एक रात की उजास : क्या उस रात बदल गई उन की जिंदगी

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

दूरी: समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

फरीदाबाद बसअड्डे पर बस खाली हो रही थी. जब वह बस में बैठी थी तो नहीं सोचा था कहां जाना है. बाहर अंधेरा घिर चुका था. जब तक उजाला था, कोई चिंता न थी. दोपहर से सड़कें नापती, बसों में इधरउधर घूमती रही. दिल्ली छोड़ना चाहती थी. जाना कहां है, सोचा न था. चार्ल्स डिकेन्स के डेविड कौपरफील्ड की मानिंद बस चल पड़ी थी. भूल गई थी कि वह तो सिर्फ एक कहानी थी, और उस में कुछ सचाई हो भी तो उस समय का समाज और परिस्थितियां एकदम अलग थीं.

वह सुबह स्कूल के लिए सामान्यरूप से निकली थी. पूरा दिन स्कूल में उपस्थित भी रही. अनमनी थी, उदास थी पर यों निकल जाने का कोई इरादा न था. छुट्टी के समय न जाने क्या सूझा. बस्ता पेड़ पर टांग कर गई तो थी कैंटीन से एक चिप्स का पैकेट लेने, लेकिन कैंटीन के पास वाले छोटे गेट को खुला देख कर बाहर निकल आई. खाली हाथ स्कूल के पीछे के पहाड़ी रास्ते पर आ गई. कहां जा रही है, कुछ पता न था. कुछ सोचा भी नहीं था. बारबार, बस, मां के बोल मस्तिष्क में घूम रहे थे. अंधेरा घिरने पर जी घबराने लगा था. अब कदम वापस मोड़ भी नहीं सकती थी. मां का रौद्र रूप बारबार सामने आ जाता था. उस गुस्से से बचने के लिए ही वह निकली थी. निकली भी क्या, बस यों लगा था जैसे कुछ देर के लिए सबकुछ से बहुत दूर हो जाना चाहती है, कोई बोल न पड़े कान में…

पर अब कहां जाए? उसे किसी सराय का पता न था. जो पैसे थे, उन से उस ने बस की टिकट ली थी. अंधेरे में बस से उतरने की हिम्मत न हुई. चुपचाप बैठी रही. कुछ ऐसे नीचे सरक गई कि आगे, पीछे से खड़े हो कर देखने पर किसी को दिखाई न दे. सोचा था ड्राइवर बस खड़ी कर के चला जाएगा और वह रातभर बस में सुरक्षित रह सकेगी.

बाहर हवा में खुनक थी. अंदर पेट में कुलबुलाहट थी. प्यास से होंठ सूख रहे थे. पर वह चुपचाप बैठी रही. नानीमामी बहुत याद आ रही थीं. घर से कोई भी कहीं जाता, पूड़ीसब्जी बांध कर पानी के साथ देती थीं. पर वह कहां किसी से कह कर आई थी. न घर से आई थी, न कहीं जाने को आई थी. बस, चली आई थी. किसी के बस में चढ़ने की आहट आई. उस ने अपनी आंखें कस कर भींच लीं. पदचाप बहुत करीब आ गई और फिर रुक गई. उस की सांस भी लगभग रुक गई. न आंखें खोलते बन रहा था, न बंद रखी जा रही थीं. जीवविज्ञान में जहां हृदय का स्थान बताया था वहां बहुत भारी लग रहा था. गले में कुछ आ कर फंस गया था. वह एक पल था जैसे एक सदी. अनंत सा लगा था.

‘‘कौन हो तुम? आंख खोलो,’’ कंडक्टर सामने खड़ा था, ‘‘मैं तो यों ही देखने चढ़ गया था कि किसी का सामान वगैरा तो नहीं छूट गया. तुम उतरी क्यों नहीं? जानती नहीं, यह बस आगे नहीं जाएगी.’’ उस के चेहरे का असमंजस, भय वह एक ही पल में पढ़ गया था, ‘‘कहां जाओगी?’’

उस समय, उस के मुंह से अटकते हुए निकला, ‘‘जी…जी, मैं सुबह दूसरी बस से चली जाऊंगी, मुझे रात में यहीं बैठे रहने दीजिए.’’

‘‘जाना कहां है?’’

…यह तो उसे भी नहीं पता था कि जाना कहां है.

कुछ जवाब न पा कर कंडक्टर फिर बोला, ‘‘घर कहां है?’’

यह वह बताना नहीं चाहती थी, डर था वह घर फोन करेगा और उस के आगे की तो कल्पना से ही वह घबरा गई. बस, इतना ही बोली, ‘‘मैं सुबह चली जाऊंगी.’’

‘‘तुम यहां बस में नहीं रह सकती, मुझे बस बंद कर के घर जाना है.’’

‘‘मुझे अंदर ही बंद कर दें, प्लीज.’’

‘‘अजीब लड़की हो, मैं रातभर यहां खड़ा नहीं रह सकता,’’ वह झल्ला उठा था, ‘‘मेरे साथ चलो.’’

कोई दूसरा रास्ता न था उस के पास. इसलिए न कोई प्रश्न, न डर, पीछेपीछे चल पड़ी.

बसअड्डे तक पहुंचे तो कंडक्टर ने इशारा कर एक रिकशा रुकवाया और बोला, ‘‘बैठो.’’ रिकशा तेज चलने से ठंडी हवा लगने लगी थी. कुछ हवा, कुछ अंधेरा, वह कांप गई.

उस की सिहरन को सहयात्री ने महसूस करते हुए भी अनदेखा किया और फिर एक प्रश्न उस की ओर उछाल दिया, ‘‘घर क्यों छोड़ कर आई हो?’’

‘‘मैं वहां रहना नहीं चाहती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कोई मुझे प्यार नहीं करता, मैं वहां अनचाही हूं, अवांछित हूं.’’

‘‘सुबह कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कहां रहोगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कोई तो होगा जो तुम्हें खोजेगा.’’

‘‘वे सब खोजेंगे.’’

‘‘फिर?’’

‘‘परेशान होंगे, और मैं यही चाहती हूं क्योंकि वे मुझे प्यार नहीं करते.’’

‘‘तुम सब से ज्यादा किसे प्यार करती हो?’’

‘‘अपनी नानी से, मैं 3 महीने की थी जब मेरी मां ने मुझे उन के पास छोड़ दिया.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘मथुरा में.’’

‘‘तो मथुरा ही चली जाओ?’’

‘‘मेरे पास टिकट के पैसे नहीं हैं.’’ अब वह लगभग रोंआसी हो उठी थी.

वह ‘हूंह’ कह कर चुप हो गया था.

हवा को चीरता मोड़ों पर घंटी टुनटुनाता रिकशा आगे बढ़ता रहा और जब एक संकरी गली में मुड़ा तो वह कसमसा गई थी. आंखें फाड़ कर देखना चाहा था घर. घुप्प अंधेरी रात में लंबी पतली गली के सिवा कुछ न दिखा था. कुछ फिल्मों के खौफनाक दृश्यों के नजारे उभर आए थे. देखी तो उस ने ‘उमराव जान’ भी थी. आवाज से उस की तंद्रा टूटी.

‘‘बस भइया, इधर ही रोकना,’’ उस ने कहा तो रिकशा रुक गया और उन के उतरते ही अपने पैसे ले कर रिकशेवाला अंधेरे को चीरता सा उसी में समा गया था. वह वहां से भाग जाना चाहती थी. कंडक्टर ने उस का हाथ पकड़ एक दरवाजे पर दस्तक दी थी. सांकल खटखटाने की आवाज सारी गली में गूंज गई थी.

भीतर से हलकी आवाज आई थी, ‘‘कौन?’’

‘‘दरवाजा खोलो, पूनम,’’ और दरवाजा खोलते ही अंदर का प्रकाश क्षीण हो सड़क पर फैल गया. उस पर नजर पड़ते ही दरवाजा खोलने वाली युवती अचकचा गई थी. एक ओर हट कर उन्हें अंदर तो आने दिया पर उस का सारा वजूद उसे बाहर धकेलरहा था. दरवाजा एक छोटे से कमरे में खुला था, ठीक सामने एक कार्निस पर 2 फूलदान सजे थे, बीच में कुछ मोहक तसवीरें. एक कोने में एक छोटा सा रैक था जिस पर कुछ डब्बे थे, कुछ कनस्तर, एक स्टोव और कुछ बरतन, सब करीने से लगे थे. एक ओर छोटा पलंग जिस पर साफ धुली चादर बिछी थी और 2 तकिए थे. चादर पर कोई सिलवट तक न थी.

कुल मिला कर कम आय में सुचारु रूप से चल रही सुघड़ गृहस्थी का आदर्श चित्र था. वह भी ऐसा ही चित्र बनाना चाहती थी. बस, अभी तक उस चित्र में वह अकेली थी. अकेली, हां यही तो वह कह रहा था. ‘‘पूनम, यह लड़की बसअड्डे पर अकेली थी. मैं साथ ले आया. सुबह बस पर बिठा दूंगा, अपनी नानी के घर मथुरा चली जाएगी.’ युवती की आंखों में शिकायत थी, गरदन की अकड़ नाराजगी दिखा रही थी. वह भी समझ रहा था और शायद स्थिति को सहज करने की गरज से बोला, ‘‘अरे, आज दोपहर से कुछ नहीं खाया, कुछ मिलेगा क्या?’’

युवती चुपचाप 2 थालियां परोस लाई और पलंग के आगे स्टूल पर रखते हुए बोली, ‘‘हाथमुंह धो कर खा लो, ज्यादा कुछ नहीं है. बस, तुम्हारे लिए ही रखा था.’’ दोपहर से तो उस ने भी कुछ नहीं खाया था किंतु इस अवांछिता से उस की भूख बिलकुल मर गई थी. घर का खाना याद हो आया, सब तो खापी कर सो गए होंगे, शायद. क्या कोई उस के लिए परेशान भी हो रहा होगा? जैसेतैसे एक रोटी निगल कर उस ने कमरे के कोने में बनी मोरी पर हाथ धो लिए और सिमट कर कमरे में पड़ी इकलौती प्लास्टिक की कुरसी पर बैठ गई.

पूनम नाम की उस युवती ने पलंग पर पड़ी चादर को झाड़ा और चादर के साथ शायद नाराजगी को भी. फिर जरा कोमल स्वर में बोली, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा, घर क्यों छोड़ आई?’’ ‘‘जी’’ कह कर वह अचकचा गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, कोई बात नहीं. सो जाओ, बहुत थकी होगी.’’ शायद वह उस की आंखों के भाव समझ गई थी. एक ही पलंग दुविधा उत्पन्न कर रहा था. तय हुआ महिलाएं पलंग पर सोएंगी और वह आदमी नीचे दरी बिछा कर. वे दोनों दिनभर के कामों से थके, लेटते ही सो गए थे. हलके खर्राटों की आवाजें कमरे में गूंजने लगीं. उस की आंख में तो नींद थी ही नहीं, प्रश्न ही प्रश्न थे. ऐसे प्रश्न जिन का वह उत्तर खोजती रही थी सदा.

वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी. अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी.

सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.

शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’

‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’

‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.

वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था. और कल तो हद ही हो गई थी.

स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.

स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे. मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’ ‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.

वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.

13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.

पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा. काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है.

वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.

वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे. उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.

ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी. गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’

…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.

जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’

‘‘आप के पैसे?’’

‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’

बस चल पड़ी थी, वह दूर तक हाथ हिलाती रही. मन में एक कसक लिए, क्या वह फिर कभी इन परोपकारियों से मिल पाएगी? नाम, पता, कुछ भी तो न मालूम था. और न ही उन दोनों ने उस का नामपता जोर दे कर पूछा था. शायद जोर देने पर वह बता भी देती. बस, राह के दोकदम के साथी उस की यात्रा को सुरक्षित कर ओझल हो रहे थे.

बस खड़खड़ाती मंथर गति से चलती रही. वह 2 सीट वाली तरफ बैठी थी और उस के साथ एक वृद्धा बैठी थी. वह वृद्धा बस में बैठते ही ऊंघने लगी थी, बीचबीच में उस की गरदन एक ओर लुढ़क जाती. वह अधखुली आंखों से बस का जायजा ले, फिर ऊंघने लगती. और वह यह राहत पा कर सुकून से बैठी थी कि सहयात्री उस से कोई प्रश्न नहीं कर रहा. स्कूल के कपड़ों में उस का वहां होना ही किसी की उत्सुकता का कारण हो सकता था.

वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी. किनारे के पेड़ों की कतारें, उन के परे फैले खेत और खेतों के परे के पेड़ों को लगातार देखने पर आभास होता था जैसे कि उस पार और इस पार के पेड़ों का एक बड़ा घेरा हो जो बारबार घूम कर आगे आ रहा हो. उसे सदा से यह घेरा बहुत आकर्षक लगता था. मानो वही पेड़ फिर घूम कर सड़क किनारे आ जाते हैं.

खेतों के इस पार और उस पार पेड़ों की कतारें चलती बस से यों लगतीं मानो धरती पर वृक्षों का एक घेरा हो जो गोल घूमता जा रहा हो. उसे यह घेरा देखते रहना बहुत अच्छा लगता था. वह जब भी बस में बैठती, बस, शहर निकल जाने का बेसब्री से इंतजार करती ताकि उन गोल घूमते पेड़ों में खो सके. पेड़ों और खयालों में उलझे, अपने ही झंझावातों से थके मस्तिष्क को बस की मंथर गति ने जाने कब नींद की गोद में सरका दिया.

आंख खुली तो बस मथुरा पहुंच चुकी थी. बिना किसी घबराहट के उस ने अपनेआप को समेट कर बस से नीचे उतारा. एक पुलकभर आई थी मन में कि नानीमामी उसे अचानक आया देख क्या कहेंगी, नाराज होंगी या गले से लगा लेंगी, वह सोच ही न पा रही थी. रिकशेवाले को देने के पैसे नहीं थे उस के पास, पर नाना का नाम ही काफी था.

इस शहर में कदम रखने भर से एक यकीन था शंकर विहार, पानी की टंकी के नजदीक, नानी के पास पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा. नानीनाना ने बहुत लाड़ से पाला थाउसे. बचपन में इस शहर की गलियों में खूब रोब से घूमा करती थी वह. नानाजी कद्दावर, जानापहचाना व बहुत इज्जतदार नाम थे. शहरभर में नाम था उन का. तभी आज बरसों बाद भी उन का नाम लेते ही रिकशेवाले ने बड़े अदब से उसे उस के गंतव्य पर पहुंचा दिया था.

रिकशेवाले से बाद में पैसे ले जाने को कह कर वह गली के मोड़ पर ही उतर गई थी और चुपचाप चलती हमेशा की भांति खुले दरवाजे से अंदर आंगन में दाखिल हो गई थी. शाम के 4 बज रहे थे शायद, मामी आंगन में बंधी रस्सी पर से सूखे कपड़े उतार रही थीं. उसे देखते ही कपड़े वहीं पर छोड़ कर उस की ओर बढ़ीं और उसे अपनी बांहों में कस कर भींच लिया और रोतेरोते हिचकियों के बीच बोलीं, ‘‘शुक्र है, तू सहीसलामत है.’’ वे क्यों रो रही हैं, उस की समझ में न आया था.

वह बरामदे की ओर बढ़ी तो मामी उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले जाते हुए बोलीं, ‘‘जरा ठहर, वहां कुछ लोग बैठे हैं.’’ नानी को इशारे से बुलाया. उन्होंने भी उसे देखते ही गले लगा लिया, ‘‘तू ठीक तो है? रात कहां रही? स्कूल के कपड़ों में यों क्यों चली आई?’’ न जाने वो कितने सवाल पूछ रही थीं.

उसे बस सुनाई दे रहा था, समझ नहीं आ रहा था. शायद एकएक कर के पूछतीं तो वह कुछ कह भी पाती. आखिरकार मामा ने सब को शांत किया और उस से कपड़े बदलने को कहा. वह नहाधो कर ताजा महसूस कर रही थी. लेकिन एक अजीब सी घबराहट ने उसे घेर लिया था. घर में कुछ बदलाबदला था. कुछ था जो उसे संशय के घेरे में रखे था.

आज वह यहां एक अजनबी सा महसूस कर रही थी, मानो यह उस का घर नहीं था. ऐसा माहौल होगा, उस ने सोचा नहीं था. सब के सब कुछ घबरा भी रहे थे. वह नानी के कमरे में चली गई. पीछेपीछे मामी चाय और नाश्ता ले कर आ गईं. तीनों ने वहीं चाय पी. मामी और नानी शायद उस के कुछ कहने का इंतजार कर रहे थे और वह उन के कुछ पूछने का. कहा किसी ने कुछ भी नहीं.

मामी बरतन वापस रखने गईं तो वह नानी की गोद में सिर टिका कर लेट गई. सुकून और सुरक्षा के अनुभव से न जाने कब वह सो गई. आंख खुली तो बहुत सी आवाजें आ रही थीं. और उन के बीच से मां की आवाज, रुलाईभरी आवाज सुनाई दे रही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, लगता था उस की सारी शक्ति किसी ने खींच ली हो. काश, वह यहां न आ कर किसी कब्रिस्तान में चली गई होती.

मां और मामा उस के व्यवहार और चले आने के कारणों का विश्लेषण कर रहे थे. उसे उठा देख मां जोरजोर से रोने लगी थी और उसे उठा कर भींच लिया था. तेल के लैंप की रोशनी के रहस्यमय वातावरण में सब उसे समझाने लगे थे, वापस जाने की मनुहार करने लगे थे. वह चीख कर कहना चाहती थी कि वापस नहीं जाएगी लेकिन उस के गले से आवाज नहीं निकल रही थी.

कस कर आंखें मींचे वह मन ही मन से मना रही थी कि काश, यह सपना हो. काश, तेल का लैंप बुझ जाए और वे सब घुप अंधेरे में विलीन हो जाएं. उस की आंख खुले तो कोई न हो. लेकिन वह जड़ हो गई थी और सब उसे समझा रहे थे. हां, सब उसे ही समझा रहे थे. वह तो वैसे भी अपनी बात समझा ही नहीं पाती थी किसी को. सब ने उस से कहा, उसे समझाया कि मां उस से बहुत प्यार करती है.

सब कहते रहे तो उस ने मान ही लिया. उस के पास विकल्प भी तो न था. वह मातापिता के साथ लौट आई. अब मां शब्दों में ज्यादा कुछ न कहती. बस, एक बार ही कहा था, हम तो डर गए हैं तुम से, तुम ने हमारा नाम खराब किया, सब कोई जान गए हैं. वह घर में कैद हो गई. कम से कम स्कूल में कोई नहीं जानता. प्रिंसिपल जानती थी, उसे एक दिन अपने कमरे में बुलाया था.

अपने को दोस्त समझने को कहा था. वह न समझ सकी. दिन गुजरते रहे. बरस बीतते रहे. जिंदगी चलती रही. पढ़ाई पूरी हुई. नौकरी लगी. विवाह हुआ. पदोन्नति हुई. और आज जब उस के दफ्तर में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि वह अपनी एक वर्ष की बिटिया को नानी के घर में छोड़ना चाहती है तो ये बरसों पुरानी बातें उस के मस्तिष्क को यों झिंझोड़ गईं जैसे कल की ही बातें हों.

आज एक बड़े ओहदे पर हो कर, बेहद संजीदा और संतुलित व्यवहार की छवि रखने वाली, वह अपना नियंत्रण खोती हुई उस पर बरस पड़ी थी, ‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकती, सुवर्णा. यदि तुम्हारे पास बच्चे की देखभाल का समय नहीं था तो तुम्हें एक नन्हीं सी जान को इस दुनिया में लाने का अधिकार भी नहीं था. और जब तुम ने उसे जन्म दिया है तो तुम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.

‘‘नानी, मामी, दादी, बूआ सब प्यार कर सकती हैं, बेइंतहा प्यार कर सकती हैं पर वे मां नहीं हो सकतीं. आज तुम उसे छोड़ कर आओगी, वह शायद न समझ पाए. वह धीरेधीरे अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लेगी. खुश भी रहेगी और सुखी भी. तुम भी आराम से रह सकोगी. लेकिन तुम दोनों के बीच जो दूरी होगी उस का न आज तुम अंदाजा लगा सकती हो और न कभी उसे कम कर सकोगी. ‘‘जिंदगी बहुत जटिल है, सुवर्णा, वह तुम्हें और तुम्हारी बच्ची को अपने पेंचों में बेइंतहा उलझा देगी. उसे अपने से अलग न करो.’’ वह बिना रुके बोलती जा रही थी और सुवर्णा हतप्रभ उसे देखती रह गई.+

सच के पैर: क्या थी गुड्डी के भैयाभाभियों की असलियत

बूआजी आएंगी फलमिठाई लाएंगी, नई किताबें लाएंगी सब को खूब पढ़ाएंगी…’ छोटी गा रही थी.

‘बूआजी आते समय मेरे लिए नई ड्रैसेज जरूर ले आना,’ दूसरी की मांग होती. इस तरह की मांगें हर साल गरमी की छुट्टियां आते ही भाइयों के बच्चों की होती. जिन्हें गुड्डी मायके जाते ही पूरा करती. मगर एक बार जब वह मायके गई, तो बड़े भैयाभाभी की बातचीत सुन उस के पांव तले की जमीन ही जैसे खिसक गई.

‘‘बड़ी मुश्किल से दोनों का तलाक कराया,’’ भाभी कह रही थीं.

‘‘और क्या, अगर तलाक नहीं होता तो क्या गुड्डी हमें इतना देती? देखना, बड़ी की शादी में कम से कम 10 लाख उस से लूंगा,’’ भैया कह रहे थे.

‘‘बदले में क्या देते हैं हम लोग? हर साल एक मामूली साड़ी पकड़ा देते हैं. वह इतने में भी अपना सर्वस्व लुटा रही है,’’ हंसते हुए उस की भाभी ने कहा तो वह जैसे धड़ाम से जमीन पर आ गिरी. सच में उस का शोषण तीनों भाइयों ने किया है. उसे याद आ गई 20 वर्ष पूर्व की घटना. उस के विवाह के लिए लड़का देखा जा रहा था. पिताजी तीनों बेरोजगार बेटों की लड़ाई व बहुओं की खींचतानी झेल न पाए और गुजर गए. फिर तो उस की शादी के लिए रखे क्व5 लाख वे सब खूबसूरती से डकार गए.

उस का विवाह उस से लगभग दोगनी उम्र के व्यक्ति रमेश से कर दिया गया और दहेज तो दूर सामान्य बरतनभांडे तक उसे नहीं दिए गए. यह देख मां से न रहा गया. वे बोल पड़ीं, ‘‘अरे थोड़े जेवर और जरूरी सामान तो दो, लोग क्या कहेंगे?’’ ‘‘आप चुप रहें मां. हमें अपनी औकात में शादी करनी है. सारा इसे दे देंगे, तो मेरी बेटियों की शादी कैसे होगी?’’ बड़ा भाई डांट कर बोला तो वे चुप रह गईं. फिर तो गुड्डी ससुराल गई और उस के बाद उस की पढ़ाई और नौकरी तक इन सबों ने कभी झांका तक नहीं. रमेश पत्नी को पढ़ाने के पक्षधर थे, इसलिए उन के सहयोग से उस ने बीए की परीक्षा पास की. उस के कुछ दिनों बाद बैंक की क्लैरिकल परीक्षा पास कर ली, तो बैंक में नौकरी लग गई. रमेश पढ़ीलिखी पत्नी चाहते थे परंतु कमाऊ पत्नी नहीं. अत: जैसे ही उस की नौकरी लगी उन्होंने समझाने की कोशिश की, ‘‘क्या तुम्हारा नौकरी करना इतना जरूरी है?’’

‘‘हां क्यों न करें. इतनी औरतें करती हैं. फिर बड़ी मुश्किल से लगी है,’’ उस ने सरलता से जवाब दिया.

‘‘फिर बच्चे होंगे, तो कौन पालेगा?’’

‘‘क्यों, दाई रख लेंगे. आजकल बहुत से लोग रखते हैं. मैं भविष्य की इस छोटी सी समस्या के लिए नौकरी नहीं छोड़ सकती.’’ इस दोटूक जवाब पर रमेश कुछ नहीं बोले. पर उन का जमीर इस बात को स्वीकार न कर सका कि लोग उन्हें जोरू का गुलाम या जोरू की कमाई खाने वाला कहें. इधर उस के मायके के लोग उस की नौकरी की खबर सुनते ही मधुमक्खी के समान आ चिपके. पतिपत्नी की लड़ाई में हमेशा मायके वाले फायदा उठाते हैं. यहां भी यही हुआ. मायके वालों के उकसाने पर वह तलाक का केस कर नौकरी पर चली गई. बाद में आपसी सहमति पर तलाक हो भी गया. इस के बाद इस दूध देती गाय का भरपूर शोषण सब ने किया. कभी बड़े भैया की लड़की का फार्म भरना है तो कभी किसी की बीमारी में इलाज का खर्च, तो कभी कुछ और. ऐसा कर के हर साल वे सब इस से अच्छीखासी रकम झटक लेते थे.

उस वक्त गुड्डी का वेतन 30 हजार था. उस में से सिर्फ 10 हजार किराए के मकान में रहने, खानेपीने वगैरह में जाते थे. बाकी भाइयों की भेंट चढ़ जाता था. मगर उस दिन की भैयाभाभी की बातचीत ने उस के मन को हिला कर रख दिया. उस के बाद वह 4 दिन की छुट्टियां ले कर किसी काम से मधुबनी गई थी, तो वहां संयोगवश उस के पति साइकिल पर फेरी लगाते दिख गए. ‘‘ये क्या गत बना रखी है?’’ औपचारिक पूछताछ के बाद उस ने पहला प्रश्न किया.

‘‘कुछ नहीं, बस जी रहे हैं, तुम कैसी हो?’’ उन्होंने डबडबाई आंखों को संभालते हुए प्रश्न किया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप की पत्नी और बच्चे?’’ उस का दूसरा प्रश्न था.

‘‘पत्नी ने मुझे छोड़ कर नौकरी का दामन थामा, तो बिन पत्नी बच्चे कहां से होते?’’ उन्होंने जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘गांव में कौनकौन है?’’ पिताजी का निधन तुम्हारे सामने हो गया था. तुम्हारे जाने के 1 साल बाद मां गुजर गईं और सभी भाइयों ने परिवार सहित दूसरे शहरों को ठिकाना बना लिया,’’ उन का सीधा उत्तर था.

‘‘और आप?’’

इस प्रश्न पर वे थोड़ा सकुचा गए. फिर बोले, ‘‘मैं यहीं मधुबनी में रहता हूं. सुबह से शाम ढले तक कारोबार में लगा रहता हूं. सिर्फ रात में कमरे में रहता हूं.’’ ‘‘मुझे अपने घर ले चलिए,’’ कह कर वह जबरदस्ती उन के साथ उन के घर में गई. वहां एक पुरानी चारपाई, एक गैस स्टोव व जरूरत भर का थोड़ा सा सामान था. उसे बैठा कर वे सब्जी व जरूरी समान की व्यवस्था करने गए तब तक उस ने सारे समान जमा दिए. उन के लौट कर आते ही सब्जीरोटी बना कर उन्हें खिलाई और खुद खाई. उस रात वह उन के बगल में लेटी तो उन के सिर पर उंगलियां फेरते उस ने पूछा, ‘‘आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्यों, क्या एक शादी काफी नहीं है? जब पहली पत्नी ने ही साथ नहीं दिया, तो दूसरी की बात मैं ने सोची ही नहीं.’’ इस जवाब से वह टूट गई. दोनों रात में एक हो गए. आंसुओं ने नफरत के बांध को तोड़ दिया.

अगले दिन चलते समय उस ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चल कर वहीं रहिए.’’ ऐसा न जाने किस जोश में आ कर वह बोल उठी थी. पर रमेश ने बात को संभाला, ‘‘यह ठीक नहीं होगा. हम दोनों तलाकशुदा हैं वैसी दशा में मेरा तुम्हारे साथ रहना…’’

‘‘ठीक है, मैं दरभंगा में रहती हूं. आप महीने में 1 बार वहां आ सकते हैं?’’ उस ने पूछा. ‘‘मिलने में कोई बुराई नहीं है,’’ रमेश ने फिर बात को संभाला. फिर बस स्टैंड तक जा कर बस में बैठा आए और हाथ में 200 रख दिए. प्यार की भूखी गुड्डी इस व्यवहार से गदगद हो गई. दूसरी ओर अपने सगे भैयाभाभी की कही बात उसे तोड़ रही थी. सच कड़वा होता है मगर यह इतना कड़वा था कि इसे झेल पाना मुश्किल हो रहा था. उस के यही सब सोचते जब उस के मोबाइल की घंटी बजी तो वह वर्तमान में लौटी.

‘‘क्यों इस बार छुट्टी में नहीं आ रही हो?’’ उस के बड़े भैया का स्वर था.

‘‘नहीं, इस बार आना नहीं हो सकता,’’ उस ने विनम्रता से जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘कुछ नहीं भैया, बस जरूरी काम निबटाने हैं.’’ इस जवाब पर फोन कट गया. इस के बाद वह कई महीने मायके तो नहीं गई पर हर माह मधुबनी हो आती थी. रमेश उसे प्यार से घर लाते, उस का पूरा ध्यान रखते और भरपूर सुख देते. उन के साथ रात गुजारने में उसे असीम सुख मिलता था. वह इस प्यार से गदगद रहती. उस के जाते वक्त हर बार रमेश 100-200 या साड़ी हाथ में अवश्य रखते. फिर प्रेम से बस में चढ़ा आते. सब से बड़ी बात यह कि उन्होंने आज तक यह नहीं पूछा था कि अब वह किस पद पर है वेतन कितना मिलता है?

‘‘क्यों आप को मेरे बारे में कुछ नहीं जानना?’’ एक बार उस ने पूछा था.

‘‘जानता तो हूं कि तुम बैंक में हो,’’ उन्होंने सहज भाव से जवाब दिया. उन की सब से बड़ी बात यह थी कि वे अपने ऊपर 1 पैसा भी नहीं खर्च करने देते थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह उन की ओर झुकती चली गई. एक दिन अचानक बहुत दिनों से मायके न जाने पर उस की मां, बड़े, मझले और छोटे भैयाभाभी सभी आए. मझले को मैडिकल में लड़के का ऐडमिशन कराने हेतु 1 लाख चाहिए थे, वहीं बड़े भैया बड़ी लड़की की शादी हेतु पूरे 5 लाख की मांग ले कर आए थे. इसी प्रकार छोटा भी दुकान हेतु पुन: 2 लाख की मांग ले कर आया था. उन सब की मांग सुन कर वह फट पड़ी, ‘‘क्यों आप लोग अपना इंतजाम खुद नहीं कर सकते, जो जबतब आ जाते हैं? मेरी भी शादी हुई थी, तब आप तीनों ने क्या दिया था?’’

इस पर सब सकपका गए मगर छोटा बेहयाई से बोला, ‘‘हमारे पास नहीं था, इसलिए नहीं दिया. तुम्हारे पास है तभी न ले रहे हैं.’’ ‘‘कुछ नहीं, पहले पिछला हिसाब करो. मुझ से जो लिया लौटाओ. मेरे पास सब लेनदेन लिखा है.’’ तभी उस के पति का फोन आ गया. ‘‘क्यों क्या हुआ, कैसे हैं आप?’’

‘‘बस 2 दिन से थोड़ा सा बुखार है. तुम्हारी याद आ रही थी, इसलिए फोन कर दिया.’’ पति का थका स्वर सुन कर वह तुरंत बोली. ‘‘रात की बस पकड़ कर मैं आ रही हूं आप चिंता न करें.’’ फिर वह फोन रख कर जल्दीजल्दी जाने का समान पैक करने लगी.

‘‘क्या हुआ अचानक कहां चल दीं?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘जा रही होगी गुलछर्रे उड़ाने,’’ मझला भाई बोला. ‘‘सुनो, अपनी औकात में रह कर बोला करो. ये मेरे पति का फोन था.’’ यह सुन कर सभी की आंखें फटी रह गईं.

‘‘तलाकशुदा पति से तेरा क्या मतलब?’’ उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मतलब तो शादी के बाद भाइयों का भी बहन की आमदनी या जायदाद से नहीं होता पर मेरे भाई तो बहन को दूध देती गाय समझ पैसा लूटते रहे. जब वापस देने की बारी आई तो बहाने करने लगे.’’ उस का यह रूप देख सब भौचक्के थे.

‘‘और हां मां, आप सब ने मिल कर मेरी शादी इसलिए तुड़वाई ताकि मेरे पैसे पर ऐश कर सकें.’’

‘‘बेटा, तुम गलत समझ रही हो,’’ मां ने फिर समझाना चाहा. ‘‘सच क्या है मां यह तुम भी जानती हो. पूरे 5 लाख जो पापा ने मेरी शादी के लिए रखे थे, इन तीनों ने डकार लिए थे. एक फटा कपड़ा तक नहीं दिया था. फिर 4 साल तक हाल नहीं पूछा. लेकिन जैसे ही नौकरी मिली चट से आ कर सट गए और तुम मां हो कर हां में हां मिलाती रहीं.’’ यह कड़वा सच उन सब के कानों में सीसे की तरह उतर रहा था. ‘‘आप लोग जाएं क्योंकि मुझे रात की बस से उन के पास जाना है. जब मेरा पूरा पैसा देने लायक हो जाएं तो आइएगा.’’ इतना कह कर वह तैयार हो कर घर से निकली, तो वे सब हाथ मलते ऐसे पछता रहे थे जैसे कारूं का खजाना हाथ से निकल गया हो और वह तेजी से बस स्टैंड की ओर बढ़ती जा रही थी.

पति वल्लभा: क्यों पति पर गुस्सा हुई कविता

मुझे न जाने क्या हो जाता है. मैं मन ही मन कविता की खूबसूरती से ईर्ष्या करती हूं. हालांकि मैं और कविता आपस में अच्छी दोस्त हैं, हमारे पतियों की भी आपस में बनती है और बच्चों की भी आपस में दोस्ती है. हम लोग जहां भी जाते हैं साथ जाते हैं. मेरा और कविता का परिचय विवाह पूर्व का है. हम दोनों शहर के एक ही महल्ले की हैं. हम दोनों ही युवतियां महल्ले के मनचले युवकों की धड़कनें हुआ करती थीं. लोगों को यह बता पाना मुश्किल था कि हम दोनों में से कौन अधिक सुंदर है.

संयोग देखिए हम लोगों का विवाह भी एक ही साथ एक ही शहर में यहां तक कि एक ही महल्ले में हुआ. तारीख भी एक ही. बस, महीने में फर्क था. मेरी शादी जनवरी में हुई तो कविता की फरवरी में.

शादी के बाद महल्ले वालों को भी यह बता पाना मुश्किल था कि कौन बहू ज्यादा सुंदर है. आज हम लोगों की शादी हुए 15 साल हो गए हैं. हम दोनों के ही 3-3 बच्चे हैं पर इस समय के अंतराल ने जहां मुझ में काफी परिवर्तन ला दिया है वहीं कविता के यौवन और सौंदर्य को मानों समय से कोई मतलब ही न हो. कैसे संभाल रखा है उन्होंने अपनी इस खूबसूरती को, कुछ समझ में नहींआता है. और उन के पति योगेश आज भी उन के उतने ही दीवाने हैं जितने 15 साल पहले थे. उन का अपना खुद का अच्छाखासा बिजनैस है पर औफिस जाने तक वे अपना पूरा समय कविता के साथ ही व्यतीत करते. औफिस से भी 2 बार फोन अवश्य करते. जब तक उन का फोन नहीं आता कविता लंच नहीं लेती और फिर औफिस से आने के बाद तो दोनों की जोड़ी हर समय साथ ही दिखाई देती.

यदि कहीं किसी जगह केवल महिला कार्यक्रम का आयोजन होता तो आयोजन समाप्त होने से पूर्व ही योगेश वहां उन्हें लेने के लिए मौजूद होते. इस बात का उन का काफी मजाक भी बनता, जिसे सुन कर कविता के गाल लाज से लाल हो उठते.

इधर मेरे पति का यह हाल था कि एक तो वे डाक्टर और वे भी दिल के. व्यस्तता का कोई अंत नहीं. रात में भी मरीज उन की जान नहीं छोड़ते. अकसर कोई न कोई इमरजैंसी केस आता रहता. इसलिए पार्टियों में भी अकसर मुझे अकेले ही जाना पड़ता. हालांकि योगेश और कविता मेरे साथ होते पर उस प्रेमी युगल की गुटरगूं मुझे मन से एकदम अकेला कर देती.

मुझे इस सब का कारण उन की बेइंतहा खूबसूरती ही लगती. पर उन की खूबसूरती का राज क्या है, यह जानने की उत्सुकता मुझे ही नहीं पूरे महल्ले की महिलाओं को रहती थी. तभी तो एक दिन महिला कार्यक्रम में एक महिला ने उन से यह पूछ ही लिया, ‘‘कविताजी आखिर आप की इस खूबसूरती का राज क्या है और आप इस के लिए क्या करती हैं, यह आज आप को बताना ही पड़ेगा.’’

कविता शरमाते हुए बोली, ‘‘कुछ भी नहीं, हां, कभीकभार अगर थोड़ी सी मोटी हो जाती हूं तो मुझे तो पता ही नहीं चलता पर ये तुरंत कहते हैं कि आजकल तुम्हारा वजन कुछ ज्यादा हो रहा है. तब मैं 2-4 दिन इन के साथ वाक पर जाती हूं और सब ठीक हो जाता है. मैं कभीकभी इन से पूछती भी हूं कि आप को कैसे पता चल जाता है तो ये कहते हैं कि जानेमन तुम्हारी छवि मेरी

आंखों और दिल में इस कदर बसी हुई है कि उस में जरा सा भी परिवर्तन मुझे तुरंत समझ में आ जाता है.’’

अब मेरी समझ में आ गया कि कविता की खूबसूरती का राज क्या है. वे पति वल्लभा हैं. मेरी मां कहा करती थीं कि जिस स्त्री का पति उसे अधिक प्यार करता है उस के चेहरे पर एक अजीब सा सौंदर्य रहता है और कविता शायद उसी सौंदर्य की स्वामिनी हैं. मैं ने घर जा कर अपने स्थूल होते शरीर को देखा और अपनी उपेक्षा का अनुभव किया.

रात को मैं ने अपने पति का ध्यान आकर्षित करने के लिए पूछा, ‘‘सुनिए, मैं मोटी हो गई हूं न?’’

उन्होंने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘नहीं तो.’’

मैं उन के इस उत्तर पर गुस्से से बिफर उठी, ‘‘क्या खाक नहीं… पता है इन 15 सालों में मेरा वजन लगभग 5 किलोग्राम बढ़ गया है पर आप को क्या? आप को मेरी कोई परवाह क्यों होने लगी. आप के घर का काम सुचारु रूप से जो चल रहा है. एक कविता हैं उन के पति को उन का इतना ध्यान रहता है कि 500 ग्राम वजन भी बढ़ता है तो वे बताते हैं और आप 5 किलोग्राम वजन बढ़ने पर भी कह रहे हैं नहीं तो.’’

मेरे पति बोले, ‘‘वजन बढ़ गया है, तो क्या हुआ. कोई बीमारी तो है नहीं. 15 वर्ष पूर्व तुम नववधू थीं अब गृहिणी और किशोर होते हुए बच्चों की मां हो. हर उम्र की एक गरिमा होती है. इस में परवाह न करने वाली बात कहां से आ गई. तुम तो मुझे हर समय हर अवस्था में अच्छी लगती हो.’’

मैं अपने पति की इस बात पर चुप तो हो गई पर मेरे मन में यह बात घर कर गई कि

कविता पति वल्लभा हैं और इस का उदाहरण मुझे समयसमय पर मिलता रहता. अगर मैं कभी बच्चों के स्कूल न जाने पर बच्चों की ऐप्लीकेशन देने सुबहसुबह उन के घर जाती तो वे मुझे एक खूबसूरत नाइटी पहने करीने से तैयार मिलतीं. जबकि सुबह की व्यस्तता के चलते मैं काफी अस्तव्यस्त रहती. जब मैं ने फिर उन से इस का कारण जानना चाहा तो उसी मोहक मुसकान से उत्तर मिला, ‘‘सुबह की चाय यही बनाते हैं. कहते हैं कि फ्रैश हो कर जल्दी तैयार हो कर आओ. तैयार हो कर इन के हाथ से चाय का कप लेती हूं. चाय पी कर बच्चों की तैयारी में लग जाती हूं.’’

सुबह चाय की उम्मीद करना तो इन से व्यर्थ था, पर एक दिन मैं थोड़ा जल्दी उठ कर पहले तैयार हुई और फिर चाय का कप ले कर इन के पास गई तो ये मुझे आंखें फाड़फाड़ कर देखने लगे, ‘‘सुबहसुबह तैयार क्यों हो गईं? कहीं जा रही हो या कोई आने वाला है?’’

मैं इन की इस टिप्पणी पर नाराज हो गई और बोली, ‘‘क्यों क्या तैयार हो कर कोई गुनाह किया है?’’ यह कहने के साथ ही मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे.

यह देख कर मेरे पति बोले, ‘‘भई, ऐसा भी मैं ने क्या कह दिया जो तुम रोने लगीं?’’

मैं अपने रोने का कारण जब तक इन्हें समझाती उस के पहले ही अस्पताल से इमरजैंसी काल आ गई और ये अस्पताल जाने के लिए जल्दी-जल्दी तैयार होने लगे. एक बार कविता बीमार पड़ीं तो मैं उन्हें देखने गई. आप विश्वास कीजिए ऐसा लग रहा था कि पिक्चर की शूटिंग होने वाली हो. बढि़या बिस्तर पर करीने से कपड़े पहने व होंठों पर हलकी सी लिपस्टिक लगाए वे लेटी थीं. चेहरे पर बुखार की तपिश जरूर लग रही थी, पर वह भी उन की सुंदरता को द्विगुणित कर रही थी.

मुझे से नहीं रहा गया तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘आप बीमारी में भी तैयार रहती हैं?’’

इस का उत्तर मुझे उन से उन के चिरपरिचित अंदाज में ही मिला, ‘‘ये कहते हैं तुम्हारा उतरा चेहरा मुझे अच्छा नहीं लगता है. इसीलिए मुझे तैयार रहना पड़ता है.’’

कविता के बाद मैं बीमार पड़ी तो मैं ने भी सोचा कि कविता की तरह सजसंवर कर रहूं पर वायरल की कमजोरी की वजह से मुझ से तो उठा भी नहीं गया. मैं इन से बोली, ‘‘चेहरा बहुत खराब लग रहा है.’’

ये बोले, ‘‘नहीं तो.’’

मैं झुंझलाई, ‘‘नहीं तो क्या? मैं शीशे में अपना चेहरा भी नहीं देख पा रही हूं और आप बड़ी आसानी से कह रहे हैं नहीं तो.’’

ये बोले, ‘‘तो क्या कहूं? अरे, बीमार हो तो बीमार लग रही हो. ठीक हो जाओगी तो फिर पहले की तरह हो जाओगी. इस में इतना परेशान होने की क्या बात है?’’

मैं सारी शौपिंग भी अकेले करती पर अकेले साड़ी खरीदना बहुत खल जाता. लगता कोई तो बताने वाला हो कि मुझ पर क्या अच्छा लग रहा है क्या बुरा. पर इन के पास समय कहां? एक दिन मैं ने कविता से अपनी परेशानी बताई तो वे बोलीं, ‘‘कल हम दोनों जा रहे हैं. आप भी हमारे साथ चलिएगा.’’

मैं उन लोगों के साथ चली तो गई पर मन ही मन कुढ़ती रही. कविता कोई साड़ी पसंद कर अपने ऊपर रख कर योगेश को दिखातीं तो वे उस के बारे में अपनी राय बताते हुए कहते, ‘‘नहीं जानू, यह तुम पर ज्यादा अच्छी नहीं लग रही है… हां यह बहुत अच्छी लग रही है आदि.’’

योगेश को ब्राइट कलर बहुत अच्छे लगते थे. उन्होंने अपनी पत्नी को 10-12 साडि़यां ब्राइट कलर की दिलवाईं. मैं इतने ब्राइट कलर नहीं पहनती पर उन दोनों ने जिद कर के मुझे भी 2-3 साडि़यां ब्राइट कलर की दिलवा दीं.

मैं ने कहा भी, ‘‘मैं ब्राइट कलर नहीं पहनती हूं.’’ mपर वे लोग बोले, ‘‘क्यों नहीं पहनतीं. अभी आप की उम्र ही क्या है? और फिर ब्राइट कलर पहनने से इंसान की उम्र भी कम दिखती है.’’

मैं उन के कहने पर उन साडि़यों को घर ले आई पर जब उन्हें अपने पति को दिखाया तो वे बोले, ‘‘किसी को देने के लिए लाई हो क्या?’’

मैं ने कहा, ‘‘मतलब?’’

वे बोले, ‘‘तुम इतने ब्राइट कलर नहीं पहनती हो, इसलिए.’’

‘‘पहले नहीं पहनती थी तो क्या अब नहीं पहन सकती? कविता पहनती हैं कि नहीं. हम दोनों हमउम्र ही तो हैं.’’

मेरी इस बात पर वे हंस पड़े, ‘‘ठीक है, यह बात है तो पहनो भाई मैं कहां मना कर रहा हूं.’’

लेकिन मैं उन साडि़यों को नहीं पहन पाई. जब भी पहनने का मूड बनाती तो लगता मेरे ऊपर अच्छी नहीं लगेंगी. हमउम्र होने से क्या हुआ. कविता की बात और है. 3-4 महीने पहले वे सीढि़यों से गिर पड़ीं. हाई हील सैंडल पहने थीं. बैलेंस बिगड़ गया. कूल्हे और दाएं पैर में फै्रक्चर हो गया. बिस्तर से हिलनाडुलना मना हो गया. योगेश बड़े मनोयोग से पत्नी की सेवा करते. हम लोग भी जबतब उन का हालचाल लेने जाते रहते.

कुछ समय बाद उन की हड्डी तो जुड़ गई पर शायद लेटे रहने अथवा अच्छी सेवा के कारण वे थोड़ी स्थूल हो गईं. मैं जब उन का हालचाल लेने जाती तो वे अपनी स्थूलता के कारण चिंतित दिखाई देतीं.

मैं उन्हें समझाती, ‘‘आप इतनी मोटी नहीं हो गई हैं. और फिर जब आप सामान्य जीवन जीने लगेंगी तो फिर से छरहरी काया की स्वामिनी हो जाएंगी.’’

मेरी बात पर वे फीकी हंसी हंस देतीं. समय बीतता गया. उन का जीवन सामान्य हो चला था पर स्थूलता में खास परिवर्तन नहीं आया था.

एक दिन दोपहर में मैं उन के घर गई. काफी गपशप होती रही. उन की सास भी आ कर बैठ गईं. नौकर चायनाश्ता ले आया. नाश्ते में गुलाबजामुन भी थे घर के बने हुए. कविता की प्रिय डिश जिसे बनाना और खाना दोनों ही उन्हें अत्यधिक प्रिय था.

नौकर जब उन को गुलाबजामुन देने लगा तो उन्होंने मना कर दिया. बोलीं, ‘‘थोड़ी चीनी और चिकनाई कम कर दी है. दिन पर दिन मोटी जो होती जा रही हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ऐसा भी क्या? यह तो आप की प्रिय डिश है लीजिए न.’’

मेरे और उन की सास के आग्रह करने पर उन्होंने गुलाबजामुन ले लिए. अभी उन्होंने खाना शुरू ही किया था कि योगेश बाहर से आ गए. कविता को गुलाबजामुन खाते देख कर तमतमा गए, ‘‘तुम गुलाबजामुन खा रही हो, कितनी बार कहा कि जबान पर कंट्रोल रखा करो. और मां तुम से भी मैं ने कह रखा है कि देखा करो कहीं ये मीठी और चिकनी चीजें तो नहीं खा रहीं.’’

मैं थोड़ा किनारे बैठी थी, इसलिए उन की नजर अभी तक मुझ पर नहीं पड़ी थी. अचानक जब उन की नजर मुझ पर पड़ी तो वे संभल गए. अपने स्वर को मृदु बना कर

बोले, ‘‘जानू, तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा हूं डाक्टर ने मना किया है न.’’ और फिर वे भीतर चले गए.

मैं पूरी घटना से एकदम अचकचा गई थी. योगेशजी का इतना गुस्सा मेरे लिए अप्रत्याशित था. मैं ने कविता से पूछा, ‘‘क्या हुआ है आप को? डायबिटीज वगैरह हो गई है क्या?’’

कविता जो अपने पति के व्यवहार पर एकदम क्रोधित थीं. बोलीं, ‘‘डायबिटीज नहीं, मोटापा हुआ है मोटापा. अब क्या करूं अगर मोटी हो गई हूं? डाक्टर कहते हैं 35 साल के बाद औरतें थोड़ी मोटी हो जाती हैं और फिर दवा का भी थोड़ा साइड इफैक्ट है. हां, थोड़ाबहुत मीठे और चिकनाई का त्याग करने से नियंत्रण हो सकता है, इसी कारण मुझे मीठी और चिकनी चीजें छूने के लिए भी नहीं मिलती हैं. केवल उबला खाना, भला यह भी कोई जिंदगी है.’’ और कविता की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

मैं उस पति वल्लभा का चेहरा मायूस होते देखती रही.

उत्तरदायित्व: बहू दिव्या के कारण क्यों कठघरे में खड़ी हुई सविता

‘‘भई, मैं ने तो अपनी शादी से पहले ही सोच लिया था कि अगर अपनी मां की टोकाटाकी ‘यह मत करो, यह मत पहनो, ऐसे चलो, वैसे मत बोलो’ वगैरहवगैरह सहन कर सकती हूं तो सास की छींटाकशी भी चुपचाप सहन कर लूंगी और मैं ने जो सोचा था वह किया भी,’’ सविता ने बड़े दर्प से कहा, ‘‘अब सास बनने से पहले भी मैं ने फैसला कर लिया है कि जब मैं अपनी अनपढ़ नौकरानियों के नखरे झेलती हूं, उन की बेअदबी की अनदेखी करती हूं तो अपनी पढ़ीलिखी बहू की छोटीमोटी गलतियों को भी अनदेखा किया करूंगी.’’ फिर थोड़ा रुक कर आगे कहा, ‘‘कोई भी 2 व्यक्ति कभी भी एकजैसा नहीं सोचते, कहीं न कहीं सामंजस्य बैठाते हैं, तो फिर भला सासबहू के रिश्ते में समझौते की गुंजाइश क्यों नहीं है?’’

‘‘सौरभ की शादी कर लो, इस सवाल का जवाब तुम्हें खुदबखुद मिल जाएगा,’’ उस की अभिन्न सहेली नीलिमा व्यंग्य से बोली.

‘‘हां सविता, सौरभ की शादी के बाद देखेंगे क्या कहती हो,’’ किट्टी पार्टी में आई अन्य महिलाएं चहकीं.

‘‘वही कहूंगी जो आज कह रही हूं,’’ सविता के स्वर में आत्मविश्वास था.

सौरभ और दिव्या की शादी धूमधाम से हो गई. शादी के 2 वर्षों बाद भी किसी को सविता या दिव्या से एकदूसरे की शिकायत सुनने को नहीं मिली. दोनों के संबंध वाकई में सब के लिए मिसाल बन गए.

‘‘चालाक औरतों के हाथी की तरह खाने के दांत और, दिखाने के और होते हैं,’’ नीलिमा ने एक दिन मुंह बिचका कर ऊषा से कहा, ‘‘बाहर तो बहू से बेटी या सहेली वाला व्यवहार और घर में जूतमपैजार. यही सबकुछ सविता भी करती होगी अपनी बहू के साथ.’’

‘‘मुझे भी यही शक था नीलिमा. सो एक रोज जब मेरी जमादारनी नहीं आई तो मैं ने सविता की जमादारनी को बुला लिया और फिर उसे फुसला कर कुरेदकुरेद कर सविता और दिव्या के ताल्लुकात के बारे में पूछा,’’ ऊषा ने बताया.

‘‘अच्छा, फिर क्या पता चला?’’ सभी महिलाओं ने एकसाथ पूछा.

‘‘वही सबकुछ जो हमें पहले से मालूम था, बल्कि उसे और भी पुख्ता कर दिया,’’ ऊषा ने उसांस ले कर कहा, ‘‘यह नहीं है कि सविता दिव्या को डांटती नहीं है या दिव्या पलट कर जवाब नहीं देती, दोनों में मतभेद और मानमनौअल भी होते हैं, मगर पल भर के लिए. दोनों उस का ‘इशू (मसला) नहीं बनातीं और तूल नहीं देतीं.’’

इसी तरह कई वर्र्ष बीत गए. दिव्या के 2 बच्चे भी हो गए, लेकिन सासबहू के संबंध वैसे ही मधुर बने रहे. अचानक दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन होने की खबर सुन कर सब चौंक पड़े.

सब से ज्यादा हैरान, परेशान सविता थी. दिव्या को क्या टैंशन हो सकती है भला? पैसे की कोई कमी नहीं है. बच्चों की परवरिश भी अपने ढंग से ठीक कर रही है. बच्चे भी सुशील और होनहार हैं. बच्चों की पूरी जिम्मेदारी सविता और उस के पति गौरव पर डाल कर दिव्या और सौरभ स्वच्छंद हो कर घूमतेफिरते हैं. सौरभ भी जान छिड़कता है दिव्या पर. सविता चौंक पड़ी.

‘‘पति का पत्नी पर अधिक आसक्त होना, जरूरत से ज्यादा कामेच्छा भी तो पत्नी के तनाव का कारण हो सकती है?’’

सब शर्मलिहाज छोड़ कर सविता ने सौरभ से जवाबतलब किया.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, मां. हमारे यौन संबंध बिलकुल सामान्य हैं. मैं ने दिव्या के साथ कभी भी कोई जोरजबरदस्ती नहीं की, जिसे ले कर वह तनावग्रस्त हो,’’ सौरभ ने आश्वासन दिया.

‘‘तो फिर इस तनाव की वजह क्या है?’’ सविता ने जिरह की, ‘‘जिस की वजह से दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन हुआ है?’’

‘‘अप्रत्यक्ष या वर्तमान में तो कुछ भी नहीं है,’’ सौरभ हंसा, ‘‘लेकिन अगर किसी अप्रत्यक्ष डर या भविष्य को ले कर कोई तनाव पाल ले तो इसे तो उसी के दिमाग का दोष कहा जाएगा.’’

‘‘एकदम गलत,’’ सविता भड़क उठी, ‘‘दिव्या तुम से कहीं ज्यादा संतुलित है.’’

‘‘तो फिर आप खुद ही उस से उस के तनाव की वजह पूछ लो, मां. और अगर आप के पास उस का हल हो तो सुझा भी दो.’’

‘‘कोई समस्या ऐसी नहीं होती जिस का कोईर् हल न हो.’’

‘‘दिव्या की समस्या कुछ ऐसी ही है.’’

‘‘मानो तुझे समस्या मालूम है?’’

‘‘हां, समस्या की जड़ ही मैं हूं,’’ सौरभ ने हंसते हुए बात काटी, ‘‘मगर मैं अपने को उखाड़ कर फेंकने वाला नहीं हूं. फिर भी आप दिव्या से तो बात कर ही लो और बेहतर रहे कि आज ही. क्योंकि अभी तो इलाज चल ही रहा है, तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो डाक्टर तो आता ही है, वह संभाल लेगा.’’

सविता को बेटे की बातें अटपटी लगीं, लेकिन समस्या गंभीर थी. सो, उस ने दिव्या से पूछने का फैसला किया.

‘‘आजकल जो माहौल है, मां, उस में जब तक बच्चे स्कूल से न आ जाएं, घर के मर्द काम पर से न लौट आएं, तब तक सभी को घबराहट रहती है,’’ दिव्या ने कह कर टालना चाहा.

‘‘मगर सभी का तो इन और इन के अलावा रोजमर्रा की कई और चिंताओं को ले कर नर्वस ब्रेकडाउन नहीं होता,’’ सविता तुनक कर बोली, ‘‘देख दिव्या, अगर तू नहीं चाहती कि तेरे बारे में सोचसोच कर मैं भी तेरी तरह बीमार पड़ जाऊं और घर व बच्चे परेशान हो जाएं, तो तुझे मुझे अपनी टैंशन की वजह बतानी ही पड़ेगी.’’

पहले तो कुछ देर दिव्या चुप रही, फिर कुछ हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘आप जिद कर रही हैं, मांजी, इसलिए बताना पड़ रहा है. मेरी टैंशन की वजह आप हैं, मां.’’

सविता के सिर पर किसी ने जैसे बम विस्फोट कर दिया. ‘‘मेरी वजह से भी किसी को टैंशन हो सकती है, कभी सोचा नहीं था. खैर, मेरी वजह से कोई परेशान हो, यह तो मुझे कतई गवारा नहीं है. मैं अभी इन्हें फोन कर के नीतिबाग वाली कोठी खाली करवाने को कहती हूं. किराएदार के जाते ही हम दोनों वहां रहने चले जाएंगे,’’ सविता ने उठते हुए कहा.

‘‘रुकिए मां, मैं ने आप से कहीं जाने के लिए नहीं कहा है और न ही मैं आप को कभी कहीं जाने दूंगी. बात मेरी टैंशन की हो रही है और वह आप के कहीं भी रहने या न रहने से कम नहीं होगी,’’ दिव्या ने असहाय भाव से कहा.

‘‘क्यों नहीं होगी, जब उस की वजह ही हटा दी जाएगी तो.’’

‘‘उस की वजह नहीं हटाई जा सकती, मां,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे उस के साथ ही जीना है.’’

‘‘बेहतर रहे दिव्या, तू यह सब छोड़ कर अपनी परेशानी की वजह मुझे साफसाफ बता दे,’’ सविता ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘परेशानी की वजह है, पापा के रतिका शर्मा के साथ विवाहेतर संबंध. पर आप का चुप रहना या  यह कहिए, रतिका को स्वीकार कर लेना.’’

सविता को जैसे किसी ने करंट छुआ दिया.

‘‘यह भी खूब रही, जब इन के और रतिका के रिश्ते को ले कर कभी मुझे भरी जवानी में कोई तनाव नहीं हुआ तो तुझे क्यों हो रहा है?’’ सविता ने हाथ नचा कर पूछा.

‘‘महज इसीलिए मां कि आप कभी इस रिश्ते को ले कर परेशान ही नहीं हुईं. आप ने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं. आप ने अपने पति को चुपचाप एक अन्य स्त्री के साथ बांट लिया. माना कि आप झगड़ा कर के खानदान की इज्जत नहीं उछालना चाहती थीं या सौरभ को टूटे परिवार का बच्चा कहलवाना नहीं चाहती थीं और आप की इस समझदारी और त्याग ने आप को ससुराल में महान बना दिया, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’ सविता ने आवेग में पूछा, ‘‘उस सब से तुझे क्या फर्क पड़ा? तू क्यों गड़े मुरदे उखाड़ रही है?’’

‘‘मुझे ही तो फर्क पड़ा है, मां. जिन्हें आप गड़े मुरदे समझ रही हैं उन के साए मेरी जिंदगी पर छाए हुए हैं और हमेशा छाए रहेंगे,’’ दिव्या ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘शादी से पहले ही सौरभ ने मुझे पापा और रतिका के संबंध के बारे में बता दिया था. आप की सहनशीलता और त्याग को सराहते हुए कहा था कि उस के जीवन में आदर्श महिला सिर्फ उस की मां हैं और उन्हीं के सभी गुण वह अपनी बीवी में भी देखना चाहेगा. उस समय तो प्यार के ज्वार में मैं ने भी हामी भर ली थी कि मैं भी आप ही के पदचिह्नों पर चलूंगी, मगर अब लग रहा है कि यह तो असंभव है.’’

‘‘क्या असंभव है?’’

‘‘आप जैसा बनना या आप के पदचिह्नों पर चलना.’’

‘‘अरी, छोड़ बेटी, तू मुझ से कहीं अच्छी गृहिणी, पत्नी और मां है,’’ सविता सराहना के स्वर में बोली.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ता, मां. सवाल है मेरे सहनशील होने का, जो मैं कभी हो ही नहीं सकती. और न आप की तरह अपने पति को किसी दूसरी औरत के साथ बांट सकती हूं.’’

सविता बुरी तरह चौंक पड़ी.

‘‘नहीं, सौरभ का किसी दूसरी औरत के साथ कोई चक्कर नहीं हो सकता. दूसरी औरत के साथ फंसे लोग खुलेआम शाम घर आ कर बच्चों के साथ नहीं खेला करते,’’ सविता कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘और सौरभ बिला नागा बच्चों के सोने से पहले घर आ जाता है. खैर, यह बता, यह दूसरी औरत वाली बात तेरे दिमाग में आई कहां से?’’

‘‘पिछले हफ्ते छोटी चाची के पोते के मुंडन पर यह सब चचेरेफुफेरे भाईबहनोई बैठे अपनी सफलता और कमाई की बातें कर रहे थे. सुनील भैया ने कहा कि वे और सौरभ तो अब इतना कमा रहे हैं कि चाहें तो एक गृहस्थी और भी बसा लें. इस पर सौरभ बोला, ‘और हमारे पास तो एक्स्ट्रा (फालतू) बीवी रखने का लाइसैंस भी है. बीवियों के एतराज करने की परंपरा तो हमारे खानदान में है ही नहीं.’ मानती हूं मां, ये सब मजाक में कही गई बातें थीं.

‘‘लेकिन मजाक को हकीकत में बदलते क्या देर लगती है? सौरभ सफल, आकर्षक और दिलचस्प व्यक्ति है, उस पर तो हर आयु में औरतें कुरबान होती रहेंगी. कितने मोहपाश में बांधूंगी मैं उसे? देशविदेश में घूमता है, कभी भी कहीं भी फिसल सकता है. परिवार के धिक्कार या ‘लोग क्या कहेंगे’ का डर तो उसे है नहीं.

‘‘आप क्यों चुप रहीं, मां? क्यों नहीं खदेड़ा रतिका को अपनी जिंदगी से बाहर? क्यों नहीं अपना संपूर्ण हक जताया पति पर? क्यों बनीं त्याग की मूर्ति और क्यों की एक गलत परंपरा आदर्श के नाम पर स्थापित इस परिवार में? यह सवाल सिर्फ मेरा ही नहीं रिश्ते की मेरी सभी देवरानीजेठानियों का भी है, मां,’’ दिव्या फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘क्यों दिया आप ने हम सब को जीवनभर का यह दर्द? क्या हमारी पीढ़ी के प्रति आप का कोई उत्तरदायित्व नहीं था, मां?’’

सविता हतप्रभ सी देखती रही. उस के पास न तो दिव्या के सवालों के जवाब थे और न ही उस के तनाव का कोई इलाज.

क्यों दूर चले गए

सामाजिक मान्यताएं, संस्कार और परंपराएं व्यक्ति को अपने मकड़जाल में उलझाए रखती हैं. ऐसे में या तो वह विद्रोह कर के सब का कोपभाजन बने या फिर परिस्थितियों से समझौता कर के खुद को नियति के हाल पर छोड़ दे. किंतु यह जरूरी नहीं कि वह सुखी रह सके.

मैं भी जीवन के एक ऐसे दोराहे पर उस मकड़जाल में फंस गया कि जिस से निकलना शायद मेरे लिए संभव नहीं था. कोई मेरी मजबूरी नहीं समझना चाहता था. बस, अपनाअपना स्वार्थ भरा आदेश और निर्णय वे थोपते रहे और मैं अपने ही दिल के हाथों मजबूरी का पर्याय बन चुका था.

मैं जानता हूं कि पिछले कई दिनों से खुशी मेरे फोन का इंतजार कर रही थी. उस ने कई बार मेरा फैसला सुनने के लिए फोन भी किया था मगर मेरे पास वह साहस नहीं था कि उस का फोन उठा सकूं. वैसे हमारे बीच कोई अनबन नहीं थी और न ही कोई मतभेद था फिर भी मैं उस का फोन सुनने का साहस नहीं जुटा सका.

मैं ने कई बार यह कोशिश की कि खुशी को फोन पर सबकुछ साफसाफ बता दूं पर मेरा फोन पर हाथ जातेजाते रुक जाता और दिल तेजी से धड़कने लगता. मैं घबरा कर फोन रख देता.

खुशी मेरी प्रेमिका थी, मेरी जान थी, मेरी मंजिल थी. थोडे़ में कहूं तो वह मेरी सबकुछ थी. पिछले 4 सालों में हमारे बीच संबंध इतने गहरे बनते चले गए कि हम ने एकदूसरे की जिंदगी में आने का फैसला कर लिया था और आज जो समाचार मैं उसे देने जा रहा था वह किसी भी तरह से मनोनुकूल नहीं था. न मेरे लिए, न उस के लिए. फिर भी उसे बताना तो था ही.

मैं आफिस में बैठा घड़ी की तरफ देख रहा था. जैसे ही 2 बजेंगे वह फिर फोन करेगी क्योंकि इसी समय हम दोनों बातें किया करते थे. मैं भी अपने काम से फ्री हो जाता और वह भी. बाकी आफिस के लोग लंच में व्यस्त हो जाते.

मैं ने हिम्मत जुटा कर फोन किया, ‘‘खुशी.’’

‘‘अरे, कहां हो तुम? इतने दिन हो गए, न कोई फोन न कोई एसएमएस. मैं ने तुम्हें कितने फोेन किए, क्या बात है सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ठीक ही है. बस, तुम से मिलना चाहता हूं,’’ मैं ने बडे़ अनमने मन से कहा.

‘‘क्या बात है, तुम ऐसे क्यों बोल रहे हो? न डार्लिंग कहा, न जानू बोले. बस, सीधेसीधे औपचारिकता निभाने लग गए. घर पर कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘हां, हुई तो थी पर फोन पर नहीं बता सकता. तुम मिलो तो सारी बात बताऊंगा.’’

‘‘देखो, कुछ ऐसीवैसी बात मत बताना. मैं सह नहीं पाऊंगी,’’ वह एकदम घबरा कर बोली, ‘‘डार्लिंग, आई लव यू. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘आई लव यू टू, पर खुशी, लगता है हम इस जन्म में नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘यही खुशखबरी देने के लिए तुम मुझ से मिलना चाहते थे,’’ खुशी एकदम असंयत हो उठी, ‘‘तुम ने जरा भी नहीं सोचा कि मुझ पर क्या बीतेगी. क्या सोचेंगे वे लोग जो हमें हमेशा एकसाथ देखते थे. यही है तुम्हारा प्यार. तुम्हारे कहने पर ही मैं ने मम्मीपापा को अपने रिश्ते के बारे में बताया था. आज क्या कहूंगी कि सब झूठ है,’’ इतना कहतेकहते खुशी रो पड़ी और फोन काट दिया.

इस के बाद मैं ने कितनी ही बार उसे फोन किया पर हर बार वह काट देती और अंत में उस ने फोन ही बंद कर दिया.

मैं एकदम परेशान हो गया. कहता भी तो किस से.

खुशी का मुझ से गुस्सा होना स्वाभाविक था. मैं ने ही उस से झूठेसच्चे वादे किए थे. मैं ने उस को एक सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया था. अपना सुखदुख उस से बांटा था. उस ने हर समय मुझे एक रास्ता दिखाया था. मेरे बीमार होने पर वह बुरी तरह परेशान हो जाती थी और बिना कहे कई दवाइयां सीधे मेरे आफिस भिजवा देती और मेरे चपरासी को फोन कर के ढेर सारी हिदायतें भी देती. वह जानती थी कि मैं अपने प्रति बेहद लापरवाह हूं. आज मैं ने उस के सारे सपने पल भर में ही तोड़ दिए.

शाम को उदास मन और भरे दिल से मैं घर पहुंचा. मुझे देखते ही भाभी ने पूछा, ‘‘क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कहते हुए मैं रोंआसा सा हो गया. मुझे लगा कि वहां कुछ देर और खड़ा रहा तो आंसू न आ जाएं, इसलिए खुद को संभालता हुआ चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बिस्तर पर गिरते ही मेरा सारा अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. रोतेरोते आंसू तो सूख गए पर भीतर का मन शांत न हो सका. थोड़ी देर में भाभी ने खाने के लिए पूछा. मैं ने कह दिया कि खा कर आ रहा हूं, भूख नहीं है पर खाया कब था, मैं अपने विचारों से जितना बचना चाहता था वे मुझे उतना ही सताने लगे.

खुशी से मेरी मुलाकात 4 साल पहले आफिस के बाहर वाले बस स्टैंड पर हुई थी. उजला वर्ण, तीखी नाक, लंबा कद और सधी हुई देहयष्टि. ऊपर से कपडे़ पहनने का ढंग इतना निराला था कि मैं उसे देखे बिना नहीं रह सका और पहली ही नजर में वह आंखों के रास्ते दिल में उतर गई. हमारी चार्टर्ड बस और आफिस के छूटने का लगभग एक ही समय था. मैं 5 मिनट पहले ही बस स्टैंड पर पहुंच जाता. पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता था कि उस की आंखें निरंतर मुझे ही तलाशती रहती हैं. धीरेधीरे वह भी आतेजाते मुझे देख कर हंस देती. इस तरह हम एकदूसरे के करीब आ गए. उस के पिता नेवी में उच्च पद पर थे तथा मेरे पिता मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर थे.

बीतते दिनों के साथ खुशी से मेरा प्रेम भी परवान चढ़ता गया. हमारी मुलाकातों की संख्या और समय दोनों बढ़ते रहे. इस दौरान मुझे सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली एक बड़़ी कंपनी में बहुत अच्छा औफर मिला और मैं ने उसे स्वीकार कर लिया. अब दोनों के दफ्तरों में कई किलोमीटर का फासला हो गया था. इस के बावजूद भी हम कोई न कोई बहाना ढूंढ़ कर मिलते रहे. हम दोनों कभी फिल्में देखते तो कभी बिना मकसद बांहों में बांहें डाल कर इधरउधर घूमते.

एक दिन खुशी ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख कर कहा, ‘अब बहुत हो चुकी है चुहलमस्ती. सीधीसीधी बात बताओ, कब मिला रहे हो मुझे अपनी मम्मी से.’

‘अरे, तुम तो दिल के रास्ते सीधा घर पर कब्जा करने की सोच रही हो,’ मैं ने मजाक के लहजे में कहा.

‘मेरे पापा अब रिटायर होने वाले हैं. वह चाहते हैं कि मेरी जल्दी से शादी हो जाए ताकि नौकरी में रहते हुए वह अपनी तमाम सुविधाओं का उपयोग कर सकें. रिटायरमेंट के बाद तो हम सिविलियन हो जाएंगे. फिर कहां ये सुविधाएं मिलेंगी.’

‘तो कोर्ट मैरिज कर लेंगे,’ मैं ने चुटकी लेते हुए कहा और उस के माथे पर घिर आई लटों को पीछे करने के बहाने उसे अपने अंक में भींच लिया. उस ने बिना कोई प्रतिवाद किए अपना सिर मेरे कंधों पर टिका दिया.

‘सच कहूं तो मुझे इन मजबूत कंधों की बहुत जरूरत है. प्लीज, मेरी बात को सीरियसली लेना, नहीं तो तुम्हारी खुशी तुम्हारे हाथ से निकल जाएगी,’ कहतेकहते वह रोंआसी हो गई.

मैं ने उस की भर आई आंखों के कोरों से बहने वाले आंसू के कतरे को अपनी उंगलियों से पोंछा, ‘तुम तो बेहद संजीदा हो गई हो.’

‘हां, बात ही कुछ ऐसी है. इन दिनों मेरे रिश्ते की बातें चल रही हैं. तुम एक बार अपने घर पर बात कर लेते तो मैं भी कम से कम उन्हें बता देती.’

‘कौन सी बात? मैं ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘क्या कहोगी मेरे बारे में?’

‘यही कि तुम बेवकूफ हो, बुद्धू हो, एकदम बेकार और गुस्से वाले हो, पर तुम मेरे हो,’ कह कर पुन: खुशी ने मेरी गोद में सिर रख दिया. देर तक हम यों ही भविष्य के सपने संजोते रहे. मैं ने उस का हाथ अपने हाथों में रखा और उसे जल्दी ही बात करने का आश्वासन दिया. हम दोनों ही वहां से विदा हो गए.

घर पर मैं अपनी बात को इस ढंग से पेश करना चाहता था कि इनकार की कोई गुंजाइश ही न रहे और इस के लिए उचित अवसर तलाशता रहा.

भैया की शादी को 2 वर्ष हो चुके थे और उन का 8 माह का एक बेटा भी था. हमारे घर का माहौल बेहद सौहार्दपूर्ण था पर घर के सभी लोग एकसाथ नहीं मिल पाते थे.

मैं सपनों में जीने लगा था. एक दिन मैं आफिस में बैठा कोई काम कर रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर पापा का फोन आया. पता चला कि भैया का एक्सीडेंट हो गया और उन्हें काफी गंभीर चोटें आई हैं. वह जीवन नर्सिंगहोम में हैं. इस से पहले कि मैं वहां पहुंचता, भैया की निर्जीव देह को लोग एंबुलेंस में डाल कर घर ले जा रहे थे.

घर पर मरघट का सा सन्नाटा पसरा था. सभी एकदम स्तब्ध रह गए थे. भाभी तो जैसे पत्थर ही बन गईं और मम्मीपापा का रोरो कर बुरा हाल था. 2-3 दिनों तक घर का माहौल बेहद गमगीन रहा.

समय अपनी गति से चलता रहा. घर का माहौल धीरेधीरे संभलने लगा. खुशी मेरी विवशता समझती थी और दिल का हाल भी. जितनी बार भी समय निकाल कर मैं ने उस से संपर्क किया, बेहद नरम आवाज में वह संवेदना व्यक्त करती और मेरे घर पर आने की जिद करती. वह चाहती थी कि मैं अपने और उस के बारे में घर पर सबकुछ बता दूं मगर मैं ऐसा कर नहीं पा रहा था.

मम्मी भाभी को ले कर बेहद चिंतित और दुखी थीं. एक तो उन का बड़ा बेटा गुजर गया था, दूसरा जवान बहू का गम. उन्हें इस बात की बेहद चिंता थी कि बहू बाकी की तमाम उम्र इस घर में कैसे बिताएगी.

एक दिन खुशी और मैं पार्क में बैठे थे. वह भरे स्वर

में कहने लगी, ‘देखो, अब तक मैं पापा को जैसेतैसे टालती रही हूं पर अब और उन्हें टाल नहीं पाऊंगी. आज भी उन्होंने मुझे कई लड़कों के फोटो दिखाए हैं. तुम ने यदि अब तक अपने घर पर बात की होती तो मैं कम से कम तुम्हारे बारे में कुछ तो कह सकती. उन का इस तरह रोजरोज बात करना तो रुक जाता. मम्मी अकेले में कई बार मुझ से मेरी पसंद की तरफ भी इशारा करती हैं.’

‘तो फिर इंतजार किस बात का है,’ मैं ने खुशी से कहा, ‘तुम मेरे बारे में सबकुछ बता दो और मेरी मजबूरी भी उन्हें बता दो कि जैसे ही मुझे मौका मिला, मैं उन से मिलने आऊंगा.’

‘सच,’ उस ने अविश्वास भरे स्वर में ऐसे पूछा जैसे उसे मुझ पर शक हो.

‘तुम ऐसे अविश्वास से मुझे क्यों देख रही हो. तुम तो जानती हो कि मैं घर पर बात करने जा ही रहा था कि ऐसा हादसा हो गया,’ मैं ने कहा.

‘ओह डार्लिंग, पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि तुम इस बात को संजीदगी से नहीं ले रहे हो.’

‘मैं भी तुम्हारे बिना रह सकता हूं क्या?’ कह कर मैं ने उस के गालों पर एक प्यारा सा चुंबन जड़ दिया तो शर्म से खुशी ने अपनी पलकें झुका लीं और कस कर मुझ से लिपट गई.

एक दिन शाम को मैं घर आया. भाभी के मम्मीपापा आए हुए थे. मैं ने उन के चरण स्पर्श किए और बाथरूम में फ्रेश होने चला गया. मेरे आने पर भाभी चाय बना कर ले आईं. घर का माहौल बेहद गमगीन और घुटा हुआ था. खामोशी तोड़ने के लिए मम्मी ने पहल की थी.

‘बहनजी, अब तो मेरे बेटे को गुजरे हुए 3 महीने हो चुके हैं. किंतु बहू की ऐसी हालत मुझ से देखी नहीं जाती. मैं जब भी इसे देखती हूं कलेजा मुंह को आता है. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता. आप ही कुछ बताइए न.’

‘मैं क्या कहूं, मैं ने तो अपनी बेटी आप को दी है. आप जैसा उचित समझें, करें,’ वह बेहद भावुक हो कर बोलीं.

‘आप इसे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाइए. वहां थोड़ा इस का मन तो बहल जाएगा,’ मम्मी ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘नहीं, मम्मीजी, मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मैं इस घर में बहू बन कर आई थी और यहीं से मेरी अंतिम विदाई भी होगी,’ भाभी धीरे से बोलीं.

‘तुम्हें यहां से कौन भेज रहा है बहू. मैं तो कह रही हूं कि कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओ. वैसे तुम इस बात को भी ध्यान से सोचना कि तुम्हारे सामने सारी उम्र पड़ी है. तुम पहाड़ जैसा जीवन किस के सहारे काटोगी.’

‘मुन्ना है न, उसी में मैं उन का रूप देखती हूं,’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं.

‘बेटी, मुझे अपने बेटे के खोने से ज्यादा गम तुम्हारा है, क्योंकि मुझे तुम से हमदर्दी भी है और आत्मीयता भी. हम भला कब तक तुम्हारा साथ देंगे. एकल परिवारों की अपनी जन्मजात मुश्किलें हैं. कल अंकित की शादी होगी. उस की अपनी गृहस्थी बनेगी. हमारे जाने के बाद कौन कैसा व्यवहार करेगा…’

‘बहनजी, वैसे तो यह आप का पारिवारिक मामला है पर यदि अंकित की कहीं और बात नहीं चली हो तो संगीता भी तो…घर की बात घर में ही बन जाएगी और आप भी चिंतामुक्त हो जाएंगी. आप सोच लीजिए…’

उन के यह शब्द सुन कर मैं एकदम सकते में आ गया. मुझे लगा यदि मैं ने कोई कदम फौरन नहीं उठाया तो शायद किसी परेशानी में न फंस जाऊं.

‘आंटी, यह आप क्या कह रही हैं? मैं अपनी ही भाभी से…’ मैं ने कहा.

‘बेटा, जब भाई ही नहीं रहा तो यह रिश्ता कैसा,’ मम्मी ने कहा. जैसे वह भी इस रिश्ते को स्वीकार कर के बैठी थीं.

‘लेकिन मम्मी…’ मैं ने चौंक कर कहा.

‘ठीक है, तो सोच कर बता देना,’ मम्मी बोलीं, ‘हम ने तो बिना झिझक एक बात कही है. बाकी तुम जैसा उचित समझो, बता देना.’

मेरे लिए अब वहां का माहौल बेहद बोझिल होता जा रहा था. मुझ से और देर तक वहां बैठा नहीं गया और मैं उठ कर चला गया.

मेरे लिए अब बेहद जरूरी हो गया था कि मैं घर पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं, पर भाभी की उपस्थिति में मैं कोई बात नहीं करना चाहता था. इधर मुझ पर लगातार खुशी का दबाव बढ़ता जा रहा था.

एक दिन भाभी किसी काम से बाजार गई हुई थीं. मम्मीपापा बाहर बरामदे में बैठे थे. उचित अवसर देख कर मैं ने बिना कोई भूमिका बांधे कहा, ‘मम्मी, मैं एक लड़की को पसंद करता हूं. पिछले कई सालों से मेरा उस के साथ परिचय है और हम शादी करना चाहते हैं.’

‘ये प्रेमप्यार सब बेकार की बातें हैं. तुम जिसे प्रेम कहते हो वह महज कुछ ही दिनों का बुखार होता है,’ पापा ने एक तरह से मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया.

‘नहीं, यह बात नहीं है,’ मैं ने मजबूती से कहा.

‘बेटा, हम तुम्हारा कोई बुरा थोड़े ही चाहेंगे,’ मम्मी ने गरमाए माहौल की तीव्रता को कम करने की कोशिश की, ‘संगीता को इस घर में रहते हुए लगभग 2 साल हो चुके हैं. अब वह हम सब को अच्छी तरह जान चुकी है और हम उसे. नई लड़की इस घर में कैसे एडजेस्ट करेगी, यह कौन जानता है. इस हादसे के बाद तो वह इस घर में पूरी तरह समर्पित रहेगी. संगीता और तुम हमउम्र हो. तुम ने दुनियादारी को अभी ठीक से जाना नहीं है. आज जिसे तुम अपनी पत्नी बना कर लाना चाहते हो, क्या पता वह संगीता के साथ कैसा व्यवहार करे और तुम्हारा संगीता से मिलना उसे कितना उचित लगे. ऐसा नहीं है कि संगीता के मातापिता के कहने के बाद हम ने ऐसा निर्णय लिया है. सोच तो हम लोग पहले से रहे थे पर यह सब कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. अब अगर उस के घर वालों की भी ऐसी इच्छा है तो हमें कोई एतराज नहीं है.’

‘लेकिन मम्मी, मैं जिसे भाभी मानता आया हूं उसे पत्नी बनाने के बारे में कैसे सोच सकता हूं. यह शादी आप की नजरों में नैतिक हो सकती है पर युक्तिसंगत नहीं. मेरे भी अपने कुछ अरमान हैं, फिर मेरे उस लड़की के प्रति वादे और कसमें…’

‘अरे, बेटा, यह प्रेमप्यार कुछ दिनों का बुखार होता है. वह अपने घर में एडजेस्ट हो जाएगी और तुम अपने घर में,’ पापा ने अपनी बात फिर से दोहराई.

मैं ने उन्हें लाख समझाने की कोशिश की पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा.

मेरे पास अब 2 ही विकल्प बचे थे. मैं या तो संगीता भाभी से विवाह करूं या इस घर को छोड़ कर अपनी इच्छानुसार गृहस्थी बसा लूं. भैया की मौत के बाद अब मैं ही उन का सहारा था. मुझ से अब उन की सारी आशाएं बंधी थीं. हर हाल में वज्रपात मुझ पर ही होना था. यह तो सच था कि इस विवाह से न तो मैं सुखी रह सकता, न संगीता भाभी को खुश रख सकता और न ही खुशी ही सुखी रहती.

परिस्थितियां धीरेधीरे ऐसी बनती गईं कि मैं घर में तटस्थ होता चला गया और अंतर्मुखी भी.

हार कर इस घर की भलाई और मातापिता के फर्ज को निभाने के लिए मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पडे़. मुझे नहीं पता था कि नियति मेरे साथ ही ऐसा खेल क्यों खेल रही है. कहने को सब अपने थे पर अपनापन किसी में नहीं था.

मैं ने खुशी को कई बार फोन करने की कोशिश की मगर हर बार नाकामयाबी हाथ लगी. मैं उस की हालत भी अच्छी तरह जानता था. मैं ने उसे सचमुच कहीं का नहीं छोड़ा था. उस का गम मेरे गम से काफी गहरा था. आज मुझे उस की और उसे मेरी सख्त जरूरत थी पर वह मुझ से बहुत दूर जा चुकी थी. मैं ने भी समझ लिया कि मुझ पर अब जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती. मेरे सारे सपने पलकों में ही लरज कर रह गए और सारी हसरतें सीने में ही दफन हो कर रह गईं.

अचानक घर से संगीता भाभी का फोन आया तो मैं चाैंक पड़ा. मैं सपनों की जिस दुनिया में घूम रहा था, उस से बाहर निकल कर मोबाइल को कान से लगा लिया.

‘‘सौरी, मैं ने तुम्हें इस समय फोन किया. क्या तुम अभी घर पर आ सकते हो?’’

मैं एकदम घबरा गया. मुझे लगा मेरे लिए एक और आघात प्रतीक्षा कर रहा है. मैं ने पूछा, ‘‘क्या बात है. सब ठीक तो है?’’

‘‘सब ठीक नहीं है. बस, तुम घर आ जाओ,’’ इस बार भाभी का निवेदन आदेश में बदल गया.

‘‘बात क्या है?’’ मैं ने फिर पूछा.

‘‘सच बात तो यह है कि मैं ठीक से जानना चाहती हूं कि तुम इस विवाह से खुश हो या नहीं. मैं चाहती हूं कि तुम इसी समय घर पर आ जाओ. मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. ऐसे में तसल्ली से बैठ कर बात हो सकेगी ताकि हम कोई निर्णय ले सकें.’’

मुझे लगा शायद यही ठीक होगा. जो औरत मेरी जिंदगी का हिस्सा बनना चाहती है उसे मैं सबकुछ बता दूंगा पर खुशी की बात को छिपा जाऊंगा ताकि उस के भविष्य में कोई बाधा न पहुंचे.

मैं ने जैसे ही घर में कदम रखा, सामने खुशी बैठी थी. मेरा तनबदन एकदम सिहर उठा. पता नहीं, खुशी क्या कह चुकी होगी.

‘‘इसे पहचानते हैं, इस का नाम खुशी है,’’ भाभी ने भेद भरी नजरों से मुझे देखा, ‘‘मैं ने ही इसे यहां बुलाया है. मुझे इतना कमजोर और स्वार्थी मत समझना. तुम्हारे हावभाव से मैं समझ चुकी थी कि तुम किसी को बहुत चाहते हो. मुझे लगा, ऐसे घुटघुट कर जीने से क्या फायदा. जिंदगी जीने और काटने में बड़ा फर्क होता है अंकित, और तुम्हारी जिंदगी तो खुशी है, फिर परिस्थितियों से डट कर मुकाबला क्यों नहीं कर सकते. जब किसी से कोई सच्चा प्यार करता है तो उस के दिल में हमेशा वही बसा रहता है, फिर तुम मुझे कैसे खुश रख सकोगे?

‘‘मैं ने बड़ी मुश्किल से इस का नंबर तुम्हारे मोबाइल से ढूंढ़ा था. अपनी इस गलती के लिए मैं तुम से माफी मांगती हूं. जब मैं ने तुम्हारी सारी स्थिति खुशी के सामने रखी तो इस ने फौरन मुझ से मिलने की इच्छा जाहिर की.’’

‘‘मम्मीपापा मानेंगे क्या?’’ मैं ने अपनी शंका रखी.

‘‘जानते हो, वे दोनों खुशी के घर ही गए हैं इस का हाथ मांगने और यह पूरी की पूरी तुम्हारे सामने खड़ी है,’’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं और वह भीतर चली गईं.

मैं ने खुशी को कस कर अंक में भींच लिया. खुशी मुझ से अलग होते हुए बोली, ‘‘तुम मेरा सबकुछ ले कर क्यों दूर चले गए थे.’’

उम्र का फासला: क्या हुआ लक्षिता के साथ

नर्सरी  में देखो तो पौधे कितने खिलेखिले रहते हैं. मगर गमलों में शिफ्ट करते ही मुरझने लगते हैं. बराबर खादपानी देती हूं, सीधी धूप से भी बचाती हूं, फिर भी पता नहीं क्यों मिट्टी बदलते ही पौधे कुछ दिन तो ठीक रहते हैं, लेकिन फिर धीरेधीरे जल जाते हैं,’’ मां अपने टैरेस गार्डन में उदास खड़ी बड़बड़ा रही थी. आज फिर उस का जतन से लगाया एक प्यारा पौधा मुरझ गया था.

खिड़की में खड़ी लक्षिता अपनी मां को देख रही थी. खुद वह भी तो इन गमलों के पौधों जैसी ही है. शादी से पहले मायके में कितनी खिलीखिली रहती थी. ससुराल जाते ही मुरझ गई. हर समय चहकने वाली लक्षिता शादी के 2 साल बाद ही अपना घर छोड़ कर मायके आ गई थी. नहींनहीं, यह कोई व्यक्तिगत, सामाजिक या कानूनी अलगाव नहीं था, बस लक्षिता विशाल और अपने रिश्ते को थोड़ा और समय देना चाह रही थी.

ऐसा नहीं था कि उस ने अपनी जड़ों को पराई जमीन में रोपने में कोई कसर छोड़ी हो. भरसक प्रयास किया था नई मिट्टी के मुताबिक ढलने का… लेकिन पता नहीं मिट्टी में ही कीड़े थे या फिर धूप इतनी तेज कि उस पर तनी विशाल के प्रेम वाली हरी नैट भी बेअसर हो गई. लक्षिता अपनी असफल शादी को याद कर भर आई आंखें पोंछने लगी.

‘न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन. जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन…’ कितना झठ कहते है ये शायर लोग भी. कौन कहता है कि प्यार उम्र के फासले को पाट सकता है? यह तो वह खाई है जिसे लांघने की कोशिश करने वाले को अपने हाथपांव तुड़वाने ही पड़ते हैं. और यदि इस राह में जन्म का बंधन यानी जातिधर्म की चट्टान भी आ जाए तो फिर इन फासलों को पाटना किसी साधारण व्यक्ति के बस की बात तो नहीं हो सकती, लक्षिता मोबाइल की स्क्रीन पर लगी अपनी और विशाल की शादी की तसवीर को देख कर फीकी सी मुसकरा दी.

पूरे 10 वर्ष का फासला था दोनों की उम्र में. इस के साथसाथ विजातीय होने की अड़चन थी सो अलग… समाज में कैसे स्वीकार होता? स्वीकार होने की प्राथमिकता बढ़ भी जाती यदि विशाल की उम्र लक्षिता से अधिक होती क्योंकि प्रचलित सामाजिक धारणा के अनुसार पुरुष और घोड़े कभी बूढ़े नहीं होते बशर्ते उन्हें अच्छी खुराक दी जाए. शायद इसीलिए लड़कों को लड़कियों से अच्छा खानापीना दिए जाने का रिवाज चल पड़ा होगा. एक बात की कड़ी से कड़ी जोड़ती लक्षिता दूर तक सोच आई.

लक्षिता पुणे की एक मल्टी नैशनल कंपनी में मैनेजर थी और विशाल एक

मैनेजमैंट ट्रेनी… लक्षिता विशाल की बौस थी. 35 वर्षीय लक्षिता देखने में किसी मौडल सी लगती है जिसे देख कर उस की उम्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. चेहरे की स्किन ऐसी पारदर्शी है कि जरा नाखून भी लग जाए तो गाल कई दिनों तक लाल दिखाई दे. बाल बेशक कंधे तक कटे थे, लेकिन लेयर में होने के कारण चेहरे पर नहीं आते. हां, गरदन झकाने पर चेहरे को ढांप जरूर लेते थे जैसे बरसाती दिनों में चांद के चारों तरह घिरा सुनहरा आवरण. लक्षिता अपने चेहरे पर मेकअप नहीं पोतती, लेकिन कुछ तो ऐसा लगाती कि चेहरा हर समय दमकता रहता है. लिपस्टिक का शेड भी न्यूड सा ही रहता और आंखें हमेशा गोल्डन फ्रेम के चश्मे में कैद…

ऐसा नहीं है कि 35 वर्षीय इस युवती को अविवाहित रहने का कोई शौक या शगल था. कुछ मजबूरियां ही ऐसी रहीं कि सही उम्र में विवाह कर ही नहीं पाई. यों तो आजकल 35 में कोई बुढ़ाता नहीं है, लेकिन हां, युवाओं वाले मिजाज तो नर्म पड़ने ही लगते हैं. ऐसी ही ठंडी पड़ती चिनगारी को सुलगाने विशाल उस की जिंदगी में आया था.

विशाल ने जब उस का विभाग जौइन किया तो वह भी लक्षिता को एक आम ट्रेनी जैसा ही लगा था, लेकिन धीरेधीरे विशाल उस के वजूद को स्क्रब की तरह सहलातारगड़ता गया और वह निखरीनिखरी एक नए आकर्षक रूप में खिलती गई.

कभी ‘‘यह रोजरोज सलवारकमीज क्यों पहनती हैं? कभी कुरती के साथ जीन्स भी ट्राई कीजिए,’’ कह कर तो कभी ‘‘बालों को बांधना क्या औफिस के प्रोटोकाल में आता है? चलो मान लिया कि आता होगा, लेकिन औफिस टाइम के बाद तो इन्हें भी आजाद किया जाना चाहिए न?’’ जैसे जुमले वह लक्षिता के पास से गुजरते हुए फुसफुसा देता था. चेहरे पर भोलापन इतना कि लक्षिता चाह कर भी उसे लताड़ नहीं पाती थी.

कब लक्षिता के वार्डरोब में जीन्स और आधुनिक पैंट्स की संख्या बढ़ने लगी, कब औफिस बिल्डिंग के मुख्य दरवाजे से बाहर निकलते ही उस के बालों का कल्चर निकल

कर हैंडबैग के स्ट्रैप में लगने लगा वह जान ही नहीं पाई.

राजपूती कदकाठी को जस्टिफाई करता लंबे कद और चौड़े कंधों वाला विशाल अपने घुंघराले बालों के कारण पीठ पीछे से भी पहचाना जा सकता था. विशाल में गजब की ड्रैस सैंस थी. उस की शर्ट के रंग इतने मोहक और कूल होते कि उस की उपस्थिति एक ठंडक का एहसास दिला देती थी. भीनीभीनी महकती बगलें जैसे अपनी तरफ खींचती थीं. लक्षिता के पास आ कर किसी काम के लिए जब विशाल अपनी दोनों बांहें टेबल पर रख कर फाइलों पर झक जाता तो लक्षिता एक लंबी सांस लेने को मजबूर हो जाती थी. आंखें खुदबखुद मुंद जातीं और विशाल का पसीने मिला डीयो नाक से होता हुआ रूह तक अपना एहसास छोड़ जाता. विशाल एक कुहरे की तरह उसे ढकता गया और जब यह कुहांसा छंटा तो लक्षिता ने पाया कि प्रेम की धुंध उस के भीतर तक उतर चुकी है.

लक्षिता ने इस प्रेम को बहुत नकारा, लेकिन वह प्रेम ही क्या जो दीवानगी ले कर न आए. सच ही कहा है किसी ने कि प्रेम करना किसी समझदार के बस की बात नहीं है. यह तो एक फुतूर है जिसे कोई जनूनी ही निभा सकता है. लक्षिता हालांकि बहुत समझदारी दिखाने की कोशिश कर रही थी. जितना हो सके उतना वह विशाल को नजरअंदाज करने का प्रयास भी करती, लेकिन राजस्थान से आया यह नया ट्रेनी बिलकुल रेगिस्तानी धूल की तरह था. कितने भी खिड़कीदरवाजे बंद कर लो, इस का प्रवेश रोकना नामुमकिन था. अलमारी में रखी साडि़यों की भीतरी तह तक पहुंच जाने वाली गरद की तरह विशाल भी हर परत को बेधता हुआ आखिर लक्षिता के मन के गर्भगृह तक जा ही पहुंचा था.

अपने जन्मदिन पर विशाल ने लक्षिता को डिनर के लिए आमंत्रित किया तो वह इनकार नहीं कर सकी. अंधेरे में भी हाथ बढ़ाते ही हाथ में आने वाली ड्रैस पहनने वाली बेपरवाह लक्षिता को उस दिन अपने लिए ड्रैस का चुनाव करने में

2 घंटे लग गए. जब भी किसी कुरते या साड़ी पर हाथ रखती, पीछे खड़ा विशाल न में गरदन हिला देता. अंत में उसे चुप रहने की सख्त हिदायत देते हुए लक्षिता ने हलके हरे रंग का टौप और औरिजनल डैनिम की पैंट चुनी. गले में फंकी सा लौकेट डालते समय अपनी 35 की उम्र को याद करती वह हिचकी तो थी, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों कानों में भी झलते से लटकन डाल ही लिए थे. लिपस्टिक लगाते समय दिमाग ने पूछा भी था कि आज यह इतना रोमांटिक सा गुलाबी रंग क्यों? लेकिन तु?ो इस से क्या? अपने काम से काम रखा कर कहते हुए दिल ने दिमाग को ऐसा करारा जवाब दिया कि शेष समय दिमाग ने अपने होंठ सिल लिए. लक्षिता को उस का फायदा भी हुआ. पूरी मुलाकात के दौरान दिमाग ने कोई रायता नहीं फैलाया. बस, जो दिल ने कहा लक्षिता करती गई.

विशाल ने घुटनों पर बैठते हुए उसे प्रोपोज किया तो लक्षिता समझ नहीं पा रही थी कि सौगात पर हंसे या रोए. असमंजस में उलझ वह विशाल को भी असमंजस में उलझ छोड़ कर डाइनिंगहौल से बाहर निकल आई.

‘यह आज की पीढ़ी भी न. सपनों में ही जीती है. अरे सपनों से परे समाज भी तो होता है न? उस ने भी तो संसार के सफल संचालन के लिए कुछ नियम बनाए ही हैं. हां, जरूरी नहीं कि ये नियम सब को रास आएं ही, लेकिन नियम किसी एक व्यक्ति की खुशी या सुविधा को

ध्यान में रख कर तो नहीं बनाए जा सकते न?’ लक्षिता कैब में बैठी मन ही मन खुद को

समझने का प्रयास कर रही थी. रातभर विशाल के प्रश्नों के जवाब ही तैयार करती रही. वह जानती थी कि विशाल सवालों की लिस्ट लिए उसे औफिस के मुख्य दरवाजे पर ही खड़ा मिलेगा. लेकिन विशाल को इतना चैन कहां.

उस ने तो सुबहसवेरे ही लक्षिता के घर की घंटी बजा दी.

‘‘आज के दौर के बदलाव को देखते हुए बात करें तो मेरे और तुम्हारे बीच पूरी एक पीढ़ी का फासला कहा जा सकता है. समझ रहे हो न तुम? उम्र का यह फासला बहुत माने रखता है विशाल,’’ लक्षिता ने उसे चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, लेकिन उस के तो रोमरोम पर जैसे इश्क तारी था.

लक्षिता से झगड़ ही पड़ा, ‘‘प्यार हर फासले को पाट देता है,’’ कुछ संयत होने के बाद उसने लक्षिता के दोनों हाथ पकड़ लिए.

लक्षिता उन आंखों की तरलता को सहन नहीं कर सकी. वह पिघलने लगी. न केवल पिघली बल्कि वह तो विशाल के प्रेम प्रवाह में बह ही गई. बहतीबहती इतनी दूर निकल आई कि किनारे न जाने कहां पीछे छूट गए.

वह तो विशाल ने ही प्रेम के चरम को छूने के बाद उस की अधमुंदी आंखों को चूम कर

उसे इस स्वप्नलोक से बाहर निकाला वरना उस का मन तो चाह रहा था कि बस विशाल प्रेम की नैया को खेता रहे और वह बहती रहे.

लक्षिता ने विशाल का प्रेम स्वीकार कर लिया, लेकिन वह जानती थी कि अभी उम्र और जन्म के बंधन को भी पार पाना पड़ेगा. अभी तो शुरुआत हुई है. इस कहानी को अंजाम तक पहुंचाने में बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा. हो सकता है कि शुरुआत घर से ही हो. उस ने अपनी मां को विशाल के बारे में बताया.

जैसाकि उसे अंदेशा था, स्वीकार तो मां को भी नहीं था यह रिश्ता लेकिन ‘‘चलो, देर से ही सही. बेटी का घर तो बस जाएगा. बड़ी बहू, बड़े भाग,’’ कहते हुए किसी तरह उन्होंने खुद को समझ लिया था, मगर विशाल के मातापिता को यह रिश्ता जरा भी नहीं सुहाया था.

‘‘मति मारी गई है लड़के की. अरे 16 की उम्र में तो मैं अपनी मां की गोद में थी. साथ चलोगे तो लोग पतिपत्नी नहीं बल्कि बूआभतीजा सम?ोंगे. ऊपर से ब्राह्मण खानदान की अलग. जिन के पुरखे हमारे यजमान होते हैं हम उन्हें दान दें या उन से बेटी लें?’’ मां ने सख्ती से इस बेमेल जोड़ी की खिलाफत की.

‘‘औरतों के शरीर पर उम्र जल्दी झलकने लगती है. आगे की सोचो. जब इस लड़की की उम्र ढलने लगेगी तब क्या तुम्हारी हमउम्र तुम्हें ललचाएंगी नहीं? फिर अपने होने वाले बच्चों की भी तो सोचो. रिटायरमैंट की उम्र में यह पोतड़े धोएगी क्या?’’ यह कहते हुए पिता ने भी समझया था. लेकिन विशाल के भी अपने अलग तर्क थे.

‘‘अमृता सिंह से ले कर प्रियंका चोपड़ा तक… और शिखर धवन से ले कर सचिन तेंदुलकर तक… किसी को भी देख लो सब अपनी बड़ी पत्नियों के साथ खुश हैं. आप लोग पता नहीं क्यों उम्र के फासले को इतना तूल दे रहे हैं,’’ विशाल ने कई बड़ी हस्तियों के उदाहरण अपने पक्ष में दिए.

‘‘वे सब बड़े लोग हैं. उन्हें समाज से कोई विशेष मतलब नहीं होता, लेकिन हमें तो सब सोचना पड़ेगा न? लोग तुम्हीं में खोट निकालेंगे कि कोई मिली नहीं तो जो मिली उसी को ब्याह लिया,’’ मां ने अपना प्रतिरोध जारी रखा.

मगर विशाल तो सचमुच दीवाना हो उठा था. उस

ने उन की हर दलील को खारिज करते हुए जब कोर्ट मैरिज और घर छोड़ने की धमकी दी तो मन मार कर घर वालों को उस की सनक के सामने झकना पड़ा और तानोंतंजों के मध्य लक्षिता विशाल की ब्याहता बन कर उस के घर आ गई.

किसी आम फिल्मी कहानी की तरह इस दास्तान की कोई हैप्पी ऐंडिंग नहीं हुई थी बल्कि यहां से तो हैप्पीनैस की ऐंडिंग शुरू हुई थी.

‘‘उम्र में जितनी तुम विशु से बड़ी हो, लगभग उतनी ही बड़ी मैं तुम से हूं. मेरी सहेलियां कहती हैं कि बहू से मांजी नहीं बल्कि दीदी कहलवाया करो,’’ सास बातों ही बातों में लक्षिता को उस की उम्र जता देती थी.

‘‘ये तो छोटा है लेकिन तुम तो बड़ी हो न. तुम से तो समझदारी की उम्मीद की ही जा सकती है,’’ कहते हुए विशाल के पिता भी जबतब उस पर बड़प्पन लाद देते.

लक्षिता क्या करती. कट कर रह जाती.

कभीकभी तो शाकाहारमांसाहार को ले कर घर में ऐसी बहस छिड़ती कि लक्षिता को सचमुच यह शादी जल्दबाजी में लिया गया फैसला लगने लगती.

‘विशाल को भी बारबार खुरचने से क्या फायदा. खून का रिश्ता है, किसी दिन उबाल खा गया तो बेवजह बतंगड़ बन जाएगा और लोगों को अपनी आशंका सही साबित होने का दावा करने का मौका मिल जाएगा,’ यही सोच कर लक्षिता चुप्पी साध लेती.

मां से मन की कही तो उन्होंने भी, ‘‘यह तो एक दिन होना ही था,’’ कह कर उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया.

लक्षिता को जब कुछ नहीं सूझ तो उस ने यहां मुंबई यानी अपने मायके में ट्रांसफर ले लिया. इधर मां भी अकेली थी, इसलिए लक्षिता और उन्हें दोनों को ही यह व्यवस्था रास आ गई. काम की अधिकता का बहाना बना कर वह ससुराल जाना टालती रहती. विशाल ही हफ्ते 10 दिन में उस से मिलने आ जाता. गनीमत कि विशाल की उस के प्रति दीवानगी और प्यार अभी भी बरकार थी, इसलिए यह रिश्ता जुड़ा हुआ था. रोज उस से फोन पर बात होती रहती. एक दिन उसी से पता चला कि उस के पापा कोरोना पौजिटिव हो गए हैं. 3 ही दिन में इतने गंभीर हो गए कि उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा.

कहने को तो मरीज की पूरी देखभाल अस्पताल के जिम्मे ही थी, लेकिन अस्पताल के बाहर भी सैकड़ों काम होते हैं यह विशाल को इसी दौरान पता चला. बेचारा विशाल उन के लिए आवश्यक दवाओं, औक्सीजन और आईसीयू बेड की व्यवस्था करता हकलान हुआ जा रहा था. कभी इस डाक्टर से राय लेता तो कभी उस डाक्टर से. विशाल को समझ में नहीं आ रहा था कि जिंदगी में आए इस भूचाल को कैसे व्यवस्थित करे. इस से पहले तो कभी पापा ने उसे इस उलझन में आने ही नहीं दिया.

दूसरी तरफ मां का हाल अलग ही बुरा था. वह बारबार अस्पताल जाने और पापा को देखने की जिद किए जा रही थी. विशाल अपनी सारी परेशानी लक्षिता को सुना कर हलका हो लिया करता था. लक्षिता भी कभी केवल सुन कर तो कभी सलाह दे कर उस का हौसला बढ़ाती रहती.

अगले 2 दिन विशाल का फोन नहीं आया. ‘व्यस्त होगा,’ सोच कर लक्षिता ने भी उसे डिस्टर्ब नहीं किया. आज रविवार की छुट्टी थी. लक्षिता को विशाल के आने की उम्मीद थी. जब से वह यहां शिफ्ट हुई है, एक छोड़ एक रविवार को विशाल आता है उस से मिलने.

शाम ढलने को थी, लेकिन विशाल नहीं आया. उस के इंतजार में लक्षिता ने लंच भी नहीं किया. सोचा साथ ही करेंगे, लेकिन अब तो वह शाम की चाय भी पी चुकी थी. मां ने जिद की तो चाय के साथ 2 बिस्कुट ले लिए.

‘‘आज विशाल नहीं आया?’’ मां ने पूछा.

लक्षिता सिर्फ ‘‘हम्म’’ कह कर रह गई.

‘‘क्यों?’’ मां ने फिर पूछा तो लक्षिता ने ससुरजी के कोरोना ग्रस्त और विशाल के परेशानी में होने की जानकारी दी. लक्षिता ने महसूस किया कि उस के हर वाक्य के साथ मां की आंखें आश्चर्य से फैलतीं और माथे की लकीरें तनाव से सिकुड़ती जा रही थीं.

‘‘अरे, विशाल तो छोटा है, लेकिन तु?ो भी अकल क्यों नहीं आई. कम से कम ऐसे समय तो सासससुर को बहू से सेवा की आशा रहती ही है. मैं तो कहती हूं कि तुझे कल ही वहां चले जाना चाहिए. तू ऐसा कर, अभी विशाल को फोन कर. उसे हिम्मत बंधा और अपना सामान पैक कर. और सुन, औफिस से कम से कम 15 दिन की छुट्टी ले कर जाना.’’

मां ने लक्षिता को दुनियादारी सिखाई.

लक्षिता को हालांकि मां का उम्र का हवाला देना अखरा, लेकिन उसे अपनी गलती भी महसूस हुई.

‘अकेला लड़का, बेचारा परेशान हो रहा है. न घरबाहर संभल रहा होगा… मुझ से भी तो आने को कह सकता था न,’’ सोचतेविचारते हुए उस ने विशाल को फोन किया.

‘‘क्या बताता तुम्हें? पापा को संभालतेसंभालते मैं खुद संक्रमित हो गया. तुम्हें बताता तो तुम आने की जिद करती और तुम्हारे लिए मैं कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता. फिलहाल तो लक्षण गंभीर नहीं दिख रहे इसलिए घर पर ही क्वारंटीन हूं, लेकिन मु?ो बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्या होगा,’’ लक्षिता का फोन सुनते ही विशाल छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगा.

इधर लक्षिता के पांवों तले से भी जमीन दरक गई. उसे पति पर दया भी आई और लाड़ भी. अगले दिन सुबह लक्षिता विशाल के घर अपनी सास के पास थी.

घर पहुंचते ही लक्षिता ने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. साफसफाई से ले कर पौष्टिक खाने तक सभी काम वह अपनी निगरानी में ही करवाती. विशाल एक अलग कमरे में क्वारंटीन था. लक्षिता उस की हर जरूरत का खयाल रख रही थी. वह विशाल की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर अपनी नजर बनाए हुए थी. विशाल को अकेलापन न खले इस का भी उसे पूरा खयाल था. लगातार वीडियो कौल पर बातों के साथसाथ कुछ अच्छी पुस्तकों और कई ओटीटी प्लेटफौर्म उसे सब्सक्राइब करवा दिए ताकि उस का मन बहलता रहे.

लक्षिता की सास उस की हर गतिविधि का अवलोकन कर रही थी. हालांकि लक्षिता ऐसा कुछ भी विशेष नहीं कर रही थी जो कोई अन्य नहीं कर सकता, लेकिन उस ने महसूस किया कि लक्षिता के हर क्रियाकलाप में एक गंभीरता है, परिपक्वता है. वह कोई भी काम चाहे किसी डाक्टर से परामर्श लेना हो या कोई घरेलू उपाय, हड़बड़ी या घबराहट में नहीं करती बल्कि पूरी तरह से विचार कर, आगापीछा सोच कर करती है. इस दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आया कि यदि बहू विशाल की हमउम्र होती तो ऐसी परिस्थति में कैसे रिएक्ट करती. शायद मुसीबतों का भी व्यक्ति की उम्र से कुछ लेनादेना नहीं होता.

डाक्टर की दवाओं के साथसाथ लक्षिता एक वैद्य के संपर्क में भी थी.

ऐलोपैथी और आयुर्वेद के साथसाथ लक्षिता की मेहनत भी मिल गई थी. तीनों ने मिल कर उम्मीद से कहीं अधिक अच्छे परिणाम दिए. विशाल अब पहले से काफी बेहतर महसूस कर रहा था. सप्ताह भर बाद उस की कोरोना रिपोर्ट भी नैगेटिव आ गई और इधर विशाल के पापा को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वे भी लक्षिता की समझदारी की तारीफ करते नहीं थक रहे थे.

इन दिनों लक्षिता की सास के चेहरे पर संतुष्टि की चमक उत्तरोत्तर गहराने लगी थी. उस ने यह भी लक्ष्य किया कि लक्षिता के सलीके और सुघड़ता को देख कर उस की और विशाल की उम्र के अंतर को भांप पाना आसान नहीं लगता.

विशाल अब पूरी तरह से स्वस्थ था. पापा की रिकवरी भी बहुत अच्छी हो रही थी. 2 दिन बाद लक्षिता की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. लक्षिता ने घर में साफसफाई और खाने की व्यवस्था करवा दी. कपड़े धोने के लिए औटोमैटिक वाशिंग मशीन भी खरीद लाई. एकबारगी काम चलाने लायक जुगाड़ हो गया था. यह भी तय हुआ कि जब तक पापा पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तब तक लक्षिता हर सप्ताह उन्हें देखने आएगी. यही सब बताने के लिए लक्षिता अपनी सास के कमरे की तरफ जा रही थी कि भीतर से आते संवाद में अपने नाम का जिक्र सुन कर दरवाजे पर ही ठिठक गई.

‘‘लक्षिता, सचमुच बहुत समझदार है. उस के व्यवहार ने मेरी उस धारणा को गलत साबित कर दिया कि अधिक उम्र की लड़की अपने पति को बच्चा समझ कर उस के साथ मां की तरह पेश आती है बल्कि अब तो मु?ो लग रहा है कि विशाल से तो लक्षिता जैसी समझदार पत्नी ही निभा सकती थी. कितना बचपना है विशाल में. एकदम अनाड़ी है दुनियादारी में.’’

अपने बारे में सास के विचार जान कर लक्षिता चौंक गई.

‘‘यानी तुम इस बात को स्वीकार करती

हो कि विवाहित जोड़े में किसी एक की उम्र

दूसरे से इतनी ही अधिक होनी चाहिए. तुम्हारे हिसाब से उम्र का यह फासला जायज है?’’ यह ससुर की आश्चर्य भरी प्रतिक्रिया थी. लक्षिता

इस प्रतिक्रिया का जवाब सुनने के लिए उतावली हो उठी. उस ने अपने कान सास के जवाब पर टिका दिए.

‘‘हर जोड़े में ऐसा ही हो यह जरूरी नहीं. इस बात में भी दोराय नहीं कि उम्र का

अधिक फासला रिश्तों में पेचीदगी लाता है, लेकिन हां, इस बात को मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूं कि प्रेम उम्र के फासले को पाट सकता है,’’ सास ने कहा तो लक्षिता के चेहरे की मुसकान और भी अधिक गहरी हो गई. वह सास के कमरे में जाने के बजाय रसोई की तरफ मुड़ गई. आज मन कुछ खास बनाने को हो आया.

‘‘लक्षिता, वैसे तो यह फैसला पतिपत्नी का होता है, लेकिन फिर भी मैं सलाह देना चाहूंगी कि तुम दोनों को अपना परिवार बढ़ाने में देर नहीं करनी चाहिए. उम्र बढ़ने पर कोई कौंप्लिकेसी आ सकती है,’’ सास ने रात को खाने की मेज पर सब के सामने कहा तो निवाला मुंह की तरफ बढ़ाते विशाल का हाथ रुक गया. वह कभी अपनी मां तो कभी लक्षिता की तरफ देखने लगा.

सब्जी परोसती लक्षिता के हाथ भी ठिठक गए. आज उसे सास का बड़ी उम्र का ताना देना भी बुरा नहीं लगा. रिश्ते को स्वीकृति देने के इस अनोखे अंदाज को समझते ही लक्षिता की आंखें शर्म से झक गईं.

‘‘मैं तो कहता हूं कि कोशिश कर के तुम अपना ट्रांसफर यहीं करवा लो, कम से कम परिवार एकसाथ तो रहेगा,’’ कहते हुए ससुरजी ने उस की तरफ देखा.

विशाल और लक्षिता एकदूसरे को चोर निगाहों से देखते हुए मंदमंद मुसकरा रहे थे.

जीने दो और जियो: क्यों खुश नहीं थी अर्चना

प्यार पर किस का बस चला है, जो अपने कैरियर के प्रति संप्रित अर्चना का चलता. न चाहते हुए भी नितिन से प्यार हो ही गया और इतना ज्यादा कि नितिन के नौकरी बदलने के बाद उस के लिए भी उस औफिस में काम करना असहनीय हो गया. एक दोपहर उस ने नितिन को फोन किया कि क्या वह लंबा लंचब्रेक ले कर उस से मिल सकता है. अर्चना ने इतनी आजिजी से पूछा था कि नितिन मना नहीं कर सका, उस के आते ही अर्चना ने पूछा, ‘‘तुम्हारे नए औफिस में मु झे कोई जगह मिल सकती है, नितिन?’’

‘‘औफिस में तो नहीं, मेरी जिंदगी और दिल में सारी जगह सिर्फ तुम्हारे लिए है. सो, आ जाओ वहां यानी शादी कर लो मु झ से.’’

‘‘और फिर घरगृहस्थी के चक्कर में फंस कर नौकरी को अलविदा कह दो. बहुत बड़ी कीमत मांग रहे हो प्यार की?’’

‘‘मु झ से शादी कर के तुम घरगृहस्थी के चक्कर में कभी नहीं फंसोगी क्योंकि मेरी मम्मी भी अपनी गृहस्थी वैसे ही खुशीखुशी संभाल रही हैं जैसे तुम्हारी मम्मी, अभी जैसे अपने घर से औफिस आती हो, शादी के बाद मेरे घर से आ जाया करना.’’

‘‘ऐसा अभी सोच रहे हो, लेकिन शादी के बाद तुम भी वैसा ही सोचने लगोगे जैसा तुम्हारी मम्मी सोचेगी कि बहू का काम घर संभालना है, औफिस नहीं.’’

‘‘मेरी मां की नसीहत है कि अगर जिंदगी में तरक्की करनी है तो शादी कामकाजी लड़की से ही करना. ‘मैं अकेले बोर हो रही हूं,’ कह कर तुम्हें, काम अधूरा छोड़ कर, जल्दी घर आने को मजबूर न करें.’’

‘‘तुम्हारी मम्मी भी कुछ काम करती हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, बहुत काम करती हैं अपने घर के अलावा पासपड़ोस के भी. जैसे किसी के लिए स्वेटर बुनना, किसी के लिए अचार डालना वगैरहवगैरह यानी, मम्मी हम बापबेटे के इंतजार में बैठ कर बोर नहीं होतीं, व्यस्त रखती हैं स्वयं को. क्यों न कुछ फैसला करने से पहले तुम मम्मी से मिल लो, अभी चलें?’’ नितिन के आग्रह को अर्चना टाल न सकी.

नितिन के घर के दरवाजे पर ताला था. ‘‘पापा औफिस में होंगे और मम्मी कहीं पड़ोस में,’’ कह कर नितिन ने मोबाइल पर नंबर मिलाया.

‘‘मम्मी पड़ोस में अय्यर आंटी को गाजर का हलवा बनाना सिखा रही हैं,’’ नितिन ने ताला खोलते हुए कहा, ‘‘जब तक मम्मी आती हैं तब तक तुम्हें अपना घर दिखाता हूं.’’ छत पर सूखते कपड़ों में जींस, टौप, लैगिंग, कुरतियां और पटियाला सलवार वगैरह देख कर अर्चना पूछे बगैर न रह सकी, ‘‘तुम्हारी कितनी बहनें हैं?’’

‘‘एक भी नहीं. ओह, सम झा, ये कपड़े देख कर पूछ रही हो. ये सब मम्मी के हैं. उधर देखो, मम्मी आ रही हैं.’’

फर्श को छूती अनारकली डै्रस आंखों पर महंगा धूप का चश्मा और स्लिंग बैग से मैच करते सैंडिल पहने एक स्थूल महिला चली आ रही थी. परस्पर परिचय के बाद नितिन ने कहा. ‘‘आप ने कहा था न कि अगर कोई लड़की पसंद हो तो बता. सो, मैं अर्चना को आप से मिलवाने लाया हूं.’’

‘‘मैं ने कहा था, बता, ताकि मैं उस के घर प्रस्ताव भिजवा सकूं, यह नहीं  कि उसे ही यहां ले आ डिसप्ले आइटम की तरह,’’ मम्मी ने स्नेह से अर्चना के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘सौरी बेटा, नितिन ने मु झे गलत सम झा.’’

‘‘मैं ने कुछ गलत नहीं सम झा, मम्मी. प्रस्ताव तो तब भिजवाओगी न, जब यह शादी करने को तैयार होगी,’’ नितिन बोला. ‘‘यह हार्डकोर कैरियर वुमन है. मु झ से प्यार तो करती है पर शादी से डरती है कि कहीं घरगृहस्थी के चक्कर में इसे नौकरी न छोड़नी पड़े.’’

‘‘मु झे नितिन के लिए उस की पसंद की जीवनसंगिनी चाहिए घर चलाने को अपने लिए सहायिका नहीं. मु झे यह घरसंसार चलाते हुए अढ़ाई दशकों से अधिक हो गए हैं अगले 2 दशक तक तो बगैर तुम्हारी मदद लिए या नौकरी छुड़वाए आसानी से यह गृहस्थी और नितिन के बालबच्चे संभाल सकती हूं. अगर मेरी बात पर भरोसा है तो किसी ऐसे का नाम बता दो जिसे तुम्हारे घर…’’

‘‘उस की फ्रिक मत करो, मम्मा. पापा के दोस्त अशोक अंकल अर्चना के मामा हैं,’’ नितिन ने बात काटी.

‘‘तुम्हें अगर मैं पसंद हूं तो हम आज ही अशोकजी से…’’ कि उन का मोबाइल बजने लगा, ‘‘हां रत्नावल्ली, बस, अभी आ रही हूं.’’ वे नितिन से बोलीं, ‘‘भई, इस से पहले कि ‘अईअईयो’ करती रत्नावल्ली अपने हलवे की कड़ाही उठाए यहां आ जाए, मैं उस का हलवा भुनवा कर आती हूं. तुम लोग बैठो.’’

‘‘हम भी चलेंगे, मम्मी. औफिस में छुट्टी नहीं है,’’ नितिन उठ खड़ा हुआ. ‘‘अय्यर आंटी के चक्कर में मम्मी ने तुम्हारा जवाब नहीं सुना. खैर, मु झे बता दो कि मम्मी कैसी लगीं?’’

‘‘अच्छी लगीं,’’ और बहुत मुश्किल से खुद को यह कहने से रोका कि ‘‘कुछ अटपटी या अजीब भी.’’

रात को सब लोग टीवी देख रहे थे कि पापा का मोबाइल बजा.  झुं झलाते हुए पापा ड्राइंगरूम से उठ कर चले गए. फिर कुछ देर के बाद मुसकराते हुए वापस आए, ‘‘तुम अशोक के दोस्त योगेश और उन की बीवी आशा से तो मिली हो न, रचना?’’

‘‘हां, बहुत अच्छी तरह जानती हूं चुलबुली, जिंदादिल आशा को. क्या हुआ उन्हें?’’

‘‘उन्होंने अपने बेटे नितिन के लिए अर्चना का हाथ मांगा है.’’

‘‘अरे नहीं, यह कैसे हो गया,’’ रचना चिल्लाई, ‘‘आशा से यह सुन कर कि चाहे वह कितनी भी मोटी और बेडौल हो जाए, जींस पहनना कभी नहीं छोड़ेगी, मैं ने सोचा था कि तब तो इस की बहू बड़ी सुखी रहेगी कि उस के जींस पहनने पर सास रोक नहीं लगाएगी. मु झे क्या पता था कि मेरी बेटी को ही यह सुख मिल सकता है.’’

‘‘मिल सकता नहीं, मिल गया है. अर्चना और नितिन एकदूसरे को पसंद करते हैं और अर्चना की सहमति के बाद ही उन लोगों ने प्रस्ताव भिजवाया है.’’

‘‘अरे वाह अर्ची, छिपी रुस्तम निकली तू तो. कब से चल रहा था वह सब?’’

‘‘मु झे खुद नहीं पता, मम्मी,’’ अर्चना ने रुंधे स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तो नितिन से अपने औफिस में काम दिलवाने को कहा था. उस ने शादी का प्रस्ताव रख दिया और बोला कि मना करने से पहले मेरी मां से मिल लो और मु झे अपने घर ले गया.’’

घर पर क्या हुआ बताने के बाद अर्चना ने कहा कि उसे आशा का व्यवहार आपत्तिजनक तो नहीं, अटपटा जरूर लगा.

‘‘अटपटा क्यों लगा?’’

‘‘उन के कपड़े पहनने और बातचीत का तरीका बड़ा बिंदास सा है, उन की आयु के अनुरूप नहीं.’’

‘‘वह तो है, अपनी उम्र के अनुरूप व्यवहार नहीं करती आशा. मगर तेरे लिए तो यह अच्छा ही है. इतने सहज स्वभाव की सास मुश्किल से मिलती है,’’ रचना ने बात काटी और पति की ओर मुड़ी, ‘‘आप ने क्या कहा अशोकजी से?’’

‘‘कहना क्या था, योगेश का नंबर ले लिया है. चाय या खाने पर आने को कब कहूं, यह तुम बताओ.’’

रचना ने अर्चना की ओर देखा, ‘‘कल ही बुला लें?’’

‘‘इतनी जल्दी नहीं मां, मु झे थोड़ा सोचने का समय दीजिए.’’

‘‘उस का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता, अर्ची. तू शादी इसीलिए नहीं करना चाहती न, कि इस से तेरे कैरियर पर असर पड़ेगा और उस का समाधान तेरी सास ने कर दिया है. अरे तू चाहे तो आशा तु झे स्टांपपेपर पर लिख कर दे देगी कि शादी के बाद तु झे घरगृहस्थी की चक्की में नहीं पिसना पड़ेगा. अपनी पसंद का वर, हर तरह से उपयुक्त संपन्न घर और आशा जैसी खुशमिजाज सास के मिलने पर सोचने के लिए रह क्या गया है?’’ रचना ने कहा.

‘‘बिलकुल ठीक कह रही हो, रचना. मैं योगेशजी को फोन कर के कहता हूं कि जब भी सुविधा हो, आ जाएं,’’ और पापा मोबाइल पर नंबर मिलाने लगे.

अर्चना अपने कमरे में आ गई. कुछ देर के बाद नितिन का फोन आया, ‘‘बधाई हो अर्चना, पापा ने अभी बताया कि फोन पर तो हमारी शादी पक्की हो गई है. मिलनेमिलाने की औपचारिकता इस सप्ताहांत यानी 2 रोज बाद हो जाएगी. अब तो खुश हो न?’’

सहारे की तलाश: क्या प्रकाश को जिम्मेदार बना पाई वैभवी?

दिल आज फिर दिमाग से विद्रोह कर बैठा. क्या ऐसी ही जिंदगी की उम्मीद की थी उस ने? क्या ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने? खुद वह कितनी संभावनाओं से भरी हुई थी, अपना रास्ता तलाश कर मंजिल तक पहुंचना वह जानती है, रिश्तों के तारों के छोर सहला कर उन्हें जोड़ना भी उसे आता है. जीवनसाथी ऐसा हो जिस पर नाज कर सके. उस का कोई तो रूप ऐसा हो, वह शारीरिक रूप से ताकतवर हो या मानसिक रूप से परिपक्व हो, खुला व्यक्तित्व हो या फिर आर्थिक रूप से हर सुख दे सके या फिर भावनात्मक रूप से इतना प्रेमी हो कि उस के माधुर्य में डूब जाओ. कोई तो कारण होना चाहिए किसी पर आसक्ति का. प्यार सिर्फ साथ रहने भर से हो सकता है, एकदूसरे की कुछ मूलभूत जरूरतें पूरी करने से हो सकता है. लेकिन आसक्ति, बिना काण नहीं हो सकती.

छलकपट से भरा दिमाग, कभी किसी को निस्वार्थ प्यार नहीं कर सकता और न पा सकता है. ऐसे इंसान पर प्यार लुटाना लुटने जैसा प्रतीत होता है. दिमाग समझता है जिंदगी को नहीं बदल सकते हम. इंसान को नहीं बदल सकते. पति की काबिलीयत, स्वभाव या क्षमता को घटाबढ़ा नहीं सकते, सबकुछ ले कर चालाकी से अपनी टांग ऊपर रखने की आदत को नहीं बदल सकते. पर खुद को बदल सकते हैं, खुद के नजरिए को बदल सकते हैं. दिमाग की यह घायल समझ दिल से आंसुओं के सैलाब में बह जाती है जब दिल नहीं सुन पाता है किसी की, जब दिल खुद से ही तर्क करने लग जाता है. पूरी जिंदगी रीत गई, अब क्या समेटना है. अब तक जिंदगी के हर पहलू को अपने सकारात्मक नजरिए से देखती रही. पर कब तक दिल में उठ रही नफरत को दबाती रहती. क्या किसी ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने जो सिर्फ बिस्तर पर ही रोमांटिक प्रणयी हो.

आज वैभवी के दिल के तार झनझना गए थे. उस के पिताजी ने अपनी छोटी सी जायदाद के 2 हिस्से कर अपने दोनों बच्चों में बांट दिए थे. भैया का परिवार मुंबई में रहता था. उस की नौकरी वहीं पर थी. वह खुद दिल्ली में रहती थी और मांपिताजी चंडीगढ़ में रहते थे. डाक्टर ने पिताजी को हर्निया का औपरेशन कराने के लिए कह दिया था. पिताजी काफी समय से तकलीफ में थे. जब वह पिछली बार चंडीगढ़ गई थी तो मां ने पिताजी की तकलीफ के बारे में उसे बताया था. वह विचलित हो गई थी. उस ने भैया से फोन पर बात की तो भाई ने यह कह कर मजबूरी जता दी थी कि इतनी छुट्टी उसे एकसाथ नहीं मिल सकती कि वह चंडीगढ़ जा कर औपरेशन करा सके और साथ ही मां से तेरी भाभी की बिलकुल नहीं बनती, इसलिए मुंबई ला कर भी औपरेशन की बात नहीं सोच सकता.

‘‘वैसे भी तू जानती है वैभवी, छोटा सा फ्लैट, पढ़ने वाले बच्चे, बीमार आदमी के साथ बडे़ शहर में बहुत मुश्किल हो जाती है,’’ भैया ने मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘तो फिर क्या पिताजी को ऐसे ही तकलीफ में मरने के लिए छोड़ दें,’’ वैभवी के स्वर में तल्खी आ गई थी.

‘‘तो फिर तू चली जा या फिर प्रकाश चला जाए. उस की तो सरकारी नौकरी है, छुट्टी मिलने में इतनी दिक्कत भी नहीं होगी,’’ उस के स्वर की तल्खी भांप कर वह भी चिढ़ गया था.

‘‘लेकिन भैया, बेटे के होते हुए दामाद का एहसान लेना क्या ठीक है?’’ वह अपने को संयमित कर लाचारी से बोली थी.

‘‘क्यों? जब हिस्सा मिला तब तो बेटीदामाद जैसी कोई बात नहीं हुई और जब जिम्मेदारी निभाने की बात आई तो वह दामाद हो गया,’’ भैया भुन्नाता हुआ बोला.

वह दुखी हो गई थी. दिल किया कि कोई तीखा सा जवाब दे दे. पर चुप रह गई. आखिर गलत भी नहीं कहा था. पर यह सब कहने का अधिकार भी भैया को तब ही था जब वह अपने कर्तव्य का हर समय पालन करता.

वह तो जायदाद में हिस्सा बिलकुल भी नहीं चाहती थी. उस ने पिताजी को बहुत मना भी किया था पर एक तो मांपिताजी की जिद और दूसरे, प्रकाश की चाहत भांप कर उस ने हां बोल दी. सोचा, जायदाद पा कर ही सही, प्रकाश उस के मांपिताजी के लिए नरम रुख अपना ले. इस के अलावा जरूरत पड़ने पर उसे चंडीगढ़ जाने में भी आसानी हो जाएगी. एकदम मना नहीं कर पाएगा प्रकाश उसे. पर भैया के व्यवहार में तब से तटस्थता आ गई थी. भाभी तो हमेशा से ही तटस्थ थीं. पर भैया का व्यवहार वैसे सामान्य था. उसे अपनी परवा नहीं थी. बस, मांपिताजी का ध्यान रख ले भैया, इसी से वह खुश रहती. पर भैया के जवाब से उस का दिल टूट गया था. भैया का अगर जवाब ऐसा है तो प्रकाश का जवाब तो वह पहले से ही जानती है. फिर भी उस ने सोचा एक बार तो प्रकाश से बात कर के देख ले. उस से और मां से पिताजी के औपरेशन का तामझाम नहीं संभलेगा. कोई भी परेशानी खड़ी हो गई तो एक पुरुष का साथ तो होना ही चाहिए औपरेशन के समय. प्रकाश का मूड ठीक सा भांप कर एक दिन उस ने प्रकाश से बात कर ही ली.

‘‘पिताजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही है प्रकाश, कल भी बात हुई थी मां से. डाक्टर कह रहे हैं कि समय से औपरेशन करवा लो.’’

‘‘हां तो करवा लें,’’ प्रकाश के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए थे.

‘‘तुम चलोगे चंडीगढ़, कुछ दिन की छुट्टी ले कर?’’

‘‘क्यों, उन के बेटे का क्या हुआ?’’

‘‘किस तरह से बोल रहे हो, प्रकाश. बात की थी मैं ने भैया से, छुट्टी नहीं मिल रही उन्हें. थोड़े दिन की छुट्टी तुम ले लो न. औपरेशन करवा कर तुम आ जाना. फिर कुछ दिन मैं रह लूंगी. फिर थोड़े दिन के लिए भैया भी आ जाएंगे. तो पिताजी की देखभाल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे भी छुट्टी नहीं मिलेगी अभी,’’ कह कर प्रकाश उठ कर बैडरूम की तरफ चल दिया, ‘‘और हां,’’ वह रुक कर बोला, ‘‘तुम भी वहां लंबा नहीं रह सकती हो, यहां खानेपीने की दिक्कत हो जाएगी मुझे,’’ इतना कह कर प्रकाश चला गया.

उस ने भी हार नहीं मानी. और उस के पीछे चल दी, चलतेचलते उस ने कहा, ‘‘प्रकाश, उन्होंने हम दोनों भाईबहन को अपना सबकुछ बांट दिया है तो हमारा भी तो उन के प्रति फर्ज बनता है.’’

‘‘तो,’’ प्रकाश तल्खी से बोला, ‘‘बेटी को ही दिया है क्या, बेटे को नहीं दिया, वह क्यों नहीं आ जाता?’’

‘‘उफ,’’ वैभवी का सिर भन्ना गया. प्रकाश के तर्क इतने अजीबोगरीब होते हैं कि जवाब में कुछ भी कहना मुश्किल है. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक चला जाता है. दिल घायल हो गया. पिताजी के 2 अपंग सहारे प्रकाश और भैया जिन पर पिताजी ने अपना सबकुछ लुटा दिया, जिन्हें पिताजी ने अपना आधार स्तंभ समझा, आज कैसा बदल गए हैं. इस के बाद उस ने प्रकाश से कोई बात नहीं की. चुपचाप अपना रिजर्वेशन करवाया और जाने की तैयारी करने लगी. प्रकाश के तने हुए चेहरे की परवा किए बिना वह चंडीगढ़ चली गई. उस की बेटी इंजीनियर थी और जौब कर रही थी. 2 दिन बाद वह कुछ दिनों की छुट्टी में घर आ रही थी. वैभवी ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत करवाया और चंडीगढ़ चली गई. मां ने वैभवी को देखा तो उन्हें थोड़ा सुकून मिला.

वैभवी को देख मां ने कहा, ‘‘दामाद जी नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारा बेटा आया जो दामाद आता,’’ वह चिढ़ कर बोली, ‘‘बेटी काफी नहीं है तुम्हारे लिए?’’

मां चुप हो गईं. एक वाक्य से ही सबकुछ समझ में आ गया था. पिताजी ने कुछ नहीं पूछा. दुनिया देखी थी उन्होंने. फिर कुछ पूछना और उस पर अफसोस करने का मतलब था पत्नी के दुख को और बढ़ाना. सबकुछ समझ कर भी ऐसा दिखाया जैसे कुछ हुआ ही न हो. पिताजी का जिस डाक्टर से इलाज चल रहा था उन से जा कर वह मिली. औपरेशन का दिन तय हो गया. उस ने प्रकाश व भाई को औपचारिक खबर दे दी. डरतेडरते उस ने पिताजी का औपरेशन करवा दिया. मन ही मन डर रही थी कि कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा. पर पिताजी का औपरेशन सहीसलामत हो गया, उस की जान में जान आई. पिताजी को जिस दिन अस्पताल से घर ले कर आई, मन में संतोष था कि वह उन के कुछ काम आ पाई. पिताजी को बिस्तर पर लिटा कर, लिहाफ उढ़ा कर उन के पास बैठ गई. उन के चेहरे पर उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे जो शायद बेटे के लिए नहीं होते. आज समाज में बेटी को पिता की जायदाद में हक जरूर मिल गया था लेकिन मातापिता अपना अधिकार आज भी बेटे पर ही समझते हैं.

पिताजी ने आंखें बंद कर लीं. वह चुपचाप पिताजी के निरीह चेहरे को निहारने लगी. दबंग पिताजी को उम्र ने कितना बेबस व लाचार बना दिया था. भैया व प्रकाश, पिताजी के 2 सहारे कहां हैं? वह सोचने लगी, उसे व भैया को पिताजी ने कितने प्यार से पढ़ायालिखाया, योग्य बनाया, वह लड़की होते हुए भी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता की जरूरत पर आ गई. लेकिन भैया, वह पुरुष होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता के काम नहीं आ पाए. सच है रिश्ते तो स्त्रियां ही संभालती हैं, चाहे फिर वह मायके के हों या ससुराल के. लेकिन पुरुष, वह ससुराल के क्या, वह तो अपने सगे रिश्ते भी नहीं संभाल पाता और उस का ठीकरा भी स्त्री के सिर फोड़ देता है. पिताजी कुछ दिन बिस्तर पर रहे. उन की तीमारदारी मां और वह दोनों मिल कर कर रही थीं. भैया ने पापा की चिंता इतनी ही की थी कि एक दिन फुरसत से मां व पिताजी से फोन पर बातचीत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘कुछ जरूरत हो तो बता देना, कुछ रुपए भिजवा देता हूं.’’

‘‘उस की जरूरत नहीं है, भैया,’’ रुपए का तो पिताजी ने भी अपने बुढ़ापे के लिए इंतजाम किया हुआ है. उन्हें तो तुम्हारी जरूरत थी. उस ने कुछ कहना चाहा पर रिश्तों में और भी कड़वाहट घुल जाएगी, सोच कर चुप्पी लगा गई और तभी फोन कट गया.

वैभवी 15 दिन रह कर घर वापस आ गई. प्रकाश का मुंह फूला हुआ था. उस ने परवा नहीं की. चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. प्रकाश ने पिताजी की कुशलक्षेम तक नहीं पूछी पर उस की सास का फोन उस के लिए भी और उस के मांपिताजी के लिए भी आया, उसे अच्छा लगा. सभी बुजुर्ग शायद एकदूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं. उस की बेटी वापस अपनी नौकरी पर चली गई थी. पिताजी की हालत में निरंतर सुधार हो रहा था, इसलिए वह निश्ंिचत थी. उस के सासससुर देहरादून में रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि तभी एक दिन उस की सास का बदहवास सा फोन आया. उस के ससुरजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था. वे दोनों तुरंत देहरादून के लिए निकल पड़े. प्रकाश का भाई अविनाश, जो पुणे में रहता था, अपनी पत्नी के साथ देहरादून पहुंच गया. पता चला कि प्रकाश के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. एंजियोग्राफी से पता चला कि उन की धमनियों में रुकावट थी. अब एंजियोप्लास्टी होनी थी.

अविनाश की पत्नी छवि स्कूल में पढ़ाती थी, वह 2-4 दिन की छुट्टी ले कर आई थी. पापा को तो एंजियोप्लास्टी और उस के बाद की देखभाल के लिए लंबे समय की जरूरत थी. प्रकाश के पापा अभी अस्पताल में ही थे. छवि की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. वह वापस जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘मैं भी चलता हूं, भैया,’’ अविनाश बोला, ‘‘छवि अकेले कैसे जाएगी?’’

‘लेकिन अविनाश, पापा को लंबी देखभाल और इलाज की जरूरत है. कुछ दिन हम रुक लेते हैं, कुछ दिन तुम छुट्टी ले कर आ जाओ,’’ प्रकाश बोला.

‘‘भैया, हम दोनों की तो प्राइवेट नौकरी है, इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिल पाएंगी और मम्मीपापा को पुणे भी नहीं ले जा सकता, छवि भी नौकरी करती है,’’ कह कर उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना दोनों पतिपत्नी पुणे के लिए निकल गए.

अब प्रकाश पसोपेश में पड़ गया. बड़ा भाई होने के नाते वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकता था. उस ने सहारे के लिए वैभवी की तरफ देखा. पर वहां तटस्थता के भाव थे. मौका पा कर धीरे से बोला, ‘‘वैभवी, मम्मीपापा को अपने साथ ले चलते हैं, वहां आराम से इलाज और देखभाल हो जाएगी. यहां तो हम इतना नहीं रुक पाएंगे. या फिर एंजियोप्लास्टी करवा कर मैं चला जाता हूं, तुम रुक जाओ, मैं आताजाता रहूंगा.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों रुकूं, फालतू हूं क्या? नौकरी नहीं कर रही हूं? तो क्या मेरी ही ड्यूटी हो गई, छवि या अविनाश नहीं रह सकता यहां?’’

‘‘लेकिन जब वे दोनों जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाह रहे हैं तो पापा को ऐसे तो नहीं छोड़ सकते हैं न. किसी को तो जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां तो, जिम्मेदारी उठाने के लिए सिर्फ हम ही रह गए. और सेवा करने के लिए सिर्फ मैं. कल को पापा की संपत्ति तो दोनों के बीच ही बंटेगी, सिर्फ हमें तो नहीं मिलेगी, मुझ से नहीं होगा.’’ कह कर पैर पटकती हुई वैभवी कमरे से बाहर निकल गई. बाहर लौबी में सास बैठी हुई थीं, उदास सी. उन का हाथ पकड़ कर किचन में ले गई वैभवी. उन्होंने सबकुछ सुन लिया था, उन के चेहरे से ऐसा लग रहा था. आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. चेहरे पर घोर निराशा थी.

‘‘मां,’’ वह उन का चेहरा ऊपर कर के बोली, ‘‘खुद को कभी अकेला मत समझना, हम हैं आप के साथ और आप की यह बेटी आप की सेवा करने के लिए है, मुझ पर विश्वास रखना, मैं प्रकाश के साथ सिर्फ नाटक कर रही थी, मैं उन्हें कुछ एहसास दिलाना चाहती थी, मुझे गलत मत समझना. आप के पास कुछ भी न हो, तब भी आप के बच्चों के कंधे बहुत मजबूत हैं, वे अपने मातापिता का सहारा बन सकते हैं.’’

सास रो रही थीं. उस ने उन्हें गले लगा लिया. सास को सबकुछ मालूम था, इसलिए सबकुछ समझ गई थीं. मांबेटी जैसा रिश्ता कायम कर रखा था वैभवी ने अपनी सास के साथ. और हर प्यारे रिश्ते का आधार ही विश्वास होता है. उस की सास को उस पर अगाध विश्वास था.

‘‘मां, चलने की तैयारी कर लो चुपचाप. यहां लंबा रहना संभव नहीं हो पाएगा. आप और पापा हमारे साथ चलिए, दिल्ली में अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी और पापा की देखभाल भी हो जाएगी, आप बिलकुल भी फिक्र मत करो, मां. सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर डाल कर निश्ंिचत रहो. पापा की देखभाल हमारी जिम्मेदारी है.’’ सास का मन बारबार भर रहा था. वे चुपचाप अपने कमरे में आ गईं. वैभवी भी अपने कमरे में गई और अटैची में कपड़े डालने लगी. प्रकाश सिटपिटाया सा चुपचाप बैठा था. वह स्वयं जानता था कि वह वैभवी को कुछ भी बोलने का अधिकार खो चुका है. अटैची पैक करतेकरते वैभवी चुपचाप प्रकाश को देखती रही. अपनी अटैची पैक कर के वैभवी प्रकाश की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘तुम्हारी अटैची भी पैक कर दूं.’’

‘‘वैभवी, एक बार फिर से सोच लो, पापा को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकते हम. मुझे तो रुकना ही पड़ेगा, लेकिन नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी मेरे लिए भी संभव नहीं है. मांपापा को साथ ले चलते हैं, वरना कैसे होगा उन का इलाज?’’

प्रकाश का गला भर्राया हुआ था. वह प्रकाश की आंखों में देखने लगी, वहां बादलों के कतरे जैसे बरसने को तैयार थे. अपने मातापिता से इतना प्यार करने वाला प्रकाश, आखिर उस के मातापिता के लिए इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?

पिताजी की याद आते ही उस का मन एकाएक प्रकाश के प्रति कड़वाहट और नकारात्मक भावों से भर गया. लेकिन उस के संस्कार उसे इस की इजाजत नहीं देते थे. वह अपने सासससुर के प्रति ऐसी निष्ठुर नहीं हो सकती. कोई भी इंसान जो अपने ही मातापिता से प्यार नहीं कर सकता, वह दूसरों से क्या प्यार करेगा. और जो अपने मातापिता से प्यार करता हो, वह दूसरों के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनेआप में डूबा देख कर प्रकाश उस के सामने खड़ा हो गया, ‘‘बोलो वैभवी, क्या सोच रही हो, पापा को साथ ले चलें न? उस ने प्रकाश के चेहरे पर पलभर नजर गड़ाई, फिर तटस्थता से बोली, ‘‘टैक्सी बुक करवा लो जाने के लिए.’’

कह कर वह बाहर निकल गई. प्रकाश कुछ समझा, कुछ नहीं समझा पर फिर घर के माहौल से सबकुछ समझ गया. पर वैभवी उसे कुछ भी कहने का मौका दिए बगैर अपने काम में लगी हु थी. तीसरे दिन वे मम्मीपापा को ले कर दिल्ली चले गए. पापा की एंजियोप्लास्टी हुई, कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद पापा घर आ गए. उन की देखभाल वैभवी बहुत प्यार से कर रही थी. प्रकाश उस के प्रति कृतज्ञ हो रहा था. पर वह तटस्थ थी. उस के दिल का घाव भरा नहीं था. प्रकाश को तो उस के पिताजी की सेवा करने की भी जरूरत नहीं थी. उस ने तो सिर्फ औपरेशन के वक्त रह कर उन को सहारा भर देना था, जो वह नहीं दे पाया था. उस के भाई के लिए भलाबुरा कहने का भी प्रकाश का कोई अधिकार नहीं था. जबकि उस ने अपना भी हिस्सा ले कर भी अपना फर्ज नहीं निभाया था. ये सब सोच कर भी वैभवी के दिल के घाव पर मरहम नहीं लग पा रहा था. पापा की सेवा वह पूरे मनोयोग से कर रही थी, जिस से वह बहुत तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. उस के सासससुर उस के पास लगभग 3 महीने रहे. उस के बाद सास जाने की पेशकश करने लगीं पर उस ने जाने नहीं दिया, कुछ दिनों के बाद उन्होंने जाने का निर्णय ले लिया. प्रकाश और वैभवी उन्हें देहरादून छोड़ कर कुछ दिन रुक कर, बंद पड़े घर को ठीकठाक कर वापस आ गए.

सबकुछ ठीक हो गया था पर उस के और प्रकाश के बीच का शीतयुद्ध अभी भी चल रहा था, उन के बीच की वह अदृश्य चुप्पी अभी खत्म नहीं हुई थी. प्रकाश अपराधबोध महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कैसे बताए वैभवी को कि उसे अपनी गलती का एहसास है. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. वह समझ रहा था कि इस तरह बच्चे मातापिता की जिम्मेदारी एकदूसरे पर डालेंगे तो उन की देखभाल कौन करेगा. कल यही अवस्था उन की भी होगी और तब उन के बेटाबेटी भी उन के साथ यही करें तो उन्हें कैसा लगेगा. एकाएक वैभवी की तटस्थता को दूर करने का उसे एक उपाय सूझा. वह वैभवी को टूर पर जाने की बात कह कर चंडीगढ़ चला गया. प्रकाश को गए हुए 2 दिन हो गए थे. शाम को वैभवी रात के खाने की तैयारी कर रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उस ने जा कर दरवाजा खोला. सामने मांपिताजी खड़े थे.

‘‘मांपिताजी आप, यहां कैसे?’’ वह आश्चर्यचकित सी उन्हें देखने लगी.

‘‘हां बेटा, दामादजी आ गए और जिद कर के हमें साथ ले आए, कहने लगे अगर मुझे बेटा मानते हो तो चल कर कुछ महीने हमारे साथ रहो. दामादजी ने इतना आग्रह किया कि आननफानन तैयारी करनी पड़ी.’’

तभी उस की नजर टैक्सी से सामान उतारते प्रकाश पर पड़ी. वह पैर छू कर मांपिताजी के गले लग गई. उस की आंखें बरसने लगी थीं. पिताजी के गले मिलते हुए उस ने प्रकाश की तरफ देखा, प्रकाश मुसकराते हुए जैसे उस से माफी मांग रहा था. उस ने डबडबाई आंखों से प्रकाश की तरफ देखा, उन आंखों में ढेर सारी कृतज्ञता और धन्यवाद झलक रहा था प्रकाश के लिए. प्रकाश सोच रहा था उस के सासससुर कितने खुश हैं और उस के खुद के मातापिता भी कितने खुश हो कर गए हैं यहां से. जब अपनी पूरी जवानी मातापिता ने अपने बच्चों के नाम कर दी तो इस उम्र में सहारे की तलाश भी तो वे अपने बच्चों में ही करेंगे न, फिर चाहे वह बेटा हो या बेटी, दोनों को ही अपने मातापिता को सहारा देना ही चाहिए.

मेरा संसार: अतीत और वर्तमान के अंतर्द्वंद्व में उलझे व्यक्ति की कहानी

प्यार की किश्ती में सवार मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरा साहिल कौन है, रचना या ज्योति? एक तरफ रचना जो सिर्फ अपने बारे में सोचती थी. दूसरी ओर ज्योति, जिस की दुनिया मुझ तक और मेरी बेटी तक सीमित थी.

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया. मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती?

कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है.

यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए.

जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है. तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता.

मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है.

जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं?

हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे. संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई.

मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है.

पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद. किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है.

गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है.

उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं.

ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है.

ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है. तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं.

फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ.

‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’

कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है.

ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है? इसलिए कि मैं अकेला हूं?

रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को.

बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का.

घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है. फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है.

सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है.

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