मन अच्छा हो गया. मैं ने कमर पर कसे बेटे के हाथों को नरमी से थपथपाया. उस ने जैसे मेरी देह की भाषा पढ़ ली और पटरपटर बातें करने लगा, ‘‘मम्मा, पापा का काम कितनी देर में होगा?’’
‘‘बस, थोड़ी देर में.’’
‘‘फिर हम क्या करेंगे?’’
‘‘घर चलेंगे.’’
‘‘नहीं, मम्मा, हम भारत भवन चलेंगे,’’ उस ने पूछा नहीं, बताया.
सपने सी वीआईपी सड़क खत्म हुई और अब हमें अतिव्यस्त चौराहा पार करना था. ठीक इसी समय, दाहिनी पलक फिर थरथराई और माथे की शिकन में तबदील हो गई. मैं सामने सड़क से गुजरती गाडि़यों को गौर से देखने लगी. स्कूटी बढ़ाने को होती और रुकरुक जाती. रहरह कर आत्मविश्वास टूट रहा था और मुझे लगने लगा कि जैसे ही मैं आगे बढ़ूंगी, इन में से एक बड़ा ट्रक तेज रफ्तार में अचानक आ निकलेगा और हमें रौंदता चला जाएगा. मेरे पैर स्कूटी के दोनों तरफ जमीन पर टिके थे. यह मैं थी जो हमेशा कहती रही कि ड्राइविंग करते वक्त बारबार जमीन पर पैर टिकाने वाले कच्चे ड्राइवर होते हैं और उन बुजदिल लमहों में मेरा बरताव नौसिखिए स्कूटर ड्राइवरों से भी बदतर था.
कई बार मैं आगे बढ़ी, डर और परेशानी से पीछे हटी और इस तरह पता नहीं मैं कितनी देर वहां तमाशा बनी खड़ी रहती, उस मोड़ पर जिसे मैं सैकड़ों दफा पार कर चुकी थी. पर भला हो उस कार वाले का जिस ने मेरे पीछे से आते हुए सड़क पार करने का इंडीकेटर दिया. झट मैं ने अपनी दुपहिया उस बड़ी कार की ओट में कर ली और उस के समानांतर चलते हुए आखिर सड़क पार कर ली.
अब हम कमला पार्क वाली व्यस्त रोड पर शनिमंदिर के सामने से गुजरे और पलभर को स्कूटी की गति धीमी कर के सिर झुका कर प्रणाम करते हुए कहा, ‘हमारी रक्षा करना.’
स्कूटी की गति कितनी कम हो गई थी, यह मुझे तब ध्यान आया जब पीछे से आते स्कूली बच्चे की साइकिल मुझ से आगे निकल गई. बेटे को और एकदो बार बेवजह डांटा या शायद मेरा तनाव था जो शब्दों में ढल रहा था, ‘‘चुपचाप चिपक कर बैठे रहना वरना आगे से कभी साथ नहीं लाऊंगी.’’
मां को डरा जान बच्चे कहीं ज्यादा डर जाते हैं. नैवेद्य अपनी कुल जमा ताकत से मुझ से चिपक गया. उस की सांसें भी सहमीसहमी सी थीं और मैं विचारहीन मन, कांपती अपशकुनी आंख माथे और चौकन्ने दिमाग से ड्राइविंग कर रही थी.
औफिस आ गया, दिल ने राहत की सांस ली. स्कूटी पार्क कर ही रही थी कि बेटे ने बिल्ंिडग की ओर दौड़ लगा दी.
‘‘नैवेद्य…’’ इतनी जोर से मेरी चीख निकली कि आसपास के लोग ठहर से गए. अपनी गलती महसूस होते ही मैं सकपका सी गई. बेटे के पास जा कर दबी जबान में उसे डांटा और फिर उस के लिए मुझे इतनी भयंकर असुरक्षा महसूस हुई कि मैं ने उसे गोद में उठा लिया. 5 साल के स्वस्थ बच्चे को गोद में उठाए सीढि़यों पर हांफती हुई चढ़ रही थी. मुझ को लोग आंखें फाड़ कर देख रहे थे. मैं बच्चे को कंधे से चिपकाए हुए थी. मन की स्थिति उस गाय जैसी हो गई थी जो अपने नवजात बच्चे की रक्षा के लिए भेडि़यों सरीखे कुत्तों का सामना करने को पूरी तरह तैयार होती है.
हम तीसरी मंजिल पर बने औफिस के गलियारे में पहुंचे. सूने, ऊंचे, धूल से भरे गलियारे की सधी हवा में कबूतरों का संगीत पसरा था. औफिस के भीतर जाने से पहले मैं ने बेटे को गोद से उतार कर अपने को संयत किया.
अपना परिचय दे कर फाइल मैं ने एक बाबूनुमा आदमी को दे दी. काम करते क्लर्क ने बीच में रुक कर कहा कि मैं फाइल यहीं छोड़ जाऊं, वह बड़े साहब तक पहुंचा देगा, पर मैं वहीं खड़ी रही किसी नासमझ गूंगीबहरी की तरह. उस ने अपना काम रोका, अजीब तरह से मुझे घूरा और फाइल उठा कर अपने बड़े साहब के केबिन की ओर चला गया. जब उसे फाइल सहित केबिन में घुसते देख लिया तब जा कर मुझे यकीन हुआ कि फाइल इन के बौस के हाथों में सहीसलामत पहुंच जाएगी.
सीढि़यां उतरते हुए मन पहले से कुछ हलका था. एक तो इसलिए कि आधा काम निर्विघ्न पूरा हो चुका था. दूसरे किसी कष्टप्रद दशा में पड़े हुए जब कुछ देर हो जाती है तब हम परिस्थिति का सामना करने के लिए स्वाभाविक तौर पर तैयार हो चुके होते हैं. नदी में भीगे पंजों से जब हम घाट की रपटीली सीढि़यां चढ़ते हैं तो किस कदर चौकन्ने होते हैं, लेशमात्र को हमारा ध्यान नहीं भटकता, मैं उसी मनोस्थिति में पहुंच चुकी थी. बेटे को पीछे बैठाया, स्कूटी स्टार्ट की और चारों तरफ देखतेपरखते हुए घर के लिए चल पड़ी. बिलकुल बाएं किनारे बचबचा कर चलते हुए मैं स्वयं को लगातार आश्वस्त करती जा रही थी, सब सामान्य है.
‘‘मम्मा, पापा का काम हो गया?’’
‘‘हां, बेटा, हो गया.’’
‘‘तो अब हम भारत भवन जाएंगे,’’ बहुत देर बाद वह खुश लगा.
भारत भवन नैवेद्य को हद दर्जे तक पसंद है और वह जबतब वहां जाने की जिद लगाए रहता है. लंबेचौड़े कैनवास सा परिसर, सजावटी पाषाण प्रतिमाएं, सिरेमिक वर्कशौप के विचित्र शिल्प और झील का सुख भरा किनारा जहां जंगली फूलों में तितलियों का एक लोक बसा है, उसे जैसे पुकारता है. वहां वह अपनी ड्राइंग कौपी और मोम के रंग अकसर साथ ले जाता है और झील, जंगली फूलों, अपरिचित तितलियों और शाम के आकाश पर छाई चमगादड़ों की घुचड़पुचड़ पेंटिंग बनाया करता है और मैं एक मध्यवर्गीय मां, जो बेटे के अतिरिक्त काबिलीयत में अपना असुरक्षित भविष्य तलाशती है, उसे वहां ले जाने का अवसर कभी नहीं गंवाती.
‘‘नहीं नानू, आज नहीं.’’
‘‘क्यों नहीं?’’ वह इस कदर ठुनका कि स्कूटी डगमगाने लगी.
मैं इतना डरी कि गाड़ी रोक कर खड़ी हो गई. वह जिद पर था और मैं हरसंभव तरह से उसे टाल रही थी. वह नहीं माना और मुझे एक ग्लानिभरा झूठ बोलना पड़ा.
‘‘बेटा, गाड़ी में पैट्रोल बहुत कम है, बस इतना कि हम घर पहुंच पाएंगे. अगर भारत भवन गए तो पैट्रोल बीच में ही खत्म हो जाएगा, फिर हम घर कैसे जाएंगे? पापा भी शहर में नहीं हैं. हमारी मदद को कोई नहीं आएगा.’’
उस की नन्ही आंखों ने मेरे परेशान चेहरे पर सौ फीसदी यकीन कर लिया और गाड़ी स्टार्ट करते हुए भारी दिल से मैं ने अपनी दाहिनी आंख को कोसा, जिस के कारण मैं ने अपने बच्चे को आज धोखा दिया.
अब हम घर के रास्ते पर थे. बगल से तकरीबन मेरी ही उम्र की एक स्त्री कार चलाती हुई गुजरी, पैसेंजर सीट पर नैवेद्य के बराबर बच्चा बैठा था और ड्राइविंग करती अपनी मां से खुश हो कर बातें कर रहा था. उन पलों में मैं ने जाना कि डर, आस्थाओं और अंधविश्वासों का हैसियत और ताकत से कितना गहरा नाता है. अगर मैं इस समय मामूली दुपहिए पर न होती, जिसे चारों दिशाओं के वाहनों से उसी तरह सतर्क रहना पड़ता है जैसे तालाब में किसी नन्ही, अकेली मछली को बड़ी मछलियों और मगरमच्छों से, बल्कि किसी लग्जरी कार में होती तो क्या पता, दाहिनी आंख के फड़कने का अपशकुन मुझे इतना न डरा रहा होता? ईश्वर, धर्म और अंधविश्वास कमजोरों की देन है.
जैसे-जैसे हम घर के करीब आने लगे, मेरा खुद पर भरोसा लौटने लगा. हैंडिल पर कलाइयों की पकड़ मजबूत होने लगी और कालोनी के मोड़ से पहले का फोरलेन हाइवे मैं ने इंडीकेटर हौर्न दे कर सहजता से पार कर लिया.
‘रात होते ही सारे नास्तिक आस्तिक हो जाते हैं.’ मन इस प्रसिद्ध खयाल को दोहरा कर मुसकराया और अपने घर के सामने मैं ने स्कूटी रोकी.
हाथों में फूले गुब्बारे लिए बालकनी में मिसेज सिंह शायद नैवेद्य की ही प्रतीक्षा में थीं.
‘‘नानू, देखो, तुम्हारे लिए कितने गुब्बारे फुला कर रखे हैं. आओ खेलें.’’
बेटे ने मेरी ओर प्रश्नभरी नजरों से देखा और मेरे मुसकराते ही उस ने दौड़ लगा दी.
मैं हंस पड़ी, कमबख्त दाहिनी आंख अब तक फड़क रही है. मुझे भरोसा हो गया कि इस से कुछ होता नहीं है. मेरा आत्मविश्वास अंधविश्वासों से ज्यादा मजबूत है. अब चाहे दोनों आंखें फड़कें, मुझे वही करना है जो जरूरी है. आंख की वजह से न मैं रुकूंगी और न किसी पंडे को दान देने के बारे में सोचूंगी.