Women’s Day 2025 : मुखरता – रिचा की गलती बनी उसकी घुटनभरी जिंदगी कारण

Women’s Day 2025 : रिचा बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी. वह क्लास में आखिरी बैंच पर बैठती थी और एकदम बुझीबुझी सी रहती थी. कुछ पूछने पर वह या तो चुप हो जाती या फिर बहुत कम सवालों का जवाब देती. वैसे रिचा पढ़ने में होशियार और मेहनती थी, लेकिन हरदम अकेली, खुद में खोई रहती. कोई न कोई बात तो थी जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि वह लड़कों की मौजूदगी में सामान्य नहीं रहती थी. अगर गलती से कोई लड़का उसे छू लेता या कंधे पर हाथ रख देता, तो वह क्रोधित हो जाती. उस के मातापिता भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे. वे अगर उस से कुछ पूछते, तो वह एक गहरी चुप्पी साध लेती. उस की बचपन की सहेली मीरा जब भी मिलती, रिचा से चुप रहने की वजह पूछती पर उसे कोई जवाब नहीं मिलता. लेकिन मनोविज्ञान की स्टूडैंट होने के कारण वह रिचा की मानसिक अवस्था समझ रही थी. उसे किसी अनहोनी का डर खाए जा रहा था.

एक दिन मीरा ने उस से बात करने का निश्चय किया. शुरू में तो रिचा ने सवालों से बचना चाहा, शायद वह थोड़ी भयभीत भी थी, पर मीरा के साथ रोज वार्त्तालाप करने से उस का हौसला बढ़ने लगा.

एक दिन उस के दुखों का बांध ढह गया और उस की भावनाओं ने उथलपुथल की और वह रोने लगी. फिर धीरेधीरे उस ने अपनी बीती सारी बातें बताईं. उस ने बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मैं इतिहास पढ़ रही थी. वैसे भी इतिहास का विषय सब के लिए नींद की गोली जैसा होता है, पर मेरे लिए यह एक रोमांचक था. अनजाने में ही मेरे अंकल जल्दी घर वापस आ गए. वे हमेशा से ही मेरे कपड़ों, पढ़ाई व मेरे दोस्तों में रुचि रखते थे. ‘‘मैं उन से प्रेरित थी. वे मुझे मेरे पिता से ज्यादा निर्देशित करते थे. कई चीजों के बारे में चर्चा करतेकरते अंकल ने मुझे अपने पास आ कर बैठने को कहा. मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा और मैं उन के पास जा कर बैठ गई. बात करतेकरते वे अचानक मेरे गुप्तांगों को बेहूदे तरीके से छूने लगे. यह देख कर मैं पीछे हट गई. मुझे उन की इस हरकत से असुविधा महसूस होने लगी. मैं सही समय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाई. संयोग से मेरी मां हौल में आ गईं. मैं मौके का फायदा उठा कर अपने कमरे में भाग गई. मेरे साथ हौल में जो कुछ हुआ वह समझने में मुझे थोड़ा वक्त लगा. वह एक ऐसी अनहोनी थी जिस ने मेरी जिंदगी अस्तव्यस्त कर दी थी.

‘‘मैं ने खुद से घृणा के भाव से पूछा, ‘मेरे साथ क्यों?’ मैं अपनी मां को यह बात नहीं बता पा रही थी, क्योंकि मुझे शर्मिंदगी और घबराहट महसूस हो रही थी. ‘‘अगले दिन अंकल ने मुझे फिर पीछे से पकड़ा और शैतानों वाली हंसी हंसते हुए पूछा कि मुझे कैसा लग रहा है.

‘‘मेरे कुछ जवाब न देने और घूर कर देखने पर उन्होंने मुझे धमकाया. मैं डर के साथसाथ क्रोधित भी हो गई थी. मैं उन्हें थप्पड़ मारना चाहती थी पर उन की पकड़ से छूट ही नहीं पा रही थी. ‘‘मेरी चुप्पी उन की इस हरकत को बढ़ावा दे रही थी. धीरेधीरे मैं अंकल से दूरी बना कर रहने लगी. मैं ऐसी किसी जगह नहीं जाती थी जहां वे मौजूद हों. अब उन्हें देखते ही मुझे घृणा महसूस होने लगती थी. मेरा सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा न लेना मेरे मातापिता को अनुचित लगता था. वे मेरे इस व्यवहार का कारण पूछते थे. मैं इस उलझन में थी कि यह सब सुनने के बाद इस बारे में उन की क्या राय होगी? डर से मैं ने यह बात उन्हें न बताना ही सही समझा.

‘‘मैं अब खुद को असहाय सा महसूस करने लगी हूं और सालों से सबकुछ चुपचाप सह रही हूं. लंबे समय से वे बातें मेरे दिमाग में चलचित्र की तरह ताजी हैं. मैं अपनी मां से इस बारे में बात करना चाहती हूं पर नहीं कर पाती. ‘‘जीवन में आगे चल कर मैं मर्दों के साथ रिश्ता नहीं निभा पाऊंगी. मुझे अपने दोस्तों (किसी लड़के) का साधारण तरीके से छूना भी पसंद नहीं आता. मैं अपने बिगड़ते रिश्तों का कारण नहीं जान पा रही हूं. मैं खुद का आदर नहीं कर पाती और खुद से ही नाराज रहती हूं.’’ यह सब कहते हुए वह रोने लगी.

यह सब सुन कर मीरा को बहुत दुख हुआ. मीरा ने उस से कहा,’’ अच्छा, बुरा मत मानना, अन्याय सहना भी बहुत बड़ा अपराध है. आज अपनी इस दशा की जिम्मेदार तुम खुद हो. अगर तुम खुल कर अपनी मम्मी से इस यौनशोषण के बारे में बतातीं, तो शायद आज यह स्थिति न आती. ‘‘तुम क्यों हिचकिचाती रही? क्यों तुम ने शर्मिंदगी महसूस की. जीवन में बलि का बकरा बनने से अच्छा है कि हम खुद के लिए आवाज उठाएं. तुम आज ही अपनी मां से इस बारे में बात करो. तुम ने कोई अपराध नहीं किया है, जो तुम डरो. अगर तुम डर कर अपराधी को सजा नहीं दोगी, तो तुम उसे अपराध करने के लिए प्रेरित करोगी. कल को कुछ भी हो सकता है.

‘‘मुखरता, सहनशीलता और आक्रामकता का सही बैलेंस है. मुखर होना मतलब खुद के या दूसरों के अधिकार के लिए आराम से और सकारात्मक भाव से अपनी बात रखना होता है, न कि आक्रामक या सहनशील हो कर खड़ा होना. मुखरता खुद में ही एक पुरस्कार की तरह है, क्योंकि यह देख कर अच्छा लगता है कि लोग आप की बातें ध्यान से सुनते हैं और परिस्थितियां भी अकसर अपने अनुसार ही चलती हैं. ‘‘मुखरता हमें अपने सोचविचार को खुल कर सामने लाने का आत्मविश्वास और ताकत देती है. यह हम से किसी को भी गलत फायदा उठाने नहीं देती है. मुखरता एक तरह का व्यावहारिक उपचार है जो लोगों को खुद की मदद करने में सक्षम बनाता है.’’

मीरा की बातें सुन कर रिचा शायद अपनी भूल समझ गई थी. उस ने उसी दिन अपनी मां को सारी बातें बता दीं. रिचा की मां कु्रद्ध हो गईं और उस की इस दुर्दशा को न जान पाने के लिए शर्मिंदगी महसूस करने लगी. अब रिचा को एहसास हुआ कि जिस बात को सब के सामने आने के डर से वह हिचकिचाती थी और शर्मिंदगी महसूस करती थी, अगर चुप नहीं रहती, तो उसे इतने समय तक सबकुछ नहीं सहना पड़ता.

रिचा अपने अंकल से ही नहीं, बल्कि अपनी बात समाज के सामने रखने से भी नहीं डरती. मीरा ने उसे एक नया जीवन दिया. परिचय कराया उस का मुखरता से. उसे एक सकारात्मक आत्मछवि और जीने का विश्वास दिया. रिचा अब चुपचाप कुछ भी नहीं सहती है.

Latest Hindi Stories : फैमिली कोर्ट – अल्हड़ी के माता पिता को जब हुआ गलती का एहसास

Latest Hindi Stories : ‘‘नमस्कार जज अंकल,’’ मैं ट्रेन में सीट पर सामान रख कर बैठा ही था कि सामने बैठी एक खूबसूरत व संभ्रांत घर की लगने वाली युवती ने मुझे प्यार व अपनत्व वाली आवाज में अभिवादन किया. मुझे आश्चर्य हुआ कि यह युवती कौन है और यह कैसे जानती है कि मैं जज हूं? और साथ में अंकल का भी संबोधन? हो सकता है कि यह मेरे किसी भूतपूर्व कलीग जज की बेटी हो या फिर उस की नजदीकी रिश्तेदार हो. मैं यह सब सोच ही रहा था कि उस ने मुझे प्रश्नवाचक मुद्रा में देख कर मुसकरा कर कहा, ‘‘जज अंकल, आप मुझे नहीं पहचानेंगे. मैं जब आप के कोर्ट में आई थी तब मैं सिर्फ 10 वर्ष की थी. उस समय आप सूर्यपुर में जिला फैमिली कोर्ट में जज थे.’’ अरे यह तो बहुत वर्षों पुरानी बात है और मुझे रिटायर हुए भी 5 साल हो गए. किसी को भी इतनी पुरानी बातें कहां से याद आएंगी? और मेरी कोर्ट में तो दिन में सैकड़ों लोग आते थे.

सब के बारे में कैसे कोई याद रख पाएगा? सोचते हुए मैं उसे अभी तक प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहा था और वह शायद समझ गई थी कि मैं उसे अभी तक पहचान नहीं पाया हूं. ‘‘अंकल मैं अल्हड़ी, उस समय आप के कोर्ट में मेरे मम्मीपापा के तलाक का केस चल रहा था और उस केस की कार्यवाही के दौरान आप ने एक दिन मुझ से पूछा था कि बेटा, तुम्हें किस के साथ रहना है? उस ने मुझे याद कराया.वह आगे कुछ बोलती कि मेरे मुंह से अचानक निकला, ‘‘अरे अल्हड़ी.’’ इस लड़की व इस के मम्मीपापा केस को मैं कैसे भूल सकता हूं? रोज के झगड़े निबटातेनिबटाते मुझे कई बार उकताहट भी होती थी.

पर मेरी फैमिली कोर्ट में ड्यूटी के दौरान एक केस ऐसा भी आया था जिस के परिणाम से मैं बहुत खुश था. इस केस का अंत आश्चर्यजनक व सुखद था. मैं तो क्या इस केस से संबंधित जो भी था, वह इस छोटी लड़की को कैसे भूल सकता है? ‘‘अरे बेटा अल्हड़ी तुम कैसी हो? तुम्हारे मम्मीपापा कैसे हैं?’’ मुझे सच में उस से मिल कर खुशी हुई. और ज्यादा खुशी तो उसे खुश देख कर हुई. मैं सच में जानना चाहता था कि क्या उस के मम्मीपापा अभी भी साथ रह रहे हैं? ‘‘अंकल, मैं आप के कारण बहुत खुश हूं. मेरे मम्मीपापा तो एकदूसरे के बिना रह ही नहीं पाते. मैं इस साल सिविल सर्विस में चयनित हुई हूं और प्रशिक्षण के लिए शिमला जा रही हूं. आप उस दिन व्यक्तिगत रुचि नहीं लेते तो शायद मैं भी सिंगल पेरैंट की प्रौब्लमैटिक चाइल्ड होती,’’ उस ने मुझ से भावुक हो कर कहा.‘‘नहीं बेटा, अगर उस दिन तुम कोर्ट में समझदार बच्ची की तरह नहीं बोलतीं, तो शायद तुम्हारे मातापिता जिंदगी की सचाई समझ नहीं पाते और अपने व्यक्तिगत अहम से जिंदगी भर का नुकसान कर लेते. बेटा, तुम सच में बहुत समझदार लड़की हो,’’ मैं ने अपनत्व से कहा.

मैं उस समय सूर्यपुर की फैमिली कोर्ट में जज था और उस दिन अल्हड़ी के मातापिता के तलाक का केस था. पतिपत्नी को मैं ने उन की बच्ची सहित बुलाया था.दोनों ने आते ही शुरू से ही तलाक की मांग जोरदार तरीके से की. पर यह एक जिंदगी भर का फैसला था जिस से कई सारी जिंदगियां जुड़ी  हुई थीं, इसलिए मैं ने उन्हें 1 महीने का विचारने का समय दिया था. पर वे लोग तलाक पर अडिग थे. अब प्रश्न केवल यह था कि बच्ची किस के साथ रहेगी. मैं हमेशा यह प्रश्न बच्चों पर ही छोड़ता था. अल्हड़ी 10 साल की बच्ची थी. देखने में सुंदर और साथ में बहुत ही मासूम. उस का चेहरा बता रहा था कि वह कोर्ट में आने से पहले बहुत रोई होगी. वह गवाह के कठघरे में आई तो मैं ने हमेशा की तरह उस से भी पूछा कि बेटा किस के साथ रहना चाहती हो? सामान्यतया बच्चा जिस के करीब होता है उस के साथ रहने को कहता है, क्योंकि बच्चे को यह पता नहीं होता है कि क्या हो रहा है.उस ने कुछ देर बाद बोलना शुरू किया, ‘‘मेरा जन्म इन्हीं से हो क्या यह मेरा फैसला था? यदि मेरे जन्म का फैसला मेरे हाथ में होता तो मैं शायद ही इन के द्वारा जन्म लेती. मेरे जन्म के लिए ये लोग साथ रह सकते थे, तो पालने के समय ये लोग किस अधिकार से अलग हो सकते हैं? जब मेरे जन्म का फैसला मेरे हाथ में नहीं था, तो पलने का फैसला मैं कैसे कर सकती हूं? जज अंकल, आप जो भी फैसला करें वह मुझे मंजूर है,’’ उस ने अपने आंसू रोकते हुए बेबसी से कहा.

एक छोटी सी बच्ची के मुंह से इतनी गंभीर बात सुन कर पूरे कोर्टरूम में सन्नाटा छा गया. शायद मुझे जिंदगी में पहली बार पिनड्रौप साइलैंस का मतलब समझ में आ रहा था.

अचानक कोर्टरूम में जोरजोर से हिचकहिचक कर रोने की आवाज सुनाई दी. अल्हड़ी के मातापिता दोनों जोरजोर से रो रहे थे. ‘‘मुझे तलाक नहीं चाहिए जज साहब. मेरा पति भले ही दारू पिए, मुझे मारे या फिर बाहर गुलछर्रे उड़ाए, मैं उस के साथ रहने चली जाऊंगी. मेरे जीवन या मेरी भावनाओं से ज्यादा मेरी बेटी की जिंदगी जरूरी है. उसे अपने मां और पिता दोनों की छत्रछाया की जरूरत है,’’ तलाक लेने पर अड़ने वाली उस की मां यामिनी बोली.‘‘मुझे माफ कर दो यामिनी, मैं बच्ची की कसम खा कर कहता हूं अब मैं कभी दारू नहीं पिऊंगा,’’ हाथ जोड़ कर अपनी पत्नी से माफी मांगते हुए उस का पिता बोला. हद से ज्यादा कू्रर दिखने वाला व्यक्ति आज जैसे दया का पात्र लग रहा था. ‘‘जज साहब, हम अपनी तलाक की अर्जी वापस लेते हैं,’’ दोनों ने हाथ जोड़ कर मुझ से कहा. ‘‘बहुत अच्छी बात है. बच्ची का सुखद भविष्य इसी में है. कोर्ट आशा रखती है कि आप लोग हमेशा साथ रहेंगे और एक दूसरे से अच्छा बरताव करेेंगे. किसी ने सच ही कहा है कि बच्चे रेल की पटरियों को जोड़ने वाले स्लीपर की तरह होते हैं,’’ मैं ने खुशी जताते हुए मुकदमे के अंत पर मुहर लगाई. सच बताऊं मेरी जिंदगी में इतना दिलचस्प केस कोई और नहीं था. उस दिन सच में मेरी कोर्ट फैमिली कोर्ट लग रही थी, जहां एक फैमिली का मिलन हुआ था.

Short Stories in Hindi : दिल मांगे मोर

Short Stories in Hindi :  दिसंबर आने में कुछ ही दिन बाक़ी थे, दिल्ली में सर्दी ने दस्तक दे दी थी. रात में 10 बज रहे थे. तेज हवा के झोंके से खिड़की का परदा कुछ ऊपर सरका और खिड़की की झिर्रियों से ठंडी हवा का झोंका मुझे कंपकंपा गया. मैं क्विल्ट की आग़ोश में समा गई.

मन तो मेरा पति श्रेयांश के सान्निध्य में जा उन के स्पर्श की ऊष्णता में सिमट जाने का था पर वे हमेशा की तरह अपने लैपटौप में व्यस्त थे, साथ में, सामने लगे टीवी की स्क्रीन पर सैंसेक्स के उतारचढ़ाव भी देख रहे थे. बीचबीच में उन की बग़ल में रखे फ़ोन पर मेल्स की बिप्स भी बजबज कर अपनी मौजूदगी का एहसास करवा रही थीं.

कुल मिला कर मैं निसंकोच कहती हूं कि उन्हें सैक्स से ज़्यादा सैंसेक्स में और बीवी से ज़्यादा टीवी में दिलचस्पी है. मैं हर बार मन मसोस कर रह जाती.

मैं उन से कहना चाहती थी, ‘देखो, अभी भी मैं कितनी हसीन हूं और मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता है.’ ऐसा मैं ही नहीं, मेरे संपर्क में आने वाला हर शख़्स कहता है. बस, उन्हें ही दिखाई नहीं देता. फिर मैं भी रूठ, करवट बदल, दूसरी तरफ़ मुंह कर सो ज़ाया करती थी. पर उस निर्मोही को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. उसे लगता है, मैं थक कर सो गई हूं.

ऐसी ही एक रात मेरे मोबाइल में फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट आई. मैं ने लपक कर फ़ोन उठाया. सैंडर का प्रोफ़ाइल बहुत ही आकर्षित था. मैं ने फ़ोटो को ज़ूम कर के देखा, लाल गालों वाला गोराचिट्टा, कसे डोलेशोले बनाए हुए बाजुओं वाला आकर्षक युवक. मेरा दिल बल्लियों नाचने लगा और मन स्नेहमय निमंत्रण पा कर गदगद हो गया. अगले दिन सब काम निबटा कर मैं मोबाइल ले कर बैठी ही थी कि फिर मेरी नज़र उस रिक्वैस्ट पर गई. मैं ने बिना पल गंवाए उस की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर ली.

ऐक्सैप्ट करते ही मैसेंजर पर मैसेज की बौछार हुई-

‘हे क्यूट.’

‘हाऊ यू कैन दिस मच फ़िट?’

इन शब्दों की ठंडी बौछार से मैं ऐसी खिल उठी मानो किसी बंजर ज़मीन पर अरसे बाद एक गुलाब खिल आया हो महकता, खिलता, मुसकराता, लुभाता… याद नहीं आख़िरी बार श्रेयांश ने मुझे कब इन शब्दों से संबोधित किया था. मुझ में कुछ आत्मविश्वास जागा था और मैं ने इठलाते हुए रिप्लाई भेजा-

‘इट सीम्ज़ योर कैचफ़्रेज़ फौर एवरी फ़ीमेल फ्रैंड’.

‘इफ़ वी बिकम अ बेस्टी देन इट्स लास्ट,’ उस ने तुरंत जवाब भेजा.

‘कान्ट मेक यू बेस्टी. आई हैव औलरेडी थ्री बेस्टीज़ – माई हबी एंड टू किड्स,’ मेरा जोश दोगुना हो गया था.

‘यू कैन ऐड मी, इफ़ यू वांट,’ उस का मैसेज आया.

कई दिनों तक इस तरह के प्रणय निवेदनों से पिघल मैं ने उस का फ़ेसबुक अकाउंट खोल कर देखा. वह दिल्ली के एविएशन स्कूल से पाइलट की ट्रेनिंग ले रहा था. उस का नाम था सौरभ बहल. प्रभावित हो कर मैं ने भी एक मैसेज कर दिया-

‘हाय डूड, लव्ड योर प्रोफ़ाइल.’

बस, फिर क्या था, मैं एक ऐसी अनजानी राह पर चल पड़ी थी जिस पर कोमल पंखुड़ियां बिखरी थीं और जिन की खूशबू मुझे मदहोश कर रही थी. एक नई ज़िंदगी की आहट अपनी दोनों बांहें पसारे मुझे बुला रही थी. इस राह पर चलने के लिए मुझे हौसले की ज़रूरत थी जो हौसला मैं अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं जुटा पाई थी. पर, अब वह हौसला जाने कहां से मुझ में आ गया था.

उस से बात कर के मैं अपनेआप को बहुत स्पैशल महसूस कर रही थी . एक अलग ही दुनिया जहां मैं मां और पत्नी नहीं, बल्कि 18 साल की नवयौवना थी.

शुरू-शुरू में चैट करते समय मैं स्वयं अचंभित थी कि वह आख़िर चाहता क्या है. उसे पूरी दुनिया में मैं ही मिली, पूरे 10 साल बड़ी और वह भी मैरीड.

मेरे संकोच को देख कर उस ने ही कहा था, ‘विश्वास रखो, कोई ग़लत इरादे से आप से बात नहीं करता हूं. मैं भी साहित्य में रुचि रखता हूं. एफ़बी पर पोस्ट की हुई आप की रचनाएं बहुत अपनी सी लगीं और आप से एक भावनात्मक जुड़ाव

सा हो गया.’

कभी भी उस की बातों में, उस के प्रणय निवेदन में मुझे छिछोरेपन की बू नहीं आई थी. कोई अदृश्य शक्ति मुझे उस की तरफ़ धकेले जा रही थी. मुझे अकसर एक किताब की यह पंक्ति याद आ जाती – कुछ रिश्ते आत्मिक होते हैं और हर जन्म में हम से किसी न किसी रूप में जुड़ ही जाते हैं.- शायद यह पिछले जन्म में बिछड़ा ऐसा ही कोई रिश्ता हो, मैं ने अनुमान लगाया.

‘यू आर लाइक अ डायमंड इन माय लाइफ़,’ यह वह अकसर कहता.

वह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि मैं एक बच्चे की मां हूं . वह चुपके से मेरी आदतों में शामिल सा हो गया था. दोपहर के 2 बजते ही मन आतुर हो फ़ेसबुक की तरफ़ खिंचता. वह अपने फ़्लाइंग क्लब की क्लासेज़ ख़त्म कर के 2 बजे

लौटता और आते ही मुझ से चैट करता.

मैसेंजर पर लहराते 3 डॉट्स उभरते ही मेरा मन हिलोरे खाने लगता. मैं चाहती, वह यों ही लिखता रहे, मैं पढ़ती रहूं. उस से चैट कर के मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती थी. उस की इंग्लिश में एक शोख़ी, एक नशा, एक बेफ़िक्री थी नए जमाने की

पुरशोख़ अदा के साथ, जो मेरे तो आसपास भी नहीं फटक सकती थी.

मैं उस से कदम से कदम मिला कर चलना चाहती थी. थैंक्स टू गूगल. मैं चैट की एकएक लाइन का हिंदी से इंग्लिश में अनुवाद करती, फिर उसे मैसेंजर पर टाइप करती. मैं उस के प्यार को, उस के एकएक लफ़्ज़ को बहुत ही आहिस्ता से संभाल कर अपने मन के एक कोने में रखती जा रही थी क्योंकि मैं जानती थी, यह क्षणभंगुर है.

मेरे साथ पहली बार ऐसा हो रहा था. ऐसी आकुलता, ऐसी सिहरन कि रोमरोम पुलकित हो जाता. स्क्रीन पर उभरा एकएक अक्षर मेरी आंखों के रास्ते सीधा दिल में उतर जाता. मैं गुनगुनाने लगी थी, चहकने लगी थी, फुदकने लगी थी. मैं ने उस का नाम अपने फ़ोन में सौरभ नहीं, खूशबू नाम से सेव किया था, जिस से कि भी श्रेयांश को शक न हो सके.

मुद्दतों बाद मेरे इतने रोमैंटिक दिन गुज़र रहे थे. मुझे रहरह कर उस की एकएक बात याद आती और मैं अंदर तक गुदगुदा जाती. मैं सपनों की इस सतरंगी दुनिया से कितनी बार खुद को बुलाती थी जब मैं मायरा को देखती थी. पर वह इतना ज़िद्दी हो गया था कि लौट कर आना ही नहीं चाह रहा था. मैं लाख कोशिश कर खुद को सचाई के धरातल पर लैंड करने की कोशिश कर रही थी. मेरा किसी भी काम में मन नहीं लगता था. मेरी दोनों जिंदगियां आपस में क्लैश हो रही थीं मेरी सचाई और स्वप्निल लोक. पर स्वप्निल ज़िंदगी का पलड़ा भारी हो रहा था.

‘ज़िंदगी ऐसी ही है. मैं दोनों सुख एकसाथ क्यों नहीं पा सकती जहां पति व मायरा भी हो और मेरा स्वप्निल लोक भी. पर नहीं, मुझे एक को चुनना ही पड़ेगा. एक सुख को पाने के लिए दूसरे सुख को दफ़न करना ही पड़ेगा.’ मैं विचारों में डूबी हुई थी, इतने में मेरे फ़ोन की घंटी बजी.

फ़ोन मेरी बेटी के स्कूल से था, ‘मैम, आप मायरा को स्कूल से ले जाइए, उसे तेज बुख़ार है.’ यह सुनते से ही मेरा समूचा बदन कांपने लगा.

मैं कैसे भूल गई? उसे कल भी बुख़ार था. मुझे आज उसे स्कूल न भेज कर डाक्टर को दिखाने ले कर जाना था. मैं डाक्टर का अपौइंटमैंट लेना तक भूल गई. मैं ने अपनी गाड़ी निकाली और स्कूल की तरफ़ बढ़ा ली.

मैं स्वयं को अपराधिनी महसूस करने लगी. मैं बुरी मां नहीं हूं, मायरा से बहुत प्रेम करती हूं. यह मेरा स्वप्न एक छद्म था, फिर भी मैं उस के पीछे बेतहाशा भागे जा रही थी.

मैं ने उस को डाक्टर को दिखा, दवाई दे, सुला दिया. पूरा दिन ऐसे ही भागदौड़ में निकल गया.

रात को थकान से चूर हो मैं ने अपनी गरम क्विल्ट की पनाह ली. और फ़ोन स्क्रोल करने लगी. मोबाइल देखने का समय न मिलने के चलते सौरभ के बहुत सारे मैसेजेज़ इकट्ठे हो गए थे जिन्हें देख कर मेरे चेहरे पर मुसकराहट लौट आई. मैं फिर से अपनी स्वप्निल दुनिया में खो गई और मुझे अपने आसपास का भी होश न रहा.

इतने में श्रेयांश ने मेरे हाथ से फ़ोन छीन लिया और मैसेजेज़ पढ़ने लगे. वे बहुत ही सहज और सुलझे हुए व्यक्तित्व वाले इंसान है. सबकुछ जान लेने के बाद भी वे संयमित ही रहे.

उस दिन श्रेयांश के सामने मेरे सब्र का बांध टूट गया. “आई एम सौरी श्रेयांश, मैं बहुत अकेला महसूस करती थी. आप के टूर्स, औफ़िस के चलते आप को मेरे लिए समय नहीं मिलता था. आप देर से घर लौटते, तो भी फ़ोन पर बात करते हुए और फिर खाना खाते हुए भी लैपटौप आप के चेहरे के सामने होता था. आप के लिए अपनी फ़ीमेल को नहीं, क्लाइन्ट्स को उन की मेल का रिप्लाई देना ज़्यादा ज़रूरी लगता था. काम के दबाव में आप की झल्लाहट और ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा था.

“मैं अपनेआप को बहुत उपेक्षित महसूस करती थी. प्यारव्यार, रोमांस आप को बहुत बचकाना और फ़ैंटेसी लगते थे. मैं आप के प्यार के लिए, वक़्त के लिए तरस गई थी. सौरभ ठीक ऐसे वक़्त मेरी ज़िंदगी में आया जब मैं अकेलेपन के कारण अवसाद के गर्त में धंसती जा रही थी.” और यह कहते हुए मैं श्रेयांश से लिपट कर रोने लगी.

मैं ने स्वयं को संयत करते हुए आगे कहना शुरू किया, “मैं रोने के लिए एक मजबूत कंधा चाहती थी. पर मेरे हिस्से में हमेशा तकिया ही आया. मेरे आंसू, प्रेम की संवेदनाओं के रेशे, मैं आप तक पहुंचाना चाहती थी. पर वो सब हमेशा आप के सामने रहने वाली स्क्रीन पर ही उलझ कर रह जाते. मैं आप से कहना चाहती थी कि मुझे आप की ज़रूरत है, मैं आप के साथ थोड़ा वक़्त बिताना चाहती हूं.

“हम शादी करते हैं इसलिए कि हमें एक साथी की ज़रूरत होती है. पर समय के साथ यह उद्देश्य कहीं पीछे छूट जाता है. मैं जानती हूं आप मुझ से बहुत प्यार करते हैं, पर प्यार जताना भी उतना ही ज़रूरी है जितना प्यार करना. यह दिल मांगे मोर, स्वीटहार्ट.

“मैं कुछ पलों के लिए सिर्फ़ आप की प्रेमिका बन कर रहना चाहती थी. शादी के चंद सालों में ही मैं, बस, मम्मा और आप पापा बन कर रह गए.”

“मैं तुम्हारे साथ ही हूं न. और मैं रातदिन इतनी मेहनत तुम्हारे और मायरा के लिए ही कर रहा हूं न, जिस से तुम दोनों को सारे जहान की ख़ुशियां दे सकूं,” श्रेयांश ने मेरे आंसू पोंछते हुए कहा.

“अकसर ऐसा ही होता है, हम भौतिक सुखों की चाह में जीवन की सच्ची ख़ुशियों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं. और शादी का असली उद्देश्य यानी एकदूसरे अच्छे मित्र बन, भावनात्मक सहयोग देना कहीं छूट जाता है,” मैं कहती जा रही थी और श्रेयांश मुझे पहली बार इतनी ध्यान से सुन रहे थे.

मुझे महसूस हुआ, आंसुओं से मेरी पलकों में 2 महीनों से बसे हुए सारे सपने धुल रहे थे.

अगले दिन शाम को मैं अपने बैड की क्विल्ट तैयार कर रही थी. माहिरा को कितना भी टोकूं, वह सारा बैड अस्तव्यस्त कर ही देती है. और श्रेयांश को अस्तव्यस्तता बिलकुल पसंद नहीं. चद्दर पर पड़ी सलवटों को देख कर उन के माथे पर भी सलवटें उभर आएंगी. इतने में श्रेयांश ने पीछे से आ कर मुझे अपनी बांहों में भर लिया.

मैं ने चौंक कर खिड़की से बाहर की तरफ़ देखा और उस के बाद घड़ी की तरफ़, जो 5:30 बजा रही थी. यानी, श्रेयांश भी नवंबर की चुलबुली ठंडकभरी शाम की तरह औफ़िस से कुछ जल्दी लौट आए थे, शायद, इन 10 सालों में पहली बार. कोई और दिन होता, तो श्रेयांश औफ़िस से आते ही कुशन को अपनी बांहों में ले, सोफ़े पर उलटे लेटे टीवी देखने लग जाते पर उस दिन उन की बांहों में तकिए की जगह मैं थी.

“मैं ने औफ़िस में लीव ऐप्लिकेशन दे दी है. अगले हफ़्ते हमारी ऐनिवर्सरी है. मैं ने कल की डलहौज़ी जाने के लिए टैक्सी और 5 दिनों के लिए होटल में रूम बुक करवा दिया है. माहिरा को तुम मम्मी के पास छोड़ देना. इट विल बी ओन्ली यू एंड मी टाइम.

“अच्छा बताओ, हमारी 10वीं ऐनिवर्सरी पर तुम्हें क्या गिफ़्ट चाहिए?”

“गुडमौर्निंग और गुड़नाइट के साथ एक प्यारी सी हग और आप मुझे शोना कह कर बुलाएं. बस, इतना सा ख़्वाब है,” मैं ने नज़रें झुकाते हुए यह कह दिया. ख़ुशी के मारे मेरी आंखों से कुछ आंसू पलकों से सरक गालों पर लुढ़क आए.

श्रेयांश ने मेरे सिर पर चुंबन देते हुए कहा, “इस एपिसोड से मैं शादीशुदा ज़िंदगी में प्यार और रोमांस की अहमियत को अच्छे से समझ गया हूं. मैं तुम से वादा करता हूं कि आगे से तुम्हें कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगा.”

हमारी बातों में कब संध्या को हलके से समेट रात की आग़ोश में तारे सरक आए, मुझे पता ही न चला. उस रात मैं बहुत सालों बाद इतनी सुकून की नींद सोई थी…एक मुसकराती हुई, मीठी सी नई सुबह के इंतज़ार में.

लेखिका- मेहा गुप्ता

Hindi Fiction Stories : दूसरा पत्र – क्या था पत्र में खास?

Hindi Fiction Stories : विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में, दिन का अंतिम पीरियड प्रारंभ होने ही वाला था कि अचानक माहौल में तनाव छा गया. स्पीड पोस्ट से डाकिया सभी 58 छात्रछात्राओं व प्रोफैसरों के नाम एक पत्र ले कर आया था. तनाव की वजह पत्र का मजमून था. कुछ छात्रों ने वह लिफाफा खोल कर अभी पढ़ा ही था कि प्रोफैसर मजूमदार ने धड़धड़ाते हुए कक्षा में प्रवेश किया. उन के हाथ में भी उसी प्रकार का एक लिफाफा था. आते ही उन्होंने घोषणा की, ‘‘प्लीज, डोंट ओपन द ऐनवलप.’’

अफरातफरी में उन्होंने छात्रछात्राओं से वे लिफाफे लगभग छीनने की मुद्रा में लेने शुरू कर दिए, ‘‘प्लीज, रिटर्न मी दिस नौनसैंस.’’ वे अत्यधिक तनाव में नजर आ रहे थे, लेकिन तब तक 8-10 छात्र उस  पत्र को पढ़ चुके थे.

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अत्यंत परिष्कृत अंगरेजी में लिखे गए उस पत्र में बेहद घृणात्मक टिप्पणियां छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर की गई थीं और कुछ छात्राओं के विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज प्रसाद, कुलपति डाक्टर माधवविष्णु प्रभाकर और प्रोफैसर मजूमदार से सीधेसीधे जोड़ कर उन के अवैध संबंधों का दावा किया गया था. पत्र लेखक ने अपनी कल्पनाओं के सहारे कुछ सुनीसुनाई अफवाहों के आधार पर सभी के चरित्र पर कीचड़ उछालने की भरपूर कोशिश की थी. हिंदी साहित्य की स्नातकोत्तर कक्षा में इस समय 50 छात्रछात्राओं के साथ कुल 6 प्राध्यापकों सहित विभागाध्यक्ष व कुलपति को सम्मिलित करते हुए 58 पत्र बांटे गए थे. 7 छात्र व 5 छात्राएं आज अनुपस्थित थे जिन के नाम के पत्र उन के साथियों के पास थे.

सभी पत्र ले कर प्रोफैसर मजूमदार कुलपति के कक्ष में चले गए जहां अन्य सभी प्रोफैसर्स पहले से ही उपस्थित थे. इधर छात्रछात्राओं में अटकलबाजी का दौर चल रहा था. प्रोफैसर मजूमदार के जाते ही परिमल ने एक लिफाफा हवा में लहराया, ‘‘कम औन बौयज ऐंड गर्ल्स, आई गौट इट,’’ उस ने अनुपस्थित छात्रों के नाम आए पत्रों में से एक लिफाफा छिपा लिया था. सभी छात्रछात्राएं उस के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए. वह छात्र यूनियन का अध्यक्ष था, अत: भाषण देने वाली शैली में उस ने पत्र पढ़ना शुरू किया, ‘‘विश्वविद्यालय में इन दिनों इश्क की पढ़ाई भी चल रही है…’’ इतना पढ़ कर वह चुप हो गया क्योंकि आगे की भाषा अत्यंत अशोभनीय थी.

एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचता हुआ वह पत्र सभी ने पढ़ा. कुछ छात्राओं के नाम कुलपति, विभागाध्यक्ष और प्राध्यापकों से जोड़े गए थे. तो कुछ छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर भद्दी भाषा में छींटाकशी की गई थी. इन में से कुछ छात्रछात्राएं ऐसे थे जिन के बारे में पहले से ही अफवाहें गरम थीं जबकि कुछ ऐसे जोड़े बनाए गए थे जिन पर सहज विश्वास नहीं होता था, लेकिन पत्र में उन के अवैध संबंधों का सिलसिलेवार ब्यौरा था.

पत्र ऐसी अंगरेजी में लिखा गया था जिसे पूर्णत: समझना हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए मुश्किल था परंतु पत्र का मुख्य मुद्दा सभी समझ चुके थे. कुछ छात्रछात्राएं, जिन के नाम इस पत्र में छींटाकशी में शामिल नहीं थे, वे प्रसन्न हो कर इस के मजे ले रहे थे तो कुछ छात्राएं अपना नाम जोड़े जाने को ले कर बेहद नाराज थीं. जिन छात्रों के साथ उन के नाम अवैध संबंधों को ले कर उछाले गए थे वे भी उत्तेजित थे क्योंकि पत्र के लेखक ने उन की भावी संभावनाओं को खत्म कर दिया था. सभी एकदूसरे को शक की नजरों से देखने लगे थे.

कुछ छात्राएं जिन्होंने पिछले माह हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया था उन का नाम विभागाध्यक्ष अमिजोत प्रसाद के साथ जोड़ा गया था क्योंकि उन के कैबिन

में ही उस कार्यक्रम के संबंध में जरूरी बैठकें होती थीं और वे सीधे तौर पर कार्यक्रम के आयोजन से जुड़े थे. यह कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा था और उन छात्राओं ने साफसाफ उन लोगों पर इस दुष्प्रचार का आरोप लगाया जिन्हें इस कार्यक्रम के आयोजन से दूर रखा गया था.

छात्र राजनीति करने वाले परिमल और नवीन पर ऐसा पत्र लिखने के सीधे आरोप लगाए गए. इस से माहौल में अत्यंत तनाव फैल गया. परिमल और नवीन का तर्क था कि यदि यह पत्र उन्होंने लिखा होता तो उन का नाम इस पत्र में शामिल नहीं होता, जबकि उन छात्राओं का कहना था कि ऐसा एक साजिश के तहत किया गया है ताकि उन पर इस का शक नहीं किया जा सके. एकदूसरे पर छींटाकशी, आरोप और प्रत्यारोप का दौर इस से पहले कि झगड़े का रूप लेता यह तय किया गया कि कुलपति और विभागाध्यक्ष से अपील की जाए कि मामले की जांच पुलिस से करवाई जाए. पुलिस जब अपने हथकंडों का इस्तेमाल करेगी तो सचाई खुद ही सामने आ जाएगी.

कुलपति के कमरे का माहौल पहले ही तनावपूर्ण था. उन का और विभागाध्यक्ष का नाम भी छात्राओं के यौन शोषण में शामिल किया गया था. पत्र लिखने वाले ने दावा किया था कि पत्र की प्रतिलिपि राज्यपाल और यूजीसी के सभी सदस्यों को भेजी गई है. सब से शर्मनाक था कुलपति डाक्टर  माधवविष्णु पर छात्राओं से अवैध संबंधों का आरोप. वे राज्य के ही नहीं, देश के भी एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, सम्मानित साहित्यकार और समाजसेवी थे. उन की उपलब्धियों पर पूरे विश्वविद्यालय को गर्व था.

जिन छात्राओं के साथ उन का नाम जोड़ा गया था वे उम्र में उन की अपनी बेटियों जैसी थीं. आरोप इतने गंभीर और चरित्रहनन वाले थे कि उन्हें महज किसी का घटिया मजाक समझ कर ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता था. छात्राएं इतनी उत्तेजित थीं कि यदि पत्र लिखने वाले का पता चल जाता तो संभवत: उस का बचना मुश्किल था.

आरोपप्रत्यारोप का यह दौर कुलपति के कमरे में भी जारी रहा. विरोधी गुट के छात्र नेता परिमल पर प्रत्यक्ष आरोप लगा रहे थे कि वे सीधे तौर पर यदि इस में शामिल नहीं है तो कम से कम यह हुआ उसे के इशारे पर है. सब से ज्यादा गुस्से में संध्या थी. वह छात्र राजनीति में विरोधी गुट के मदन की समर्थक थी और उस का नाम दूसरी बार इस तरह के अवैध संबंधों की सूची में शामिल किया गया था.

दरअसल, एक माह पहले भी एक पत्र कुलपति के कार्यालय में प्राप्त हुआ था, जिस में संध्या का नाम विभागाध्यक्ष अमितोज के साथ जोड़ा गया था. तब कुलपति ने पत्र लिखने वाले का पता न चलने पर इसे एक घटिया आरोप मान कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था. और अब यह दूसरा पत्र था. इस बार पत्र लेखक ने कई और नामों को भी इस में शामिल कर लिया था.

स्पष्ट था कि पहले पत्र में उस ने जो आरोप लगाए थे उन्हें पूरा प्रचार न मिल पाने से वह असंतुष्ट था और इस बार ज्यादा छात्रछात्राओं के नामों को सम्मिलित करने के पीछे उस का उद्देश्य यही था कि मामले को दबाया न जा सके और इसे भरपूर प्रचार मिले.

वह अपने उद्देश्य में इस बार पूरी तरह सफल रहा था क्योंकि हिंदी विभाग से उस पत्र की प्रतिलिपियां अन्य विभागों में भी जल्दी ही पहुंच गईं. शरारती छात्रों ने सूचनापट्ट पर भी उस की एक प्रतिलिपि लगवा दी.

कुलपति महोदय ने बड़ी मुश्किल से दोनों पक्षों को चुप कराया और आश्वासन दिया कि वे दोषी को ढूंढ़ने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. यदि पता चल गया तो उस का मुंह काला कर उसे पूरे शहर में घुमाएंगे. सभी छात्राओं ने तैश में कहा, ‘‘आप पुलिस को या सीबीआई को यह मामला क्यों नहीं सौंप देते, वे खुद पता कर लेंगे.’’

संध्या को डर था कि कहीं यह पत्र भी पहले पत्र की तरह ठंडे बस्ते में ही न डाल दिया जाए. विभागाध्यक्ष व कुलपति इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे. कुलपति महोदय ने ही कहा, ‘‘हम ने इस बात पर भी विचार किया है, लेकिन इस से एक तो यह बात मीडिया में फैल जाएगी और विश्वविद्यालय की बदनामी होगी. दूसरा पुलिस छात्राओं को पूछताछ के बहाने परेशान करेगी और यह बात उन के घर वालों तक भी पहुंच जाएगी जो कि उचित नहीं होगा.’’

‘‘फिर पता कैसे चलेगा कि यह गंदी हरकत की किस ने है?’’ मदन ने तैश में आ कर कहा, ‘‘पहले भी एक पत्र आया था, जिस में 2 छात्राओं का नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ा गया था. तब भी आप ने यही कहा था कि हम पता लगाएंगे, लेकिन आज तक कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘उसे रोका नहीं गया तो अगली बार हो सकता है वह इस से भी आगे बढ़ जाए,’’ सोनाली ने लगभग चीखते हुए कहा. उस का अगले माह विवाह तय था और उस का नाम आनंद से जोड़ते हुए लिखा गया था कि अकसर वह शहर के पिकनिक स्पौटों पर उस के साथ देखी गई है.

डाक्टर अमितोज ने उसे मुश्किल से शांत कराया तो वह फफकफफक कर रो पड़ी, ‘‘आनंद के साथ कभी मैं यूनिवर्सिटी के बाहर भी नहीं गई.’’

‘‘तो इस में रोने की क्या बात है, अब चली जा. अभी तो 1 महीना पड़ा है शादी में,’’ कमल जिस का नाम इस पत्र में शामिल नहीं था, मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘चुप रह, मरवाएगा क्या’’ उस ने एक चपत उस के सिर पर जमा दी,‘‘ अगर झूठा शक भी पड़ गया न तो अभी तेरी हड्डीपसली एक हो जाएगी, बेवकूफ.’’

‘‘गुरु, कितनी बेइज्ज्ती की बात है, मेरा नाम किसी के साथ नहीं जोड़ा गया. कम से कम उस काली कांता के साथ ही जोड़ देते.’’

‘‘अबे, जिस का नाम उस के साथ जुड़ा था उस ने भी उस की खूबसूरती से तंग आ कर तलाक ले लिया.

‘‘शुक्र है, आत्महत्या नहीं की,’’ और फिर ठहाका मार कर दोनों देर तक उस का मजाक उड़ाते रहे.

कांता एक 25 वर्षीय युवा तलाकशुदा छात्रा थी जो उन्हीं के साथ हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. सभी के लिए उस की पहचान सिर्फ काली कांता थी. अपनी शक्लसूरत को ले कर उस में काफी हीनभावना थी. इसलिए वह सब से कटीकटी रहती थी. किसी ने न तो इस मुद्दे पर उस की सलाह ली और न ही वह बाकी लड़कियों की तरह खुद इस में शरीक हुई. अगर होती तो ऐसे ही व्यंग्यबाणों की शिकार बनती रहती.

‘‘इस बार ऐसा नहीं होगा,‘‘ डाक्टर अमितोज ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘पुलिस और सीबीआई की सहायता के बिना भी दोषी का पता लगाया जा सकता है. आप लोग कुछ वक्त दीजिए हमें. बजाय आपस में लड़नेझगड़ने के आप भी अपनी आंखें और कान खुले रखिए. दोषी आप लोगों के बीच में ही है.’’

‘‘हां, जिस तरह से उस ने नाम जोड़े हैं उस से पता चलता है कि वह काफी कुछ जानता है,’’ अभी तक चुपचाप बैठे साहिल  ने कहा तो कुछ उस की तरफ गुस्से में देखने लगे और कुछ बरबस होठों पर आ गई हंसी को रोकने की चेष्टा करने लगे.

‘‘मेरा मतलब था वह हम सभी लोगों से पूरी तरह परिचित है,’’ साहिल ने अपनी सफाई दी. उस का नाम इस सूची में तो शामिल नहीं था परंतु सभी जानते थे कि वह हर किसी लड़की से दोस्ती करने को हमेशा लालायित रहता था.

‘‘कहीं, यही तो नहीं है?’’ कमल फिर मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘अबे, यह ढंग से हिंदी नहीं लिख पाता, ऐसी अंगरेजी कहां से लिखेगा,’’ मदन बोला.

‘‘गुरु, अंगरेजी तो किसी से भी लिखवाई जा सकती है और मुझे तो लगता है इंटरनैट की किसी गौसिप वैबसाइट से चुराई गई है यह भाषा,’’ कमल ने सफाई दी.

‘‘अबे, उसे माउस पकड़ना भी नहीं आता अभी तक और इंटरनैट देखना तो दूर की बात है,’’ मदन ने उसे चुप रहने का इशारा किया, ‘‘पर गुरु…’’  कमल के पास अभी और भी तर्क थे साहिल को दोषी साबित करने के.

‘‘अच्छा आप लोग अपनी कक्षाओं में चलिए,’’ कुलपति महोदय ने आदेश दिया तो सभी बाहर निकल आए.

बाहर आ कर भी तनाव खत्म नहीं हुआ. सभी छात्रों ने कैंटीन में अपनी एक हंगामी मीटिंग की. सभी का मत था कि दोषी हमारे बीच का ही कोई छात्र है, लेकिन है कौन? इस बारे में एकएक कर सभी नामों पर विचार हुआ लेकिन नतीजा कुछ न निकला. अंत में तय हुआ कि कल से सभी कक्षाओं का तब तक बहिष्कार किया जाए जब तक कि दोषी को पकड़ा नहीं जाता. दूसरे विभाग के छात्रछात्राएं भी अब इस खोज में शामिल हो गए थे.

उन में से कुछ को वाकई में छात्राओं से सहानुभूति थी तो कुछ यों ही मजे ले रहे थे, लेकिन इतना स्पष्ट था कि यह मामला अब जल्दी शांत होने वाला नहीं था. सब से पहले यह तय हुआ कि मुख्य डाकघर से पता किया जाए कि वे पत्र किस ने स्पीड पोस्ट कराए हैं. परिमल, कमल व मदन ने यह जिम्मेदारी ली कि वे मुख्य डाकघर जा कर यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि दोषी कौन है.

अगले दिन जब वे मुख्य डाकघर पहुंचे तो पता चला कि इस बाबत पूछने के लिए दो लड़कियां पहले ही आ चुकी हैं.

‘‘वही होगी संध्या,’’ मदन फुसफुसाया.

‘‘अबे, उसी की तो सारी शरारत है, सबकुछ उस की जानकारी में ही हुआ है.’’

‘‘वह कैसे हो सकती है?’’ परिमल  बोला, ‘‘वह जो इतना तैश खा रही थी न… वह सब दिखावा था.’’

‘‘लेकिन गुरु, उस का तो नाम खुद ही सूची में है,’’ मदन बोला.

‘‘यही तो तरीके होते हैं डबल क्रौस करने के,’’ परिमल बोला, ‘‘एक तरफ अपना नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ कर अपनी दबीढकी भावनाएं जाहिर कर दीं, दूसरी तरफ दूसरों को बदनाम भी कर दिया.’’

डाकघर की काउंटर क्लर्क ने जब यह बताया कि उन दोनों लड़कियों में से एक ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था और दूसरी के बाल कटे हुए थे तो तीनों को अति प्रसन्नता हुई, क्योंकि संध्या के न तो बाल कटे हुए थे और न ही वह नजर का चश्मा लगाती थी.

‘‘देखा मैं ने कहा था न कि संध्या नहीं हो सकती, वह क्यों पूछने आएगी. वे जरूर सोनाली और दीपिका होंगी क्योंकि वे दोनों ही इस में सब से ज्यादा इनोसैंट हैं. दीपिका तो बेचारी किताबों के अलावा किसी को देखती तक नहीं और सोनाली की अगले माह ही शादी है.’’

‘‘हां, मुझे अच्छी तरह उन लड़कों के चेहरे याद हैं,’’ काउंटर क्लर्क बोली, ‘‘चूंकि वे सभी लिफाफे महाविद्यालय में एक ही पते पर जाने थे अत: मैं ने ही उन्हें सलाह दी थी कि इन सभी को अलगअलग लिफाफों में पोस्ट करने के बजाय इस का सिर्फ एक लिफाफा बनाने से डाक व्यय कम लगेगा. इस पर उन में से एक लड़का जो थोड़ा सांवले रंग का था, भड़क उठा. कहने लगा, ‘‘आप को पता है ये कितने गोपनीय पत्र हैं, हम पैसे चुका रहे हैं इसलिए आप अपनी सलाह अपने पास रखिए.’’

मुझे उस का बोलने का लहजा बहुत अखरा, मैं उस की मां की उम्र की हूं परंतु वह बहुत ही बदतमीज किस्म का लड़का था, जबकि उस के साथ आया गोरा लड़का जिस ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था बहुत शालीन था. उस ने मुझ से माफी मांगते हुए जल्दी काम करने की प्रार्थना की. गुस्से में वह सांवला लड़का बाहर दरवाजे पर चला गया जहां उन का तीसरा साथी खड़ा था. उस का चेहरा मैं देख नहीं सकी क्योंकि काउंटर की तरफ उस की पीठ थी, लेकिन मैं इतना विश्वास के साथ कह सकती हूं कि वे 3 थे, जिन में से 2 को मैं अब भी पहचान सकती हूं.’’

यह जानकारी एक बहुत बड़ी सफलता थी क्योंकि इस से जांच का दायरा मात्र उन छात्रों तक सीमित हो गया जो नजर का चश्मा लगाते थे और सांवले रंग के थे. परिमल स्वयं नजर का चश्मा लगाता था लेकिन वह नहीं हो सकता था क्योंकि डाकखाने की क्लर्क से उस ने खुद बात की थी. विपक्ष का नेता मदन भी सांवले रंग का था, लेकिन वह भी साथ था. महाविद्यालय

के हिंदी विभाग में 50 छात्रछात्राओं में से 32 छात्र और 18 छात्राएं थीं और मात्र 12 छात्र नजर का चश्मा लगाते थे. परिमल को अगर छोड़ दिया जाए तो मात्र 11 छात्र बचते थे.

जब यह जानकारी हिंदी विभाग  में पहुंची तो नजर का चश्मा लगाने वाले सभी छात्र संदेहास्पद हो गए. आरोपप्रत्यारोप का माहौल फिर गरम हो गया. नजर का चश्मा लगाने वालों की पहचान परेड उस क्लर्क के सामने कराई जाए. संध्या और सभी छात्राएं इस सूची को लिए फिर विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज के कमरे में विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंच गईं, ‘‘सर, अब यह साफ हो चुका है कि इन 11 में से ही कोई है जिस ने यह गंदी हरकत की है. आप इन सभी को निर्देश दें कि वे पहचान परेड में शामिल हों.’’

डाक्टर अमिजोत ने मुश्किल से उन्हें शांत कराया और आश्वासन दिया कि वे इन सभी को ऐसा करने के लिए कहेंगे हालांकि उन्होंने साथसाथ यह मत भी जाहिर कर दिया कि यह सारा काम किसी शातिर दिमाग की उपज है और वे खुद इन पत्रों को डाकखाने जा कर पोस्ट करने की बेवकूफी नहीं कर सकता.

आनंद, जिस का नाम सोनाली से जोड़ा गया था और जो नजर का चश्मा लगाता था, ने इस पहचान परेड में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘मैं कोई अपराधी हूं जो इस तरह पहचान परेड कराऊं.’’

उस के इस इनकार ने फिर माहौल गरमा दिया. संध्या इस बात पर उस से उलझ पड़ी और तूतड़ाक से नौबत हाथापाई तक आ गई. आनंद ने सीधेसीधे संध्या पर आरोप जड़ दिया, ‘‘सारा तेरा किया धरा है. डाक्टर अमितोज के साथ तेरे जो संबंध हैं न, उन्हें कौन नहीं जानता. उसी मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए तू ने औरों को भी बदनाम किया है ताकि वे लोग तुझ पर छींटाकशी न कर सकें. तू सोनाली की हितैषी नहीं है बल्कि उसे भी अपनी श्रेणी में ला कर अपने मुद्दे से सभी का ध्यान हटाना चाहती है.’’

परिमल ने उस समय तो बीचबचाव कर मामला सुलझा दिया, परंतु सरेआम की गई इस टिप्पणी ने संध्या को अंदर तक आहत कर दिया. कुछ छात्रों का मानना था कि आनंद के आरोप में सचाई भी हो सकती है.

‘‘यार, तेरी बात में दम है. सब जानते हैं कि जब से यह पत्र आया है सब से ज्यादा यही फुदक रही है,’’ संध्या के जाते ही परिमल ने आनंद को गले लगा लिया और कहने लगा कि पहला पत्र जिस में केवल संध्या और डाक्टर अमितोज का नाम था वह किसी और ने लिखा था. उस से इस की जो बदनामी हुई उसी से ध्यान बंटाने के लिए इस ने इस पत्र में औरों को घसीटा है ताकि लगे कि हमाम में सभी नंगे हैं. परिमल ने संध्या को बदनाम करने के लिए इस जलते अलाव या की वजह से उस के छात्राओं के काफी वोट जो कट जाते थे.

जो छात्र पहचान परेड कराने के लिए तैयार थे वे जब डाकखाने पहुंचे तो डाकखाने का स्टाफ इस समूह को देख कर आशंकित हो गया. उन्होंने उस महिलाकर्मी को इस पहचान परेड के लिए मना कर दिया. वह महिलाकर्मी खुद भी बहुत डरीसहमी थी, उसे नहीं पता था कि मुद्दा क्या है. उस ने तो अपनी तरफ से साधारण सी बात समझ कर जानकारी दी थी.

काफी देर तक डाकखाने के कर्मियों और छात्रों में बहस होती रही. उन का तर्क था कि वे इस झगड़े में क्यों पड़ें. वह महिलाकर्मी यदि किसी की पहचान कर लेती है तो वह छात्र उसे नुकसान भी तो पहुंचा सकता है. छात्रों ने जब दबाव बनाया तो उस ने सहकर्मियों की सलाह मान कर सरसरी निगाह छात्रों पर डालते हुए सभी को क्लीन चिट दे दी. स्पष्ट था वह इस झगड़े में नहीं पड़ना चाहती थी. वह सच बोल रही है या झूठ इस का फैसला नहीं किया जा सकता था.

बात जहां से शुरू हुई थी फिर से वहीं पहुंच गई थी. अटकलों का बाजार पुन: गरम हो चुका था. यह मांग फिर उठने लगी थी कि इस मामले में कुलपति हस्तक्षेप करें और मामला पुलिस या सीबीआई को दे दिया जाए. सभी जानते थे कि हर अपराध के पीछे एक मोटिव होता है.

हिंदी विभाग से बाहर का कोई छात्र ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि एक तो इतने सारे छात्रछात्राओं को बदनाम करने के पीछे उस का कोई उद्देश्य नहीं हो सकता था. दूसरे जो जोड़े बनाए गए थे वे बहुत ही गोपनीय जानकारी पर आधारित थे और कइयों के बारे में ऊपरी सतह पर कुछ भी दिखाई नहीं देता था, लेकिन उन में से अधिकांश के तल में कुछ न कुछ सुगबुगाहट चल रही थी.

अब तो अन्य विभागों के छात्रछात्राएं भी इस में रुचि लेने लगे थे, लेकिन यह निश्चित था कि ‘मास्टर माइंड’ इन्हीं 50 छात्रछात्राओं में से कोई एक था. 6 प्रोफैसर्स में से भी कोई हो सकता था परंतु इस की संभावना कम ही थी क्योंकि सभी प्रोफैसर्स अपनीअपनी फेवरेट छात्राओं के साथ अपने गुरुशिष्या के संबंधों पर परम संतुष्ट थे.

अचानक एक तीसरा पत्र डाक्टर अमितोज के नाम साधारण डाक से प्राप्त हुआ. यह पत्र भी अंगरेजी में था और इस में सारे घटनाक्रम पर क्षमा मांगते हुए इस का पटाक्षेप करने की प्रार्थना की गई थी. पत्र कंप्यूटर पर टाइप किया हुआ था और उस में फौंट, स्याही और कागज वही इस्तेमाल हुए थे जो दूसरे पत्र के लिए हुए थे.

डाक्टर अमितोज ने ध्यान से वह पत्र कई बार पढ़ा. अचानक उन के मस्तिष्क में एक विचार तीव्रता से कौंधा. वे तेजी से हिंदी विभाग के कार्यालय में पहुंचे और सभी छात्रछात्राओं के आवेदनपत्र की फाइल लिपिक से कह कर अपने कार्यालय में मंगवा ली. तेजी से उन की निगाहें उन आवेदनपत्रों में पूर्व शैक्षणिक योग्यता के कौलम में कुछ खोज करती दौड़ने लगीं. अचानक उन्हें वह मिल गया जिस की उन्हें तलाश थी. उन्होंने पता देखा तो वह हौस्टल का था.

तीसरा पत्र उन के हाथ में था जब उन्होंने हौस्टल के उस कमरे का दरवाजा खटखटाया. दरवाजा खुलते ही उन की निगाह सामने रखे पीसी पर पड़ी. वे समझ गए कि उन की तलाश पूरी हो चुकी है. वह कमरा युवा तलाकशुदा छात्रा कांता का था जो पूर्व में अंगरेजी साहित्य में स्नातकोत्तर थी, उस की बदसूरती और गहरे काले रंग को ले कर सभी छात्रछात्राएं मजाक उड़ाया करते थे.

उन के सामने अब इस अपराध का मोटिव स्पष्ट था और इस पर किसी तर्क की गुंजाइश नहीं थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस अपराध के लिए वे उस पर नाराज हों या तरस खाएं.

‘‘मैं नहीं पूछूंगा कि दूसरे पत्र को पोस्ट करवाने में जिन तीन लड़कों का तुम ने सहयोग लिया वे कौन थे क्योंकि उन्हें पता भी नहीं होगा कि वे क्या करने जा रहे हैं. लेकिन तुम्हारा गुरु होने के नाते एक सीख तुम्हें जरूर दूंगा. जो कमी तुम्हें अपने में नजर आती है और जिस में तुम्हारा अपना कोई दोष नहीं है उस के लिए स्वयं पर शर्मिंदा हो कर दूसरों से उस का बदला लेना अपनेआप में एक अपराध है, जो तुम ने किया है.

तुम ने इस अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की है. एक शर्त पर मैं तुम्हें क्षमा कर सकता हूं यदि तुम यह वादा करो कि कभी अपने रंगरूप पर शर्मिंदगी महसूस नहीं करोगी. अपनेआप से प्यार करना सीखो, तभी दूसरे भी तुम्हें प्यार करेंगे.’’ उन्होंने वह पत्र फाड़ा और आंसू बहाती कांता के सिर को सहला कर चुपचाप वहां से बाहर निकल आए.

लेखिका- मनजीत शर्मा ‘मीरा’

Hindi Story Collection : ई-ग्रुप : शादी की सालगिरह पर रजनी को तो अपने पति के साथ होना था

Hindi Story Collection : ‘‘वाह, इसे कहते हैं कि आग लेने गए थे और पैगंबरी मिल गई,’’ रवि और पूनम के लौन में अन्य दोस्तों को बैठा देख कर विकास बोला, ‘‘हम लोग तो तुम्हें दावत देने आए थे, पर अब खुद ही खा कर जाएंगे.’’

‘‘दावत तो शौक से खाइए पर हमें जो दावत देने आए थे वह कहीं हजम मत कर जाइएगा,’’ पूनम की इस बात पर सब ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘नहीं, ऐसी गलती हम कभी नहीं कर सकते. वह दावत तो हम अपनी जिंदगी का सब से अहम दिन मनाने की खुशी में कर रहे हैं यानी वह दिन जिस रोज मैं और रजनी दो से एक हुए थे,’’ विकास बोला.

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‘‘ओह, तुम्हारी शादी की सालगिरह है. मुबारक हो,’’ पूनम ने रजनी का हाथ दबा कर कहा.

‘‘मुबारकबाद आज नहीं, शुक्रवार को हमारे घर आ कर देना,’’ रजनी अब अन्य लोगों की ओर मुखातिब हुईं, ‘‘वैसे, निमंत्रण देने हम आप के घर…’’

‘‘अरे, छोडि़ए भी, रजनीजी, इतनी तकलीफ और औपचारिकता की क्या जरूरत है. आप बस इतना बताइए कि कब आना है. हम सब स्वयं ही पहुंच जाएंगे,’’ रतन ने बीच में ही टोका.

‘‘शुक्रवार को शाम में 7 बजे के बाद कभी भी.’’

‘‘शुक्रवार को पार्टी देने की क्या तुक हुई? एक रोज बाद शनिवार को क्यों नहीं रखते?’’ राजन ने पूछा.

‘‘जब शादी की सालगिरह शुक्रवार की है तब दावत भी तो शुक्रवार को ही होगी,’’ विकास बोला.

‘‘सालगिरह शुक्रवार को होने दो, पार्टी शनिवार को करो,’’ रवि ने सुझाव दिया.

‘‘नहीं, यार. यह ईद पीछे टर्र अपने यहां नहीं चलता. जिस रोज सालगिरह है उसी रोज दावत होगी और आप सब को आना पड़ेगा,’’ विकास ने शब्दों पर जोर देते हुए कहा.

‘‘हां, भई, जरूर आएंगे. हम तो वैसे ही कोई पार्टी नहीं छोड़ते, यह तो तुम्हारी शादी की सालगिरह की

दावत है. भला कैसे छोड़ सकते हैं,’’ राजन बोला.

‘‘पर तुम यह पार्टी किस खुशी में दे रहे हो, रवि?’’ विकास ने पूछा.

‘‘वैसे ही, बहुत रोज से राजन, रतन वगैरा से मुलाकात नहीं हुई थी, सो आज बुला लिया.’’

रजनी और विकास बहुत रोकने के बाद भी ज्यादा देर नहीं ठहरे. उन्हें और भी कई जगह निमंत्रण देने जाना था. पूनम ने बहुत रोका, ‘‘दूसरी जगह कल चले जाना.’’

‘‘नहीं, पूनम, कल, परसों दोनों दिन ही जाना पड़ेगा.’’

‘‘बहुत लोगों को बुला रहे हैं क्या?’’

‘‘हां, शादी की 10वीं सालगिरह है, सो धूमधाम से मनाएंगे,’’ विकास ने जातेजाते बताया.

‘‘जिंदादिल लोग हैं,’’ उन के जाने के बाद राजन बोला.

‘‘जिंदादिल तो हम सभी हैं. ये दोनों इस के साथ नुमाइशी भी हैं,’’ रवि हंसा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘शादी की सालगिरह इतने हल्लेगुल्ले के साथ मनाना मेरे खयाल में तो अपने प्यार की नुमाइश करना ही है. दोस्तों को बुलाने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं होती.’’

‘‘तो आप के विचार में शादी की सालगिरह नहीं मनानी चाहिए?’’ शोभा ने पूछा.

‘‘जरूर मनानी चाहिए, लेकिन अकेले में, एकदूसरे के साथ,’’ रवि पूनम की ओर आंख मार कर मुसकराया, ‘‘पार्टी के हंगामे में नहीं.’’

‘‘तभी आज तक तुम्हारी शादी की सालगिरह की दावत नहीं मिली. वैसे, तुम्हारी शादी की सालगिरह होती कब है, रवि?’’ रतन ने पूछा.

‘‘यह बिलकुल खुफिया बात है,’’ राजन हंसा, ‘‘रवि ने बता दिया तो तुम उस रोज मियांबीवी को परेशान करने आ पहुंचोगे.’’

‘‘लेकिन, यार, इंसान शादी करता ही बीवी के साथ रहने को है और हमेशा रहता भी उस के साथ ही है. फिर अगर खुशी के ऐसे चंद मौके दोस्तों के साथ मना लिए जाएं तो हर्ज ही क्या है? खुशी में चारचांद ही लग जाते हैं,’’ रतन ने कहा.

‘‘यही तो मैं कहती हूं,’’ अब तक चुप बैठी पूनम बोली.

‘‘तुम तो कहोगी ही, क्योंकि तुम भी उसी ‘ई ग्रुप’ की जो हो,’’ रवि ने व्यंग्य से कहा.

‘‘ई ग्रुप? वह क्या होता है, रवि भाई?’’ शोभा ने पूछा.

‘‘ई ग्रुप यानी एग्जिबिशन ग्रुप, अपने प्यार की नुमाइश करने वालों का जत्था. मियांबीवी को शादी की सालगिरह मना कर अपने लगाव या मुहब्बत का दिखावा करने की क्या जरूरत है? रही बात दोस्तों के साथ जश्न मनाने की, तो इस के लिए साल के तीन सौ चौंसठ दिन और हैं.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि शादी की सालगिरह बैडरूम में अपने पलंग पर ही मनानी चाहिए,’’ राजन ने ठहाका लगा कर फब्ती कसी.

‘‘जरूरी नहीं है कि अपने घर का ही बैडरूम हो,’’ रवि ने ठहाकों की परवा किए बगैर कहा.

‘‘किसी हिल स्टेशन के शानदार होटल का बढि़या कमरा हो सकता है, किसी पहाड़ी पर पेड़ों का झुंड हो सकता है या समुद्रतट का एकांत कोना.’’

‘‘केवल हो ही सकता है या कभी हुआ भी है, क्यों, पूनम भाभी?’’ रतन ने पूछा.

‘‘कई बार या कहिए हर साल.’’

‘‘तब तो आप लोग छिपे रुस्तम निकले,’’ राजन ने ठहाका लगाते हुए कहा.

शोभा भी सब के साथ हंसी तो सही, लेकिन रवि का सख्त पड़ता चेहरा और खिसियाई हंसी उस की नजर से न बच सकी. इस से पहले कि वातावरण में तनाव आता, वह जल्दी से बोली, ‘‘भई, जब हर किसी को जीने का अंदाज जुदा होता है तो फिर शादी की सालगिरह मनाने का तरीका भी अलग ही होगा. उस के लिए बहस में क्यों पड़ा जाए. छोडि़ए इस किस्से को. और हां, राजन भैया, विकास और रजनी के आने से पहले जो आप लतीफा सुना रहे थे, वह पूरा करिए न.’’

विषय बदल गया और वातावरण से तनाव भी हट गया, लेकिन पूनम में पहले वाला उत्साह नहीं था.

कोठी के बाहर खड़ी गाडि़यों की कतारें और कोठी की सजधज देख कर यह भ्रम होता था कि वहां पर जैसे शादी की सालगिरह न हो कर असल शादी हो रही हो. उपहारों और फूलों के गुलदस्ते संभालती हुई रजनी लोगों के मुबारकबाद कहने या छेड़खानी करने पर कई बार नईनवेली दुलहन सी शरमा जाती थी.

कहकहों और ठहाकों के इस गुलजार माहौल की तुलना पूनम अपनी सालगिरह के रूमानी मगर खामोश माहौल से कर रही थी. उस रोज रवि अपनी सुहागरात को पलदरपल जीता है, ‘हां, तो ठीक इसी समय मैं ने पहली बार तुम्हें बांहों में भरा था, और तुम…तुम एक अधखिले गुलाब की तरह सिमट गई थीं और… और पूनम, फिर तुम्हारी गुलाबी साड़ी और तुम्हारे गुलाबी रंग में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. तुम्हें याद है न, मैं ने क्या कहा था…अगर तुम यों ही गुलाबी हो जाओगी तो तुम्हारी साड़ी उतारने के बाद भी मैं इसी धोखे में…ओह, तुम तो फिर बिलकुल उसी तरह शरमा गईं, बिलकुल वैसी ही छुईमुई की तरह छोटी सी…’ और उस उन्माद में रवि भी उसी रात का मतवाला, मदहोश, उन्मत्त प्रेमी लगने लगता.

‘‘पूनम, सुन, जरा मदद करवा,’’ रजनी उस के पास आ कर बोली, ‘‘मैं अकेली किसेकिसे देखूं.’’

‘‘हां, हां, जरूर.’’ पूनम उठ खड़ी हुई और रजनी के साथ चली गई.

मेहमानों में डाक्टर शंकर को देख कर वह चौंक पड़ी. रवि डाक्टर शंकर के चहेते विद्यार्थियों में से था और इस शहर में आने के बाद वह कई बार डाक्टर शंकर को बुला चुका है, पर हमेशा ही वह उस समय किसी विशेष कार्य में व्यस्त होने का बहाना बना, फिर कभी आने का आश्वासन दे, कर रवि को टाल देते थे. पर आज विकास के यहां कैसे आ गए? विकास से तो उन के संबंध भी औपचारिक ही थे और तभी जैसे उसे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया.

‘‘क्यों, डाक्टर, हम से क्या नाराजगी है? हमारा निमंत्रण तो हमेशा इस बेदर्दी से ठुकराते हो कि दिल टूट कर रह जाता है. यह बताओ, विकास किस जोर पर तुम्हें खींच लाया?’’ एक गंजा आदमी डाक्टर शंकर से पूछ रहा था.

‘‘क्या बताऊं, गणपतिजी, व्यस्त तो आज भी बहुत था, लेकिन इन लोगों की शादी की सालगिरह थी. अब ऐसे खास मौके पर न आना भी तो बुरा लगता है.’’

‘‘यह बात तो है. मेरी पत्नी का भी इन लड़केलड़कियों के जमघट में आने को दिल नहीं था पर रजनी की द थी कि शादी की 10वीं सालगिरह पर उसे हमारा आशीर्वाद जरूर चाहिए, सो, आना पड़ा वरना मुझे भी रोटरी मीटिंग में जाना था.’’

पूनम को मेहमानों की आवभगत करते देख कर रवि उस के पास आया, ‘‘पूनम, जरा डाक्टर शंकर को आने के लिए कहो न कभी घर पर.’’

‘‘वे मेरे कहने से नहीं आने वाले.’’ पूनम अवहेलना से मुसकराई.

‘‘फिर कैसे आएंगे?’’

‘‘मेरे साथ आओ, बताती हूं.’’ पूनम ने रवि को अपने पीछेपीछे पैंट्री में आने का इशारा किया और वहां जा कर डाक्टर शंकर और गणपतिजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

‘‘तो इस का मतलब है कि वे लोग मजबूरन आए हैं. किसी को जबरदस्ती बुलाना और वह भी अपने प्यार की नुमाइश कर के, हम से नहीं होगा भई, यह सब.’’

‘‘मेरे खयाल में तो बगैर मतलब के पार्टी देने को ही आजकल लोग पैसे की नुमाइश समझते हैं,’’ पूनम कुछ तलखी से बोली.

‘‘तो आज जो कुछ हो रहा है उस में पैसे की नुमाइश नहीं है क्या? तुम्हारे पास पैसा होगा, तभी तो तुम दावत दोगी. लेकिन किसी निहायत व्यक्तिगत बात को सार्वजनिक रूप देना और फिर व्यस्त लोगों को जबरदस्ती खींच कर लाना मेरी नजर में तो ई ग्रुप की ओर से की जाने वाली अपनी प्रतिष्ठा की नुमाइश ही है. जहां तक मेरा खयाल है, विकास और रजनी में प्यार कभी रहा ही नहीं है. वे इकट्ठे महज इसीलिए रह रहे हैं कि हर साल धूमधाम से एकदूसरे की शादी की सालगिरह मना सकें,’’ कह कर रवि बाहर चला गया.

तभी रजनी अंदर आई, ‘‘कर्नल प्रसाद कोई भी तली हुई चीज नहीं खा रहे और अपने पास तकरीबन सब ही तली हुई चीजें हैं.’’

‘‘डबलरोटी है क्या?’’ पूनम ने पूछा, ‘‘अपने पास 3-4 किस्में की चटनियां हैं, पनीर है, उन के लिए 4-5 किस्मों के सैंडविच बना देते हैं.’’

‘‘डबलरोटी तो है लेकिन तेरी साड़ी गंदी हो जाएगी, पूनम. ऐसा कर, मेरा हाउसकोट पहन ले,’’ रजनी बोली, ‘‘उधर बाथरूम में टंगा होगा.’’ कह कर रजनी फिर बाहर चली गई. पूनम ने बाथरूम और बैडरूम दोनों देख लिए पर उसे हाउसकोट कहीं नजर नहीं आया. वह रजनी को ढूंढ़ते हुए बाहर आई.

‘‘भई, यह जश्न तो कुछ भी नहीं है, असली समारोह यानी सुहागरात तो मेहमानों के जाने के बाद शुरू होगी,’’ लोग रजनी और विकास को छेड़ रहे थे.

‘‘वह तो रोज की बात है, साहब,’’ विकास रजनी की कमर में हाथ डालता हुआ बोला, ‘‘अभी तो अपना हर दिन ईद और हर रात शबेरात है.’’

‘‘हमेशा ऐसा ही रहे,’’ हम तो यही चाहते हैं मिर्जा हसन अली बोले.

‘‘रजनी जैसे मिर्जा साहब की शुभकामनाओं से वह भावविह्वल हो उठी हो. पूनम उस से बगैर बोले वापस रसोईघर में लौट आई और सैंडविच बनाने लगी.

‘‘तू ने हाउसकोट नहीं पहना न?’’ रजनी कुछ देर बाद आ कर बोली.

‘‘मिला ही नहीं.’’

‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है. मेरे साथ चल, मैं देती हूं.’’

रजनी को अतिथिकक्ष की ओर मुड़ती देख कर पूनम बोली, ‘‘मैं ने तुम लोगों के कमरे में ढूंढ़ा था.’’

‘‘लेकिन मैं आजकल इस कमरे में सोती हूं, तो यही बाथरूम इस्तेमाल करती हूं.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘विकास आजकल आधी रात तक उपन्यास पढ़ता है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती.’’

‘‘लेकिन आज तो तू अपने ही बैडरूम में सोएगी,’’ पूनम शरारत से बोली, ‘‘आज तो विकास उपन्यास नहीं पढ़ने वाला.’’

‘‘न पढ़े, मैं तो इतनी थक गई हूं कि मेहमानों के जाते ही टूट कर गिर पड़ूंगी.’’

‘‘विकास की बांहों में गिरना, सब थकान दूर हो जाएगी.’’

‘‘क्यों मजाक करती है, पूनम.

यह सब 10 साल पहले होता था. अब तो उलझन होती है इन सब चोचलों से.’’

पूनम ने हैरानी से रजनी की ओर देखा, ‘‘क्या बक रही है तू? कहीं तू एकदम ठंडी तो नहीं हो गई?’’

‘‘यही समझ ले. जब से विकास के उस प्रेमप्रसंग के बारे में सुना था…’’

‘‘वह तो एक मामूली बात थी, रजनी. लोगों ने बेकार में बात का बतंगड़ बना दिया था.’’

‘‘कुछ भी हो. उस के बाद विकास के नजदीक जाने की तबीयत ही नहीं होती. और अब, पूनम, करना भी क्या है यह सब खेल खेल कर? 2 बच्चे हो गए, अब इस सब की जरूरत ही क्या है?’’

पूनम रजनी की ओर फटीफटी आंखों से देखती हुई सोच रही थी कि रवि की ई ग्रुप की परिभाषा कितनी सही है.

Hindi Story Collection : क्षमादान – एक गलती से अदिति और रवि के बीच कैसे पैदा हुई दरार

Hindi Story Collection : रवि 3 महीने से दीवाली पर बोनस और प्रमोशन की आस लगाए बैठा था. 2 साल की कड़ी मेहनत, कम छुट्टियां और ओवर टाइम से उस ने अपने बौस का दिल जीत लिया था. वह अपने बौस मिस्टर राकेश का फेवरेट एंप्लोई बन चुका था. उस ने सोचा था कि इस बार दीवाली पर एक महीने की लंबी छुट्टी ले कर मम्मीपापा के साथ रहेगा. मम्मी पिछले साल से ही उस की शादी की कोशिश में जुटी थीं.

अपने साथ काम करने वाले मुकेश को कई बार वह अपनी छुट्टियों की प्लानिंग बता चुका था. उस के सारे सहकर्मियों को भरोसा था कि उसे अब की बार दीवाली पर बोनस के साथसाथ प्रमोशन भी मिलेगा. मिस्टर राकेश ने प्रमोशन की लिस्ट में रवि का नाम सब से ऊपर लिखा हुआ था और उसे वे कई बार बता भी चुके थे. हालांकि हैड औफिस से फाइनल लिस्ट आनी बाकी थी.

सप्ताह का पहला दिन था. रवि अपने सहकर्मियों को गुड मौर्निंग कहता हुआ अपने कैबिन में जा रहा था, तभी चपरासी गुड्डू रवि से बोला, ‘‘रवि साहब, आप को बौस ने बुलाया है.’’

‘‘मुझे,’’ रवि के मुंह से अचानक निकला था.

पास के कैबिन में बैठा मुकेश रवि की तरफ ही देख रहा था. उस का सवाल सुन कर वह बताने लगा, ‘‘अरे रवि, तुम्हें पता चला हमारे बौस राकेश साहब की मदर की तबीयत ज्यादा खराब है. इसलिए वे छुट्टी पर चले गए हैं.’’

‘‘अच्छा, कब तक के लिए,’’ रवि के चेहरे पर थोड़ी परेशानी झलक रही थी और सहानुभूति भी. परेशानी खुद की छुट्टी को ले कर थी. वह सोच रहा था कि अगर बौस छुटट्ी पर चले गए हैं तो उस की छुट्टी की कौन मंजूरी देगा और सहानुभूति अपने बौस के लिए थी.

‘‘यार, फिलहाल तो उन्होंने एक हफ्ते की ऐप्लिकेशन दी है, लेकिन कुछ नहीं कह सकते कि वे कब तक लौटेंगे,’’ मुकेश ने बताया.

रवि के चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह अपनी छुट्टियां को ले कर संशय में था. अब जब उस के बौस छुट्टी पर थे, तो उसे पता नहीं ज्यादा दिन की छुट्टी मिल सकेगी या नहीं.

मुकेश ने उस के चेहरे के भावों को भांपते हुए कहा, ‘‘तू फिक्र मत कर, तुझे छुट्टी तो मिल ही जाएगी. 2 साल से लगातार हार्डवर्क जो कर रहा है तू.’’

रवि इस पर मुसकरा दिया. फिर धीमे से बोला, ‘‘फिर यह नया बौस कौन है, जो मुझे बुला रहा है?’’

‘‘कोई नई मैडम राकेश सर की जगह टैंपरेरी अपौइंट हुई हैं. सुना है मुंबई से हैं,’’ मुकेश ने बताया और बोला, ‘‘तू मिल ले जा कर, औफिस का वर्क इंट्रोड्यूस करवाने के लिए बुलवा रही होंगी तुझे.’’

‘‘चल, फिर मैं उन से मिल कर आता हूं,’’ रवि के चेहरे पर अब थोड़ी राहत झलक रही थी.

मुकेश की इस बात से उसे राहत पहुंची थी कि 2 साल से वह हार्डवर्क कर रहा था. कंपनी के पास उस की छुट्टी कैंसिल करने की कोई वजह भी नहीं थी.

ये सब सोचतेसोचते रवि बौस के रूम का दरवाजा खोल कर अंदर चला गया.

‘‘प्लीज, मे आई कम इन मैम,’’ रवि कैबिन के दरवाजे को आधा खोल कर धीरे से बोला.

‘‘कम इन,’’ मैडम किसी फाइल को सिर झुका कर देख रही थीं.

रवि चुपचाप उन की टेबल के सामने जा कर खड़ा हो गया.

मैडम ने अचानक अपना सिर उठाया और शायद ‘सिट डाउन, प्लीज’ कहने ही वाली थीं कि रुक गईं.

रवि भी अपनी जगह बस खड़े का खड़ा ही रह गया. उसे इस बात की बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि वह उसे आज यहां अचानक इस तरह मिलेगी. वह अदिति थी. कालेज की पुरानी दोस्त नहीं, कालेज के दिनों की रवि की एकमात्र दुश्मन. दोनों ने कभी एकदूसरे से कालेज में बात भी नहीं की थी, लेकिन उन का झगड़ा फेसबुक चैटिंग पर पहले हो चुका था.

रवि का कालेज में पहला साल था. वह पढ़ाकू किस्म का लड़का था. उन दिनों वह अदिति की तरफ आकर्षित हो गया था, लेकिन उसे उस से बात करने में न जाने क्यों बहुत ज्यादा झिझक महसूस होती थी. अदिति अच्छी होस्ट होने के साथसाथ कविताएं लिखती और सुनाती भी थी. ऐसी कई बातों ने रवि को प्रभावित कर दिया था. लेकिन रवि चुप रहने वाला लड़का था. वह अदिति से बात करना तो चाहता था, पर कर नहीं पाता था.

2 सैमेस्टर पूरे होने के बाद रवि के कालेज में कुछ दिनों के लिए छुट्टियां हो गई थीं.

तभी एकाएक उसे फेसबुक जैसे माध्यम का साथ मिल गया. उस ने इंटरनैट पर फेसबुक आईडी बना ली और अदिति को फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी. अदिति ने उसे ऐक्सैप्ट भी कर लिया. अब जैसे रवि को नया आसमान मिल गया था, थोड़ाबहुत जो भी लिख लिया करता था, फेसबुक पर पोस्ट करता, उस के क्लासमेट्स भी अब उसे नोटिस करने लगे थे. फिर वह एकाएक अदिति को अकसर उस की कविताओं की तारीफ लिख कर भेजा करता, उस की तसवीरों पर कमैंट कर दिया करता. बदले में अदिति भी रिप्लाई करती थी.

एक दिन उस ने अदिति की एक तसवीर देखी और उस पर उसे कुछ पंक्तियां लिखने का मन हुआ. उस दिन उस ने कमैंट में अपनी वे पंक्तियां न लिख कर अदिति की उस तसवीर को डाउनलोड कर अपनी टाइमलाइन से उन पंक्तियों के साथ अपलोड कर दिया और अदिति की टाइमलाइन पर वह तसवीर टैग के जरिए भेज दी. यह सब देखते ही अदिति ने रवि को मैसेज किया ‘अपलोड करने से पहले पूछ तो लेते.’

रवि ने रिप्लाई किया, ‘जी, सौरी. आप को बुरा लगा हो तो मैं उस तसवीर को हटा देता हूं.’

रवि फेसबुक का नौसिखिया संचालक था. उसे मालूम नहीं था कि उस फोटो को पूरी तरह से हटाने के लिए उसे डिलीट के औप्शन पर जाना होगा. उस ने सामने दिख रहे ‘रिमूव’ के औप्शन से उस तसवीर को अपने प्रोफाइल से हटा लिया और सोचने लगा कि तसवीर पूरी तरह से हट चुकी है.

थोड़ी देर बाद अदिति का फिर मैसेज आया, ‘फोटो अभी तक हटा क्यों नहीं?’

रवि तो समझ रहा था कि वह हट चुका है, इसलिए रिप्लाई किया, ‘हटा तो दिया है.’

अदिति का इस बार थोड़ा तीखा रिप्लाई आया, ‘अपने मोबाइल अपलोड में देख.’

रवि ‘मोबाइल अपलोड’ नाम की बला को उस समय जानता ही नहीं था. उस ने फिर रिप्लाई किया, ‘कहां?’

‘मोबाइल अपलोड में देख,’ अदिति का रिप्लाई अब सख्त लग रहा था.

‘ओके,’ रवि ने नपातुला जवाब दिया.

उसे हलका सा धक्का लगा था. उसे अदिति के ‘अपने अपलोड में देख’ जैसे शब्दों से ठेस पहुंची थी, क्योंकि अब तक उन दोनों की बातचीत में हर जगह ‘आप देखिए’ जैसे शब्द ही शामिल थे.

रवि ने जैसेतैसे ‘मोबाइल अपलोड’ ढूंढ़ा. अब वह उस तसवीर पर गया, लेकिन वहां भी उसे डिलीट का औप्शन नहीं दिख रहा था.

तब तक अदिति का एक और तीखा रिप्लाई आ चुका था, ‘फोटो अभी तक नहीं हटा.’

फिर एक बार अदिति ने मैसेज किया, ‘मिस्टर, क्या चल रहा है यह सब?’

रवि ने रिप्लाई किया, ‘कुछ टैक्निकल प्रौब्लम आ रही है. साइबर कैफे जा कर जल्दी ही उस मनहूस फोटो को हटाता हूं.’

रवि अब थोड़ा झुंझला सा गया था. उसे अदिति का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा था.

‘मनहूस…’ इस के आगे कुछ अपशब्द थे अदिति के रिप्लाई में.

अब रवि ने सब से पहले साइबर कैफे में एक व्यक्ति से पूछ कर उस फोटो को डिलीट किया. फिर अदिति को मैसेज किया, ‘आप का वह फोटो डिलीट हो चुका है. एक बात कहूंगा कि वह मेरी गलती थी, पर आप को यों ‘तू तड़ाक’ से तो पेश नहीं आना चाहिए.’

अब बात गरमा गई थी. धीरेधीरे रिप्लाई में भयंकर झगड़ा हो गया और फिर रवि जिस एकमात्र लड़की को अपनी क्लास में पसंद करता था, उस की फेसबुक फ्रैंड लिस्ट से बाहर हो चुका था.

आखिर में रवि ने थोड़ा सोचा और एक लंबा सौरी मैसेज भेज दिया लेकिन तब तक वह अदिति की फ्रैंड लिस्ट से बाहर हो चुका था.

छुट्टियों के बाद जब कालेज खुला, तो कालेज में बातें चल रही थीं कि रवि ने अदिति को प्रपोज किया था. रवि ने चुपचाप सब सुन लिया लेकिन इस बारे में कोई रिप्लाई नहीं किया.

वह जैसे अपनी ही नजरों में गिरता जा रहा था. अदिति ने ही शायद कालेज में यह बात फैलाई थी. फेसबुक से हुई एक गलती ने उसे संजीदा छात्रों की फेहरिस्त से बाहर कर दिया था और हर ओर कुछ महीने तक उस की हंसी उड़ाई गई थी.

एक दिन क्लास में उस के पीछे की सीट पर बैठ कर अदिति ने उस के दोस्तों के साथ मिल कर अप्रत्यक्ष रूप से रवि पर कई कटाक्ष कर दिए थे. वह उस की हंसी उड़ा रही थी, पर रवि कुछ नहीं बोला. वह अब तक खुद की ही गलती मान रहा था, लेकिन उस दिन से उस

ने अदिति से नफरत करना शुरू कर दिया था. अब अदिति को भी उस ने अपनी फ्रैंडलिस्ट से हटा दिया था और एकएक कर अदिति के दोस्त भी ब्लौक होते चले गए.

फिर न उस की अदिति से सामने कभी बात हुई और न ही फेसबुक पर, आज इतने साल बाद फिर वह उस के सामने थी और अब उस की बौस थी.

दोनों लगभग 10 मिनट तक स्तब्ध हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. अदिति ने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा, ‘‘सिट डाउन, प्लीज.’’

रवि चुपचाप बैठ गया. 5 मिनट तक कैबिन में खामोशी छाई रही. अदिति अभी फिर से अपनी फाइल में उलझ गई थी या शायद नाटक कर रही थी.

फिर नजरें उठा कर बोली, ‘‘रवि, मुझे कल तक इस औफिस की सभी जरूरी फाइलें दे दो.’’

‘‘जी मैम,’’ रवि ने धीमे से कहा. उस की नजरें झुकी हुई थीं.

‘‘ओके, आप जा सकते हैं,’’ अदिति ने कहा, इस बार उस की नजरें भी झुकी हुई थीं.

रवि कैबिन से बाहर आ गया था लेकिन अपने अतीत से नहीं.

उस रात उसे नींद नहीं आ रही थी. गुजरे हुए कल में जो हुआ था उसे तो वह नजरअंदाज कर चुका था, लेकिन अब उस से उस की वर्तमान जिंदगी प्रभावित होती दिख रही थी.

रवि को फिक्र सता रही थी कि उस की छुट्टियां अदिति अस्वीकृत न कर दे. वह लंबे समय से छुट्टियों का इंतजार कर रहा था और अब अदिति के रहते उसे छुट्टी मिलना मुश्किल लगने लगा था. उसे लग रहा था कि अदिति उस से पुरानी दुश्मनी जरूर निकालेगी.

अगले दिन वह परेशान सा औफिस पहुंचा. चपरासी ने पिछले दिन की तरह ही उसे आज फिर बताया कि बौस यानी अदिति ने उसे कैबिन में बुलाया है.

रवि वे जरूरी फाइलें ले कर कैबिन में पहुंचा, जो उसे पिछले दिन अदिति ने छांटने को कही थीं.

‘‘मे आई कम इन मैम,’’ रवि ने औपचारिकता निभाई.

‘‘यसयस,’’ अदिति ने उस की तरफ आज पहली बार मुसकरा कर देखा था. ‘‘वे फाइल्स?’’

‘‘जी मैम, ये रहीं,’’ रवि ने फाइलों का एक ढेर अदिति की टेबल पर रख दिया.

‘‘आप को एक महीने की छुट्टी चाहिए?’’ अदिति तीखी मुसकराहट के साथ कह रही थी.

‘‘जी मैम,’’ रवि सिर नीचे किए हुए था.

‘‘इस वक्त औफिस में राकेशजी नहीं हैं, तो आप को इतनी लंबी छुट्टी

मिलना तो मुश्किल है,’’ अदिति रवि की तरफ अब गंभीरता से देखते हुए कह रही थी.

‘‘ओके, मैम. आप जैसा कहें,’’ रवि ने हलका सा सिर उठा कर कहा.

‘‘रविजी, आप हमारी कंपनी के बैस्ट एंप्लोई हैं,’’ अदिति इतना कहते हुए रुकी और फिर एक कागज हाथ में उठा कर बोली, ‘‘और आप की छुट्टी मैं भी आप से नहीं छीन सकती.’’

अदिति मुसकरा रही थी. अब रवि ने वह कागज अदिति मैम के हाथ से ले लिया और उसे पढ़ कर अब वह भी मुसकरा उठा, ‘‘थैंक्यू मैम,’’ रवि ने खुश होते हुए कहा. रवि की आंखों में कृतज्ञता झलक रही थी.

‘‘इट्स ओके रवि,’’ अदिति अब गंभीर मुद्रा में कह रही थी.

कैबिन में कुछ लमहों तक खामोशी छा गई थी. अदिति ने उस खामोशी को तोड़ा, ‘‘रवि, ये ‘इट्स ओके’ तुम्हारे उस 10 साल पहले के सौरी के लिए है, जो तुम ने फेसबुक पर मैसेज किया था.’’

रवि चुपचाप खड़ा हो गया था. फिर कुछ देर बाद बोला, ‘‘दरअसल, वह मेरी नासमझी थी. मैं ने फेसबुक माध्यम को समझने में ही गलती कर दी थी. मुझे नहीं मालूम था कि किसी की तसवीर बिना पूछे अपलोड कर देना गलत है.’’

‘‘आई एम आलसो सौरी,’’ अदिति कह रही थी.

‘‘किसलिए मैम,’’ रवि जैसे अब सारी नफरत भुला चुका था.

‘‘गलती मेरी भी थी. मैं जरूरत से ज्यादा ही तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार कर रही थी. मुझे वह प्रपोज वाली बात भी नहीं उड़ानी चाहिए थी,’’ अदिति की आंखों में भी जैसे कुछ पिघल रहा था, ‘‘मैं ने तुम्हें गलत समझा था.’’

‘‘इट्स ओके मैम,’’ रवि इतना कह कर चुप हो गया था.

अदिति ने फिर चुप्पी तोड़ी, ‘‘मैं चाहती तो तुम से बदला लेती. तुम्हारी छुट्टियां कैंसिल कर देती. एक बार मैं ने सोचा भी, पर…’’

कुछ देर चुप रहने के बाद अदिति जैसे कोई सटीक बात ढूंढ़ कर बोली, ‘‘कल को हो सकता है तुम मेरी जगह हो और मैं तुम्हारी जगह. इस तरह नफरत से जिंदगी नहीं जी जाती.’’

कुछ देर तक फिर खामोशी छाई रही और अदिति ने फिर कहा, ‘‘उम्मीद है, तुम ने मुझे माफ कर दिया होगा.’’

‘‘औफकोर्स मैम,’’ रवि ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘तो कल से तुम छुट्टी पर हो,’’ अदिति ने मुसकराते हुए रवि से पूछा.

‘‘जी मैम,’’ रवि ने भी हंस कर जवाब दिया.

‘‘ओके, ऐंजौय यौर्स हौलीडेज. तुम जा सकते हो,’’ अदिति इतना कह कर आंख बंद कर अपनी कुरसी पर पीठ टेक कर बैठ गई जैसे कोई भारी बोझ कंधे से उतार दिया हो.

रवि जब बाहर जाने के लिए कैबिन का दरवाजा खोल रहा था, तब मुसकराते हुए अदिति ने उसे रोक कर कहा, ‘‘रवि, हैप्पी दीवाली.’’

रवि भी मुसकरा दिया और बोला, ‘‘आप को भी, अदिति मैम.’’

इतना कहते हुए रवि मुसकराता हुआ बाहर आ गया. उन दोनों के बीच खड़ी कई साल पुरानी दीवारें अचानक ढह गई थीं. जिंदगी खुशियां बांट कर, उन का कारण बन कर चलती है, नफरतें पाल कर नहीं.

दीवाली के इस अवसर पर क्षमादान के दीपकों की जलती हुई लौ में रवि और अदिति के दिलों में नफरतों से भरे कुछ अंधेरे कोने रोशन हो चुके थे.

Inspirational Hindi Stories : रिस्क – मानसी से ‘हां’ सुनने के लिए क्यों बेकरार था रवि

Inspirational Hindi Stories : इस नए औफिस में काम करते हुए मुझे 3 महीने ही हुए हैं और अब तक मेरे सभी सहयोगी जान चुके हैं कि मैं औफिस की ब्यूटी क्वीन मानसी को बहुत चाहता हूं. मुझे इस बात की चिंता अकसर सताती है कि जहां मैं उस से शादी करने को मरा जा रहा हूं, वहीं वह मुझे सिर्फ अच्छा दोस्त ही बनाए रखना चाहती है. मानसी और मेरे प्रेम संबंध में और ज्यादा जटिलता पैदा करने वाली शख्सीयत का नाम है, शिखा. साथ वाले औफिस में कार्यरत शोख, चंचल स्वभाव वाली शिखा अकेले में ही नहीं बल्कि सब के सामने भी मेरे साथ फ्लर्ट करने का कोई मौका नहीं चूकती है.

‘‘दुनिया की कोई लड़की तुम्हें उतनी खुशी नहीं दे सकती, जितनी मैं दूंगी. खासकर बैडरूम में तुम्हारे हर सपने को पूरा करने की गारंटी देती हूं,’’ शादी के लिए मेरी ‘हां’ सुनने को शिखा अकेले में मुझे अकसर ऐसे प्रलोभन देती. ‘‘तुम पागल हो क्या? अरे, किसी ने कभी तुम्हारी ऐसी बातों को सुन लिया, तो लोग तुम्हें बदनाम कर देंगे,’’ उस की बिंदास बातें सुन कर मैं सचमुच हैरान हो उठता.

‘‘मुझे लोगों की कतई परवा नहीं और यह साबित करना मेरे लिए बहुत आसान है कि मैं गलत लड़की नहीं हूं.’’ ‘‘तुम यह कैसे साबित कर सकती हो?’’

‘‘तुम मुझ से शादी करो और अगर सुहागरात को तुम्हें मेरे वर्जिन होने का सुबूत न मिले तो अगले दिन ही मुझ से तलाक ले लेना.’’ ‘‘ओ, पागलों की लीडर, तू मेरा पीछा छोड़ और कोई नया शिकार ढूंढ़,’’ मैं ने नाटकीय अंदाज में उस के सामने हाथ जोड़े, तो हंसतेहंसते उस के पेट में दर्द हो गया.

मानसी को शिखा फूटी आंख नहीं सुहाती है. मेरी उस पागल लड़की में कोई दिलचस्पी नहीं है, बारबार ऐसा समझाने पर भी मानसी आएदिन शिखा को ले कर मुझ से झगड़ा कर ही लेती. उस ने पिछले हफ्ते से जिद पकड़ ली थी कि मैं शिखा को जोर से डांट कर सब के बीच एक बार अपमानित करूं, जिस से कि वह मेरे साथ बातचीत करना बिलकुल बंद कर दे.

‘‘मेरी समझ से वह हलकेफुलके मनोरंजन के लिए मेरे साथ फ्लर्ट करने का नाटक करती है. उसे सब के बीच अपमानित करना गलत होगा, क्योंकि वह दिल की बुरी नहीं है, मानसी,’’ मेरे इस जवाब को सुन मानसी ने 2 दिन तक मुझ से सीधे मुंह बात नहीं की थी. मैं ने तंग आ कर दूसरे दिन शिखा को लंच टाइम में सख्ती से समझाया, ‘‘मैं बहुत सीरियसली कह रहा हूं कि तुम मुझ से दूर रहा करो.’’

‘‘क्यों,’’ उस ने आंखें मटकाते हुए कारण जानना चाहा. ‘‘क्योंकि तुम्हारा मेरे आगेपीछे घूमना मानसी को अच्छा नहीं लगता है.’’

‘‘उसे अच्छा नहीं लगता है तो मेरी बला से.’’ ‘‘बेवकूफ, मैं उस से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘मुझ से बड़े बेवकूफ, मानसी मुझ से जरा सी ज्यादा सुंदर जरूर है, पर मैं दावे से कह रही हूं कि मेरी जैसी शानदार लड़की तुम्हें पूरे संसार में नहीं मिलेगी.’’ ‘‘देवी, तू मेरे ऊपर लाइन मारना छोड़ दे.’’

‘‘मैं अपने पापी दिल के हाथों मजबूर होने के कारण तुम से दूर नहीं रह सकती हूं, लव.’’ ‘‘मुहावरा तो कम से कम ठीक बोल, मेरी जान की दुश्मन. पापी पेट होता है, दिल नहीं.’’

‘‘तुम्हें क्या पता कि मेरा पापी दिल सपनों में तुम्हारे साथ कैसेकैसे गुल खिलाता है,’’ इस डायलौग को बोलते हुए उस के जो सैक्सी हावभाव थे, उन्हें देख कर मैं ऐसा शरमाया कि उस से आगे कुछ कहते नहीं बना. पिछले हफ्ते मानसी ने अब तक मुझ से शादी के लिए ‘हां’ ‘ना’ कहने के पीछे छिपे कारण बता दिए, ‘‘मेरे मम्मीपापा की आपस में कभी नहीं बनी. पापा अभी भी मम्मी पर हाथ उठा देते हैं. भाभी घर में बहुत क्लेश करती हैं. मेरी बड़ी बहन अपने 3 साल के बेटे के साथ मायके आई हुई है, क्योंकि जीजाजी किसी दूसरी के चक्कर में पड़ गए हैं, समाज में नीचा दिखाने वाले इन कारणों के चलते मुझे लगता था कि अपनी शादी हो जाने के बाद मैं अपने पति और ससुराल वालों से कभी आंखें ऊंची कर के बात नहीं कर पाऊंगी. अब अगर तुम्हें इन बातों से फर्क न पड़ता हो तो मैं तुम से शादी करने के लिए ‘हां’ कह सकती हूं.’’

‘‘मुझे इन सब बातों से बिलकुल भी फर्क नहीं पड़ता है. आई एम सो हैप्पी,’’ मानसी की ‘हां’ सुन कर मेरी खुशी का सचमुच कोई ठिकाना नहीं रहा था. उस दिन के बाद मानसी ने बड़े हक के साथ मुझे शिखा से कोई संबंध न रखने की चेतावनी दिन में कईकई बार देनी शुरू कर दी थी. उसे किसी से भी खबर मिलती कि शिखा मुझ से कहीं बातें कर रही थी, तो वह मुझ से झगड़ा जरूर करती.

मैं ने परेशान हो कर एक दिन शिखा की सीट पर जा कर विनती की, ‘‘मानसी मुझ से शादी करने को राजी हो गई है और उसे हमारा ‘हैलोहाय’ करना तक पसंद नहीं है. तुम मुझ से दूर रहा करो, प्लीज.’’ ‘‘जब तक मानसी के साथ तुम्हारी शादी के कार्ड नहीं छप जाते, मैं तो तुम से मिलती रहूंगी,’’ उस पागल लड़की ने मेरी विनती को तुरंत ठुकरा दिया था.

‘‘तुम मेरी प्रौब्लम को समझने की कोशिश करो, प्लीज.’’ ‘‘और तुम मेरी प्रौब्लम को समझो. देखो, मैं तुम्हें प्यार करती हूं और इसीलिए आखिरी वक्त तक याद दिलाती रहूंगी कि मुझ से बेहतर पत्नी तुम्हें…’’ उस पर अपनी बात का कोई असर

न होते देख मैं उस का डायलौग पूरा सुने बिना ही वहां से चला आया था. किसी झंझट में न फंसने के लिए मैं ने अगले हफ्ते छोटे से बैंकटहौल में हुई अपने जन्मदिन की पार्टी में शिखा को नहीं बुलाया, पर उसे न बुलाने का मेरा फैसला उसे पार्टी से दूर रखने में सफल नहीं हुआ था. वह लाल गुलाब के फूलों का सुंदर गुलदस्ता ले कर बिना बुलाए ही पार्टी में शामिल होने आ गई थी.

‘‘रवि डियर, मुझे यहां देख कर टैंशन मत लो, मैं ने तुम्हें फूल भेंट कर दिए, शुभकामनाएं दे दीं और अब अगर तुम हुक्म दोगे, तो मैं उलटे पैर यहां से चली जाऊंगी,’’ अपनी बात कहते हुए वह बिलकुल भी टैंशन में नजर नहीं आ रही थी. ‘‘अब आ ही गई हो तो कुछ खापी कर जाओ,’’ मुझ से पार्टी में रुकने का निमंत्रण पा कर उस का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा था.

अचानक मानसी हौल में आई उसी दौरान शिखा मेरा हाथ पकड़ कर मुझे डांस फ्लोर की तरफ ले जाने की कोशिश कर रही थी. मुझे उस के आने का तब पता चला जब उस ने पास आ कर शिखा को मेरे पास से दूर धकेला और अपमानित करते हुए बोली, ‘‘जब तुम्हें रवि ने पार्टी में बुलाया ही नहीं था, तो क्यों आई हो?’’

‘‘मेरी मरजी, वैसे तुम होती कौन हो मुझ से यह सवाल पूछने वाली,’’ शिखा उस से दबने को बिलकुल तैयार नहीं थी. ‘‘तुझे मालूम नहीं कि हमारी शादी होने वाली है, घटिया लड़की.’’

‘‘तुम मुझ से तमीज से बात करो,’’ शिखा को भी गुस्सा आ गया, ‘‘रवि से तुम्हारी शादी होने वाली बात मैं उसी दिन मानूंगी जिस दिन शादी का कार्ड अपनी आंखों से देख लूंगी.’’ ‘‘तुम्हारे जैसी जबरदस्ती गले पड़ने वाली बेशर्म लड़की मैं ने दूसरी नहीं देखी. कहीं तुम किसी वेश्या की बेटी तो नहीं हो?’’

‘‘मेरी मां के लिए अपशब्द निकालने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई,’’ वह मानसी की तरफ झपटने को तैयार हुई, तो मैं ने फौरन उस का हाथ मजबूती से पकड़ कर उसे रोका. ‘‘इसे इसी वक्त यहां से जाने को कहो, रवि,’’ मानसी ऊंची आवाज में कह कर उसे बेइज्जत कर रही थी.

‘‘तुम जरा चुप करो,’’ मैं ने मानसी को जोर से डांटा और फिर हाथ छुड़ाने को मचल रही शिखा से कहा, ‘‘तुम अपने गुस्से को काबू में करो. क्या तुम दोनों ही मेरी पार्टी का मजा खराब करना चाहती हो?’’ शिखा ने फौरन अपने गुस्से को पी कर कुछ शांत लहजे में जवाब दिया, ‘‘नहीं, और तभी मैं इस बेवकूफ को अपने साथ बदतमीजी करने के लिए माफ करती हूं.’’

मेरे द्वारा डांटे जाने से बेइज्जती महसूस कर रही मानसी ने मुझे अल्टीमेटम दे दिया, ‘‘रवि, तुम इसे अभी पार्टी से चले जाने को कहो, नहीं तो मैं इसी पल यहां से चली जाऊंगी.’’ ‘‘मानसी, छोटे बच्चे की तरह जिद मत करो.’’

उस ने मुझे टोक कर अपनी धमकी दोहरा दी, ‘‘अगर तुम ने ऐसा नहीं किया, तो तुम मेरे साथ घर बसाने के सपने देखना भूल जाना.’’ ‘‘तुम अपना घर बसने की फिक्र न करो, माई लव, क्योंकि मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं,’’ शिखा ने बीच में ही यह डायलौग बोल कर बात को और बिगाड़ दिया था.

‘‘तुझ जैसी कई थालियों में मुंह मारने की शौकीन लड़की से कोई इज्जतदार युवक शादी नहीं करेगा,’’ मानसी उसे अपमानित करने वाले लहजे में बोली, ‘‘तुम जैसी आवारा लड़कियों को आदमी अपनी रखैल बनाता है, पत्नी नहीं.’’ अपने गुस्से को काबू में रखने की कोशिश करते हुए शिखा ने मुझे सलाह दी, ‘‘रवि, तुम इस कमअक्ल से तो शादी मत ही करना. इस का चेहरा जरूर खूबसूरत है, पर मन के अंदर बहुत ज्यादा जहर भरा हुआ है.’’

‘‘तुम इसे फौरन पार्टी से चले जाने को कह रहे हो या नहीं,’’ मानसी ने चिल्ला कर अपना अल्टीमेटम एक बार फिर दोहराया, तो मेरी परेशानी व उलझन बहुत ज्यादा बढ़ गई. मेरी समस्या सुलझाने की पहल शिखा ने की.

‘‘रवि, तुम टैंशन मत लो. पार्टी में हंसीखुशी का माहौल बना रहे, इस के लिए मैं यहां से चली जाती हूं. हैप्पी बर्थडे वन्स अगेन,’’ मेरे कंधे को दोस्ताना अंदाज में दबाने के बाद वह दरवाजे की तरफ बढ़ने को तैयार हो गई थी. ‘‘मैं तुम्हें बाहर तक छोड़ने चलूंगा. जरा 2 मिनट के लिए रुक जाओ, प्लीज.’’

’’तुम इसे बिलकुल भी बाहर तक छोड़ने नहीं जाओगे,’’ मानसी के चहरे की खूबसूरती को गुस्से के हावभावों ने विकृत कर दिया था. मैं ने गहरी सांस ली और मानसी के पास जा कर बोला, ’’मेरी जिंदगी से निकल जाने की तुम्हारी धमकी को नजरअंदाज करते हुए मैं अपने इस पल दिल में पैदा हुए ताजा भाव तुम से जरूर शेयर करूंगा. सच यही है कि आजकल मेरी जिंदगी में सारी टैंशन तुम्हारे और सारा हंसनामुसकराना शिखा के कारण हो रहा है. तुम्हारी खूबसूरती के सम्मोहन से निकल कर अगर मैं निष्पक्ष भाव से देखूं, तो मुझे साफ महसूस होता है कि यह जिंदादिल लड़की मेरी जिंदगी की रौनक बन गई है.’’

’’गो, टू हैल,’’ मेरी बात सुन कर आगबबूला हो उठी मानसी को जन्मदिन की बिना शुभकामनाएं दिए दरवाजे की तरफ जाता देख कर भी मैं ने उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की. मैं शिखा का हाथ पकड़ कर मुसकराते हुए बोला, ’’ओ, पगली लड़की, मुझे साफ नजर आ रहा है कि अगर तुम मेरी जिंदगी से निकल गई, तो वह रसहीन हो जाएगी. तुम अगर मुझे आश्वासन दो कि तुम अपने जिंदादिल व्यक्तित्व को कभी नहीं मुरझाने दोगी, तो मैं तुम से एक महत्त्वपूर्ण सवाल पूछना चाहूंगा?’’

’’माई डियर रवि, मैं तुम्हारे प्यार में हमेशा ऐसी ही पागल बनी रहूंगी. प्लीज जल्दी से वह खास सवाल पूछो न,’’ वह उस छोटी बच्ची की तरह खुश नजर आ रही थी, जिसे अपना मनपसंद उपहार मिलने की आशा हो. ’’अपने बहुत से शुभचिंतकों की चेतावनी को नजरअंदाज कर मैं तुम्हारे जैसी बिंदास लड़की को अपनी जीवनसंगिनी बनाने का रिस्क लेने को तैयार हूं. क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

’’हुर्रे, मैं तुम से शादी करने को बिलकुल तैयार हूं, माई लव,’’ जीत का जोरदार नारा लगाते हुए उस ने सब के सामने मेरे होंठों पर चुंबन अंकित कर हमारे नए रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगा दी थी.

Short Stories in Hindi : यह सलीब – इच्छाओं और महत्त्वाकांक्षाओं के बोझ तले दबे व्यक्ति की कहानी

Short Stories in Hindi : मैं  और बूआ अभी चर्चा कर ही रही थीं कि आज किसी के पास इतना समय कहां है जो एकदूसरे से सुखदुख की बात कर सके. तभी कहीं से यह आवाज कानों में पड़ी-

मैं किसे कहूं मेरे साथ चल,

यहां सब के सर पे सलीब है

कोई दोस्त है न रकीब है

तेरा शहर कितना अजीब है.

यहां किस का चेहरा पढ़ा करूं

यहां कौन इतने करीब है…

‘‘सच ही तो कह रहा है गाने वाला. आज किस के पास इतना समय है, जो किसी का चेहरा पढ़ा जा सके. अपने आप को ही पूरी तरह आज कोई नहीं जानता, अपना ही अंतर्मन क्या है क्या नहीं? हर इनसान हर पल मानो एक सूली पर लटका नजर आता है.’’

मैं ने कहा तो बूआ मेरी तरफ देख कर तनिक मुसकरा दीं.

‘‘सलीब सिर पर उठाने को कहा किस ने? उतार कर एक तरफ रख क्यों नहीं देते और रहा सवाल चेहरा पढ़ने का तो वह भी ज्यादा मुश्किल नहीं है. बस, व्यक्ति में एक ईमानदारी होनी चाहिए.’’

‘‘ईमानदार कौन होना चाहिए? सुनाने वाला या सुनने वाला?’’

‘‘सुनने वाला, सुनाने वाले की पीड़ा को तमाशा न बना दे, उस का दर्द समझे, उस का समाधान करे.’’

अकसर बूआ की बातों से मैं निरुत्तर हो जाती हूं. बड़ी संतुष्ट प्रवृत्ति की हैं मेरी बूआ. जो उन के पास है उस का उन्हें जरा भी अभिमान नहीं और जो नहीं उस का अफसोस भी नहीं है.

‘‘किसी दूसरे की थाली में छप्पन भोग देख कर अपनी थाली की सूखी दालरोटी पर अफसोस मत करो. अगर तुम्हारी थाली में यह भी न होता तो तुम क्या कर लेतीं? अपनी झोंपड़ी का सुख ही परम सुख होता है. पराया महल मात्र मृगतृष्णा है. सुख कहीं बाहर नहीं है…सुख यहीं है तुम्हारे ही भीतर.’’

मुझे कभीकभी यह सब असंभव सा लगता है. ऐसा कैसे हो सकता है कि अपनी किसी सखी या रिश्तेदार महिला के गले में हीरे का हार देख कर उसे अपने गले में देखने की इच्छा न जागे.

एक दिन मेरी भाभी ने ऐसे ही कह दिया कि हीरा आजकल का लेटैस्ट फैशन है तो झट से अपने कुछ टूटेफूटे गहने बेच मैं हीरे के टौप्स खरीद लाई थी और जब तक पहन कर भाभी को दिखा नहीं दिए, हीनभावना से उबर ही नहीं पाई थी. बूआ को सारा किस्सा सुनाया तो पुन: मैं अनुत्तरित रह गई थी.

‘‘आज टूटेफूटे कुछ गहने थे इसलिए बेच कर टौप्स ले लिए…कल अगर कोई हीरों का सैट दिखा कर तुम्हारे स्वाभिमान को चोट पहुंचाएगा तो क्या बेचोगी, शुभा?’’

अवाक् रह गई थी मैं. टौप्स बूआ के हाथ में थे. स्नेहमयी मुसकान थी उन के होंठों पर.

‘‘ऐसा नहीं कह रही मैं कि तुम ने ये टौप्स क्यों लिए? यही तो उम्र है पहननेओढ़ने की. अपनी खुशी के लिए गहने बनाना अच्छी बात है. तुम ने तो टौप्स इसलिए बनाए कि तुम्हारी भाभी ने ऐसा कहा…अपने स्वाभिमान को किसी के पैरों की जूती मत बनाओ, शुभा. हम पर हमारी ही मरजी चलनी चाहिए न कि किसी भी ऐरेगैरे की.

‘‘तुम्हारा अहं इतना हलका क्यों हो गया? हीरे से ही औरत संपूर्ण होती है… यह तुम्हारी भाभी ने यदि कह दिया तो कह दिया. उस ने तुम से यह तो नहीं कहा था कि तुम्हारे पास हीरे नहीं हैं. क्या उस ने तुम्हारी तरफ उंगली कर के कहा था… जरा सोचो?’’

तनिक मुसकरा पड़ी थीं बूआ. मेरा माथा चूम लिया था और मेरे गाल थपक हाथ के टौप्स मेरे कानों में पहना दिए थे.

‘‘बहुत सुंदर लग रहे हैं ये टौप्स तुम्हारे कानों में. मगर भविष्य में ध्यान रहे कि किसी के कहे शब्दों पर पागल होने की जरूरत नहीं है. औरत की संपूर्णता तो उस के चरित्र से, उस के ममतामयी आचरण से होती है.’’

उसी पल मेरे मन से उन हीरों का मोह जाता रहा था. वह भाव कहीं नहीं रहा था कि मेरे पास भी हीरे हैं. अकसर वे नेमतें जिन पर एक आम इनसान इतरा उठता है, बूआ को खुशी का विषय नहीं लगतीं. अकसर बूआ कह देती हैं, ‘‘खुशी कहीं बाहर नहीं होती, खुशी तो यहीं होती है… अपने ही भीतर.

‘‘यही तो सलीब है…और सलीब किसे कहते हैं…अपने दुखों का कारण कभीकभी हम खुद ही होते हैं.’’

सलीब के बारे में खुल कर बूआ से पूछा तो वे समझाने लगीं, ‘‘क्यों अपनी सोच पर हर पल हम सारा संसार लादे रहते हैं…जरा सोचो. अपनी खुशी की खातिर तो हम कुछ भी संजो लें, खरीद लें क्योंकि वे हमारी जरूरतें हैं लेकिन किसी दूसरे को प्रभावित करने के लिए हम अपना सारा बजट ही गड़बड़ कर लें, यह कहां की समझदारी है. एक बहुत बड़ी खुशी पाने के लिए छोटीछोटी सारी खुशियां सूली पर चढ़ा देना क्या उचित लगता है तुम्हें?

‘‘हमें अपनी चादर के अनुसार ही पैर पसारने हैं तो फिर क्यों हमारी खुशी औरों के शब्दों की मुहताज बने.’’

बूआ का चेहरा हर पल दमकता क्यों रहता है? मैं अब समझ पाई थी. बात करने को तो हमारा परिवार कभीकभी बूआ की आलोचना भी करता है. उन का सादगी भरा जीवन आलोचना का विषय होता है. क्यों बूआ ज्यादा तामझाम नहीं करतीं? क्यों फूफाजी और बूआ छोटे से घर में रहते हैं. क्यों गाड़ी नहीं खरीद लेते?

सब से बड़ी बात जो अभीअभी मेरी समझ में आई है, वह यह कि बूआ किसी की मदद करने में या किसी को उपहार देने में कभी कंजूसी नहीं करतीं. पर अपने लिए किसी से सहायता तो नहीं मांगतीं, गाड़ी की जरूरत पड़े तो किराए की गाड़ी उन के दरवाजे पर खड़ी मिलती है, जरूरत पर उन के पास कोई कमी नहीं होती. तो फिर क्यों वे औरों को खुश करने के लिए अपनी सोच बदलें. बूआ के दोनों बच्चे बाहर रहते हैं. साल में कुछ दिनों के लिए वे बूआ के पास आते हैं और कुछ दिन बूआ और फूफाजी उन के पास चले जाते हैं. अपने जीवन को बड़े हलकेफुलके तरीके से जीती हैं बूआ.

एक बार ऐसा हुआ कि बच्चों की छुट्टियां थीं जिस वजह से मैं व्यस्त रही थी. लगभग 10 दिन के बाद फोन किया तो बूआ कुछ उदास सी लगी थीं. उसी शाम मैं उन के घर गई तो पता चला था कि फूफाजी पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे. पड़ोसी से नर्सिंगहोम का पता लिया और उसी पड़ोसी से पता चला कि उस को भी कुछ दिनों के बाद ही इस घटना का पता चला था.

‘‘बहुत बहादुर हैं न बूआजी. हमें भी नहीं बुलाया. कम से कम मैं ही आ जाती.’’

रोना आ गया था मुझे. क्या मैं इतनी पराई थी. बचपन से जिस बूआ की गोद में खेली हूं, क्या मुसीबत में मैं उन के काम नहीं आती. क्या मुझ पर इतना सा भी अधिकार नहीं समझतीं बूआ. नाराजगी व्यक्त की थी मैं ने.

‘‘तुम क्या करतीं यहां…गाड़ी बुला ली थी. बाकी सब काम डाक्टर लोगों का था. दवा यहीं पर मिल जाती है. बाहर छोटी सी कैंटीन है, वहां से चाय, कौफी मिल जाती थी. अधिकार समझती हूं तभी तो चाहती हूं तुम अपने बच्चों पर पूरापूरा ध्यान दो. अभी उन के इम्तिहान भी आ गए हैं न.’’

बूआ के इस उत्तर से मेरा रोना बढ़ गया था, ‘‘अपने किस काम के जो वक्त पर काम भी न आएं.’’

फूफाजी मेरी दलीलों पर हंसने लगे थे.

‘‘अरी पगली, काम ही तो नहीं पड़ा न…जिस दिन काम पड़ा तुम ही तो काम आओगी न. तुम्हारा ही तो सहारा है हमें, शुभा. हमारे दोनों बच्चे तो बहुत दूर हैं न बिटिया…हम जानते थे पता चलते ही अपना सारा घर ताक पर रख भागी चली आओगी, इसीलिए तुम्हें नहीं बताया. हलका सा दिल का दौरा ही तो पड़ा था.’’

बूआफूफाजी यों मुसकरा रहे थे मानो कुछ भी नहीं हुआ. मेरा माथा जरा सा तप जाए तो जो बूआ मेरी पीड़ा पर पगला सी जाती हैं वे अपनी पीड़ा पर इतनी चुप हो गईं कि मुझे पता ही न चला. सदा दे कर जिस बूआ को खुशी होती है वही बूआ लेने में पूरापूरा परहेज कर गई थीं. किसी से ज्यादा उम्मीद करना भी दुखी होने का सब से बड़ा कारण है, यह भी बूआ का ही कहना है. किसी आस में जिया जाए, यह भी तो एक सलीब है न जिस पर हम खुद को टांग लेते हैं.

मेरी भाभी भी इसी शहर में हैं, लेकिन उन की आदत में बूआ से मिलना शुमार नहीं होता. उन की अपनी ही दुनिया है जिस में मैं और बूआ कम ही ढल पाते हैं.

‘‘भैया की और हमारी आय लगभग बराबर ही है, उसी आय में भाभी इतनी शानोशौकत कैसे कर लेती हैं जबकि मेरे घर में वह सब नहीं हो पाता. इतना बड़ा घर बना लिया भैया ने और हमारे पास मात्र जमीन का एक टुकड़ा है जिस पर शायद रिटायरमैंट के बाद ही घर बन पाएगा. लगता है हमें ही घर चलाना नहीं आता.’’

एक दिन बूआ से मन की बात कही तो बड़ी गहरी नजर से उन्होंने मुझे देखा था.

‘‘कितना कर्ज है तुम्हारे पति के सिर पर?’’

‘‘एक पैसा भी नहीं. ये कहते हैं कि मुझे सिर पर कर्ज रख कर जीना नहीं आता. रात सोते हैं तो सोने से पहले भी यही सोचते हैं कि किसी का पैसा देना तो नहीं. किसी का 1 रुपया भी देना हो तो इन्हें नींद नहीं आती.’’

‘‘और अपने भाई का हाल भी देख लो. सिर पर 50 लाख का कर्ज है. पत्नी की पूरी सैलरी कर्ज चुकाने में चली जाती है और भाई की दालरोटी और इतने बड़े घर की साजसंभाल में. बच्चों की फीस तक निकालना आजकल उन्हें भारी पड़ रहा है. घर में 3-3 ए.सी. हैं. इन गरमियों में बिजली का बिल 15 हजार रुपए आया था. रात भर तुम्हारा भाई सो नहीं पाता इसी सोच में कि अगर कोई आपातस्थिति आ जाए तो 2 हजार रुपए भी नहीं हाथ में…क्या इसी को तुम शानोशौकत कहती हो जिस में पति की हरेक सांस पर इतना बोझ रहता है और पत्नी समझती ही नहीं.

हीरों के गहने पहने बिना जिस की नाक नहीं बचती, क्या उस औरत को यह समझ में आता है कि उस का पति निरंतर अवसाद में जी रहा है. कल क्या हो जाए, इस का जरा सा भी अंदाजा है तुम्हारी भाभी को?’’

मैं मानो आसमान से नीचे आ गिरी. यह क्या सुना दिया बूआ ने. भैया भी मेरी तरह बूआ के लाड़ले हैं और अवश्य अपना मन कभीकभी खोलते होंगे बूआ के साथ, बूआ ने कभी भैया के घर की बात मुझे नहीं सुनाई थी.

‘‘शुभा, तुम आजाद हवा में सांस लेती हो. किसी का कर्ज नहीं देना तुम्हें. समझ लो तुम संसार की सब से अमीर औरत हो. तुम्हारी जरूरतें इतनी जानलेवा नहीं हैं कि तुम्हारे पति की जान पर बन जाए. ऐसे हीरे औरत के किस काम के कि पति की एकएक सांस शूल बन जाए. तुम्हीं बताओ, क्या तुम भी ऐसा ही जीवन चाहती हो?’’

‘न…’ अस्फुट शब्द कहीं गले में ही खो गए. मैं तो ऐसा जीवन कभी सोच भी नहीं सकती. शायद इसीलिए तब बूआ ने टौप्स लेने पर नाराजगी का इजहार किया था. वे नहीं चाहती थीं कि मैं भी भाभी के पदचिह्नों पर चलूं.

हम हर पल सलीब को सिर पर उठाएउठाए ही क्यों चलते हैं? सलीब उठाते ही क्यों हैं? इसे उतार कर फेंक क्यों नहीं देते?

हमारी अनुचित इच्छाएं, बढ़ती जरूरतें क्या एक सलीब नहीं हैं जिन पर अनजाने ही हमारी जान सूली पर चढ़ जाती है. आखिर क्यों ढोते हैं हम अपने सिर पर ‘यह सलीब’

Latest Hindi Stories : जीत – पीयूष का परिवार क्या मंजरी को अपना पाया?

 Latest Hindi Stories : वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को छेड़ रहे थे. बारबार लटें उस के गालों पर आ कर झूल जातीं, जिन्हें वह बहुत ही प्यार से पीछे कर देता. ऐसा करते हुए जब उस के हाथ उस के गालों को छूते तो वह सिहर उठती. कुछ कहने को उस के होंठ थरथराते तो वह हौले से उन पर अपनी उंगली रख देता. गुलाबी होंठ और गुलाबी हो जाते और चेहरे पर लालिमा की अनगिनत परतें उभर आतीं.

मात्र छुअन कितनी मदहोश कर सकती है. वह धीरे से मुसकराई. पेड़ से कुछ पत्तियां गिरीं और उस के सिर पर आ कर इस तरह बैठ गईं मानो इस से बेहतर कोमल कालीन कहीं नहीं मिलेगा. उस ने फूंक मार कर उन्हें उड़ा दिया जैसे उन लहराते गेसुओं को छूने का हक सिर्फ उस का ही हो.

वह पेड़ के तन से सट कर खड़ी हो गई और अपनी पलकें मूंद लीं. उसे देख कर लग रहा था जैसे कोई अप्रतिम प्रतिमा, जिस के अंगअंग को बखूबी तराशा गया हो. उसे देख कौन पुरुष होगा जो कामदेव नहीं बन जाएगा. उसे चूमने का मन हो आया. पर रुक गया. बस उसे अपलक देखता रहा. शायद यही प्यार की इंतहा होती है… जिसे चाहते हैं उसे यों ही निहारते रहने का मन करता है. उस के हर पल में डूबे रहने का मन करता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ उस ने कुछ क्षण बाद पूछा.

‘‘कुछ भी तो नहीं.’’ वह थोड़ी चौंकी पर पलकें अभी भी मुंदी हुई थीं.

‘‘चलें क्या? रात होने को है. तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘मन नहीं कर रहा है तुम्हें छोड़ कर जाने को. बहुत सारी आशंकाओं से घिरा हुआ है मन. तुम्हारे घर वाले इजाजत नहीं देंगे तो क्या होगा?’’

‘‘वे नहीं मानेंगे, यह बात मैं विश्वास से कह सकता हूं. गांव से बेशक आ कर मैं इतना बड़ा अफसर जरूर बन गया हूं और मेरे घर वाले शहर में आ कर रहने लगे हैं, पर मेरे मांबाबूजी की जड़ें अभी भी गांव में ही हैं. कह सकती हो कि रूढि़यों में जकड़े, अपने परिवेश व सोच में बंधे लोग हैं वे. पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बहू को स्वीकारना अभी भी उन के लिए बहुत आसान नहीं है. पर चलो इस चीज को स्वीकार भी कर लें तो भी दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाना… संभव ही नहीं है उन का मानना.’’

‘‘तुम खुल कर कह सकते हो यह बात पीयूष… दूसरी अन्य कोई जाति होती तो भी कुछ संभावना थी… पर मैं तो मायनौरिटी क्लास की हूं… आरक्षण वाली…’’ उस के स्वर में कंपन था और आंखों में नमी तैर रही थी.

‘‘कम औन मंजरी, इस जमाने में ऐसी बातें… वह भी इतनी हाइली ऐजुकेटेड होने के बाद. तुम अपनी योग्यता के बल पर आगे बढ़ी हो. फिलौसफी की लैक्चरर के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती हैं. ऊंची जाति नीची जाति सदियों पहले की बातें हैं. अब तो ये धारणाएं बदल चुकी हैं. नई पीढ़ी इन्हें नहीं मानती…

‘‘पुरानी पीढ़ी को बदलने में ज्यादा समय लगता है. दोष देना गलत होगा उन्हें भी. मान्यताओं, रिवाजों और धर्म के नाम पर न जाने कितनी संकीर्णताएं फैली हुई हैं. पर हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा.’’

मंजरी ने पीयूष की ओर देखा. ढेर सारा प्यार उस पर उमड़ आया. सही तो कह रहा है वह… पर न जाने क्यों वही बारबार हिम्मत हार जाती है. शायद अपनी निम्न जाति की वजह से या पीयूष की उच्च जाति के कारण. वह भी ब्राह्मण कुल का होने के कारण. बेशक वह जनेऊ धारण नहीं करता. पर उस के घर वालों को अपने उच्च कुल पर अभिमान है और इस में गलत भी कुछ नहीं है.

वह भी तो निम्न जाति की होने के कारण कभीकभी कितनी हीनभावना से भर जाती है. उस के पिता खुद एक बड़े अफसर हैं और भाई भी डाक्टर है. पर फिर भी लोग मौका मिलते ही उन्हें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वे मायनौरिटी क्लास के हैं. उन का पढ़ालिखा होना या समाज में स्टेटस होना कोई माने नहीं रखता. दबी जबान से ही सही वे उस के परिवार के बारे में कुछ न कुछ कहने से चूकते नहीं हैं.

मंजरी ने पेड़ के तने को छुआ. काश, वह सेब का पेड़ होता तो जमाने को यह तो कह सकते थे कि सेब खाने के बाद उन दोनों के अंदर भावनाएं उमड़ीं और वे एकदूसरे में समा गए. खैर, सेब का पेड़ अगर दोनों ढूंढ़ने जाते तो बहुत वक्त लग जाता, शहर जो कंक्रीट में तबदील हो रहे हैं. उस में हरियाली की थोड़ीबहुत छटा ही बची रही, यही काफी है.

उस ने अपने विश्वास को संबल देने के लिए पीयूष के हाथों पर अपनी पकड़ और

कस ली और उस की आंखों में झांका जैसे तसल्ली कर लेना चाहती हो कि वह हमेशा उस का साथ देगा.

इस समय दोनों की आंखों में प्रेम का अथाह समुद्र लहरा रहा था. उन्होंने मानों एकदूसरे को आंखों ही आंखों में कोई वचन सा दिया. अपने रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगाई और आलिंगनबद्ध हो गए. यह भी सच था कि पीयूष मंजरी को चाह कर भी आश्वस्त नहीं कर पा रहा था कि वह अपने घर वालों को मना लेगा. हां, खुद उस का हमेशा बना रहने का विश्वास जरूर दे सकता था.

मंजरी को उस के घर के बाहर छोड़ कर बोझिल मन से वह अपने घर की

ओर चल पड़ा. रास्ते में कई बार कार दूसरे वाहनों से टकरातेटकराते बची. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे घर में इस बारे में बताए. वह अपने मांबाबूजी को दोष नहीं दे रहा था. उस ने भी तो जब परंपराओं और आस्थाओं की गठरी का बोझ उठाए आज से 10 वर्ष पहले नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कदम रखा था तब कहां सोचा था कि उस की जिंदगी इतनी बदल जाएगी और सड़ीगली परंपराओं की गठरी को उतार फेंकने में वह सफल हो पाएगा… शायद मंजरी से मिलने के बाद ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाया था.

जातिभेद किसी दीवार की तरह समाज में खड़े हैं और शिक्षित वर्ग तक उस दीवार को अपनी सुलझी हुई सोच और बौद्धिकता के हथौड़े से तोड़ पाने में असमर्थ है. अपनी विवशता पर हालांकि यह वर्ग बहुत झुंझलाता भी है… पीयूष को स्वयं पर बहुत झुंझलाहट हुई.

‘‘क्या बात है बेटा, कोई परेशानी है क्या?’’ मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा.

‘‘बस ऐसे ही,’’ उस ने बात टालने की कोशिश की.

‘‘कुछ लड़कियों के फोटो तेरे कमरे में रखे हैं. देख ले.’’

‘‘मैं आप से कह चुका हूं कि मैं शादी नहीं करना चाहता,’’ पीयूष को लगा कि उस की झुंझलाहट चरम सीमा पर पहुंच रही है.

‘‘तू किसी को पसंद करता है तो बता दे,’’ बाबूजी ने सीधेसीधे सवाल फेंका. अनुभव की पैनी नजर शायद उस के दिल की बात समझ गई थी.

‘‘है तो पर आप उसे अपनाएंगे नहीं और मैं आप लोगों की मरजी के बिना अपनी गृहस्थी नहीं बसाना चाहता. मुझे लायक बनाने में आप ने कितने कष्ट उठाए हैं और मैं नहीं चाहता कि आप लोगों को दुख पहुंचे.’’

‘‘तेरे सुख और खुशी से बढ़ कर और कोई चीज हमारे लिए माने नहीं रखती है. लड़की क्या दूसरी जाति की है जो तू इतना हिचक रहा है बताने में?’’ बाबूजी ने यह बात पूछ पीयूष की मुश्किल को जैसे आसान कर दिया.

‘‘हां.’’

उस का जवाब सुन मां का चेहरा उतर गया. आंखों में आंसू तैरने लगे. बाबूजी अभी चिल्लाएंगे यह सोच कर वह अपने कमरे की ओर जाने के लिए मुड़ा ही था कि बोले, ‘‘किस जाति की?’’

‘‘बाबूजी वह बहुत पढ़ीलिखी है. लैक्चरर है और उस के घर में भी सब हाइली क्वालीफाइड हैं. जाति महत्त्व नहीं रखती, पर एकदूसरे को समझना ज्यादा जरूरी है,’’ बहुत हिम्मत कर वह बोला.

‘‘बहुत माने रखती है जाति वरना क्यों बनती ऐसी सामाजिक व्यवस्था. भारत में जाति सीमा को लांघना 2 राष्ट्रों की सीमाओं को लांघना है. अभी सुबह के अखबार में पढ़ रहा था कि पंजाब में एक युवक ने अपनी शादी के महज 1 हफ्ते बाद केवल इस कारण आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे शादी के बाद पता चला कि उस की पत्नी दलित जाति की है. उस की शादी एक बिचौलिए के माध्यम से हुई थी. इस बात का खुलासा तब हुआ जब वह अपनी ससुराल गया. दलित पत्नी पा कर वह आत्मग्लानि और अपराधबोध से इस कदर व्यथित हो गया कि ससुराल से लौट कर उस ने आत्महत्या कर ली. तुम भी कहीं प्यार के चक्कर में पड़ कर कोई गलत कदम मत उठा लेना.’’

बाबूजी की बात सुन पीयूष को अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई. मंजरी ने जब यह सुना तो उदास हो गई.

पीयूष बोला, ‘‘एक आइडिया आया है. मैं अपनी कुलीग के रूप में तुम्हें उन से मिलवाता हूं. तुम से मिल कर उन्हें अवश्य ही अच्छा लगेगा. फिर देखते हैं उन का रिएक्शन. रूढि़यां हावी होती हैं या तुम्हारे संस्कार व सोच.’’

मंजरी ने मना कर दिया. वह नहीं चाहती थी कि उस का अपमान हो. उस के बाद से मंजरी अपनेआप में इतनी सिमट गई कि उस ने पीयूष से मिलना तक कम कर दिया. संडे को अपने डिप्रैशन से बाहर आने के लिए वह शौपिंग करने मौल चली गई. एक महिला जो ऐस्कलेटर पर पांव रखने की कोशिश कर रही थी, वह घबराहट में उस पर ही गिर गई. मंजरी उन के पीछे ही थी. उस ने झट से उन्हें उठाया और हाथ पकड़ कर उन्हें नीचे उतार लाई.

‘‘आप कहें तो मैं आप को घर छोड़ सकती हूं. आप की सांस भी फूल रही है.’’

‘‘बेटा, तुम्हें कष्ट तो होगा पर छोड़ दोगी तो अच्छा होगा. मुझे दमा है. मैं अकेली आती नहीं पर घर में सब इस बात का मजाक उड़ाते हैं. इसलिए चली आई.’’

घर पर मंजरी को देख पीयूष बुरी तरह चौंक गया. पर मंजरी ने उसे इशारा किया कि

वह न बताए कि वे एकदूसरे को जानते हैं. पीयूष की मां तो बस उस के गुण ही गाए जा रही थीं. बहुत जल्द ही वह उन के साथ घुलमिल गई. पीयूष की बहन ने तो फौरन नंबर भी ऐक्सचेंज कर लिए. जबतब वे व्हाट्सऐप पर चैट करने लगीं. मां ने कहा कि वह उसे घर पर आने के लिए कहे. इस तरह मंजरी के कदम उस आंगन में पड़ने लगे, जहां वह हमेशा के लिए आना चाहती थी.

पीयूष इस बात से हैरान था कि जाति को ले कर इतने कट्टर रहने वाले उस के मातापिता ने एक बार भी उस की जाति के बारे में नहीं पूछा. शायद अनुमान लगा लिया होगा कि उस जैसी लड़की उच्च कुल की ही होगी. उस के पिता व भाई के बारे में जान कर भी उन्हें तसल्ली हो गई थी.

मंजरी को लगा कि उस दिन पीयूष ने ठीक ही कहा था कि हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा. पीयूष जब उस के साथ है तो उसे भी लगातार कोशिश करते रहना होगा. मांबाबूजी का दिल जीत कर ही वह अपनी और पीयूष दोनों की लड़ाई जीत सकती है.

हालांकि जब भी वह पीयूष के घर जाती थी तो यही कोशिश करती थी कि उन की रसोई में न जाए. उसे डर था कि सचाई जानने के बाद अवश्य ही मां को लगेगा कि उस ने उन का धर्म भ्रष्ट कर दिया है. एक सकुचाहट व संकोच सदा उस पर हावी रहता था. पर दिल के किसी कोने में एक आशा जाग गई थी जिस की वजह से वह उन के बुलाने पर वहां चली जाती थी.

कई बार उस ने अपनी जाति के बारे में बताना चाहा पर पीयूष ने यह कह कर मना कर दिया कि जब मांबाबूजी तुम्हें गुणों की वजह से पसंद करने लगे हैं तो क्यों बेकार में इस बात को उठाना. सही वक्त आने पर उन्हें बता देंगे.

‘‘तुझे मंजरी कैसी लगती है?’’ एक दिन मां के मुंह से यह सुन पीयूष हैरान रह गया.

‘‘अच्छी है.’’

‘‘बस अच्छी है, अरे बहुत अच्छी है. तू कहे तो इस से तेरे रिश्ते की बात चलाऊं?’’

‘‘यह क्या कह रही हो मां. पता नहीं कौन जाति की है. दलित हुई तो…’’ पीयूष ने जानबूझ कर कहा. वह उन्हें टटोलना चाह रहा था.

‘‘फालतू मत बोल… अगर हुई भी तो भी बहू बना लूंगी,’’ मां ने कहा. पर उन्हें क्या पता था कि उन का मजाक उन पर ही भारी पड़ेगा.

‘‘ठीक है फिर मैं उस से शादी करने को तैयार हूं. उस के पापा को कल ही बुला लेते हैं.’’

‘‘यानी… कहीं यह वही लड़की तो नहीं जिस से तू प्यार करता है,’’ बाबूजी सशंकित हो उठे थे.

‘‘मुझे तो मंजरी दीदी बहुत पसंद हैं मां,’’ बेटी की बात सुन मां हलके से मुसकराईं.

मंजरी नीची जाति की कैसे हो सकती है… उन से पहचानने में कैसे भूल हो गई. पर वह तो कितनी सुशील, संस्कारी और बड़ों की इज्जत करने वाली लड़की है. बहुत सारी ब्राह्मण लड़कियां देखी थीं, पर कितनी अकड़ थी. बदमिजाज… कुछ ने तो कह दिया कि शादी के बाद अलग रहेंगी. कुछ के बाप ने दहेज दे कर पीयूष को खरीदने की कोशिश की और कहा कि उसे घरजमाई बन कर रहना होगा.

‘‘क्या सोच रही हो पीयूष की मां?’’ बाबूजी के चेहरे पर तनाव की रेखाएं नहीं थीं जैसे वे इस रिश्ते को स्वीकारने की राह पर अपना पहला कदम रख चुके हों.

‘‘क्या हमारे बदलने का समय आ गया है? आखिर कब तक दलित बुद्धिजीवी अपनी जातीय पीड़ा को सहेंगे? हमें उन्हें उन की पीड़ा से मुक्त करना ही होगा. तभी तो वे खुल कर सांस ले पाएंगे. हमारी बिरादरी में हमारी थूथू होगी. पर बेटे की खुशी की खातिर मैं यह भी सह लूंगी.’’

पीयूष अभी तक अचंभित था. रूढि़यों को मंजरी के व्यवहार ने परास्त कर दिया था.

‘‘सोच क्या रहा है खड़ेखड़े, चल मंजरी को फोन कर और कह कि मैं उस से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, तुम कितनी अच्छी हो, मैं अभी भाभी को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर सरप्राइज देती हूं,’’ पीयूष की बहन ने चहकते हुए कहा.

वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को इस बार भी छेड़ रहे थे. उसे अपलक निहारतेनिहारते उसे चूमने का मन हो आया. पर इस बार वह रुका नहीं. उस ने उस के गालों को हलके से चूम लिया. मंजरी शरमा गई. अपनी सारी आशंकाओं को उतार फेंक वह पीयूष की बांहों में समा गई. उसे उस का प्यार व सम्मान दोनों मिल गए थे. पीयूष को लगा कि वह जैसे कोई बहुत बड़ी लड़ाई जीत गया है.

Latest Hindi Stories : आज का काबुलीवाला – जब एक अपराधी ने बचाई अन्नया की लाज

Latest Hindi Stories : बचपन से ही मैं बहुत नकचढ़ी व सिरफिरी थी. परंतु मेरी बेटी इस के एकदम विपरीत स्वभाव वाली थी. आज मेरी बेटी अनन्या के स्कूल में वार्षिकोत्सव था. वह अब तक स्कूल से वापस नहीं आई थी. अपनी लाडली की प्रतीक्षा में आतुर मेरा मन अब सशंकित हो चुका था. अब तक तो उसे अपनी गुलाबी स्कूटी पर स्कूलबैग लटकाए, पुरस्कारों के साथ वापस आ जाना चाहिए था. अंधेरा भी घिरने लगा था. पता नहीं दोस्तों में अटक गई या फिर…मैं चिंता में डूब गई थी. आज के अनाचारी तो रात की भी प्रतीक्षा नहीं करते. अब तो दिनदहाड़े दुराचार की घटनाएं होने लगी हैं.

अचानक दरवाजा हवा के झोंके से खुल गया और उस के साथ ही सुनाई दी मेरी लाडली की कातर चीख. क्या हुआ? क्या हो गया मेरी लाडली को और फिर वह हृदयविदारक दृश्य. चारों ओर बिखरे पारितोषिकों से घिरी, फर्श पर बैठी मेरी हंसमुख कली जोरजोर से सिसकियां भर रही थी. यह क्या? इस का शरीर इस मोटी चादर में क्यों? चादर का कोना जरा सा छुआ तो वह चिहुंक उठी.

‘‘ममा, ममा, आज अंकल न होते तो आप की यह अनन्या आप की आंखों की किरकिरी बन जाती. मैं मर जाती ममा. अब भी मर जाना चाहती हूं. वे घिनौने स्पर्श…’’

होश उड़ गए मेरे. किसी तरह उस ने अपने को संभाला, ‘‘ममा…जरा गाउन… यह चादर…बाहर अंकल…’’ उस की जबान अटक रही थी. जैसे ही उस ने चादर उतारी तो तारतार गुलाबी कुर्ती सिर्फ कंधे से अटकी रह गई. मैं लड़खड़ाई. उसी ने संभाला. मैं बाहर भागी…

अंदर आ कर मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, हुआ क्या? बता तो सही. तू इस तरह कांप क्यों रही है? कपड़े तारतार…कहीं…’’

वह घुटनों में मुंह छिपाए सिसकती रही. एक बार नजर ऊपर उठाई. मुद्रा ऐसी जैसे कोई अपराध किया हो. मैं ने जमीन पर बैठ कर उसे अपनी बांहों में समेटा.

‘‘बेटा, पूरी बात तो बता. मेरी बहादुर बेटी, ऐसे दुष्कर्मियों से अपनी इज्जत बचा लाई यह तो गर्व की बात है. तू रो क्यों रही है?’’

‘‘बस ममा, बच गई लेकिन वे घिनौने स्पर्श…’’

एक कप गरम चाय पिला कर मैं उसे उस के कमरे में ले आई. उस की सिहरन थम चुकी थी और वह काफी संभल चुकी थी. पलंग पर आराम से बैठी तब मैं ने देखा. हाथों में जगहजगह नील पड़े थे. पैर के एक अंगूठे में खून जमा था. होंठ सूज कर लटक रहे थे. मैं तो उस की यह हालत देख खुद ही सिहर उठी. कुछ देर बाद उस ने गरम शावर लिया और फिर मेरे गले में बांहें डाल कर बैठ गई.

‘‘ममा, आज मेरी कराटे की ट्रेनिंग काम आई वरना…’’

मैं अवाक् हो सुनती रही. उस के चेहरे पर उठतेगिरते भावों को पढ़ने की कोशिश करती रही. बोलतेबोलते कभी वह अपनी मुट्ठियां भींचतीखोलती. मैं चुपचाप उसे देखती और सुनती रही. अचानक उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. मैं अंदाजा लगाने की कोशिश करती रही कि किस पीड़ा, अपमान से गुजरी होगी यह…तभी अनन्या ने पलंग पर एक जोरदार घूंसा मारा  फिर उस ने अपनी आपबीती सुनानी शुरू की, ‘‘ममा, हमारा फंक्शन ठीक 5 बजे समाप्त हुआ. रोज की तरह मैं ने स्टैंड से अपनी स्कूटी निकाली और चल पड़ी. थोड़ा ही आगे गई थी कि एक कार ने मेरा रास्ता रोका. मैं ने रास्ता काट कर निकलना चाहा पर निकल नहीं पाई. कार से निकले 3 लफंगों ने मेरी स्कूटी गिरा दी और मुझे उठा कर कार में डाल लिया.’’

मैं तो यह सुन हक्कीबक्की रह गई.

‘‘पता नहीं वे किन अनजान सुनसान रास्तों से गुजरते रहे.’’

‘‘कार में कुछ किया तो नहीं?’’ मेरी सांस ऊपरनीचे होने लगी.

‘‘हां ममा, वह नटल्लू सा…लेकिन उस काली टीशर्ट वाले ने डांटा, ‘एकदम चुप बैठो. कार में जरा सा निशान मिल गया न पुलिस को तो बच्चू…’

‘‘मैं छटपटाती रही पर दोनों ओर की मजबूत गिरफ्त में फंसी थी. क्या करती. मेरे मुंह में बोल कहां? मैं तो बस उसे देखे जा रही थी. मैं ने कस कर दाहिनी ओर वाले की कलाई में नाखून चुभाया तो चीख कर उस ने अपने बूट से मेरे दाएं पैर का अंगूठा कुचल डाला. चीख सुन कर वह काली टीशर्ट वाले ने मुझे घुड़का, ‘ए लड़की, ज्यादा चींचपड़ की तो समझ ले, तेरी जान की खैर नहीं.’

‘‘मैं चुप ही रही. सुनसान सड़क में न कोई राहगीर न कोई सवारी. आखिर उन्होंने मुझे पार्क के एक सुनसान अंधेरे कोने में पटक दिया. पर ममा, मैं ने उन से दया की कोई भीख नहीं मांगी. सीधे उछल कर एक के पेट में लात का जबरदस्त वार किया और दूसरे के पैर में. जब तक वे दोनों संभले तब तक तीसरे से गुत्थमगुत्था हो गई. फिर तीनों मिल कर मेरे कपड़े तारतार कर के मुझे जमीन पर पटकने ही वाले थे कि मैं ने उछल कर अपना सिर काली टीशर्ट वाले की नाभि में जोर से मारा. बड़ा हीरो बन रहा था. उस का घुटना एक की आंख में लगा और दोनों चीख मार कर गिर पड़े और उन के ऊपर मैं…तभी न जाने कहां से एक अंकल वहां आ गए और उन्होंने अकेले ही उन तीनों गुंडों से जूझ कर मुझे बचाया.

‘‘ममा, उन्होंने तीनों को इतना मारा कि बस पूछो मत. फिर वे उन्हीं की कार में मुझे यहां छोड़ गए. कह रहे थे कि कार पुलिस चौकी में जमा कर देंगे.’’

मैं तो बदहवास सी सारा किस्सा उस से सुन रही थी. जैसे सारी घटना अपनी आंखों के सामने घटती हुई देख रही थी.

‘‘लेकिन ममा, एक बात बताइए. आप मुझे कराटे सीखने को मना कर रही थीं न. कह रही थीं कि यह खेल लड़कियों का नहीं. अब आप ही बताइए, अगर मैं आप की बात मान कर गाना सीखती तो क्या वह आज मुझे बचा पाता?’’

मैं तो चुप उसे बस देखे जा रही थी और वह थी कि बोलती ही जा रही थी.

‘‘स्पाइडरमैन बन कर आए थे ममा वह अंकल. आप ने तो उन्हें एक कप चाय भी नहीं पिलाई.’’

उस मददगार का नाम आते ही मेरी आंखों के सामने वह चेहरा फिर से कौंध गया. चेचक के दागों से भरे चेहरे पर जड़ी वे भूरी आंखें. एकदम उस अपराधी की हूबहू शक्ल. वे तो चले गए पर जातेजाते मुझे यादों की डोर पकड़ा गए. उसी डोर को थामे मैं ने स्मृतियों की इतनी ऊंची पींगें बढ़ा लीं कि सीधी अतीत के उस खारे समुद्र में जा गिरी.

पापा हरी सिंह चौधरी पूरे बिहार के नामी फौजदारी वकील थे. उन की बड़ी सी 18 कमरों वाली पुश्तैनी कोठी थी. उन का वह बड़ा सा दफ्तर और बाहर खड़ा नीले तुर्रेदार साफे वाला कड़क दरबान, ये सबकुछ मुझे एक विशेष प्रकार के गर्व से भर कर अपनी ही नजरों में विशेष बना देते थे. गुरूर था मुझे पापा पर, उन के ऐश्वर्य पर, उन की शानशौकत पर. खलती थी बस वे 2 बैंचें और उन पर टांग पसारे बैठे वे बलात्कारी, डाकू, चोर, अपहरणकर्ता, हत्यारे. पापा के वे चहेते मुवक्किल. सुबहशाम उन की बगल से हो कर गुजरना मुझे बैंच पर खड़े होने से भी बड़ी सजा लगती. मैं हमेशा मां से शिकायत करती और मां मुझे समझाने लग जातीं.

लेकिन उस दिन बात सहनशीलता की सीमा लांघ गई. सहेलियों के साथ बाहर निकलने ही वाली थी कि वह मेरे सामने आ गया. मुझे उस की शक्ल से भी नफरत थी. वह अपने हाथ में लिए डब्बे से उठा कर लड्डू मेरे मुंह में डालना चाहता था. मैं ने इतनी जोर से उस का हाथ झटका  कि पूरा का पूरा डब्बा ही दूर जा गिरा. तब जीवन में पहली बार पापा से डांट पड़ी थी.

‘यह क्या तरीका है बेबी? हत्या के झूठे अभियोग से बरी होने का प्रसाद ही तो दे रहा था न मुरलीधर. यही है तुम्हारे पब्लिक स्कूल का ‘सो कौल्ड’ हाई कल्चर? टू हेल विद दिस इन्ह्यूमन हाइहैंडेडनेस.’

मुझ 12 साल की छोटी बच्ची को भी पता था कि पापा बहुत गुस्से में हों तभी घर में अंगरेजी बोलते हैं. पर मुझ अकड़ू ने माफी मांगना तो दूर उन को सुना कर ही कहा था, ‘हुं, मुरलीधर. फणिधर है फणिधर.’ पापा ने बस मुड़ कर देखा था.

इसी तरह किलकारियों, मानमनौव्वल के बीच बचपन बीत गया. फिर एक दिन मेरी सपनीली आंखों में समाया राजकुमार भी मलय के रूप में मेरा हाथ थामने आ गया. लेकिन यह क्या? ऐन विदाई के समय मेरे ठीक सामने हाथ में लाल डब्बी पकड़े वही खड़ा था, मुरलीधर बनाम फणिधर. मन तो हुआ मुंह नोच लूं उस का. हिम्मत तो देखो इस की, पर मौके की नजाकत को समझ मैं ने बस मुंह फेर लिया.

‘बेबी आज मत ठुकराना. मेरी कोई बेटी नहीं, तुम्हें ही बेटी माना है. बहुत चाहता हूं तुम्हें. मेरा यह छोटा सा तोहफा ले लो. सदा खुश रहो. तुम दूधों नहाओ पूतों फलो.’

अब मेरा इतनी देर से संचित धैर्य चुक गया. इस से पहले कि वह मेरे सिर पर हाथ रखता, मैं ने डब्बी उस के हाथ से छीनी और अंदर रखे जड़ाऊ कंगन उस पर फेंक मारे. वह खून निकलता माथा पकड़े वहीं बैठ गया. मलय ने मुझे देखा, पापा ने भी मुड़ कर देखा पर बोले कुछ नहीं.

आज अतीत के शैल्फ से निकली पुरानी यादों की किताब के पन्ने अपनेआप पलटने लगे. मैं साफ पढ़ रही थी कि मुरलीधर के माथे पर लगी चोट से गहरी थी उस के दिल पर लगी चोट और इस चोट को महसूस करते हुए पापा के चेहरे पर खिंची दर्द की वह लकीर भी साफ दिखने लगी. अब समझ पाई कि संतान के सुखद भविष्य की कामना करने वाले मातापिता किसी भी अनिष्ट की आशंका से कैसे विचलित हो सकते हैं, चिंतित हो उठते हैं.

इस हादसे ने हिला कर रख दिया. उस मददगार ने हजारों प्रश्नों की चुभती शलाकाओं से मुझे आहत कर दिया है. आखिर वे थे कौन उस दिन जब बिटिया के याद दिलाने पर मैं बाहर भागी थी और लोट गई थी उन के चरणों में?

‘आप तो महान हैं. आप ने मेरी असहाय बेटी की लाज बचाई है. मैं कैसे ऋणमुक्त हो सकती हूं इस उपकार से.’

उन्होंने मुझे कंधे से पकड़ कर उठाया था और कहा था, ‘ना बेबी. मैं ने कोई उपकार नहीं किया, सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है.’

चौंक कर देखा था तो डर गई थी. बेबी का संबोधन और वही चेचक के दागों से भरे चेहरे पर जड़ी भूरी आंखें. वही खुरदरी आवाज. पर मेरे कोई प्रश्न पूछने से पहले वे जा चुके थे.

फिर मैं ने अपने मन को समझा लिया था, ‘वे यहां जमशेदपुर में कहां से? आंखें और आवाज तो कइयों की एकजैसी हो सकती हैं और बेबी का संबोधन तो आम है. उम्र में बड़े थे. बेबी कह दिया.’

मन को समझा कर निश्ंिचत हो गई. मुरलीधर जैसा अपराधी और ऐसा महान कार्य? असंभव. थोड़ीबहुत जो ऊहापोह थी वह भी महीना बीततेबीतते समाप्त हो गई.

मैं अपनी लाडली को संभालने में लग गई. वह उस हादसे से बेदाग निकल तो आई थी पर बुरी तरह टूट चुकी थी. उस के जेहन से न वे दरिंदे निकल पाते थे न वह मददगार. धीरेधीरे बड़ी मुश्किल से वह सामान्य हो पाई.

गाड़ी पटरी पर से उतरतेउतरते लड़खड़ाती है, संभलती है और फिर सामान्य गति से चल पड़ती है. अब तो मेरी बेटी मैडिकल में है. पूरे 5 साल बीत चुके हैं उस हादसे को. गृहस्थी हंसीखुशी चल रही थी. लेकिन उस दिन पापा के फोन ने फिर से विचलित कर दिया.

‘‘बेबी, बेटा, तुम्हें मुरलीधर यादव याद है? वही जिस से तुम मन की अंदरूनी तहों से घृणा करती थीं, जिस का आशीर्वाद तुम ने फेंक कर मारा था.’’

मैं सन्न. तो मेरा संदेह सही था? इतने वर्ष बाद पापा मुझ पर व्यंग्यवर्षा कर रहे हैं? इसी के कारण मेरे और पापा के रिश्ते में एक गांठ पड़ गई थी. क्या पापा एक और गांठ लगा रहे हैं उस में? अब क्या करूं? मैं ने तो उस हादसे का जिक्र भी नहीं किया. न पापा से, न मां से. अब इतने सालों बाद पापा मुझे शर्मसार कर रहे हैं. मैं बिलख पड़ी.

‘‘पापा, मुझे पता नहीं चला. शक हुआ था पापा, पर वह यहां…’’

‘‘तू रो क्यों रही है बेटा. पुरानी बातों को भुला कर एक बार उस से मिल ले. मैं ने सोचा कि आयु की परिपक्वता के साथ तुझ में ठहराव आ गया होगा. कल वह यहां आया था. कोई 10 साल बाद मिला मुझ से. बस एक बार तुझे और नोनी को देखना चाहता है. अब मन का मैल छोड़ कर मिल ले. पकी आयु का क्या भरोसा. आएगी न बेटा?’’ पापा के स्वर में इसरार था. उन का गला रुंध गया था.

छाती पर से पत्थर हटा. मेरी शंका सही नहीं थी. पापा कोई व्यंग्य नहीं कर रहे थे. यह तो बस एक सहृदयी पुकार थी. मैं ने एकदम कहा, ‘‘हां पापा, आऊंगी. सच मानिए पापा, आप की यह अहंकारी बेटी बहुत बदल चुकी है. जिंदगी की पाठशाला ने उसे दर्प का, अहं का, संवेदनाशून्य अभिजात्य का असली अर्थ पढ़ा दिया है. मैं कल ही आ रही हूं पापा. ’’

घर से मुरलीधर के यहां जाते हुए पापा पूरे रास्ते बोलते रहे, ‘‘जानती है बेबी, कहते हैं तामसी त्याग से भी श्रेष्ठ होता है तापसी ग्रहण. मुरली ने दोनों किया है. पूरा जीवन लगा दिया मासूम कन्याओं को कू्रर बलात्कारियों से बचाने में, बेबस निरीहों को कठोर हत्याओं से छुड़ाने में, लोगों की मेहनत की कमाई को चोरों ठगों से वापस दिलाने में. पता नहीं कहांकहां भटकता रहा. महान हो गया है. लोग उस की इज्जत करते हैं. दीनबंधु है वह तो. बस एक ही रट है, मरने से पहले एक बार तुझ से और नोनी से मिलने की. पता नहीं क्या है उस के मन में.’’

दीनबंधु वह फणिधर…तो क्या उस शाम सचमुच…मैं अवाक् पापा को देखती रही. वे बोलते रहे, ‘‘तू ने उस की विनती स्वीकार नहीं की थी.

मैं ने कनखियों से मां को देखा. वे हैरान थीं. कभी मुझे देखतीं, कभी पापा को. पापा बोलते रहे, ‘‘उन दिनों उस पर डकैती का मुकदमा चल रहा था. मेरी दलीलें उसे बचाने में सफल हो चुकी थीं. सरकारी वकील ने घुटने टेक दिए थे. लेकिन ऐन फैसले के दिन वह खुद ही पलट गया. कठघरे में खड़ा मुरलीधर यादव अपने ऊपर लगे सारे आरोप स्वीकार कर रहा था :

‘‘‘जज साहब, यह डाका मैं ने ही डाला है. मुझे सजा दीजिए.’

‘‘‘तुम पर दबाव है किसी का?’ जज ने पूछा.

‘‘‘जी साहब, बहुत गहरा दबाव है.’

‘‘‘किस का? नाम बताओ उस का.’

‘‘वह मुसकराया, ‘मेरी यह आत्मा. बहुत गहरा दबाव है. अब और नहीं सहा जाता,’ और उस ने हृदय पर हाथ रखा. जज साहब हैरान, पूरा कोर्टरूम सन्नाटे में. मैं नजरें झुकाए खड़ा था और वह हंसताहंसता जेल चला गया. उड़तेउड़ते किस्से सुनता रहा उस की महानता के. 10 वर्षों के बाद कल आया, बस यही विनती ले कर…तुझ से मिलने की. एकदम कमजोर. मैं मना नहीं कर पाया, बेबी.’’

अब तक चुप बैठी अनन्या ने प्रश्न दागा.

‘‘नानाजी, यह तो मैं समझ गई कि वे एक अपराधी थे और अचानक उन का हृदय परिवर्तन हो गया पर यह मम्मी का चक्कर नहीं समझ में आ रहा. यह तो काबुलीवाला की कहानी जैसा लग रहा है.’’

‘‘ऐसा है बेटा, अब चल ही रहे हैं. खुद ही पूछ लेना.’’

मैं एकदम चुप. पूरा घटनाक्रम गहरे तक मेरे मन को खुरच गया. मेरे उस दिन किए गए घोर अपमान ने उन्हें ऐसा बदल दिया? मानवमन कितना विचित्र है. ऐसा धुर अपराधी इतना संवेदनशील भी हो सकता है? इतनी आत्मशक्ति, ऐसा मनोबल, विकट आत्मनियंत्रण, दृढ़ संकल्प हम शरीफों में होता है क्या?

स्वयं में खोई सी, संकोच का कवच ओढ़े मैं झिझकती हुई उस घर में घुसी. वह लंबातगड़ा पहलवान सा व्यक्ति चारपाई से लगा पड़ा था. एकदम जर्जर शरीर, शांत आंखें, संवेगआवेगशून्य शब्दहीन दृष्टि. पर स्वरहीन, शब्दहीन होंठों की भाषा मैं ने पढ़ ली थी. उन रंगहीन होंठों पर उभरी स्मित की वह रेखा. निर्जीव आंखों में उभरी वह अनदेखी चमक मैं ने देख ली थी. अनन्या बड़े ध्यान से देखतेदेखते अचानक उन से लिपट गई.

‘‘अंकल कहां चले गए थे आप. ममा यही तो हैं वे अंकल. अंकल, यह क्या हालत हो गई आप की? 5 साल पहले तो आप एकदम हट्टेकट्टे थे. चलिए, हमारे साथ. आप की यह बेटी डाक्टर बनने वाली है बस. बड़े से बड़े डाक्टर से आप का इलाज करवाऊंगी. ममा, ले चलेंगी न इन्हें अपने घर?’’ वह मेरी ओर मुड़ी.

‘‘हां बेटा, इन की नहीं तो और किस की सेवा करूंगी? महान हैं ये तो. मैं भी अपना जन्म सार्थक करूंगी.’’

पापा आंखों में प्रश्न सागर लहराते कभी मुझे तो कभी नोनी को देख रहे थे. अब मैं समझ पाई कि इस महान व्यक्ति ने उन की प्यारी नातिन के उद्धार की घटना का जिक्र भी उन से नहीं किया. सिहर उठी मैं. अनन्या के लिपटते ही उन की आंखें जो बंद हो गई थीं, जब उन्होंने आंखें खोलीं तो अविरल अश्रुधारा बह रही थी. स्वर एकदम क्षीण.

‘‘बेबी, तुम्हारी क्षमा पा कर मेरा जीवन सार्थक हो गया. एक उपकार और कर दो. मेरा आशीर्वाद ले लो.’’

रुलाई के आवेग को रोकते हुए मैं ने अपनी हथेली में उन का हाथ खींच लिया.

‘‘अंकल और मत गिराइए मुझे मेरी नजरों में. आप की क्षमा चाहिए इस अहंकारिनी को. आशीर्वाद तो सदा रहा आप का इस नादान बेबी पर,’’ मैं उन के चरणों में अपना माथा रगड़ रही थी.

‘‘बेबी, यह…’’

चौंक कर जो सिर उठाया तो उन के हाथ में वे ही जड़ाऊ कंगन थे. मैं ने दोनों कलाइयां आगे बढ़ा दीं. कांपते हाथों से उन्होंने कंगन मेरी दाईं कलाई पर टिकाया ही था कि उन की गरदन ढुलक गई.

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