परंपरा के नाम पर यह कैसा अंधविश्वास

आज सुबहसुबह मौर्निंग वाक पर जाते समय सामने वाली भाभीजी से लिफ्ट में मुलाकात हो गई. आमतौर पर 9 बजे तक सोई रहने वाली सासबहू को इतनी सुबहसुबह सजाधजा देख कर मैं चौंक गई और बोली, ‘‘अरे, आज इतनी सुबहसुबह कहां चल दीं आप दोनों?’’

‘‘आज शीतला सतमी है न तो उसी की पूजा करने पास के मंदिर में जा रहे हैं,’’ अपने हाथों में पूजा के थाल की ओर इशारा कर के वे बोलीं और फिर वे दोनों तो कार में बैठ कर पूजा करने चली गईं पर मैं सोच में पढ़ गई कि आज के समय में भी ये पढ़ीलिखीं महिलाएं चेचक जैसी बीमारी के प्रकोप से बचने के लिए शीतला सप्तमी की पूजा कर के पूरा दिन 1 दिन पूर्व बना बासा खाना खा रही हैं.

इसी प्रकार का एक व्रत होता है वट सावित्री का जिस में महिलाएं यमदूत से भी लड़ कर मृत्यु लोक से अपने पति को वापस ले आने वाली सावित्री देवी की पूजा वरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर करती हैं. इस दिन वे सभी युवा मौडर्न महिलाएं जो कभी लोअरटीशर्ट और जींसटौप के अलावा अन्य किसी परिधान में नजर नहीं आतीं वे सभी सिंदूर से लंबीलंबी मांग भर, हाथों में भरभर चूडि़यां और साड़ी पहने सोलहशृंगार में नजर आती हैं.

घरेलू अंधविश्वास

आगरा शहर के जानेमाने सर्जन की 35 वर्षीय पत्नी सुमेधा पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल है. हरतालिका व्रत में अपने घर की पूजा का सुखद बयां करते हुए वे कहती है ‘‘अपार्टमैंट की सभी महिलाएं हमारे घर पर ही एकसाथ पूजा करतीं हैं. निर्जल व्रत करने से शरीर रात्रि तक जबाब दे देता है. चूंकि रात्रि जागरण करना इस पूजा में अनिवार्य है इसलिए हम सभी मिल कर भजन करते हैं जिस से जागरण काफी आसान हो जाता है.’’

इस व्रत को जहां महिलाएं अपने सुखद दांपत्य के लिए तो कुंआरी लड़कियां अच्छे वर यानी उन्हें भी शंकरजी जैसा वर प्राप्त हो सके.

इन प्रमुख व्रतों के अतिरिक्त बिहार की छठ पूजा, करवाचौथ, सोलह सोमवार, मकर संक्रांति, अनंत चतुर्दशी, नवरात्रि, संतान सप्तमी, हलछठ और महाशिवरात्रि जैसी अनेकों पूजाएं हैं जिन में अधिकांश भारतीय स्त्रियां कभी वरगद, कभी चंद्रमा, कभी सूर्य, कभी बेलपत्र तो कभी शिवपार्वती की पूजा कर के उन से अपने सुखद दांपत्य, पति की दीर्घायु, बेटे के उत्तम स्वास्थ्य और परिवार के कल्याण आदि का वरदान मांगती नजर आती हैं.

ये उदाहरण समाज की हर उम्र की तथाकथित शिक्षित महिलाओं की सोच की एक छोटी सी बानगी मात्र हैं, जिन में कामकाजी हों या घरेलू अंधविश्वासों से भरे इन पूजापाठों में सभी की मानसिकता एक ही स्तर की होती. वास्तव में अंधविश्वास, पूजापाठ, पंडेपुजारियों का डर और धर्म की भेड़चाल ऐसे प्लेटफौर्म हैं जहां पर शिक्षित, अशिक्षित, उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय सभी महिलाओं की सोच एकसमान हो जाती है.

आखिर महिलाएं ही क्यों पिसती हैं

प्रश्न यह उठता है कि आखिर इन धार्मिक क्रियाकलापों में महिलाएं ही क्यों फंसी रहती हैं? क्यों वे पूरे परिवार की सलामती का ठेका अपने सिर पर लिए बाबाओं और मंदिरों के चक्कर लगाती रहती हैं? क्यों अपनी खुद की सेहत और प्रगति के बारे में सोचने के स्थान पर पूजापाठ, मंदिरों और कथाप्रवचनों में खुद को व्यस्त किए रहती हैं? आइए, एक नजर डालते हैं उन कारणों पर:

स्त्री को कमजोर बनाती है

नवरात्रि में बालिकाओं ?को देवी का दर्जा प्रदान कर के उन के पैर पूजन करना, लड़कियों से घर के बड़ों के पैर नहीं छुआना, कन्यादान, बेटियों के घर का कुछ भी खाने से पाप लगता है और कन्या को देवी का दर्जा देने, मरणोपरांत बेटे के द्वारा मुखाग्नि देने से ही मोक्ष मिलता है जैसी अनेक मान्यताएं और रस्में हमारे समाज में व्याप्त हैं जिन के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से स्त्रियों को बाल्यावस्था से ही उन्हें उन के कमजोर और अबला होने का एहसास कराया जाता है.

इस से बाल्यावस्था से ही लड़कियों के मन में यह एहसास उत्पन्न हो जाता है कि घर के पुरुषों के मुकाबले वे कमजोर और समाज की दोयम दर्जे की नागरिक हैं. इस के परिणामस्वरूप वे बाल्यावस्था से ही मानसिक और भावनात्मक रूप से कमजोर और परिवार के पुरुषों पर आश्रित होती जाती हैं.

इस बावत एक कालेज स्टूडैंट अस्मिता कहती है, ‘‘तुम लड़की हो फलाना काम नहीं कर सकती, देर रात अकेली बाहर नहीं जाना जैसे अनेक सामाजिक मानदंड हैं जिन्हें सुन कर ही हम बड़े होते हैं और कहीं न कहीं मन में यह बैठ जाता है कि हम समाज या परिवार के दूसरे श्रेणी के ही नागरिक हैं.’’

बड़ों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति

बाल्यावस्था से ही लड़कियां अपनी मां, दादी या नानी को इस प्रकार की पूजाएं करते देख कर ही बड़ी होती हैं और इतने वर्षों तक निरंतर देखतेदेखते उन के अंदर डर बैठ जाता है कि यदि पूजाओं की इन परंपराओं को आगे नहीं बढ़ाया गया या विधिवत पूजाअर्चना नहीं की गई तो कभी भी परिवार या पति का अहित हो सकता है. बस अपनी इसी मानसिकता के चलते वे अपने परिवार और पति की सलामती के लिए इन्हें करती हैं.

ससुराल में भी सासूमां के द्वारा रस्मोरिवाज के नाम पर ऐसी ही अनगिनत परंपराओं को निभाना सिखाया जाता है. भले ही आज लड़कियां बाहर होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रही हैं परंतु दूर रह कर भी माताएं उन्हें अंधविश्वास के जाल से निकलने नहीं देतीं. शिवरात्रि से एक दिन पूर्व हीरेवा ने होस्टल में रहने वाली अपनी इकलौती बेटी को फोन किया, ‘‘याद है न कल शिवरात्रि का व्रत रखना है?’’

‘‘हां मां याद है इतने सालों से तो तुम रखवाती रही हो तो कैसे भूल सकती हूं.’’

अंधविश्वास के ये बीज लड़कियों के मन में अपनी इतनी गहरी पैठ बना लेते हैं कि चाह कर भी वे इन से मुक्त नहीं हो पातीं. सौफ्टवेयर इंजीनियर रीमा कहती है, ‘‘मु?ो पता है कि करवाचौथ व्रत से मेरे पति की उम्र पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, मेरा बीमार बेटा नजर उतारने से नहीं बल्कि डाक्टर को दिखाने से ही ठीक होगा पर फिर भी इन्हें न करने को मन नहीं मानता.’’

माताओं के द्वारा वर्षों से अपनी बेटियों को दी गई अतार्किक शिक्षा के कारण लड़कियां आजीवन इस मकड़जाल से बाहर ही नहीं निकल पातीं और पीढ़ी दर पीढ़ी इन परंपराओं को आगे बढ़ती रहती हैं.

धर्मभीरु स्वभाव और पंडेपुजारी

आज भी भारतीय समाज में अधिकांश महिलाएं धर्मभीरु स्वभाव की होती हैं और परिवार की सुरक्षा तथा जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिए अंधविश्वासों, चमत्कारों और पंडेपुजारियों का सहारा लेती हैं. ये पुजारी उन के मन में भय उत्पन्न करते हैं कि यदि आप ने पूजा नहीं की तो परिवार के सदस्यों को आर्थिक या शारीरिक हानि हो सकती है जिस के कारण महिलाएं भयग्रस्त हो पूजापाठ में व्यस्त रहती हैं.

प्रत्येक व्रतउपवास के लिए धर्म के ठेकेदारों ने एक पुस्तक तय की है. व्रतउपवास के अनुसार उस पुस्तक की कहानी को पढ़ना आवश्यक होता है और उस पुस्तक में महिलाओं को डराने और कमजोर बनाने वाली कथा ही लिखी होती है.

इस के अतिरिक्त ये पुजारी अपनी आजीविका के लिए आमजन में धार्मिक भय उत्पन्न कर देते हैं, जिस से भयभीत हो कर महिलाएं इन के चंगुल में फंस जाती हैं.

लेखिका नीता कुछ वर्षों पूर्व अपने साथ हुई एक घटना का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘‘हमारे नएनवेले घर में एक पारिवारिक मित्र अपने किसी पुजारी गुरु को ले कर आए. उन पंडितजी ने हमारे यहां कुछ भी नहीं खाया. काफी देर रुकने के बाद जाते समय गेट पर वे मुझ से बोले के बेटा, मैं ने अपनी नजर से तुम्हारा पूरा घर देखा. सबकुछ बहुत अच्छा है परंतु हौल के एक कोने में एक बुरी आत्मा का वास है. यदि तुम ने इसे ठीक नहीं करवाया तो यह आत्मा इस घर के मुखिया का नाश कर देगी. परंतु चिंता की कोई बात नहीं है मैं अगली बार आऊंगा तो सब ठीक कर दूंगा,’’ कहते हुए उन्होंने अपने आने तक दीपक जलाने, मंत्रों का जाप करने जैसे कुछ उपाय मुझे बताए.

‘‘उन्होंने मुझे पकड़ा ही इसलिए कि मैं डर जाऊंगी. परंतु मैं एक लेखिका हूं और हमेशा दिल के स्थान पर दिमाग से काम लेती हूं. ये पंडितजी भी तो एक इंसान ही हैं और ये कैसे मेरा भलाबुरा बता सकते हैं. आज इस घटना को 10 साल हो गए हैं और हमारा परिवार पूरी तरह सुरक्षित और निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है.’’

तार्किक शिक्षा का अभाव

शहरी क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो आज भी पुरुषों के अनुपात में महिलाओं की शिक्षा का स्तर  बेहद कम है जिस के कारण उन की सोचने समझने की क्षमता बहुत कम हो जाती है. शहरी क्षेत्रों में इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाली आज की पीढ़ी को दी जाने वाली शिक्षा में तर्क के स्थान पर रटने वाली शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाता है जिस से युवा पीढ़ी में तार्किक क्षमता का अभाव पाया जाता है. इस कारण से वह किसी भी विषय पर तर्क शक्ति का प्रयोग करने के स्थान पर भेड़चाल में चलना अधिक पसंद करती है.

आज भी इंग्लिश माध्यम के स्कूलों में पढ़ीं और इन स्कूलों में अध्यापन कार्य करने वाली अनेक आधुनिकाएं अपने बच्चों और पति की सलामती के लिए व्रत रखतीं और नमक, तेल, राई, मिर्च से हरदम नजर उतारती पाई जाती हैं.

सूर्यग्रहण के दौरान 35 वर्षीय एक प्रशासनिक अधिकारी शेफाली ने न तो भोजन बनाया, न खाया और न ही घर से बाहर निकली, यही नहीं सूर्यग्रहण की अवधि के उपरांत शाम को स्नान भी किया जिस से अगले दिन बीमार भी हो गई. इस दौरान शेफाली जैसी अनेक इंग्लिश माध्यम से शिक्षा प्राप्त, घरों में आधुनिकतम फ्रिज का प्रयोग करने वाली तथाकथित आधुनिकाएं ग्रहण को निष्प्रभावी करने के लिए भोजन में कुश, दूब और तुलसी के पत्ते डालते नजर आईं, जबकि सूर्य और चंद्रग्रहण मात्र एक खगोलीय घटना है.

महिलाओं का संकुचित दृष्टिकोण

हमारे समाज में जहां लड़कियों का पालनपोषण बंधन और वर्जनाओं से युक्त किया जाता है वहीं लड़कों का पालनपोषण स्वच्छंद और उन्मुक्त से परिपूर्ण होता है. जैसे ही एक बालिका किशोरावस्था में कदम रखती है उस पर परिवार का संरक्षण और पाबंदियां बढ़ा दी जाती हैं. घर से बाहर निकलने, सखियोंसहेलियों से बात करने के लिए कठोर नियम बना दिए जाते हैं वहीं लड़कों पर इस प्रकार का कोई बंधन नहीं होता.

उन के बड़े होने के साथसाथ उन्मुक्तता भी बढ़ती जाती है. बाहर की दुनिया देख कर वे बहुतकुछ सीखते हैं जिस से लड़कियों की अपेक्षा उन के सोचने का नजरिया अधिक विस्तृत होता है.

भले ही आज अभिभावक अपनी बेटियों को बाहर भेज कर पढ़ रहे हैं परंतु वहां भी उन पर अप्रत्यक्ष रूप से अनेक पाबंदियां लगाई जाती हैं जिस से उन के व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता और उन का दृष्टिकोण संकुचित ही रह जाता है. इसीलिए वे आगे चल कर अपने परिवार के पुरुषों का अनुगमन करती नजर आतीं हैं.

पुरुषप्रधान समाज

भारतीय समाज पुरुषप्रधान समाज है जहां अकसर परिवार का मुखिया पुरुष होता है और अधिकांश घरों में कमाने वाला एकमात्र जरीया भी. सदियों से महिला को भजन, पूजन और सत्संग जैसे अनेक धार्मिक क्रियाकलापों का उत्तरदायित्व सौंप कर पुरुष अपनी मनमरजी करते रहे हैं और यही परंपरा आज भी चली आ रही है.

यही नहीं कई बार तो महिलाएं धर्मकर्म और पूजा में इतनी अधिक व्यस्त हो जाती हैं कि इस से उन का दांपत्य जीवन तक प्रभावित हो जाता है, पतिपत्नी का परस्पर रिलेशनशिप तक ढकोसलों और अंधविश्वासों की गिरफ्त में आ जाती है और फिर अपने रिश्ते को बचाने के लिए वे धर्म के ठेकेदारोंऔर पुजारियों का सहारा लेती नजर आती हैं.

तोड़ना होगा इस जाल को

यह सही है कि सदियों से समाज में चली आ रही इस भेड़चाल को रोकना काफी मुश्किल है परंतु जब तक महिलाएं स्वयं अपने पैरों में पड़ी इन बेडि़यों को नहीं तोड़ेंगी तब तक उन के व्यक्तित्व का समुचित विकास होना असंभव है और इस के लिए दिल नहीं दिमाग की तार्किक क्षमता का उपयोग करना होगा. समाज की पुरानी पीढ़ी के स्थान पर युवतियों को अपनी सोच को उन्नत बनाने के साथसाथ पुरानी पीढ़ी को भी बदलाव की ओर अग्रसर करना होगा क्योंकि आगे आने वाला युग पूर्णतया तकनीक पर आधारित होगा.

ऐसे में आगे आने वाली पीढ़ी को भी मानसिक रूप से सशक्त बनाए जाने की आवश्यकता है ताकि इन सब से दूर रह कर महिलाएं स्वयं अपने निर्णय ले कर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकें.

दिमाग का हो सही जगह उपयोग

दोस्तों के साथ बाहर जाने से मना करने पर या मर्यादित ड्रैस पहनने को कहने जैसी छोटीछोटी बातों पर लौजिक की बात करने वाली आज की युवा पीढ़ी धर्म के मामले में भेड़चाल का अंधानुकरण करने में कोई परहेज नहीं करती. एक नामीगिरामी कालेज से एमबीबीएस कर रही श्रेया एकादशी पर चावल न खाने का कारण पूछने पर कहती है, ‘‘पता नहीं मां और दादी ऐसा करती हैं तो मैं भी कर रही हूं.’’

वहीं तर्क पर भरोसा करने वाली इंटीरियर डिजाइनर ईवा कहती है, ‘‘मेरे लिए मेरा कर्म ही पूजा है. आम मम्मियों की तरह मेरी मां भी अकसर मु?ो अंधविश्वासों से भरी अनेक पूजाएं और व्रत करने के लिए कहती हैं. उस के उत्तर में मैं बस मां से यही कहती हूं, ‘‘यदि आप की ये भेड़चाल वाली पूजाएं मु?ो बिना काम किए पैसे दे दें तो मैं सब करने को तैयार हूं,’’ बस यहां मां चुप हो जाती है.

सोचने की बात है कि कोई भी पूजा, बाबा या मंदिर हमारा भला या बुरा कैसे कर सकता है. 2 युवा और मेधावी बच्चों की मां अनामिका कहती है, ‘‘जब बचपन में मेरे बच्चे बीमार पड़ते थे तो हर इंसान मु?ो नमकमिर्च से इन की नजर उतारने को कहता पर मैं ने कभी उन की नजर नहीं उतारी क्योंकि मेरा मानना है कि बच्चे की परेशानी आग में नमकमिर्च जलाने से नहीं बल्कि डाक्टरी इलाज से दूर होगी सो मैं हमेशा डाक्टर के पास ही गई.’’

विज्ञान और तर्क समझें

दकियानूसी परंपराओं, मान्यताओं, भेड़चालों से मुक्ति का एकमात्र रास्ता है अपने ज्ञानचक्षुओं को हरदम खुला रखना. किसी भी कार्य को महज इसलिए न किया जाए कि मेरे परिवार में होता आया है. मेरी मां या सास ऐसा ही करती थीं तो मैं ने भी कर लिया के स्थान पर इसे क्यों करें इस पर विचार करना होगा.

हमारे तथाकथित बाबा, पंडेपुजारी और धर्मरक्षक भी इस तथ्य को भलीभांति जानते हैं कि महिलाएं स्वभाव से भावुक और परिवार की सुरक्षा के प्रति अति संवेदनशील होती हैं, घर की महिला के अंदर परिवार की असुरक्षा का भय उत्पन्न करने से उन का कार्य आसान हो जाएगा. इसीलिए वे अपने जाल में महिलाओं को ही फंसाते हैं.

एक कर्नल की पत्नी मंजुल सिंह कहती हैं, ‘‘मेरे विवाह को 45 वर्ष हो गए. आज तक कभी कोई व्रत नहीं रखा. यहां तक कि जब ये युद्ध पर गए तब भी नहीं. आज तक हम कभी किसी बाबा के दरबार या मंदिर में नहीं गए क्योंकि मु?ो लगता है कि कोई भी व्रतउपवास कैसे मेरे पति की रक्षा कर सकता है. यही नहीं हमारे इस लंबे सुखद वैवाहिक जीवन में हम पतिपत्नी में कभी विवाद या अबोला तक नहीं हुआ क्योंकि सुखद दांपत्य के लिए किसी पूजापाठ, बाबा, मंदिर या व्रतउपवास की नहीं बल्कि आपसी प्यार, सम?ादारी और एकदूसरे की भावनाओं की कद्र करने की आवश्यकता होती है.’’

भेदभाव रहित हो पालनपोषण

आजकल अधिकांश मातापिता कहते हैं कि हम अपने बेटे और बेटी के पालनपोषण में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते परंतु क्या सच में वे अपनी बेटियों को मानसिक रूप से कमजोर कर देने वाली खोखली धार्मिक रस्मों और

रिवाजों से बचा पाते हैं? स्त्री को मानसिक रूप से मजबूत बनाने के लिए उसे कन्यादान, पैर पूजन और देवी का दर्जा देने जैसी अनेक कुरीतियों से बचाना होगा

पैर छूने की बनावटी परंपरा

लार्जस्कैल जुए को लैजिटिमैसी देने के लिए खेले जाने वाले क्रिकेट के इंडियन प्रीमियर लीग में देश की बहुत रूचि रहती है. कुछ तो इसे टैलीविजन पर तमाशा मान कर चलते हैं और 10 टीमों में से किसी एक को अपनी टीम का उन की जीत पर लड्डू बांटते हैं और हार पर मुंह लटका कर हाथ का पिज्जा स्लाइस और हार्डङ्क्षड्रक का गिलास फैंक देते हैं. पर उन से ज्यादा वे है जो हर बौल, हर विकेट और हर रन पर बैट लगाते हैं और इस जुएं में सैंकड़ोंहजारों करोड़ दुनियाभर में लगते हैं. इन का आयोजन करने वाली कोई और द बोर्ड औफ कंट्रोल फौर क्रिकेट इन इंडिया जिस के मुखिया गृहमंत्री अमित शाह के टेलैंटेड बेटे जय शाह की सालाना आय करोड़ों रुपए है, जिस पर टैक्स भी नहीं देना पड़ता.

इस बार एक तमाशा और हुआ जिस में शायद किसी ने जुआ में पैसा नहीं लागया था. वह था आईपीएल में फाइनल जीतने पर रङ्क्षवद्र जडेजा का मैदान में साड़ी पहन कर भाग कर उस की पत्नी रिवाबा जडेजा का आना और उस समय पैर छूना जब सैकड़ों कैमरे पलपल कैच कर रहे थे.

उस के बाद जहां भक्त टाइप के लोगों ने जम कर हिंदू संस्कृति का ढोल बजाया, उदारवादी लोगों ने इसे रिग्रैसिव कदम बताया जिस में पति को परमेश्वर मानने की झूठ औरतों के मन में ठूंस रखी है. यदि प्लांल्ड था, ऐसा नहीं लगता पर यह पक्का औरतों को एक कदम पीछे तो ले जाने वाला है. यह उस गुलामी की सोच की जीतीजागती तस्वीर है जिस में पति ही नहीं कितनों के पैर छूने की बनावटी परंपरा को आदर्श और संस्कार ही नहीं अनुशासन माना जाता है.

पैर छूना एक बेहद अपमानजनक काम है. यह छूने वाला का आत्मविश्वास छीनने का काम करता है. बड़ेबूढ़े, सब से पहले हर छोटे को. बहू को, पैर छूने का आदेश देते हैं ताकि उन की एरोगैंस और उन की पावर का छूने वाले को हरदम एहसास रहे.
पैर छूना, हाथ मिलाने या नमस्ते करने से कहीं अधिक अपनेआप को गिराने वाला काम है. यह दंडवत या साष्टांग प्रणाम की नौटंकी जैसी है. हर युग में सैंकड़ों ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जिस में पैर छूने वाले ने उसी को अपमानित किया जिस के पैर छुए गए थे. पुराणों में ऐसे बहुत से मामले मिल जाएंगे. भीएम व द्रोणाचार्य की बागों से हत्या ऐसा ही काम है.

औरतों को करवाचौथ पर ही नहीं, सैंकड़ों मौकों पर उन पतियों के पैर छूने को मजबूर किया जाता है जो ङ्क्षहसक हैं, दंभी हैं, गुस्सैंल हैं या नकारा हैं. पत्नी के पैसे पर चलते पति के भी पैर छूने जरूरी हो जाता है. उस ससुर के पैर छूने पड़ते हैं जो गालियों की बौछार करते हैं. उस जेठ के पैर छूने होते हैं जिस की सैक्सी निगाहों से बचना कठिन होता है.
भारतीय जनता पार्टी की विधायक रिवाबा जडेजा अपनी पार्टी की लाइन के हिसाब से काम कर कर रही हो पर मलेच्छों के खेलों में जीत पर पति के पैर छू कर वह क्या साबित करना चाहती है- पति तो परमेश्वर है.

मौत की सवारी बनती रेलगाड़ी

मौत का सामना हर घर को करना पड़ता रहता है चाहे वह बीमारी से हो, अपराध के कारण हत्या से हो या दुर्घटना से. जहां पहले से मौत की आशंका हो, घर के लोग पहले से आपदा के लिए तैयार रहते हैं पर जहां दुर्घटना से मौत हो तो उसे अपराध के सामान हुई मौत माना जाता है, जिस में मरने वाली की अपनी खुद की कोई गलती नहीं थी. बालासोर, उड़ीसा में हावड़ा चैन्नई के बीच चलने वाली कोरोमंडल ‘ऐक्सप्रैस, बैंगलुरु हावड़ा सुपरफास्ट’ ऐक्सप्रैस और एक लोहे के खनिज से भरी गुड्स टे्रन की टक्कर में मरे 300 (जो बढ़ते जाएंगे क्योंकि 1000 लोग अस्पतालों में हैं) लोगों के परिवारों ने अगर जान खोई तो कोई न कोई गुनहगार है.

अफसोस यह है रोतेपीटते परिवारों में मौतों के लिए कोई अपनी गलती भी नहीं मानेगा. नाममात्र का मुआवजा दे कर, घटनास्थल पर दर्शन दे कर रेलों को हरी झंडी दिखाने वाले प्रधानमंत्री और रेलमंत्री अपने अपराधभाव से मुक्त हो जाएंगे घर के घर रोते रह जाएंगे जहां दूसरों की गलतियों से उन के घर के लोग मरे.

रंजिश में हुई हत्या, घर में तनाव के कारण हुई आत्महत्या, बीमार के कारण मौत पर सामने अपराधी खड़ा होता है. अगर बाहर का होता है तो उस पर मुकदमा चलता है. रोड ऐक्सीडैंट में अगर दूसरे की गलती से मौत होती है तो दूसरा या तो दुर्घटना में खुद भी मर कर मुआवजा देता है या उस पर जीवनभर मुकदमा चलता है.

यह रेल दुर्घटना ऐसी सामूहिक हत्या है जिस में मरने वालों के घर वालों को यह भी सांत्वना नहीं है कि अपराधियों को सजा मिलेगी. दिल्ली में 3 दशक पहले एक सिनेमाघर उपहार में आग में मरने वालों की बड़ी संख्या थी और सिनेमा मालिकों को बरसों जेल में काटने पड़े थे.

यहां क्या होगा. रेल के मालिक प्रधानमंत्री और रेलमंत्री पर मुकदमा चलाने की मांग तो कोई करने का साहस भी नहीं कर सकता. अब जांच कमेटी बना दी गई जो लीपापोती करेगी और ह्यïूमन एरा कह कर 500 पेज की रिपोर्ट और सैंकड़ों सिफारिशें दे कर  मामले को बंद कर देगी.

जो वंदे भारत ट्रेनों का श्रेय ले रहा है, जो स्टेशनों को भव्य बनाने का श्रेय ते रहा है, क्या वह उन आंसूओं का जिम्मेदार नहीं है जो मरने वालों के अजीजों की आंखों से महीनेसालों बहेंंगेे.

ट्रेन दुर्घटना में जो मरे वे अपनी गलती से नहीं मरे. किसी की तो गलती थी. कानून ने उपहार कांड में और दूसरे कई मामलों में उस की जिम्मेदारी भी मानी जिस के पास फैसले लेने का हक है. उन आंसूओं की कीमत अगर कोई होती तो कई लोग अब तब जेलों में होते. अब तक तो राहत का पैसा भी नहीं मिला जबकि इन ट्रेनों में कामगार मजदूर भरे थे जिन्हें पैसे तुरंत चाहिए होते हैं.

आदमी की मौत कितनी सस्ती है वह यह हादसा बताता है.

उन का तो काम गंद फैलाना है

एक बड़ा सा विज्ञापन देकर देश की 10 प्लास्टिक का सामान बनाने वाली ऐसीसिएशनों ने सरकार से अपील की है कि माइक्रो व स्मौज प्लास्टिक प्रोड्यूसर्स को सरकार के क्रूर इंस्पैक्टर राज वाले एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पौंसिविलिटी रेगूलेशनों से मुक्ति दिलाई जाए. कहने को तो यह दुहाई ऋषि विश्वामित्र के राजा दशरथ के दरबार में राक्षसों से आश्रम बचानें जैसी है पर यह भूल गए कि दशरथ के साथ भेजने से राक्षस (जो भी लोग वे इस कथा में थे) खत्म नहीं हुए.

रामलक्ष्मण द्वारा राक्षसों को विश्वामित्र को भगा देने के बाद भी लंका सोने की बनी रही और रावण के मरने के बाद भी वह समाप्त नहीं हुई विभीषण के हाथ में गई और फलीफूली. इसलिए प्रधानमंत्री से बड़ा विज्ञापन दे कर इंस्पैक्टर राज के क्रूर हाथों से मुक्ति मिलेगी, यह प्लास्टिक प्रोड्यूसर भूल जाएं.

बड़ी बात है कि देश में प्लास्टिक से प्रदूषण के लिए प्रोड्यूसर नहीं हमारी वह धाॢमक संस्कृति है जो कचरा फैलाने को हर रोज प्रोत्साहित करती है. प्लास्टिक को जो उपयोग करते हैं, वे समझते हैं कि धर्म ने सफाई करने की जिम्मेदारी किसी और पर डाल रखी है और उन का काम गंद फैलाना है. चाहे प्लास्टिक की हो या कागज की या पत्तों व मिट्टी के पक्के बरतनों से.

प्लास्टिक उद्योग ने देश की जनता का बड़ा भला किया है. करोड़ों टन खाना आज प्लास्टिक के कारण बरबाद नहीं होता क्योंकि उसे प्लास्टिक में लाया ले जाया जाता है और घर व फ्रिजों में रखा जाता है. एक छोटी सी थैली ले कर बड़ेबड़े टैंक तक प्लास्टिक के बन रहे हैं जिन्होंने जीवन को सरल व सस्ता बनाया है. प्लास्टिक का इस्तेमाल आज इतनी जगह हो रहा है कि गिनाना संभव नहीं है.

प्लास्टिक का इस्तेमाल करने वालों की नैतिक व कानूनी जिम्मेदारी है कि वे खुद अपने फैलाए गंद को साफ करें, यह काम और कोई नहीं करने आएगा. गाय का कुत्तों का मल सडक़ों पर है तो उन के मालिकों या संरक्षकों का काम है कि वे उसे साफ करें.

पर जैसे गोबर व गौमूत्र का गुणगान करना सिखा दिया गया है और उसे सहने की और सडऩे पर बदबू की आदत धर्म ने देश की जनता को डाल दी है, वही आदत प्लास्टिक के इस्तेमाल में डली हुई है. अच्छे से अच्छा जमा प्लास्टिक की थैलियों से ले कर खराब हो गए डब्बे, ड्रम सडक़ों पर डाल देता है. रिसाइकल वाले ले जाते हैं पर जिस को रिसाइकल न किया जा सके वह पड़ा रह जाता है. सालभर में देश की 30-35 लाख टन प्लास्टिक की वेस्ट अगर सडक़ों पर पड़ी रहती है तो जिम्मेदारी बनाने वाली की नहीं, इस्तेमाल करने वालों की है.

उस से बड़ी जिम्मेदारी सरकारी विभागों की है जो प्लास्टिक वेस्ट को उठाने, उसे सही ढंग से डिस्पोजबल करने के तरीके नहीं ईजाद कर रहे या लागू कर रहे. नगर निकायों से ले कर केंद्रीय सचिवालय तक प्लास्टिक कचरा निबटान पर कोई सोच नहीं है. सिर्फ बैन कर देना समस्या का हल नहीं है.

आज हर तरह की तकनीक मिल रही है. प्लास्टिक दिखने वाला प्रदूषण न फैलाए इस के लिए तो हर घर में मशीनें लगाई जा सकती हैं जो प्लास्टिक को कंप्रैस कर दें. नगर निकाय इन को तुरंत उठा कर रिसाइकल प्लांटों को दे सकते हैं. इन्हें जलाने की जगह इन्हें हाई प्रेस कर के भराव के काम में आसानी से लाया जा सकता है जहां आज मिट्टी पत्थर का इस्तेमाल होता है. यह समस्या इतनी विकराल नहीं है जितनी हम ने बना रखी है.

दिक्कत यही है कि हम जैसे अपनी गरीबी, बीमारी, संकटों के लिए पंडितों की बनाई बात कि यह पिछले जन्मों के पापों का फल है, मान लेते हैं. प्लास्टिक पोल्यूशन के लिए प्लास्टिक प्रोड्यूसर्स को दोषी मान रहे हैं. यह टके सेर यानी, टके फेर खाजा, अंधी प्रजा काना राजा वाली कहानी को दोहराता है.

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न

यौन उत्पीड़न एक तरह का व्यवहार है. इसे यौन प्रकृति के एक अवांछित व्यवहार के रूप में परिभाषित किया गया है. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न दुनिया में एक व्यापक समस्या है चाहे वह विकसित राष्ट्र हो या विकासशील राष्ट्र या अविकसित राष्ट्र, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार हर जगह आम है. यह पुरुषों और महिलाओं दोनों पर नकारात्मक प्रभाव देने वाली एक सार्वभौमिक समस्या है. यह विशेष रूप से महिला लिंग के साथ अधिक हो रहा है.

कोई कितना भी बचाव, निषेध, रोकथाम और उपचार देने का प्रयास करता है, फिर भी ऐसा उल्लंघन हमेशा होता रहता है. यह महिलाओं के खिलाफ अपराध है, जिन्हें समाज का सबसे कमजोर तबका माना जाता है. इसलिए उन्हें कन्या भ्रूण हत्या, मानव तस्करी, पीछा करना, यौन शोषण, यौन उत्पीड़न से लेकर सबसे जघन्य अपराध बलात्कार तक, इन सभी प्रतिरक्षाओं को सहना पड़ता है. किसी व्यक्ति को उसके लिंग के कारण परेशान करना गैरकानूनी है.

 

यौन उत्पीड़न अवांछित यौन व्यवहार है, जिससे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की उम्मीद की जा सकती है जो आहत, अपमानित या डरा हुआ महसूस करता है. यह शारीरिक, मौखिक और लिखित भी हो सकता है.

यौन उत्पीड़न में कई चीज़ें शामिल हैं:

  • वास्तविक या बलात्कार का प्रयास या यौन हमला.
  • जानबूझकर छूना, झुकना, मुड़ना या चुटकी बजाना.
  • चिढ़ाना, चुटकुले, टिप्पणी, या प्रश्न.
  • किसी पर सीटी बजाना.
  • किसी कर्मचारी के कपड़े, बाल या शरीर को छूना.
  • किसी अन्य व्यक्ति के आसपास खुद को यौन रूप से छूना या रगड़ना.

कार्यस्थल छोड़ने का मुख्य कारण :

सितंबर 2022 में जारी यूएनडीपी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 2021 में लगभग 36% से घटकर 2022 में 33% हो गया। कई प्रकाशनों ने कई मूल कारणों की पहचान की, जिनमें महामारी, घरेलू दायित्वों में वृद्धि और शादी एक बाधा के रूप में शामिल है. लेकिन क्या यही एकमात्र कारण हैं? नहीं, जिन अंतर्निहित कारणों पर हम अक्सर विचार करने में विफल रहे हैं उनमें से एक कार्यस्थल में उत्पीड़न है, जिसके कारण महिलाएं या तो कार्यबल छोड़ देती हैं या इसमें प्रवेश करने के लिए अनिच्छुक होती हैं.

महिलाओं ने वित्तीय रूप से स्वतंत्र बनकर, सरकारी, निजी और गैर-लाभकारी क्षेत्रों में काम करके समाज के मानकों को तोड़ने की कोशिश की है, जो उन्हें मालिकों, सहकर्मियों और तीसरे पक्ष से उत्पीड़न के लिए उजागर करता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, कार्यस्थल या कार्यालय में यौन उत्पीड़न के 418 मामले दर्ज किए गए. लेकिन ये संख्या केवल एक उत्पीड़न को इंगित करती है. अधिकांश लोगों का मानना है कि कार्यस्थल उत्पीड़न केवल यौन प्रकृति का हो सकता है लेकिन वास्तव में, विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न से संबंधित विभिन्न श्रेणियां हैं, जो सभी कर्मचारी को मानसिक रूप से प्रभावित करती हैं, जिससे अपमान और मानसिक यातना होती है जिसके परिणामस्वरूप उनकी कार्य क्षमता में कमी आती है और काम से छूटना होता है.

कुछ महिलाएं अभी भी कार्यस्थल में उत्पीड़न के खिलाफ कारवाही करने से डरती हैं. उन्ही महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की कुछ उल्लेखनीय शिकायतें जो राष्ट्रीय सुर्खियों में आईं, निम्नलिखित द्वारा दायर की गईं:

  1. रूपन देव बजाज, (आईएएस अधिकारी), चंडीगढ़ ने ‘सुपर कॉप’ के.पी.एस. गिल के खिलाफ की शिकायत.
  2. देहरादून में पर्यावरण मंत्री के खिलाफ अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ की एक कार्यकर्ता ने शिकायत की दर्ज.
  3. मुंबई में अपने सहयोगी महेश कुमार लाला के खिलाफ एक एयरहोस्टेस ने की कंप्लेन.

शिकायत कैसे दर्ज कर सकते हैं :

  • शिकायत घटना के 3 महीने के भीतर लिखित रूप में की जानी चाहिए. घटनाओं की श्रृंखला के मामले में, पिछली घटना के 3 महीने के भीतर रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए. वैध परिस्थितियों पर समय सीमा को और तीन महीने तक बढ़ाया जा सकता है.
  • शिकायतकर्ताओं के अनुरोध पर, जांच शुरू करने से पहले समिति सुलह में मध्यस्थता करने के लिए कदम उठा सकती है. शारीरिक/मानसिक अक्षमता, मृत्यु या अन्य किसी स्थिति में कानूनी उत्तराधिकारी महिला की ओर से शिकायत कर सकता है.
  • शिकायतकर्ता जांच अवधि के दौरान स्थानांतरण (स्वयं या प्रतिवादी के लिए) 3 महीने की छुट्टी या अन्य राहत के लिए कह सकता है.
  • जांच शिकायत के दिन से 90 दिनों की अवधि के भीतर पूरी की जानी चाहिए। गैर-अनुपालन दंडनीय है.

बोलने की आजादी के नाम पर जहर फैला रहे है

व्हाट्सएप और ट्विटर अब के नहीं रहेंगे जो अब तक थे. लगता है उन में खुल कर हेट स्पीच और फेक न्यूज देने के दिन लदने लगे हैं. अंधभक्तों की एक बड़ी फौज ने उस बहुत ही उपयोगी मीडिया का जो गलत इस्तेमाल अपना जातिवादधर्मवाद और पुरुषबाद फैलाने के लिए किया था वह कम होने लगा है. सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में साफ कहा है कि हेट स्पीच देने वालों के खिलाफ पुलिस को खुद एक्शन शुरू करना होगा. व्हाट्सएपट्विटरइंस्टाग्रामफेसबुकयूंट्यूव इसी हेट स्पीच ने बलबूते पर पनत रहे थे.

यह आम बात है कि जहां आपस में 4 जने झगडऩे लगें. 40 लोग तमाशा देखने के लिए खड़े हो जाते हैं. आज की औरततों का सब से बड़ा पार टाइम कोई विवादकिसी की चुगलीकिसी के घर का झगड़ा है. किट्टी पाॢटयों में किस के घर में क्या हुआ की बात होती हैक्या अच्छा करा जाए की नहीं.

व्हाट्सएपफेसबुकइंस्टाग्रामट्विटर के माध्यम से हेट स्पीच और फेक न्यूज की खट्टीमीठी गोली ऐसे ही नहीं दी जाती है. इस के पीछे बड़ा उद्देश्य है पूजापाठ करने वालों के चंदा जमा करनामंदिरों के लिए भीड़ जुटानाघरों में दान करने की लत डालनाआम जनता को तीर्थों में ले जानाआम औरत को बहकाकर पति या सास के अत्याचार से बचने के लिए व्रतपाठमन्नत का सहारा लेना जिस से धर्म की दुकान पर सोना बरसे.

यह ऐसे ही नहीं है कि देश भर में मंदिरोंभक्तोंआश्रणोंबाबाओं की खेती दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है. इस में व्हाट्सएपट्विटरइंस्टाग्राम और फेसबुक का बड़ा हाथ है जिस पर धर्म के दुकानदार बुरी तरह छाए हुए है ओर हर पोज में बड़ा चौड़ा बखान किया जाता है. फेक न्यूज और हेट स्पीच के लिए आए लोग इस प्रचार से प्रभावित होते ही हैं.

एल्ट न्यूज चलाने वाले मोहम्मद जुबेर पर पोस्को एक्ट में शिकायत करने पर दिल्ली हाई कोर्ट ने अब शिकायतों के खिलाफ मुकदमा दायरकरने का आदेश दिया है. मोहम्मद जुबैर के खिलाफ शिकायत करने वाले ने ट्वीटर पर एक तीखे कमेंट धर्म को लेकर किए थे जिस पर जुबेर ने कहा था कि महाश्य गालियां बकने से पहले कम से कम डीपी से अपनी पोती का फोटो तो हटा दो. इस पर चाइल्ड एब्यूज का मामला बना डाला गया और पुलिस ने तुरंत जुबेर को गिरफ्तार भर कर लिया. सुप्रीम कोर्ट ने इसे रिहा कर दिया और अब पुलिस कहती है कि अपराध बनता ही नहीं है. यह नहीं बताती कि जब अपराध बनता ही तो गिरफ्तार क्यों किया था.

पुलिस अफसरो को तो सजा हाई कोर्ट ने नहीं दी है पर शिकायती के खिलाफ झूठी शिकायत का मुकदमा करने का आदेश दे दिया है. व्हाट्सएपइंस्टाग्रामफेसबुकट्विटर पर फेक न्यूज डालने वालों के यह चेतावनी है. मजा तब आएगा जब इन्हें फौरवर्ड करने वालों को भी बराबर का अपराधी माना जाने लगे. दानपुण्य की दुकान चलाने के लिए धाॢमक पंडों ने पूरे समाज को कितने ही टुकड़ों में बांट डाला है. औरतों को तो अलगअलग माना जाता रहा हैअब सब धर्मों ही नहीं जातियों को टुकड़ों में बांट दिया है.

इन डिजिटल प्लेटफार्मों पर दलितकुर्मीअहीरजाटराजपूरब्राह्मïवैश्व गु्रप बने हुए हैं जिन में अपनाअपना बखान किया जाता है. फेक न्यूज से हर जाति अपने को महान बता रही है. हरेक के अपने मंदिरपुजारी हैं. ये प्लेट फार्म अलगाव को बुरी तर फैला रहे हैं.

मोबाइल आज फोन नहीं मशीनगन बन गया है जो आप के दिमाग को भून सकता है और आप इस से सैंकड़ों के दिमाग भूल सकते हैं.

ब्रजभूषण शरण सिंह बनाम पहलवान: न्याय में देरी क्यों?

सैंकड़ों ऐसे मामले हैं जिन में किसी युवती या औरत की बिना सुबूत शिकायत पर बलात्कारछेड़छाड़बैड टच पर पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया और वह महीनों सालों जेल में छोड़ा. आश्चर्य की बात है कि देश के लिए दुनिया भर से तरहतरह के गोल्डसिल्वरब्रौंज मेडल लाने वाली पहलवान लड़कियों के खुले आरोपों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने ब्रजभूषण शरण सिंहजो रैसलिंग फेडरेशन औफ इंडिया का प्रमुख है और  वह भाजपा नेता हैको पुलिस छू तक नहीं रही.

भारतीय जनता पार्टी काबिले तारीफ है कि वह अपने कर्मठ सपोर्टर की इस हद तक सुरक्षा करती है कि जब 2 महीने से ये रैसलर युवतियां जंतरमंतर पर बैठ कर धरना दे रही हैं तो भी नेता को बचाने की कोशिश हो रही है. जब इन रैसलर्म और उन के मर्थकों ने संसद पर 28 मई को जाने की कोशिश की तो पुलिस ने उन की जम कर ऐसी धुनाई की जो उन्होंने ओलंपिक और दूसरे खेल टूर्नामैंटों ने नहीं सही हो. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.

यही नहीं उन के जेल में ले जाते समय बस में खींचे फोटो को फोटोशौप से मुरझाए चेहरों को मुस्कराते चेहरे बना दिए गए और पार्टी के विशाल डवैल सिस्टम में डाल कर साबित करने की कोशिश थी कि ये लड़कियां बस में पुलिस के पहरे में पिकनिक पर जा रही हैं.

असल में देश में कुश्ती को कोई खास इज्जत आज भी नहीं दी जाती क्योंकि इस में आने वाली लड़कियां समाज के पिछड़े वर्गों से आती हैं. जो बात आमिर खां ने अपनी फिल्म दंगल’ में दिखाई थी वही असल में हो रहा है कि ये पिछड़ी लड़कियां हावी न हो सकें. मामला चाहे बलात्कार का हो या न हो.

अगर सरकाररैसलिंग फेडरेशन और बाकी खेल फेडरेशन इस मामले में चुप हैं तो इसलिए कि सब बंटे हुए हैं और किसी को भी लड़कियों की छेडख़ानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

पहलवानों की कुश्तियां हमेशा इस देश में गरीबों का खेल समझ गया है. यह तो सिर्फ क्रिकेट है जो अंग्रेजी नबाबों का खेल था जिस में अच्छे घरों के लोग गए थेहांकीफुटबालहमारे अमीरों के खेल नहीं है. महिला क्रिकेट को भी वह भाव नहीं मिलता जो पुरुष क्रिकेट को मिलता है क्योंकि उस में पिछड़ी जातियों की लड़कियां हैं.

एक तो कुश्ती जैसा खेल की खिलाड़ी और ऊपर से लड़कियांउन्हें भला भाव कैसे दिया जा सकता है. यहां तो ऊंची जातियों की औरतों को भी पैर की जूती समझा जाता है और उन्हें सेवा करने की ट्रेङ्क्षनग जन्म होते ही दी जाती है. अच्छी औरत वही है जो पितापतिसांसससुरघर में मंदिरपंडोंपुजारियों और बच्चों की सेवा करे. वह आवाज उठाए तो चाहे चाहे जितनी जोर की होदबानी ही होगी. जंतरमंतर पर बैठी रैसलर्स अपना धर्म भूल गई हैं कि वे टुकड़ों के बदले सेवा के लिए हैबराबरी की इज्जत पाने का हक नहीं मांग सकती है.

दुनिया अब बूढ़ों के हाथों में

कर्नाटक की विधान सभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी  ने 33 वर्षीय तेजतर्रार हिंदुत्व का  झंडा ऊंचा करने वाले कट्टर ब्राह्मण तेजस्वी सूर्या को चुनावी सभाओं में भाषण देने की सूची में शामिल नहीं किया और चुनाव का सारा भार 80 साल के बीएस यदुरप्पा पर डाल दिया.

वैसे भी भारतीय जनता पार्टी में आजकल 2 ही नेता (बाकी अंधभक्तदरियां बिछाने वाले और फूल बरसाने वाले) बचे हैं. ये दोनों नेता मोदी 72 वर्ष के हैं व शाह 58 साल के. एक जमाने में भारतीय जनता पार्टी उन युवाओं से भरी होती थी जो हर मसजिद को तोड़ने को आमादा रहते थेहर लड़केलड़की को इकट्ठा बैठे देख कर गरियाते थेहर पढ़ेलिखे को अरबन नक्सल कहते थे और ये स्कूलों से ले कर विश्वविद्यालयों तक आरएसएस शाखाओं के कारण भरे रहते थे.

यही कुछ अमेरिका में हो रहा है. अमेरिका में इस बार 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में जो बाइडेन डैमोक्रेटिक पार्टी के कैंडीडेट होंगे और रिपब्लिकन पार्टी के शायद पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दूसरी टर्म के लिए.

2024 में जो बाइडेन 82 साल के होंगे और ट्रंप 78 साल के जिस का मतलब है कि 2028 में टर्म खत्म होने पर जो बाइडेन 86 के होंगे और ट्रंप 82 के होंगे. मोदी अगर 2024 में जीतते हैं तो 2029 में 79 वर्ष के होंगे.

यह दुनिया अब बूढ़ों के हाथों में जा रही है और एक जगह बूढ़ों की भरमार हो रही है. इंगलैंड के नए राजा चार्ल्स 73 साल की आयु में गद्दी पर बैठेरूस के पुतिन 70 साल के हैंशी जिनपिंग 70 साल के हैंसिंगापुर के ली सीन लूंग 71 साल के हैंजापान के फुमियो किशिदा 64 साल के हैं.

युवा नेता न अब संसदों में दिख रहे हैंन मंत्रिमंडलों में और न ही कंपनियों की चेयरमैनी में.

यह ठीक है कि लोग ज्यादा जी रहे हैं और बच्चे कम हो रहे हैं और इसलिए दुनियाभर की पौपुलेशन सफेद बालों वाली हो रही है और जब लोगों को रिटायर होना चाहिए तब भी काम पर चले जा रहे हैं.

फिर भी युवाओं को इस तरह कौर्नर में डाल देना गलत है. आज राजनीति में जो एक बार कुरसी पर आ जाता हैचिपक कर बैठ जाता है. कांग्रेस में सोनिया गांधी चिपकी हुई हैंसमाजवादी पार्टी में हाल ही में मुलायम सिंह की मृत्यु के बाद ही अखिलेश को मौका मिला. राष्ट्रीय जनता दल आज भी बीमार लालू यादव के हाथों में है. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में 68 साल की उम्र में 13 साल से सर्वेसर्वा बनी बैठी हैं.

अमेरिका होयूरोपएशिया या अफ्रीका सब जगह आज नया उत्पादननई टैक्नोलौजी बिलकुल जवानों के हाथों में है. कोडिंग 15-16 साल वालों के हाथों मेंडिजाइनिंग और प्रोडक्शन 20-25 साल वालों के हाथों में है पर शासन पूरी तरह सफेद बालों वालों के हाथों में है जो अपने पुराने घिसेपिटे 20वीं सदी के विचार थोप रहे हैं.

यूक्रेन में लड़ाई बूढ़ी सोच की देन है. आज का युवा इंटरनैट से हरेक से जुड़ा है. उस का किसी से बैर नहीं है. वह कम में गुजारा कर सकता है. उसे म्यूजिक पार्टी चाहिए. उसे न घर चाहिएन बीवीन बच्चे. वह अलग जीव है21वीं सदी का पर उसे जो बाइडेनडोनाल्ड ट्रंपचार्ल्सशी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी की पिछली सदी की सोच में जीना पड़ रहा है.

इंटरनैट ने दुनिया को एक कर दिया तो युवाओं के बल पर. इन बूढ़े नेताओं ने इसे फिर बांट दिया है- अमेरिकीरूसीचीनी कैंपों में.

जातिधर्म का मजाक लाए रिश्ते में खटास

अपने समय के लोकप्रिय और विवादित कहानीकार सआदत हसन मंटो की कहानी ‘दो कौमें’ में दिखाया गया है कि मुख्तार जोकि मुसलिम परिवार का लड़का है एक हिंदू लड़की शारदा के प्यार में पड़ जाता है. दोनों शादी करना चाहते हैं, लेकिन धर्म अलगअलग होने से वे कतरा रहे हैं. एक दिन मुख्तार इस प्रौब्लम को सौल्व कर लेता है और शारदा से अपनी खुशी जाहिर करते हुए कहता है कि अब हमारी शादी हो सकती है. मैं ने अपने घर वालों को मना लिया है. बस तुम अपना धर्म बदल कर मुसलमान बन जाओ.

यह सुन कर शारदा हैरान हो जाती है और बदले में उसे ही अपना धर्म बदलने को कहती है. मुख्तार अपना धर्म बदलने से इनकार कर देता है. यह सुनते ही शारदा उसे वहां से चले जाने की बात कहती है. इस तरह धर्म ने 2 प्रेमियों को हमेशाहमेशा के लिए जुदा कर दिया.

न सिर्फ धर्म बल्कि जाति भी 2 प्यार करने वालों को अलग करने का ही काम करती आई है. लेकिन गलती इस में उन लोगों की भी है जो इसे ले कर मजाक उड़ाते हैं. सोशल मीडिया पर पढ़ कर आने वाले अकसर इन छोटी बातों को नजरअंदाज कर देते हैं. वे यह नहीं देखते कि 50% आरक्षण तो ऊंची जातियों के पास है ही. उन्हें पिछड़े वर्ग का 21% या अनुसूचित जातियों के 15% आरक्षण से चिढ़ इतनी होने लगती है कि वह व्यक्तिगत संबंधों में आड़े आ जाती है.

संविधान के अनुच्छेद 16(4) में पिछड़े वर्ग के नागरिकों को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. इस के तहत अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया गया है.

दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दे कर आरक्षण इसीलिए दिया गया था क्योंकि वे हिंदू समाज में व्याप्त जाति प्रथा के चलते सदियों से भेदभाव का सामना कर रहे थे. रिजर्वेशन देने का उद्देश्य उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना था.

प्यार धर्म, जाति से परे हैं. न यह धर्म देखता है और न ही जाति. यह तो केवल आपसी जुड़ाव देखता है जो कहीं भी, कभी भी किसी से भी हो सकता है. इस पर किसी का कोई बस नहीं है. इस की कई मिसालें हमें बौलीवुड में देखने को मिलती हैं जैसे शाहरुख खान और उन की वाइफ गौरी, सैफ अली खान और करीना कपूर, रितेश देशमुख और जेनेलिया डिसूजा, अरशद वारसी और मारिया गोरेट्टी आदि.

कड़वी सचाई

मगर यह भी कड़वी सचाई है कि जब रिलेशनशिप में धर्म, जाति संबंधी कोई मजाक आ जाता है तो यह मतभेद पैदा कर देता है और कभीकभी तो यह रिश्ता भी खत्म कर देता है इसलिए इसे हमेशा रिलेशनशिप से दूर ही रखना चाहिए.

बौलीवुड फिल्म ‘आरक्षण’ हमारे देश के आरक्षण मुद्दे को उठाती है. फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे वंचित बच्चों को शैक्षिक अवसर प्रदान करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सार्वजनिक रूप से समर्थन करने के बाद एक सम्मानित कालेज प्रिंसिपल को बरखास्त कर दिया जाता है. वह एक स्थानीय गौशाला में वंचित बच्चों के छोटे समूहों को पढ़ा कर वापस लड़ता है. इस से हम सम?ा सकते हैं कि हमारे देश में किस तरह धर्म और जाति अपने पैर पसारे हुए हैं. 2014 में 70 हजार से अधिक लोगों के सर्वेक्षण में केवल 5% शहरी लोगों ने कहा कि उन के परिवार में किसी ने अपने धर्म के बाहर विवाह किया.

शाहिद शेख बताते हैं कि उन की एक हिंदू गर्लफ्रैंड अदिति (बदला हुआ नाम) थी. वे दोनों 3 साल तक लिव इन रिलेशनशिप में भी रहे. वे बताते हैं कि जब कभी उन की गर्लफ्रैंड के दोस्त घर आते तो वह उन के साथ मिल कर उस के धर्म का मजाक उड़ाते हुए कहते कि ये लोग तो अपनी चचेरी बहन को भी नहीं छोड़ते. वे कहते हैं कि हां. हमारे धर्म में ऐसा होता है लेकिन बारबार ऐसे हमारे धर्म को टारगेट करना सही नहीं है.

तो प्यार हो जाएगा कम

आसिफ खान अपनी राय देते हुए कहते हैं कि धर्म और जाति काफी सैंसिटिव टौपिक है और इसे ले कर कभी कोई मस्ती, मजाक नहीं करना चाहिए और प्यार में तो बिलकुल भी नहीं. ऐसा करने से आप और आप के पार्टनर के बीच दूरियां आ सकती हैं और आप अपने प्यार को हमेशाहमेशा के लिए खो भी सकते हैं. इसलिए बेहतर होगा कि आप कभी भी अपने पार्टनर से उस के धर्म, जाति से रिलेटेड कोई मजाक न करें.

किसी भी रिश्ते में सम्मान कितना जरूरी है इसे सम?ाने के लिए जूही की कहानी जाननी बहुत जरूरी है. जूही मुसलिम है और उन्होंने हिंदू राजपूत लड़के से शादी की है. वे कहती हैं कि कामयाब शादी के लिए धर्म और जाति से ज्यादा प्यार और सम्मान महत्त्वपूर्ण है. जूही कहती हैं कि उन की शादी को 9 साल बीत गए हैं. इन वर्षों में हम ने एकदूसरे को सम्मान और प्यार दिया. मैं अपने पति के लिए करवाचौथ का व्रत रखती हूं और मेरे पति ईद के दिनों में रोजा रखते हैं. हम ईद और दीवाली दोनों सैलिब्रेट करते हैं.

मजाक में भी नहीं कहें

27 वर्षीय मंशा हरि जब निधि की इंगेजमैंट में ब्लू कलर का गाउन पहन कर आई तो उसे देख कर उस का बौयफ्रैंड शोभित मिश्रा बोला कि तुम दलित हो क्या जो हमेशा ब्लू कलर ही पहनोगी? तुम्हारे पास क्या कोई और कलर नहीं है? उस का ऐसा कहना मंशा को चुभ गया. मंशा के पूछने पर कि आखिर उस ने ऐसा क्यों कहा तो शोभित का कहना था कि उस ने ऐसा कुछ सोच कर नहीं कहा, बस मजाकमजाक में कह दिया.

मगर उस के मुंह से इतनी बड़ी बात निकली ही क्यों? इस का जवाब है हमारे समाज की व्यवस्था जिस ने लोगों को जातपात और धर्म में बांटा हुआ है. हमारे देश में 3 हजार जातियां और 25 हजार उपजातियां हैं. यह समाज जिस ने बताया है कि लोग हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म में बंटे हैं, इसी तरह इस ने यह भी बताया है कि छोटी जाति वालों को दलित समुदाय कहते हैं. एक ऐसा रिश्ता जो प्यारमुहब्ब्त का है जिस में धर्म, जाति माने नहीं रखते वहां इस तरह का मजाक क्यों? जो किसी के सैंटीमैंट को हर्ट करे ऐसे मजाक का रिलेशनशिप से कोई नाता नहीं है.

2011 की जनगणना के अनुसार, सिर्फ 5.8% भारतीय लोगों ने इंटर कास्ट मैरिज की थी. वहीं अगर भारत मानव विकास सर्वेक्षण की माने तो सिर्फ 5% भारतीयों ने इंटरकास्ट मैरिज की.

सम्मान क्यों है जरूरी

धीरज मोहर कहते हैं कि उन की एक गर्लफ्रैंड थी जिस की जाति ब्राह्मण थी. वे बताते हैं कि जब कभी उन के बीच झगड़ा होता था तो वह उन की जाति को नीचा दिखाने वाली बातें कहती थी. यह सब सुन कर उन्हें बहुत बुरा लगता था. 1-2 बार तो उन्होंने इसे इग्नोर किया, लेकिन जब यह ज्यादा होने लगा तो उन्होंने अपनी गर्लफ्रैंड से ब्रेकअप कर लिया. वे कहते हैं कि जब आप एक कपल होते हैं तो आप को अपने पार्टनर की जाति या धर्म का सम्मान करना चाहिए न कि उस को नीचा दिखाना चाहिए.

2005-06 के नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के आंकड़े के मुताबिक भारत में होने वाली कुल शादियों में सिर्फ 10 फीसदी शादियां ही इंटरकास्ट होती हैं. वहीं अंतरजातीय विवाह में नौर्थईस्ट के राज्य ज्यादा आगे हैं. मसलन मिजोरम में सब से ज्यादा इंटरकास्ट मैरिज होती हैं. मिजोरम की 87 फीसदी आबादी क्रिश्चन है. मिजोरम के बाद अंतरजातीय विवाह करने वाले राज्यों में मेघालय और सिक्किम का नाम आता है.

हमारे देश में इंटरकास्ट मैरिज इतना बड़ा मुद्दा है कि लोग अपने घर की इज्जत के नाम पर औनर किलिंग भी करते हैं. 2014 में दिल्ली में हुआ भावना यादव मर्डर केस इस का एक उदाहरण है. भावना ने अलग जाति में शादी कर ली. इस से नाराज उस की खुद की फैमिली ने उस का मर्डर कर दिया. इतना ही नहीं बौलीवुड में कई फिल्में हैं जो ओनर किलिंग पर बनी हैं जैसे ‘सैराट’ औैर ‘एनएच10.’ एनसीआरबी के अनुसार 2016 में 77 मर्डर के मामले ओनर किलिंग के मकसद के साथ रिपोर्ट किए गए थे.

रिश्ता निभाएं दिल से

महेश यादव अपना ऐक्सपीरियंस बताते हुए कहते हैं कि जब कभी भी वे डेट पर जाते हैं तो उन की डेट पार्टनर उन की जाति को ले कर मजाक करते हुए कहती है कि तुम लोगों को तो ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती होगी. तुम लोगों की तो सीटें आरक्षित होती हैं. यह सब सुन कर उन्हें काफी बुरा लगा और वह अपनी डेट बीच में ही छोड़ कर चले गए.

जब 2 लोग एक कपल के रूप में रिलेशनशिप में आते हैं तो वे एकदूसरे के साथ अपनी हर चीज ऐंजौय करते हैं, एकदूसरे को कंपनी देते हैं, एकदूसरे की केयर करते हैं. ऐसे में उन्हें अपने पार्टनर के धर्म, जाति का पूरा सम्मान करना चाहिए. उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि कभी मजाक में भी उन के धर्म या जाति पर कोई कमैंट न किया जाए.

धर्म के आगे चौपट होती शिक्षा

देश में मंदिरों और राजनीति के उद्योग के अलावा अगर कोई उद्योगधंधा फूलफल रहा है तो वह पढ़ाई का. केंद्र व राज्य सरकारों ने पिछले 30-40 सालों में ऊंची जातियों के साथ मिल कर मुफ्त अच्छी सरकारी पढ़ाई को ऐसा चौपट किया है कि आज हर घर की बड़ी आमदनी घर, खाने, कपड़ों, इलाज, सैरसपाटे पर नहीं जाती, इन 3 मदों- मंदिरों, राजनीति और पढ़ाई में जाती है.

मंदिर हर कोने में बन रहे हैं और पैसा पा रहे हैं. पुलिस वाले, सरकारी अफसर हर समय नोटिस या बुलडोजर लिए खड़े हैं. हर कोने में प्राइवेट इंग्लिश मीडियम से टाई लगाए महंगी फीस दे कर अधकचरे लड़केलड़कियां खड़े हैं जो कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे प्राइवेट ऐजुकेशनल इंस्टिट्यूटों में पढ़े हैं. उन का नारा है- आओ, आओ डिगरी ले जाओ, तुरंत डिगरी लो. पढ़ो या न पढ़ो पर हमारी भव्य बिल्डिंग देखो, बाग देखो, बसें देखो, स्वीमिंग पूल देखो और डिगरी ले जाओ.

धर्म के धंधे की तरह इस सरकारी संरक्षण पाए प्राइवेट स्कूलिंग और बिलकुल नियंत्रण बिना चल रहा कोचिंग का धंधा 200 अरब रुपए से कम का नहीं है. किताबों, आनेजाने, कंप्यूटरों और फिर वहां फास्ट फूड जोमैटों का खर्च अलग.

कम से कम आधे ग्रैजुएटों की डिगरी बेकार है, बच्चों के मांबापों को समझाते हैं और वे हिचकिचाते हैं कि अपने बच्चों को इतने महंगे स्कूलों, विश्वविद्यालयों में भेजें या नहीं. अब ये लोग भारी पैसा प्रचार पर खर्चते हैं. सड़कों पर होर्डिंग लगते हैं, अखबारों के पहले पेज लिए जाते हैं, कंसल्टैंटों को मोटी रकम दी जा रही है, स्टूडैंट्स का डाटा तैयार हो रहा है, जो महंगे में बिकता है. सब बेकार की डिगरी देने के लिए.

आधे से तीनचौथाई ग्रैजुएट, इंजीनियर, डाक्टर, एमबीए, विशेषज्ञ अपने सब्जैक्ट की एबीसी नहीं जानते. हां, कुछ अंगरेजी बोल लेते हैं, बढि़या कपड़े पहन लेते हैं, स्कूटी, कार ड्राइव कर लेते हैं. स्टारबक और जोमैटो पर और्डर करना जानते हैं. उस के बाद बेकार मांबाप के पैसे पर आश्रित रहते हैं. लाखों तो यही सोच रहे हैं कि मांबाप के पुराने मकान को बेच कर जो पैसा मिलेगा उस से या तो विदेश चले जाएंगे या फिर देश में ही मौज की जिंदगी जी लेंगे.

हजारों कोचिंग दुकानों और किसी विश्वविद्यालय से जुड़े कालेज या इंस्टिट्यूट की नियमित फैकल्टी नहीं है. एक ही प्रोफैसर 4-4, 5-5 इंस्टिट्यूटों के रोल पर रहता है यानी सप्ताह में 1 दिन आ कर नाम दे कर खानापूर्ति करता है. स्टूडैंट्स को यह पता है क्योेंकि वे तो मौज करने आए हैं और क्लास का न होना पर डिगरी का मिल जाना ही तो उन्हें चाहिए. वे अपना समय आराम से बिता सकते हैं.

जिन्होंने ऐजुकेशन लोन ले रखा है उन्हें भी चिंता नहीं होती क्योंकि गारंटर मांबाप होते हैं जो बैंक का लोन न चुका पाने पर अपने जेवर बेच कर, घर बेच कर चुका देंगे. यह कोई अमेरिका थोड़े ही है जहां राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अरबों डौलर के स्टूडैंट फंड माफ कर दिए. हमारी फक्कड़ सरकार को तो मंदिरों और बुलडोजरों से फुरसत हो तो पढ़ाई पर ध्यान दे.

और झूठों की तरह भाजपा के प्रधानमंत्री ने लाखों नौकरियों को पैदा करने का  झूठ सैकड़ों बार बोला है. 2024 तक चमत्कार की तरह हरेक को घर बैठे अगर नौकरी नहीं मिली तो भी चुनाव जीतने के लिए हिंदूमुसलिम विवाद काफी है.  20-25 हजार रुपये महीने की मासिक इनकम वाले परिवार इन वादों के बल पर 2-2, 3-3 लाख की फीस पहले ही दिन भरते हैं और फिर बाकी साल इस उम्मीद पर जीते हैं कि बच्चे पढ़ कर कमा कर मांबाप का घर भरेंगे. उन्हें क्या मालूम कि इन प्राइवेट स्कूलों, कोचिंग क्लासों और यूनिवर्सिटीज में तो मौजमस्ती, शराब, सैक्स, ड्रग्स की पढ़ाई हो रही है.
सरकार को यह भाता है क्योंकि यही लड़के भगवा पट्टी बांधे हिंदूहिंदू के नारे लगाते हैं और बची शक्ति मंदिरों को देते हैं.

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