बस, जी रहे हैं. मां के मरने के बाद मैं ने कई बार अपने साथ रहने को कहा था पर शायद वह बेटी के घर रहने के खिलाफ थे.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता, मिशैल बोली, ‘‘टोनी, यह देश तो तुम्हारे लिए पराया हो गया है पर मांबाप तो तुम्हारे अपने हैं. तुम अपने फादर को मिल लोगे तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और तुम्हारे बेचैन मन को शांति मिलेगी…फिर न जाने तुम्हारा आना कब हो,’’  उस के स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया.

मिशैल ठीक ही कह रही थी. मेरे पास समय बहुत कम था. मैं बिना कोई समय गंवाए उन से मिलने चला गया.

बाबूजी को देखते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी. पर वह ठहरे हुए पानी की तरह एकदम शांत थे. पहले वाली मुसकराहट उन के चेहरे पर अब नहीं थी. उन्होंने अपनी बूढ़ी पनीली आंखों से मुझे देखा तो मैं टूटी टहनी की तरह उन की गोद में जा गिरा और उन के कदमों में अपना सिर सटा दिया. बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए बाबूजी. मां की असामयिक मौत का मैं ही जिम्मेदार हूं.’’

मैं ने नजर उठा कर घर के चारों तरफ देखा. एकदम रहस्यमय वातावरण व्याप्त था. बीता समय बारबार याद आता रहा. बाबूजी ने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. आज पहली बार महसूस हुआ कि शांति तो अपनी जड़ों से मिल कर ही मिलती है. मैं उन्हें साथ ले जाने की जिद करता रहा पर वह तो जैसे वहां से कहीं जाना ही नहीं चाहते थे.

‘‘तू आ गया है बस, अब तेरी मां को भी शांति मिल जाएगी,’’ कह कर वह भीतर मेरे साथ अपने कमरे में आ गए और मां की तसवीर के पीछे से लाल कपड़ों में बंधी मां की अस्थियों को मुझे दे कर कहने लगे, ‘‘देख, मैं ने कितना संभाल कर रखा है तेरी मां को. जातेजाते कुरुक्षेत्र में प्रवाहित कर देना. बस, यही छोटी सी तेरी मां की इच्छा थी,’’ बाबूजी की सरल बातें मेरे अंतर्मन को छू गईं.

मां की अस्थियां हाथ में आते ही मेरे हाथ कांपने लगे. मां कितनी छोटी हो चुकी थीं. मैं ने उन्हें कस कर सीने में भींच लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां.’’

2 दिन बाद ही मैं, छोटी, उस के पति और पापा के साथ दिल्ली एअरपोर्र्ट रवाना हुआ. मिशैल बड़ी ही भावुक हो कर सब से विदा ले रही थी. भाषा न जानते हुए भी उस में अपनी भावनाओं को जाहिर करने की अभूतपूर्व क्षमता थी. बिछुड़ते समय वह बोली, ‘‘आप सब लोग एक बार हमारे पास जरूर आएं. मेरा आप के साथ कोई रिश्ता तो नहीं है पर मेरी मां कहती थीं कि कुछ रिश्ते इन सब से कहीं ऊपर होते हैं जिन्हें हम समझ नहीं सकते.’’

‘‘अब कब आओगे, भैया?’’ छोटी के पूछने पर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. मैं कोई भी उत्तर न दे सका और तेजी से भीतर आ गया. उस का सवाल अनुत्तरित ही रहा. मैं ने भीतर आते ही मिशैल से भरे हृदय से कहा, ‘‘मिशैल, आज तुम न होतीं तो शायद मैं…’’

सच तो यह था कि मेरा पूरा शरीर ही मर चुका था. मैं फूटफूट कर रोने लगा. मिशैल ने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे पास ही बिठा दिया और बड़े दार्शनिक स्वर में बोली, ‘‘सच, दुनिया तो यही है जो तुम्हारा तिलतिल कर इंतजार करती रही और करती रहेगी, और तुम अपनी ही झूठी दुनिया में खोए रहना चाहते हो. तुम यहां से जाना चाहते हो तो जाओ पर कितनी भी ऊंचाइयां छू लो जब भी नीचे देखोगे स्वयं को अकेला ही पाओगे.

‘‘मेरी मानो तो अपनी दुनिया में लौट जाओ. चले जाओ…अब भी वक्त है…लौट जाओ टोनी, अपनी दुनिया में.’’

मिशैल ने बड़ा ही मासूम सा अनुरोध किया. मेरे सोए हुए जख्म भीतर से रिसने लगे. मेरे सोचने के सभी रास्ते थोड़ी दूर जा कर बंद हो जाते थे. मैं ने इशारे से उस से सहमति जतलाई.

मैं उस से कस कर लिपट गया और वह भी मुझ से चिपक गई.

‘‘बहुत याद आओगे तुम मुझे,’’ कह कर वह रोने लगी, ‘‘पर मुझे भूल जाना, पता नहीं मैं पुन: तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं,’’ कह कर वह तेज कदमों से जहाज की ओर चली गई.

आज सोचता हूं और सोचता ही रह जाता हूं कि वह कौन थी…अपना सर्वस्व मुझे दे कर, मुझे रास्ता दिखा कर वह न जाने अब वहां कैसे रह रही होगी.

दुस्वप्न: कैसा था संविधा का ससुराल

संविधा ने घर में प्रवेश किया तो उस का दिल तेजी से धड़क रहा था. वह काफी तेजतेज चली थी, इसलिए उस की सांसें भी काफी तेज चल रही थीं. दम फूल रहा था उस का. राजेश के घर आने का समय हो गया था, पर संयोग से वह अभी आया नहीं था. अच्छा ही हुआ, जो अभी नहीं आया था. शायद कहीं जाम में फंस गया होगा. घर पहुंच कर वह सीधे बाथरूम में गई. हाथपैर और मुंह धो कर बैडरूम में जा कर जल्दी से कपड़े बदले.

राजेश के आने का समय हो गया था, इसलिए रसोई में जा कर गैस धीमी कर के चाय का पानी चढ़ा दिया. चाय बनने में अभी समय था, इसलिए वह बालकनी में आ कर खड़ी हो गई.सामने सड़क पर भाग रही कारों और बसों के बीच से लोग सड़क पार कर रहे थे. बरसाती बादलों से घिरी शाम ने आकाश को चमकीले रंगों से सजा दिया था.

सामने गुलमोहर के पेड़ से एक चिड़िया उड़ी और ऊंचाई पर उड़ रहे पंछियों की कतार में शामिल हो गई. पंछियों के पंख थे, इसलिए वे असीम और अनंत आकाश में विचरण कर सकते थे.वह सोचने लगी कि उन में मादाएं भी होंगी. उस के मन में एक सवाल उठा और उसी के साथ उस के चेहरे पर मुसकान नाच उठी, ‘अरे पागल ये तो पक्षी हैं, इन में नर और मादा क्या? वह तो मनुष्य है, वह भी औरत.

सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना जाने वाला मानव अवतार उसे मिला है. सोचनेविचारने के लिए बुद्धि मिली है. सुखदुख, स्नेह, माया, ममता और क्रोध का अनुभव करने के लिए उस के पास दिल है. कोमल और संवेदनशील हृदय है, मजबूत कमनीय काया है, पर कैसी विडंबना है कि मनुष्य योनि में जन्म लेने के बावजूद देह नारी की है. इसलिए उस पर तमाम बंधन हैं.

संविधा के मन के पंछी के पंख पैदा होते ही काट दिए गए थे, जिस से वह इच्छानुसार ऊंचाई पर न उड़ सके. उस की बुद्धि को इस तरह गढ़ा गया था कि वह स्वतंत्र रूप से सोच न सके. उस के मन को इस तरह कुचल दिया गया था कि वह सदैव दूसरों के अधीन रहे, दूसरों के वश में रहे. इसी में उस की भलाई थी. यही उस का धर्म और कर्तव्य था. इसी में उस का सुख भी था और सुरक्षा भी.

शादी के 3 दशक बीत चुके थे. लगभग आधी उम्र बीत चुकी थी उस की. इस के बावजूद अभी भी उस का दिल धड़कता था, मन में डर था. देखा जाए तो वह अभी भी एक तरह से हिरनी की तरह घबराई रहती थी. राजेश औफिस से घर आ गया होगा तो…? तो गुस्से से लालपीला चेहरा देखना होगा, कटाक्ष भरे शब्द सुनने पड़ेंगे.

‘मैं घर आऊं तो मेरी पत्नी को घर में हाजिर होना चाहिए’, ‘इतने सालों में तुम्हें यह भी पता नहीं चला’, ‘तुम्हारा ऐसा कौन सा जरूरी काम था, जो तुम समय पर घर नहीं आ सकीं?’ जैसे शब्द संविधा पहले से सुनती आई थी.

वह कहीं बाहर गई हो, किसी सहेली या रिश्तेदार के यहां गई हो, घर के किसी काम से गई हो, अगर उसे आने में थोड़ी देर हो गई तो क्या बिगड़ गया? राजेश को जस का तस सुनाने का मन होता. शब्द भी होंठों पर आते, पर उस का मिजाज और क्रोध से लालपीला चेहरा देख कर वे शब्द संविधा के गले में अटक कर रह जाते. जब तक हो सकता था, वह घर में ही रहती थी.

एक समय था, जब संविधा को संगीत का शौक था. कंठ भी मधुर था और हलक भी अच्छी थी. विवाह के बाद भी वह संगीत का अभ्यास चालू रखना चाहती थी. घर के काम करते हुए वह गीत गुनगुनाती रहती थी. यह एक तरह से उस की आदत सी बन गई थी. पर जल्दी ही उसे अपनी इस आदत को सुधारना पड़ा, क्योंकि यह उस की सास को अच्छा नहीं लगता था.

सासूमां ने कहा था, ‘‘अच्छे घर की बहूबेटियों को यह शोभा नहीं देता.’’बस तब से शौक धरा का धरा रह गया. फिर तो एकएक कर के 3 बच्चों की परवरिश करने तथा एक बड़े परिवार में घरपरिवार के तमाम कामों को निबटाने में दिन बीतने लगे. कितनी बरसातें और बसंत ऋतुएं आईं और गईं, संविधा की जिंदगी घर में ही बीतने लगी.

‘संविधा तुुम्हें यह करना है, तुम्हें यह नहीं करना है’, ‘आज शादी में चलना है, तैयार हो जाओ’, ‘तुम्हारे पिताजी की तबीयत खराब है, 3-4 दिन के लिए मायके जा कर उन्हें देख आओ. 5वें दिन वापस आ जाना, इस से ज्यादा रुकने की जरूरत नहीं है’ जैसे वाक्य वह हमेशा सुनती आई है.

घर में कोई मेहमान आया हो या कोई तीजत्योहार या कोई भी मौका हो, उसे क्या बनाना है, यह कह दिया जाता. क्या करना है, कोई यह उस से कहता और बिना कुछ सोचेविचारे वह हर काम करती रहती.ससुराल वाले उस का बखान करते. सासससुर कहते, ‘‘बहू बड़ी मेहनती है, घर की लक्ष्मी है.’’

पति राजेश को भी उस का शांत, आज्ञाकारी, लड़ाईझगड़ा न करने वाला स्वभाव अनुकूल लगता था. पति खुशीखुशी तीजत्योहार पर उस के लिए कोई न कोई उपहार खरीद लाता, पर इस में भी उस की पसंद न पूछी जाती. संविधा का संसार इसी तरह सालों से चला आ रहा था.

किसी से सवाल करने या किसी की बात का जवाब देने की उस की आदत नहीं थी. राजेश के गुस्से से वह बहुत डरती थी. उसे नाराज करने की वह हिम्मत नहीं कर पाती थी.

बच्चे अब बड़े हो गए थे. पर अभी भी उस के मन की, इच्छा की, विचारों की, पसंदनापसंद की घर में कोई कीमत नहीं थी. इसलिए इधर वह जब रोजाना शाम को पार्क में, पड़ोस में, सहेलियों के यहां और महिलाओं के समूह की बैठकों में जाने लगी तो राजेश को ही नहीं, बेटी और बहुओं को भी हैरानी हुई.

आखिर एक दिन शाम को खाते समय बेटे ने कह ही दिया, ‘‘मम्मी, आजकल आप रोजाना शाम को कहीं न कहीं जाती हैं. आप तो एकदम से मौडर्न हो गई हैं.’’उस समय संविधा कुछ नहीं बोली. अगले दिन वह जाने की तैयारी कर रही थी, तभी बहू ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप बाहर न जाएं तो ठीक है. आप बच्चे को संभाल लें, मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘आज तो मुझे बहुत जरूरी काम है, इसलिए मैं घर में नहीं रुक सकती,’’ संविधा ने कहा.उस दिन संविधा को कोई भी जरूरी काम नहीं था. लेकिन उस ने तो मन ही मन तय कर लिया था कि अब उस से कोई भी काम बिना उस की मरजी के नहीं करवा सकता. उस का समय अब उस के लिए है. कोई भी काम अब वह अपनी इच्छानुसार करेगी. वह किसी का भी काम उस की इच्छानुसार नहीं करेगी. कोई भी अब उसकी मरजी के खिलाफ अपना काम नहीं करवा सकता, क्योंकि उस की भी अपनी इच्छाएं हैं. अब वह किसी के हाथ से चलने वाली कठपुतली बन कर नहीं रहेगी.

इसलिए जब उस रात सोते समय राजेश ने कहा, ‘‘संविधा टिकट आ गए हैं, तैयारी कर लो. इस शनिवार की रात हम काशी चल रहे हैं. तुम्हें भी साथ चलना है. उधर से ही प्रयागराज और अयोध्या घूम लेंगे.’’तब संविधा ने पूरी दृढ़ता के साथ कहा, ‘‘मैं आप के साथ नहीं जाऊंगी. मेरी बहन अणिमा की तबीयत खराब है. मैं उस से मिलने जाऊंगी. आप को काशी, प्रयागराज और अयोध्या जाना है, आप अकेले ही घूम आइए.’’

‘‘पर मैं तो तुम्हारे साथ जाना चाहता था, उस का क्या होगा?’’ राजेश ने झल्ला कर कहा.‘‘आप जाइए न, मैं कहां आप को रोक रही हूं,’’ संविधा ने शांति से कहा.‘‘इधर से तुम्हें हो क्या गया है? जब जहां मन होता है चली जाती हो, आज मुझ से जबान लड़ा रही हो. अचानक तुम्हारे अंदर इतनी हिम्मत कहां से आ गई? मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. तुम्हें मेरे साथ काशी चलना ही होगा,’’ राजेश ने चिल्ला कर कहा.

गुस्से से उस का चेहरा लालपीला हो गया था. संविधा जैसे कुछ सुन ही नहीं रही थी. वह एकदम निर्विकार भाव से बैठी थी. थोड़ी देर में राजेश कुछ शांत हुआ. संविधा का यह रूप इस से पहले उस ने पहले कभी नहीं देखा था. हमेशा उस के अनुकूल, शांत, गंभीर, आज्ञाकारी, उस की मरजी के हिसाब से चलने वाली पत्नी को आज क्या हो गया है? संविधा का यह नया रूप देख कर वह हैरान था.

अपनी आवाज में नरमी लाते हुए राजेश ने कहा, ‘‘संविधा, तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हें आज यह क्या हो गया है? मुझ से कोई गलती हो गई है क्या? तुम कहो तो…’’ राजेश ने संविधा को समझाने की कोशिश की.

‘‘गलती आप की नहीं मेरी है. मैं ने ही इतने सालों तक गलती की है, जिसे अब सुधारना चाहती हूं. मेरा समग्र अस्तित्व अब तक दूसरों की मुट्ठी में बंद रहा. अब मुझे उस से बाहर आना है. मुझे आजादी चाहिए. अब मैं मुक्त हवा में सांस लेना चाहती हूं. इस गुलामी से बेचैन रहती हूं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं,‘‘ राजेश ने कहा, ‘‘तुम्हें दुख क्यों है? घर है, बच्चे हैं, पैसा है, मैं हूं,’’ संविधा के करीब आते हुए राजेश ने बात पूरी की.‘‘छोटी थी तो मांबाप की मुट्ठी में रहना पड़ा. उन्होंने जैसा कहा, वैसा करना पड़ा. जो खिलाया, वह खाया. जो पहनने को दिया, वह पहना. इस तरह नहीं करना, उस तरह नहीं करना, यहां नहीं जाना, वहां नहीं जाना. किस से बात करनी है और किस से नहीं करनी है, यह सब मांबाप तय करते रहे. हमेशा यही सब सुनती रही. शब्दों के भाव एक ही रहे, मात्र कहने वाले बदल गए. कपड़े सिलाते समय मां कहती कि लंबाई ज्यादा ही रखना, ज्यादा खुले गले का मत बनवाना. सहेली के घर से आने में जरा देर हो जाती, फोन पर फोन आने लगते, मम्मीपापा दोनों चिल्लाने लगते.

“इंटर पास किया, कालेज गई, कालेज का 1 ही साल पूरा हुआ था कि मेरी शादी की चिंता सताने लगी. पड़ोस में रहने वाला रवि हमारे कालेज में साथ ही पढ़ता था. वह मेरे घर के सामने से ही कालेज आताजाता था.”एक दिन मैं ने उसे घर बुला कर बातें क्या कर लीं, बुआ ने मेरी मां से कहा कि भाभी, संविधा अब बड़ी हो गई है, इस के लिए कोई अच्छा सा घर और वर ढूंढ़ लो. उस के बाद क्या हुआ, आप को पता ही है. उन्होंने मेरे लिए घर और वर ढूंढ़ लिया. उन की इच्छा के अनुसार यही मेरे लिए ठीक था.’’

एक गहरी सांस ले कर संविधा ने आगे कहा, ‘‘ऐसा नहीं था कि मैं ने शादी के लिए रोका नहीं. मैं ने पापा से एक बार नहीं कई बार कहा कि मुझे मेरी पढ़ाई पूरी कर लेने दो, पर पापा कहां माने. उहोंने कहा कि बेटा, तुम्हें कहां नौकरी करनी है… जितनी पढ़ाई की है, उसी में अच्छा लङका मिल गया है. अब आगे पढ़ने की क्या जरूरत है? हम जो कर रहे हैं, तेरी भलाई के लिए ही कर रहे है.”

पल भर चुप रहने के बाद संविधा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं इस घर में आई, तब मेरी उम्र 18 साल थी. तब से मैं यही सुन रही हूं, ‘संविधा ऐसा करो, वैसा करो.’ आप ही नहीं, बच्चे भी यही मानते हैं कि मुझे उन की मरजी के अनुसार जीना है. अब मैं अपना जीवन, अपना मन, अपने अस्तित्व को किसी अन्य की मुट्ठी में नहीं रहने देना चाहती. अब मुझे मुक्ति चाहिए. अब मैं अपनी इच्छा के अनुसार जीना चाहती हूं. मुझे मेरा अपना अस्तित्व चाहिए.’’

‘‘संविधा, मैं ने तुम से प्रेम किया है. तुम्हें हर सुखसुविधा देने की हमेशा कोशिश की है.’’‘‘हां राजेश, तुम ने प्यार किया है, पर अपनी दृष्टि से. आप ने अच्छे कपड़ेगहने दिए, पर वे सब आप की पसंद के थे. मुझे क्या चाहिए, मुझे क्या अच्छा लगता है, यह आप ने कभी नहीं सोचा. आप ने शायद इस की जरूरत ही नहीं महसूस की.’’

‘‘इस घर में तुम्हें क्या तकलीफ है?’’ हैरानी से राजेश ने पूछा, ‘‘तुम यह सब क्या कह रही हो, मेरी समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘मेरा दुख आप की समझ में नहीं आएगा,’’ संविधा ने दृढ़ता से कहा, ‘‘घर के इस सुनहरे पिंजरे में अब मुझे घबराहट यानी घुटन सी होने लगी है. मेरा प्राण, मेरी समग्र चेतना बंधक है. आप सब की मुट्ठी खोल कर अब मैं उड़ जाना चाहती हूं. मेरा मन, मेरी आत्मा, मेरा शरीर अब मुझे वापस चाहिए.’’

शादी के बाद आज पहली बार संविधा इतना कुछ कह रही थी, ‘‘हजारों साल पहले अयोध्या के राजमहल में रहने वाली उर्मिला से उस के पति लक्ष्मण या परिवार के किसी अन्य सदस्य ने वनवास जाते समय पूछा था कि उस की क्या इच्छा है? किसी ने उस की अनुमति लेने की जरूरत महसूस की थी? तब उर्मिला ने 14 साल कैसे बिताए होंगे, आज भी कोई इस बारे में नहीं विचार करता. उसी महल में सीता महारानी थीं. उन्हें राजमहल से निकाल कर वन में छोड़ आया गया जबकि वह गर्भवती थीं. क्या सीता की अनुमति ली गई थी या बताया गया था कि उन्हें राजमहल से निकाला जा रहा है?

“मेरे साथ भी वैसा ही हुआ है. मुझे मात्र पत्नी या मां के रूप में देखा गया. पर अब मैं मात्र एक पत्नी या मां के रूप में ही नहीं, एक जीतेजागते, जिस के अंदर एक धड़कने वाला दिल है, उस इंसान के रूप में जीना चाहती हूं. अब मैं किसी की मुट्ठी में बंद नहीं रहना चाहती.’’‘‘तो अब इस उम्र में घरपरिवार छोड़ कर कहां जाओगी?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘अब आप को इस की चिंता करने की जरूरत नहीं है. इस उम्र में किसी के साथ भागूंगी तो है नहीं. मुझे तो सेवा ही करनी है. अब तक गुलाम बन कर करती रही, जहां अपने मन से कुछ नहीं कर सकती थी. पर अब स्वतंत्र हो कर सेवा करना चाहती हूं.

“मेरी सहेली सुमन को तो तुम जानते ही हो, पिछले साल उन के पति की मौत हो गई थी. उन की अपनी कोई औलाद नहीं थी, इसलिए उन की करोड़ों की जायदाद पर उन के रिश्तेदारों की नजरें गड़ गईं. जल्दी ही उन की समझ में आ गया कि उन के रिश्तेदारों को उन से नहीं, उन की करोड़ो की जायदाद से प्यार है. इसलिए उन्होंने किसी को साथ रखने के बजाय ट्रस्ट बना कर अपनी उस विशाल कोठी में वृद्धाश्रम के साथसाथ अनाथाश्रम खोल दिया.

‘‘उन का अपना खर्च तो मिलने वाली पेंशन से ही चल जाता था, वद्धों एवं अनाथ बच्चों के खर्च के लिए उन्होंने उसी कोठी में डे चाइल्ड केयर सैंटर भी खेल दिया. वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम और चाइल्ड केयर सैंटर एकसाथ खोलने में उन का मकसद यह था कि जहां बच्चों को दादादादी का प्यार मिलता रहेगा, वहीं आश्रम में रहने वाले वृद्ध कभी खुद को अकेला नहीं महसूस करेंगे. उन का समय बच्चों के साथ आराम से कट जाएगा, साथ ही उन्हें नातीपोतों की कमी नहीं खलेगी,’’ इतना कह कर संविधा पल भर के लिए रुकी.

राजेश की नजरें संविधा के ही चेहरे पर टिकी थीं. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक संविधा एकदम से कैसे बदल गई. संविधा ने डाइनिंग टेबल पर रखे जग से गिलास में पानी लिया और पूरा गिलास खाली कर के आगे बोली, ‘‘दिन में नौकरी करने वाले कपल को अपने बच्चों की बड़ी चिंता रहती है. पर सुमन के डे चाइल्ड केयर सैंटर में अपना बच्चा छोड़ कर वे निश्चिंत हो जाते हैं, क्योंकि वहां उन की देखभाल के लिए दादादादी जो होते हैं. इस के अलावा सुमन की उस कोठी में बच्चों को खेलने के निए बड़ा सा लौन तो है ही, उन्होंने बच्चों के लिए तरहतरह के आधुनिक खिलौनों की भी व्यवस्था कर रखी है. दिन में बच्चों को दिया जाने वाली खाना भी शुद्ध और पौष्टिक होता है. इसलिए उन के डे चाइल्ड केयर सैंटर में बच्चों की संख्या काफी है. जिस से उन्हें वृद्धाश्रम और अनाथाश्रम चलाने में जरा भी दिक्कत नहीं होती. आज सुबह मैं वहीं गई थी. वहां मुझे बहुत अच्छा लगा. इसलिए अब मैं वहीं जा कर सुमन के साथ उन बूढ़ों की और बच्चों की सेवा करना चाहती हूं, उन्हें प्यार देना चाहती हूं, जिन का अपना कोई नहीं है.’’

राजेश संविधा की बातें ध्यान से सुन रहा था. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि वह जो सुन रहा है, वह सब कहने वाली उस की पत्नी संविधा है. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब सच है या दुस्वप्न.

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प्यार का सागर: आखिर सागर पर क्यों बरस पड़े उसके घरवाले

लेखिका : मंजरी सक्सेना 

सड़क पर गाड़ी दौड़ाते हुए बैंक्वेट हौल में जगमग शादियों के पंडाल देख और म्यूजिक की धुन से मु?ो लगा जैसे मेरे कानों में किसी ने गरम सीसा उड़ेल दिया हो. जिन आवाजों से मैं पीछा छुड़ा कर उस दिन शहर के बाहर यहां आई थी, वे यहां भी जहर घोलने चली आईर् थीं. सड़क पर कितनी ही बरातें दिखी थीं जो बैंक्वेट हौल के सामने नाचों में जुटी थीं.

न मालूम कितनी बातें मेरे दिमाग में बिजली की तरह कौंध गईं और एकाएक जैसे मैं आकाश से धरती पर आ गिरी. सोचने लगी, मैं कहां पहुंच गईर् थी उन मधुर कल्पनाओं में जो कभी साकार नहीं होंगी. लेकिन फिर सोचने लगी कि तो क्या मुझे इन्हीं कल्पनाओं के सहारे जीना पड़ेगा क्योंकि मेरी जिंदगी में जो उदासी और दर्द आ गया उस क अंत नहीं. अब क्या मेरी बरात में ऐसी धूमधाम नहीं होगी? कितनी प्लानिंग की थी अपनी शादी की मैं ने भी और मेरे मांबाप ने भी. अब मैं खुद तो दुखी हूं ही, साथ में मांबाप, भाईबहन भी चिंतित हैं.

काश, शादी से पहले मेरे पैर की हड्डी न टूटी होती तो मेरी मधुर प्लानिंग यों जल कर राख न होती.

नगाड़ों की धुन अब पास आती जा रही थी और मैं फिर सोचने लगी थी कि 10 दिन बाद मेरी बरात आएगी भी या नहीं, मेरी डोली उठेगी या नहीं और दुलहनों की तरह मैं भी कभी लाल जोड़ा पहन सकूंगी या नहीं या सबकुछ महीनों के लिए खा जाएगा.

मुझे दूसरे पहलू पर भी सोचना था. वैडिंग के लिए होटल बुक हो चुका था. लोगों ने टिकट भी खरीद लिए थे. इंतजाम तो सारे हो ही चुके हैं. हर सामान के लिए पहले से पैसा दिया जा चुका है जिस के लिए भैया को कितनी मशक्कत करनी पड़ी है और फिर सागर के बीचोंबीच हनीमून के लिए होटल के भी तो सारे इंतजाम कर लिए थे. शादीब्याह कोई गुडि़यों का खेल तो है नहीं कि उस का दिन टलता रहे. उन्होंने भी तो अब तक अपने रिश्तेदारों को आमंत्रित कर लिया था. आजकल लड़कों की शादियों पर भी सब खूब खर्च करते हैं. सागर ने बैचलर ट्रिप भी और्गेनाइज कर लिया था.

 

जिस दिन मेरी हड्डी टूटी थी, उस दिन की याद आते ही मैं कांप गई. हमेशा की तरह छत पर पढ़ रही थी. छत के शांत वातावरण में पढ़ना मु?ो बहुत अच्छा लगता था. कोई शोर, कोई चीखपुकार सुनाई नहीं देती थी. नीचे तो सड़क की आवाजें तथा फिल्मों के गाने आदि ध्यान को हटा देते थे. शहर के बीच में घर होने की वजह से मार्केट आने वाले रिश्तेदार और दोस्त घर भी चले आते, जिस से पढ़ाई में व्यवधान पड़ता था. उन के लिए चायनाश्ता तैयार करना पड़ता था या कभीकभी खाना भी बनाना पड़ता. इस से मु?ो बहुत परेशानी होती.

ऐग्जाम के दिनों में तो मम्मीपापा के रिश्तेदारों या अन्य लोगों का आना मुझे बहुत ही खराब लगता क्योंकि एक तो उन के आने से समय नष्ट होता, दूसरे वे यह पूछना कभी न भूलते कि अभी तक सरिता ने शादी का क्या इंतजाम किया है. सुन कर मेरे तनबदन में आग सुलग उठती.

इन सब झंझटों से मुक्ति पाने का मेरा एकमात्र स्थान छत थी. न मां मु?ो अपने सामने देखतीं और न कोई काम मुझसे कहतीं. जब मैं छत पर पढ़ रही होती तो काम के लिए मीता को ही पकड़ा जाता था वरना वह छोटी होने की वजह से बची रहती. शादी के लिए निश्चित तिथि के कुल 15 दिन बाद ही तो मेरी परीक्षा थी. डैस्टिनेशन मैरिज, सागर के भाई के विदेश से आने, हवाईजहाज के टिकटों के कारण तय हुआ था कि परीक्षा से पहले शादी होगी और परीक्षा के बाद हम हनीमून पर जाएंगे. शादी के बाद ठीक से पढ़ाई नहीं हो सकती थी इसलिए मैं अधिक से अधिक पढ़ाई कर लेना चाहती थी. यही सोच कर मैं छत के कोने में कुरसी कर निश्चिंतता से पढ़ रही थी कि बंदरों की कतार आती दिखी. बंदर तो हमेशा ही आते थे. उन से डर कर मैं नीचे उतर जाती थी, लेकिन उस दिन पता नहीं क्यों मैं यह सोच कर भागी कि कहीं बंदरों ने मु?ो नोच लिया और चेहरा विकृत हो गया तो क्या होगा. मैं जल्दी से नीचे भागी. फिर नीचे रखे गमले से टकरा कर एक चीख के साथ गिर पड़ी. फिर क्या हुआ, कुछ नहीं मालूम.

जब होश आया तो मां ने कहा, ‘‘यह क्या कर बैठी सरिता? अब क्या होगा?’’ मां का मतलब सम?ाते मु?ो देर नहीं लगी. पर उन से क्या कहती? क्या यह कि कहीं बंदर मेरा चेहरा न नोच लें इसीलिए मैं ने छलांग लागई थी और धोखे से गमले से टकरा कर गिर गई?

‘‘यह रोने का समय है क्या?’’ बड़े भैया चिल्लाए, ‘‘क्या पता हड्डी न टूटी हो सिर्फ मोच ही आ गई हो. चलो जल्दी अस्पताल चलो,’’ और उन्होंने मु?ो सहारा दे कर उठाया. मगर भैया की आंखों की भाषा मैं ने पढ़ ली थी. वे खुद भी तो इस बात से डरे हुए थे कि कहीं मेरे पैर की हड्डी न टूट गई हो. उन लोगों के चेहरे देख कर मैं अपना दर्द भूल सी गईर् थी. मेरा पैर सूज गया था इसलिए और मुश्किल थी.

‘अगर हड्डी टूट गई हो और ठीक से न जुड़ सकी तो? यदि कहीं हड्डी टूट कर उस में चुभ गई तो? कम से कम 3 महीने तक प्लास्टर ?ोलना पड़ेगा. हो सकता है औपरेशन करना पड़े. या रौड डले,’ यह विचार आते ही मैं कांप उठी.

‘‘बेवकूफ लड़की यह क्या कर बैठी?’’ जगदीश की आवाज मु?ो ?ाक?ोर गई. उन्होंने फिर कहा, ‘‘अब तेरी जगह क्या गीता को खड़ा करा जाएगा?’’ इस के साथ ही वे हंस पड़े, पर मेरा फक चेहरा देख कर शायद उन्हें अपनी गलती का आभास हुआ और वे गंभीर हो गए.

‘‘डाक्टर साहब, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्लास्टर न चढ़ाया जाए?’’ मां ने पूछा. ‘‘अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. ऐक्सरे रिपोर्ट के बाद ही कुछ कहा जा सकता है.’’ मां धीरेधीरे बड़बड़ा रही थीं.

‘‘मां, आप फिक्र क्यों करती हैं? शादी तो हो ही जाएगी. हां, सरिता को चलाने के  लिए व्हील चेयर और आंसू पोंछने के लिए किसी को साथ रखना पड़ेगा,’’ डाक्टर साहब ने शायद मु?ो हंसाना चाहा. पर मेरा मुंह शर्म तथा अपमान से लाल हो गया. का एक मीता को सामने देख कर मैं संभल गई, ‘‘क्या बात है मीतू?’’ ‘‘मैं कब से तुम्हें आवाज दे रही है. खाना तक लग गया है. सब लोग मेज पर तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं,’’ उस का स्वर ?ाल्लाया सा लगा.

मैं भारी कदमों से मीता के साथ डाइनिंगटेबल पर व्हीलचेयर में आ गई. खाने की मेज पर मां, पिताजी, भाभी, भैया सभी मेरे इंतजार में बैठे थे. मीता ने प्लेट में खाना परोस कर प्लेट मेरे सामने रखी तो मु?ो लगा मानो सभी लोग तरस खाईर् नजरों से मु?ो देख रहे हैं. अपने प्लास्टर चढ़े

पैर पर एक नजर डाल कर मैं चुपचाप खाने लगी थी. खाने के साथसाथ रुलाई भी छूट रही थी. कैसा अजीब वातावरण हो उठा था. पहले खाने की मेज पर बैठते ही पिताजी के कहकहे, भैया के चुटकुले, भाभी की चूडि़यों की खनखनाहट, मां की बनावटी ?ाल्लाहट से वातावरण खुशनुमा सा लगता था, लेकिन आज खाने से पहले हंसतेबोलने चेहरे मेज पर आते ही गुमसुम हो गए थे.

 

मैं सोच रही थी कि  घर में जो यह उदासी छा गई है, इस का कारण मैं ही तो हूं. मैं ने इसीलिए मां से कहा था कि मेरा खाना मेरे कमरे में पहुंचा दो, लेकिन वे तो रो पड़ीं. बोलीं, ‘‘तू अकेले कितना खाएगी, क्या मैं यह सम?ाती नहीं.’’ सुन कर मैं चुप हो गई. अचानक रात के 10 बजे

सागर आ गए. वे कार से आए थे. सामने देख कर मेरा खून बर्फ की तरह जम सा गया. हरकोई धड़कते दिल से अपनेअपने ढंग से अनुमान लगा रहा था. पिताजी ने सागर से कहा, ‘‘आप से

अनुरोध है कि शादी की तारीख कृपया न बदलें क्योंकि फिर बुकिंग न मिलने के कारण शादी अगले साल तक के लिए टल जाएगी. वैसे आप की जो इच्छा. आप की तसल्ली और विश्वास के लिए मैं सरिता का ऐक्सरे दे रहा हूं. कृपया बताएं क्या करें?’’ सागर ने आते ही मु?ो सब के सामने जोर से हग कर के सब को चौंका दिया. उस ने कहा, ‘‘सबकुछ वैसा ही होगा जैसा प्लान है, बस हनीमून कैंसिल. जब सरितता पूरी तरह ठीक होगी, तब देखेंगे,’’ सागर पूरी योजना सब को बता दी. उस ने साफ कह दिया कि शादी से पहले सरिता उस के मातापिता से नहीं मिलेगी क्योंकि न जाने वे क्या फैसले लें. शायद वे नहीं चाहेंगे कि उन की होने वाली बहू व्हीलचेयर पर शादी के मंडप में आए.

 

सागर ने हमारे 6 टिकट पहले करा दिए ताकि हम डैस्टिनेशन पर पहले पहुंच जाएं. मु?ो सोफे पर बैठा कर खूब तसवीरें ली गईं जिन में मेरे पैर छिपे हुए थे.

सब अपनेअपने कार्यक्रम के अनुसार डैस्टिनेशन होटल पहुंचे. सागर ने बहाना बना दिया कि प्री वैडिंग कार्यक्रमों में किसी कारण से मैं भाग नहीं ले पाऊंगी. सब मु?ा से कमरे में मिलने आते. मैं पलंग पर लेटेलेटे सब से मिलती. हम 6 यात्रियों में मम्मीपापा, मीता और भैया और भाभी के अलावा किसी को नहीं मालूम न था कि मेरे पैर की हड्डी टूटी है.

सागर के मातापिता भी आए. मु?ा से मिल कर गए. मैं डरी रही. सागर ने बड़ी बखूबी से मु?ो बैड पर लिटाए रखने के एक के बाद एक नए बहाने गढ़े. मेरे बिना कई रस्में हुईं और कईयों में मैं सब से पहले पहुंच कर बैठ जाती, बड़े से लंहगे में पैर छिपा कर और तभी उठती जब सब को सागर या मम्मीपापा किसी न किसी बहाने कहीं और ले जाते.

यह डैस्टिनेशन वैडिंग एक  बड़े होटल में हो रही थी जिस में सर्विस लिफ्ट से व्हीलचेयर पर चुपचाप इधर से उधर जाना संभव था. मेरा कमरा एकदम सर्विस लिफ्ट के बराबर या इसलिए कम को ही शक हुआ.

बरात निश्चित समय मैरिज होटल के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंची. बरात में जो लड़कियां आई थीं, उन में मु?ो न देख कर खुसुरफुसुर हो रही थी. भाभी मेरे हाथों में मेहंदी लगा रही थीं. तभी 7-8 लड़कियां मु?ा से मिलने चली आईं. लेकिन मैं तो बैट पर लेटी थी और नकली छींके मार रही थी इसलिए देखते ही वे उलटे पैरों लौट गईं. जब पहली जयमाला वाली रस्म होनी थी तो मैं शान से व्हीलचेयर पर आई. सारे घर में सन्नाटा सा छा गया कि अब मुसीबत बेधड़क आ गई. असली ड्रामा तब शुरू हुआ जब विवाह मंडप में आयोजन के लिए बुलाया गया. मेरी और सागर की जिद के कारण मीता ही मु?ो लाल लहंगे में ले कर विवाह मंच पर पहुंची. सब के मुंह खुले रह गए. हमारी ओर के बरातियों के भी और सागर के संबंधियों को भी. सागर के पिता बरसने लगे, ‘‘यह क्या तमाशा है. क्या हम अपाहिज लड़की से शादी करने वाले हैं?’’

मैं अपमान से तिलमिला उठी. पापा ने सारी बात सागर के पापा को बताई तो भी वे शांत नहीं हुए. सागर इस दौरान चुप खड़ा रहा. तभी मैं बोल पड़ी, ‘‘नहीं करनी है मु?ो शादी, मेरा पैर कोई कट नहीं गया है. क्या जरूरत है पापा को गिड़गिड़ाने की? क्यों पापा दया की भीख मांग रहे हैं किसी के आगे?’’ बोलतेबोलते मेरा सारा शरीर कांपने लगा. तभी किसी रिश्तेदार ने कहा कि सागर की शादी मीता से कर दो, काम हो जाएगा. सागर यह सुन कर भी चुप था. पिताजी ने तो हां भी कह दी. लेकिन तभी सागर का असली रूप सामने आया. बोला, ‘‘पापा मेरा विवाह सरिता से ही होगा और शादी का जो समय तय है उसी में सबकुछ होगा. मु?ोे हड्डी टूटने की बात पहले दिन से पता है. यह सब मेरी इच्छा और हमारे भविष्य के सुख के लिए है.’’

सागर के प्रति मेरी सहानुभूति उमड़ आई. सोचने लगी कि मेरे लिए वह कितनी मुसीबत ?ोल रहा है. कुछ का उत्साह निचुड़ गया था. वातावरण में एक अजीब सा सूनापन भर उठा. पर फिर पूरे जोशखरोश से शादी का हर काम पूरा हुआ. मैं व्हीलचेयर पर और सागर मेरे

साथ खड़ा सैकड़ों फोटो में हमारा प्यार जाहिर हो रहा था.

जीवन संध्या में: कर्तव्यों को पूरा कर क्या साथ हो पाए प्रभाकर और पद्मा?

तनहाई में वे सिर झुकाए आरामकुरसी पर आंखें मूंदे लेटे हुए हैं. स्वास्थ्य कमजोर है आजकल. अपनी विशाल कोठी को किराए पर दे रखा है उन्होंने. अकेली जान के लिए 2 कमरे ही पर्याप्त हैं. बाकी में बच्चों का स्कूल चलता है.

बच्चों के शोरगुल और अध्यापिकाओं की चखचख से अहाते में दिनभर चहलपहल रहती है. परंतु शाम के अंधेरे के साथ ही कोठी में एक गहरा सन्नाटा पसर जाता है. आम, जामुन, लीची, बेल और अमरूद के पेड़ बुत के समान चुपचाप खड़े रहते हैं.

नौकर छुट्टियों में गांव गया तो फिर वापस नहीं आया. दूसरा नौकर ढूंढ़े कौन? मलेरिया बुखार ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है. एक गिलास पानी के लिए तरस गए हैं. वे इतनी विशाल कोठी के मालिक हैं, मगर तनहा जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हैं.

जिह्वा की मांग है कि कोई चटपटा व्यंजन खाएं, मगर बनाए कौन? अपने हाथों से कभी कुछ खास बनाया नहीं. नौकर था तो जो कच्चापक्का बना कर सामने रख देता, वे उसे किसी तरह गले के नीचे उतार लेते थे. बाजार जाने की ताकत नहीं थी.

स्कूल में गरमी की छुट्टियां चल रही हैं. रात में चौकीदार पहरा दे जाता है. पासपड़ोसी इस इलाके में सभी कोठी वाले ही हैं. किस के घर क्या हो रहा है, किसी को कोई मतलब नहीं.

आज अगर वे इसी तरह अपार धनसंपदा रहते हुए भी भूखेप्यासे मर जाएं तो किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा. उन का मन भर आया. डाक्टर बेटा सात समुंदर पार अपना कैरियर बनाने गया है. उसे बूढ़े बाप की कोई परवा नहीं. पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने कितनी तकलीफ और यत्न से बच्चों को पाला है, वही जानते हैं. कभी भूल कर भी दूसरी शादी का नाम नहीं लिया. सौतेली मां के किस्से सुन चुके हैं. बेटी सालछह महीने में एकदो दिन के लिए आ जाती है.

‘बाबूजी, आप मेरे साथ चल कर रहिए,’ बेटी पूजा बड़े आग्रह से कहती.

‘क्यों, मुझे यहां क्या कमी है,’ वे फीकी हंसी हंसते .

‘कमी तो कुछ नहीं, बाबूजी. आप बेटी के पास नहीं रहना चाहते तो भैया के पास अमेरिका ही चले जाइए,’ बेटी की बातों पर वे आकाश की ओर देखने लगते.

‘अपनी धरती, पुश्तैनी मकान, कारोबार, यहां तेरी अम्मा की यादें बसी हुई हैं. इन्हें छोड़ कर सात समुंदर पार कैसे चला जाऊं? यहीं मेरा बचपन और जवानी गुजरी है. देखना, एक दिन तेरा डाक्टर भाई परिचय भी वापस अपनी धरती पर अवश्य आएगा.’

वे भविष्य के रंगीन सपने देखने लगते.

फाटक खुलने की आवाज पर वे चौंक उठे. दिवास्वप्न की कडि़यां बिखर गईं. ‘कौन हो सकता है इस समय?’

चौकीदार था. साथ में पद्मा थी.

‘‘अरे पद्मा, आओ,’’ प्रभाकरजी का चेहरा खिल उठा. पद्मा उन के दिवंगत मित्र की विधवा थी. बहुत ही कर्मठ और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य न खोने वाली महिला.

‘‘तुम्हारी तबीयत अब कैसी है?’’ बोलते हुए वह कुरसी खींच कर बैठ गई.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि मैं बीमार हूं?’’ वे आश्चर्य से बोले.

‘‘चौकीदार से. बस, भागी चली आ रही हूं. इसी से पता चला कि रामू भी घर चला गया है. मुझे  क्या गैर समझ रखा है? खबर क्यों नहीं दी?’’ पद्मा उलाहने देने लगी.

वे खामोशी से सुनते रहे. ये उलाहने उन के कानों में मधुर रस घोल रहे थे, तप्त हृदय को शीतलता प्रदान कर रहे थे. कोई तो है उन की चिंता करने वाला.

‘‘बोलो, क्या खाओगे?’’

‘‘पकौडि़यां, करारी चटपटी,’’ वे बच्चे की तरह मचल उठे.

‘‘क्या? तीखी पकौडि़यां? सचमुच सठिया गए हो तुम. भला बीमार व्यक्ति भी कहीं तलीभुनी चीजें खाता है?’’ पद्मा की पैनी बातों की तीखी धार उन के हृदय को चुभन के बदले सुकून प्रदान कर रही थी.

‘‘अच्छा, सुबह आऊंगी,’’ उन्हें फुलके और परवल का झोल खिला कर पद्मा अपने घर चली गई.

प्रभाकरजी का मन भटकने लगा. पूरी जवानी उन्होंने बिना किसी स्त्री के काट दी. कभी भी सांसारिक विषयवासनाओं को अपने पास फटकने नहीं दिया. कर्तव्य की वेदी पर अपनी नैसर्गिक कामनाओं की आहुति चढ़ा दी. वही वैरागी मन आज साथी की चाहना कर रहा है.

यह कैसी विडंबना है? जब बेटा 3 साल और बेटी 3 महीने की थी, उसी समय पत्नी 2 दिनों की मामूली बीमारी में चल बसी. उन्होंने रोते हुए दुधमुंहे बच्चों को गले से लगा लिया था. अपने जीवन का बहुमूल्य समय अपने बच्चों की परवरिश पर न्योछावर कर दिया. बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई, शादी की, विदेश भेजा. बेटी को पिता की छाया के साथसाथ एक मां की तरह स्नेह व सुरक्षा प्रदान की. आज वह पति के घर में सुखी दांपत्य जीवन व्यतीत कर रही है.

पद्मा भी भरी जवानी में विधवा हो गई थी. दोनों मासूम बेटों को अपने संघर्ष के बल पर योग्य बनाया. दोनों बड़े शहरों में नौकरी करते हैं. पद्मा बारीबारी से बेटों के पास जाती रहती है. मगर हर घर की कहानी कुछ एक जैसी ही है. योग्य होने पर कमाऊ बेटों पर मांबाप से ज्यादा अधिकार उन की पत्नी का हो जाता है. मांबाप एक फालतू के बोझ समझे जाने लगते हैं.

पद्मा में एक कमी थी. वह अपने बेटों पर अपना पहला अधिकार समझती थी. बहुओं की दाब सहने के लिए वह तैयार नहीं थी, परिणामस्वरूप लड़झगड़ कर वापस घर चली आई. मन खिन्न रहने लगा. अकेलापन काटने को दौड़ता, अपने मन की बात किस से कहे.

प्रभाकर और पद्मा जब इकट्ठे होते तो अपनेअपने हृदय की गांठें खोलते, दोनों का दुख एकसमान था. दोनों अकेलेपन से त्रस्त थे और मन की बात कहने के लिए उन्हें किसी साथी की तलाश थी शायद.

प्रभाकरजी स्वस्थ हो गए. पद्मा ने उन की जीजान से सेवा की. उस के हाथों का स्वादिष्ठ, लजीज व पौष्टिक भोजन खा कर उन का शरीर भरने लगा.

आजकल पद्मा दिनभर उन के पास ही रहती है. उन की छोटीबड़ी जरूरतों को दौड़भाग कर पूरा करने में अपनी संतानों की उपेक्षा का दंश भूली हुई है. कभीकभी रात में भी यहीं रुक जाती है.

हंसीठहाके, गप में वे एकदूसरे के कब इतने करीब आ गए, पता ही नहीं चला. लौन में बैठ कर युवकों की तरह आपस में चुहल करते. मन में कोई बुरी भावना नहीं थी, परंतु जमाने का मुंह वे कैसे बंद करते? लोग उन की अंतरंगता को कई अर्थ देने लगे. यहांवहां कई तरह की बातें उन के बारे में होने लगीं. इस सब से आखिर वे कब तक अनजान रहते. उड़तीउड़ती कुछ बातें उन तक भी पहुंचने लगीं.

2 दिनों तक पद्मा नहीं आई. प्रभाकरजी का हृदय बेचैन रहने लगा. पद्मा के सुघड़ हाथों ने उन की अस्तव्यस्त गृहस्थी को नवजीवन दिया था. भला जीवनदाता को भी कोई भूलता है. दिनभर इंतजार कर शाम को पद्मा के यहां जा पहुंचे. कल्लू हलवाई के यहां से गाजर का हलवा बंधवा लिया. गाजर का हलवा पद्मा को बहुत पसंद है.

गलियों में अंधेरा अपना साया फैलाने लगा था. न रोशनी, न बत्ती, दरवाजा अंदर से बंद था. ठकठकाने पर पद्मा ने ही दरवाजा खोला.

‘‘आइए,’’ जैसे वह उन का ही इंतजार कर रही थी. पद्मा की सूजी हुई आंखें देख कर प्रभाकर ठगे से रह गए.

‘‘क्या बात है? खैरियत तो है?’’ कोई जवाब न पा कर प्रभाकर अधीर हो उठे. अपनी जगह से उठ पद्मा का आंसुओं से लबरेज चेहरा उठाया. तकिए के नीचे से पद्मा ने एक अंतर्देशीय पत्र निकाल कर प्रभाकर के हाथों में पकड़ा दिया.

कोट की ऊपरी जेब से ऐनक निकाल कर वे पत्र पढ़ने लगे. पत्र पढ़तेपढ़ते वे गंभीर हो उठे, ‘‘ओह, इस विषय पर तो हम ने सोचा ही नहीं था. यह तो हम दोनों पर लांछन है. यह चरित्रहनन का एक घिनौना आरोप है, अपनी ही संतानों द्वारा,’’ उन का चेहरा तमतमा उठा. उठ कर बाहर की ओर चल पड़े.

‘‘तुम तो चले जा रहे हो, मेरे लिए कुछ सोचा है? मुझे उन्हें अपनी संतान कहते हुए भी शर्म आ रही है.’’

पद्मा हिलकहिलक कर रोने लगी. प्रभाकर के बढ़ते कदम रुक गए. वापस कुरसी पर जा बैठे. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था.

‘‘क्या किया जाए? जब तुम्हारे बेटों को हमारे मिलनेजुलने में आपत्ति है, इस का वे गलत अर्थ लगाते हैं तो हमारा एकदूसरे से दूर रहना ही बेहतर है. अब बुढ़ापे में मिट्टी पलीद करानी है क्या?’’ उन्हें अपनी ही आवाज काफी दूर से आती महसूस हुई.

पिछले एक सप्ताह से वे पद्मा से नहीं मिल रहे हैं. तबीयत फिर खराब होने लगी है. डाक्टर ने पूर्णआराम की सलाह दी है. शरीर को तो आराम उन्होंने दे दिया है पर भटकते मन को कैसे विश्राम मिले?

पद्मा के दोनों बेटों की वैसे तो आपस में बिलकुल नहीं पटती है, मगर अपनी मां के गैर मर्द से मेलजोल पर वे एकमत हो आपत्ति प्रकट करने लगे थे.

पता नहीं उन के किस शुभचिंतक ने प्रभाकरजी व पद्मा के घनिष्ठ संबंध की खबर उन तक पहुंचा दी थी.

प्रभाकरजी का रोमरोम पद्मा को पुकार रहा था. जवानी उन्होंने दायित्व निर्वाह की दौड़भाग में गुजार दी थी. परंतु बुढ़ापे का अकेलापन उन्हें काटने दौड़ता था. यह बिना किसी सहारे के कैसे कटेगा, यह सोचसोच कर वे विक्षिप्त से हो जाते. कोई तो हमसफर हो जो उन के दुखसुख में उन का साथ दे, जिस से वे मन की बातें कर सकें, जिस पर पूरी तरह निर्भर हो सकें. तभी डाकिए ने आवाज लगाई :

‘‘चिट्ठी.’’

डाकिए के हाथ में विदेशी लिफाफा देख कर वे पुलकित हो उठे. जैसे चिट्ठी के स्थान पर स्वयं उन का बेटा परिचय खड़ा हो. सच, चिट्ठी से आधी मुलाकात हो जाती है. परिचय ने लिखा है, वह अगले 5 वर्षों तक स्वदेश नहीं आ सकता क्योंकि उस ने जिस नई कंपनी में जौइन किया है, उस के समझौते में एक शर्त यह भी है.

प्रभाकरजी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. उन की खुशी काफूर हो गई. वे 5 वर्ष कैसे काटेंगे, सिर्फ यादों के सहारे? क्या पता वह 5 वर्षों के बाद भी भारत आएगा या नहीं? स्वास्थ्य गिरता जा रहा है. कल किस ने देखा है. वादों और सपनों के द्वारा किसी काठ की मूरत को बहलाया जा सकता है, हाड़मांस से बने प्राणी को नहीं. उस की प्रतिदिन की जरूरतें हैं. मन और शरीर की ख्वाहिशें हैं. आज तक उन्होंने हमेशा अपनी भावनाओं पर विजय पाई है, मगर अब लगता है कि थके हुए तनमन की आकांक्षाओं को यों कुचलना आसान नहीं होगा.

बेटी ने खबर भिजवाई है. उस के पति 6 महीने के प्रशिक्षण के लिए दिल्ली जा रहे हैं. वह भी साथ जा रही है. वहां से लौट कर वह पिता से मिलने आएगी.

वाह री दुनिया, बेटा और बेटी सभी अपनीअपनी बुलंदियों के शिखर चूमने की होड़ में हैं. बीमार और अकेले पिता के लिए किसी के पास समय नहीं है. एक हमदर्द पद्मा थी, उसे भी उस के बेटों ने अपने कलुषित विचारों की लक्ष्मणरेखा में कैद कर लिया. यह दुनिया ही मतलबी है. यहां संबंध सिर्फ स्वार्थ की बुनियाद पर विकसित होते हैं. उन का मन खिन्न हो उठा.

‘‘प्रभाकर, कहां हो भाई?’’ अपने बालसखा गिरिधर की आवाज पहचानने में उन्हें भला क्या देर लगती.

‘‘आओआओ, कैसे आना हुआ?’’

‘‘बिटिया की शादी के सिलसिले में आया था. सोचा तुम से भी मिलता चलूं,’’ गिरिधरजी का जोरदार ठहाका गूंज उठा.

हंसना तो प्रभाकरजी भी चाह रहे थे, परंतु हंसने के उपक्रम में सिर्फ होंठ चौड़े हो कर रह गए. गिरिधर की अनुभवी नजरों ने भांप लिया, ‘दाल में जरूर कुछ काला है.’

शुरू में तो प्रभाकर टालते रहे, पर धीरेधीरे मन की परतें खुलने लगीं. गिरिधर ने समझाया, ‘‘देखो मित्र, यह समस्या सिर्फ तुम्हारी और पद्मा की नहीं है बल्कि अनेक उस तरह के विधुर  और विधवाओं की है जिन्होंने अपनी जवानी तो अपने कर्तव्यपालन के हवाले कर दी, मगर उम्र के इस मोड़ पर जहां न वे युवा रहते हैं और न वृद्ध, वे नितांत अकेले पड़ जाते हैं. जब तक उन के शरीर में ताकत रहती है, भुजाओं में सारी बाधाओं से लड़ने की हिम्मत, वे अपनी शारीरिक व मानसिक मांगों को जिंदगी की भागदौड़ की भेंट चढ़ा देते हैं.

‘‘बच्चे अपने पैरों पर खड़े होते ही अपना आशियाना बसा लेते हैं. मातापिता की सलाह उन्हें अनावश्यक लगने लगती है. जिंदगी के निजी मामले में हस्तक्षेप वे कतई बरदाश्त नहीं कर पाते. इस के लिए मात्र हम नई पीढ़ी को दोषी नहीं ठहरा सकते. हर कोई अपने ढंग से जीवन बिताने के लिए स्वतंत्र होता है. सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ना ही तो दुनियादारी है.’’

‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु पद्मा और मैं दोनों बिलकुल अकेले हैं. अगर एकसाथ मिल कर हंसबोल लेते हैं तो दूसरों को आपत्ति क्यों होती है?’’ प्रभाकरजी ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘सुनो, मैं सीधीसरल भाषा में तुम्हें एक सलाह देता हूं. तुम पद्मा से शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ उन की आंखों में सीधे झांकते हुए गिरधर ने सामयिक सुझाव दे डाला.

‘‘क्या? शादी? मैं और पद्मा से? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? लोग क्या कहेंगे? हमारी संतानों पर इस का क्या असर पड़ेगा? जीवन की इस सांध्यवेला में मैं विवाह करूं? नहींनहीं, यह संभव नहीं,’’ प्रभाकरजी घबरा उठे.

‘‘अब लगे न दुहाई देने दुनिया और संतानों की. यही बात लोगों और पद्मा के बेटों ने कही तो तुम्हें बुरा लगा. विवाह करना कोई पाप नहीं. जहां तक जीवन की सांध्यवेला का प्रश्न है तो ढलती उम्र वालों को आनंदमय जीवन व्यतीत करना वर्जित थोड़े ही है. मनुष्य जन्म से ले कर मृत्यु तक किसी न किसी सहारे की तलाश में ही तो रहता है. पद्मा और तुम अपने पवित्र रिश्ते पर विवाह की सामाजिक मुहर लगा लो. देखना, कानाफूसियां अपनेआप बंद हो जाएंगी. रही बात संतानों की, तो वे भी ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो तुम्हारे निर्णय को बिलकुल उचित ठहराएंगे. कभीकभी इंसान को निजी सुख के लिए भी कुछ करना पड़ता है. कुढ़ते रह कर तो जीवन के कुछ वर्ष कम ही किए जा सकते हैं. स्वाभाविक जीवनयापन के लिए यह महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर तुम और पद्मा समाज में एक अनुपम और प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करो.’’

‘‘क्या पद्मा मान जाएगी?’’

‘‘बिलकुल. पर तुम पुरुष हो, पहल तो तुम्हें ही करनी होगी. स्त्री चाहे जिस उम्र की हो, उस में नारीसुलभ लज्जा तो रहती ही है.’’

गिरिधर के जाने के बाद प्रभाकर एक नए आत्मविश्वास के साथ पद्मा के घर की ओर चल पड़े, अपने एकाकी जीवन को यथार्थ के नूतन धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए. जीवन की सांध्यवेला में ही सही, थोड़ी देर के लिए ही पद्मा जैसी सहचरी का संगसाथ और माधुर्य तो मिलेगा. जीवनसाथी मनोनुकूल हो तो इंसान सारी दुनिया से टक्कर ले सकता है. इस छोटी सी बात में छिपे गूढ़ अर्थ को मन ही मन गुनगुनाते वे पद्मा का बंद दरवाजा एक बार फिर खटखटा रहे थे.

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