बिना शर्त: भाग 2- मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

शाम को वह मिन्नी के साथ रैस्टोरैंट में पहुंच गई थी जहां महेश उस की प्रतीक्षा कर रहा था. खाने के बाद जब वह घर वापस लौटी तो 10 बज रहे थे.

बिस्तर पर लेटते ही मिन्नी सो गई थी. पर उस की आंखों में नींद न थी. वह आज महेश के बारे में बहुतकुछ जान चुकी थी कि महेश के पापा एक व्यापारी हैं. वह अपने घरपरिवार में इकलौता है. मम्मीपापा उस की शादी के लिए बारबार कह रहे हैं. कई लड़कियों को वह नापसंद कर चुका है. उस ने मम्मीपापा से साफ कह दिया है कि वह जब भी शादी करेगा तो अपनी मरजी से करेगा.

वह सम झ नहीं पा रही थी कि महेश उस की ओर इतना आकर्षित क्यों हो रहा है. महेश युवा है, अविवाहित और सुंदर है. अच्छीखासी नौकरी है. उस के लिए लड़कियों की कमी नहीं. महेश कहीं इस दोस्ती की आड़ में उसे छलना तो नहीं चाहता? पर वह इतनी कमजोर नहीं है जो यों किसी के बहकावे में आ जाए. उस के अंदर एक मजबूत नारी है. वह कभी ऐसा कोई गलत काम नहीं करेगी जिस से आजीवन प्रायश्चित्त करना पड़े.

कमल उस का मकान मालिक था. उस का फ्लैट भी बराबर में ही था. वह एक सरकारी विभाग में कार्यरत था. परिवार के नाम पर कमल, मां और 5 वर्षीय बेटा राजू थे. कमल की पत्नी बहुत तेज व  झगड़ालू स्वभाव की थी. वह कभी भी आत्महत्या करने और कमल व मांजी को जेल पहुंचाने की धमकी भी दे देती थी. रोजाना घर में किसी न किसी बात पर क्लेश करती थी. कमल ने रोजाना के  झगड़ों से परेशान हो कर पत्नी से तलाक ले लिया था.

आभा मिन्नी को सुबह औफिस जाते समय एक महिला के घर छोड़ आती थी, जहां कुछ कामकाजी परिवार अपने छोटे बच्चों को छोड़ आते थे. शाम को औफिस से लौटते समय वह मिन्नी को वहां से ले आती थी.

एक दिन मांजी ने आभा के पास आ कर कहा था, ‘बेटी, तुम औफिस जाते समय मिन्नी को हमारे पास छोड़ जाया करो. वह राजू के साथ खेलेगी. दोनों का मन लगा रहेगा. हमारे होते हुए तुम किसी तरह की चिंता न करना, आभा.’

उस दिन के बाद वह मिन्नी को मांजी के पास छोड़ कर औफिस जाने लगी.

रविवार छुट्टी का दिन था. वह मिन्नी के साथ एक शौपिंग मौल में पहुंची. लौट कर बाहर सड़क पर खड़ी औटो की प्रतीक्षा कर रही थी, तभी एक बाइक उस के सामने रुकी, बाइक पर बैठे कमल ने कहा, ‘आभाजी, आइए बैठिए.’

वह चौंकी, ‘अरे आप? नहींनहीं, कोई बात नहीं, मैं चली जाऊंगी. थ्रीव्हीलर मिल जाएगा.’

‘क्यों, टूव्हीलर से काम नहीं चलेगा क्या? इस ओर मेरा एक मित्र रहता है. बस, उसी से मिल कर आ रहा हूं. यहां आप को देखा तो मैं सम झ गया कि आप किसी बस या औटो की प्रतीक्षा में हैं. आइए, आप जहां कहेंगी, मैं आप को छोड़ दूंगा.’

‘मु झे पलटन बाजार जाना है,’ उस ने बाइक पर बैठते हुए कहा.

‘ओके मैडम. घर पहुंच कर मां को मेरे लिए भी एक रस्क का पैकेट दे देना.’ उस ने रस्क के कई पैकेट खरीदे थे जो कमल ने देख लिए थे.

‘ठीक है,’ उस ने कहा था.

कमल उसे व मिन्नी को पलटन बाजार में छोड़ कर चला गया.

आभा कभीकभी मांजी व कमल के बारे में सोचती कि कितना अच्छा स्वभाव है दोनों का. हमेशा दूसरों की भलाई के बारे में सोचते हैं. दोनों ही बहुत मिलनसार व परोपकारी हैं.

अकसर मांजी राजू को साथ ले कर उस के पास आ जाती थीं. राजू और मिन्नी खेलते रहते. वह मांजी के साथ बातों में लगी रहती.

एक दिन मांजी ने कहा था, ‘आभा, हमारे साथ तो कुछ भी ठीक नहीं हुआ. ऐसी  झगड़ालू बहू घर में आ गई थी कि क्या बताऊं. बहू थी या जान का क्लेश. हमें तो तुम जैसी सुशील बहू चाहिए थी.’

वह कुछ नहीं बोली. बस, इधरउधर देखने लगी.

धीरेधीरे उस के व महेश के संबंधों की दूरी घटने लगी थी. महेश ने उस से कह दिया था कि वह जल्द ही उस के जीवन का हमसफर बन जाएगा. उसे भी लग रहा था कि उस ने महेश की ओर हाथ बढ़ा कर कुछ गलत नहीं किया है.

आज शाम जब वह रसोई में थी तो महेश का फोन आ गया था, ‘मैं कुछ देर बाद आ रहा हूं. कुछ जरूरी बात करनी है.’ ऐसी क्या जरूरी बात है जो महेश घर आ कर ही बताना चाहता है. उस ने जानना भी चाहा, परंतु महेश ने कह दिया था कि वहीं घर आ कर बताएगा.

एक घंटे बाद महेश उस के पास आ गया.

‘क्या लोगे? ठंडा या गरम?’ उस ने पूछा था.

‘कुछ नहीं.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है? कोल्डडिं्रक्स ले लीजिए,’ कहते हुए वह रसोई की ओर चली गई. जब लौटी तो ट्रे में 2 गिलास कोल्डडिं्रक्स के साथ खाने का कुछ सामान था.

‘अब कहिए अपनी जरूरी बात,’ उस ने मुसकरा कर महेश की ओर देखते हुए कहा.

‘आज मम्मीपापा आए हैं दिल्ली से. मैं ने उन को सबकुछ बता दिया था. यह भी कह दिया था कि शादी करूंगा तो केवल आभा से. कल वे तुम से मिलने आ रहे हैं,’ महेश ने उस की ओर देखते हुए कहा था. उस के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं फैलने लगीं.

‘मम्मीपापा ने इस शादी की स्वीकृति तो दे दी है, परंतु एक शर्त रख दी है.’

वह चौंक उठी, ‘शर्त, कैसी शर्त?’

‘वे कहते हैं कि शादी के बाद मिन्नी किसी होस्टल में रहेगी या नानानानी के पास रहेगी.’

यह सुन कर मन ही मन तड़प उठी थी वह. उस ने कहा, ‘यह तो मम्मीपापा की शर्त है, आप का क्या कहना है?’

‘देखो आभा, मेरी बात को सम झने की कोशिश करो. मिन्नी को अच्छे स्कूल व होस्टल में भेज देंगे. हम उस से मिलते भी रहेंगे.’

‘नहीं, महेश ऐसा नहीं हो सकता. मैं मिन्नी के बिना और मिन्नी मेरे बिना नहीं रह सकती.’

‘ओह आभा, तुम सम झती क्यों नहीं.’

‘मु झे कुछ नहीं सम झना है. मैं एक मां हूं. मिन्नी मेरी बेटी है. आप ने यह कैसे कह दिया कि मिन्नी होस्टल में रह लेगी. मैं अपनी मिन्नी को अपने से दूर नहीं कर सकती.’

‘तब तो बहुत कठिन हो जाएगा, आभा. मम्मीपापा नहीं मानेंगे.’

लेखक – रमेश चंद्र छबीला

बिना शर्त: भाग 1- मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

महेश के कमरे से बाहर निकलते ही आभा के हृदय की धड़कन धीमी होने लगी. उस ने सोफे पर गरदन टिका कर आंखें बंद कर लीं.

आभा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि महेश आज उसे ऐसा उत्तर देगा जिस से उस के विश्वास का महल रेत का घरौंदा बन कर ढह जाएगा. महेश ने उस की गुडि़या सी लाड़ली बेटी मिन्नी के बारे में ऐसा कह कर उस के सपनों को चूरचूर कर दिया. पता नहीं वह कैसे सहन कर पाई उन शब्दों को जो अभीअभी महेश कह कर गया था.

वह काफी देर तक चिंतित बैठी रही. कुछ देर बाद दूसरे कमरे में गई जहां मिन्नी सो रही थी. मिन्नी को देखते ही उस के दिल में एक हूक सी उठी और रुलाई आ गई. नहीं, वह अपनी बेटी को अपने से अलग नहीं करेगी. मासूम भोली सी मिन्नी अभी 3 वर्ष की ही तो है. वह मिन्नी के बराबर में लेट गई और उसे अपने सीने से लगा लिया.

5 वर्ष पहले उस का विवाह प्रशांत से हुआ था. परिवार के नाम पर प्रशांत व उस की मां थी, जिसे वह मांजी कहती थी.

प्रशांत एक प्राइवेट कंपनी में प्रबंधक था.

वह स्वयं एक अन्य कंपनी में काम करती थी.

2 वर्षों बाद ही उन के घरपरिवार में एक प्यारी सी बेटी का जन्म हुआ. बेटी का मिन्नी नाम रखा मांजी ने. मांजी को तो जैसे कोई खिलौना मिल गया हो. मांजी और प्रशांत मिन्नी को बहुत प्यार करते थे.

एक दिन उस के हंसते, खुशियोंभरे जीवन पर बिजली गिर पड़ी थी. औफिस से घर लौटते हुए प्रशांत की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. सुन कर उसे लगा था मानो कोई भयंकर सपना देख लिया हो. पोस्टमार्टम के बाद जब प्रशांत का शव घर पर आया तो वह एक पत्थर की प्रतिमा की तरह निर्जीव हो गई थी.

मिन्नी अभी केवल 2 वर्ष की थी. उस की हंसीखुशी, सुखचैन मानो प्रशांत के साथ ही चला गया था. जब भी वह अपना शृंगारविहीन चेहरा शीशे में देखती तो उसे रुलाई आ जाती थी. कभीकभी तो वह अकेली देर तक रोती रहती.

उस के मां व बाबूजी आते रहते थे उस के दुख को कुछ कम करने के लिए. उस ने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली थी.

एक दिन उस के बाबूजी ने उसे सम झाते हुए कहा था, ‘देख बेटी, जो दुख तु झे मिला है उस से बढ़ कर कोई दुख हो ही नहीं सकता. अब तो इस दुख को सहन करना ही होगा. यह तेरा ही नहीं, हमारा भी दुख है.’

वह चुपचाप सुनती रही.

‘बेटी, मिन्नी अभी बहुत छोटी है. तेरी आयु भी केवल 30 साल की है. अभी तो तेरे जीवन का सफर लंबा है. हम चाहते हैं कि फिर से तु झे कोई जीवनसाथी मिल जाए.’

‘नहीं, मु झे नहीं चाहिए कोई जीवनसाथी. अब तो मैं मिन्नी के सहारे ही अपना जीवन गुजार लूंगी. मैं इसे पढ़ालिखा कर किसी योग्य बना दूंगी. अगर मेरे जीवन में जीवनसाथी का सुख होता तो प्रशांत हमें छोड़ कर जाता ही क्यों?’ उस ने कहा था.

तब मां व बाबूजी ने उसे बहुत सम झाया था, पर उस ने दूसरी शादी करने से मना कर दिया था.

4 महीने बाद कंपनी ने उस का ट्रांस्फर देहरादून कर दिया था. वह बेटी मिन्नी के साथ देहरादून पहुंच गई थी.

देहरादून में उस की एक सहेली लीना थी. लीना का 4-5 कमरों का मकान था. लीना तो कहती थी कि उसे किराए का मकान लेने की क्या जरूरत है. यहीं उस के साथ रहे, जिस से उसे अकेलेपन का भी एहसास नहीं होगा. पर वह नहीं मानी थी.

उस ने हरिद्वार रोड पर 2 कमरों का एक फ्लैट किराए पर ले लिया था.

कुछ दिनों में उसे ऐसा लगने लगा था कि एक व्यक्ति उस में कुछ ज्यादा रुचि ले रहा है. वह व्यक्ति था महेश. कंपनी का सहायक प्रबंधक. महेश उसे किसी न किसी बहाने केबिन में बुलाता और उस से औफिस के काम के बारे में बातचीत करता.

एक दिन सुबह वह सो कर भी नहीं उठी थी कि मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. सुबहसुबह किस का फोन आ गया.

उस ने मोबाइल स्क्रीन पर पढ़ा – महेश.

महेश ने सुबहसुबह क्यों फोन किया? आखिर क्या कहना चाहता है वह? उस ने फोन एक तरफ रख दिया. आंखें बंद कर लेटी रही. फोन की घंटी बजती रही. दूसरी बार फिर फोन की घंटी बजी, तो उस ने  झुं झला कर फोन उठा कर कहा, ‘हैलो…’

‘आभाजी, आप सोच रही होंगी कि पता नहीं क्यों सुबहसुबह डिस्टर्ब कर रहा हूं जबकि हो सकता है आप सो रही हों. पर बात ही ऐसी है कि…’

‘ऐसी क्या बात है जो आप को इतनी सुबह फोन करने की जरूरत आ पड़ी. यह सब तो आप औफिस में भी…’

‘नहीं आभाजी, औफिस खुलने में अभी 3 घंटे हैं और मैं 3 घंटे प्रतीक्षा नहीं कर सकता.’

‘अच्छा, तो कहिए.’ वह सम झ नहीं पा रही थी कि वह कौन सी बात है जिसे कहने के लिए महेश 3 घंटे भी प्रतीक्षा नहीं कर पा रहा है.

‘जन्मदिन की शुभकामनाएं आप को व बेटी मिन्नी को. आप दोनों के जन्मदिन की तारीख भी एक ही है,’ उधर से महेश का स्वर सुनाई दिया.

चौंक उठी थी वह. अरे हां, आज तो उस का व बेटी मिन्नी का जन्मदिन है. वह तो भूल गई थी पर महेश को कैसे पता चला? हो सकता है औफिस की कंप्यूटर डिजाइनर संगीता ने बता दिया हो क्योंकि उस ने संगीता को ही बताया था कि उस की व मिन्नी के जन्म की तिथि एक ही है.

‘थैंक्स सर,’ उस ने कहा था.

‘केवल थैंक्स कहने से काम नहीं चलेगा, आज शाम की दावत मेरी तरफ से होगी. जिस रैस्टोरैंट में आप कहो, वहीं चलेंगे तीनों.’

‘तीनों कौन?’

‘आप, मिन्नी और मैं.’

सुन कर वह चुप हो गई थी. सम झ नहीं पा रही थी कि क्या उत्तर दे.

‘आभाजी, प्लीज मना न करना, वरना इस बेचारे का यह छोटा सा दिल टूट जाएगा,’ बहुत ही विनम्र शब्द सुनाई दिए थे महेश के.

वह मना न कर सकी. मुसकराते हुए उस ने कहा था, ‘ओके.’

लेखक – रमेश चंद्र छबीला

दो खजूर: मुस्तफा क्या साबित करना चाहता था?

बगदाद के बादशाह मीर काफूर ने अपने विश्वासी सलाहकार आसिफ मुस्तफा को बगदाद का नया काजी नियुक्त किया, क्योंकि निवर्तमान काजी रमीज अबेदिन अब बूढ़े हो चले थे और उन्होंने बादशाह से गुजारिश की थी कि अब उन का शरीर साथ नहीं दे रहा है इसलिए उन्हें राज्य के काजी पद की खिदमत से मुक्त कर दें. बगदाद राज्य का काजी पद बहुत महत्त्वपूर्ण और जिम्मेदारी भरा होता था. बगदाद के काजी पद पर नियुक्ति की खुशी में आसिफ मुस्तफा ने एक जोरदार दावत दी. उस दावत में उस के मातहत राज्य के सभी न्यायिक दंडाधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी आमंत्रित थे. राज्य के लगभग सभी सम्मानित व्यक्ति भी दावत में उपस्थित थे.

सब लोग दावत की खूब तारीफ कर रहे थे, क्योंकि वहां हर चीज मजेदार बनी थी. आसिफ मुस्तफा सारा इंतजाम खुद देख रहा था. सुरीले संगीत की धुनें वातावरण को और भी रसमय बना रही थीं. अचानक आसिफ मुस्तफा को ध्यान आया कि उस ने एक चीज तो मंगवाईर् ही नहीं. आजकल खजूर का मौसम चल रहा है. अत: उस फल का दावत में होना जरूरी है. बगदाद में पाया जाने वाला अरबी खजूर बहुत स्वादिष्ठ होता है. दावतों में भी उसे चाव से खाया जाता है.

आसिफ ने अपने सब से विश्वसनीय सेवक करीम को बुलाया और उसे सोने का एक सिक्का देते हुए कहा, ‘‘जल्दी से बाजार से 500 अच्छे खजूर ले आओ.’’ बगदाद में खजूर वजन के हिसाब से नहीं बल्कि संख्या के हिसाब से मिलते थे. सेवक फौरन रवाना हो गया. थोड़ी देर बाद लौटा तो उस के पास खजूरों से भरा हुआ एक बड़ा थैला था.

आसिफ मुस्तफा ने कहा, ‘‘थैला जमीन पर उलटो और मेरे सामने सब खजूर गिनो.’’

करीम अपने मालिक के इस आदेश पर दंग रह गया. वह सोच भी नहीं सकता था कि उस का मालिक उस जैसे पुराने विश्वसनीय सेवक पर इस तरह शक करेगा. सब मेहमान भी हैरत से आसिफ की तरफ देखने लगे.

करीम ने फल गिनने शुरू किए. जब गिनती पूरी हुई तो वह थरथर कांपने लगा. खजूर 498 ही थे. आसिफ बिगड़ कर बोला, ‘‘तुम ने बेईमानी की है. तुम ने 2 खजूर रास्ते में खा लिए हैं. तुम्हें इस जुर्म की सजा अवश्य मिलेगी.’’

करीम ‘रहमरहम…’ चिल्लाता रहा, लेकिन आसिफ मुस्तफा जरा भी नहीं पसीजा. उस ने सिपाहियों को आदेश दिया कि करीम को फौरन गिरफ्तार कर लिया जाए. आसिफ के इस बरताव से सारे मेहमान हक्केबक्के थे कि इतनी सी बात पर एक पुराने वफादार सेवक को सजा देना कहां का इंसाफ है.

आसिफ ने आदेश दिया, ‘‘करीम की पीठ पर तब तक कोड़े बरसाए जाएं, जब तक वह अपना अपराध कबूल न कर ले.’’ उस के आदेश का पालन किया जाने लगा. करीम की चीखें शामियाने में गूंजने लगीं. जब पिटतेपिटते करीम लहूलुहान हो गया तो उस ने चिल्ला कर कहा, ‘‘हां, मैं ने 2 खजूर चुरा लिए, 2 खजूर चुरा लिए. मीठेमीठे खजूर देख कर मेरा जी ललचा गया था. मैं अपराध कबूल करता हूं. मुझे छोड़ दो.’’

उस की इस बात पर मेहमानों में खुसुरफुसुर होने लगी कि अब ईमानदारी का जमाना नहीं रहा. जिसे देखो, वही बेईमानी करता है. किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता, वफादार सेवक पर भी नहीं. सभी करीम को कोस रहे थे, जिस की वजह से दावत का मजा किरकिरा हो गया था. तभी आसिफ मुस्तफा ने कहा, ‘‘सिपाहियो, खोल दो इस की जंजीरें.’’

जंजीरें खोल दी गईं. करीम को आसिफ के सामने पेश किया गया. सारे मेहमान चुपचाप देख रहे थे कि अब आसिफ मुस्तफा उस के साथ क्या व्यवहार करता है. सब का विचार था कि करीम ने अपराध स्वीकार कर लिया है इसलिए इसे बंदीगृह में भेज दिया जाएगा या नौकरी से निकाल दिया जाएगा. लेकिन इस के बाद आसिफ मुस्तफा अपनी जगह से उठ कर करीम के पास आया. उस के शरीर से रिसते खून को अपने रूमाल से साफ किया. उस की मरहमपट्टी की और दूसरे साफ कपड़े पहनाए. सभी आश्चर्य करने लगे कि यह क्या तमाशा है. जब करीम रहम की भीख मांग रहा था, तब तो उस की पुरानी वफादारी का लिहाज नहीं किया और अब कबूल चुका है तो उस की मरहमपट्टी हो रही है.

आसिफ मुस्तफा ने करीम से माफी मांगी. फिर मेहमानों से कहने लगा, ‘‘मैं जानता हूं करीम बेकुसूर है. इस ने कोई अपराध नहीं किया. यह देखिए,’’ उस ने अपने कुरते की आस्तीन में से 2 खजूर निकाल कर कहा, ‘‘ये हैं वे 2 खजूर जिन्हें मैं ने पहले ही फुरती से निकाल लिया था. ऐसा मैं ने इसलिए किया था कि आप को बता सकूं कि लोगों को कठोर दंड दे कर जुर्म कबूल करवाना कितनी बड़ी बेइंसाफी है, लेकिन ऐसा हो रहा है. हमारा काम अपराधियों का पता लगाना और उन के अपराध के लिए उन्हें सजा देना है न कि किसी भी निर्दोष को मार कर उसे चोर साबित करना.’’ सभी आसिफ मुस्तफा की इस सच्ची बात पर वाहवाह कर उठे. उन्हें विश्वास हो गया कि आसिफ वाकई काजी के पद के योग्य है. उस के कार्यकाल में किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलेगी और कुसूरवार बच नहीं पाएगा.

उजियारी सुबह: क्या था बिन ब्याही मां रीना का फैसला

लेखिका- अमृता पांडे

लौबी की दीवार में बड़े से फ्रेम में लगी मोहित की तसवीर को देख कर रीना उदास हो जाती है. आंसू की कुछ बूंदें उस की आंखों से लुढ़क जाते हैं. 15 अगस्त का दिन था और बाहर काफी धूमधाम थी. आजादी का सूरज धरा के कणकण पर अपनी स्वर्णिम रश्मियां बिखेरता हुआ जलथल से अठखेलियां कर रहा था. आज था रीना की बेटी का पहला जन्मदिन. मोहित की कमी तो हर दिन हर पल उसे खलती थी, फिर आज बिटिया के जन्मदिन पर तो खलनी ही थी.

मोहित के जाने के बाद से उस की हर सुबह स्याह थी, हर शाम उदास थी. रात अकसर आंसुओं का सैलाब ले कर आती, जिस में वह जीभर डूब जाती थी. अगली सुबह सूजन से भरी मोटीमोटी आंखें उस के गम की कहानी कहतीं.

पिछले डेढ़ साल से रीना घर से ही काम कर रही थी. वह मन ही मन कुदरत को धन्यवाद देती कि वर्क फ्रौम होम की वजह से उस की मुश्किल आसान हो गई वरना दुधमुंही बच्ची को किस के पास छोड़ कर औफिस जाती. यों भी और बच्चों की बात अलग होती है. पर वह किसकिस को क्या सफाई देती. आप कितने ही बहादुर क्यों न हों पर कभीकभी समाज की वर्जनाओं को तोड़ना मुश्किल हो जाता है.

कोरोना की वजह से रीना घर से बाहर कम ही निकल रही थी, क्योंकि तीसरी लहर का खतरा बना हुआ था और इसे बच्चों के लिए खतरनाक बताया गया था. वह अपनी बेटी को किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहती थी. आखिर यही तो एक निशानी थी उस के प्यार की. उस ने औनलाइन और्डर कर के ही सजावट की सारी चीजें गुब्बारे, बंटिंग्स आदि ऐडवांस में ही मंगा ली थी. शाम के लिए केक और खानेपीने की दूसरी चीजों का और्डर दे कर वह निश्चिंत हो गई थी.

वह डेढ़ वर्ष पुरानी यादों में खो गई. कितना पागल हो गया था मोहित, जब रीना ने बहुत ही घबराते हुए उसे अपने गर्भवती होने का शक जाहिर किया था. घर में ही टेस्ट कराने पर पता चला कि खबर पक्की है.

प्यार से उसे थामते हुए बोला था वह,”यह तो बहुत अच्छी खबर है. यों मुंह लटका कर क्यों खड़ी हो. कुदरत का शुक्रिया अदा करो और आने वाले मेहमान का स्वागत करो.”

“तुम पागल हो मोहित… बिना शादी के यह आफत… क्या हमारा समाज इसे स्वीकारता है?” वह रोते हुए बोली।

“प्रौब्लम इज ए क्वैश्चन प्रपोज्ड फौर सौल्यूशन. हम शादी कर लेंगे. बस, प्रौब्लम सौल्व,” कहते हुए मोहित ने उस के बालों में हाथ फेरा.

और दूसरा कोई रास्ता भी नहीं था. एक तो 3 महीने के बाद गर्भपात कराना गैर कानूनी काम और दूसरा, साथ में कोरोना की मार. सारे अस्पताल कोविड-19 के रोगियों से भरे थे. कोरोनाकाल में डाक्टर दूसरे गंभीर रोगियों को ही नहीं देख रहे थे. फिर गर्भवती महिला का वहां जाना खतरे से खाली भी नहीं था. कुछ एक अस्पतालों में डाक्टरों से मिन्नत भी की थी पर बेकार. कोई भी डाक्टर किसी पैशंट की जांच के लिए राजी ही नहीं था.

रीना को मोहित पर पूरा भरोसा था. पिछले दोढाई साल से उस के साथ लिवइन रिलेशन में रह रही थी. उस के स्वभाव को काफी हद तक जान लिया था रीना ने. मगर कहते हैं न कि हम सोचते कुछ हैं और होता कुछ और है. इस प्रेमी जोड़े के साथ भी यही हुआ. कोरोनारूपी दानव उन के घर तक पहुंच चुका था. मोहित को बहुत तेज बुखार आया और जब कुछ दिनों तक नहीं उतरा तो जांच कराई गई. वही हुआ जिस का डर था. वह कोरोना पौजिटिव निकला. आननफानन में अस्पताल में भरती कराया गया. संक्रमण का डर था इसलिए रीना को वहां जाने की मनाही थी. 1-2 बार डाक्टर से बहुत जिद कर के आईसीयू के बाहर से मोहित की एक झलक पा ली थी उस ने.

हालत बिगड़ती रही और मोहित ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. पीछे छोड़ गया रोतीबिलखती रीना को और अपने अजन्मे बच्चे को.

दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था रीना पर. बदहवास सी वह घंटों तक घर के फर्श पर ही पड़ी रही. कोरोना संक्रमित होने के कारण मोहित का संस्कार भी पुलिस ने ही करवाया था. खबर मिलने पर मोहित के कुछ दोस्तों ने रीना को संभाला और उस की सहेलियों को इत्तला दी.

मोहित के परिवार वालों को भी यह दुखद खबर दी गई। वे अपने बेटे के गम में इतने डूबे हुए थे कि उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि रीना से भी उन के बेटे का कोई रिश्ता था। भला इस तरह के रिश्ते को कौन स्वीकार करता है? विवाह नाम की संस्था हमारे समाज में आज भी उतनी ही संगठित है जितनी वर्षों पहले थी. हम कितना ही कुछ कहना कह लें मगर बिना शादी का रिश्ता रिश्ता नहीं माना जाता. रीना को सामने देखते ही वे बरस पड़े. अपने बेटे की मौत का जिम्मेदार उसी को ठहराने लगे. रीना को याद आया कि मोहित की मां ने उस पर न जाने क्याक्या लांछन लगा दिए थे. कितने गंदेगंदे शब्दों से उसे संबोधित किया था। उन्होंने तो रोहित की मौत का जिम्मेदार पूरी तरह से उसे ठहरा कर पुलिसिया काररवाई करने की भी ठान ली थी, वह तो कोरोना पौजिटिव रिपोर्ट ने उसे बचा लिया वरना कानूनी काररवाई भी झेल रही होती.

“छि: क्या मैं वास्तव में ऐसी ही हूं, जैसा मोहित की मां मुझे कहती हैं?
क्या मैं मोहित की मौत की जिम्मेदार हूं, जैसा उस की बहन रोरो कर कह रही थी?” परेशान होकर वह बारबार अपनेआप से यही सवाल करती.

दुनिया की नजरों में भले ही रीना का प्यार, उस का बच्चा अवैध था पर रीना की नजरों में तो यह एक पवित्र प्रेम की निशानी थी. वे दोनों एकदूसरे से बहुत अधिक प्यार करते थे. बस, फर्क इतना ही था कि बैंडबाजे के साथ दुनिया के सामने वह रीना के घर उसे ब्याहने नहीं गया था और उस की मांग में सिंदूर नहीं भरा था। वह रोरो कर यही बड़बड़ाती, फिर मूर्छित हो कर गिर जाती. उस की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी.

सोसायटी में रहने वाले लोग आज के समय में इतने संवेदनाहीन हो गए हैं कि सामने वाले घर में क्या हो रहा है, इस की खबर भी उन्हें नहीं रहती. पड़ोसी के दुखसुख में शरीक होने की जहमत भी नहीं उठाते. लेकिन यह खबर पूरी सोसाइटी में आग की तरह फैल गई. रीना के बारे में जब पता चला तो सब उस के खिलाफ हो गए. उस पर सोसाइटी का माहौल खराब करने तक का इल्जाम लग गया. ऐसे में ज्यादा दिनों तक वहां रह पाना उस के लिए बहुत मुश्किल हो रहा था. वह अपने परिवार के पास भी नहीं जाना चाहती थी क्योंकि उसे पता था कि वहां से भी कोई सहारा नहीं मिलने वाला है. पर दोस्त लोग भी कब तक उस की देखभाल कर पाते, सब की अपनीअपनी गृहस्थी, अपनेअपने काम थे. भला एक अभागिन प्रेमिका का दर्द कौन समझ पाता है?

सदियों से जमाने में यह होता आया है कि प्रेमियों को जुदा करने में समाज को मजा आया है. रीना की जिन सहेलियों को इस बात का पता था उन्होंने भी उसे यही सलाह दी कि वह अपनी मां के पास घर चली जाए. कहीं कोई बात हो जाए तो कानून की पचङे में फंसने का डर तो हर किसी को रहता ही है. यह सच है कि जब विपदा आती है तो वह इंसान को हर तरफ से घेर लेती है.

मोहित के ही एक दोस्त ने रीना को अपनी कार से उस के शहर छोड़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. और वह कर भी क्या सकता था.

घर में जब मां को पता चला तो उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. हमारे समाज में अनब्याही मां को न तो समाज स्वीकार करता है और न ही कोई परिवार. मां तो खुद ही असहाय थी. पिता की मौत हुए कई वर्ष हो चुके थे. फिर अविवाहित बेटी इस तरह घर में आ गई. समाज के तानों से कौन बचाएगा?

मां ने तो गुस्से में कह दिया था, “डूब कर मर जाती किसी कुएं में. यहां क्यों आई…. कहां भाग गया वह तेरा प्रेमी यह हाल कर के?”

“मां, मोहित कहीं भागा नहीं. वह कुदरत के पास चला गया है. कोरोना ने उसे अपना शिकार बना लिया वरना वह ऐसा नहीं था. उस के बारे में एक भी शब्द गलत मत कहना,” इतने दिनों में पहली बार मुंह से कुछ बोली थी रीना.

उस की एक बाल विधवा बुआ भी उसी घर में रहती थीं, जिन्होंने सामाजिक तानेबाने को बहुत अच्छे तरीके से पहचाना था.

रीना की ओर देखते हुए बोलीं, “सोचा भी नहीं तूने क्या मुंह दिखाएंगे हम समाज को. लोग थूथू करेंगे.”

“छोटी 2 बहनें शादी के लिए तैयार बैठी हैं. कौन करेगा इन से शादी? लोग तो यही कहेंगे कि जैसी बड़ी बहन है, वैसी ही छोटी भी होंगी चरित्रहीन.”

इन लोगों ने यह सब कह तो दिया पर यह नहीं सोचा कि ऐसी हालत में रीना से यह सब बातें करने से उस की क्या मानसिक स्थिति होगी.

इतना ही नहीं, इस बीच धोखे से रीना के पेट में पल रहे बच्चे को खत्म करने के भी कई घरेलू उपाय किए गए पर वे कारगर साबित नहीं हुए. उलटा रीना के स्वास्थ्य पर असर पड़ा. रक्तस्राव होने लगा और जान पर बन आई.

इस मुश्किल भरी परिस्थितियों में खुद को संभाल पाना मुश्किल हो रहा था. एक रात्रि वह निकल पड़ी किसी अनजान डगर पर. उसे बारबार मां और बुआ के कड़वे शब्द याद आ रहे थे कि डूब कर मर जा किसी कुएं में या फंदे से लटक जा.

रात का समय था. वह रेलवे ट्रैक के किनारेकिनारे चली जा रही थी. विक्षिप्त सी हो गई थी वह. आसपास चल रहे लोग उसे देखते घूरते और आगे बढ़ जाते. यही तो समाज का दस्तूर है. किसी की मजबूरी के बारे में जाने बगैर हम उस के बारे में कितनी सारी धारणाएं बना लेते हैं. पूर्वाग्रह से ग्रसित यही समाज तो नासूर है हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए.

तभी कहीं दूर से रेल की सीटी बजी. धड़धड़ाती हुई ट्रेन आ रही थी और उस की आहट से पूरी धरती में कंपन हो रहा था. रीना का दिल भी एक बारगी कांप उठा. सच कितना मुश्किल होता है मरने के लिए साहस जुटाना . खासकर ऐसे में जब जीने की कोई वजह हो. ट्रेन अब पास आ चुकी थी. इंजन की लाइट दूर से दिखने लगी थी.

उस ने अपने पेट पर हाथ फेरा और आसमान की ओर देख कर जोर से चिल्लाई,”मोहित, मैं आ रही हूं तुम्हारे पास. तुम्हारी परी को भी ला रही हूं. तीनों मिल कर वहीं रहेंगे सुकून से.”

वहीं पर तैनात रेलवे का एक गार्ड जो काफी देर से उस की गतिविधियों को देख रहा था, अब उसे बात समझ में आ गई थी. वह उस के करीब हो लिया. जैसे ही ट्रेन करीब आती, रीना तेजी से ट्रैक के साथसाथ दौड़ने लगी. सिपाही ने तत्परता दिखाते हुए एक झटके से उसे पकड़ लिया.

जब अपने साथ न दें तो कई बार पराए भी अपने लगने लगते हैं. वह पुलिस वाले का हाथ पकड़ कर रोने लगी,”भैया, क्यों बचा लिया आप ने मुझे? क्या करूंगी मैं इस दुनिया में जी कर. यहां मेरा कोई अपना नहीं. जो था वह तो छोड़ कर चला गया.

अब, समाचारपत्र को भी खबर चाहिए होती है और अगले दिन यही बात स्थानीय समाचारपत्र का हिस्सा बन गई कि एक अविवाहित गर्भवती महिला ट्रेन से कटने जा रही थी और रेलवे के गार्ड ने उसे बचा लिया. बात उस की बड़ी विवाहित दीदी तक जा पहुंची थी. वे उसे अपने साथ घर ले आईं पर यहां भी विडंबना देखिए कि रीना तक तो ठीक था पर बच्चे को रखने की सलाह वे भी नहीं दे रही थीं।

दीदी बोलीं,”देख रीना, मोहित तेरा बौयफ्रैंड था. पति तो था नहीं.
जो हुआ वह बुरा हुआ लेकिन मोहित की याद में कहां तक पूरी जिंदगी बिताएगी. यह खयाल अपने मन से निकाल दे. कभी न कभी तुझे जिंदगी में किसी साथी की जरूरत तो महसूस होगी ही और उस वक्त यही बच्चा तेरी जिंदगी में आड़े आएगा. आगे क्या बताऊं तू खुद समझदार है.”

एक बार फिर दुनियादारी ने रीना को निराश किया. जिस दीदी से कुछ उम्मीद की आस लिए यहां आई थी, वह भी बेरहम निकली. रीना अपनेआप में शारीरिक बदलाव महसूस करने लगी थी और यह दूसरों को भी नजर आने लगे थे. लोगों में कानाफूसी होने लगी थी. उस ने दीदी का घर भी छोड़ देने में ही अपनी भलाई समझी. दीदी को डर था कि कहीं दोबारा कोई घातक कदम न उठा ले. उस ने उसे समझा कर कुछ समय के लिए रोक लिया.

“रीना, तू फिक्र मत कर. हम तेरे साथ हैं. लेकिन इस बच्चे के बारे में दुविधा बनी हुई है।”

“दीदी, मां कहती हैं कि मैं ने पाप किया है.”

दीदी कुछ दृढ़ता से बोलीं,” देख रीना, यह पापपुण्य की परिभाषा तो न सब हमारे समाज की बनाई हुई है. इस से बाहर निकलना हमारे लिए मुश्किल है. मेरे आसपास के लोग भी जब तुझे देखेंगे तो यही पूछेंगे न कि इस का पति कहां है? यह समाज है. किसकिस का मुंह बंद करेगी?”

रीना उदास बैठी सोच रही थी कि आएदिन हत्या, लूटपाट की घटनाएं समाचारपत्र पत्रिकाओं में छपती हैं. उन लोगों पर कोई काररवाई नहीं होती. भ्रूण हत्या आज भी चोरीछिपे होती है. किसी की जान लेना यहां पाप नहीं पर किसी को जन्म देना पाप है. वाह रे, कैसा समाज है?

खैर, तय समय पर परी का जन्म हुआ. प्रसव वेदना के साथसाथ और भी कई तरह की वेदनाएं सहीं. दीदी ने भी एक तरह से इशारा सा कर दिया था कि अब वह अपना इंतजाम कहीं देख ले. बेटी को ले कर रीना दीदी का घर छोड़ कर दूसरे शहर में आ गई थी और तब से यहीं रह रही थी.

अचानक दरवाजे की घंटी बजती है और परी उस ओर जाने की कोशिश करती है. रीना ने देखा तो दूध और ग्रौसरी वाला था.

यों तो घर में कोई भीड़भाड़ नहीं फिर भी रौनक थी. 15 अगस्त का पावन दिन था. साथ में बेटी का जन्मदिन भी. रीना कभी देशप्रेम के गाने बजाती और कभी जन्मदिन के. रीना अकेले ही मातापिता दोनों का कर्तव्य निभाते हुए अपनी बेटी के जन्मदिन के अवसर पर कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। अब तो उस की नन्ही परी थोड़ाथोड़ा चलने लगी थी. 2-4 कदम चलती, फिर गिर जाती. फिर खुद ही संभल जाती. जब से कुछ समझने लगी थी तो उस ने सिर्फ मां को ही तो देखा था. पापा नाम का भी कोई प्राणी होता है, यह बात तो उसे पता भी नहीं थी.

अपने छोटे से घर को रीना ने बहुत ही कलात्मक ढंग से सजाया था और अपने स्टाफ के कुछ खास लोगों को पार्टी में बुलाया था. परी बिटिया को भी मेहरून रंग का सुंदर सा फ्रौक पहनाया था. बड़ी ही सुंदर लग रही थी उस की परी फ्रौक में. यह फ्रौक पिछले डेढ़ साल से रीना ने अपने बौक्स में छिपा कर रखा था जैसे चोरी का कोई सामान हो.

उस की आंखें फिर सजल हो उठीं. उस की आंखें के सामने सुनहरे दिनों की तसवीर घूमने लगी, जब मोहित को उस के गर्भवती होने का पता चला था तो उसी ने यह फ्रौक औनलाइन और्डर करवाया था. इसे देख कर रीना तो लजा ही गई थी. आज उस फ्रौक में उन की बेटी परी बहुत सुंदर लग रही थी. रीना उस के नन्हेनन्हे हाथों को देखती तो सोचती, ‘मोहित होता तो कितना खुश होता. पर आज उसे देखने के लिए वह रहा ही नहीं.’

कहता था, ‘बेटी होगी हमारी. देख लेना. बिलकुल तुम्हारी जैसी चंचल प्यारी सी.’

ये यादें उसे कमजोर करने के लिए काफी थीं पर रीना ने भी ठान लिया था कि वह अकेली अपनी बेटी को पालपोस कर बड़ा बनाएगी. आंखों के कोर में छिपे आंसुओं को पोंछते हुए उस ने परी को गोद में उठाया. एक नजर मोहित की तसवीर पर डाली और मेहमानों का इंतजार करने लगी. सूरज कुछ निस्तेज सा हो कर पश्चिम की ओर लौट रहा था पर रीना की गोद में परी एक नई सुबह का एहसास दे रही थी.

अनकही व्यथा: दामाद अशोक के बारे में सुदर्शन को क्या पता चला था

कालोनी में सेल्स टैक्स इंस्पेक्टर सुदर्शन के यहां उन की पुत्री के विवाह की तैयारियां जोरों पर थीं. सुदर्शन ने 3 वर्ष पहले ही कालोनी में मकान बनवाया था और उस समय की लागत के अनुसार मकान बनवाने में केवल 1 लाख रुपए लगे थे. 4 बडे़ कमरे, बैठक, रसोईघर, हरेक कमरे से जुड़ा गुसलखाना, सामने सुंदर लान जिस में तरहतरह के फूल लगे थे और पीछे एक बड़ा आंगन था. मकान की शान- शौकत देखते ही बनती थी.

उसी सुदर्शन के मकान के सामने आज विवाह की तैयारियां जोरों पर थीं. पूरी सड़क घेर कर काफी दूर तक कनातें लगाई गई थीं. शहर की सब से नामी फर्म ने सजावट का ठेका लिया था. चांदी और सुनहरे तारों की लडि़यां, रंगबिरंगे बल्ब, सोफे और गद्दीदार कुरसियां, झाड़-फानूस, सभी से वह पूरा क्षेत्र सजा हुआ था. स्वागत द्वार के पास ही परंपरागत शहनाईवादन हो रहा था. उस के लिए भी प्रसिद्ध कलाकार बुलाए गए थे.

जब मकान बना था तब भी पड़ोस में रहने वाले प्रोफेसर बलराज को बड़ा आश्चर्य हुआ था कि इतना रुपया सुदर्शन के पास कहां से आया. उन्हीं को नहीं, अन्य लोगों को भी इस बात पर अचंभा हुआ था, लेकिन यह पूछने का साहस किसी में नहीं था. आज बलराज को सुदर्शन की पुत्री के विवाह पर की गई सजावट और शानशौकत देख कर विस्मय हो रहा था.

बलराज हजार रुपए वेतन पा कर भी कभी मकान बनवाने की कल्पना नहीं कर सके और 15  वर्षं से इस कालोनी में किराए के मकान में रह रहे थे. उन की पत्नी कभीकभी व्यंग्य में कह दिया करती थीं, ‘‘जाइए, देख ली आप की प्रोफेसरी. इस मास्टरी लाइन में रखा ही क्या है? देख लो, सामने वाले नायब तहसीलदार विजय ने कैसी शानदार कोठी बनवा ली है और उधर देखो, थानेदार जयसिंह ने नए ढंग से क्या प्यारा बंगला बनवाया है. अपने बाईं ओर सुदर्शन की कोठी तो देख ही रहे हो, दाईं तरफ वाली विकास अधिकारी रतनचंद्र की कोठी पर भी नजर डाल लो.

‘‘इन्हें क्या तन- ख्वाह मिलती है? सच तो यह है कि शायद तुम से आधे से भी कम तनख्वाह मिलतीहोगी, लेकिन देख लो, क्या ठाट हैं. सभी के बच्चे कानवेंट स्कूलों में पढ़ रहे हैं. फल और मेवों से घर भरे हुए हैं. और एक हम लोग हैं, न ढंग से खा पाते हैं और न पहन पाते हैं. वही कहावत हुई न, नाम बडे़ और दर्शन छोटे.’’

बलराज पत्नी की बातों पर अकसर झुंझलाया करते थे. किंतु वह जानते थे कि उन की पत्नी की बातों में दम है, गहरी सचाई है. वह आज तक नहीं समझा सके कि इन लोगों के पास इतना पैसा कहां से आ रहा है? कैसे वे इतना बढि़या शानशौकत भरा जीवन बिता रहे हैं? और वह ऐसा क्यों नहीं कर पाते? बलराज जैसे सीधेसादे प्रोफेसर इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर भी नहीं ढूंढ़ पाते थे.

वह एक कालिज में भारतीय इतिहास के प्राध्यापक थे. प्राय: उन का अधिकांश समय गहरे अध्ययन और चिंतनमनन में ही बीतता था. परिवार में पत्नी के अलावा एक बड़ा पुत्र और 2 पुत्रियां थीं. पुत्र केवल बी.ए. तक ही पढ़ सका और एक फर्म में विक्रय प्रतिनिधि हो गया. उन की दोनों लड़कियों ने अवश्य एम.ए., बी.एड. कर लिया था. तीनों बच्चे बहुत सुंदर थे. लड़के का विवाह हो चुका था और एक बच्चा था.

लड़कियों के विवाह की चिंता उन्हें परेशान किए हुए थी. कई वरों को उन्होंने देख लिया था और कई वर और उन के मातापिता उन की पुत्रियों को देख चुके थे किंतु फिर भी कहीं बात तय नहीं हो पाई थी. वह काफी परेशान थे. सोचते थे कि दोनों ही लड़कियां विवाह योग्य हैं. 2-4 दिन के अंतर से दोनों का ही विवाह कर देंगे, लेकिन जब वर मिलेगा तभी तो विवाह होगा. किंतु वर कहां मिले?

उन की नजर सुदर्शन की कोठी की ओर चली गई. इस समय तक पंडाल भर चुका था. बड़ेबडे़ सेठसाहूकार अपनीअपनी कारों में आए थे. आखिर आते क्यों नहीं? सुदर्शन सेल्स टैक्स इंस्पेक्टर जो था, इसीलिए शहर के व्यापारी वर्ग के सभी गण्यमान्य व्यक्ति वहां उपस्थित थे.

बलराज चौंके. ओह, वे व्यर्थ की बातें क्यों सोच रहे हैं? उन्हें भी अब सुदर्शन के यहां पहुंच जाना चाहिए. घर की महिलाएं पड़ोस में जा चुकी थीं. घर में अब उन के सिवा कोई नहीं था. वह भी जल्दी जाना चाहते थे, किंतु मन में अनजाने ही एक ऐसी अव्यक्त वेदना घर कर गई थी कि हृदय पर उन्हें एक भारी बोझ सा अनुभव हो रहा था. यह शायद अपनी पुत्रियों के विवाह तय न हो पाने के कारण था.

पटाखों और बैंडबाजों की आवाज से उन की विचारधारा टूटी. ओह, बरात आ गई. बलराज तुरंत दरवाजे पर ताला लगा कर पड़ोस में लपके.

बरात अब बिलकुल नजदीक आ चुकी थी और बैंड के शोर में ‘ट्विस्ट’ नाच अपनी चरमसीमा पर था. आगत अतिथिगण उठ कर खडे़ हो गए थे. उन में से कुछ आगे बढ़ कर नाच देखने लगे. वर का सजासजाया घोड़ा अब ‘स्वागतम्’ वाले द्वार के बिलकुल निकट आ गया था. बलराज भी अब आगे बढ़ आए थे.

परिवार की महिलाओं द्वारा अब वर का स्वागत हो रहा था. फूलों का सेहरा उठा कर वर के माथे पर तिलक किया जा रहा था. वर के मुख को देखने की उत्सुकता से बलराज ने भीड़ में सिर ऊपर उठा कर उस के मुख को देखा तो वह बुरी तरह चौंक गए. वर का मुख उन का अत्यंत जानापहचाना था.

बलराज का पूरा शरीर पसीने से भीग गया. यह सब कैसे हुआ? सचमुच यह कैसे हुआ? अशोक यहां कैसे आ गया?

लगभग 3 महीने पहले यही अशोक अपने पिता, भाई, मां तथा बहन के साथ उन की पुत्री रुचि को देखने उन के यहां आया था. उस दिन उन्होंने भी अपने आसपड़ोस के 4 आदमियों को इकट्ठा कर लिया था जिस में पड़ोस के सुदर्शन का परिवार भी सम्मिलित था.

बलराज को वह दिन अच्छी तरह याद था. अशोक अत्यंत सुंदर व सुसंस्कृत नवयुवक था. वह अच्छे पद पर था. एकाध वर्ष में स्टेट बैंक की किसी शाखा का मैनेजर बनने वाला था. उन के एक मित्र ने उस से तथा उस के परिवार से बलराज का परिचय कराया था. लड़का उन्हें बहुत पसंद आया था और उन्होंने अपनी रूपमती पुत्री रुचि का उस से विवाह कर देने का निश्चय कर लिया था.

किंतु निश्चय कर लेना एक बात है और कार्यरूप में परिणत करना दूसरी बात है. उन की हार्दिक इच्छा होने के बावजूद अशोक और रुचि का विवाह तय नहीं हो सका था. इस में सब से बडे़ बाधक अशोक के पिता थे. उन के उस समय कहे गए शब्द अब बलराज के कानों में गूंज रहे थे :

‘प्रोफेसर साहब, यह ठीक है कि आप एक बडे़ कालिज में प्रोफेसर हैं. यह भी सही है कि आप अच्छी तनख्वाह पाते हैं, लेकिन यह बताइए, आप हमें क्या दे सकते हैं? मेरा लड़का एम.ए., बी.काम. है, बैंक में बड़ा अफसर होने जा रहा है. हम ने उस की पढ़ाईलिखाई पर 40-50 हजार से ऊपर खर्च कर दिया है और अफसर बनवा दिया है, इसीलिए न कि हमें यह सब रुपया वापस मिल जाएगा.’

उन्होंने रुक कर फिर कहा, ‘यदि आप हमें 1 लाख रुपए नकद दे सकते हैं और लड़की के जेवर, कपड़ों के अलावा फ्रिज, रंगीन टेलीविजन और स्कूटर दे सकते हैं तो मिलाइए हाथ. बात अभी और इसी समय पक्की समझिए. नहीं तो हमें माफ कीजिए.’

बलराज उस मांग को सुन कर अत्यंत विचलित हो गए थे. वह मात्र एक प्रोफेसर थे जिस के पास वेतन और कुछ परीक्षाओं में परीक्षक होने से प्राप्त धन की ही आमदनी थी. वह दहेज को सदा समाज और देश के लिए अभिशाप समझते रहे, इसीलिए उन्होंने अपनी आदर्शवादिता का निर्वाह करते हुए अपने पुत्र के विवाह में कुछ नहीं लिया था.

उन्हें अपनी पुत्रवधू पसंद आ गई थी और वह प्रसन्नता के साथ उसे अपनी बहू बना कर ले आए थे. वह उस से आज भी पूर्णतया संतुष्ट थे. उन्हें कभी भी उस से या उस के परिवार से शिकायत नहीं हुई थी. वे यही सोचते थे कि जब मैं ने अपने पुत्र के विवाह में कुछ नहीं लिया तो मेरी पुत्रियों के विवाह में भी मुझ से कोई कुछ नहीं मांगेगा.

किंतु आज उन का वह स्वप्न छिन्नभिन्न हो गया, वह पराजित हो गए, उन के सम्मुख ठोस यथार्थ आ चुका था. उन्होंने बड़े निराशा भरे स्वर में अशोक के पिता से कहा था, ‘आप की मांग ऐसी है कि मुझ जैसा अध्यापक कभी पूरी नहीं कर पाएगा, कैलाशजी. एक पिता का सब से बड़ा कर्तव्य यही है कि वह अपनी संतानों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दे कर हर रूप में योग्य व समर्थ बना कर उन का जीवन व्यवस्थित कर दे. वह कर्तव्य मैं ने कर दिया है.

‘मेरी लड़की अत्यंत सुंदर होने के साथसाथ एम.ए., बी.एड. है, गृहकार्य में पूर्णतया दक्ष है. मुझे विश्वास है कि जहां भी जाएगी, वह घर उसे पा कर सुखी होगा. मैं आप को केवल एक ही भरोसा दे सकता हूं कि अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर अच्छे से अच्छा विवाह करूंगा और आप को संतोष देने का प्रयत्न करूंगा, लेकिन किसी भी चीज को देने का वादा नहीं कर सकता.’

और कैलाशजी अपने पुत्र अशोक को ले कर वापस चले गए थे. बलराज की पुत्री का विवाह तय नहीं हो पाया था. उस दिन वह बेहद निराश और मायूस रहे. उन्होंने उस दिन खाना नहीं खाया और किसी से बोले भी नहीं. जीवन में पहली बार उन्हें यथार्थ के ठोस धरातल का एहसास हुआ था. वह जान गए थे कि यह दुनिया अब उन के स्वप्नों की दुनिया नहीं रही है. यह बहुत बदल गई है, सचमुच बेहद बदल गई है.

अब वही लड़का अशोक वर के रूप में सामने खड़ा था और वह भी पड़ोसी सुदर्शन के यहां. क्या सुदर्शन ने अशोक के पिता की पूरी मांगें मान लीं? लेकिन यह कैसे हो सकता है? सुदर्शन के पास इतना रुपया कहां से आया? और उन की लड़की भी तो अत्यंत कुरूप और मात्र इंटर पास है. अशोक को तो सुंदर लड़की चाहिए थी. क्या अशोक ने उसे पसंद कर लिया?

वह अपने कंधे पर किसी के हाथ की थपथपाहट से चौंके. सड़क के उस पार की कोठी के मालिक रामेंद्र बगल में खडे़ थे. उन्होंने पसीने में भीगा अपना चेहरा उन के मुख पर टिका दिया और खोएखोए से देखते रहे.

रामेंद्र उन्हें भीड़ से अलग एक किनारे ले गए और धीरे से बोले, ‘‘मैं जानता हूं कि आप इस लड़के अशोक को देख कर बेहद चौंके हैं और शायद दुखी भी हुए हैं. मैं आप के मन की व्यथा समझ रहा हूं, प्रोफेसर साहब. बात इतनी है कि आजकल वरों की नीलामी हो रही है. जो जितनी अधिक ऊंची बोली लगाएगा वही अपनी पुत्री का विवाह कर पाएगा. सुदर्शन ने आप के यहां इस लड़के को देख लिया और उस के बाप से उसे खरीद लिया.

‘‘उधर देखिए,’’ सामने इशारा करते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘‘इसे देने के लिए नया स्कूटर खड़ा है, फ्रिज, रंगीन टेलीविजन, स्टीरियो और टेपरिकार्डर कोने में रखे हैं. मंडप के नीचे साडि़यों और जेवरात की बहार पर भी नजर डालिए. यही सब तो इस वर के पिता को चाहिए था जो आप दे नहीं सके थे. शायद आप को यह भी पता नहीं कि सुदर्शन ने तिलक की रस्म के समय 51 हजार रुपए दिए थे और शेष अब दिए जाएंगे.’’

बलराज ने भर्राए, अटकते स्वरों में कहा, ‘‘लेकिन सुदर्शन की लड़की… वह तो बहुत बदसूरत है, ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं है. क्या लड़के ने उसे पसंद कर लिया?’’

रामेंद्र व्यंग्य से मुसकराए. धीरे से बोले, ‘‘लड़के ने ही तो लड़की पसंद कर के शादी की है. लड़के को लड़की नहीं, रुपया चाहिए था. दहेज चाहिए था. वह मिल गया. एक बडे़ होटल में दावत पर इन सभी को बुलाया गया था. वहीं मोलभाव हुआ था और तुरंत वहीं तिलक की रस्म भी कर दी गई थी. तभी तो हम लोगों को पता नहीं चला. वह तो कल मेरी पत्नी को कहीं से यह सबकुछ पता चला, तब मैं जान पाया.’’

बलराज ने खोएखोए स्वर में कहा, ‘‘रामेंद्रजी, इतना सबकुछ देना मेरी सामर्थ्य के बाहर है. अब मैं क्या करूंगा. मेरी लड़कियों का विवाह कैसे होगा?’’

रामेंद्रजी ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, ‘‘मैं आप की कठिनाई समझ रहा हूं, प्रोफेसर साहब, लेकिन आज का युग तो मोलभाव का युग है, नीलामी का युग है. आप ने दुकानों में सजी हुई वस्तुओं पर कीमतें टंगी हुई देखी होंगी. बढि़या माल चाहिए, बढि़या दाम देने होंगे. वही हाल आजकल वरों का है. वर का जितना बड़ा पद होगा उसी अनुपात में आप को उस की कीमत नकद एवं सामान के रूप में देनी होगी.’’

रामेंद्रजी ने थोड़ा रुक कर, फिर सांस भर कर धीरे से कहा, ‘‘बोलिए, आप कैसा और कौन सा माल खरीदेंगे? चाहे जैसा माल खरीदिए, शर्त यही है कि कीमत आप को देनी होगी.’’

बलराज हलकी सर्दी में भी पसीने से बुरी तरह भीग चुके थे. वह एकटक असहाय दृष्टि से ठाकुर साहब को देखते रहे और फिर बिना कुछ बोले तेजी से अपने घर की ओर बढ़ गए.

बलराज कब तक निश्चेष्ट पडे़ रहे, यह उन्हें याद नहीं. उन का शरीर निश्चेष्ट अवश्य था, किंतु उन का मस्तिष्क सक्रिय था. वह अनर्गल विचारों में डूबतेउतराते रहे और उन की तंद्रा तब टूटी जब उन की पत्नी ने उन के माथे को सहलाया. फिर उस ने धीरे से पूछा, ‘‘क्या सो गए?’’

उन्होंने धीरे से नेत्र खोल कर एक क्षण अपनी पत्नी को देखा और फिर निर्निमेष उसे देखते ही रहे.

पत्नी ने घबराए स्वर में पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न? आप की आंखें लाल क्यों हैं?’’

बलराज धीरे से उठ कर बैठ गए और हौले स्वर में बोले, ‘‘मैं ठीक हूं, रमा. मुझे कुछ नहीं हुआ है.’’

पलंग के पास पड़ी कुरसी पर पत्नी बैठ गई. कुछ क्षणों तक खामोशी रही, फिर रमा ने धीरे से कहा, ‘‘सुदर्शनजी रात्रिभोज के लिए आप को काफी ढूंढ़ते रहे. शायद वह लड़की के दहेज का सामान भी आप को दिखाना चाहते थे, लेकिन मैं जानती हूं कि आप क्यों चले आए. मैं तो इतना ही कहूंगी कि इस तरह दुखी होने से क्या होगा. हम अपनी विवशताओं की सीमाओं में बंधे हैं. हम अपनेआप को बेच कर भी इतना सब कुछ नहीं दे सकते.

‘‘किंतु मुझे विश्वास है कि चाहे देर से ही सही, वह समय जरूर आएगा जब कोई समझदार नौजवान इन दहेज के बंधनों को तोड़ कर हमारी बेटी को ब्याह ले जाएगा. हां, हमें तब तक प्रतीक्षा करनी होगी.’’

बलराज ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘नहीं, रमा, ऐसा विश्वास व्यर्थ है. सोने और चांदी से चमचमाते इस युग में हम सीमित साधनों वाले इनसान जिंदा नहीं रह सकते. क्या तुम्हें यह विचित्र नहीं लगता कि पड़ोसियों की कम पढ़ीलिखी, बदसूरत लड़कियां एकएक कर ब्याही जा रही हैं, क्योंकि वे अच्छा दहेज दे सकने में समर्थ हैं, इसलिए कि उन के पास रिश्वत, सरकारी माल की हेराफेरी और भ्रष्टाचार से कमाया पैसा है और हम ईमानदार लोग असहाय एवं बेबस हो कर यह सब देख रहे हैं और सह रहे हैं.

‘‘रमा, आज धन और पैसे का बोलबाला है, चांदी के जूते के सामने इनसान ने अपनी शर्महया, इज्जतआबरू, मानअपमान सभी को ताक पर रख दिया है. इनसान सरेबाजार बिक गया है. नीलाम हो गया है.’’

बलराज थोड़ी देर रुके. फिर सांस भर कर बोले, ‘‘मेरे दिल में एक ही बात की कसक है कि एक अध्यापक अपनी सीमित आय के कारण अपनी पुत्री का विवाह नहीं कर सकता क्योंकि वह एक वर की कीमत दे सकने में असमर्थ है. वर पक्ष वाले भी इसीलिए अध्यापकों के पास नहीं आते. तब समाज का यह प्रबुद्ध वर्ग कहां जाए? क्या करे? मैं जानता हूं कि इस प्रश्न का उत्तर मैं या तुम नहीं दे सकते. इस प्रश्न का तो पूरे समाज को ही उत्तर देना होगा.’’

पत्नी की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला, केवल हलकी सिसकियों की आवाज सुनाई देती रही.

पास के कमरे से कुछ और सिसकियों की आवाज सुनाई दे रही थी. ये सिसकियां उन लड़कियों की थीं जो शादी का जोड़ा पहनने की प्रतीक्षा में जाने कब से बैठी हैं और जाने कब तक बैठी रहेंगी. पता नहीं, उन के सपनों का राजकुमार कब घोड़े पर चढ़ कर उन्हें लेने आएगा.

ब्लैक फंगस: क्या महुआ और उसके परिवार को मिल पाई मदद

महुआ मैक्स नोएडा हौस्पिटल के कौरिडोर में पागलों की तरह चक्कर लगा रही थी. तभी उस की बड़ी ननद अनिला आ कर बोली, ‘‘महुआ धीरज रखो, सबकुछ ठीक होगा. हम अमित को समय से अस्पताल ले आए हैं.’’

महुआ सुन रही थी पर कुछ समझ नहीं पा रही थी. महुआ और उस का छोटा सा परिवार पिछले 25 दिनों से एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया था कि चाह कर भी वे उसे तोड़ कर बाहर नहीं निकल पा रहे थे. पहले कोरोना ने क्या उस पर कम कहर बरपाया था जो अमित को ब्लैक फंगस ने भी दबोच लिया?

महुआ बैठेबैठे उबासियां ले रही थी. पिछले 25 दिनों से शायद ही कोई ऐसी रात हो जब वह ठीक से सोई हो. तभी मोबाइल की घंटी बजी. युग का फोन था. महुआ को मालूम था युग जब तक बात नहीं करेगा, फोन करता ही रहेगा.

महुआ के  फोन उठाते ही युग बोला, ‘‘मम्मी, पापा कैसे हैं? गरिमा मामी कह रही हैं, वे जल्दी ही वापस आएंगे, फिर हम लोग सैलिब्रेट करेगे.’’

महुआ आंसुओं को पीते हुए बोली, ‘‘हां बेटा, जरूर करेंगे.’’

युग क्याक्या बोल रहा था महुआ को समझ नहीं आ रहा था. बस युग की आवाज से महुआ को इतना समझ आ गया था कि गरिमा उस के बेटे का बहुत अच्छे से ध्यान रख रही हैं. गरिमा उस के छोटे भाई अनिकेत की पत्नी हैं.

महुआ मन ही मन सोच रही थी कि ये वही गरिमा हैं जिसे परेशान करने में महुआ ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी और आज मुसीबत के समय ये गरिमा ही हैं जो उस के बेटे युग को अपने पास रखने के लिए तैयार हो गई.’’

उस की खुद की छोटी बहन सौमि ने तो साफ मना कर दिया था, ‘‘दीदी, मेरे खुद के 2 छोटे बच्चे हैं और फिर आप लोग अभीअभी कोरोना से बाहर निकले हो. आप युग को घर पर ही छोड़ दीजिए. मैं उस की ढंग से मौनिटरिंग कर लूंगी.’’

महुआ को समझ नहीं आ रहा था कि वे 5 वर्ष के युग को कहां और किस के सहारे छोड़े.

तभी गरिमा के  फोन ने डूबते को तिनके का सहारा दिया.

इस कोविड ने अपनों के चेहरे बेनकाब कर दिए थे. जिस ननद से उस से हमेशा दूरी बना कर रखी थी, मुसीबत में वही अपनी परवाह करे बिना भागती हुई नागपुर से मेरठ आ गई थी.

तभी अनिला बोली, ‘‘महुआ तुम अनिकेत के घर चली जाओ, थोड़ा आराम कर लो.’’

‘‘तुम्हारे जीजाजी अंनत नागपुर से आ रहे हैं.’’

‘‘हम दोनों यहां देख लेंगे, तुम भी तो कोविड से उठी हो.’’

महुआ रोते हुए बोली, ‘‘और दीदी आप क्या थकी हुई नहीं हैं? आप न होतीं तो मैं क्या करती… मुझे समझ नहीं आ रहा हैं. मैं यहीं रहूंगी दीदी… मैं युग का सामना नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘आप और जीजाजी अनिकेत के घर चले जाओ, मैं रात में यहीं रुकना चाहती हूं.’’

बड़ी मुश्किल से यह तय हुआ कि अनिला और अनंत पहले अनिकेत के घर जाएंगे और फिर थोड़ा आराम कर के वापस हौस्पिटल आ जाएंगे.

तभी नर्स आई और महुआ से बोली, ‘‘मैडम इंजैक्शन का इंतजाम हो गया क्या?’’

महुआ बोली, ‘‘हम लोग कोशिश कर रहे हैं.’’

नर्स बोली,’’ जल्दी करना मैडम 85 इंजैक्शन लगेंगे और अभी बस 10 इंजैक्शन ही हैं हमारे पास.’’

महुआ कुछ न बोली बस शून्य में ताकने लगी. तभी वार्ड से अमित के दर्द से

बिलबिलाने की आवाज आने लगी तो महुआ दौड़ती हुए अंदर गई. अमित की हालत देख कर वह घबरा गई. रोनी सी आवाज में बोली, ‘‘बहुत दर्द हो रहा हैं क्या अमित?’’

अमित बोला, ‘‘मुझे मुक्ति दे दो महुआ… अब सहन नहीं होता.’’

डाक्टर बाहर निकल कर बोले, ‘‘देखिए इन इंजैक्शन में दर्द तो होगा ही पर और कोई और उपाय भी नहीं है.’’

महुआ बोली, ‘‘डाक्टर ठीक तो हो जाएंगे न?’’

डाक्टर बोला, ‘‘अगर समय से इंजैक्शन मिल गए तो जरूर ठीक हो जाएंगे.’’

महुआ को बुखार महसूस हो रहा था. जब से कोविड हुआ है खुद का तो उसे होश ही नहीं था. बुखार रहरह कर लौट रहा था. बैठेबैठे ही महुआ की आंख लग गई. तभी अचानक झटके से उस की आंख खुली. अनिला महुआ को खाना खाने के लिए आवाज दे रही थी.

अनिला बोली, ‘‘अंनत और अनिकेत इंजैक्शन के लिए भागदौड़ कर रहे हैं.’’

‘‘हौस्पिटल में मैं और तुम रह लेंगे. ’’

‘‘फटाफट खाना खा कर पेरासिटामोल ले कर कुछ देर पैर सीधे कर लो.’’

महुआ जैसेतैसे मुंह में कौर डाल रही थी. तभी अनिला बोली, ‘‘युग के लिए तो हिम्मत रखनी होगी न महुआ और अमित के लिए हम सब पूरी कोशिश कर रहे हैं.’’

बाहर कौरिडोर में बहुत भयवह माहौल था. लोग औक्सीजन के लिए, दवाइयों के लिए, बैड के लिए गुहार लगा रहे थे. कुछ लोग रो रहे थे. कही से कराहने, कहीं से विलाप की और कहीं से मौत की आहट आ रही थी. महुआ को लग रहा था कि उसका दिमाग कभी भी फट जाएगा.

पहले कोरोना की दवाइयों के लिए मारामारी, फिर औक्सीजन के लिए और अब ब्लैक फंगस की दवाई भी नहीं मिल रही है. कौन जिम्मेदार है सरकार या हम लोग?

कुछ लोग कहते हैं लोगों ने दवाइयों को ब्लैक कर के रख लिया है ताकि महंगे दाम में बेच सकें पर इस के लिए भी कौन जिम्मेदार है? क्या यह एक आम आदमी की लाचारी और लापरवाही का नतीजा है जो यह ब्लैक फंगस अब सिस्टम से निकल कर एक आम नागरिक पर हावी हो गया है? तभी अनिला आई और बोली, ‘‘महुआ कल अनंत और अनिकेत शायद इंजैक्शन इंतजाम कर दें… उन की बात हो गई है.’’

‘‘कल मजिस्ट्रेट के औफिस जा कर कुछ कागज जमा करने होंगे और शायद फिर वाजिब दाम में ही हमें इंजैक्शन मिल जाएंगे.’’

महुआ ने राहत की सांस ली. ब्लैक में 4 इंजैक्शन की कीमत क्व2 लाख थी. अभी तो महुआ ने 10 इंजैक्शन के लिए क्व5 लाख दे दिए थे.पर बाकी 75 इंजैक्शन का इंतजाम कैसे होगा उसे नहीं पता था? वह मन ही मन अपने जेवरों की कीमत लगा रही थी जो करीब क्व10 लाख होगी और उस के पास घर के अलावा कुछ नहीं था.

अब शायद क्व10 लाख में ही सब हो जाए. महुआ जब सुबह नहाने के लिए भाईभाभी के घर पहुंची तो युग को देख कर उस का मन धक से रह गया. उस का बेटा बुजुर्ग सा हो गया था. उ4टासीधा पानी डाल कर, अनिला के लिए चायनाश्ता पैक करवा कर जब महुआ जाने लगी तो अनिकेत बोला, ‘‘दीदी हम तुम्हें हौस्पिटल छोड़ कर, डाक्टर से बात कर के फिर मजिस्ट्रेट के दफ्तर जाएंगे.’’

‘‘डाक्टर से लिखवाना जरूरी है कि ये इंजैक्शन अमित जीजू के लिए बेहद जरूरी हैं.’’

पूरे रास्ते दोनों ही महुआ की हिम्मत बंधवा रहे थे. हौस्पिटल में डाक्टर से बातचीत कर के अमित को देखते हुए अनंत और अनिकेत अनिला के पास आए और बोले, ‘‘बस अब कुछ भी हो जाए, इंजैक्शन ले कर ही आएंगे.’’

महुआ मरी सी आवाज में बोली, ‘‘मैं आप लोगों के पैसे एक बार अमित डिसचार्ज हो जाए लौटा दूंगी, फिलहाल अकाउंट खाली हो गया है,’’ और फिर फफकफफक कर रोने लगी.

अनंत महुआ के सिर पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘सूद समेत हम ले लेंगे, तुम बस अपना ध्यान रखो और टैंशन मत लो. हम लोग अभी हैं चिंता करने के लिए.’’

पूरा दिन बीत गया, परंतु अनंत अनिकेत का कोई फोन नहीं आया. महुआ सोच रही थी कि फोन इसलिए नहीं किया होगा क्योंकि वे इंजैक्शन ले कर आ ही रहे होंगे.

रात के करीब 9 बजे थके कदमों से अनिकेत खाना ले कर आया और दिलासा देते हुए बोला, ‘‘सब कागजी कार्यवाही हो गई है, परंतु अभी इंजैक्शन सरकार के पास नहीं हैं. शायद परसों तक आ जाएं.’’

महुआ बोली, ‘‘अनिकेत परसों तक के ही इंजैक्शन बचे हैं… तुम कुछ ब्लैक में इंतजाम कर लो. मैं फ्लैट बेच दूंगी.’’

अनिकेत को खुद समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे?

इधरउधर बहुत हाथपैर मारने पर एक दिन के इंजैक्शन का और इंतजाम हो गया. आज फिर अनिकेत और अनंत सरकारी हौस्पिटल इंजैक्शन के लिए गए थे. महुआ अमित का दर्द देख नहीं पा रही थी. आज 1 महीना हो गया था. महुआ मानसिक और शारीरिक रूप से इतनी थक चुकी थी कि उसे लग रहा था कि यह खेल कब तक चलेगा?

वह मन ही मन अमित की मौत की कामना करने लगी थी. यह जिंदगी और मौत के  बीच में चूहेबिल्ली का खेल अब उस की सहनशक्ति से परे था. महुआ को लग रहा था कि यह ब्लैक फंगस धीरेधीरे उस के पूरे परिवार को लील लेगा.

तभी अनंत आया और अनिला से बोला, ‘‘मैं ने अमेरिका में अपनी मामी से बात करी हैं, कुछ न कुछ जरूर हो जाएगा. सरकार से कुछ उम्मीद करना ही हमारी गलती थी.’’

महुआ सबकुछ सुन कर भी अनसुना कर रही थी.

अनंत फिर दबी आवाज में अनिला से बोला, ‘‘अनिकेत को भी बुखार हो गया हैं. वे आइसोलेटेड हैं, पर मैं सब संभाल लूंगा.’’

अचानक महुआ उठी और पागलों की तरह चिल्लाने लगी, ‘‘आप सब दूर चले जाओ… यह ब्लैक फंगस बीमारी नहीं, काल है सब को खत्म कर देगा.’’

अनिला उसे जितना शांत करने की कोशिश करती, वह दोगुने वेग से चिल्लाती.

तभी डाक्टर ने आ कर महुआ को टीका इंजैक्शन लगाया. महुआ नींद में भी बड़बड़ा रही थी, ‘‘ये ब्लैक फंगस हमारे प्रजातंत्र की सच्ची तसवीर है जहां पर बेईमानी, भ्रष्टाचार का बोलबाला हैं. मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए, रोज मरती हूं और रोज जीती हूं.’’

अनिला महुआ की यह हालत देख कर सुबक रही थी और अनंत के चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें खिंची हुई थीं. ऐसा प्रतीत हो रहा था यह ब्लैक फंगस मरीज के साथसाथ उस के पूरे परिवार से भी काले साए की तरह चिपक गया है.

प्यारा सा रिश्ता: परिवार के लिए क्या था सुदीपा का फैसला

12 साल की स्वरा शाम को खेलकूद कर वापस आई. दरवाजे की घंटी बजाई तो सामने किसी अजनबी युवक को देख कर चकित रह गई.

तब तक अंदर से उस की मां सुदीपा बाहर निकली और मुसकराते हुए बेटी से कहा, ‘‘बेटे यह तुम्हारी मम्मा के फ्रैंड अविनाश अंकल हैं. नमस्ते करो अंकल को.’’

‘‘नमस्ते मम्मा के फ्रैंड अंकल,’’ कह कर हौले से मुसकरा कर वह अपने कमरे में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी.

कुछ ही देर में उस का भाई विराज भी घर लौट आया. विराज स्वरा से 2-3 साल बड़ा था.

विराज को देखते ही स्वरा ने सवाल किया, ‘‘भैया आप मम्मा के फ्रैंड से मिले?’’

‘‘हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन तू कहीं गई

हुई थी?’’

‘‘वे सब छोड़ो भैया. आप तो मुझे यह बताओ कि वह मम्मा के बौयफ्रैंड हुए न?’’

‘‘यह क्या कह रही है पगली, वे तो बस फ्रैंड हैं. यह बात अलग है कि आज तक मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है मम्मा ने.’’

‘‘वही तो मैं कह रही हूं कि वह बौय भी है और मम्मा का फ्रैंड भी यानी वे बौयफ्रैंड ही तो हुए न,’’ स्वरा ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ज्यादा दिमाग मत दौड़ा. अपनी पढ़ाई कर ले,’’ विराज ने उसे धौल जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अविनाश चला गया तो सुदीपा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुई थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रैंड अब अकसर घर आने लगा है?’’

‘‘अरे नहीं मम्मीजी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह भी औफिस के किसी काम के सिलसिले में.’’

‘‘मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे औफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं, जबकि यह लड़का तो तुझ से भी छोटा लग रहा था.’’

‘‘मम्मीजी हम समान उम्र के ही हैं. अविनाश मुझ से केवल 4 महीने छोटा है. ऐक्चुअली हमारे औफिस में अविनाश का ट्रांसफर हाल ही में हुआ है. पहले उस की पोस्टिंग हैड औफिस मुंबई में थी. सो इसे प्रैक्टिकल नौलेज काफी ज्यादा है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह औफिस में बहुत जल्दी सब का दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मीजी आप बताइए आज खाने में क्या बनाऊं?’’

‘‘जो दिल करे बना ले बहू, पर देख लड़कों से जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना सही नहीं होता… तेरे भले के लिए ही कह रही हूं बहू.’’

‘‘अरे मम्मीजी आप निश्चिंत रहिए. अविनाश बहुत अच्छा लड़का है,’’ कह कर हंसती हुई सुदीपा अंदर चली गई, मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में जब सुदीपा का पति अनुराग घर लौटा तो खाने के बाद सास ने अनुराग को  कमरे में बुलाया और धीमी आवाज में उसे अविनाश के बारे में सबकुछ बता दिया.

अनुराग ने मां को समझाने की कोशिश की, ‘‘मां आज के समय में महिलाओं और पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो सुदीपा कितनी समझदार है. आप टैंशन क्यों लेती हो मां?’’

‘‘बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं सकता. स्त्रीपुरुष की दोस्ती यानी घी और आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय नहीं लगता बेटे. मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.’’

‘‘डौंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,’’ अविनाश मां के पास से तो उठ कर चला आया, मगर कहीं न कहीं उन की बातें देर तक उस के जेहन में घूमती रहीं. वह सुदीपा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निबटा कर सुदीपा कमरे में आई तो अविनाश ने उसे छेड़ने के अंदाज में कहा, ‘‘मां कह रही थीं आजकल आप की किसी लड़के से दोस्ती हो गई है और वह आप के घर भी आता है.’’

पति के भाव समझते हुए सुदीपा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया, ‘‘जी हां आप ने सही सुना है. वैसे मां तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उस से प्यार न हो जाए और मैं आप को चीट न करने लगूं.’’

‘‘हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है, मगर मेरी नहीं. औफिस में मुझे भी महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था.’’

‘‘आई नो ऐंड आई लव यू,’’ प्यार से सुदीपा ने कहा.

‘‘ओहो चलो इसी बहाने ये लफ्ज इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए,’’ अविनाश ने उसे बांहों में भरते हुए कहा.

सुदीपा खिलखिला कर हंस पड़ी. दोनों देर तक प्यारभरी बातें करते रहे.

वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अविनाश अकसर सुदीपा के घर आ जाता. कभीकभी दोनों बाहर भी निकल जाते. अनुराग को कोई एतराज नहीं था, इसलिए सुदीपा भी इस दोस्ती को ऐंजौय कर रही थी. साथ ही औफिस के काम भी आसानी से निबट जाते.

सुदीपा औफिस के साथ घर भी बहुत अच्छी तरह से संभालती थी. अनुराग को इस मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी.

मां अकसर बेटे को टोकतीं, ‘‘यह सही नहीं है अनुराग. तुझे फिर कह रही हूं, पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनमलने देना उचित नहीं.’’

‘‘मां ऐक्चुअली सुदीपा औफिस के कामों में ही अविनाश की हैल्प लेती है. दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एकदूसरे को अच्छे से समझते हैं. इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथसाथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इस में कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो रही है. याद करो मां जब सुदीपा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए हमारे हाथ तंग हो जाते थे. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके इस के लिए सुदीपा का काम करना भी तो जरूरी है न फिर जब वह घर संभालने के बाद काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोकाटाकी भी तो अच्छी नहीं लगती न.’’

‘‘बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,’’ मां ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘ठीक है मां मैं बात करूंगा,’’ कह कर अनुराग चुप हो गया.

एक ही बात बारबार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर डालती है. ऐसा ही कुछ अनुराग के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने सुदीपा और अविनाश शहर से बाहर जाते तो अनुराग का दिल बेचैन हो उठता. उसे कई दफा लगता कि सुदीपा को अविनाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा कर नहीं पाता. आखिर उस की गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही है तो उस के पीछे कहीं न कहीं सुदीपा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख अनुराग के मांबाप ने अपने पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू का दिया. एक दिन दोनों बच्चों को बैठा कर वे समझाने लगे, ‘‘देखो बेटे आप की मम्मा की अविनाश अंकल से दोस्ती ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आप को या पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अविनाश अंकल के साथ घूमने चली जाती है?’’

‘‘दादीजी मम्मा घूमने नहीं बल्कि औफिस के काम से ही अविनाश अंकल के साथ जाती हैं,’’ विराज ने विरोध किया.

‘‘ भैया को छोड़ो दादीजी पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को ले जाते हैं. यह सही नहीं.’’

‘‘हां बेटे मैं इसीलिए कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो. मम्मा को कहो कि अपने दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करे.’’

उस दिन संडे था. बच्चों के कहने पर सुदीपा और अनुराग उन्हें ले कर वाटर पार्क जाने वाले थे.

दोपहर की नींद ले कर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने लगे तो मां को न देख कर दादी के पास पहुंचे, ‘‘दादीजी मम्मा कहां हैं… दिख नहीं रहीं?’’

‘‘तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रैंड के साथ.’’

‘‘मतलब अविनाश अंकल के साथ?’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बौयफ्रैंड इंपौर्टैं हो गया?’’ कह कर स्वरा ने मुंह फुला लिया. विराज भी उदास हो गया.

लोहा गरम देख दादी मां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ‘‘यही तो मैं कहती आ  रही हूं इतने समय से कि सुदीपा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं आता.’’

‘‘मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है. कोई जरूरी काम आ गया होगा,’’ अनुराग ने सुदीपा के बचाव में कहा.

‘‘पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला?’’ कह कर विराज गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उस ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया.

स्वरा भी चिढ़ कर बोली, ‘‘लगता है मम्मा को हम से ज्यादा प्यार उस अविनाश अंकल से हो गया है,’’ और फिर वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई.

शाम को जब सुदीपा लौटी तो घर में सब का मूड औफ था. सुदीपा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे अविनाश अंकल के पैर में गहरी चोट लग गई थी. तभी मैं उन्हें ले कर अस्पताल गई.’’

‘‘मम्मा आज हम कोई बहाना नहीं सुनने वाले. आप ने अपना वादा तोड़ा है और वह भी अविनाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी,’’ कह कर दोनों वहां से उठ कर चले गए.

स्वरा और विराज मां की अविनाश से इन नजदीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे. वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गरमी की छुट्टियों के बाद बच्चों के स्कूल खुल गए और विराज अपने होस्टल चला गया.

इधर सुदीपा के सासससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उस के मांबाप से भी कर दिया. सुदीपा के मांबाप भी इस दोस्ती के खिलाफ थे. मां ने सुदीपा को समझाया तो पिता ने भी अनुराग को सलाह दी कि उसे इस मामले में सुदीपा पर थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अविनाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं देनी चाहिए.

इस बीच स्वरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह स्वरा से 2-4 साल बड़ा था यानी विराज की उम्र का था. वह जूडोकराटे में चैंपियन और फिटनैस फ्रीक लड़का था. स्वरा उस की बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आनेजाने लगे. सुजय दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह स्वरा को अच्छी बातें बताता. उसे सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ स्वरा को बहुत पसंद आता.

एक दिन स्वरा सुजय को अपने साथ घर ले आई.  सुदीपा ने उस की अच्छे से आवभगत की. सब को सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने स्वरा से कोई पूछताछ नहीं की. अब तो सुजय अकसर ही घर आने लगा. वह स्वरा की मैथ्स की प्रौब्लम भी सौल्व कर देता और जूडोकराटे भी सिखाता रहता.

एक दिन स्वरा ने सुदीपा से कहा, ‘‘मम्मा आप को पता है सुजय डांस भी जानता है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लौन में या फिर अपने कमरे में डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो.’’

‘‘मम्मा आप को या घर में किसी को एतराज तो नहीं होगा?’’ स्वरा ने पूछा.

‘‘अरे नहीं बेटा. सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पैंड करते हो. फिर हमें ऐतराज क्यों होगा? बस बेटा यह ध्यान रखना सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना. काम की बातें सीखो, खेलोकूदो, उस में क्या बुराई है?’’

‘‘ओके थैंक यू मम्मा,’’ कह कर स्वरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे स्वरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय इसी तरह बीतता रहा. एक दिन सुदीपा और अनुराग किसी काम से बाहर गए हुए थे.

घर में स्वरा दादीदादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो स्वरा उस से मैथ्स की प्रौब्लम सौल्व कराने लगी. इसी बीच अचानक स्वरा को दादी के कराहने और बाथरूम में गिरने की आवाज सुनाई दी.

स्वरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी हैं. स्वरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उन के पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वे अपने कमरे में सोए थे. स्वरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया और जल्दी से ऐंबुलैंस वाले को फोन किया. स्वरा ने अपने मम्मीडैडी को भी हर बात बता दी. इस बीच सुजय जल्दी से दादी को ले कर पास के अस्पताल भागा. उस ने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुंच कर उस ने बहुत समझदारी के साथ दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उन को हार्ट अटैक आया था. अब तक स्वरा के मांबाप भी हौस्पिटल पहुंच गए थे.

डाक्टर ने सुदीपा और अनुराग से सुजय  की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘इस लड़के ने जिस फुरती और समझदारी से आप की मां को हौस्पिटल पहुंचाया वह काबिलेतारीफ है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी यहां तक कि जान को भी खतरा हो सकता था.’’

सुदीपा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. अनुराग और उस के पिता ने भी नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज उन के परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर स्वरा की दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई.

घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा, ‘‘आज मुझे पता चला कि दोस्ती का रिश्ता इतना खूबसूरत होता है. तुम ने मेरी जान बचा कर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे कि दोस्ती का मतलब क्या है.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था दादीजी,’’ सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने सुदीपा की तरफ देख कर ग्लानि भरे स्वर में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है, बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और अविनाश की दोस्ती पर शक कर के हम ने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही नहीं पाई थी.’’

सुदीपा बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी आप बड़ी हैं. आप को मुझ से माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं. आप अविनाश को जानती नहीं थीं, इसलिए आप के मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था. पर मैं उसे पहचानती हूं, इसलिए बिना कुछ छिपाए उस रिश्ते को आप के सामने ले कर आई थी.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सुदीपा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल और गुलदस्ता लिए अविनाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उस ने पूछा, ‘‘मैं ने सुना है कि अम्मांजी की तबीयत खराब हो गई है. अब कैसी हैं वे?’’

‘‘बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,’’ हंसते

हुए सुदीपा ने कहा और हाथ पकड़ कर उसे अंदर ले आई.       

मसीहा: शांति के दुख क्या मेहनत से दूर हो पाए

दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई.

अंधेरे उजाले: कैसा था बोल्ड तनवी का फैसला

सुदेश अपनी पत्नी तनवी के साथ एक होटल में ठहरा था. होटल के अपने कमरे में टीवी पर समाचार देख वह एकदम परेशान हो उठा. राजस्थान अचानक गुर्जरों की आरक्षण की मांग को ले कर दहक उठा था. वहां की आग गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद, दनकौर, दादरी, मथुरा, आगरा आदि में फैल गई थी.

वे दोनों बच्चों को घर पर नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आए थे. तनवी दिल्ली अपने अर्थशास्त्र के शोध से संबंधित कुछ जरूरी किताबें लेने आई थी. सुदेश उस की मदद को संग आया था. 1-2 दिन में किताबें खरीद कर वे लोग घर वापस लौटने वाले थे लेकिन तभी गुर्जरों का यह आंदोलन छिड़ गया.

अपनी कार से उन्हें वापस लौटना था. रास्ते में नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद का हाईवे पड़ेगा. वाहनों में आगजनी, बसों की तोड़फोड़, रेल की पटरियां उखाड़ना, हिंसा, मारपीट, गोलीबारी, लंबेलंबे जाम…क्या मुसीबत है. बच्चों की चिंता ने दोनों को परेशान कर दिया. उन के लिए अब जल्दी से जल्दी घर पहुंचना जरूरी है.

‘‘क्या होता जा रहा है इस देश को? अपनी मांग मनवाने का यह कौन सा तरीका निकाल लिया लोगों ने?’’ तनवी के स्वर में घबराहट थी.

वोटों की राजनीति, जातिवाद, लोकतंत्र के नाम पर चल रहा ढोंगतंत्र, आरक्षण, गरीबी, बेरोजगारी, बढ़ती आबादी आदि ऐसे मुद्दे थे जिन पर चाहता तो सुदेश घंटों भाषण दे सकता था पर इस वक्त वह अवसर नहीं था. इस वक्त तो उन की पहली जरूरत किसी तरह होटल से सामान समेट कर कार में ठूंस, घर पहुंचना था. उन्हें अपने बच्चों की चिंता लगातार सताए जा रही थी.

फोन पर दोनों बच्चों, वैभव और शुभा से तनवी और सुदेश ने बात कर के हालचाल पूछ लिए थे. नौकरानी से भी बात हो गई थी पर नौकरानी ने यह भी कह दिया था कि साहब, दिल्ली का झगड़ा इधर शहर में भी फैल सकता है… हालांकि अपनी सड़क पर पुलिस वाले गश्त लगा रहे हैं…पर लोगों का क्या भरोसा साहब…

आदमी का आदमी पर से विश्वास ही उठ गया. कैसा विचित्र समय आ गया है. हम सब अपनी विश्वसनीयता खो बैठे हैं. किसी को किसी पर भरोसा नहीं रह गया. कब कौन आदमी हमारे साथ गड़बड़ कर दे, हमें हमेशा यह भय लगा रहता है.

सामान पैक कर गाड़ी में रखा और वे दोनों दिल्ली से एक तरह से भाग लिए ताकि किसी तरह जल्दी से जल्दी घर पहुंचें.

बच्चों की चिंता के कारण सुदेश गाड़ी को तेज रफ्तार से चला रहा था. तनवी खिड़की से बाहर के दृश्य देख रही थी और वह तनवी को देख कर अपने अतीत के बारे में सोचने लगा.

शहर में हो रही एक गोष्ठी में सुदेश मुख्य वक्ता था. गोष्ठी के बाद जलपान के वक्त अनूप उसे पकड़ कर एक युवती के निकट ले गया और बोला, ‘सुदेश, इन से मिलो…मिस तनवी…यहां के प्रसिद्ध महिला महाविद्यालय में अर्थशास्त्र की जानीमानी प्रवक्ता हैं.’

‘मिस’ शब्द से चौंका था सुदेश, एक पढ़ीलिखी, प्रतिष्ठित पद वाली ठीकठाक रंगरूप की युवती का इस उम्र तक ‘मिस’ रहना, इस समाज में मिसफिट होने जैसा लगता है. अब तक मिस ही क्यों? मिसेज क्यों नहीं? यह सवाल सुदेश के दिमाग में कौंध गया था.

‘और मिस तनवी, ये हैं मिस्टर सुदेश कुमार…यहां के महाविद्यालय में समाज- शास्त्र के जानेमाने प्राध्यापक, जातिवाद के घनघोर आलोचक….अखबारों में दलितों, पिछड़ों और गरीबों के जबरदस्त पक्षधर… इस कारण जाति से ब्राह्मण होने के बावजूद लोग इन की पैदाइश को ले कर संदेह जाहिर करते हैं और कहते हैं, जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है वरना इन्हें किसी हरिजन परिवार में ही पैदा होना चाहिए था.’

अनूप की बातों पर सुदेश का ध्यान नहीं था पर ‘कुमार’ शब्द उस ने जिस तरह तनवी के सामने खास जोर दे कर उच्चारित किया था उस से वह सोच में पड़ गया था.

अनूप ने कहा, ‘है तो यह अशिष्टता पर मिस तनवी की उम्र 28-29 साल, मिजाज तेजतर्रार, स्वभाव खरा, नकचढ़ा…टूटना मंजूर, झुकना असंभव. इन की विवाह की शर्तें हैं…कास्ट एंड रिलीजन नो बार. पति की हाइट एंड वेट नो च्वाइस. कांप्लेक्शन मस्ट बी फेयर, हायली क्वालीफाइड…सेलरी 5 अंकों में. नेचर एडजस्टेबल. स्मार्ट बट नाट फ्लर्ट. नजरिया आधुनिक, तर्कसंगत, बीवी को जो पांव की जूती न समझे, बराबर की हैसियत और हक दे. दकियानूस और अंधविश्वासी न हो.

अनूप लगातार जिस लहजे में बोले जा रहा था उस से सुदेश को एकदम हंसी आ गई थी और तनवी सहम सी गई थी, ‘अनूपजी, आप पत्रकार लोगों से मैं झगड़ तो सकती नहीं क्योंकि आज झगडं़ूगी, कल आप अखबार में खिंचाई कर के मेरे नाम में पलीता लगा देंगे, तिल होगा तो ताड़ बता कर शहर भर में बदनाम कर देंगे…पर जिस सुदेशजी से मैं पहली बार मिल रही हूं, उन के सामने मेरी इस तरह बखिया उधेड़ना कहां की भलमनसाहत है?’

‘यह मेरी भलमनसाहत नहीं मैडम, आप से रिश्तेदारी निभाना है…असल में आप दोनों का मामला मैं फिट करवाना चाहता हूं…वह नल और दमयंती का किस्सा तो आप ने सुना ही होगा…बेचारे हंस को दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभानी पड़ी थी…आजकल हंस तो कहीं रह नहीं गए कि नल और दमयंती की जोड़ी बनवा दें. अब तो हम कौए ही रह गए हैं जो यह भूमिका निभा रहे हैं.

‘आप जानती हैं, मेरी शादी हो चुकी है, वरना मैं ही आप से शादी कर लेता…कम से कम एक बंधी हुई रकम कमाने वाली बीवी तो मुझे मिलती. अपने नसीब में तो घरेलू औरत लिखी थी…और अपन ठहरे पत्रकार…कलम घसीट कर जिंदगी घसीटने वाले…हर वक्त हलचल और थ्रिल की दुनिया में रहने वाले पर अपनी निजी जिंदगी एकदम रुटीन, बासी…न कोई रोमांस न रोमांच, न थ्रिल न व्रिल. सिर्फ ड्रिल…लेफ्टराइट, लेफ्ट- राइट करते रहो, कभी यहां कभी वहां, कभी इस की खबर कभी उस की खबर…दूसरों की खबरें छापने वाले हम लोग अपनी खबर से बेखबर रहते हैं.’

बाद में अनूप ने तनवी के बारे में बहुत कुछ टुकड़ोंटुकड़ों में सुदेश को बताया था और उस से ही वह प्रभावित हुआ था. तनवी उसे काफी दबंग, समझदार, बोल्ड युवती लगी थी, एक ऐसी युवती जो एक बार फैसला सोचसमझ कर ले तो फिर उस से वापस न लौटे. सुदेश को ढुलमुल, कमजोर दिमाग की, पढ़ीलिखी होने के बावजूद बेकार के रीतिरिवाजों में फंसी रहने वाली अंधविश्वासी लड़कियां एकदम गंवार और जाहिल लगती थीं, जिन के साथ जिंदगी को सहजता से जीना उसे बहुत कठिन लगता था, इसी कारण उस ने तमाम रिश्ते ठुकराए भी थे. तनवी उसे कई मानों में अपने मन के अनुकूल लगी थी, हालांकि उस के मन में एक दुविधा हमेशा रही थी कि ऐसी दबंग युवती पतिपत्नी के रिश्ते को अहमियत देगी या नहीं? उसे निभाने की सही कोशिश करेगी या नहीं? विवाह एक समझौता होता है, उस में अनेक उतारचढ़ाव आते हैं, जिन्हें बुद्धिमानी से सहन करते हुए बाधाओं को पार करना पड़ता है.

कसबे में तनवी का वह निर्णय खलबली मचा देने वाला साबित हुआ था. देखा जाए तो बात मामूली थी, ऐसी घटनाएं अकसर शादीब्याह में घट जाया करती हैं पर मानमनौवल और समझौतों के बाद बीच का रास्ता निकाल लिया जाता है. तनवी ने बीच के सारे रास्ते अपने फैसले से बंद कर दिए थे.

तनवी की शादी जिस लड़के से तय हुई थी वह भौतिक विज्ञान के एक आणविक संस्थान में काम करने वाला युवक था. बरात दरवाजे पर पहुंची. औपचारिकताओं के लिए दूल्हे को घोड़ी से उतार कर चौकी पर बैठाया गया. लकड़ी की उस चौकी के अचानक एक तरफ के दोनों पाए टूट गए और दूल्हे राजा एक तरफ लुढ़क गए. द्वारचार के उस मौके पर मौजूद बुजुर्गों ने कहा कि यह अपशकुन है. विवाह सफल नहीं होगा. दूल्हे राजा उठे और लकड़ी की उस चौकी में ठोकर मारी, एकदम बौखला कर बोले, ‘ऐसी मनहूस लड़की से मैं हरगिज शादी नहीं करूंगा. इस महत्त्वपूर्ण रस्म में बाधा पड़ी है. अपशकुन हुआ है.’

क्रोध में बड़बड़ाते दूल्हे राजा दरवाजे से लौट गए. ‘मुझे नहीं करनी शादी इस लड़की से,’ उन का ऐलान था. पिता भी बेटे की तरफ. सारे बुजुर्ग भी उस की तरफ. रंग में भंग पड़ गया.

बाद में पता चला कि चौकी बनाने वाले बढ़ई से गलती हो गई थी. जल्दबाजी में एक तरफ के पायों में कीलें ठुकने से रह गई थीं और इस मामूली बात का बतंगड़ बन गया था.

तनवी ने यह सब सुना तो फिर उस ने भी यह कहते हुए शादी से इनकार कर दिया, ‘ऐसे तुनकमिजाज, अंधविश्वासी और गुस्सैल युवक से मैं हरगिज शादी नहीं करूंगी.’

तनवी के इस फैसले ने एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया. लड़के वालों को उम्मीद थी कि लड़की वाले दबाव में आएंगे. अपनी इज्जत का वास्ता देंगे, मिन्नतें करेंगे, लड़की की जिंदगी का सवाल ले कर गिड़गिड़ाएंगे.

तनवी के पिता और मामा लड़के के और उन के परिवार वालों के हाथपांव जोड़ने पहुंचे भी, किसी तरह मामला सुलटने वाला भी था पर तनवी के इनकार ने नई मुसीबत खड़ी कर दी. पिता और मामा ने तनवी को बहुत समझाया पर वह किसी प्रकार उस विवाह के लिए राजी नहीं हुई. उस ने कह दिया, ‘जीवन भर कुंआरी रह लूंगी पर इस लड़के से शादी किसी भी कीमत पर नहीं करूंगी. नौकरी कर रही हूं. कमाखा लूंगी, भूखी नहीं मर जाऊंगी, न किसी पर बोझ बनूंगी. उस का निर्णय अटल है, बदल नहीं सकता.’

कसबे में तमाम चर्चाएं चलने लगीं…लड़की का पहले से किसी लड़के से संबंध है. कसबे के किन्हीं परमानंद बाबू ने इस अफवाह को और हवा दे दी. बताया कि जिस कालिज में तनवी नौकरी करती है, उस के प्रबंधक के लड़के के साथ वह दिल्ली, कोलकाता घूमतीफिरती है. होटलों में अकेली उस के साथ एक ही कमरे में रुकती है. चालचलन कैसा होगा, लोग स्वयं सोच लें. कसबे के भी 2-3 युवकों से उस के संबंध होने की बातें कही जाने लगीं. दूसरे के फटे में अपनी टांग फंसाना कसबाई लोगों को खूब आता है.

पत्रकार अनूप तनवी का रिश्ते में कुछ लगता था. उस विवाह समारोह में वह भी शामिल हुआ था इसलिए उसे सारी घटनाओं और स्थितियों की जानकारी थी.

‘बदनाम हो जाओगी. पूरी जाति- बिरादरी में अफवाह फैल जाएगी. फिर तुम से कौन शादी करेगा?’ मामा ने समझाना चाहा था.

सुदेश ने अनूप से शंका प्रकट की, ‘ऐसी जिद्दी लड़की से शादी कैसे निभेगी, यार?’

‘सुदेशजी, इस बीच गुजरे वक्त ने तनवी को बहुत कुछ समझा दिया होगा. 28-29 साल कुंआरी रह ली. बदनामी झेल ली. नातेरिश्तेदारों से कट कर रह ली. इन सब बातों ने उसे भी समझा दिया होगा कि बेकार की जिद में पड़ कर सहज जीवन नहीं जिया जा सकता. सहज जीवन जीने के लिए हमें अपना स्वभाव नरम रखना पड़ता है. कहीं खुद झुकना पड़ता है, कहीं दूसरे को झुकाने का प्रयत्न करना पड़ता है. इस सिलसिले में तनवी से बहुत बातें हुई हैं मेरी. उसे भी जिंदगी की ऊंचनीच अब समझ में आने लगी है.’

अनूप के इतना कहने पर भी सुदेश के भीतर संदेह का कीड़ा हमेशा रेंगता रहा. एक तरफ तनवी का दृढ़निश्चयी होना सुदेश को प्रभावित करता था. दूसरी तरफ उस का अडि़यल रवैया उसे शंकालु भी बनाता था.

अपनी सारी शंकाओं को उस दिन रिश्ता पक्का करने से पहले सुदेश ने अनूप के सामने तनवी पर जाहिर भी कर दिया था. तनवी सचमुच गंभीर थी, ‘मैं जैसी हूं, आप जान चुके हैं. विवाह का मतलब मैं अच्छी तरह जानती हूं. बिना समझौते व सामंजस्य के जीवन को नहीं जिया जा सकता, यह भी समझ गई हूं. मेरी ओर से आप को कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.’

‘विवाहित जिंदगी में छोटीमोटी नोकझोंक, झगड़े, विवाद होने स्वाभाविक हैं. मैं कोशिश करूंगा, तुम्हारी कसबाई घटनाओं को कभी बीच में न दोहराऊं…उन बातों को तूल न दूं जो बीत चुकी हैं.’

‘मैं भी कोशिश करूंगी, जिंदगी पूरी तरह नए सिरे से, नई उमंग और नए उत्साह के साथ शुरू करूं…इतिहास दोहराने के लिए नहीं होता, दफन करने के लिए होता है.’

मुसकरा दिया था सुदेश और अनूप भी खुश हो गया था.

अचानक तनवी ने कुछ पूछा तो अतीत की यादों में खोया सुदेश उसे देख कर हंस दिया.

उन की शादी को पूरे 8 साल गुजर गए थे. 2 बच्चे थे. शुभा 7 साल की, वैभव 5 साल का. ऐसा नहीं है कि इन 8 सालों में उन के बीच झगड़े नहीं हुए, विवाद नहीं हुए. पर पुराने गड़े मुर्दे जान- बूझ कर न सुदेश ने उखाड़े न तनवी ने उन्हें उखड़ने दिया. जीवन के अंधेरे- उजाले संगसंग गुजारे.

बुड्ढा कहीं का: शीतला सहाय को कैसे हुआ बुढ़ापे का एहसास

फब्तियां कसते लड़के इस प्रतीक्षा में थे कि उन का भी नंबर लग जाए. सास की उम्र वाली औरतें अपने को बिना कारण व्यस्त दिखाने में लगी थीं. बिना पूछे हर अवसर पर अपनी राय देते रहना भी तो एक अच्छा काम माना जाता है. ‘‘चलोचलो, गानाबजाना करो. ढोलक कहां है? और हारमोनियम कल वापस भी तो करना है,’’ सास का ताज पहने चंद्रमुखी ने शोर से ऊपर अपनी आवाज को उठा कर सब को निमंत्रण दिया. स्वर में उत्साह था.

‘‘हांहां, चलो. भाभी से गाना गवाएंगे और उन का नाच भी देखेंगे,’’ चेतना ने शरारत से भाभी का कंधा पकड़ा.

शिप्रा लजा कर अपने अंदर सिमट गई.

तुरंत ही लड़कियों व कुछ दूसरी औरतों ने शिप्रा के चारों ओर घेरा डाल दिया. बड़ी उम्र की महिलाओं ने पीछे सोफे या कुरसियों पर बैठना पसंद किया. युवकों को इस मजलिस से बाहर हो जाने का आदेश मिला पर वे किसी न किसी तरह घुसपैठ कर रहे थे.

शादी के इस शरारती माहौल में यह सब जायज था. अब रह गए घर के कुछ बुड्ढे जिन्हें बाहर पंडाल में बैठने को कहा गया. दरअसल, हर घर में वृद्धों को व्यर्थ सामान का सम्मान मिलता है. वे मनोरंजन का साधन तो होते हैं लेकिन मनोरंजन में शामिल नहीं किए जाते.

गानाबजाना शुरू हो गया. कुछ लड़कियों को नाचने के लिए ललकारा गया. हंसीमजाक के फव्वारे छूटने लगे. छोटीछोटी बातों पर हंसी छूट रही थी. सब को बहुत मजा आ रहा था.

पंडाल में केवल 4 वृद्ध बैठे थे. आपस में अपनीअपनी जवानी के दिनों का बखान कर रहे थे. जब अपनी पत्नियों का जिक्र करते तो खुसरपुसर कर के बोलते थे. हां, बातें करते समय भी उन का एक कान, अंदर क्या चल रहा है, कौन गा रहा है या कौन नाच रहा होगा, सुनने को चौकस रहता.

‘‘क्या जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह के दांत ठीक बिठाते हुए कहा, ‘‘आप का घर है. रौनक आप के कारण है लेकिन आप को सड़े आम की तरह बाहर फेंक दिया गया है. चलिए, अंदर हमला करते हैं.’’

‘‘साले साहब, यह सब तुम्हारी बहन की वजह से है. तुम तो उसे मेरी शादी से भी पहले से जानते हो. वैसे तुम क्यों नहीं पहल करते? दरवाजा खुला है,’’ शीतला सहाय ने साले को चुनौती दी.

‘‘2-4 बातें सुनवानी हैं क्या? अपनी बहन से तो निबट लूंगा लेकिन अपनी पत्नी से कैसे पार पाऊंगा? मुंह नोच लेती है,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह लटका कर कहा.

‘‘यार, हम दोनों एक ही किश्ती पर सवार हैं,’’ शीतला सहाय ने मुसकरा कर कहा, ‘‘याद है तुम्हारी शादी में तो मुजरा भी हुआ था. बंदोबस्त क्यों नहीं करते?’’

‘‘क्यों जले पर नमक छिड़कते हो, जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने आह भर कर फिर से दांत ठीक किए और कहा, ‘‘मैं जा रहा हूं सोने. पता नहीं आप ने कचौडि़यों में क्या भरवाया था. अभी तक पेट नहीं संभला है.’’

‘‘अपनी बहन चंद्रमुखी से क्यों नहीं पूछते?’’ शीतला सहाय ने प्रहार किया, ‘‘हलवाई तो उस की पसंद का मायके से आया है.’’

रंजन प्रसाद खीसें निपोर कर चल दिए. शीतला सहाय ने देखा, बाकी के दोनों वृद्ध मुंह खोल कर खर्राटे भर रहे थे. उन्हें सोता देख कर एक गहरी सांस ली और सोचने लगे अब क्या करूं? मन नहीं माना तो खुले दरवाजे से अंदर झांकने लगे.

पड़ोस की लड़की महिमा फिल्मी गानों पर नाचने के लिए मशहूर थी. जहां भी जाती थी महफिल में जान आ जाती थी. महिमा के साथ एक और लड़की करिश्मा भी नाच रही थी. बहुत अच्छा लग रहा था. पास ही एक खाली कुरसी पर शीतला सहाय बैठ गए.

‘‘यहां क्या कर रहे हो?’’ चंद्रमुखी ने झाड़ लगाई, ‘‘कुछ मानमर्यादा का भी ध्यान है? बहू क्या सोचेगी?’’

शीतला सहाय ने झिड़क कर पूछा, ‘‘तो जाऊं कहां? क्या अपने घर में भी आराम से नहीं बैठ सकता? क्या बेकार की बात करती हो.’’ रंजन प्रसाद की पत्नी कलावती ने चुटकी ले कर कहा, ‘‘जीजाजी, बाहर घूम आइए. यहां तो हम औरतों का राज है.’’

कुछ औरतों को हंसी आ गई.

मुंह लटका कर शीतला सहाय ने कहा, ‘‘क्या करूं, साले साहब की तरह प्रशिक्षित नहीं हूं न. ठीक है, जाता हूं.’’

लगता है कहीं घूम कर आना ही होगा? शीतला सहाय अभी सोच ही रहे थे कि उन को अचानक अपने पुराने मित्र काशीराम का ध्यान आया. शादी का निमंत्रण उसे भेजा था लेकिन किसी कारणवश नहीं आया था. कोरियर से 50 रुपए का चेक भेज दिया था. शिकायत तो करनी थी सो यह समय ठीक ही था.

शीतला सहाय ने आटोरिकशा में बैठना छोड़ दिया था क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर आटो बहुत उछलता है. हर झटके पर लगता है कि शरीर के किसी अंग की एक हड्डी और टूट गई. मजबूरन बस की सवारी करनी पड़ती थी. बस स्टाप पर खड़े हो कर 561 नंबर की बस की प्रतीक्षा करने लगे जो काशीराम के घर के पास ही रुकती थी.

बस आई तो पूरी भरी हुई थी. बड़ी मुश्किल से अंदर घुसे. आगेपीछे से धक्के लग रहे थे. अपने को संभालने के लिए उन्होंने एक सीट को पकड़ लिया. दुर्भाग्य से उस सीट पर एक अधेड़ महिला बैठी हुई थी. उस के सिर पर कटोरीनुमा एक ऊंचा जूड़ा था. बस के हिलने पर शीतला सहाय का हाथ उस के जूड़े से लग जाता था. बहुत कोशिश कर रहे थे कि ऐसा न हो, लेकिन ऐसा न चाहते हुए भी हो रहा था.

अंत में झल्ला कर उस महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, जरा ठीक से खड़े रहिए न.’’

‘‘ठीक तो खड़ा हूं,’’ शीतला सहाय बड़बड़ाए.

‘‘क्या ठीक खड़े हैं. बारबार हाथ मार रहे हैं. उम्र का लिहाज कीजिए. शरम नहीं आती आप को,’’ महिला ने एक सांस में कह डाला.

‘‘क्या हो गया?’’ आगेपीछे बैठे   लोगों की उत्सुकता जागी.

‘‘कुछ नहीं. इन से ठीक से खड़े होने को कह रही हूं,’’ महिला ने रौब से कहा.

मर्दों को हंसी आ गई.

महिला के पास बैठी युवती ने कहा, ‘‘जाने दीजिए आंटी, क्यों मुंह लगती हैं. सारे मर्द एक से होते हैं.’’

महिला मुंह बना कर चुप हो गई.

अगले स्टाप पर बहुत से लोग उतर गए. खाली सीटों पर खड़े हुए यात्री झपट्टा मार कर बैठ गए. शीतला सहाय को कोई अवसर नहीं मिला. मन ही मन सोच रहे थे, उन के बुढ़ापे पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. कहां गई भारतीय शिष्टता, संस्कृति और संस्कार? लाचार और विवश खड़े रहे. टांगें जवाब दे रही थीं.

यह स्टाप शायद किसी कालिज के पास का था. धड़धड़ा कर 10-15 लड़कियां अंदर घुस आईं. उन के हंसने और किलकारी मारने से लग रहा था कि 100-200 चिडि़यां एकसाथ चहचहा रही हों. शीतला सहाय लड़कियों के बीच घिर गए.

बस एक झटके के साथ चल पड़ी. खड़े लोगों में कोई आगे गिरा तो कोई पीछे लेकिन अधिकतर संभल गए. रोज की आदत थी. शीतला सहाय ने गिरने से बचने के लिए आगे कुछ भी पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक लड़की का कंधा हाथ में आ गया.

‘‘अंकल, ये क्या कर रहे हैं?’’ लड़की ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘माफ करना, बेटी, मैं गिर गया था,’’ शीतला सहाय ने खेद प्रकट किया.

‘‘आप जैसे बूढ़े लोगों को मैं अच्छी तरह पहचानती हूं,’’ लड़की ने क्रोध से कहा, ‘‘मुंह से बेटीबेटी कहते हैं पर मन में कुछ और होता है. रोज आप जैसे लोगों से पाला पड़ता है. मेहरबानी कर के दूर खड़े रहिए.’’

‘‘क्या हुआ, जुगनी? क्यों झगड़ रही है?’’ दूसरी लड़की ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, अंकलजी धक्का दे रहे थे. मैं जरा इन्हें सबक सिखा रही थी,’’ जुगनी ने ढिठाई से कहा.

‘‘लगता है अंकलजी के घर में बेटियां नहीं हैं,’’ तीसरी लड़की ने अपना योगदान दिया.

पीछे से एक और लड़की ने फुसफुसा कर कहा, ‘‘बुड्ढा बड़ा रंगीन मिजाज का लगता है.’’ इस पर सारी लड़कियां फुल- झडि़यों की तरह खिलखिला कर हंस दीं.

शीतला सहाय शरम से पानीपानी हो गए. उन्होंने मन ही मन प्रण किया कि अब कभी बस में नहीं बैठेंगे.

शीतला सहाय की असहाय स्थिति को देखते हुए एक वृद्ध महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, आप यहां बैठ जाइए. मैं अगले स्टाप पर उतर जाऊंगी.’’

‘‘अंकलजी को आंटीजी मिल गईं,’’ किसी लड़की ने धीरे से हंसते हुए कहा.

एक और हंसी का फव्वारा.

‘‘नहींनहीं, आप बैठी रहिए. मैं भी उतरने ही वाला हूं,’’ शीतला सहाय ने झूठ कहा.

लड़कियों ने शरारत से खखारा.

वृद्घा ने क्रोध से लड़कियों को देखा और कहा, ‘‘क्या तुम्हारे मांबाप ने यही शिक्षा दी है कि बड़ों का अनादर करो? शरम करो.’’

अचानक बस में शांति छा गई.

अगले स्टाप पर वृद्धा उतर गईं और शीतला सहाय ने बैठ कर गहरी सांस ली. बस अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच रही थी. बस धीरेधीरे खाली होती जा रही थी.

जैसे ही बस रुकी किसी ने शीतला सहाय के कंधे को छुआ और कहा, ‘‘सौरी, अंकल.’’

शीतला सहाय ने नजर उठा कर देखा तो वही लड़की थी जो उन से झगड़ रही थी.

क्षीण मुसकान से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटी.’’

लड़की जल्दी से उतर कर चली गई. उस ने पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा. धीरेधीरे चलते हुए शीतला सहाय जब काशीराम के घर तक पहुंचे तो अपने दोस्त को बाहर टहलते हुए पाया.

अपने पुराने अंदाज से हंसी का ठहाका लगाते हुए दोनों गले मिले.

‘‘क्या बात है, उर्मिला ने घर से बाहर निकाल दिया?’’ शीतला सहाय ने छेड़ते हुए पूछा.

‘‘यही समझो, यार. प्रमिला ससुराल से आई है, सो उर्मिला ने कीर्तन मंडली बुला ली. अंदर औरतों का कीर्तन चल रहा है और मुझे अंदर बैठने की आज्ञा नहीं,’’ काशीराम ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अपने ही घर में अब्दुल्ला बेगाना.’’

‘‘हाहाहा,’’ शीतला सहाय ने ठठा कर हंसते हुए कहा, ‘‘तो यह बात है.’’

‘‘यह तो नहीं पूछूंगा कि क्यों आए हो लेकिन फिर भी शंका समाधान तो करना ही पड़ेगा,’’ काशीराम ने शीतला सहाय के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘यार, मेरी हालत भी कुछ तुम्हारे जैसी ही है. सब लोग नाचगा रहे हैं. मस्ती कर रहे हैं. मेरा भी मन किया कि जवानों के साथ बैठ कर तबीयत बहला लूं, लेकिन उन की दुनिया में बुड्ढों के लिए कोई जगह नहीं है,’’ शीतला सहाय ने ठंडी सास छोड़ी, ‘‘बस, घर से बाहर कर दिया.’’

शीतला सहाय ने अपने मित्र को बस में उन के साथ जो कुछ हुआ नहीं बताया क्योंकि उन्हें बुढ़ापे पर तरस आ रहा था. थोड़ी देर गप्पें मार कर उन्होंने घर का रास्ता नापा. मन हलका हो गया. बस यहीं से चलती थी सो बैठने की जगह मिल गई और वह अब की बार बिना हादसे के घर पहुंच गए.

उन्हें देखते ही बहुत लोगों ने घेर लिया मानो एक बिछुड़ा हुआ आदमी बहुत दिनों बाद मिला था.

‘‘बाबा को देखो. कितने खुश हैं. जरूर काशी अंकल से मिल कर आए होंगे,’’ निक्की ने छेड़ा.

‘‘यहां से जाते समय कितने बुड्ढे लग रहे थे. अब देखो एकदम जवान लग रहे हैं.’’

रोशन ने पूछा, ‘‘ये काशी अंकल आप को कौन सी घुट्टी पिलाते हैं?’’

शीतला सहाय हंस दिए, ‘‘कम से कम एक आदमी तो है जो बुड्ढे का बुढ़ापा भुला देता है. तुम लोग तो हमेशा मुझ से दूर रहने की कोशिश करते हो और हमेशा मेरी उम्र मुझे याद दिलाते रहते हो.’’

‘‘ठीक तो है, आदमी की उम्र उतनी ही होती है जितनी कि वह महसूस करता है. चलो, गरमगरम कचौडि़यां और ठंडी रसमलाई आप का इंतजार कर रही है,’’ रंजन प्रसाद ने कहा और शीतला सहाय का हाथ पकड़ लिया.

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