सुषमाजी ने छोटी के मुंह पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘चुप हो जाओ छोटी… भाभीजी सुन लेंगी तो उन्हें कितना बुरा लगेगा.’’ ‘‘अम्मां, आप ने हमेशा हम तीनों को ही चुप कराया है.’’
अभी तक ईशा भी आ गई थी, ‘‘जब ताईजी पापा के सामने रो रही थीं तो बताओ भला पापा कैसे उन्हें यहां न लाते.’’ वह बोली. ‘‘ईशा दीदी, तुम तो सब भूल गई हो, लेकिन मैं ताईजी की बातें जिंदगी भर नहीं भूल सकती. याद नहीं है, जब भरत भैया ने तुम्हारी कौपी पानी में फेंक दी थी, तो तुम फूटफूट कर घंटों रोई थीं. तब ताई कैसे डांट कर बोली थीं कि कौपी ही तो भीगी है, फिर से लिख लेना. ऐसे दहाड़ें मार कर रो रही हो जैसे तेरा कोई सगा मर गया हो.’’
इरा बात संभालने के लिए बोली, ‘‘छोटी, भूल जाओ यार, जो बीत गया उसे भूलना ही पड़ता है.’’ ‘‘अम्मां आज डिनर में क्या खिला रही हो?’’
‘‘तुम तीनों जो कहेंगी बना दूंगी.’’ छोटी तुरंत चिल्ला पड़ी, ‘‘अम्मां मेरे लिए दही वाले आलू और परांठे बनाना.’’
‘‘ठीक है, सब के लिए यही बना दो,’’ ईशा और इरा ने भी छोटी की बात का समर्थन किया. ‘‘तुम तीनों अपने बच्चों को छोड़ कर आई यह बहुत गलत किया. बच्चों के बिना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है.’’
‘‘अम्मां, आजकल बच्चे हम लोगों की तरह अपनी मम्मी का पल्लू पकड़ कर नहीं रहते. उन की बहुत व्यस्त दिनचर्या होती है. किसी की क्लास, किसी की कोचिंग, किसी की पार्टी, तो किसी का कैंप. उन के पास इतना समय नहीं होता कि वे अपनी मम्मी के साथ 2-4 दिन इस तरह खराब करें.’’ सुषमा के साथ तीनों बेटियां अपने कमरे में आ गईं. शोे केस में लगी बार्बी डौल पर निगाह पड़ते ही इरा बोल पड़ी, ‘‘छोटी, देख तेरी पहली वाली बार्बी डौल आज तक अम्मां ने संभाल कर रख रखी है.’’
‘‘अम्मां की तो पुरानी आदत है… कूड़े को भी सहेज कर रखेंगी.’’
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ईशा भी कुछ याद कर के बोली, ‘‘याद है हम लोगों ने जब इस की शादी की थी. शादी अच्छी तरह निबट गई. खानापीना भी हो गया था. विदा करने के समय छोटी अपनी डौल को ले कर भाग गई थी. राधिका से लड़ाई कर के बोली थी कि मुझे नहीं देनी अपनी गुडि़या. तुम से मेरी आज से कुट्टी, किसी के समझाने से भी यह नहीं मानी थी.’’
तभी अम्मां की आहट से उन का ध्यान बंट गया.
‘‘अम्मां खाना बन गया?’’ इरा ने पूछा. ‘‘कब का. मैं ताई को खिला भी चुकी. तेरे पापा भी खा चुके हैं. मैं इंतजार करतीकरती थक गई तो तुम लोगों के पास आ गई कि देखूं मेरी रचनाएं कमरे में बैठी क्या बातें कर रही हैं.’’
ईशा प्यार से मां से लिपट कर बोली, ‘‘पहले की तरह किचन से डांट कर पुकारतीं तो मजा आ जाता.’’ ‘‘बेटा तब बात और थी. अब कहां रहे
वे दिन.’’ ‘‘अम्मा आप ने परांठे नहीं सेंके?’’
‘‘2 दिनों के लिए आई हो… गरमगरम खिलाऊंगी कि ठंडे परोसूंगी.’’ प्यार से अम्मां से लिपटते हुए छोटी बोली, ‘‘आज अम्मां के लिए मैं परांठे सेंकूंगी… पहले आप खाएंगी, फिर हम तीनों.’’
सुषमाजी की आंखें भर आईं. इस तरह प्यार से तो उन्होंने अपने बचपन में अपनी मां के हाथों ही खाया था. फिर डबडबाई आंखों से बोलीं, ‘‘छोटी अब बड़ी और जिम्मेदार बन गई है. लगता है अपनी मम्मीजी को ऐसे ही प्यार से खिलाती है.’’ यह सुनते ही छोटी के चेहरे का रंग उड़ गया.
सुरेशजी को बैठा देख ईशा बोली, ‘‘अरे पापा, आज आप भी अभी तक जाग रहे हैं.’’ ‘‘अपनी लाडलियों के साथ बैठने की चाह में आज इन्हें नींद कहां?’’
‘‘अम्मां आज हम लोग पहले की तरह जमीन पर बैठ कर खाएंगे. कितना मजा आता था जब हम तीनों बहनें एक परांठे के 3 टुकड़े कर के साथसाथ खाती थीं.’’ इरा कुहनी मारते हुए बोली, ‘‘दीदी, पापा को अच्छा नहीं लगेगा.’’
‘‘नहींनहीं, तुम तीनों को एकसाथ वैसे ही खाते देख कर खुशी होगी मुझे, क्योंकि पहले तो इसलिए डांटता था कि तुम लोग टेबल मैनर्स अच्छी तरह सीख सको.’’ ‘‘हां पापा, आप ने ही तो हम लोगों को हाथ में कांटा पकड़ना सिखाया था,’’ कह तीनों खाना खा कर अपने कमरे में पलंग पर पसर गईं. पीछेपीछे सुषमाजी भी आ गईं.
‘‘आप लेटो अम्मां. आज थक गई होंगी.’’ ‘‘तुम लोग लेटो… मैं तो देखने आई थी कि देख लूं कुछ जरूरत तो नहीं है.’’
‘‘पापा सो गए क्या?’’ हां, पापा तो लेटते ही खर्राटे भरने लगते हैं. उन की तो पुरानी आदत है. मुझे ही नींद नहीं आती. घंटों करवटें बदलती रहती हूं. ‘‘अम्मां आप कुछ कमजोर दिख रही हैं… चेहरे पर परेशानी सी झलक रही है. किसी भी तरह की कोई दिक्कत हो तो बताओ न.’’
‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पापा मेरा बहुत खयाल रखते हैं. अभी तो हम दोनों बिलकुल ठीक हैं… कल किसी को कोई तकलीफ हुई तो क्या होगा, बस यही चिंता सताती है.’’ तीनों बहनें उठ कर सुषमाजी से लिपट कर बोलीं, ‘‘हम किस मर्ज की दवा हैं… यह कैसे सोच लिया आप ने कि आप दोनों अकेले हैं… हम लोग दिन भर में 2-3 बार आप को क्यों फोन करते हैं? इसीलिए न?’’
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‘‘आओ आज हमारे साथ ही लेटो, कह तीनों बहनों ने उन्हें पकड़ कर अपने साथ लिटा लिया.’’ ‘‘तभी बिजली चली गईं. गरमी से सभी पसीनापसीना हो गईं.’’
‘‘बिजली का क्या भरोसा कब आए. चलो छत पर लेटते हैं,’’ ईशा बोली तो तीनों बहनें छत पर आ गईं.
एक अरसे बाद छत पर लेटने का आनंद ही अनूठा था. सिर पर चमकता पूर्णिमा का चांद, ठंडी बयार जैसे अमृत बरसा रही हो. अनगिनत चमकते तारे देख तीनों बहनें अपने बचपन में खो गईं…
ईशा कहने लगी, ‘‘न्यूयौर्क और लंदन के फ्लैट और होटल वाली व्यस्त जिंदगी में इस स्वर्णिम अनूठे आनंद की अनुभूति करना संभव ही नहीं है. काश, बच्चे भी हम लोगों के साथ आते.’’ इरा कुछ याद करते हुए बोली, ‘‘हम लोग छोटे थे तब कैसे पूरी छत पर बिस्तर लगते थे. अम्मां मिट्टी की सुराही ले कर ऊपर आती थीं. सुराही के पानी में मिट्टी की कितनी सोंधीसोंधी महक आती थी.’’
पुरानी यादों के साए में सब की आंखों की नींद उड़ी हुई थी. ‘‘भरत भैया और लखन भी हम लोगों के साथ ही सोने की जिद करते थे, लेकिन ताईजी हमेशा उन्हें डांट कर बुला लेती थीं,’’ छोटी बोली.
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